जन्म कुंडली के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम व दशम भावों
में से किसी एक भाव पर सूर्य-राहु अथवा सूर्य-शनि का योग हो तो जातक को
पितृ दोष होता है। यह योग कुंडली के जिस भाव में होता है उसके ही अशुभ फल
घटित होते हैं। जैसे प्रथम भाव में सूर्य-राहु अथवा सूर्य-शनि आदि अशुभ योग
हो तो वह व्यक्ति अशांत, गुप्त चिंता, दाम्पत्य एवं स्वास्थ्य संबंधी
परेशानियाँ होती हैं।
दूसरे भाव में यह योग बने तो
परिवार में वैमनस्य व आर्थिक उलझनें हों, चतुर्थ भाव में पितृ योग के कारण
भूमि, मकान, माता-पिता एवं गृह सुख में कमी या कष्ट होते हैं। पंचम भाव में
उच्च विद्या में विघ्न व संतान सुख में कमी होने के संकेत हैं। सप्तम में
यह योग वैवाहिक सुख में नवम में भाग्योन्नति में बाधाएँ तथा दशम भाव में
पितृ दोष हो तो सर्विस या कार्य व्यवसाय संबंधी परेशानियाँ होती हैं।
प्रत्येक भावानुसार फल का विचार होता है। सूर्य यदि नीच में होकर राहु या
शनि के साथ पड़ा हो तो पितृदोष ज्यादा होता है।
किसी
कुंडली में लग्नेश ग्रह यदि कोण (6,8 या 12) वें भाव में स्थित हो तथा राहु
लग्न भाव में हो तब भी पितृदोष होता है। पितृयोग कारक ग्रह पर यदि त्रिक
(6, 8,12) भावेश एवं भावों के स्वामी की दृष्टि अथवा युति का संबंध भी हो
जाए, तो अचानक वाहनादि के कारण दुर्घटना का भय, प्रेत बाधा, ज्वर, नेत्र
रोग, तरक्की में रुकावट या बनते कार्यों में विघ्न, अपयश, धन हानि आदि
अनिष्ट फल होते हैं। ऐसी स्थिति में रविवार की संक्रांति को लाल वस्तुओं का
दान कर तथा पितरों का तर्पण करने से पितृ आदि दोषों की शांति होती है।
चंद्र
राहु, चंद्र केतु, चंद्र बुध, चंद्र, शनि आदि योग भी पितृ दोष की भाँति
मातृ दोष कहलाते हैं। इनमें चंद्र-राहु एवं सूर्य-राहु योगों को ग्रहण योग
तथा बुध-राहु को जड़त्व योग कहते हैं।
इन योगों के
प्रभावस्वरूप भी भावेश की स्थिति अनुसार ही अशुभ फल प्रकट होते हैं।
सामान्यतः चन्द्र-राहु आदि योगों के प्रभाव से माता अथवा पत्नी को कष्ट,
मानसिक तनाव,आर्थिक परेशानियाँ, गुप्त रोग, भाई-बंधुओं से विरोध, अपने भी
परायों जैसे व्यवहार रखें आदि फल घटित होते हैं।
दशम भाव
का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो इसका राहु से दृष्टि या योग
आदि का संबंध हो तो भी पितृदोष होता है। यदि आठवें या बारहवें भाव में
गुरु-राहु का योग और पंचम भाव में सूर्य-शनि या मंगल आदि कू्र ग्रहों की
स्थिति हो तो पितृ दोष के कारण संतान कष्ट या संतान सुख में कमी रहती है।
अष्टमेश
पंचम भाव में तथा दशमेष अष्टम भाव में हो तो भी पितृदोष के कारण धन हानि
अथवा संतान के कारण कष्ट होते हैं। यदि पंचमेश संतान कारक ग्रह राहु के साथ
त्रिक भावों में हो तथा पंचम में शनि आदि कू्र ग्रह हो तो भी संतान सुख
में कमी होती है।
इस प्रकार राहु अथवा शनि के साथ मिलकर
अनेक अनिष्टकारी योग बनते हैं, जो पितृ दोष की भाँति ही अशुभ फल प्रदान
करते हैं। बृहत्पाराशर होरा शास्त्र में कुंडली में इस प्रकार के शापित योग
कहे गए हैं। इनमें पितृ दोष श्राप, भ्रातृ श्राप,मातृ श्राप, प्रेम श्राप
आदि योग प्रमुख हैं। अशुभ पितृदोषों योगों के प्रभाव स्वरूप जातक के
स्वास्थ्य की हानि, सुख में कमी, आर्थिक संकट, आय में बरकत न होना, संतान
कष्ट अथवा वंशवृद्धि में बाधा, विवाह में विलम्ब्, गुप्त रोग, लाभ व उन्नति
में बाधाएं तनाव आदि अशुभ फल प्रकट होते हैं।
यदि किसी
जातक की जन्म कुंडली सूर्य-राहू, सूर्य-शनि आदि योगों के कारण पितृ दोष हो,
तो उसके लिए नारायण बलि, नाग पूजा अपने दिवंगत पितरों का श्राद्ध, पितृ
तर्पण, ब्रह्म भोज, दानादि कर्म करवाने चाहिए। पितृदोष निवारण के लिए अपने
घर की दक्षिण दिशा की दीवार पर अपने दिवंगत पूर्वजों के फोटो लगाकर उन पर
हार चढ़ाकर सम्मानित करना चाहिए तथा उनकी मृत्यु तिथि पर ब्राह्मणों को
भोजन, वस्त्र एवं दक्षिणा सहित दान, पितृ तर्पण एवं श्राद्ध कर्म करने
चाहिए।
जीवित माता-पिता एवं भाई-बहनों का भी आदर-सत्कार
करना चाहिए। हर अमावस को अपने पितरों का ध्यान करते हुए पीपल पर कच्ची
लस्सी, गंगाजल, थोड़े काले तिल, चीनी, चावल, जल, पुष्पादि चढ़ाते हुए ॐ
पितृभ्यः नमः मंत्र तथा पितृ सूक्त का पाठ करना शुभ होगा।
हर
संक्रांति, अमावस एवं रविवार को सूर्य देव को ताम्र बर्तन में लाल चंदन
गंगाजल, शुद्ध जल डालकर बीज मंत्र पढ़ते हुए तीन बार अर्घ्य दें। श्राद्ध
के अतिरिक्त इन दिनों गायों को चारा तथा कौए, कुत्तों को दाना एवं असहाय
एवं भूखे लोगों को भोजन कराना चाहिए।