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Friday 29 May 2015

वैदिक धर्म का आरंभ



हिन्दू धर्म वेदों पर आधारित है । इसमेंं कई देवी-देवता हैं, पर उनको एक ही ईश्वर के विभिन्न रूप माना जाता है । मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो , दशकं धर्म लक्षणम् ॥
अर्थात धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रह: (इन्द्रियों को वश में रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन-वचन-कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना), ये दस धर्म के लक्षण हैं।
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ न करना चाहिये, यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
आत्मन: प्रतिकूलानि , परेषां न समाचरेत् ॥
अर्थात धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो। अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये। हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) विश्व के सभी बड़े धर्मों मेंं सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेंटे हुए है। ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, पर इसके ज़्यादातर उपासक भारत मेंं हैं और विश्व का सबसे ज्यादा हिन्दुओं का प्रतिशत नेपाल मेंं है। हालाँकि इसमेंं कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन असल मेंं ये एकेश्वरवादी धर्म है। हिन्दी मेंं इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इंडोनेशिया मेंं इस धर्म का औपचारिक नाम ''हिन्दु आगम है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है- ''हिन्सायाम दूयते या सा हिन्दु अर्थात जो अपने मन-वचन-कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दु है और जो कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है। नेपाल विश्व का एक मात्र आधुनिक हिन्दू राष्ट्र था।
भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता मेंं हिन्दू धर्म के कई निशान मिलते हैं। इनमेंं एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे, और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था। आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लगभग 1700 ईसा पूर्व मेंं आर्य अफ्गानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा मेंं बस गये। तभी से वो लोग (उनके विद्वान ऋषि) अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत मेंं मन्त्र रचने लगे। पहले चार वेद रचे गये, जिनमेंं ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद उपनिषद जैसे ग्रन्थ आये। बौद्ध और जैन धर्मों के अलग हो जाने के बाद वैदिक धर्म में काफी परिवर्तन आया। नये देवता और नये दर्शन उभरे। इस तरह आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म हुआ। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार हिन्दू धर्म का मूल कदाचित सिन्धु सरस्वती परम्परा (जिसका स्रोत मेंहरगढ की 6500 ईशापूर्व संस्कृति मेंं मिलता है) से भी पहले की भारतीय परम्परा मेंं है।
भारतवर्ष को प्राचीन काल में ऋषियों ने ''हिन्दुस्थान नाम दिया गया था जिसका अपभ्रंश ''हिन्दुस्तान है। ''बृहस्पति आगम के अनुसार:
हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात, हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
''हिन्दू शब्द ''सिन्धु से बना माना जाता है। संस्कृत मेंं सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं- पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र में मिलती है, दूसरा- कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं: सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। हिन्दू शब्द उस समय धर्म की बजाय राष्ट्रीयता के रुप मेंं प्रयुक्त होता था। चूँकि उस समय भारत मेंं केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहींं हुआ था इसलिये ''हिन्दू शब्द सभी भारतीयों के लिये प्रयुक्त होता था। भारत मेंं केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के बसने के कारण कालान्तर मेंं विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ मेंं प्रयोग करना शुरु कर दिया।
हिन्दू धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहा जाता है। ऋग्वेद मेंं सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है- वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की ''स ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन ''स ईरानी भाषाओं की ''ह ध्वनि मेंं बदल जाती है। इसलिये ''सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) में जाकर ''हफ्त हिन्दु में परिवर्तित हो गया (अवेस्ता: वेन्दीदाद, फर्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व मेंं रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत मेंं आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।
इन दोनों सिद्धान्तों मेंं से पहले वाले प्राचीन काल मेंं नामकरण को इस आधार पर सही माना जा सकता है कि ''बृहस्पति आगम सहित अन्य आगम ईरानी या अरबी सभ्यताओं से बहुत प्राचीन काल मेंं लिखा जा चुके थे। अत: उसमेंं ''हिन्दुस्थान का उल्लेख होने से स्पष्ट है कि हिन्दू (या हिन्दुस्थान) नाम प्राचीन ऋषियों द्वारा दिया गया था न कि अरबों/ईरानियों द्वारा। यह नाम बाद मेंं अरबों/ईरानियों द्वारा प्रयुक्त होने लगा।
हिन्दू धर्म मेंं कोई एक अकेले सिद्धान्तों का समूह नहींं है जिसे सभी हिन्दुओं को मानना जरूरी है। ये तो धर्म से ज़्यादा एक जीवन का मार्ग है। हिन्दुओं का कोई केन्द्रीय चर्च या धर्मसंगठन नहींं है, और न ही कोई ''पोप। इसकी अन्तर्गत कई मत और सम्प्रदाय आते हैं, और सभी को बराबर श्रद्धा दी जाती है। धर्मग्रन्थ भी कई हैं। फिर भी, वो मुख्य सिद्धान्त, जो ज़्यादातर हिन्दू मानते हैं, और वे हैं इन सब मेंं विश्वास: धर्म (वैश्विक क़ानून), कर्म (और उसके फल), पुनर्जन्म का सांसारिक चक्र, मोक्ष (सांसारिक बन्धनों से मुक्ति, जिसके कई रास्ते हो सकते हैं), और बेशक, ईश्वर। हिन्दू धर्म स्वर्ग और नरक को अस्थायी मानता है। हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों मेंं आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक मेंं पाप और पुण्य, दोनों कर्म भोग सकता है, और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हिन्दू धर्म मेंं चार मुख्य सम्प्रदाय हैं : वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)। लेकिन ज्यादातर हिन्दू स्वयं को किसी भी सम्प्रदाय मेंं वर्गीकृत नहींं करते हैं। ब्रह्म हिन्दू धर्मग्रन्थ उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्व है (इसे त्रिमूर्ति के देवता ब्रह्मा से भ्रमित न करें)। वो ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है। वो विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी मेंं विलीन हो जाता है। ब्रह्म एक, और सिर्फ एक ही है। वो विश्वातीत भी है और विश्व के परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है। वही परम ज्ञान है। ब्रह्म के दो रूप हैं: परब्रह्म और अपरब्रह्म। परब्रह्म असीम, अनन्त और रूप-शरीर विहीन है। वो सभी गुणों से भी परे है, पर उसमेंं अनन्त सत्य, अनंत चित्त और अनन्त आनन्द है। ब्रह्म की पूजा नहींं की जाती है, क्योंकि वो पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। ú ब्रह्मवाक्य है, जिसे सभी हिन्दू परम पवित्र शब्द मानते हैं। हिन्दु यह मानते है कि ओम की ध्वनि पूरे ब्रह्माण्ड में गून्ज रही है। ध्यान में गहरे उतरने पर यह सुनाई देता है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है, और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है। ब्रह्म और ईश्वर मेंं क्या सम्बन्ध है, इसमेंं हिन्दू दर्शनों की सोच अलग अलग है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार जब मानव ब्रह्म को अपने मन से जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है, क्योंकि मानव माया नाम की एक जादुई शक्ति के वश में रहता है। अर्थात जब माया के आइने मेंं ब्रह्म की छाया पड़ती है, तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब हमेंं ईश्वर के रूप मेंं दिखायी पड़ता है। ईश्वर अपनी इसी जादुई शक्ति ''माया से विश्व की सृष्टि करता है और उस पर शासन करता है। हालाँकि ईश्वर एक नकारात्मक शक्ति के साथ है, लेकिन माया उस पर अपना कुप्रभाव नहींं डाल पाती है, जैसे एक जादूगर अपने ही जादू से अचंम्भित नहींं होता है। माया ईश्वर की दासी है, परन्तु हम जीवों की स्वामिनी है। वैसे तो ईश्वर रूपहीन है, पर माया की वजह से वो हमेंं कई देवताओं के रूप मेंं प्रतीत हो सकता है। इसके विपरीत वैष्णव मतों और दर्शनों मेंं माना जाता है कि ईश्वर और ब्रह्म मेंं कोई फर्क नहींं है- और विष्णु (या कृष्ण) ही ईश्वर हैं। न्याय, वैषेशिक और योग दर्शनों के अनुसार ईश्वर एक परम और सर्वोच्च आत्मा है, जो चैतन्य से युक्त है और विश्व का सृष्टा और शासक है। जो भी हो, बाकी बातें सभी हिन्दू मानते हैं: ईश्वर एक, और केवल एक है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनो है। बेशक, ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का कारण (सृष्टा) है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, पर अपने भक्तों से प्रेम करता है और उनपर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया मेंं एक पत्ता भी नहींं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार विश्व मेंं नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार (जैसे कृष्ण) रूप ले कर आता है। ईश्वर के अन्य नाम हैं: परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान (जो हिन्दी में सबसे ज़्यादा प्रचलित है)। इसी ईश्वर को मुसल्मान (अरबी मेंं) अल्लाह, (फारसी मेंं) ख़ुदा, ईसाई (अंग्रेजी मेंं) गॉड और यहूदी (इब्रानी मेंं) याह्वेह कहते हैं।
देवी और देवता: हिन्दू धर्म मेंं कई देवता हैं, जिनको अंग्रेज़ी में गलत रूप से ''द्दशस्रह्य'' कहा जाता है। ये देवता कौन हैं, इस बारे मेंं तीन मत हो सकते हैं: अद्वैत वेदान्त, भगवद गीता, वेद, उपनिषद् आदि के मुताबिक सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं (ईश्वर स्वयं ही ब्रह्म का रूप है)। निराकार परमेश्वर की भक्ति करने के लिये भक्त अपने मन मेंं भगवान को किसी प्रिय रूप मेंं देखता है। ऋग्वेद के अनुसार, ''एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं। योग, न्याय, वैशेषिक, अधिकांश शैव और वैष्णव मतों के अनुसार देवगण वो परालौकिक शक्तियां हैं जो ईश्वर के अधीन हैं मगर मानवों के भीतर मन पर शासन करती हैं। योग दर्शन के अनुसार ईश्वर ही प्रजापति और इन्द्र जैसे देवताओं और अंगीरा जैसे ऋषियों के पिता और गुरु हैं। मीमांसा के अनुसार सभी देवी-देवता स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं, और उनके उपर कोई एक ईश्वर नहींं है। इच्छित कर्म करने के लिये इनमेंं से एक या कई देवताओं को कर्मकाण्ड और पूजा द्वारा प्रसन्न करना जरूरी है। कई अन्धविश्वासी या अनपढ़ हिन्दू भी ऐसा ही मानते हैं। इस प्रकार का मत शुद्ध रूप से बहु-ईश्वरवादी कहा जा सकता है। एक बात और कही जा सकती है कि ज्यादातर वैष्णव और शैव दर्शन पहले दो विचारों को सम्मिलित रूप से मानते हैं। जैसे, कृष्ण को परमेश्वर माना जाता है जिनके अधीन बाकी सभी देवी-देवता हैं, और साथ ही साथ, सभी देवी-देवताओं को कृष्ण का ही रूप माना जाता है। तीसरे मत को धर्मग्रन्थ मान्यता नहींं देते। जो भी सोच हो, ये देवता रंग-बिरंगी हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।
वैदिक काल के मुख्य देव थे- इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, रूद्र, विष्णु, प्रजापति, सविता (पुरुष देव), और देवियाँ- सरस्वती, ऊषा, पृथ्वी, इत्यादि (कुल 33)। बाद के हिन्दू धर्म मेंं नये देवी देवता आये (कई अवतार के रूप मेंं)- गणेश, राम, कृष्ण, हनुमान, कार्तिकेय, सूर्य-चन्द्र और ग्रह, और देवियाँ (जिनको माता की उपाधि दी जाती है) जैसे- दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, शीतला, सीता, राधा, सन्तोषी, काली, इत्यादि। ये सभी देवता पुराणों में उल्लिखित हैं, और उनकी कुल संख्या 33 करोड़ बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव साधारण देव नहींं, बल्कि महादेव हैं और त्रिमूर्ति के सदस्य हैं। इन सबके अलावा हिन्दु धर्म मेंं गाय को भी माता के रूप मेंं पूजा जाता है। यह माना जाता है कि गाय मेंं सम्पूर्ण 33 कोटि देवि देवता वास करते हैं।
आत्मा: हिन्दू धर्म के अनुसार हर मनुष्य मेंं एक अभौतिक आत्मा होती है, जो सनातन और अमर है। हिन्दू धर्म के मुताबिक मनुष्य मेंं ही नहींं, बल्कि हर पशु और पेड़-पौधे, यानि कि हर जीव मेंं आत्मा होती है। मानव जन्म मेंं अपनी आजादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्म करने पर आत्मा कुछ समय के लिये स्वर्ग जा सकती है, या कोई गन्धर्व बन सकती है, अथवा नव योनि मेंं अच्छे कुलीन घर मेंं जन्म ले सकती है। बुरे कर्म करने पर आत्मा को कुछ समय के लिये नरक जाना पड़ता है, जिसके बाद आत्मा निकृष्ट पशु-पक्षी योनि मेंं जन्म लेती है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी खत्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक ''सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमेंं मानव के पाप और पुण्य दोनों कर्म अपने फल देते हैं और जिसमेंं मोक्ष की प्राप्ति मुमकिन है।
परांत स्वर्ग मेंं और बुरे कर्म करने वाला नरक मेंं स्थान पाता है।

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