Saturday, 18 April 2015

विवाह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का संस्कार


हिन्दू संस्कृति में विवाह कभी ना टूटने वाला एक परम-पवित्र धार्मिक संस्कार है, यज्ञ है। विवाह में दो प्राणी (वर-वधू) अपने अलग अस्तित्वों को समाप्त कर, एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं और एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे दो पहियों की तरह प्रगति पथ पर बढ़ते हैं। यानि विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है, जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रिय-सुखभोग नहीं, बल्कि संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना है। 'वैदिक वाग्मयÓ में आश्रम चतुष्टय के सिद्धांत को अधिक सराहा गया है। इस परिप्रेक्ष्य में भी विवाह संस्कार की महत्ता सर्वविदित है।
संस्कार व्यक्ति को योग्यता प्रदान करने के साथ ही समाज द्वारा निर्धारित आदर्शों, मूल्यों एवं नीतियों के अनुरूप चलकर विकास की ओर अग्रसर होना सिखाते हैं। हमारे धर्म शास्त्रों में सोलह प्रकार के संस्कार बताये गये हैं जिन्हें धर्मानुसार मानना आवश्यक है। हमारे कर्म इन्हीं संस्कारों के अनुरूप होने चाहिये। इन्हीं सोलह संस्कारों में एक संस्कार है 'विवाह संस्कार।
वेदों में मनुष्य की आयु को चार भागों में विभाजित किया गया है ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम एवं संन्यास आश्रम। ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद जीवन का प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण संस्कार पाणिग्रहण संस्कार है। विवाह का शाब्दिक अर्थ है- विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है, जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है। परंतु हिन्दू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का संबंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहींं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर दो मन एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के सम्बन्ध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
विवाह संस्कार का उद्देश्य:
हिन्दू संस्कृति में विवाह कभी ना टूटने वाला एक परम-पवित्र धार्मिक संस्कार है, यज्ञ है। विवाह में दो प्राणी (वर-वधू) अपने अलग अस्तित्वों को समाप्त कर, एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं और एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे दो पहियों की तरह प्रगति पथ पर बढ़ते हैं। यानि विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है, जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रिय-सुखभोग नहीं, बल्कि संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना है। 'वैदिक वाग्मय में आश्रम चतुष्टय के सिद्धांत को अधिक सराहा गया है। इस परिप्रेक्ष्य में भी विवाह संस्कार की महत्ता सर्वविदित है। यह संस्कार न केवल समस्त आश्रमों और वर्णों का अपितु समस्त सृष्टि का मूल कारण है। जगत के छोटे से छोटे अणु से लेकर बड़े से बड़े पदार्थ का उद्भव इसी संयोग प्रक्रिया द्वारा होता है, चाहे वह मानव हो, पशु हो, पक्षी हो, लता, वनस्पति या कुछ भी हो। इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमारे आचार्यों ने विवाह संस्कार को भी षोडश संस्कारों में सम्मिलित किया और इस कर्म को मनुष्यों के लिए अनिवार्य कहा गया।
विवाह संस्था का उदय एवं विकास:
महाभारत के एक पुरातन आख्यान से पता चलता है कि पति-पत्नी के रुप में स्री-पुरुष के स्थायी संबंधों की नींव ऋषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने डाली थी। इस आख्यान के अनुसार पुरातन काल अर्थात् वैदिक पूर्व काल में कभी मानव समाज में स्री-पुरुष के यौन संबंध अनियमित थे तथा इस पशुकल्प स्थिति का अंत किया था, श्वेतकेतु ने। प्रस्तुत आख्यान के अनुसार जब श्वेतकेतु ने अपनी माँ को अपने पिता के सामने ही बलवत एक अन्य व्यक्ति के द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने साथ चलने के लिए विवश करते देखा, तो उससे रहा न गया और वह क्रूद्ध होकर इसका प्रतिरोध करने लगा। इस पर उसके पिता उद्दालक ने उसे ऐसा करने से रोकते हुए कहा, यह पुरातन काल से चली आ रही सामाजिक परंपरा है। इसमें कोई दोष नहींं, किंतु श्वेतकेतु ने इस व्यवस्था को एक पाश्विक व्यवस्था कह कर, इसका विरोध किया और स्रियों के लिए एक पति की व्यवस्था का प्रतिपादन किया।
विवाह के प्रकार:
मनु आदि पुरातन स्मृतिकारों के द्वारा पुरातन काल में विभिन्न जातियों में प्रचलित अनेक वैवाहिक प्रथाओं में से, जिन आठ को मान्यता प्रदान की थी, वे क्रमश: थीं- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच। इन आठ प्रकारों में से प्रथम चार को ब्राह्मण वर्ग के लिए, इनके अतिरिक्त राक्षस तथा गांधर्व को क्षत्रिय के लिए एवं आसुर को वैश्य तथा क्षुद्र वर्गों के लिए मान्यता दी गयी थी, किंत पैशाच तथा आसुर विवाह को आर्यों के किसी भी वर्ग के लिए उचित नहींं माना गया है। संभवत: इसलिए कि ये दोनों ही विधाएँ अनार्य वर्गीय समाज से संबंधित थी। विभिन्न धर्मशास्रीय ग्रंथों में इनके रुपों-विधाओं को जिन रुपों में व्याख्यायित किया है, वे कुछ इस प्रकार हैं -
1. ब्राह्म विवाह : इसमें कन्या का पिता किसी विद्वान् तथा सदाचारी वर को स्वयं आमंत्रित करके उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कन्या, विधि-विधान सहित प्रदान करता था।
2. दैव विवाह : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कर किसी ऐसे व्यक्ति को विधि-विधान सहित प्रदान करता था, जो कि याज्ञिक अर्थात् यज्ञादि कर्मों में निरत करता था।
3. आर्ष विवाह : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता यज्ञादि कार्यों के संपादन के निमित्त ( शुल्क के रुप में नहींं ) वर से एक या दो जोड़े गायों को लेकर विधि-विधान सहित कन्या को उसे समर्पित करता था।
4. प्राजापत्य विवाह : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता योग्य वर को आमंत्रित कर तुम दोनों मिलकर अपने गृहस्थ धर्म का पालन करो, ऐसा निर्देश देकर विधि-विधान के साथ कन्यादान किया करता था।
5. आसुर विवाह : कन्या के बांधवों को धन या प्रलोभन देकर स्वेच्छा से कन्या प्राप्त करने की प्रक्रिया को आसुर विवाह कहा जाता था।
6. गांधर्व विवाह : इसमें कोई युवक-युवती स्वेच्छा से प्रणय बंधन में बंध जाते थे अथवा यदि कोई सकाम पुरुष किसी सकामा युवती से मिलकर एकांत में वैवाहिक संबंध में प्रतिबद्ध होने का निर्णय कर लेता था, तो इसे भी गांधर्व विवाह कहा जाता था।
7. राक्षस विवाह : इस प्रकार के विवाह में विवाह करने वाला व्यक्ति कन्या के अभिभावकों की स्वीकृति न होने पर भी, उन लोगों के साथ मार-पीट करके कन्या का बलपूर्वक हरण करके उसको अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करता था।
8. पैशाच विवाह : सोई हुई या अर्धचेतना अवस्था में पड़ी अविवाहिता कन्या को एकांत में पाकर उसके साथ बलात्कार करके उसे अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करने का नाम पैशाच विवाह कहलाता था।
पुत्री का विवाह करना पिता का परम कर्तव्य समझा जाता था। यदि यौवन प्राप्त करने पर भी कन्या के अभिभावक उसका विवाह न करें, तो वे बड़े पाप के भागी होते थे।
सोहल संस्कारों में से एक विवाह संस्कार को हमारे धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है और इसके सभी विधि-विधानों को विस्तृत रूप से बताया गया है:
लगुन-ओली अथवा फलदान:
विवाह से पूर्व वर पक्ष के यहां लग्न पत्रिका खोलने (पढऩे) का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन मे अपनी क्षमता अनुसार अतिथियों को आमंत्रण कर बुलाया जाता है तथा कन्या पक्ष से कन्या के भाई-बहनें, भाभी आदि आयोजन में सम्मिलित होकर कार्यक्रम को सम्पन्न कराते हैं। इस अवसर पर आचार्य द्वारा वर एवं कन्या के भाई को भगवान के समक्ष आसन में बिठाकर दोनों से श्री गणेश जी का पूजन करवाते है, पश्चात कन्या का भाई वर की ओली भरता है। इस अवसर पर वर पक्ष द्वारा भी कन्या के भाई की निछावर करते हैं, तत्पश्चात वर ओली का सामान अपने पूजा स्थल में माँ की ओली में देकर पुन: पूजा में बैठते हैं।
अरगना एवं मांगर माटी:
लग्न लिखने के बाद यह प्रथम वैवाहिक संस्कार है। इसका सीधा सम्बध कुल देवता से है। इस आयोजन में अपने खास सगे सम्बन्धी जनों का निमंत्रण भी किया जाता है तथा महिलायें इसका बुलावा भी भेजती हैं। सबसे पहने अर्गना की पूजा होती है, कन्या को उबटन लगा स्नान कराकर नये वस्त्र (साड़ी) पहनाकर खौर (बलाय) निकाली जाती है तथा कुमकुम तिलक रोरी लगाकर आरती की जाती है, तत्पश्चात कन्या को उत्तर मुख कर के पटा पर बिठाया जाता है एवं पास ही पूरब-पश्चिम नन्द, भौजाई, सास, बहू अथवा देवरानी, जेठानी कोई भी दो महिलायें सूपा में चना या चिरौंजी एवं शक्कर लेकर सात-सात बार एक दूसरे के सूपा में उछालकर डालती है, पश्चात यह शक्कर चिरौंजी पूजा स्थान पर रख दी जाती एवं 'मांयÓ बनाते समय उक्त चिरौंजी तथा शक्कर को 'मांय के खोवा या आटा में मिला दिया जाता है, जिससे 'मांय बनती है। बाद के आगे दिनों में परिवार के खास घरों (3 या 5) में कन्या का नियंत्रण होता है, तब कन्या वही साड़ी पहन कर जाती है, तब आमंत्रित करने वाले उसकी हंसी खुशी ओली भरते है। इसी दिन अर्गना के पश्चात, सांय 4 बजे के लगभग परिवार की सभी औंरतें मिलकर गाजे-बाजे के साथ पास के ही किसी पवित्र स्थल, नदी, पोखर, तालाब, खेत अथवा बगीचे में जाती है तथा वहां का पूजन कर मिट्टी खोद कर लाती है। इसी मिट्टी से कुल देवता की पूजा में लगने वाले पात्र (बर्तन) का निर्माण किया जाता है, जिनका पूजा स्थल में रख उपयोग किया जाता है। घर वापस आकर सभी महिलाओं को बुलावा में बताशा देने का प्रचलन है। यह कार्य वर तथा कन्या दोनों पक्षों में समान रूप से सम्पन्न किया जाता है।
मण्डपाच्छादन:
यह विवाह का अति महत्वपूर्ण कार्य है। इसमें कन्या पक्ष के यहां मण्डप गाडऩे का कार्य सम्पन्न किया जाता है तथा इसी हरे बांस के मण्डप की छांव तले विवाह की सम्पूर्ण प्रक्रिया उपरांत सात फेरे लगाकर विवाह पूर्ण होता है।
मंडप के नीचे शाल वृक्ष की लकड़ी (यह लकड़ी वंश बेल वृद्धि की सूचक होती है) का उपयोग होता है एवं मंडप को आम अथवा जामुन की पत्तियों से छाया जाता है।
निषेध : बारात का दिन यदि मंगलवार का दिन हो, तो मण्डप एक दिन पूर्व ही कर लें क्योंकि मंगल भूमि का बड़ा पुत्र है, पुत्र के दिन मां (धरती) का खोदना शास्त्रों में वर्जित है, इसके परिणाम अनुकूल नहींं होते। अत: इस बात का ध्यान अवश्य रखें। जहां तक बन सके मण्डप की ज्योति न बुझे समय-समय पर दिया में तेल डालते रहें।
तेल, मायन (मातृका पूजन):
यह कार्य बरात के एक दिन पूर्व संध्या पर होता है, इसमें घर की सभी महिलायें मिलकर, बरा, मुंगौड़ा तथा मीठे पुआ अथवा गुलगुले बनाती हैं तथा इनसे वर के घर की कन्या की ओली भरते हैं। बाद में परिवार, रिश्तेदार, अतिथि, मित्र आदि सब परस्पर मिलकर खाते हंै। आज के बने बरा ही मण्डप के दिन कच्चे भोजन के साथ परसे जाते है। बारात के दिन निकासी के पूर्व कन्या पक्ष तथा वर पक्ष अपने-अपने कुल देवता का विधि विधान पूर्वक अपनी परिवारिक परम्परा के अनुसार पूजन करते हैं तथा सभी परिवार-कुटुम्ब के सदस्यों द्वारा कुल देवता के दर्शन कर पूजन करने वाले प्रमुख द्वारा प्रसाद रूप में (मांय) दी जाती है, जिन्हें बड़े सम्मान आदर के साथ हर सदस्य ग्रहण करता है तथा स्वंय को धन्य समझता है, यही पूजा तथा मांय सम्पूर्ण परिवार को एक सूत्र में बांधे रखता है। कुल देवता की ज्योति, दोनों घरों में वर बधू के वापस आने तक प्रज्वलित रहती है तथा मैहर अथवा परिवार का अन्य सदस्य जो मांय प्राप्त करने का पात्र हो को उस स्थान पर उपिस्थत रहना अनिवार्य है, जब तक वर को कन्या पक्ष द्वारा मांय न प्रदान कर दी जाय। यह कार्य वर-वधू एवं परिवार को सुख तथा समृध्दि प्रदान करने वाला है।
चीकट (भात):
यह कार्यक्रम वर कन्या दोनों पक्षों में समान रूप से सम्पन्न किया जाता है। चीकट में मामा पक्ष अपने सम्बन्धी के साथ गाजे-बाजे सहित अपनी बहन के द्वार पर आते हैं तथा चीकट का मुख्य सामान मामा-मामी अपने सिर पर रखकर खड़े होते है। बहनें अपने भाई-भाभी की चौक पूर कर आगवानी करती हैं तथा अन्दर ले जाकर शर्बत मिष्ठान्न आदि से सभी का स्वागत करती हैं तथा भाई-भाभी के गले मिलकर सुख का इजहार करतीं हैं तथा चीकट का लाया हुआ सामान सभी को दिखाने के लिये सजाकर रखती हैं। अपने मातृ पक्ष से प्राप्त सहयोग से बहिन प्रसन्न होती है।
यह कार्य कन्या पक्ष के यहां मण्डप के पास बैठकर सम्पन्न होता है, इसमें कन्या को पटा में बिठाकर रोरी तिलक लगा माला पहनाकर मामी उनकी आरती उतारकर बलायें लेती है तथा वहीं पर मधुर जल से बहन की लट धोकर सभी मामा-मामी उसका पान करते है एवं बहन के प्रति अपने दायित्व निर्वहन की रस्म पूर्ण होती है।
बारात निकासी :
यह कार्य वर के यहां बारात प्रस्थान के समय होता है। वर को सजा सवाँर कर महिलायें द्वार पर खड़ी करती हैं, वर को धूप-छांव, प्राकृतिक आपदा से बचाने, वर के ऊपर वर के मानदान, बहनोई आदि चार लोग चादर तानकर खड़े होते हैं, गाजे-बाजे के साथ मां, बहिनें, चाची, मामी, बुआ आदि बुर्जुग महिलायें सूपा, पूड़ी, मूसल आदि से वर की बलायें लेती है, काजल लगाती है, रोरी तिलक लगाकर आटा-राई से नजर उतारती है। बहनें आदि सभी तिलक लगाकर कुछ मुद्रिकायें मार्ग व्यय हेतु भाई (वर) को देती है। मन्दिर में मां का पूजन अर्चन कर नारियल भेंट दी जाती है, आशीर्वाद ग्रहण कर वहीं से गन्तव्य स्थल के लिये उपयुक्त वाहन द्वारा चल पड़ते हैं। सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना हेतु रास्ते में भी वर श्री गौरी एवं गणेश जी को अपने साथ ही लेकर चलता है।
द्वार-चार :
यह आयोजन कन्या पक्ष के द्वारा द्वार पर बारात पहुंचने पर सम्पन्न होता है। इसमें कन्या पक्ष अपने द्वार पर बारात आगमन में तोरण द्वार सजाकर, चौक आदि पूर कर, मंगल कलश धारण कर बारात आने पर उसकी अगवानी करती है। द्वार-चार से पहले बरात आने पर नाई द्वारा पांवड़े का वस्त्र बिछाया जाता है, जिसमें खड़े होकर पहले मामा से मामा की भेंट कराई जाती है तथा बाद में दोनों घर के धनी की भेंट कराई जाती है, भेंट के समय दोनों पक्ष आपस में गले मिलते हैं। तत्पश्चात कन्या पक्ष के धनी, वर के धनी को तथा कन्या पक्ष के मामा, वर पक्ष के मामा से गले मिलते हैंं तथा परस्पर एक-दूसरे की निछावर करके नाई को देंते हैं। पांवड़े का कपड़ा भी नाई लेता है। कलश, कन्या की बुआ अथवा बड़ी बहनें लेकर खड़ी होती है। प्रथम द्वार पर वर का पूजन घोड़े पर ही किया जाता है। सर्वप्रथम वर पक्ष के मुखिया (पगरैत) द्वारा कलश के सम्मान में एक हो या दो सभी में कुछ नगद राशि उचित मात्रा में उन पर रख कर कलश को नमन किया जाता है। अन्दर से कन्या आकर वर को देखकर उस पर पीले चावल फेंक कर अपनी वैवाहिक बन्धन में बंधने की स्वीकृति प्रदान करती है। पुरोहित द्वारा (कन्या एवं वर पक्ष) दोनों के सम्माननीय तथा बुजुर्ग जनों की उपिस्थति में द्वारचार की क्रिया सम्पन्न होती है। तत्पश्चात वर के साथ चल रहे श्री गौरी जी एवं गणेश जी का पूजन किया जाता है।
वरमाला कार्यक्रम:
मंच के समक्ष उपिस्थत जन समुदाय एवं मंच पर उपिस्थत पुरोहितों तथा गणमान्य जन के समक्ष, दोनों आचार्य पुरोहितों द्वारा प्रथम स्विस्त वाचन होता है, तत्पश्चात मंत्रों के ध्वनि के साथ ही वरमाला के द्वारा वर-कन्या एक-दूसरे को वरण करते हैं, उपिस्थत समाज करतल ध्वनि से स्वागत करती है।
विवाह की रस्में:
सर्वप्रथम वर पक्ष द्वारा पारिवारिक लोगों को हल्दी की गांठ देकर चढ़ावा सहित सभी वैवाहिक कार्यक्रम संपन्न कराने के लिये आमंत्रित करते हैं तथा मंडप के लिये लाये लाल तूल में सुपाड़ी एवं हल्दी की गांठ बांधकर नाई को देकर उसे मण्डप मे ऊपर रखवा देते हैं। पंडित जी के द्वारा चौक पूरे जाते हैं और पूजन क्रिया प्रारंभ की जाती है।
ध्यान रहे कि प्रथम बार मंडप में कन्या के आने पर पहली ओली फूफा/बहनोई (मानदान) से ही भरवाई जाती है। दूसरी ओली, वधु के चढ़ावा का जेवर, साड़ी पहनकर आने पर डाली जाती है। तीसरी ओली बेला सोपते समय की जाती है। चौथी ओली विवाहोपरान्त विदाई की डाली जाती है।
माता-पिता द्वारा किये जाने वाले कन्यादान के समय कन्या के भाई द्वारा गंगा प्रवाहित की जाती है। कन्यादान के समय दोनों आचार्य (पुरोहित) अपने-अपने यजमान के निर्मल यशस्वी वंशावली का वर्णन करते हैं, जिसे वंशोच्चार कहा जाता है।
विवाह संस्कार के सात वचन:
वर और कन्या की कुंडली में विद्यमान ग्रह-नक्षत्रों के मुताबिक विवाह अर्थात् लग्न का समय निकाला जाता है. जो विवाह का लग्न होता है यही युवक-युवती के परिणय बंधन में बंधने का मुहूर्त कहलाता है। हिन्दू धर्म में विवाह के समय वर-वधू द्वारा सात वचन लिए जाते हैं। इसके बाद ही विवाह संस्कार पूर्ण होता है।
विवाह के बाद कन्या वर से
वचन लेती है कि:
पहला वचन: कन्या कहती है कि स्वामि- तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि सभी शुभ कर्म तुम मेरे साथ ही करोगे, तभी मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं अर्थात् तुम्हारी पत्नी बन सकती हूं। वाम अंग पत्नी का स्थान होता है।
दूसरा वचन : कन्या वर से कहती है कि यदि तुम हव्य देकर देवताओं को और कव्य देकर पितरों की पूजा करोगे तब ही मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।
तीसरा वचन: कन्या वर से कहती है कि यदि तुम मेरी तथा परिवार की रक्षा करो तथा घर के पालतू पशुओं का पालन करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।
चौथा वचन: चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम धन-धान्य आदि का आय-व्यय मेरी सहमति से करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हैं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।
पांचवां वचन: कन्या वर से कहती है कि यदि तुम यथा शक्ति देवालय, बाग, कुआं, तालाब, बावड़ी बनवाकर पूजा करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।
छंठा वचन: कन्या वर से कहती है कि यदि तुम अपने नगर में या विदेश में या कहीं भी जाकर व्यापार या नौकरी करोगे और घर-परिवार का पालन-पोषण करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।
सातवां और अंतिम वचन: कन्या वर से कहती है यदि तुम जीवन में कभी पराई स्त्री को स्पर्श नहींं करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।
विवाह के बाद वर कन्या से
वचन लेता है कि:
पहला वचन- वर वधु से कहता है कि अगर तुम मेरी अर्धांगिनी बनना चाहती हो तो किसी पर पुरुष से नहीं मिलना, बिना बताए मायके नहीं जाना और किसी निर्जन स्थान पर नहीं जाना।
दूसरा वचन- वर वधु से कहता है कि अगर तुम मेरी अर्धांगिनी बनना चाहती हो तो रात में घर से नहीं निकलना और पानी भरने नहीं जाना।
तीसरा वचन- वर वधु से कहता है कि अगर तुम मेरी अर्धांगिनी बनना चाहती हो तो किसी भी पूजन, जप, तप में मेरे साथ रहना।
चौथा वचन- वर वधु से कहता है कि अगर तुम मेरी अर्धांगिनी बनना चाहती हो तो कभी कोई दान अकेले नहीं करना, उसमें मुझे सहभागी बनाना।
पांचवां वचन- वर वधु से कहता है कि अगर तुम मेरी अर्धांगिनी बनना चाहती हो तो किसी पर पुरुष के साथ नहीं रहना और कहीं भी अकेले नहीं जाना।
सात फेरे :
वैदिक रीति के अनुसार आदर्श विवाह में परिजनों के सामने अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लिए जाते हैं। प्रारंभ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है। भले ही माता-पिता कन्या दान कर दें, भाई लाजा-होम कर दे किंतु विवाह की पूर्णता सप्तपदी के पश्चात तभी मानी जाती है, जब वर के साथ सात कदम चलकर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है। शास्त्रों ने अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया है। वामा बनने से पूर्व कन्या द्वारा वर से यज्ञ, दान में उसकी सहमति, आजीवन भरण-पोषण, धन की सुरक्षा, संपत्ति खऱीदने में सम्मति, समयानुकूल व्यवस्था तथा सखी-सहेलियों में अपमानित न करने के सात वचन भराए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए पांच वचन भरती है। सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु, चौथा आत्मिक सुख के लिए, पाँचवाँ पशुधन संपदा हेतु, छटा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष जीवन पर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है। ये वचन किसी को अपना दास बनाने के लिए नहीं बल्कि एक संतुलित, सुचारू गृहस्थी चलाने के लिए हैं और सातवें पग में वर, कन्या से कहता है कि, हम दोनों सात पद चलने के पश्चात परस्पर सखा बन गए हैं।
शास्त्रों के अनुसार पत्नी का स्थान पति के वाम अंग की ओर यानी बाएं हाथ की ओर रहता है। विवाह से पूर्व कन्या को पति के सीधे हाथ यानी दाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है और विवाह के बाद जब कन्या वर की पत्नी बन जाती है जब वह बाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है।
तारा दर्शन:
इसके बाद धुव्र तारे के दर्शन कराए जाते हैं, धुव्र अपनी अटल भक्ति और दृढ़ निश्चय के लिए जाना जाता है। वर, वधु को धुव्र तारा दिखाता है और कहता है, तुम धुव्र तारे को देखो। वधु धु्रव तारे को देख कर कहती है, जैसे धु्रव तारा अपनी परिधि में स्थिर रहता है वैसे ही मैं भी अपने पति के घर में व कुल में स्थिर रहूं।
उसके बाद वर वधु को अरूंधती तारा दिखा कर कहता है, हे वधु अरूंधती तारे को देखो। वधु अंरूधति तारे को देख कर कहती है, हे अरूंधती, जिस तरह तू सदा वशिष्ठ नक्षत्र की परिचर्या में संलग्न रहती है, इसी प्रकार मैं भी अपने पति की सेवा में संलग्न रहूं, संतानवती होकर सौ वर्ष तक अपने पति के साथ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करूं।
अनाहत स्पर्श:
वर अपने दाएं हाथ से वधु के हृदय को स्पर्श करते हुए कहता हैं, मैं तुम्हारे, हृदय को अपने कर्मों के अनुकूल करता हूं। मेरे चित्त के अनुकूल तुम्हारा चित्त हो। मेरे कथन को एकाग्रचित होकर सुनना, प्रजा का पालन करने वाले ब्रह्मा जी ने तुम्हें मेरे लिए नियुक्त किया है।
विदाई:
जब वधु अपने नैहर से पति के घर को रुख्शत करती है। मातांए-बहनें वधु के विदा होने पर अपने दुख को प्रकट करती हैं। भाई डोली/कार रोककर अपने भाई बहिन के प्यार को प्रगट करता है। विदाई के समय कुछ दूर चलकर कन्या के पिता एवं वर के पिता (दोनों समधी) परस्पर पान बदलकर गले मिलते हैं।
विशेष:- विदाई के बाद यदि बारात नगर के बाहर किसी नदी को पार करती है तो उसके पहले किसी भी देवस्थल पर एक नारियल फोड़ें एवं नदी में सिंदोरी, सिंदारा एवं दन्दौर को प्रवाहित करें।

Pt.P.S Tripathi
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