Tuesday 21 April 2015

स्वावलंबन-परक शिक्षा ज्योतिषीय नजरिये से


जीवन का सबसे बड़ा प्रश्न ही 'रोटी अर्थात 'रोजगार है, तो क्या हम ऐसी शिक्षा व्यवस्था को श्रेष्ठ कह सकते हैं जो इस पहले मोर्चे पर ही असफल साबित हो जाए। नि:संदेह इसका जवाब 'न में ही हो सकता है। इस आधार और कसौटी पर तौलें तो भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोयम दर्जे की सिद्ध होती है। वर्तमान डिग्री प्राप्त करने से ईतर स्वावलंबन परक शिक्षा की शुरूआत होने की दरकार है। जिस समय कालपुरुष की कुंडली में वृश्चिक का शनि मौजूद है, जो कि नवीन अन्वेषण का कारक होता है। अत: शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ नया करते हुये ऐसी शिक्षा देने का प्रयास करना चाहिए जिससे डिग्री या ज्ञान के साथ-साथ समर्थवान बन सके...
आ ज जब पूरा विश्व मंहगाई, भ्रष्टाचार, नैतिकताविहीन तथा हिंसा के साये में जी रहा है, तब यह बहुत जरूरी हो जाता है कि इस वक्त की शिक्षा प्रणाली को इस प्रकार का स्वरूप दिया जाए, जिससे हर मानव के मन में चाहे वह छोटा बच्चा हो, चाहे घरेलू महिला या कामकाजी कोई व्यक्ति, सभी को अपने हिस्से की सद्भावना और सहिष्णुता के साथ उसकी जरूरी आवश्यकता को आसानी से पूरा करने की योग्यता दी जा सके । इस समय जब उच्च का गुरू और वृश्चिक का शनि गोचर में हैं तब हम सब को मिलकर एक नयी व्यवस्था की रचना करनी चाहिए। वैसे भी वृश्चिक का शनि रचनात्मकता देता है तो क्यों ना ये रचनात्मकता देश और दुनिया को शामिल करते हुए बड़े पैमाने पर किया जाए जिसमें सभी शामिल हों और सभी को इससे लाभ हो, बिना किसी नुकसान के। इसके लिए जब आज की जन्मकुंडली पर नजर डालें तो इस समय कर्क का उच्च का गुरू और वृश्चिक का शनि नयी दिशा और न्याय देने में सक्षम है। साथ ही सूर्य भी उत्तरायन का है तब इस पावन बेला में आज हम सब मिलकर संकल्प करें कि ना सिर्फ सरकार बल्कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति इस दिशा में एक छोटा सा प्रयास जरूर करेगा। इसके लिए सबसे पहले देखें कि हमारी आज तक इस स्थिति को बदतर बनाये रखने के लिए क्या और किस प्रकार की जवाबदारी कम रही है। आज जबकि जीवन का सबसे बड़ा प्रश्न ही 'रोटी अर्थात 'रोजगार है, तो क्या हम ऐसी शिक्षा व्यवस्था को श्रेष्ठ कह सकते हैं जो इस पहले मोर्चे पर ही असफल साबित हो जाए। नि:संदेह इसका जवाब 'नÓ में ही हो सकता है। इस आधार और कसौटी पर तौलें तो भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोयम दर्जे की सिद्ध होती है। इसी बात को दूसरे शब्दों में कुछ यूं कहा जा सकता है कि डिग्रियों की चमक-दमक वाली यह शिक्षा प्रणाली एक ऐसी व्यवस्था है जो साल दर साल बेरोजगारों की लम्बी-चौड़ी फौज पैदा कर रही है। भारत में ऐसे लाखों नवयुवक मिल जाएंगे जो इस शिक्षा के कारण पैतृक काम करने में अक्षम हो चुके हैं और कोई हुनर न होने की वजह से कहीं नौकरी के लिए भी तरस रहे हैं। क्योंकि इस शिक्षा प्रणाली ने उन्हेंं यह सब सिखाया ही नहींं। अगर हम छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें तो जब से इस प्रदेश का निर्माण हुआ है तब से शिक्षा का स्तर लगातार पतन की ओर जा रहा है। रोजगार के लिए प्रयासरत यहां की प्रतियोगिता परीक्षा से संबंधित उच्च संस्था लगातार विवादों में रही हैं, जिसे लगातार भ्रष्टाचार तथा अन्य प्रकार के आक्षेप मिलते रहे हैं। इस संबंध में ज्योतिषीय गणना देखें तो छत्तीसगढ़ का निर्माण हुआ सन् 2000 में हुआ, जब नीच का शनि और मिथुन का राहु दोनों मिलकर मन एवं मनोदशा को खराब कर रहे थे और यह स्थिति लगातार शनि के उच्चस्थ होते तक रही। इस प्रकार जब शनि, ''कन्या और तुला राशि में प्रवेश नहीं कर गया तब तक स्थिति लगातार खराब रही। उसके बाद जब शनि तथा गुरू एवं राहु की स्थिति में बदलाव शुरू हुआ, उसके बाद से लोगों में जागरूकता दिखाई देनी शुरू हुई। इस प्रकार तब से अब तक यदि युवाओं का मनोबल देखें तो वे शिक्षा तथा उसके उपरांत आय के साधन प्राप्त करने के संबंध में दिगभ्रमित ही हैं। किंतु अब युवाओं के साथ-साथ बुद्धिजीवी भी इस शिक्षा प्रणाली और रोजगार परक प्रयास के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रहे हैं।
इसलिए शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिए जो विधार्थी को केवल यह न बताए कि अकबर के पिता का नाम क्या था बल्कि वह ये भी सिखाए कि मुर्गी के चूजों को बाजार में बेचकर कैसे आय अर्जित की जा सकती है। भारत को ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है जो विद्यार्थी को विभिन्न स्तरों के उत्तीर्णता प्रमाण पत्र व डिग्रियां देने के साथ-साथ ही कुछ विशेष तकनीकी व प्रबंधन कार्यकलापों में इस तरह दक्ष बनाए कि डिग्री स्तर एवं उसके आगे की उच्चतर शिक्षा अध्ययन के समय वे अपना समस्त खर्च स्वयं वहन कर सकें तथा कैरियर के दृष्टिकोण से स्थायी तौर पर अपने पैरों पर खड़े हो सकें।
इस समय जब कि उच्च के गुरू और वृश्चिक का शनि उदारता के साथ नये प्रयोग करने की प्रेरणा दे रहा है तब हमें नये प्रयोग, शिक्षा और उससे जुड़े रोजगार परक उद्देश्यों को पूरा करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर 'स्वयं सहायता समूह एवं ग्रामीण प्रबंधनÓ पाठयक्रम की सहायता से समूह का गठन कर रोजगार प्राप्त करें एवं विभिन्न रोजगार जैसे मशरूम एवं शहद उत्पादन जैसी विद्या से अच्छी आय प्राप्त करें। दूसरी ओर उच्च शिक्षा पूरी करने के उपरांत व्यवसाय में लगने के अतिरिक्त कैरियर के अन्य विकल्प भी खुले हैं।
क्या इस प्रकार की व्यवस्था देश के हर गांव में नहींं हो सकती। हो सकती है अगर शिक्षा में व्यापक पैमाने पर बदलाव किया जाए तो। गांधी जी तो 'रामराज्यÓ की अपनी अवधारणा में शुरू से ही इस बात पर जोर देते रहे कि हमें एक ऐसी अर्थव्यवस्था की जरूरत है जिसमें सभी गांव आत्मनिर्भर हो सकें। इन तथ्यों को मद्देनजर रखते हुए हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को कमाई और पढ़ाई के बुनियादी सिद्धांत के अंतर्गत लाना ही होगा। अन्यथा तेजी से बढ़ती शिक्षित युवाओं की विशाल बेरोजगार जनसंख्या राष्ट्रीय प्रगति में घातक ही सिद्ध होगी।
दक्षता आधारित शिक्षा:
(जब बुध और गुरू उच्च अथवा सकारात्मक स्थान पर हों)
इस समय जब गुरू, बुध, शनि और राहु ने अपनी अपनी स्थितियां अनुकूल की है तो हमें भी नये प्रयोग करते हुए कमाई और पढ़ाई के मूल सिद्धांत पर आधारित शिक्षा या साक्षरता की बात करते समय यह भी ध्यान में रखना होगा कि भारत में अर्थव्यवस्था को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बांटकर देखा जा सकता है। शहरी व महानगरीय अर्थव्यवस्था एवं ग्रामीण व कस्बाई अर्थव्यवस्था। चूंकि दोनों क्षेत्रों की मांगें व आवश्यकताएं व्यापक तौर पर अलग-अलग हैं अत: इन आवश्यकताओं को ही आधार बनाकर दोनों क्षेत्रों के लिए कुछ अलग प्रकार की दक्षता आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू करने की जरूरत है। ताकि ऐसी शिक्षा प्राप्त युवाओं को अपने क्षेत्र में ही अपनी मूल प्रकृति व वातावरण के अनुसार रोजगार की प्राप्ति हो सके। दूसरी ओर सरकार को यह भी ध्यान में रखना होगा कि निम्नवर्ग एवं निम्न मध्यमवर्ग के विद्यार्थियों के लिए दक्षता प्रशिक्षण आधारित शिक्षा को खर्च की दृष्टि से अनुकूल बनाए रखे। दक्षता कार्यक्रमों, कक्षाओं एवं कार्यशालाओं में प्रशिक्षार्थी विद्यार्थियों द्वारा किया गया उत्पादन भी सरकार के लिए आय का एक अच्छा स्रोत हो सकता है। कार्यशालाओं में होने वाला उत्पादन या मरम्मत कार्य सरकारी खर्चों के ढाचों में काफी हद तक सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। इसके लिए प्रत्येक प्रदेश, जिला तथा सभी लोगों की कुंडली के अनुसार, जिसे जानना अति सरल है कि जैसे किसी बच्चे का झुकाव चित्रकला या संगीत की ओर हो तो आसानी से जाना जा सकता है कि इस बच्चे पर राहु का प्रभाव है वहीं तकनीकी योग्यता का प्रदर्शन दिखाता है कि उसकी कुंंडली में गुरू, बुध, सूर्य तथा शनि की स्थिति बेहतर है। यदि खेलकूद में योग्यता नजर आ रही हो तो मंगल तथा केतु की स्थिति बेहतर होना प्रतीत होता है। इस प्रकार आसानी से बिना विद्वान ज्योतिष बने ज्योतिष के प्रारंभिक ज्ञान से उस बच्चे को रोजगार मूलक शिक्षा के क्षेत्र में बनाये रखा जा सकता है।
कई क्षेत्र हैं जिसमें ऐसी व्यवस्था हो सकती है। उदाहरण के लिए यदि सरकार इंटरमीडिएट पाठयक्रम व्यवस्था के अनेक रूपों व गतिविधियों में से संभावित एक 'सौर उर्जा संचालित उपकरणों का निर्माण व मरम्मत में दक्षता कार्यक्रम चलाए तो एक तरफ कार्यशालाओं में हजारों की संख्या में अच्छा उत्पादन भी हो सकता है तो वहीं दूसरी ओर सरकारी क्षेत्र में खराब पड़े सौर उपकरणों की मरम्मत भी सीखने की प्रक्रिया के दौरान ही बिना किसी खर्च के हो सकेगी। भारत की विशाल ऊर्जा जरूरतें किसी से छिपी नहींं है, अत: इस क्षेत्र में प्रशिक्षण लेने वालों के लिए बेरोजगारी की कल्पना भी मुश्किल ही प्रतीत होती है। दक्षता आधारित शिक्षा को दो रूपों में निम्न प्रकार से बांटकर देखा-समझा जा सकता है।
1. ग्रामीण पृष्ठभूमि व आवश्यकताओं पर केंद्रित दक्षता शिक्षा।
2. शहरी व महानगरीय पृष्ठभूमि व आवश्यकताओं पर केंद्रित दक्षता शिक्षा।
ग्रामीण केन्द्रित दक्षता शिक्षा:
(जब बुध, शुक्र तथा राहु का असर ज्यादा हो तो)
जब भी किसी भी व्यक्ति में शुक्र, केतु, बुध, शनि का असर हो तो उसे छोटे छोटे व्यवसाय तथा कार्य के क्षेत्र में लगाया जा सकता है, जिन्हें ग्रामीण परिवेश में भी आसानी से किया जा सकता है। विभिन्न राज्यों की राजधानियों एवं बड़े शहरों को छोड़कर देश के शेष क्षेत्रों में इस माडल को लागू किया जा सकता है। यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहींं है कि भारत की करीब साठ से सत्तर फीसदी आबादी ग्रामीण पृष्ठभूमि से सीधे संबंधित है। इस विशाल आबादी व क्षेत्र में अर्थव्यवस्था की संरचना काफी भिन्न है। यह क्षेत्र हमेशा से ही उर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अनेक बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित रहा है। अत: उर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि एवं पशुपालन की आधुनिक तकनीकें, खाद्य प्रसंस्करण एवं कुटीर स्तर के उत्पादन तथा हस्तशिल्प आदि इस क्षेत्र में कार्ययोजनाओं एवं प्रशिक्षण के महत्वपूर्ण आधार साबित हो सकते हैं। ऐसी तमाम जरूरतों को ध्यान में रखते हुए दक्षता आधारित शिक्षा विकसित करने से एक तो ग्रामीण पृष्ठभूमि का युवा अपनी जमीन से बाहर पलायन करने की अपेक्षा शिक्षा प्राप्त कर लेने के उपरांत स्वयं ही आधारभूत संरचनाओं के निर्माण व तकनीक में दक्षता हासिल कर लेने के उपरांत उसे अपने ही क्षेत्र व पृष्ठभूमि में अद्भुत व्यावसायिक सफलता व रोजगार प्राप्त करने का मौका मिल सकेगा।
ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों व इंटरकालेजों आदि में गणित, इतिहास, विज्ञान जैसे पारंपरिक विषयों के साथ-साथ कई अन्य तकनीकी पाठयक्रमों को भी संयुक्त रूप से शामिल किया जा सकता है। कृषि एवं पशुपालन से जुड़ी तमाम तकनीकों की मूलभूत जानकारी छात्रों के लिए उपयोगी साबित हो सकती है। औषधीय पौधों के उत्पादन का प्रशिक्षण, सुगंधित पौधों व फूलों की खेती का प्रशिक्षण, मशरूम उत्पादन, मुर्गी पालन, मछली पालन, दुग्ध, पशुपालन आदि का विस्तृत अध्ययन अत्यंत लाभदायक सिद्ध हो सकता है। विद्यार्थी इच्छानुसार इनमें से किसी एक या दो विषयों को गहन अध्ययन के लिए चुन सकते हैं। केंद्र व राज्य सरकारें इनके प्रशिक्षण हेतु अलग से पाठयक्रम व प्रशिक्षण शिविर चलाती हैं। विधार्थी अगर प्रशिक्षण के बाद इस तरह के उद्यम करना चाहें तो 'नाबार्डÓ जैसी अनेक सरकारी संस्थाए व बैंक धन भी मुहैया कराते हैं, जिनका व्यापक पैमाने पर प्रचार-प्रसार होना जरूरी है।
बागवानी एवं ग्रामीण प्रबंधन भी अच्छे विषय हो सकते हैं। प्राय: देखा जाता है कि गामीण क्षेत्रों में कृषि उपयोग के अतिरिक्त भी अत्यधिक मात्रा में खाली जमीन व्यर्थ पड़ी रहती है। खाली भूमि पर एवं खेत के चारों ओर मेढ़ों पर अनेक फलदार वृक्षों जैसे आम, अमरूद, कटहल, बेर आदि लगाने से अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है। चूंकि फलदार पौधों के रोपण, देखरेख एवं बीमारियां व कीटों से बचाव से लेकर फलों की सही स्थिति में तुड़ाई एवं विपणन तक के क्रियाकलाप विस्तृत ज्ञान व तकनीक का विषय हैं, अत: इसका प्रशिक्षण भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है। गांव की उर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर तमाम आवश्यकताओं की समझ एवं उसकी आपूर्ति तथा क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों का सही प्रयोग ग्रामीण प्रबंधन के अंतर्गत आता है जिसका प्रशिक्षण न केवल युवाओं के लिए बल्कि उनके परिवार सहित पूरे गांव की आत्मनिर्भरता के लिए अत्यंत लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
गांव एवं शहर की आवश्यकताओं को पूरा करनेवाले अनेक कुटीर उद्योगों की स्थापना, संचालन एवं उत्पादन से लेकर विपणन व संतुलित वित्तीय प्रबंधन की गहरी जानकारी भी शिक्षित युवाओं के लिए आकर्षक स्वरोजगार एवं ग्रामीण उन्नति के स्वर्गद्वार खोल सकती है। दरअसल वर्तमान समय में कुटीर उद्योगों की स्थापना एवं संचालन लाभकारी तो बहुत है लेकिन बिना प्रशिक्षण इस क्षेत्र में कुछ किया जाना बहुत मुश्किल है।
कहना न होगा कि ऐसे तमाम तकनीकी पाठयक्रमों की सामान्य सी जानकारी वाले युवा संतोषजनक कैरियर व आत्मनिर्भरता तो पा ही सकेंगे साथ ही उच्च प्रतिभा वाले युवा अपनी महत्वाकांक्षाओं को एक विशाल औद्योगिक रूप दे देने में भी सक्षम हो सकते हैं।
शहर व महानगर केन्द्रित दक्षता शिक्षा:
(जब सूर्य, गुरू, मंगल तथा चंद्रमा का असर हो)
ग्रामीण क्षेत्रों की भांति शहर व महानगर की अर्थव्यवस्था का परिदृश्य भी बहुत भिन्न है। दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों के बारे में तो एक पुरानी कहावत है कि यहां सबका पेट पल जाता है। हम यह भी कह सकते हैं कि यहां बेरोजगारी की अवधारणा अपनी मूल प्रकृति से कुछ अलग है। जब कोई अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भली भांति पूरा कर पाने लायक धन नहींं अर्जित कर पाता तो हम इसे भी एक प्रकार की बेरोजगारी ही कह सकते हैं। शहर एवं महानगरों में पढऩे लिखने वाले युवाओं में कहीं न कहीं महत्वाकांक्षाओं का आवेग बहुत उच्च व प्रबल होता है। वह यह न तो जान पाता है और न ही समझ पाता है कि इतिहास, विज्ञान, वाणिज्य, भूगोल जैसे पारंपरिक विषयों में प्रथम श्रेणी की डिग्री पा लेना ही अच्छे रोजगार प्राप्ति की योग्यता नहींं है। वैसे तो सरकार व निजी क्षेत्रों की कई नौकरियों के लिए मात्र डिग्री भी पर्याप्त होती है किंतु एक ओर तो ऐसी नौकरियों की संख्या बेरोजगारों की विशाल फौज के आगे नगण्य है एवं दूसरी ओर उसमें भी प्रतियोगिता का स्तर इतना अधिक बढ़ गया है कि अच्छी योग्यता के बावजूद सभी इसमें सफल हो जाए, यह अतिशयोक्ति ही होगी।
जब सूर्य या गुरू हो तो उच्च स्तर के प्रशासकीय कार्य, मंगल या राहु हो तो इलेक्टानिक तथा मीडिया और चंद्रमा शनि आदि हो तो अन्य शहरी कार्य संभव हैं। अत: मीडिया, पर्यटन, होटल, व्यापार, उद्योग, मार्केटिंग, प्रबंधन लगभग प्रत्येक क्षेत्र में अब जैसे-जैसे उच्च तकनीकों का समावेश होने लगा है वैसे-वैसे पारंपरिक डिग्री धारको के लिए अब वहां अवसर समाप्त ही होते जा रहे हैं। लगभग एक दशक पहले तक यदि किसी युवा में समसामयिकी की गहरी समझ व भाषा तथा लेखन पर अच्छा अधिकार होता था, तो उसे कहीं न कहीं किसी अच्छे अखबार या पत्रिका में रोजगार के अवसर मिल ही जाते थे। किंतु वर्तमान में मीडिया उच्च तकनीक पर आधारित हो गई है। प्रेस व इलेक्ट्रानिक दोनों माध्यमों में कम्पयूटर, इंटरनेट से लेकर अत्याधुनिक उपकरणों तथा कैमरों व वीडियों कांफ्रेंसिंग इत्यादि की गहरी तकनीकी जानकारी इतनी अधिक वांछित हो गई है कि कहीं न कहीं भाषा, समसामयिक बोध व लेखन पर अधिकार की मूलभूत प्रतिभाएं भी गौण बनकर रह गई हैं। दूसरे शब्दों में यह युग सूचना, तकनीक व विशेष दक्षता का युग है इसलिए पारंपरिक विषयों का अध्ययन ज्ञानवर्धक भले ही हो, लेकिन यथार्थरूप में वह रोजगार परक न हो पाने के कारण अब अधिक लाभदायक नहींं रह गया है।
शहरों व महानगरों में वैसे तो पहले से ही दक्षता आधारित शिक्षा का स्वरूप मौजूद है, लेकिन वह अभी व्यापक नहींं है। आईटीआई इसका एक अच्छा उदाहरण है। लेकिन आईटीआई प्रशिक्षण लेने वाले विद्यार्थियों के साथ भी एक समस्या यह हो जाती है कि पारंपरिक विषयों से उनका नाता टूट जाता है। फलत: पारंपरिक विषयों में उच्च शिक्षा हेतु आगे के लिए सभी द्वार बंद हो जाते हैं। अब ऐसे में दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं उभर रही हैं। एक वह जो परंपरागत हैं और दूसरी वह जो परंपरागत अध्ययन से दूर विशुद्ध तकनीकी पर आधारित हैं। इस तरह रोजगार के लिए कठोर सीमांकन पैदा हो जाता है जो नहींं होना चाहिए। हमें तो ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए जिसमें एक ओर तो विद्यार्थी स्कूल व स्नातक स्तर पर परंपरागत विषयों का अध्ययन भी करे और साथ-साथ एक या दो रोजगार क्षेत्रों का तकनीकी ज्ञान व प्रशिक्षण भी प्राप्त करता रहे। इस सह-शिक्षा व्यवस्था के शहरी व महानगरीय माडल में कुछ विशेष चीजों का समावेश किया जा सकता है। जैसे कम्प्यूटर में दक्षता आज प्रत्येक क्षेत्र के रोजगार में सबसे महत्वपूर्ण योग्यता बन चुका है जिसका पारंपरिक स्कूली पाठयक्रम में अब भी विशेष स्थान नहींं बन पाया है, यह सिर्फ एक औपचारिकता मात्र बनकर रह गयी है। सरकार को चाहिए कि वह प्रत्येक इंटरमीडिएट पास छात्र के लिए यह सुनिश्चित करें कि वह इसी दौरान कम्प्यूटर का भी आधारभूत प्रशिक्षण प्राप्त कर चुका हो। हिंदी, अंग्रेजी भाषाओं के साथ-साथ किसी विदेशी भाषा जर्मन, फ्रेंच, चीनी, जापानी आदि के भी ऐच्छिक प्रशिक्षण की शुरूआत भी की जा सकती है जो कैरियर की दृष्टि से महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।
कम्प्यूटर, टेलीविजन, मोबाइल, फ्रिज जैसे इलेक्ट्रिकल व संचार उपकरणों की मरम्मत से लेकर विशिष्ट औद्योगिक इकाइयों के लिए बुनियादी अभियांत्रिक दक्षता को भी स्कूली व स्नातक स्तर के पाठयक्रम में एक स्थान दिया जा सकता है। हिंदी व अंग्रेजी भाषा-भाषी पाठयक्रमों को प्रेस व मीडिया प्रशिक्षण के साथ बहुपयोगी बनाया जा सकता है ताकि एक ओर तो विद्यार्थी भाषा का गहन अध्ययन करें और दूसरी ओर उस भाषा के रोजगारपरक तकनीकी पहलू में भी प्रशिक्षण प्राप्त करें। होटल व पर्यटन जैसे अन्य क्षेत्रों से जुड़ा बुनियादी तकनीकी प्रशिक्षण भी विद्यार्थियों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता है। इसी तरह विस्तृत अध्ययन व शोध के पश्चात ऐसे कई अन्य क्षेत्रों से जुड़ा तकनीकी प्रशिक्षण भी स्कूली व विश्वविद्यालय अध्ययन का एक भाग बनाया जा सकता है।
दक्षता आधारित शिक्षा का क्रियान्वयन:
(जब बुध एवं शनि प्रभावी कारक ग्रह हों)
दक्षता आधारित शिक्षा के क्रियान्वयन में कई समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। पहली, सार्थक क्षेत्रों की पहचान व चुनाव तथा उनके प्रशिक्षण हेतु व्यापक व्यवस्था की समस्या। दूसरी विद्यार्थियों पर बोझ बढ़ जाने की समस्या। इस बारे में यह कहा जा सकता है कि व्यापक मशीनरी व महंगे प्रशिक्षण को छोड़ निम्न व मध्यवर्ती प्रकार के तकनीकी प्रशिक्षण को सरकार अपने विद्यालयों व विश्वविद्यालयों के परंपरागत विषयों के पाठयक्रम में शामिल करें तो उस पर एक तो बोझ नहींं पड़ेगा दूसरे रोजगार मुहैया कराने का दबाव भी कम हो जाएगा। इसके ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर देखते हैं कि जब भी किसी क्षेत्र या व्यक्ति में बुध, शनि एवं राहु प्रभावी हो तो उसकी दक्षता अच्छी होती है साथ ही अगर बुध, सूर्य एवं गुरू उच्च या बेहतर स्थिति में हो तो समझ अच्छी होती है, जिससे उसका तकनीकी ज्ञान का स्तर अच्छा हेाता है। अत: इस प्रकार ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर दक्षता आधारित पाठ्यक्रम में प्रशिक्षण दिया जा सकता है।
दक्षता प्रशिक्षण के समावेश से पाठयक्रम का बोझ बढ़ जाना एक दूसरी समस्या हो सकती है। यहां यह किया जा सकता है कि भारत के लगभग सभी स्कूलों व विश्वविद्यालयों में गर्मियों के दौरान दो से तीन माह का लंबा अवकाश सत्र होता है। हम इस अवधि को तकनीकी प्रशिक्षण अवधि के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। अथवा ऐसा भी किया जा सकता है कि एक वर्ष के शिक्षा सत्र में छह माह ही परंपरागत व दक्षता प्रशिक्षण का मिला-जुला सह प्रशिक्षण पाठयक्रम चले और शेष सत्र परंपरागत अध्ययन के लिए ही छोड़ दिया जाए। बोझ कम करने के लिए परंपरागत विषयों के पाठयक्रम में यदि बीस से पच्चीस फीसदी कटौती कर दी जाए तो भी काम बन सकता है। लेकिन यह अनिवार्य रूप से सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि शिक्षण संस्थान व विद्यार्थी दोनों ही दक्षता प्रशिक्षण को हल्के में न लें। इसलिए वार्षिक परीक्षाओं में कुल प्राप्तांक प्रतिशत में इसे भी अनिवार्य रूप से जमा करके ही विद्यार्थी की कुल योग्यता आंकी जाए।
इसमें तो कोई दो राय नहींं कि इस तरह की दक्षता आधारित शिक्षा व्यवस्था आरंभ की गई तो न केवल ये हमारी वर्तमान बल्कि आने वाली युवा पीढिय़ों के लिए भी अत्यंत आत्मनिर्भरता परक व कल्याणकारी साबित होगी। इस प्रकार व्यहारिक तथा आत्मनिर्भरता परक शिक्षा एवं बेरोजगारी को कम करने हेतु ना सिर्फ तकनीकी या स्वरोजगार की योजना अपितु ज्योतिषीय गणनाओं का सहारा लेते हुए एक अच्छी शिक्षा व्यवस्था को आधार बनाते हुए रोटी तथा रोजगार मूलक शिक्षा को बढावा दिया जाए तो भविष्य में आने वाली पीढिय़ों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वालंब तो प्राप्त होगा ही उसके साथ मंहगाई तथा भ्रष्टाचार जैसे राक्षसों से भी निजात पाया जा सकता है।

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