Friday, 10 April 2015

मूंलाक और प्रेम !!!!!!!!!!!!!!

मूंलाक और प्रेम !!!!!!!!!!!!!!
मूंलाक 1 के जातकों के लिए अंक 4 मित्र अंक हैं तथा सम अंक 2, 3, 7, 9 हैं इन्हें प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु अंक 1 के शत्रु 5 व 6 है इस मूंलाक के जातकों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूलांक2 के जातकों के लिए मित्र अंक 7, सम अंक 1, 3, 4, 6 है इन्हें प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं शत्रु अंक 5 व 8 हैं इन्हें प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूलांक 3 के जातकों के लिए मित्र अंक 6, 9 सम अंक 1, 2, 5, 7 हैं इन्हें प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं। शत्रु अंक 4 व 8 हैं।
मूंलाक 4 के जातकों के लिए मित्र अंक 1, व सम अंक 2, 6, 7, 9 है इन्हें प्रेम प्रस्ताव रख सकते हें तथा अंक 3 व 5 अंक शत्रु हैं इन्हों के सम्मुख प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 5 के जातकों के लिये मित्र अंक 3, 9, सम अंक 1, 6, 7, 8 वालों को प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं शत्रु अंक 2 व 4 है इन मूंलाक वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 6 के जातकों के लिये मित्र अंक 3, 9 सम अंक 2, 4, 5, 6 वालों को प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु 1 और 8 अकों के मूंलाक वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 7 के जातकों के लिये मित्र अंक 2, 6 तथा सम अंक 3, 4, 5, 8 वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु शत्रु अंक 1 और 9 के मूंलाक वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 8 के जातकों के लिये मित्र अंक 4 सम अंक 2, 5, 7, 9 के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु शत्रु अंक 3, 6 के मूंलाक वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 9 के जातकों के लिये मित्र अंक 3, 6 हैं सम अंक 2, 4, 5, 8 हैं इन अंकों के जातकों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु शत्रु अंक 1 और 7 अकों वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।



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ज्यों-ज्यों मन शांत होता जायेगा, त्यों-त्यों उसमें परमात्मा का सुख उभरता जायेगा

जन्म-मरण मन की चंचलता और आसक्ति का फल है। दुःख-क्लेश का मूल है, मन की चंचलता और आसक्ति। गीता में अर्जुन कहता है श्रीकृष्ण सेः
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढ़म्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
ʹहे कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है तथा बड़ा दृढ़ और बलवान है, इसलिए इसको वश में करना वायु की भाँति अति दुष्कर मानता हूँ।ʹ
तब श्री कृष्ण कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
ʹहे महाबाहो ! निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास से अर्थात् स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से मन वश में होता है।ʹ (गीताः 6.34.35)
ज्यों-ज्यों मन शांत होता जायेगा, त्यों-त्यों उसमें परमात्मा का सुख उभरता जायेगा। ज्यों-ज्यों मन अनासक्त होगा, त्यों-त्यों मन परमात्म-प्रेम में पावन होता जायेगा।
आलस्य को भगाने के लिए परिश्रम, उत्साह, स्फूर्ति और तत्परता के विचार सहायक हैं। ऐसे ही कामुकता को दूर करने के लिए ब्रह्मचर्य के विचार, मातृभावना, पवित्रता एवं संयम के विचार, विकारों के परिणाम के विचार करना मददरूप बनता है। क्रोध को भगाना हो तो शांति, प्रेम, क्षमा, मैत्री, सहानुभूति, सज्जनता, उदारता एवं आत्मभाव के विचार सहायक हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, निराशा-हताशा, आलस्य आदि आत्मसुख को लूटने वाले विकार हैं।
विकारों की जगह पर निर्विकारता ले आओ। आपका जीवन सुखमय हो जायेगा, आनंदमय हो जायेगा, मधुमय हो जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- अगर तुम्हें इसी जीवन में अपने जीवनदाता स्वभाव को पाना है, सारे दुःखों से सदा के लिए छूटना तो...
जितात्मनः प्रशांतस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।
जिसने अपने-आप पर विजय कर ली है, वह शीत-उष्ण अर्थात् अनुकूलता और प्रतिकूलता को सहने वाला शरीर के प्रभाव से प्रभावित नहीं होता वरन् शरीर पर उसका प्रभाव बढ़ जाता है। दुःख और सुख मन को होता है। दुःख-सुख में जो सम रहता है, वह मन के प्रभाव से दबता नहीं और वह मन का स्वामी होने में सफल हो जाता है। मान-अपमान की गाँठ बुद्धि को होती है, यह समझकर जो उससे परे हो जाता है, उसे मान-अपमान प्रभावित नहीं कर सकते। जैसे, भगवान का प्रभाव प्रकृति पर पड़ता है वैसे ही इस जीवात्मा का प्रभाव शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ जाये तो जीवात्मा का प्रभाव शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ जाये तो जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न हो जाये। अगर मन पर अपना प्रभाव पड़ा तो वासनाएँ शांत होने लगेंगी और अपने चित्त में परमात्मा से दूरी की जो भ्रांति है, वह दूर हो जायेगी। फिर अपने ही मन में परमात्मा का सुख, परमात्मा का वैभव, परमात्मा का आनंद और परमात्मा का माधुर्य उभरने लगेगा। जैसे, बादल के हटने पर सूर्य दिखता है अथवा तो शीतकाल में आकाश स्वच्छ होता है, वैसे ही शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक प्रभावों से ज्यों-ज्यों अपने को दूर करता जायेगा, त्यों-त्यों अपना साफ-सुथरा आत्मसुख, आत्मवैभव प्रगट होता जायेगा।
धनबल, जनबल, बाहुबल और बुद्धिबल इन सारे बलों को जहाँ से बल मिलता है वह है आत्मवैभव। अगर आत्मवैभव मिल गया तो बाकी के वैभव तुम्हारे दास होने लगेंगे, बाकी के वैभव फिर तुम्हें आसक्त नहीं कर पायेंगे।
जैसे, व्यक्ति दूसरों को सुधारने के लिए तत्पर होता है, शत्रु का दोष बड़ी तत्परता से खोज निकालता है, ऐसे ही अपनी कमजोरियाँ खोज निकाले तो वह महापुरुष बन जायेगा।
बुद्ध के सत्संग में सत्संगी आते थे, बुद्धिमान, संयमी भिक्षु भी आते थे और आम आदमी भी आते थे। बुद्ध ने सत्संग पूरा किया। आम आदमी तो चल दिये लेकिन एक किशोर और कुछ साधक भिक्षु बैठे रहे। उस किशोर ने बुद्ध से प्रश्न कियाः "भन्ते ! सबसे छोटा आदमी कौन है ?"
वह किशोर बड़ा धीर-गम्भीर, शांत, चंचलतारहित चित्तवाला लग रहा था। बुद्ध ने उसका प्रश्न सुना और वे गंभीर हो गये। बच्चे का प्रश्न बढ़िया था। बुद्ध तनिक देर के लिए अपने-आपमें आ गये, फिर बोलेः
"सबसे छोटा आदमी वह है जो केवल अपने लिये ही सोचता है, जो केवल अपने स्वार्थ में ही मशगूल रहता है। जो केवल अपने लिये ही जीता है, वह सबसे छोटा व्यक्ति है।"
ज्यों-ज्यों सोच का दायरा, विचार का दायरा व्यापक होता जायेगा, त्यों-त्यों व्यक्ति बड़ा होता जायेगा। दूसरों के दुःख हरने में और दूसरों के चित्त में सुख भरने में, दूसरों की अशांति हरने में एवं शांति भरने में जितना-जितना चित्त मशगूल होगा उतना-उतना चित्त चैतन्य के साथ तदाकार होता जायेगा और दूसरों का दुःख हरने का सामर्थ्य आता है दुःखहारी श्रीहरि में गोता मारने से। जरा-जरा बात में, जरा सी शारीरिक सुविधा-असुविधा से प्रभावित मत हो, मानसिक सुख-दुःख से प्रभावित मत हो और बुद्धिगत मान-अपमान से भी प्रभावित मत हो, क्योंकि असुविधाएँ तुम्हं, डराकर डरपोक बना देंगी और सुविधाएँ तुम्हें आसक्त करके खोखला कर देंगी। सुख तुम्हें आसक्त करके खोखला कर देगा और दुःख तुम्हारे अंतःकरण को अशुद्ध कर देगा।
भगवान कहते हैं- जितात्मनः प्रशांतस्य। आप प्रशांत रहो। अशांत नहीं, शांत नहीं वरन् प्रशांत रहो अर्थात् सुव्यस्थित शांत रहो। शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक चाहे कोई भी प्रतिकूलता आये या अनुकूलता, आप प्रशांतात्मा रहो, जितात्मा रहो। ज्यों-ज्यों आप जितात्मा होंगे, त्यों-त्यों आपका जीवन सशक्त होगा, निखरेगा और आप सफलता के उन शिखरों पर पहुँच जायेंगे, जहाँ पहुँचना साधारण आदमी के लिए असाध्य है, दुर्लभ है। श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी को किः शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः। शीत और उष्ण ये दो शब्द कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने तमाम शारीरिक सुविधा-असुविधाओं से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है। ʹसुख-दुःखʹ ये दो शब्द कहकर मानसिक प्रभावों से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है और मान-अपमान ये दो शब्द कहकर बौद्धिक प्रभावों से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है ताकि आपका अपना दिव्य स्वभाव प्रगट हो सके।
अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ आयें तो तुम उनमें फँसो मत, नहीं तो वे तुम्हें ले डूबेंगी। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक तीनों ही प्रभावी से अगर थोड़े-से सावधान हो गये तो योगी का योग सफल होने लगेगा, तपी का तप सफलता की सुवास बिखरेगा, ध्यानी का ध्यान सफल होने लगेगा, भक्त की भक्ति सफल होने लगेगी और जपी का जप भी आत्मरस प्रगटने में सफल हो जायेगा।
जो दुनिया की ʹतू-तू... मैं-मैंʹ से प्रभावित नहीं होता, जो दुनियादारों की निंदा-स्तुति से प्रभावित नहीं होता और जो दुनिया के सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता, वह दुनिया को हिलाने में अवश्य सफल हो जाता है।
सुविधा-असुविधा, यह इन्द्रियों का धोखा है, सुख-दुःख, यह मन की वृत्तियों का धोखा है और मान-अपमान यह बुद्धिवृत्ति का धोखा है। इन तीनों से बच जाओ तो संसार आपके लिए नंदनवन हो जायेगा। अगर इन तीन प्रभावों से आप ऊपर उठ गये तो आपका चित्त कहीं जाकर नहीं, कुछ पाकर नहीं, कुछ छोड़कर नहीं, मरने के बाद नहीं वरन् आप जहाँ हो वहीं के वहीं और उसी समय चैतन्य का सुख पा लेगा।
सरदार वल्लभभाई पटेल, लौह पुरुष एक बार रेल के दूसरे दर्जे में यात्रा कर रहे थे। कम्पार्टमेन्ट में भीड़-भाड़ नहीं थी, वरन् वे अकेले थे। इतने में स्टेशन पर गाड़ी रूकी और एक अंग्रेज माई आयी। उसने देखा कि ʹइनके पास तो खूब सामान-वामान है।ʹ
"यह सामान देकर तुम चले जाओ, नहीं तो मैं शोर मचाऊँगी। राज्य हमारा है और तुम इण्डियनʹ आदमी हो। मैं तुम्हारी बुरी तरह पिटाई करवाऊँगी।ʹ
जो आदमी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता, वह परिस्थतियों को प्रभावित कर देता है. सरदार वल्लभभाई पटेल को युक्ति लड़ाने में देर नहीं लगी। उन्होंने माई की बात सुनी तो सही किन्तु ऐसा स्वांग किया कि मानो वे बहरे हों। वे इशारे से बोलेः "तुम क्या बोलती हो, वह मैं नहीं सुन पा रहा हूँ। तुम जो बोलना चाहती हो, वह लिखकर दे दो।"
उस अंग्रेज माई ने समझा कि ʹयह बहरा है, सुनता नहीं हैʹ अतः उसने लिखकर दे दिया। जब चिट्ठी सरदार के हाथ में आ गयी तो वे खूब जोर से हँसने लगे। अब माई बेचारी क्या करे ? उसने तो धमकी देनी चाही थी किन्तु अपने हस्ताक्षर वाली चिट्ठी देकर खुद ही फँस गयी।
ऐसे ही प्रकृति माई से हस्ताक्षर करवा लो तो फिर वह क्या शोर मचायेगी ? क्या पिटाई करवायेगी और क्या तुम्हें जन्म-मरण के चक्कर में डालेगी ? इस प्रकृति माई की यही तीन बाते हैं- शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान। इनसे अपने को अप्रभावित रखो तो विजय तुम्हारी है। किन्तु गलती यह करते हैं कि हम साधन भी करते हैं और असाधन भी साथ में रखते हैं। हम सच्चे भी बनना चाहते हैं और झूठ भी साथ में रखते हैं। हम सच्चे भी बनना चाहते हैं और झूठ भी साथ में रखते हैं। भले बने बिना भलाई खूब करते हैं और बुराई भी साथ में रखते हैं। भय भी साथ में रखते हैं और निर्भय होना भी चाहते हैं। आसक्ति साथ में रखकर अनासक्त होना चाहते हैं, इसीलिए परमात्मा का पथ लंबा हो जाता है।
अतः अपने स्वभाव में जागो। ʹस्वʹ भाव अर्थात् स्व का भाव। परभाव नहीं। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि परभाव हैं क्योंकि ये शरीर, मन और बुद्धि के हैं, हमारे नहीं। सर्दी आयी तब भी हम थे, गर्मी आयी तब भी हम हैं। सुख आया तब भी हम थे और दुःख आया तब भी हम थे और दुःख आया तब भी हम हैं। अपमान आया तब भी हम थे और मान आया तब भी हम हैं। हम पहले भी थे, अब भी हैं और बाद में भी रहेंगे। अतः सदा रहने वाले अपने इसी ʹस्वʹ भाव में जागो।
शरीर की अनुकूलता और प्रतिकूलता, मन के सुखाकार और दुःखाकार भाव, बुद्धि के रागाकार और द्वेषाकार भाव इनको आप सत्य मत मानिये। ये तो आऩे जाने वाले हैं, बनने-मिटने वाले हैं, बदलने वाले हैं लेकिन अपने स्वभाव को जान लीजिये तो काम बन जायेगा। जितना-जितना आदमी जाने-अनजाने ʹस्वʹ के भाव में होता है उतना-उतना वह परिस्थितियों के प्रभाव से अप्रभावित रहता है और जितना वह अप्रभावित रहता है उतना ही उसका प्रभाव परिस्थितियों पर पड़ता है........




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प्रश्न और ज्योतिष

जीवन के रहस्य को सुलझाने के लिये प्राचीन काल से ही ऋषि मुनि तपस्वी साधु सन्त अपने अपने मत से जीवन के प्रकार को समझने और समझाने की कोशिश करते आये है.इन कोशिशो मे कई प्रकार के साधन प्रयोग मे लाये जाते रहे है और किसी भी साधन का प्रयोग समय से किया जाना ही मिलता है हमेशा के लिये कोई भी साधन कारगर नही हो पाया है,आज जो है वह कल नही रहता है और कल जो आता है वह परसो नही रहता है तथा कल जो था वह आज नही है,इस प्रकार से आज के बारे मे तो केवल इतना ही पता होता है कि अभी क्या चल रहा है लेकिन अगले ही पल क्या होने वाला है किसी को पता नही होता है। हजारो ईमेल आते है लोगो के हजारो सवाल रोजाना के होते है और जो भी सवाल होता है वह अक्सर जीवन मे चलने वाली परेशानी के कारणो से ही जुडा होता है.जब मन मे भ्रम पैदा हो जाते है और उन भ्रमो का कोई समाधान नही होता है तो व्यक्ति एक ऐसे कारण की तलाश मे निकलता है कि वह किस प्रकार से अपने भ्रम को निकाल सकता है,शरीर का कष्ट होता है डाक्टर भी अपने अनुभव के आधार पर ही रोग के बारे मे निश्चित करता है,और जब वह निश्चित हो जाता है तो रोग को दूर करने के दवाइयों के बारे मे अपने दिमाग का प्रयोग करता है.लेकिन रोग के बारे मे ही अगर डाक्टर के दिमाग मे ही भ्रम रह जाये तो रोग ठीक होने की बजाय कोई दूसरा रोग ही दवाइयों के प्रयोग के कारण पैदा हो सकता है.जैसे सिर दर्द हुआ तो सीधे से माना जाता है कि कोई गर्म सर्द चीज का प्रयोग कर लिया है या किसी प्रकार की बडी सोच को सामने लाकर अधिक सोच लिया है या कोई आंखो पर जोर देने वाली वस्तु को लगातार देखा गया है,लेकिन वही सिर दर्द पेट मे गैस बनने से भी हो सकता है,सिर मे किसी पुरानी चोट मे लगने के कारण भी हो सकता है,रोजाना की जिन्दगी मे किसी प्रकार की जद्दोजहद के कारण भी पैदा हो सकता है आदि बाते भी जानी जा सकती है.उसी प्रकार से ही ज्योतिष के अन्दर भी कई बाते एक साथ जानी जाती है कि व्यक्ति अपनी शंका को लेकर सामने आया है और वह अपनी शंका को जानना चाहता है लेकिन अपने प्रश्न को करने के बाद तो सभी शंका का समाधान दुनियावी रीति रिवाज से बता सकते है लेकिन जो मन के अन्दर बात चल रही है और पूंछने वाला अगर क्या जानना चाहता है वह अगर ज्योतिष से पता कर लिया जाये तो उसका समाधान भी बहुत जल्दी मिल सकता है,किसी के द्वारा प्रश्न को बताये जाने से उसे कई प्रकार से सोचा जा सकता है,और सोचने के बाद ज्योतिष से हटकर भी उत्तर दिया जा सकता है लेकिन प्रश्न को मानसिक रूप से समझने के बाद केवल उसके समाधान का विचार ही ज्योतिषी के दिमाग मे चलेगा और वह अपने समाधान को प्रश्न कर्ता के सामने प्रश्न के बाद मे रख सकता है। ज्योतिष का एक प्रकार और देखा जाता है कि समय का बताना अलग बात है और समय के अनुसार व्यक्ति को गलत समय से बचाना अलग बात है,अगर ज्योतिषी के अन्दर क्षमता है तो वह समय को बचाने के सटीक उपाय देगा और जातक अगर अमल करता है तो वह जरूर ही आने वाली या चलने वाली समस्या से मुक्ति को प्राप्त कर लेगा।
इस प्रश्न शास्त्र को दो प्रकार के रूपो मे देखा जाता है एक तो जो कह कर पूंछे जाते है और दूसरे जो मूक होते है इस प्रकार से वाचिक यानी वचन के द्वारा बताये गये है और दूसरे जो अपने मन मे तो प्रश्न को लेकर चल रहा है लेकिन कह नही रहा है,अथवा कहने वाले को सकुचाहट है कि वह इस प्रकार के प्रश्न कैसे कहे.मूक प्रश्न का उत्तर देना एक चमत्कारिक बात भी मानी जाती है और ज्योतिषी की गरिमा भी बढती है साथ ही प्रश्न कर्ता के साथ भी बहुत भला होता है.वैसे तो मूक प्रश्न के बारे मे बताना और समझना एक बहुत बडी बात मानी जाती है लेकिन ध्यान और मनन के बाद अगर इस विषय के बारे मे सीखा जाये और समझकर जीवन मे उपयोग मे लाया जाये तो वह बहुत ही सरल सा लगने लगता है.पांचवी शताब्दी के बाद से जितने भी ग्रंथ इस प्रकरण के प्रति मिले है बहुत ही कठिन और जटिल माने गये है लेकिन उस समय मे और आज के समय मे जमीन आसमान का फ़र्क भी देखने को मिलता है.
जब हम किसी प्रकार के कारण को समझने की कोशिश करते है तो हमारे अन्दर एक ही बात सामने आती है,यह क्यों हुआ कैसे हुआ और इसका परिणाम क्या होगा.इस बात मे कैसे हुआ इसका तो जबाब लिया जा सकता है जाना जा सकता है लेकिन क्यों हुआ इसका परिणाम जानने के लिये जातक के पीछे के कर्मो मे जाना पडेगा,इसके बाद क्या होगा इस बात को भी कई नजरियों से देखना पडेगा। भारत के अन्दर कई भाषाये है और सभी भाषाओ की जानकारी हर किसी को नही है सौ मे से अगर एक को कई भाषायें आती भी होंगी तो वह केवल एक विषय के बारे मे भी नही समझ सकता है कारण वह एक स्थान पर अगर कई भाषाओं का प्रयोग करने लग जाता है तो भाषा को समझने वाला कभी भी सही रूप मे नही समझ पायेगा कारण उसकी शब्दावली विचित्र हो जायेगी,यह बात वे लोग अच्छी तरह से जानते होंगे जो हिन्दी के साथ अंग्रेजी को सुनते आ रहे है।
प्रश्न शास्त्र ज्योतिष विद्या का एक महत्वपूर्ण अंग है यह तत्काल फ़ल बताने वाला शास्त्र है इसमे हमे तत्काल लगन और एवं ग्रह स्थिति के आधार पर व्यक्ति के दिमाग मे पैदा होने वाले प्रश्न और उसके शुभाशुभ फ़ल का विचार करने लगते है,इसके आधार पर कई तरह के ग्रंथ मिलते है और केरल का प्रश्न शास्त्र आपने देखा हो नही देखा हो लेकिन टीवी मे चन्द्रकांता नामक सीरियल मे रमल नामक शास्त्र का फ़ल कथन जरूर आपने देखा होगा!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!


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तुलसी विवाह

::::::तुलसी विवाह:::::
तुलसी विवाह से सं‍बंधित महत्वपूर्ण बातें जानिए
:: तिथि :: 3 नवंबर 2014
देवउठनी एकादशी पर होता है तुलसी विवाह ! सनातन धर्म में धार्मिक कार्यों का आधार धर्मशास्त्र एवं ज्योतिष की कालगणना दोनों ही हैं। शास्त्रों में कहा है देवताओं का दिन मानव के छह महीने के बराबर होता है और रात्रि छह माह की।
इसी आधार पर जब वर्षाकाल प्रारंभ होता है तो देवशयनी एकादशी को देवताओं की रात्रि प्रारंभ होकर शुक्ल एकादशी अर्थात्‌ देवउठनी एकादशी तक छह माह तक रहती है। इसीलिए छह मास तुलसी की पूजा से ही देवपूजा का फल प्राप्त हो जाता है।
देवउठनी से छह महीने तक देवताओं का दिन प्रारंभ हो जाता है। अतः तुलसी का भगवान श्री हरि विष्णु की शालीग्राम स्वरूप के साथ प्रतीकात्मक विवाह कर श्रद्धालु उन्हें वैकुंठ को विदा करते हैं।
हरि प्रबोधिनी एकादशी को देशी भाषा में देवउठनी एकादशी कहा जाता है। इस तिथि को तुलसी जी पृथ्वी लोक से वैकुंठ लोक में चली जाती हैं और देवताओं की जागृति होकर उनकी समस्त शक्तियों पृथ्वी लोक में आकर लोक कल्याणकारी बन जाती हैं।
तुलसी को माता कहा जाता है क्योंकि तुलसी पत्र चरणामृत के साथ ग्रहण करने से अनेक रोग दूर होते हैं। शालीग्राम के साथ तुलसी का आध्यात्मिक विवाह देव उठनी एकादशी को होता है लेकिन उनके पत्र मंजरी पूरे वर्ष भर देवपूजन में प्रयोग होते हैं। तुलसी दल अकाल मृत्यु से बचाता है।
वैष्णव उपासकों के लिए तो तुलसी जी का विशेष महत्व होता है। वह तुलसी की माला पहनते हैं और जपते हैं। तुलसी पत्र के बिना भोजन नहीं। कहा जाता है कि तुलसी पत्र डालकर जल या दूध चरणामृत बन जाता है तथा भोजन प्रसाद बन जाता है। इसीलिए तुलसी विवाह का महोत्सव वैष्णवों को परम आत्मतोष देता है। साथ ही प्रत्येक घर में छह महीने तक हुई तुलसी पूजा का इस दिन तुलसी विवाह के रूप में पारायण होता है।
तुलसी के गमले को गोमय एवं गेरू से लीप कर उसके पास पूजन की चौकी पूरित की जाती है। गणेश पूजा पूर्वक पंचांग पूजन के बाद तुलसी विवाह की सारी विधि होती है। लोग, मंगल वाद्ययंत्रों के साथ उन्हें पालकी में बिठाकर मंदिर परिसर एवं घर-आंगन में घूमाकर पूर्व स्थान से दूसरे स्थान पर रख देते हैं। बधाई के गीत गाए जाते हैं और सगुन में मिष्ठान्न, प्रसाद, फल एवं दक्षिणा दी जाती है। इस दिन रेवती नक्षत्र का तृतीय चरण पर्व के लिए विशेष महत्वपूर्ण होता है।
एक मान्यता के अनुसार देव उठनी एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक के पांच दिनों में किसी दिन तुलसी जी का विवाह किया जा सकता है।
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व्रत कथा
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भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप पर बड़ा गर्व था। वे सोचती थीं कि रूपवती होने के कारण ही श्रीकृष्ण उनसे अधिक स्नेह रखते हैं। एक दिन जब नारदजी उधर गए तो सत्यभामा ने कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्रीकृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों। नारदजी बोले, 'नियम यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में प्राप्त होगी। अतरू तुम भी श्रीकृष्ण को दान रूप में मुझे दे दो तो वे अगले जन्मों में जरूर मिलेंगे।' सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारदजी को दान रूप में दे दिया। जब नारदजी उन्हें ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लिया। इस पर नारदजी बोले, 'यदि श्रीकृष्ण के बराबर सोना व रत्न दे दो तो हम इन्हें छोड़ देंगे।'
तब तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने−अपने आभूषण चढ़ाने लगीं, पर पलड़ा टस से मस नहीं हुआ। यह देख सत्यभामा ने कहा, यदि मैंने इन्हें दान किया है तो उबार भी लूंगी। यह कह कर उन्होंने अपने सारे आभूषण चढ़ा दिए, पर पलड़ा नहीं हिला। वे बड़ी लज्जित हुईं। सारा समाचार जब रुक्मिणी जी ने सुना तो वे तुलसी पूजन करके उसकी पत्ती ले आईं। उस पत्ती को पलड़े पर रव्खते ही तुला का वजन बराबर हो गया। नारद तुलसी दल लेकर स्वर्ग को चले गए।
रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पटरानी थीं। तुलसी के वरदान के कारण ही वे अपनी व अन्य रानियों के सौभाग्य की रक्षा कर सकीं। तब से तुलसी को यह पूज्य पद प्राप्त हो गया कि श्रीकृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं। इसी कारण इस एकादशी को तुलसीजी का व्रत व पूजन किया जाता है....द फ्यूचर क्लब फ्यूचर फॉर यू पत्रिका का समूह...प्रिया शरण त्रिपाठी..... ... ....9893363928 हम भारतीय ज्ञान और संस्कृति के पुनः स्थापन के लिए सतत प्रयास करते है....





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मृत्यु का डर

जब आप वैदिक आर्ष ग्रन्थ ( उपनिषद, दर्शन आदि ) का गम्भीरता से अध्ययन करके जीवन,मृत्यु, शरीर, आदि के विज्ञान को जानेंगे तो आपके अन्दर का मृत्यु के प्रती भय मिटता चला जायेगा और दूसरा ये की योग मार्ग पर चलें तो स्वंय ही आपका अज्ञान कमतर होता जायेगा और मृत्यु भय दूर हो जायेगा । आप निडर हो जायेंगे । जैसे हमारे बलिदानीयों की गाथायें आपने सुनी होंगी जो राष्ट्र की रक्षा के लिये बलिदान हो गये । तो आपको क्या लगता है कि क्या वो ऐसे ही एक दिन में बलिदान देने को तैय्यार हो गये थे ? नहीं उन्होने ने भी योगदर्श्न, गीता, साँख्य, उपनिषद, वेद आदि पढ़कर ही निर्भयता को प्राप्त किया था । योग मार्ग को जीया था, अज्ञानता का नाश किया था । महाभारत के युद्ध में भी जब अर्जुन भीष्म, द्रोणादिकों की मृत्यु के भय से युद्ध की मंशा को त्याग बैठा था तो योगेश्वर कृष्ण ने भी तो अर्जुन को इसी सांख्य, योग, निष्काम कर्मों के सिद्धान्त के माध्यम से जीवन मृत्यु का ही तो रहस्य समझाया था और यह बताया कि शरीर तो मरणधर्मा है ही तो उसी शरीर विज्ञान को जानकर ही अर्जुन भयमुक्त हुआ । तो इसी कारण तो वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय करने वाल मनुष्य ही राष्ट्र के लिए अपना शीश कटा सकता है, वह मृत्यु से भयभीत नहीं होता , प्रसन्नता पूर्वक मृत्यु को आलिंगन करता है ।
(16) प्रश्न :- किन किन कारणों से पुनर्जन्म होता है ?
उत्तर :- आत्मा का स्वभाव है कर्म करना, किसी भी क्षण आत्मा कर्म किए बिना रह ही नहींसकती । वे कर्म अच्छे करे या फिर बुरे, ये उसपर निर्भर है, पर कर्म करेगी अवश्य । तो ये कर्मों के कारण ही आत्मा का पुनर्जन्म होता है । पुनर्जन्म के लिए आत्मा सर्वथा ईश्वराधीन है ।
(17) प्रश्न :- पुनर्जन्म कब कब नहीं होता ?
उत्तर :- जब आत्मा का मोक्ष हो जाता है तब पुनर्जन्म नहीं होता है ।
(18) प्रश्न :- मोक्ष होने पर पुनर्जन्म क्यों नहीं होता ?
उत्तर :- क्योंकि मोक्ष होने पर स्थूल शरीर तो पंचतत्वों में लीन हो ही जाता है, पर सूक्ष्म शरीर जो आत्मा के सबसे निकट होता है, वह भी अपने मूल कारण प्रकृति में लीन हो जाता है ।
(19) प्रश्न :- मोक्ष के बाद क्या कभी भी आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता ?
उत्तर :- मोक्ष की अवधी तक आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता । उसके बाद होता है ।
(20) प्रश्न :- लेकिन मोक्ष तो सदा के लिए होता है, तो फिर मोक्ष की एक निश्चित अवधी कैसे हो सकती है ?
उत्तर :- सीमीत कर्मों का कभी असीमित फल नहीं होता । यौगिक दिव्य कर्मों का फल हमें ईश्वरीय आनन्द के रूप में मिलता है, और जब ये मोक्ष की अवधी समाप्त होती है तो दुबारा से ये आत्मा शरीर धारण करती है ।
(21) प्रश्न :- मोक्ष की अवधी कब तक होती है ?
उत्तर :- मोक्ष का समय ३१ नील १० खरब ४० अरब वर्ष है, जब तक आत्मा मुक्त अवस्था में रहती है ।
(22) प्रश्न :- मोक्ष की अवस्था में स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ रहता है या नहीं ?
उत्तर :- नहीं मोक्ष की अवस्था में आत्मा पूरे ब्रहमाण्ड का चक्कर लगाती रहती है और ईश्वर के आनन्द में रहती है, बिलकुल ठीक वैसे ही जैसे कि मछली पूरे समुद्र में रहती है । तो किसी भी शरीर की आवश्यक्ता ही नहीं है ।
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किस प्रकार के कर्म करने से जीव जन्तुओं के शरीर प्राप्त होता है ?

ताम्सिक और राजसिक कर्मों के फलरूप जानवर शरीर आत्मा को मिलता है । जितना तामसिक कर्म अधिक किए होंगे उतनी ही नीच योनी उस आत्मा को प्राप्त होती चली जाती है । जैसे लड़ाई स्वाभाव वाले , माँस खाने वाले को कुत्ता, गीदड़, सिंह, सियार आदि का शरीर मिल सकता है , और घोर तामस्कि कर्म किए हुए को साँप, नेवला, बिच्छू, कीड़ा, काकरोच, छिपकली आदि । तो ऐसे ही कर्मों से नीच शरीर मिलते हैं और ये जानवरों के शरीर आत्मा की भोग योनियाँ हैं ।
१ प्रश्न :- तो क्या हमें यह पता लग सकता है कि हम पिछले जन्म में क्या थे ? या आगे क्या होंगे ?
उत्तर :- नहीं कभी नहीं, सामान्य मनुष्य को यह पता नहीं लग सकता । क्योंकि यह केवल ईश्वर का ही अधिकार है कि हमें हमारे कर्मों के आधार पर शरीर दे । वही सब जानता है ।
२ प्रश्न :- तो फिर यह किसको पता चल सकता है ?
उत्तर :- केवल एक सिद्ध योगी ही यह जान सकता है , योगाभ्यास से उसकी बुद्धि । अत्यन्त तीव्र हो चुकी होती है कि वह ब्रह्माण्ड एवं प्रकृति के महत्वपूर्ण राज़ अपनी योगज शक्ति से जान सकता है । उस योगी को बाह्य इन्द्रीयों से ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहती है । वह अन्तः मन और बुद्धि से सब जान लेता है । उसके सामने भूत और भविष्य दोनों सामने आ खड़े होते हैं ।



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सौर तूफ़ान और समाज की उग्रता

सौर तूफ़ान का मतलब है सूर्य की ओर से बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकलना जिससे अणु, आयन, इलेक्ट्रॉन के बादल अंतरिक्ष में छूटते हैं और कुछ ही घंटे में पृथ्वी की विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र में टकरा सकते हैं.
इस पत्रिका में छपे लेख में संभावना जताई गई है कि जब सूर्य की गतिविधियों में कमी आएगी तब उससे ये ख़तरनाक विकिरण धरती तक पहुंचेगा.
इस टीम का कहना है कि सूर्य अभी 'ग्रैंड सोलर मैक्सिमम' के चरम पर है, यानी ये एक ऐसा समय होता है जब सूर्य की सक्रियता सौर चक्र में सर्वाधिक होती है.
सूर्य का ये चरण 1920 में शुरु हुआ था और ये अंतरिक्ष युग तक रहा. रेडिंग यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर माइक लॉकवुड का कहना है, "जो भी सबूत मिले हैं वह ये बताते हैं कि सूर्य बहुत ही कम समय में ग्रैंड सोलर मैक्सिमम से बाहर हो जाएगा."
शोध ग्रैंड सोलर मैक्सिमम में सूर्य की सतह पर एक चुंबकीय प्रवाह के पहुंचने का चक्र चलता है जिसमें 11 साल लगते हैं.इसे 'सन स्पॉट' कहा जाता है.
लेकिन दूसरी तरफ ग्रैड सोलर मिनिमम में कई दशकों तक ये सन स्पॉट नहीं देखे जाते थे.
ये शोध इस बात के संकेत देता है कि सबसे ज़्यादा विकिरण सौर गतिविधि के मध्य पर पहुंचने के समय धरती पर पहुंचती है ,विकिरण के बढ़ने से विमान के चलने और संचार में दिक़्कत आती है.
ये शोध 10 हज़ार साल पहले इकट्ठा किए गए बर्फ़ के नमूनों और लकड़ी के लट्ठों पर आधारित है. शोधकर्ताओं ने इन नमूनों में नाइट्रेट और 'कॉस्मोजेनिक आइसोटोप' के स्तर को मापा.
वायुमंडल के अणु तेज़ गति से कॉस्मिक किरणों से टकराते हैं जिसके बाद वायुमंडल के ऊपरी स्तर पर कई रेडियोधर्मी आईसोटोप पैदा होते है तो उसे कॉस्मोजेनिक आईस्टोप कहते हैं.
प्रोफ़ेसर लॉकवुड ने बीबीसी को बताया कि "आप बर्फ़ की पट्टियों पर जमे नाइट्रेट को जानकर बता सकते है कि सौर प्रक्रिया हुई है."
उनका कहना था कि हमारे पास जो आंकड़े है वो बताते हैं कि अगले कुछ दशकों में एक दुर्भाग्यपूर्ण सौर स्थिति से हमारा सामना होने वाला है.
ये सबूत इस बात के संकेत देते हैं कि जब सूर्य ग्रैंड मैक्सिमम स्थिति को छोड़ देगा तब कुछ सौर तूफ़ान आ सकते हैं.
मैंने इतिहास के कुछ सोलर तुफानो का अध्ययन किया तो पाया की सोलर तूफान व्यक्ति के मन और स्वभाव में उग्रता लाते है जितना उग्र तूफ़ान होगा उतनी बड़ी सामाजिक विभीषिका का हमें सामना करना पड़ता है वर्ष २०१३ के अंत जो तूफ़ान आया उसने साड़ी दुनिआ में ही भूचाल पैदा कर दिया आप सोलर तुफानो का इतिहास और सामाजिक क्रूरता का इतिहास पढ़े तो लगेगा की सच में ज्योतिष कितना सही है जिसमे लिख चक्षो सूर्यो अजायत अर्थात सूर्य ईश्वर की नजर है जब इसमें तूफ़ान उठता है तो दुनिआ में भूचाल आता है आप लोगो की सुविधा के लिए मैंने कुछ सोलर तुफानो का वक़्त लिखा वर्ष १९५९ का वो वक़्त था जब THE ULSTER REVIVAL OF 1859 http://www.revival-library.org/catalogues/1857ff/harding.html हुआ और १९४२ का वर्ष विश्व युद्ध के नाम है वर्ष २०१३ १४ का सोलर तूफान भी कुछ कम नहीं मुझे लगता है मनुष्य जिस तरह से धर्म को लेकर मारकाट मचाने पर आमादा है जिहाद की बाते चल रही है एक बार फिर सारी दुनिआ दम साधे तबाही का इंतजार कर रही है मजे की बात है की इसमें वो भी शामिल हो रहे है अहिंसा जिनके जीवन चर्या का अंग है मतलब साफ़ है सूर्य का तूफ़ान सिर्फ प्राकृतिक आपदा ही नहीं वरना दुनिआ की तबाही भी साथ लाता है >>>>>

स्वयं का मकान और हस्तरेखा

स्वयं का मकान और हस्तरेखा
जो लोग किराए के मकान में रहते हैं, उनका सिर्फ एक ही सपना होता है कि उनका भी एक छोटा ही सही, लेकिन सुंदर सा मकान हो। जहां वह निश्चिंत होकर अपने परिवार के साथ रह सके। न मकान मालिक की टेंशन हो और न ही दूसरे किराएदारों की झिकझिक। हस्तरेखा शास्त्र के अनुसार किसी भी व्यक्ति की हाथ की रेखा देखकर यह बताया जा सकता है कि उस व्यक्ति का कभी अपना मकान भी होगा या नहीं, और यदि होगा तो यह स्थिति कब बनेगी। आज हम आपको उन रेखाओं के बारे में बता रहे हैं, जो किसी भी व्यक्ति के स्वयं के मकान के बारे में बताते हैं-
1- भूमि का ग्रह मंगल है। हस्तरेखा में मंगल का क्षेत्र से भूमि व भवन का पता चलता है। वस्तुत: मंगल का क्षेत्र का उच्च का होना उत्तम भवन प्राप्ति का योग देता है। मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत का बली होना भवन प्राप्ति का अच्छा संकेत है।
2- हस्तरेखा में मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत के उपर किसी रेखा का होन भी ऐसे व्यक्ति को स्वश्रम से निर्मित उत्तम सुख-सुविधाओं ये युक्त भवन प्राप्त होता है।
3- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत मजबूत हो तो भी ऐसा व्यक्ति स्व पराक्रम व पुरुषार्थ से अपना घर(भवन) बनाता है।
4- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत से कोई रेखा भाग्य रेखा तक जाये तो ऐसे व्यक्ति के पास अपना बंगला या महलनुमा भवन होता है जिसमें कलात्मक बगीचा या जलाशय होता है।
5- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत एवं चंद्रमा और शनि का क्षेत्र या पर्वत विकसित हो तो ऐसे व्यक्ति का भवन दूसरों से अलग, सुंदर आकर्षक एवं नूतन साज-सज्जा से युक्त होता है।
6- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत एवं चंद्रमा और शनि का क्षेत्र या पर्वत विकसित हो साथ में इन रेखाओ से चलकर कोई रेखा भाग्य या जीवन रेखा तक जाये तो ऐसे व्यक्ति को अचानक निर्मित भवन की प्राप्ति होती है।


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