Monday, 11 May 2015

कितना उपुक्त है मंगल दोष शांति


मंगल दोष की वजह से विवाह में देरी हो तो ये उपाय जरूर करने चाहिए। माना जाता है कि इन उपायों को करने से विवाह में आ रही बाधाएं जल्द दूर होती हैं और मनचाही कन्या से विवाह होता है।
जिन जातकों की जन्म कुंडली के 1,4,7 और 12 वें भाव में मंगल होता है, उन्हें मांगलिक दोष होता है। इस दोष के कारण जातक को कई प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है जैसे उनके भूमि से संबंधित कार्यो में बाधा आती है। विवाह में विलंब होता है। ऋण से मुक्ति नहीं मिलती, वास्तुदोष उत्पन्न हो सकता है आदि- आदि। इन सब दोषों के शमन के लिए अवन्तिका यानि उज्जैन में मंगल दोष निवारण के लिए विशेष पूजा कराने का विधान है। मंगल ग्रह की जन्म स्थली उज्जैन में पूजा करने से दोष समाप्त हो जाता है।
मंगल की शांति के लिए अवन्तिका में भात पूजा कराने का विधान है। मंगल की क्रूर दृष्टि यहां पूजा करने से कृपा दृष्टि में बदल जाती है। यह पूजा उज्जैन में स्थित श्री अंगारेश्वर महादेव मंदिर में पुरोहितों द्वारा संपन्न कराई जाती है। शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव का दही भात का लेप करने से अग्नि शांत(मांगलिक दोष निवारण) होती है। इस प्रक्रिया में भगवान गणपति पूजन, माताजी पूजन, संकल्प, भगवान शिव का अभिषेक, पंचामृत पूजा, भात का पूजन(पंचामृत में उबले हुए भात मिलाकर) शिवलिंग पर लेप किया जाता है।
उज्जैन के 84 मंदिरों में से 43वें मंदिर के रूप में प्रतिष्ठित अंगारेश्वर महादेव मंदिर की प्राचीनता के बारे में यहाँ के पुजारी पं मनीष उपाध्याय बताते हैं कि अंगारक को तपस्या करने का निर्देश भगवान शिव ने दिया था। साथ ही यह भी बताया कि अवन्तिका के महाकाल वन मे खगरता के संगम पर गंगेश्वर के उत्तर में ब्रह्माजी द्वारा स्थापित शिवलिंग है। जिसकी पूजा देवता गंधर्व करते हैं । अंगारक ने यहीं सोलह हजार वर्ष तक तप किया।
उपाध्याय के अनुसार पहले क्षिप्रा का पाट चौड़ा था। इसलिए इस शिवलिंग का पूजन नहीं हो पाता था। वर्ष 1973 की बाढ़ में मंदिर ध्वस्त हो गया था। इसका पुनर्निमाण सन 1980 में हुआ। स्कंध पुराण , अग्नि पुराण, के रूप में गंगारक का ही उल्लेख मिलता है तथा गणेश पुराण मे अंगारक स्तोत्र यहां मंगल दोष निवारणार्थ भात पूजा और अन्य पूजा संपन्न होती हैं। शांत प्रिय और एकाग्र मन से अंगारेश्वर महादेव की पूजा करने पर मनोकामनाएं पूरी होती हेैं। मंगल शांति होने से लाभ मिलता है।
इस पूजा के प्रभाव से भूमि के अटके काम, ऋण मुक्ति, वास्तुदोष, संतान, विवाह में मांगलिक दोष से व्यवधान, व्यापार में रूकावटें आदि का शमन हो जाता हैं ।
----मंगल दोष शांति के विशेष दान :----
शास्त्रानुसार लाल वस्त्र धारण करने से व किसी ब्रह्मण अथवा क्षत्रिय को मंगल की निम्न वास्तु का दान करने से जिनमे - गेहू, गुड, माचिस, तम्बा, स्वर्ण, गौ, मसूर दाल, रक्त चंदन, रक्त पुष्प, मिष्टान एवं द्रव्य तथा भूमि दान करने से मंगल दोष दूर होता है | लाल वस्त्र में मसूर दाल, रक्त चंदन, रक्त पुष्प, मिष्टान एवं द्रव्य लपेट कर नदी में प्रवाहित करने से मंगल जनित अमंगल दूर होता है |
----- तुलसी के पौधे को (रविवार को छोड़कर) हर शाम प्रणाम कर उसके पास घी का दीपक जलाएं। तुलसी के मनकों की माला पहनें और भगवान कृष्ण का श्रद्धा से पूजन कीजिए। कृष्ण की एक तस्वीर तुलसी के पौधे के पास भी स्थापित कीजिए।
----अगर कुंडली में मंगल के कारण विवाह में विलंब हो रहा है तो जेब या पर्स में चांदी का चौकोर टुकड़ा सदा अपने साथ रखें। यह मंगल दोष के प्रभाव को कम कर आपका कार्य सिद्ध कर देगा।
-----जिन लोगों की कुंडली मांगलिक होती है उन्हें प्रति मंगलवार मंगलदेव के निमित्त विशेष पूजन करना चाहिए। मंगलदेव को प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रिय वस्तुओं जैसे लाल मसूर की दाल, लाल कपड़े का दान करना चाहिए।
----जिन लोगों की कुंडली में मंगलदोष है उनके द्वारा प्रतिदिन या प्रति मंगलवार को शिवलिंग पर कुमकुम चढ़ाया जा सकता है। इसके साथ ही शिवलिंग पर लाल मसूर की दाल और लाल गुलाब अर्पित करें। इस प्रकार भी मंगल दोष की शांति हो सकती है।
------शुक्ल पक्ष के मंगलवार को चांदी का एक टुकड़ा लेकर उसे जमीन में गड्ढा खोदकर रख दें। अब उस पर पानी डालें और थोड़ी मिट्टी भी डाल दें। तत्पश्चात इस पर तुलसी का पौधा लगा दें। इस पौधे का ध्यान रखें और नियमित जल आदि डालें। यह उपाय भी मंगल के कुप्रभाव को दूर कर विवाह में बाधाओं का निवारण करता है।
----शास्त्रों के अनुसार मंगल दोष का निवारण अंगारेश्वर महादेव, उज्जैन (मध्यप्रदेश) में ही हो सकता है। अन्य किसी स्थान पर नहीं। उज्जैन ही मंगल देव का जन्म स्थान है और मंगल के सभी दोषों का निवारण यहीं किए जाने की मान्यता है। मंगलदेव के निमित्त भात पूजा की जाती है। जिससे मंगल दोषों की शांति होती है।
---अगर किसी युवती के विवाह में मंगल की वजह से बाधा आ रही है तो शुक्ल पक्ष के मंगलवार को भगवान राम-सीता व हनुमानजी के चित्र की स्थापना करें और दीपक जलाकर सुंदरकांड का पाठ करें।
---बंदरों व कुत्तों को गुड व आटे से बनी मीठी रोटी खिलाएं |
----- मंगल चन्द्रिका स्तोत्र का पाठ करना भी लाभ देता है |
----- माँ मंगला गौरी की आराधना से भी मंगल दोष दूर होता है |
----- कार्तिकेय जी की पूजा से भी मंगल दोष के दुशप्रभाव में लाभ मिलता है |
------ मंगलवार को बताशे व गुड की रेवड़ियाँ बहते जल में प्रवाहित करें |
----- आटे की लोई में गुड़ रखकर गाय को खिला दें |
----- मंगली कन्यायें गौरी पूजन तथा श्रीमद्भागवत के 18 वें अध्याय के नवें श्लोक का जप अवश्य करें |
---- मांगलिक वर अथवा कन्या को अपनी विवाह बाधा को दूर करने के लिए मंगल यंत्र की नियमित पूजा अर्चना करनी चाहिए।
---- मंगल दोष द्वारा यदि कन्या के विवाह में विलम्ब होता हो तो कन्या को शयनकाल में सर के नीचे हल्दी की गाठ रखकर सोना चाहिए और नियमित सोलह गुरूवार पीपल के वृक्ष में जल चढ़ाना चाहिए |
----- मंगलवार के दिन व्रत रखकर हनुमान जी की पूजा करने एवं हनुमान चालीसा का पाठ करने से व हनुमान जी को सिन्दूर एवं चमेली का तेल अर्पित करने से मंगल दोष शांत होता है |
----- महामृत्युजय मंत्र का जप हर प्रकार की बाधा का नाश करने वाला होता है, महामृत्युजय मंत्र का जप करा कर मंगल ग्रह की शांति करने से भी वैवाहिक व दांपत्य जीवन में मंगल का कुप्रभाव दूर होता है |
----- यदि कन्या मांगलिक है तो मांगलिक दोष को प्रभावहीन करने के लिए विवाह से ठीक पूर्व कन्या का विवाह शास्त्रीय विधि द्वारा प्राण प्रतिष्ठित श्री विष्णु प्रतिमा से करे, तत्पश्चात विवाह करे |
----- यदि वर मांगलिक हो तो विवाह से ठीक पूर्व वर का विवाह तुलसी के पौधे के साथ या जल भरे घट (घड़ा) अर्थात कुम्भ से करवाएं।
----यदि मंगली दंपत्ति विवाहोपरांत लालवस्त्र धारण कर तांबे के पात्र में चावल भरकर एक रक्त पुष्प एवं एक रुपया पात्र पर रखकर पास के किसी भी हनुमान मन्दिर में रख आये तो मंगल के अधिपति देवता श्री हनुमान जी की कृपा से उनका वैवाहिक जीवन सदा सुखी बना रहता है |
---मांगलिक-दोष दूर करते हैं मंगल के यह 21 नाम। निम्न 21 नामों से मंगल की पूजा करें----
1. ऊँ मंगलाय नम:
2. ऊँ भूमि पुत्राय नम:
3. ऊँ ऋण हर्वे नम:
4. ऊँ धनदाय नम:
5. ऊँ सिद्ध मंगलाय नम:
6. ऊँ महाकाय नम:
7. ऊँ सर्वकर्म विरोधकाय नम:
8. ऊँ लोहिताय नम:
9. ऊँ लोहितगाय नम:
10. ऊँ सुहागानां कृपा कराय नम:
11. ऊँ धरात्मजाय नम:
12. ऊँ कुजाय नम:
13. ऊँ रक्ताय नम:
14. ऊँ भूमि पुत्राय नम:
15. ऊँ भूमिदाय नम:
16. ऊँ अंगारकाय नम:
17. ऊँ यमाय नम:
18. ऊँ सर्वरोग्य प्रहारिण नम:
19. ऊँ सृष्टिकर्त्रे नम:
20. ऊँ प्रहर्त्रे नम:
21. ऊँ सर्वकाम फलदाय नम:
विशेष:--- किसी अनुभवी और विद्वान ज्योतिषी से चर्चा करके ही श्री अंगारेश्वर महादेव पर मंगलदोष निवारण के उपाय भट पूजन आदि करना चाहिए। मंगल की पूजा का विशेष महत्व होता है। अपूर्ण या कुछ जरूरी पदार्थों के बिना की गई पूजा प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकती है।

कैसे पहुंचे उज्जैन-----
इंदौर (55 किलोमीटर) निकटतम हवाई अड्डा है. यह भोपाल, मुंबई, दिल्ली और ग्वालियर से जुड़ा है.
इंदौर (55 किलोमीटर)में बस स्टोप है. यह भोपाल, मुंबई, दिल्ली और ग्वालियर से जुड़ा है.
इंदौर (55 किलोमीटर)में रेलवे स्टेशन है. यह भोपाल, मुंबई, दिल्ली और ग्वालियर से जुड़ा है.

क्या करें अगर कुंडली में राहु-मंगल हों साथ-साथ?
ज्योतिष में मंगल और राहु मिल कर अंगारक योग बनाते हैं। लाल किताब में इस योग को पागल हाथी का नाम दिया गया है। अगर यह योग किसी की कुंडली में होता है तो वो व्यक्ति अपनी मेहनत से नाम और पैसा कमाता है। ऐसे लोगों के जीवन में कई उतार चढ़ाव आते हैं।
यह योग अच्छा और बुरा दोनों तरह का फल देने वाला है। ज्योतिष में इस योग को अशुभ माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि कुंडली में यह योग होने पर इसकी शांति करवाना चहिए नहीं तो लंबे समय तक परेशानियां बनी रहती हैं। उज्जैन में अंगारेश्वर महादेव मन्दिर में मंगल-राहु अंगारक योग की शांति होती है।

क्या प्रभाव होता है कुंडली के बारह घरों में मंगल-राहु अंगारक योग का?
1- कुंडली के पहले घर में मंगल-राहु अंगारक योग होने से पेट के रोग और शरीर पर चोट का निशान रहता है।
ये उपाय करें- रेवडिय़ां, बताशे पानी में बहाएं।
2- कुंडली के दूसरे भाव में अंगारक योग होने से धन संबंधित उतार चढ़ाव आते हैं। ऐसे लोग धन के मामलों में जोखिम लेने से नहीं घबराते हैं।
ये उपाय करें- चांदी की अंगूठी उल्टे हाथ की लिटील फिंगर में पहनें।
3- जिन लोगों की कुंडली के तीसरे भाव में ये योग होता उनको भाइयों और मित्रों से सहयोग मिलता है और वो लोग मेहनत से पैसा, मान सम्मान कमाते हैं।
ये उपाय करें- घर में हाथी दांत रखें।
4- कुंडली के चौथे भाव में ये योग होने से माता के सुख में कमी आती है और भूमि संबंधित विवाद चलते रहते हैं।
ये उपाय करें- सोना, चांदी और तांबा तीनों को मिलाकर अंगूठी पहनें।
5- कुंडली के पांचवें भाव में अंगारक योग योग जुए, सट्टे, लॉटरी और शेयर बाजार में लाभ दिलाता है।
ये उपाय करें- रात को सिरहाने पानी का बर्तन भरकर रखें और सुबह उठते ही पेड़-पौधों में डालें।
6- जिन लोगों की कुंडली के छठे घर में मंगल-राहु एक साथ होते हैं ऐसे लोग ऋण लेकर उन्नति करते हैं। अच्छे वकील और चिकित्सक भी इसी योग के कारण बनते हैं।
ये उपाय करें- कन्याओं को दूध और चांदी का दान दें।
7- कुंडली के सातवें भाव में अंगारक योग साझेदारी के काम में फायदा दिलाता है।
ये उपाय करें- चांदी की ठोस गोली अपने पास रखें।
8- जिन लोगों की कुंडली के आठवें घर में अंगारक योग बनता है ऐसे लोगों को वसीयत में सम्पत्ति मिलती है। ऐसे लोगों को ऐक्सीडेंट का खतरा होता है।
ये उपाय करें- एक तरफ सिकी हुई मीठी रोटियां कुत्तों को डालें।
9- कुंडली के नवें घर में ये योग बनता है तो ऐसे लोग कर्मप्रधान होते है ऐसे लोगों की किस्मत ज्यादातर साथ नहीं देती। ये लोग कुछ रूढ़ीवादी होते हैं।
ये उपाय करें- मंगलवार को हनुमान जी को सिंदूर चढ़ाएं।
10- दसवें भाव में अंगारक योग जिन लोगों की कुंडली में होता है वो लोग रंक से राजा बन जाते हैं।
ये उपाय करें- मूंगा रत्न धारण करें।
11- कुंडली के लाभ भाव यानि ग्यारहवें भाव में अंगारक योग होने से प्रॉपर्टी से लाभ मिलता है।
ये उपाय करें- मिट्टी के बर्तन में सिन्दूर रख कर, उसे घर में रखें।
12- बारहवें भाव में अंगारक योग होता है उन लोगों का पैसा विदेश में जमा होता है। ऐसे लोग रिश्वत में पकड़ा जाते हैं कभी कभी जेल यात्रा के योग भी बनते हैं।
ये उपाय करें- रोज सुबह थोड़ा शहद खाएं।

मंगल से प्रभावित होते हैं मंगली----
ज्योतिष के अनुसार मंगली लोगों पर मंगल ग्रह का विशेष प्रभाव होता है। यदि मंगल शुभ हो तो वह मंगली लोगों को मालामाल बना देता है। मंगली व्यक्ति अपने जीवन साथी से प्रेम-प्रसंग के संबंध में कुछ विशेष इच्छाएं रखते हैं, जिन्हें कोई मंगली जीवन साथी ही पूरा कर सकता है। इसी वजह से मंगली लोगों का विवाह किसी मंगली से ही किया जाता है।
कौन होते हैं मंगली?
कुंडली में कई प्रकार के दोष बताए गए हैं। इन्हीं दोषों में से एक है मंगल दोष। यह दोष जिस व्यक्ति की कुंडली में होता है वह मंगली कहलाता है। जब किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली के 1, 4, 7, 8, 12 वें स्थान या भाव में मंगल स्थित हो तो वह व्यक्ति मंगली होता है।
मंगल के प्रभाव के कारण ऐसे लोग क्रोधी स्वभाव के होते हैं। ज्योतिष के अनुसार मंगली व्यक्ति की शादी मंगली से ही होना चाहिए। यदि मंगल अशुभ प्रभाव देने वाला है तो इसके दुष्प्रभाव से कई क्षेत्रों में हानि प्राप्त होती है। भूमि से संबंधित कार्य करने वालों को मंगल ग्रह की विशेष कृपा की आवश्यकता है।
मंगल देव की कृपा के बिना कोई व्यक्ति भी भूमि संबंधी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। मंगल से प्रभावित व्यक्ति अपनी धुन का पक्का होता है और किसी भी कार्य को बहुत अच्छे से पूर्ण करता है।
हमारे शरीर में सभी ग्रहों का अलग-अलग निवास स्थान बताया गया है। ज्योतिष के अनुसार मंगल ग्रह हमारे रक्त में निवास करता है।
मंगली लोगों की खास बातें----
मंगली होने का विशेष गुण यह होता है कि मंगली कुंडली वाला व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी को पूर्ण निष्ठा से निभाता है। कठिन से कठिन कार्य वह समय से पूर्व ही कर लेते हैं। नेतृत्व की क्षमता उनमें जन्मजात होती है।
ये लोग जल्दी किसी से घुलते-मिलते नहीं परंतु जब मिलते हैं तो पूर्णत: संबंध को निभाते हैं। अति महत्वाकांक्षी होने से इनके स्वभाव में क्रोध पाया जाता है। परंतु यह बहुत दयालु, क्षमा करने वाले तथा मानवतावादी होते हैं। गलत के आगे झुकना इनको पसंद नहीं होता और खुद भी गलती नहीं करते।
ये लोग उच्च पद, व्यवसायी, अभिभाषक, तांत्रिक, राजनीतिज्ञ, डॉक्टर, इंजीनियर सभी क्षेत्रों में यह विशेष योग्यता प्राप्त करते हैं। विपरित लिंग के लिए यह विशेष संवेदनशील रहते हैं, तथा उनसे कुछ विशेष आशा रखते हैं। इसी कारण मंगली कुंडली वालों का विवाह मंगली से ही किया जाता है।
ग्रहों का सेनापति है मंगल----
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नौ ग्रह बताए गए हैं जो कुंडली में अलग-अलग स्थितियों के अनुसार हमारा जीवन निर्धारित करते हैं। हमें जो भी सुख-दुख, खुशियां और सफलताएं या असफलताएं प्राप्त होती हैं, वह सभी ग्रहों की स्थिति के अनुसार मिलती है। इन नौ ग्रहों का सेनापति है मंगल ग्रह। मंगल ग्रह से ही संबंधित होते है मंगल दोष। मंगल दोष ही व्यक्ति को मंगली बनाता है।
पाप ग्रह है मंगल---
मंगल ग्रह को पाप ग्रह माना जाता है। ज्योतिष में मंगल को अनुशासन प्रिय, घोर स्वाभिमानी, अत्यधिक कठोर माना गया है। सामान्यत: कठोरता दुख देने वाली ही होती है। मंगल की कठोरता के कारण ही इसे पाप ग्रह माना जाता है। मंगलदेव भूमि पुत्र हैं और यह परम मातृ भक्त हैं। इसी वजह से माता का सम्मान करने वाले सभी पुत्रों को विशेष फल प्रदान करते हैं। मंगल बुरे कार्य करने वाले लोगों को बहुत बुरे फल प्रदान करता है।
मंगल के प्रभाव----
मंगल से प्रभावित कुंडली को दोषपूर्ण माना जाता है। जिस व्यक्ति की कुंडली में मंगल अशुभ फल देने वाला होता है उसका जीवन परेशानियों में व्यतीत होता है। अशुभ मंगल के प्रभाव की वजह से व्यक्ति को रक्त संबंधी बीमारियां होती हैं। साथ ही, मंगल के कारण संतान से दुख मिलता है, वैवाहिक जीवन परेशानियों भरा होता है, साहस नहीं होता, हमेशा तनाव बना रहता है।
यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में मंगल ज्यादा अशुभ प्रभाव देने वाला है तो वह बहुत कठिनाई से जीवन गुजरता है। मंगल उत्तेजित स्वभाव देता है, वह व्यक्ति हर कार्य उत्तेजना में करता है और अधिकांश समय असफलता ही प्राप्त करता है।
मंगल का ज्योतिष में महत्व:------ ज्योतिष में मंगल मुकदमा ऋण, झगड़ा, पेट की बीमारी, क्रोध, भूमि, भवन, मकान और माता का कारण होता है। मंगल देश प्रेम, साहस, सहिष्णुता, धैर्य, कठिन, परिस्थितियों एवं समस्याओं को हल करने की योग्यता तथा खतरों से सामना करने की ताकत देता है।
मंगल की शांति के उपाय:----- भगवान शिव की स्तुति करें। मूंगे को धारण करें। तांबा, सोना, गेहूं, लाल वस्त्र, लाल चंदन, लाल फूल, केशर, कस्तुरी, लाल बैल, मसूर की दाल, भूमि आदि का दान।

विवाह के दौरान इसे दोष के रूप में क्यों माना जाता है?
मंगल ग्रह 1,4,7,8 और 12 वें घर में होने से घर को प्रभावित करता है, इसे मंगल दोष कहा जाता है। मंगल ग्रह एक ऐसा ग्रह है जो आग, बिजली, रसायन, हथियार, आक्रामकता, उच्च ऊर्जा, रक्त, लड़ाई , दुर्घटना आदि का प्रतिनिधि माना जाता है। चलो देखते हैं क्या इन घरों में स्थित मंगल हो रहे प्रभावो के नतीजों का प्रतिनिधि है? घर में जो भी यह स्थित है या इसकी दृष्टि से उस घर पर मंगल के प्रभाव को जीवन के पहलुओं में अनुभव करने के लिए प्रतिनिधित्व करती है|
यदि मंगल 1 घर में है तब वह 1, 4, 7 और 8 वें घर को प्रभावित करेगा। 1 घर व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए व्यक्ति बहुत संयमहीन होता है। 4 घर सदन का प्रतिनिधित्व करता है, व्यक्तियों की वाहन, घर से जुड़ी समस्याओं या जैसे आग, रसायन के कारण दुर्घटना, बिजली आदि की संभावना होती है| और 7 घर वैवाहिक जीवन, और साझेदारी में पति व्यवसाय का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए अशांत विवाहित जीवन की संभावना होती है, पति या पत्नी बहुत गर्म स्वभाव प्रकृति के हो तो साझेदारी में नुकसान हो सकता है| 8 घर मौत का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए व्यक्ति के लिए अचानक घातक दुर्घटना की संभावना होती है| बेशक ये बहुत व्यापक दिशानिर्देश हैं| कुंडली के समग्र गुणवत्ता, ग्रहों की शक्ति, आदि ग्रहों के पहलुओं की तरह कई अन्य कोणों से अध्ययन करने की आवश्यकता होती है।
यदि मंगल 4 घर में है तब यह 4 घर में 7, 10 और 11 घर को प्रभावित करेगा | हमने 4 और 7 घर पर प्रभाव देखा है। 10 वाँ घर कैरियर, पिता, नींद आदि का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए लगातार परिवर्तन कैरियर में गड़बड़ी विकार अनिंद्रा या यहाँ तक कि पिता की जल्दी मौत आदि की संभावना को दर्शाता है। 11 वाँ घर जीवन में मौद्रिक लाभ अर्जित करता है, इसलिए दुर्घटनाओं के कारण नुकसान, चोरी आदि की संभावना होती हैं।
यदि मंगल 7 घर में है तब यह 10 वे घर को प्रभावित करता है| 1 और 2 घर के अलावा 7 और 2 घर में होता है जो व्यक्ति को धन के बारे में विचार देता है। यह व्यक्ति के परिवार को संकेत देता है और यह भी 8 घर के साथ 7 घर में विवाहित जीवन में मृत्यु या साझेदारी में व्यापार के संकेत देता है इसलिए इस घर पर मंगल दृष्टि की वजह से परिवार के सदस्यों के बीच संयमहीन और आक्रामक व्यवहार जैसे मुद्दों को बना सकता हैं। जिससे धन की हानि की संभावना भी होती है।
8 सभा यह 11, 2 और 3 घर को प्रभावित करता है। 3 घर एक व्यक्ति की मौखिक संचार कौशल ,व्यक्ति की आवाज, व्यक्ति की उपलब्धियों, भाइयों और बहनों का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए मंगल से भाई बहन के बीच तनाव पैदा हो सकता है, व्यक्ति बोलने में बहुत अशिष्ट और अभिमानी हो सकता है, दूसरों से अक्सर चोट और शायद सफलता से अधिक विफलताओं से पीडित हो सकता है।
12 वें घर में मंगल ग्रह 3, 6 और 7 घर को प्रभावित करता है। 12 वाँ घर व्यक्ति के खर्च प्रकृति को संकेत करता है । इसलिए व्यक्ति से अधिक खर्च प्रकृति का हो सकता है। 6 घर रोग, चोरी नौकरों के कारण को, मातृ चाचा आदि संकेत करता है। व्यक्ति को अम्लता के कारण बीमारियों, हाइपरटेंशन, रक्त आदि रोग होने की संभावना होती है।
इस प्रकार आप पर्यवेक्षक हैं कि अगर मंगल से इन घरों में परेशानी है ,जो विवाहित जीवन को प्रभावित करते है, इसलिए कुंडली में मंगल दोष अनुपयुक्त माना जाता है।
किन स्थितियों में जीवन साथी की कुडंली में मंगल दोष होने पर मिलान किया जाता हैं?
यदि शनि 1, 4, 7, 8, 12, घर में हो।
यदि शनि 7 वें घर के साथ 3 या 10वें दृष्टि को प्रभावित कर रहा हो। यानि यदि शनि 5 वें या 10वें घर में हैं।
यदि शक्तिशाली बृहस्पति कर्क, धनु ,मीन या वरगोतम, उच्चा नवमांश, सप्तमांश आदि पहले घर में हो।
यदि 7 वें घर में बृहस्पति 5 वें या 9 वें से प्रभावित हैं 3 या 11वें घर में रखा गया हैं।
यदि राहु या केतु 1 या 7वें घर में स्थित हो ।
मंगल के 21 वीं सदी में महत्व क्या हैं?
मंगल ग्रह एक लड़ाकू ग्रह है। जो कठिन परिस्थितियों से बाहर आने में मदद करता हैं, तनाव से निपटने में मदद देता है।
यह आक्रामकता से जरूरी चुनौतियों को लेना सिखाता हैं।
यह व्यक्ति को उघोग प्रकृति देता हैं ।
मंगल ग्रह उच्च अनुशासन, अच्छा प्रशासन और कर्म निर्णय लेना सिखाता हैं, ये सब किसी भी सफल नेता के लिए आवश्यक गुण है।
मंगल ग्रह एक सर्जन ,जनरल, एयर मार्शल, एडमिरल, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री , व्यवसायी आदि के लिए एक उपहार हैं।

सत्य के पुजारी भगवान परशुराम


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अक्षय तृतीया का भारतीय जनमानस में बड़ा महत्व है। इस दिन स्नान, होम, जप, दान आदि का अनंत फल मिलता है, ऐसा शास्त्रों का मत है। अक्षय तृतीया को ही पीतांबरा, नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम के अवतार हुए इसीलिए इस दिन इनकी जयंती मनाई जाती है। भारतीय कालगणना के सि‍द्धांत से इसी दिन त्रयेता युग का आरंभ हुआ। इसीलिए इस तिथि को सर्वसिद्ध (अबूझ) तिथि के रूप में मान्यता मिली हुई है।

वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि त्रेतायुग आरम्भ की तिथि मानी जाती है और इसे अक्षय तृतीया भी कहते है इसी दिन भगवान परशुराम जी का जन्म हुआ था. भागवत अनुसार हैहयवंश राजाओं के निग्रह के लिए अक्षय तृतीया के दिन जन्म परशुराम जी का जन्म हुआ. जमदग्नि व रेणुका की पांचवी सन्तान रूप में परशुराम जी पृथ्वी पर अवतरीत होते हैं इनके चार बड़े भाई रूमण्वन्त, सुषेण, विश्व और विश्वावसु थे अक्षय तृतीया को भगवान श्री परशुराम जी का अवतार हुआ था जिस कारण यह परशुराम जयंती के नाम से विख्यात है.

पूर्वके अवतारोंके समान इनके नामका स्वतंत्र पुराण नहीं है ।

अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः ।
इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ।।

अर्थ : चार वेद मौखिक हैं अर्थात् पूर्ण ज्ञान है एवं पीठपर धनुष्य-बाण है अर्थात् शौर्य है । अर्थात् यहां ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज, दोनों हैं । जो कोई इनका विरोध करेगा, उसे शाप देकर अथवा बाणसे परशुराम पराजित करेंगे । ऐसी उनकी विशेषता है ।

भगवान परशुराम जी शास्त्र एवम् शस्त्र विद्या के ज्ञाता थे. प्राणी मात्र का हित ही उनका सर्वोपरि लक्ष्य रहा. परशुराम जी तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी महापुरूष रहे. परशुराम जी अन्याय का निरन्तर विरोध करते रहे उन्होंने दुखियों, शोषितों और पीड़ितों की हर प्रकार से रक्षा व सहायता की. भगवान परशुराम जी की जयंती की अक्षततिथि तृतीया का भी अपना एक अलग महत्त्व है. इस तारीख को किया गया कोई भी शुभ कार्य फलदायक होता है. अक्षत तृतीया तिथि को शुभ तिथि माना जाता है इस तिथि में बिना योग निकाले भी कार्य होते हैं. भगवान परशुराम की जयंती हिंदू धर्मावलंबियों द्वारा बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है. प्राचीन ग्रंथों में इनका चरित्र अलौकिक लगता है. महर्षि परशुराम उनका वास्तविक नाम तो राम ही था जिस वजह से यह भी कहा जाता है कि ‘राम से पहले भी राम हुए हैं’.

अक्षय तृतीया का भगवान परशुराम के अवतार से संबंध होने से यह पर्व राष्ट्रीय शासन व्यवस्था के लिए भी एक विशेष स्मरणीय एवं चिंतनीय पर्व है। दस महाविद्याओं में भगवती पीतांबरा (बगलामुखी) के अनन्य साधक परशुरामजी ने अपनी शक्ति का प्रयोग सदैव कुशासन के विरुद्ध किया। निर्बल और असहाय समाज की रक्षा के लिए उनका कुठार अत्याचारी कुशासकों के लिए काल बन चुका था।

बताया जाता है कि इन्हें शिव से विशेष परशु प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिने जाता है। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया) को हुआ था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।

आज के युग में भगवान परशुराम जी के आदर्श मनुष्य जीवन में महत्वपूर्ण है । माता-पिता के पूर्ण आज्ञाकारी भगवान परशुराम जी से हमें अपने माता-पिता के आज्ञाकारी बनने का आदर्श अपने जीवन में साक्षात करते हुवें मानव कल्याणर्थ कार्य करने के उनके आदर्शो को अंगीकार करना चाहियें ।  भगवान परशुराम  जो कल्याणकारी धर्मरक्षक, वेद-शास्त्र एवं शस्त्र विद्या के ज्ञाता, परम शिव भक्त एवं अन्याय के घोर विरोधी थे । मानव मात्र के कल्याणर्थ एवं धर्म की रक्षा के उनके चारित्रिक गुण से हमें यह सीख लेनी चाहिये कि हम भी मानव कल्याण एंव धर्म की रक्षा हेतु अपनी शक्ति एवं सामथ्र्य के अनुसार कार्य करें...वेद शास्त्र एवं शस्त्र विद्या के पूर्ण ज्ञाता भगवान परशुराम जी गौ, ब्राह्मण एवं कमजोर व्यक्ति के हितकारी होते हुवें भक्ति, शक्ति, माता-पिता के आज्ञापालक थे । उनके जन्मोत्सव दिवस पर हमें उनके इन आदर्शो को जीवन में अंगीकर करने की प्रतिज्ञा लेनी चाहियें 

राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र,परशुराम जी भगवान विष्णु के अवतार थे. परशुराम भगवान शिव के अनन्य भक्त थे. वह एक परम ज्ञानी तथा महान योद्धा थे इन्ही के जन्म दिवस को परशुराम जयंती के रूप में संपूर्ण भारत में बहुत हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है.भगवान परशुराम जयंती के अवसर पर देश भर में हवन, पूजन, भोग एवं भंडारे का आयोजन किया जाता है तथा परशुराम जी शोभा यात्रा निकली जाती है. विष्णु के अवतार परशुराम जी का पूर्व नाम तो राम था, परंतु को भगवान शिव से प्राप्त अमोघ दिव्य शस्त्र परशु को धारण करने के कारण यह परशुराम कहलाए.

भगवान विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार के रूप में अवतरित हुए थे धर्म ग्रंथों के आधार पर परशुराम जी का जन्म अक्षय तृतीया, वैशाख शुक्लतृतीया को हुआ था जिसे परशुराम जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस दिन व्रत करने और पर्व मनाने की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था. परशुराम ने शस्त्र विद्या द्रोणाचार्य से सीखी थी.

पिता जमदग्नि और माता रेणुका ने तो अपने पाँचवें पुत्र का नाम 'राम' ही रखा था, लेकिन तपस्या के बल पर भगवान शिव को प्रसन्ना करके उनके दिव्य अस्त्र 'परशु' (फरसा या कुठार) प्राप्त करने के कारण वे राम से परशुराम हो गए। 'परशु' प्राप्त किया गया शिव से। शिव संहार के देवता हैं। परशु संहारक है, क्योंकि परशु 'शस्त्र' है। राम प्रतीक हैं विष्णु के। परशुराम महर्षि जमदग्नि और रेणुका के महान पराक्रमी पुत्र थे जिन्होंने पृथ्वी को क्षत्रियहीन करने के लिए उनका 21 बार सामूहिक रूप से संहार किया था। 

परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक मुनि थे। उन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।" वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।

विष्णु पोषण के देवता हैं अर्थात्‌ राम यानी पोषण/रक्षण का शास्त्र। शस्त्र से ध्वनित होती है शक्ति। शास्त्र से प्रतिबिंबित होती है शांति। शस्त्र की शक्ति यानी संहार। शास्त्र की शांति अर्थात्‌ संस्कार। मेरे मत में परशुराम दरअसल 'परशु' के रूप में शस्त्र और 'राम' के रूप में शास्त्र का प्रतीक हैं। एक वाक्य में कहूँ तो परशुराम शस्त्र और शास्त्र के समन्वय का नाम है, संतुलन जिसका पैगाम है। 

अक्षय तृतीया को जन्मे हैं, इसलिए परशुराम की शस्त्रशक्ति भी अक्षय है और शास्त्र संपदा भी अनंत है। विश्वकर्मा के अभिमंत्रित दो दिव्य धनुषों की प्रत्यंचा पर केवल परशुराम ही बाण चढ़ा सकते थे। यह उनकी अक्षय शक्ति का प्रतीक था, यानी शस्त्रशक्ति का। पिता जमदग्नि की आज्ञा से अपनी माता रेणुका का उन्होंने वध किया। यह पढ़कर, सुनकर हम अचकचा जाते हैं, अनमने हो जाते हैं, लेकिन इसके मूल में छिपे रहस्य को/सत्य को जानने की कोशिश नहीं करते। 

परशुराम दरअसल 'राम' के रूप में सत्य के संस्करण हैं, इसलिए नैतिक-युक्ति का अवतरण हैं। यह परशुराम का तेज, ओज और शौर्य ही था कि कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का वध करके उन्होंने अराजकता समाप्त की तथा नैतिकता और न्याय का ध्वजारोहण किया। परशुराम का क्रोध मेरे मत में रचनात्मक क्रोध है। 

जैसे माता अपने शिशु को क्रोध में थप्पड़ लगाती है, लेकिन रोता हुआ शिशु उसी माँ के कंधे पर आराम से सो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि उसकी माँ का क्रोध रचनात्मक है। मेरा यह भी मत है कि परशुराम ने अन्याय का संहार और न्याय का सृजन किया।

'परशु' प्रतीक है पराक्रम का। 'राम' पर्याय है सत्य सनातन का। इस प्रकार परशुराम का अर्थ हुआ पराक्रम के कारक और सत्य के धारक। शास्त्रोक्त मान्यता तो यह है कि परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं, अतः उनमें आपादमस्तक विष्णु ही प्रतिबिंबित होते हैं, परंतु मेरी मौलिक और विनम्र व्याख्या यह है कि 'परशु' में भगवान शिव समाहित हैं और 'राम' में भगवान विष्णु। इसलिए परशुराम अवतार भले ही विष्णु के हों, किंतु व्यवहार में समन्वित स्वरूप शिव और विष्णु का है।

परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।

यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीँ (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।

उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण।वैसे तो परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का एकाएक आकलन करना नमुमकिन है। जमदग्‍नि परशुराम का जन्‍म हरिशचन्‍द्र-कालीन विश्‍वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्‍कृत ग्रंथों में ‘अष्‍टादश परिवर्तन युग' के नाम से जाना गया है। अर्थात यह 7500 वि.पू. का समय ऐसे संक्रमण काल के रुप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैह्‌य अर्जुन वंश चंद्रवंशी था। इन्‍हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था। महिष्‍मती नरेश कार्तवीर्य अर्जुन इसी यादवी कुल के वंशज थे। भृगु ऋषि इस वंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्‍नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्‍नि में मतभेद उत्‍पन्‍न हो गए। परिणामस्‍वरुप जमदग्‍नि महिष्‍मति राज्‍य छोड़ कर चले गए। इस गतिविधि से रुष्‍ठ होकर सहस्‍त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्‍नि के आश्रम में सेना सहित पहुंच गया। ऋषि जमदग्‍नि और उनकी पत्‍नी रेणुका ने अतिथि सत्‍कार किया। लेकिन स्‍वेच्‍छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्‍माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्‍वरुप जमदग्‍नि की हत्‍या कर दी। आश्रम उजाड़ा और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित बलात्‌ छीनकर ले गया। अनेक ब्राहम्‍णों ने कान्‍यकुब्‍ज के राजा गाधि राज्‍य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्‍प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्‍यों की यात्राएं की जो हैह्‌य वंद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्थ और नेतृत्‍व दक्षता के बूते परशुराम को ज्‍यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। अपनी सेनाएं और हथियार परशुराम की अगुवाई में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्‍ठभूमि तैयार हुई।

परशुराम ने अपने जीवनकाल में किये थे अनेक यज्ञ-

परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवायी थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर निवास किया।

मातृ-पितृ भक्त थे परशुराम-

श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा-तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई। तब हवन-काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्निने पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचारवश पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी।

अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदन एवं समस्त भाइयों का वध कर डाला, और प्रसन्न जमदग्नि द्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर मांगा।

क्रोधी स्वभाव वाले थे परशुराम-

दुर्वासा की भाँति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्त्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्त्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।

परशुराम ने ली थी राम के पराक्रम की परीक्षा-

बताया जाता है कि परशुराम राम का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गये। दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किये। परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।

भगवान परशुराम को पृथ्वी को अत्याचारियों से मुक्त करवाने वाला अत्याचार का अंत करने वाला महापुरुष मन जाता है, इसीलिए उनके जन्मदिन पर विशेष आयोजन कर उन्हें श्रद्धा पूर्वक याद किया जाता है|





वास्तु शास्त्र का पालन करें और जीवन स्वस्थ रखें



वास्तु शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ: समरांगण सूत्रधार, मानसार, विश्वकर्मा प्रकाश, नारद संहिता, बृहतसंहिता, वास्तु रत्नावली, भारतीय वास्तु शास्त्र, मुहूत्र्त मार्तंड आदि वास्तुज्ञान के भंडार हैं। अमरकोष हलायुध कोष के अनुसार वास्तुगृह निर्माण की वह कला है, जो ईशान आदि कोण से आरंभ होती है और घर को विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों और उपद्रवों से बचाती है।

ब्रह्मा जी ने विश्वकर्मा जी को संसार निर्माण के लिए नियुक्त किया था। इसका उद्देश्य था कि गृह स्वामी को भवन शुभफल दे, पुत्र, पौत्रादि, सुख, लक्ष्मी, धन और वैभव को बढ़ाने वाला हो।

वास्तु दोष से मुक्ति के लिए पंचतत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश चारों दिशाएं पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा चारों कोण नैत्य, ईशान, वायव्य, अग्नि एवं ब्रह्म स्थान (केंद्र) को संतुलित करना आवश्यक है।

देखने में आ रहा है कि आजकल पुरूषों को पहले की तुलना में ज्यादा शारीरिक एवं मानसिक रोग हो रहे है। यह तय कि विज्ञान ने बहुत उन्नति की है। मेडिकल सांईस के कई अविष्कार मनुष्य के जटिल रोगों को दूर करने में सहायक हो रहे है। किंतु विज्ञान आधुनिक चिकित्सा की इतनी तरक्की के बाद भी मनुष्य के रोग घटने की बजाए, बढ़ते ही जा रहे है। आज नई-नई और असाध्य बीमारियां जन्म ले रही है प्रायः हर व्यक्ति किसी ना किसी रोग से पीडि़त है।

आधुनिक तकनीकों के कारण आजकल छोटे या बड़े भवनों की बनावट पहले के भवनों की तुलना में सुंदर व भव्य तो जरूर हो गई हैं, परंतु अब भवन आयताकार या चैकर न होकर अनियमित आकार के बनने लगे है। घरों की अनियमित आकार की बनावट के कारण ही उनमें वास्तुदोष उत्पन्न होते है। जो वहां रहने वालों को शारीरिक व मानसिक रोगी बनाने में अहम भूमिका निभाते है। यह एक अटल सत्य हे की वास्तु का रोगों से अभिन्न संबंध है।

किसी भी भवन में उत्तर पूर्वी भाग का संबंध जल तत्व से होता है अतः स्वास्थ्य की दृष्टि से किसी भी मानव के शरीर में जल तत्व के असंतुलित होने से अनेक व्याधियां उत्पन्न हो जाती हैं। अतः उत्तर  पूर्व को जितना खुला एवं हल्का रखेंगे उतना ही अच्छा है इस दिशा में रसोई का निर्माण अशुभ है रसोई निर्माण करने पर उदर जनित रोगों का सामना करना पड़ता है परिवार के सदस्यों में तनाव बना रहता है इस दिशा में यदि भूमिगत जल भण्डारण की व्यवस्था हो तो घर में आने वाली जलापूर्ति की पाइप भी इसी दिशा में होना शुभ है।

भवन में ईशान कोण कटा हुआ नहीं होना चाहिए। कोण कटा होने से भवन में निवास करने वाले व्यक्ति रक्त विकार से ग्रस्त हो सकते है यौन रोगों में वृद्धि होती है प्रजनन क्षमता दुष्प्रभावित होती है। ईशान कोण में यदि उत्तर का स्थान अधिक ऊंचा है तो उस स्थान पर रहने वाली स्त्रियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ईशान के पूर्व का स्थान ऊंचा होने पर पुरुष दुष्प्रभावित होते हैं परिवार का कोई सदस्य बीमार हो तो उसे ईशान कोण में मुंह करके दवा का सेवन कराने से जल्दी स्वास्थ्य लाभ मिलता है। भवन के दक्षिण-पूर्व दिशा का संबंध अग्नि तत्व से होता है जिसे अग्नि कोण माना गया है। इस दिशा में रसोई का निर्माण करने से निवास करने वाले लोगों का स्वास्थ्य ठीक रहता है अगर इस दिशा मंे जल भण्डारण या जल स्त्रोत की व्यवस्था की जाती है तो उदर रोग, आंत संबंधी रोग एवं पित्त विकार आदि बीमारियों की संभावना रहती है।

दक्षिण-पूर्वी दिशा में दक्षिण का स्थान अधिक बढ़ा हो तो परिवार की स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक कष्ट होते हैं। पूर्वी दिशा में दक्षिण का स्थान अधिक बढ़ा हो तो परिवार की स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक कष्ट होते हैं। पूर्व का स्थान बढ़ा हुआ होने से पुरुषों को शारीरिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

दक्षिण-पश्चिम भाग का संबंध पृथ्वी तत्व से होता है अतः इसे ज्यादा खुला नहीं रखना चाहिए इस स्थान को हल्का व खुला रखने से अनेक प्रकार की शारीरिक बीमारियों एवं मानसिक व्याधियों का शिकार होना पड़ता है। निवास करने वाले सदस्यों में निराशा तनाव एवं क्रोध उत्पन्न रहता है अतः इस स्थान को सबसे भारी रखना श्रेष्ठकर है यह भाग भवन के अन्य भागों से कटा हुआ नहीं होना चाहिए वरना मधुमेय की बीमारी, ज्यादा सोचना अतिचेष्टा तथा अति जागरुकता जैसी व्याधियां उत्पन्न होती हैं।


दक्षिण-पश्चिम में दक्षिण का भाग अधिक बढ़ा हुआ अथवा नीचा हो तो उसमें निवास करने वाली स्त्रियों के मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है पश्चिमी भाग अगर अधिक बढ़ा हुआ और अधिक नीचा हो तो पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः दक्षिण-पश्चिम के कोण को न तो बढ़ायें और न छोटा करें। इस स्थान को भवन में सबसे ज्यादा भारी रखना शुभ है।

भवन के उत्तर-पश्चिम भाग वायव्य कोण का संबंध वायु तत्व से होता है मानव के प्राणों का वायु से सीधा संबंध है अतः इस स्थान को खुला रखना शुभ है इस स्थान में भारी सामान नहीं रखना चाहिए एवं भारी निर्माण भी नहीं करवाना चाहिए। भारी निर्माण करवाने से वायु विकार तथा मानसिक रोगों की संभावना बढ़ जाती है। इसके धरातल का उत्तर -पूर्व के अपेक्षा थोड़ा ऊंचा किंतु दक्षिण-पूर्व एवं दक्षिण-पश्चिम से कुछ नीचा होना शुभ है। भवन के इस भाग में ऊपर का स्थान अधिक बड़ा होने से परिवार की स्त्रियों को त्वचा संबंधी रोग जैसे एग्जिमा, एलर्जी आदि बीमारियों की संभावना रहती है।


यदि उत्तर  की अपेक्षा यदि पश्चिम का स्थान अधिक बढ़ा हुआ हो तो पुरुषों को शारीरिक व्याधियां होने की संभावना रहती है। वास्तु शास्त्र में भवन के मध्य या केंद्र ब्रह्म स्थान को अति महत्वपूर्ण माना गया है। वास्तु में इसका वही महत्व है जो मानव शरीर में नाभि का होता है।


आकाश तत्व से संबंधित होने के कारण इस स्थान को खुला छोड़ना श्रेयस्कर होता है। इस स्थान पर किसी भी प्रकार की गंदगी होने से निवास करने वाले प्राणियों को स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां बनी रहती हैं इस स्थान पर विशेषकर शौचालय सीढ़ियां अथवा गटर, सैप्टिक टैंक आदि का निर्माण नहीं कराना चाहिए अन्यथा श्रवण दोष पैदा होते हैं एवं विकास कार्य प्रभावित होते हैं ब्रह्म स्थान खुला रखने से अनेक परेशानियों से मुक्ति मिलती है।


इन मुख्य वास्तु दोषी के कारन होते हैं पुरुषों एवं महिलाओं में रोग (बीमारियां)----

आइये जानते हे (देखते है) कि वह कौन से ऐसे महत्वपूर्ण वास्तुदोष है जिसके कारण पुरूषों में विभिन्न प्रकार के रोग पैदा होते है जो कभी-कभी उनका जीवन भी लील लेते है।

- यदि घर का नैऋत्य कोण (SW), विशेषतौर पर पश्चिम नैऋत्य (West of the South West) किसी प्रकार से नीचा हो या वहां किसी भी प्रकार का भूमिगत पानी का टैंक, कुआ, बोरवेल, सैप्टिक टैंक इत्यादि हो तो वहां रहने वाले पुरूष सदस्य अक्सर रोगों से पीडि़त रहेगें और उन्हें मृत्यु-भय बना रहेगा।

- अगर नैऋत्य कोण पर ऊँचाई पर हो, और दक्षिण और नैऋत्य के बीच में या नैऋत्य और पश्चिम के बीच में कुएं, गड्ढे या चैम्बर खोदे जायें या मोरी बनायी जाय तो उस घर का मालिक ऐसी बीमारी से पीडि़त हो जाएगा जिसका इलाज नहीं हो।

-पूर्व दिशा में खाली जगह न हो और पश्चिम दिशा की ओर बरामदे को ढलाऊ बनाकर घर बना हो तो वहां रहने वालो को आंखों की बीमारी, लकवा आदि बीमारियां होती है।

- दक्षिण दिशा की ओर घर का द्वार हो और पूर्व-उत्तर की हद तक निर्माण किया गया हो तथा पश्चिम में खाली जगह हो और प्लाट में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर ढलान हो, पश्चिम में भूमिगत पानी का स्रोत हो तो ऐसे घर का मालिक अल्पायु में ही भयंकर रोगों का शिकार होगा।

-  नैऋत्य (SW) या पश्चिम-नैऋत्य (West of the South West) में कम्पाऊण्ड वाल या घर का द्वार हो तो घर के लोग बदनामी, जेल, एक्सीडेंट या खुदकुशी के शिकार होंगे। हार्ट अटैक, आपरेशन, एक्सिडेन्ट, हत्या, लकवा अर्थात किसी भी प्रकार की असामयिक मृत्यु का शिकार होगें।

-  पूर्व, आग्नेय कोण, दक्षिण, पश्चिम, नैऋत्य कोण और वायव्य कोण, उत्तर और ईशान कोण से किसी भी प्रकार से नीचे हो तो घर के स्वामी की पत्नी का निधन हो जाएगा। उसे आर्थिक समस्याएं आएगी और अंत में उसकी जीवन यात्रा भी समाप्त हो जाएगी। वह लाईलाज बीमारी से पीडि़त होगा।

-   घर के पश्चिम नैऋत्य (West of the South West) मार्ग प्रहार हो तो घर के पुरूष उन्माद जैसे रोगों की शिकार होंगे। कहीं कहीं वे खुदकुशी भी कर सकते है।

-  जिस घर का पश्चिम नैऋत्य कोण बढ़ा हुआ हो उस घर के पुरूषों को लम्बी बीमारियों या उनकी दर्दनाक मौत की संभावना बनती है।

- बड़े आकार के वह बंगले जिसके पश्चिम भाग में कम्पाऊण्ड वाल के अंदर झोपडि़यां, कमरे, चबूतरे इत्यादि के फर्श गृहगर्भ के स्तर से नीचे हो तो बीमारी, बदनामी और धनहानि होती है।

-  पूर्व, आग्नेय और दक्षिण नीचे हो नैऋत्य, पश्चिम और वायव्य कोण उत्तर और ईशान से ऊँचे हों तो घर के मालिक की मृत्यु होगी, पुत्रों का नाश होगा।

- दक्षिण के साथ मिलकर अगर नैऋत्य में बढ़ाव होता तो मालिक रोगों, प्राण-भय और अकाल मृत्यु के भय से परेशान रहेगा।

-किसी घर के आंगन से पानी नैऋत्य की ओर से बाहर बहकर जाता है तो उस घर में अनहोनी की संभावना रहती है।

- ऊपर बताए गए वास्तु दोषों के साथ सभी या कुछ दोषों के होने के बाद भी कुछ खुशहाल परिवार देखने में आते है।

इसका कारण यह है कि जब घर का ईशान कोण कट जाता है या पूर्व व उत्तर की सड़कों के कारण उस स्थल का ईशान कोण कट गया हो, तो ऐसे में नैऋत्य में रहने वाले की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है। परंतु ऐसे घरों में रहने वाले केवल पैसे को महत्व देते हुए अभिमान के कारण दूसरो की इज्जत करना, प्रेमपूर्वक व्यवहार रखना भूल जाते है। निश्चित ही हत्या करने वाले, हत्या और आत्महत्या के शिकार हुए लोग, दुर्घटनाओं में मरने वालों दीर्घव्याधिग्रस्तों के घरों की बनावट में यह दोष अवश्य होता है।

उपरोक्त वास्तुदोषों को दूर कर पुरूषों को होने वाले रोगों से बचा जा सकता है। ध्यान रहे वास्तुशास्त्र एक विज्ञान है। वास्तुदोष होने पर उनका निराकरण केवल वैज्ञानिक तरीके से ही करना चाहिए और उसका एकमात्र तरीका घर की बनावट में वास्तुनुकुल परिवर्तन कर वास्तुदोषों को दूर किया जाए।

इन वास्तुदोषों का प्रभाव होता हैं महिलाओं के स्वास्थ्य पर ----

आजकल की महिलाओं का स्वास्थ्य चार-पांच दशक पहले की महिलाओं की तुलना में ज्यादा खराब रहने लगा है। रहन-सहन, खान-पान इत्यादि हर प्रकार की सावधानियां बरतने के बाद भी महिलाओं में रोग बढ़ते ही जा रहे है।


वास्तु का रोगों से अभिन्न संबंध है। आजकल बनने वाले घरों की बनावट में बहुत ज्यादा वास्तुदोष होते है। पिछले कुछ दशकों से आर्किटेक्ट मकानों को सुंदरता प्रदान करने के लिए अनियमित आकार के मकानों को महत्त्व देने लगे है। जिस कारण मकान बनाते समय जाने-अनजाने वास्तु सिद्धांतों की अवहेलना होती रहती है।

चाहे महिला हो या पुरूष उनकी हर प्रकार की बीमारी में वास्तुदोष की भी अपनी एक महत्त्व भूमिका अवश्य रहती है। वास्तुदोष के कारण घर में सकारात्क और नकारात्क ऊर्जा के बीच असंतुलन पैदा हो जाता है। जो महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ-साथ उनके जीवन पर भी प्रभाव डालता है। देखते है ऐसे कौन से वास्तु दोष है जो घर में ऊर्जा के असंतुलन का कारण बनते है।

-जिस घर का आगे का भाग टूटा हुआ, प्लास्टर उखड़ा हुआ या सामने की दीवार में दरार, टूटी फूटी या किसी प्रकार से भी खराब हो रही हो उस घर की मालकिन का स्वास्थ्य खराब रहता है उसे मानसिक अशान्ति रहती है और हमेशा अप्रसन्न उदास रहती हैं।

- किसी घर का नैऋत्य कोण (SW), विशेषतौर पर दक्षिण नैऋत्य (South of the South West) किसी भी प्रकार से नीचा हो या वहां किसी भी प्रकार का भूमिगत पानी का टैंक, कुआ, बोरवेल, सैप्टिक टैंक इत्यादि हो तो वहां रहने वाली महिलाएं सदस्य अक्सर रोगों से पीडि़त रहेगी और उन्हें मृत्यु-भय बना रहेगा।

-उत्तर (North) और ईशान (North east) ऊँचा हो और बाकी सभी दिशाए व कोण पूर्व (East), आग्नेय (South east), दक्षिण (South), पश्चिम (West), नैऋत्य (South west) और वायव्य (North west) नीचे हो तो घर की स्त्री को लाईलाज बीमारी होती है और असामयिक मृत्यु की संभावना प्रबल हो जाती है।

-अगर उत्तर, ईशान और पूर्व से नैऋत्य और पश्चिम निचले हो तथा आग्नेय, दक्षिण और वायव्य ऊँचे हो तो जबरदस्त आर्थिक हानि होगी उस घर का मालिक कर्ज से परेशान होगा। उसकी पुत्री व पत्नी लम्बी बीमारियों से पीडि़त होगी।

-उत्तर, ईशान और पूर्व से नैऋत्य, पश्चिम और वायव्य निचले, आग्नेय और दक्षिण ऊँचे होने पर उस घर के मालिक की पत्नी की या तो असामयिक मृत्यु हो जाएगी या वह लम्बी बीमारी से परेशान रहेगी। ऐसे बने घर में हमेशा बीमारी, कलह, शत्रुता बनी रहती है।

-घर का आग्नेय नीचा हो, और आग्नेय और पूर्व के बीच में या आग्नेय और दक्षिण के बीच में कुओं, पानी का टैंक, सैप्टिक टैंक, बोरवेल या मोरियां बनायी जाएं तो घर के सदस्यों को दीर्घकालिन व्याधियां होंगी विशेषतौर पर घर के मालिक की पत्नी दीर्घ व्याधि से पीडि़त होगी।

- ईशान कोण स्थित घर की उत्तर ईशान दिशा की लम्बाई घटे और उत्तरी हद तक निर्माण किया गया हो तो घर की मालकिन रोग से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी अथवा आर्थिक कठिनाईयों से परेशान होकर कठिन जीवन व्यतीत करेगी।

-घर के दक्षिण नैऋत्य (South of the South West) मार्ग प्रहार हो तो स्त्रियां उन्माद जैसे रोगों की शिकार होंगी। कहीं कहीं वे खुदकुशी भी कर सकती है।

- दक्षिण नैऋत्य मार्गप्रहार से उस घर की नारियां भयंकर रोगों से पीडि़त होंगी। इसके साथ नैऋत्य में कुआं, बोरवेल, भूमिगत पानी की टंकी अर्थात् किसी भी प्रकार से नीचा हो तो वे आत्महत्या कर सकती है या लम्बी बीमारी से उनकी मृत्यु हो सकती है।

- जिस घर का दक्षिण नैऋत्य कोण बढ़ा हुआ हो उस घर की स्त्रियों को लम्बी बीमारियों या उनकी दर्दनाक मौत की संभावना बनती है।

-उत्तर वायव्य में मार्ग प्रहार हो तो उस घर की स्त्रियां बीमार रहेगी। उत्तर वायव्य मार्ग प्रहार हो तो स्त्रियां न केवल बीमार होंगी, बल्कि घर वाले अनेक प्रकार के व्यसनों के शिकार होंगे।

-पूर्व दिशा में मुखद्वार हो और उत्तर दिशा की हद तक निर्माण किया हो, दक्षिण में खाली स्थल हो तथा नैऋत्य अगे्रत हो, तो उस घर की स्त्रियां दुर्घटनाग्रस्त होंगी।

-दक्षिण में घर का मुख्यद्वार हो और ईशान कोण तक भवन निर्माण किया गया हो दक्षिण दिशा खुली हो और वहां ढलाऊ बरामदा बनाया जाये तो ऐसे घर की मालकिन लाइलाज बीमारी से परेशान रहेगी। उस घर के बच्चे भी गलत रास्तों पर चलेंगे।

-घर के दक्षिण दिशा में अहाते का होना या खुला होना या सभी कमरों व बरामदों में दक्षिण का भाग नीचा हो तो उस घर की स्त्रियां सदैव रोगी रहती है, ऐसे घरों में अकाल मृत्यु की संभावना रहती है। परिवार में आर्थिक कष्ट रहता है।

-किसी घर के आंगन से पानी दक्षिण दिशा या नैऋत्य कोण की ओर से बाहर बह जाता तो उस घर की स्त्रियों के स्वास्थ्य के लिए शुभ नहीं होता है।

उपरोक्त वास्तुदोषों को दूर कर महिलाओं को होने वाले रोगों से बचा जा सकता है। ध्यान रहे वास्तुशास्त्र एक विज्ञान है। वास्तुदोष होने पर उनका निराकरण केवल वैज्ञानिक तरीके से ही करना चाहिए और उसका एकमात्र तरीका घर की बनावट में वास्तुनुकुल परिवर्तन कर वास्तुदोषों को दूर किया जाए।



ध्यान दीजिये ,वास्तु शास्त्र के नियमों का पालन न करने से निम्न लिखित रोग हो सकते हैं---

पूर्व दिशा में दोष: यदि पूर्व दिशा का स्थान ऊंचा हो, तो गृह स्वामी गरीब होगा और उसकी संतान अस्वस्थ, मंदबुद्धि, पेट और यकृत की रोगी रहेगी।

- यदि पूर्व दिशा में रिक्त स्थान न हो और बरामदे की ढाल पश्चिम दिशा की ओर हो, तो जातक आंखों की बीमारी से ग्रस्त और लकवे का शिकार होगा। - घर के पूर्वी भाग में कूड़ा-कचरा, पत्थर और मिट्टी के ढेर हांे, तो संतान हानि हो सकती है। - घर के पश्चिम में नीचा, या रिक्त स्थान हो, तो गृह स्वामी यकृत, गले, गाल ब्लैडर की बीमारी से अल्प काल में मृत्यु को प्राप्त होगा। - यदि पूर्व की दीवार पश्चिम की दीवार से ऊंची हो, तो संतान की हानि होगी। - यदि पूर्व में शौचालय हो, तो घर की बहू-बेटियां अस्वस्थ रहेंगी। बचने के उपाय: - पूर्व में पानी, पानी की टंकी, टोंटी और कुआं लगाना शुभ है। - पूर्व दिशा का प्रतिनिधि ग्रह सूर्य है। यह काल पुरुष का मुख है। पूर्वी फाटक पर ‘सूर्य यंत्र’ स्थापित करें और वास्तु मंगलकारी तोरण लगाएं। - पूर्वी भाग नीचा और खाली होने से घर के लोग स्वस्थ रहेंगे। धन और वंश की वृद्धि होगी तथा यश और प्रतिष्ठा बढ़ेगी। पश्चिम दिशा में दोष: पश्चिम दिशा का प्रतिनिधि ग्रह शनि है। यह काल पुरुष का पेट, गुप्तांग एवं प्रजनन अंग है। - यदि पश्चिम भाग के चबूतरे नीचे हों, तो फेफड़े, मुख, छाती और चमड़ी के रोग होने की संभावना होगी। - यदि पश्चिमी भाग नीचा होगा, तो पुरुष संतान अस्वस्थ होगी। यदि पश्चिमी भाग का जल, या वर्षा का जल पश्चिम से हो कर, बाहर जाए तो पुरुष लंबी बीमारियों के शिकार होंगे। - यदि मुख्य द्वार पश्चिम दिशा वाला हो, तो घर के लोग बीमार रहेंगे। - यदि पश्चिम दिशा में दरारें हों, तो गृह स्वामी के गुप्तांग में बीमारी होगी। - यदि पश्चिम में अग्नि स्थान हो, तो गर्मी, पित्त और मस्से की शिकायतें हांगी। बचने के उपाय: घर में ‘वरुण यंत्र’, स्थापित करें। शनिवार को व्रत रखें और काले दान करें। पश्चिम की चारदीवारी ऊंची रखें। भारी वृक्ष लगाएं। पश्चिम में ढाल न रखें। उत्तर दिशा में दोष: - यदि उत्तर दिशा ऊंची हो और उसमें चबूतरे बने हों, तो घर में गुर्दे का रोग, कान का रोग, रक्त संबंधी बीमारियां, थकावट, घुटने की बीमारियां बनी रहेंगी। - उत्तर दिशा का प्रतिनिधि ग्रह बुध है। यह काल पुरुष का हृदय है। कुंडली का चतुर्थ भाव इसका कारक स्थान है। - यदि उत्तर दिशा उन्नत हो, तो परिवार की स्त्रियां रुग्ण हो जाएंगी। बचने के उपाय: यदि उत्तर में बरामदे की ढाल हो, तो स्वास्थ्य लाभ होगा और आयु में वृद्धि होगी।, पूजा घर में ‘बुध यंत्र’ स्थापित करें। बुधवार का व्रत रखें।, घर के प्रवेश द्वार पर संगीतमय घंटियां लगाएं। घर की दीवारों को हरे रंग का बनाएं। घर में तोता पालना शुभ है। - दक्षिण दिशा के दोष: - दक्षिण दिशा का प्रतिनिधि ग्रह मंगल है। यह काल पुरुष का बायां सीना, बायां फेफड़ा और गुर्दा होता है। जन्मकुंडली का दशम भाव इसका कारक स्थान है। - यदि घर के दक्षिण में कुआं, दरार, कचरा, कूड़ादान, पुराना कबाड़ हों, तो गृहस्वामी को हृदय रोग, जोड़ों का दर्द, खून की कमी, पीलिया, आंखों की बीमारी और हाजमे की खराबी आदि हो सकते हैं। - दक्षिण में उत्तर से कम ऊंचा चबूतरा हो, तो जातक हृदय और आंखों के रोगों से पीड़ित होगा। - यदि दक्षिण द्वार नैर्ऋत्याभिमुख हो, तो दीर्घ व्याधियां, एवं अचानक मृत्यु देने वाला हो। - यदि दक्षिण भाग नीचा हो ओर उत्तर से अधिक खाली स्थान हो, तो घर की महिलाएं सदा अस्वस्थ रहेंगी। वे उच्च रक्तचाप, चोट, पाचन क्रिया की गड़बड़ी मासिक-धर्म में दोष, खून की कमी, अचानक मृत्यु, या दुर्घटना की शिकार होंगी। दक्षिण पिशाच का निवास है। इसलिए थोड़ी जगह खाली रख कर घर का निर्माण करवाएं। - यदि दक्षिण में कुआं, या जल हो, तो अचानक दुर्घटना से मृत्यु होगी। बचने के उपाय: यदि दक्षिण भाग ऊंचा हो, तो घर के लोग स्वस्थ एवं संपन्न होंगे। वास्तु मंगलकारी तोरण लगावें। हनुमान जी की उपासना करें। दक्षिणमुखी घर का जल उत्तर-पूर्व दिशा से हो कर बाहर निकले, तो स्वास्थ्य लाभ होगा। दक्षिण द्वार पर ‘मंगल यंत्र’ लगावें। दक्षिण में कमरे ऊंचे बनवाएं। घर के मुख्य फाटक के अंदर-बाहर दक्षिणावर्ती सूंड वाले गणपति लगावें। रसोई के गलत स्थान पर होने से रोग: रक्तचाप, अफारा, अपच, अम्लता, मंदाग्नि, बदहज़मी, नाड़ी अवरुद्धता, लकवा और, मानसिक तनाव हांेगे। उत्तर-पूर्व में रसोई होना : यह जल का स्थान है। यदि यहां रसोई होगी, तो हृदय रोग, खांसी, अम्लता, मंदाग्नि, बदहज़मी, पेट में गड़बड़ी और आतों के रोग आदि होंगे। पूर्व में दोष होना: यदि पूर्व में रसोई हो, तो मधुमेह, मोटापा, कान के रोग और गुप्तांग में रोग उत्पन्न हो सकते हैं। उत्तर-पश्चिम में दोष होना: यदि रसोई पश्चिम में हो, तो पेट में गैस, चर्म के रोग, छाती में जलन, दिमाग के रोग आदि होंगे और स्वभाव में क्रोध रहेगा। रसोई दक्षिण-पश्चिम (नैर्ऋत्य कोण) में होना: नैर्ऋत्य कोण का संबंध पृथ्वी तत्व (मंगल) से है। दक्षिण पश्चिम का संबंध राहु से है। मंगल और राहु की युति होने से कई प्रकार के रोग उत्पन्न होंगे। रोग: कोलेस्ट्राॅल बढ़ने का रोग, नाड़ी विकार, रक्तचाप, सिर दर्द, लकवा, जोड़ों का दर्द, यकृत-गर्दन के रोग, चर्म रोग, आंखों और हृदय के रोग, पागलपन, कैंसर, टाइफायड जैसे रोग हो सकते हैं। दक्षिण-पूर्व में दोष होना: दक्षिण पूर्व में दोष होने से बहरापन, गूंगापन, तिल्ली के रोग, पीलिया, लीवर और छाती के रोग होने की संभावना रहती है।




कर्ज पर आजादी प्राप्त करें

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ऐसा क्यों होता है कि कभी-कभी कर्ज चुकने का नाम ही नहीं लेता?कर्ज षब्द का भाव है कि किसी से उधार कुछ धन लिया और बाद मे उस पर कुछ अतिरिक्त धन देकर मुलधन को वापस कर देना । ये सबसे बुरी बीमारी है और अगर एक  साल ब्याज की किस्त किसी कारण वष नही दें पाया तो अगले वर्श उस ब्याज को मूलधन मे जोड दिया जाता है और इस प्रकार ब्याज के उपर ब्याज देना पडता है । इसी प्रकार हम हर रोज या हर माह जैसा निष्चित किया गया है उनके हिसाब के मुताबिक ब्याज व मुलधन नही दे सके तो एक दिन ऐसा आऐगा कि हम कर्ज से इतने दब जायेंगे कि पूरी जिन्दगी दबे रहेंगे न खाना अच्छा खा सकेंगे और बच्चो का सही ढंग से पालन पोशण कर पाएंगे । और एक दिन जब कर्ज से ज्यादा दब जायेगें और किसी भी स्थिति मे चुकता नही कर पाएगें तो हमे दिवालिया घोशित कर दिया जाएगा कोई भी आदमी आदर से नही देखेगा और उसे दुनियां के लोग बडी घृणा से देखते है । लोग उसे कुछ भी देना पसन्द नही करते है ।शास्त्रों में मंगलवार और बुधवार को कर्ज के लेन-देन के लिए निषेध किया है। मंगलवार को कर्ज लेने वाला जीवनभर कर्ज नहीं चुका पाता तथा उस व्यक्ति की संतान भी इस वजह परेशानियां उठाती हैं।जीवन में प्रत्येक व्यक्ति को कभी न कभी अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए कर्ज लेना ही पड़ता है। कई बार व्यक्ति कर्ज को जल्दी चुकाने की इच्छा रखता है, लेकिन कर्ज का अंत नहीं आता है। कर्ज के लेन-देन में वार का भी विशेष महत्व होता है।
यदि व्यक्ति को किसी कारणवश कर्ज लेना पड़े तो वार देखकर लेना हितकर रहेगा।
कर्ज को न बढने दो इसे रोज चुकाओ बिना नागा किए भजन सुमिरन करो ताकि ब्याज और मुलधन दोनो को चुका दिया जाए ।
‘‘करि रोज भजन तु भाई । कर्मो की करि लै लाई’’ ‘‘फसलॅ पहुंच जाय खलियान’’

रोज़मर्रा की जिंदगी और घर-गृहस्ती के कामों के लिए इंसान कमोबेश ऋण लेता रहता है| यह कर्ज तब तक भार नहीं लगता है, जब तक वह चुकता रहता है| लेकिन समस्या तब बढ़ जाती है, जब कर्ज लेकर कर्जा चुकाएं या कर्जे पर कर्जा बढ़ता चला जाए| ऐसा क्यों होता है और ज्योतिष की दृष्टी से इसके कारण निवारणों पर ध्यान दिया जाए तो यह पता चलता है कि इस तरह के कुछ योग होते हैं जिनमे कर्ज चुकने में ही नहीं आता है|

धन-नाश योग: ------
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगल ग्रह को कर्ज का कारक ग्रह माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार मंगलवार को कर्ज लेना निषेध माना गया है। वहीं  बुधवार को कर्ज देना अशुभ है क्योंकि बुधवार को दिया गया कर्ज कभी नही मिलता। मंगलवार को कर्ज लेने वाला जीवनभर कर्ज नहीं चुका पाता तथा उस व्यक्ति की संतान भी इस वजह परेशानियां उठाती हैं।जन्म कुंडली के छठे भाव से रोग, ऋण, शत्रु, ननिहाल पक्ष, दुर्घटना का अध्ययन किया जाता है| ऋणग्रस्तता के लिए इस भाव के आलावा दूसरा भाव जो धन का है, दशम-भाव जो कर्म व रोजगार का है, एकादश भाव जो आय का है एवं द्वादश भाव जो व्यय भाव है, का भी अध्ययन किया जाता है| इसके आलावा ऋण के लिए कुंडली में मौजूद कुछ योग जैसे सर्प दोष व वास्तु दोष भी इसके कारण बनते हैं| इस भाव के कारक ग्रह शनि व मंगल हैं|
दूसरे भाव का स्वामी बुध यदि गुरु के साथ अष्टम भाव में हो तो यह योग बनता है| जातक पिता के कमाए धन से आधा जीवन काटता है या फिर ऋण लेकर अपना जीवन यापन करता है| सूर्य लग्न में शनि के साथ हो तो जातक मुकदमों में उलझा रहता है और कर्ज लेकर जीवनयापन व मुकदमेबाजी करता रहता है| 12 वें भाव का सूर्य व्ययों में वृद्धि कर व्यक्ति को ऋणी रखता है| अष्टम भाव का राहू दशम भाव के माध्यम से दूसरे भाव पर विष-वमन कर धन का नाश करता है और इंसान को ऋणी होने के लिए मजबूर कर देता है| इनके आलावा कुछ और योग हैं जो व्यक्ति को ऋणग्रस्त बनाते हैं|

--- उपर बताएं पाप ग्रह अगर मंगल को देख रहे हों तो भी कर्जा होता है।
---- कुंडली में खराब फल देने वाले घरों (छठे, आठवें या बारहवें) घर में कर्क राशि के साथ हो तो व्यक्ति का कर्ज लंबे समय तक बना रहता है।
----- षष्ठेश पाप ग्रह हो व 8 वें या 12 वें भाव में स्थित हो तो व्यक्ति ऋणग्रस्त रहता है|
---छठे भाव का स्वामी हीन-बली होकर पापकर्तरी में हो या पाप ग्रहों से देखा जा रहा हो|
----अगर कुंडली में मंगल कमजोर हो यानि कम अंश का हो तो ऋण लेने की स्थिति बनती है।
---- अगर मंगल कुंडली में शनि, सूर्य या बुध आदि पापग्रहों के साथ हो तो व्यक्ति को जीवन में एक बार ऋण तो लेना ही पड़ता है।
--- दूसरा व दशम भाव कमजोर हो, एकादश भाव में पाप ग्रह हो या दशम भाव में सिंह राशि हो, ऐसे लोग कर्म के     प्रति अनिच्छुक होते हैं|
--- यदि व्यक्ति का 12 वां भाव प्रबल हो व दूसरा तथा दशम कमजोर तो जातक उच्च स्तरीय व्यय वाला होता है और 5. निरंतर ऋण लेकर अपनी जरूरतों की पूर्ति करता है|
--- आवास में वास्तु-दोष-पूर्वोत्तर कोण में निर्माण हो या उत्तर दिशा का निर्माण भारी व दक्षिण दिशा का निर्माण हल्का हो तो व्यक्ति के व्यय अधिक होते हैं और ऋण लेना ही पड़ता है|

उपाय----
------ नित्य गोपाल विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें|
------ रविवार तक 10 वर्ष से कम उम्र की कन्याओं को भोजन कराएं।
----- हर मंगलवार लाल गाय को गुड़ खिलाएं।
---- शनिवार को ऋणमुक्तेश्वर महादेव का पूजन करें।
----- मंगल की भातपूजा, दान, होम और जप करें।
----विधि-विधान पूर्वक लक्ष्मी-यन्त्र की स्थापना कर लक्ष्मी-स्तोत्र व कवच का पाठ करें या कराएं|
----- मंगल एवं बुधवार को कर्ज का लेन-देन न करें।
----- लाल, सफेद वस्त्रों का अधिकतम प्रयोग करें।
-- श्रीगणेश को प्रतिदिन दूर्वा और मोदक का भोग लगाएं।
- लक्ष्मी- गायत्री मंत्र ‘ॐ महालक्ष्म्मै च विद्महे, विष्णु पत्नये च धीमहि, तन्नो लक्ष्मिः प्रचोदयात’ का जप करें या कराएं|
- श्रीगणेश का अथर्वशीर्ष का पाठ प्रति बुधवार करें।
- शिवलिंग पर प्रतिदिन कच्चा दूध चढ़ाएं।
अपनी राशी अनुसार जाने उधार और कर्ज से बचने के लिए उपाय---
मेष- घोड़े को हरा चारा खिलाए या रोगीयों को औषधि का दान दें।
वृष- विद्यार्थियों को अध्ययन की सामग्री दान दें।
मिथुन- हरे पौधों को पानी दें या तोते को हरी मिर्च खिलाए।
कर्क- 10 वर्ष से कम उम्र वाली कन्या को मिठाई खिला कर भेंट दें।
सिंह- किन्नर को हरी चुडिय़ां दान दें।
कन्या- गाय को हरे मूंग खिलाए और हरे वस्त्र पहनें।
तुला- जरूरतमंद को हरे वस्त्र दान दें।
वृश्चिक- कुल देवी देवता को कांसे का दीपक लगांए।
धनु- जीवनसाथी को आभूषण या पन्ना रत्न पहनाएं।
मकर- किसी को ऋण दें या ऋण दिलाने में मदद करें।
कुंभ- किसी वृद्ध को हरे वस्त्र का दान दें।
मीन- गणेश जी को दूर्वा चढ़ाए।

कर्ज और वार का संबंध ----
-सोमवार- सोमवार की अधिष्ठाता देवी पार्वती हैं। यह चर संज्ञक और शुभ वार है। इस वार को किसी भी प्रकार का कर्ज लेने-देने में हानि नहीं होती है।
-मंगलवार- मंगलवार के देवता कार्तिकेय हैं। यह उग्र एवं क्रूर वार है। इस वार को कर्ज लेना शास्त्रों में निषेध बताया गया है। इस दिन कर्ज लेने के बजाए पुराना कर्ज हो तो चुका देना चाहिए।
-बुधवार- बुधवार के देवता विष्णुहैं। यह मिश्र संज्ञक शुभ वार है, मगर ज्योतिष की भाषा में इसे नपुंसक वार माना गया है। यह गणेशजी का वार है। इस दिन कर्ज देने से बचना चाहिए।
- गुरुवार- गुरुवार के देवता ब्रह्माहैं। यह लघु संज्ञक शुभ वार है। गुरुवार को किसी को भी कर्ज नहीं देना चाहिए, लेकिन इस दिन कर्ज लेने से कर्ज जल्दी उतरता है।
-शुक्रवार- शुक्रवार के देवता इन्द्र हैं। यह मृदु संज्ञक और सौम्य वार है। कर्ज लेने-देने दोनों दृष्टि से अच्छा वार है।
-शनिवार- शनिवार के देवता काल हैं। यह दारुण संज्ञक क्रूर वार है। स्थिर कार्य करने के लिए ठीक है, परंतु कर्ज लेन-देने के लिए ठीक नहीं है। कर्ज विलंब से चुकता है।
- रविवार- रविवार के देवता शिव हैं। यह स्थिर संज्ञक और क्रूर वार है। रविवार को न तो कर्ज दें और न ही कर्ज लें।
कर्ज के पिंड से छुटकारा नहीं हो रहा हो तो प्रत्येक बुधवार को गणेशजी के सम्मुख तीन बार 'ऋणहर्ता गणेश स्तोत्र' का पाठ करें और यथाशक्ति पूजन करें।

 धनहीनता के ज्योतिष योग----

ज्योतिष में फलित करते समय योगों का विशेष योगदान होता है। योग एक से अधिक ग्रह जब युति, दृष्टि, स्थिति वश संबंध बनाते हैं तो योग बनता है। योग कारक ग्रहों की महादशा, अन्तर्दशा व प्रत्यन्तर दशादि में योगों का फल मिलता है। योग को समझे बिना फलित व्यर्थ है। योग में योगकारक ग्रह का महत्वपूर्ण भूमिका होती है। योगकाकर ग्रह के बलाबल से योग का फल प्रभावित होता है। अब यहां ज्योतिष योगों कि चर्चा करेंगे जो इस प्रकार हैं।धनहानि किसी को भी अच्छी नहीं लगती है। आज उन ज्योतिष योगों की चर्चा करेंगे जो धनहानि या धनहीनता कराते हैं। कुछ योग इस प्रकार हैं-

-धनेश  छठे, आठवें एवं बारहवें भाव में हो या भाग्येश बारहवें भाव में हो तो जातक करोड़ों कमाकर भी निर्धन रहता है। ऐसे जातक को धन के लिए अत्यन्त संघर्ष करना पड़ता है। उसके पास धन एकत्रा नहीं होता है अर्थात्‌ दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि धन रुकता नहीं है।
- जातक की कुंडली में धनेश अस्त या नीच राशि में स्थित हो तथा द्वितीय व आठवें भाव में पापग्रह हो तो जातक सदैव कर्जदार रहता है।
- जातक की कुंडली में धन भाव में पापग्रह स्थित हों। लग्नेश द्वादश भाव में स्थित हो एवं लग्नेश नवमेश एवं लाभेश(एकादश का स्वामी) से युत हो या दृष्ट हो तो जातक के ऊपर कोई न कोई कर्ज अवश्य रहता है।
-किसी की कुंडली में लाभेश छठे, आठवें एवं बारहवें भाव में हो तो जातक निर्धन होता है। ऐसा जातक कर्जदार, संकीर्ण मन वाला एवं कंजूस होता है। यदि लग्नेश भी निर्बल हो तो जातक अत्यन्त निर्धन होता है।
-षष्ठेश एवं लाभेश का संबंध दूसरे भाव से हो तो जातक सदैव ऋणी रहता है। उसका पहला ऋण उतरता नहीं कि दूसरा चढ़ जाता है। यह योग वृष, वृश्चिक, मीन लग्न में पूर्णतः सत्य सिद्ध होते देखा गया है।
-धन भाव में पाप ग्रह हों तथा धनेश भी पापग्रह हो तो ऐसा जातक दूसरों से ऋण लेता है। अब चाहे वह किसी करोड़पति के घर ही क्यों न जन्मा हो।
-किसी जातक की कुंडली में चन्द्रमा किसी ग्रह से युत न हो तथा शुभग्रह भी चन्द्र को न देखते हों व चन्द्र से द्वितीय एवं बारहवें भाव में कोई ग्रह न हो तो जातक दरिद्र होता है। यदि चन्द्र निर्बल है तो जातक स्वयं धन का नाश करता है। व्यर्थ में देशाटन करता है और पुत्रा एवं स्त्राी संबंधी पीड़ा जातक को होती है।
- यदि कुंडली में गुरु से चन्द्र छठे, आठवें या बारहवें हो एवं चन्द्र केन्द्र में न हो तो जातक दुर्भाग्यशाली होता है और उसके पास धन का अभाव होता है। ऐसे जातक के अपने ही उसे धोखा देते हैं। संकट के समय उसकी सहायता नहीं करते हैं। अनेक उतार-चढ़ाव जातक के जीवन में आते हैं।
-यदि लाभेश नीच, अस्त य पापग्रह से पीड़ित होकर छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो तथा धनेश व लग्नेश निर्बल हो तो ऐसा जातक महा दरिद्र होता है। उसके पास सदैव धन की कमी रहती है। सिंह एवं कुम्भ लग्न में यह योग घटित होते देखा गया है।
-यदि किसी जातक की कुण्डली में दशमेश, तृतीयेश एवं भाग्येश निर्बल, नीच या अस्त हो तो ऐसा जातक भिक्षुक, दूसरों से धन पाने की याचना करने वाला होता है।
- किसी कुण्डली में मेष में चन्द्र, कुम्भ में शनि, मकर में शुक्र एवं धनु में सूर्य हो तो ऐसे जातक के पिता एवं दादा द्वारा अर्जित धन की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा जातक निज भुजबल से ही धन अर्जित करता है और उन्नति करता है।
- यदि कुण्डली का लग्नेश निर्बल हो, धनेश सूर्य से युत होकर द्वादश भाव में हो तथा द्वादश भाव में नीच या पापग्रह से दृष्ट सूर्य हो तो ऐसा जातक राज्य से दण्ड स्वरूप धन का नाश करता है। ऐसा जातक मुकदमें धन हारता है। यदि सरकारी नौकरी में है तो अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित या नौकरी से निकाले जाने का भय रहता है। वृश्चिक लग्न में यह योग अत्यन्त सत्य सिद्ध होता देखा गया है।
-यदि धनेश एवं लाभेश छठे, आठवें, बारहवें भाव में हो एवं एकादश में मंगल एवं दूसरे राहु हो तो ऐसा जातक राजदण्ड के कारण धनहानि उठाता है। वह मुकदमे, कोर्ट व कचहरी में मुकदमा हारता है। अधिकारी उससे नाराज रहते हैं। उसे इनकम टैक्स से छापा लगने का भय भी रहता है।

मूलतः धनेश, लाभेश, दशमेश, लग्नेश एवं भाग्येश निर्बल हो तो धनहीनता का योग बनता है।
उक्त धनहीनता के योग योगकारक ग्रहों की दशान्तर्दशा में फल देते हैं। फल कहते समय दशा एवं गोचर का विचार भी कर लेना चाहिए।




मनुष्य का जीवन कैसे राहू से प्रभावित होता है

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हम जहां रहते हैं वहां कई ऐसी शक्तियां होती हैं, जो हमें दिखाई नहीं देतीं किंतु बहुधा हम पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं जिससे हमारा जीवन अस्त-व्यस्त हो उठता है और हम दिशाहीन हो जाते हैं। इन अदृश्य शक्तियों को ही आम जन ऊपरी बाधाओं की संज्ञा देते हैं। भारतीय ज्योतिष में ऐसे कतिपय योगों का उल्लेख है जिनके घटित होने की स्थिति में ये शक्तियां शक्रिय हो उठती हैं और उन योगों के जातकों के जीवन पर अपना प्रतिकूल प्रभाव डाल देती हैं।
भारतीय संस्कृति के अनुसार प्रेत योनि के समकक्ष एक और योनि है जो एक प्रकार से प्रेत योनि ही है, लेकिन प्रेत योनि से थोड़ा विशिष्ट होने के कारण उसे प्रेत न कहकर पितृ योनि कहते हैं।प्रेत लोक के प्रथम दो स्तरों की मृतात्माएं पितृ योनि की आत्माएं कहलाती है। इसीलिए प्रेत लोक के प्रथम दो स्तरों को पितृ लोक की संज्ञा दी गयी है।
भारतीय ज्योतिष में सूर्य को पिता का कारक व मंगल को रक्त का कारक माना गया है। अतः जब जन्मकुंडली में सूर्य या मंगल, पाप प्रभाव में होते हैं तो पितृदोष का निर्माण होता है। पितृ दोष वाली कुंडली में समझा जाता है कि जातक अपने पूर्व जन्म में भी पितृदोष से युक्त था। प्रारब्धवश वर्तमान समय में भी जातक पितृदोष से युक्त है।
जन्म के समय व्यक्ति अपनी कुण्डली में बहुत से योगों को लेकर पैदा होता है. यह योग बहुत अच्छे हो सकते हैं, बहुत खराब हो सकते हैं, मिश्रित फल प्रदान करने वाले हो सकते हैं या व्यक्ति के पास सभी कुछ होते हुए भी वह परेशान रहता है. सब कुछ होते भी व्यक्ति दुखी होता है! इसका क्या कारण हो सकता है? कई बार व्यक्ति को अपनी परेशानियों का कारण नहीं समझ आता तब वह ज्योतिषीय सलाह लेता है. तब उसे पता चलता है कि उसकी कुण्डली में पितृ-दोष बन रहा है और इसी कारण वह परेशान है.
बृहतपराशर होरा शास्त्र के अनुसार जन्म कुंडली में 14 प्रकार के शापित योग हो सकते हैं. जिनमें पितृ दोष, मातृ दोष, भ्रातृ दोष, मातुल दोष, प्रेत दोष आदि को प्रमुख माना गया है. इन शाप या दोषों के कारण व्यक्ति को स्वास्थ्य हानि, आर्थिक संकट, व्यवसाय में रुकावट, संतान संबंधी समस्या आदि का सामना करना पड़ सकता है. पितृ दोष के बहुत से कारण हो सकते हैं. उनमें से जन्म कुण्डली के आधार पर कुछ कारणों का उल्लेख किया जा रहा है जो निम्नलिखित हैं :-
जन्म कुण्डली के पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, नौवें या दसवें भाव में यदि सूर्य-राहु या सूर्य-शनि एक साथ स्थित हों तब यह पितृ दोष माना जाता है. इन भावों में से जिस भी भाव में यह योग बनेगा उसी भाव से संबंधित फलों में व्यक्ति को कष्ट या संबंधित सुख में कमी हो सकती है.
सूर्य यदि नीच का होकर राहु या शनि के साथ है तब पितृ दोष के अशुभ फलों में और अधिक वृद्धि होती है.किसी जातक की कुंडली में लग्नेश यदि छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित है और राहु लग्न में है तब यह भी पितृ दोष का योग होता है.
यदि समय रहते इस दोष का निवारण कर लिया जाये तो पितृदोष से मुक्ति मिल सकती है। पितृदोष वाले जातक के जीवन में सामान्यतः निम्न प्रकार की घटनाएं या लक्षण दिखायी दे सकते हैं।
1. यदि राजकीय/प्राइवेट सेवा में कार्यरत हैं तो उन्हें अपने अधिकारियों के कोप का सामना करना पड़ता है। व्यापार करते हैं, तो टैक्स आदि मुकदमे झेलने होंगे। सामान की बर्बादी होगी!
2. मानसिक व्यथा का सामना करना पड़ता है। पिता से अच्छा तालमेल नहीं बैठ पाता।
3. जीवन में किसी आकस्मिक नुकसान या दुर्घटना के शिकार होते हैं।
4. जीवन के अंतिक समय में जातक का पिता बीमार रहता है या स्वयं को ऐसी बीमारी होती है जिसका पता नहीं चल पाता।
5. विवाह व शिक्षा में बाधाओं के साथ वैवाहिक जीवन अस्थिर सा बना रहता है।
6. वंश वृद्धि में अवरोध दिखायी पड़ते हैं। काफी प्रयास के बाद भी पुत्र/पुत्री का सुख नहीं होगा।
7. गर्भपात की स्थिति पैदा होती है।
8. अत्मबल में कमी रहती है। स्वयं निर्णय लेने में परेशानी होती है। वस्तुतः लोगों से अधिक सलाह लेनी पड़ती है।
9. परीक्षा एवं साक्षात्मार में असफलता मिलती है।

राहु के मुख्य लक्षण (प्रभाव)---पेट के रोग, दिमागी रोग, पागलपन, खाजखुजली ,भूत -चुडैल का शरीर में प्रवेश, बिना बात के ही झूमना, नशे की आदत लगना, गलत स्त्रियों या पुरुषों के साथ सम्बन्ध बनाकर विभिन्न प्रकार के रोग लगा लेना, शराब और शबाब के चक्कर में अपने को बरबाद कर लेना,लगातार टीवी और मनोरंजन के साधनों में अपना मन लगाकर बैठना, होरर शो देखने की आदत होना, भूत प्रेत और रूहानी ताकतों के लिये जादू या शमशानी काम करना, नेट पर बैठ कर बेकार की स्त्रियों और पुरुषों के साथ चैटिंग करना और दिमाग खराब करते रहना, कृत्रिम साधनो से अपने शरीर के सूर्य यानी वीर्य को झाडते रहना, शरीर के अन्दर अति कामुकता के चलते लगातार यौन सम्बन्धों को बनाते रहना और बाद में वीर्य के समाप्त होने पर या स्त्रियों में रज के खत्म होने पर टीबी तपेदिक फ़ेफ़डों की बीमारियां लगाकर जीवन को खत्म करने के उपाय करना, शरीर की नशें काटकर उनसे खून निकाल कर अपने खून रूपी मंगल को समाप्त कर जीवन को समाप्त करना, ड्र्ग लेने की आदत डाल लेना, नींद नही आना, शरीर में चींटियों के रेंगने का अहसास होना,गाली देने की आदत पड जाना,सडक पर गाडी आदि चलाते वक्त अपना पौरुष दिखाना या कलाबाजी दिखाने के चक्कर में शरीर को तोड लेना, बाजी नामक रोग लगा लेना, जैसे गाडीबाजी, आदि, इन रोगों के अन्य रोग भी राहु के है, जैसे कि किसी दूसरे के मामले में अपने को दाखिल करने के बाद दो लोगों को आपस में लडाकर दूर बैठ कर तमाशा देखना, लोगों को क्लिप बनाकर लूटने की क्रिया करना और इन कामों के द्वारा जनता का जीवन बिना किसी हथियार के बरबाद करना भी है। अगर उपरोक्त प्रकार के भाव मिलते है, तो समझना चाहिये कि किसी न किसी प्रकार से राहु का प्रकोप शरीर पर है, या तो गोचर से राहु अपनी शक्ति देकर मनुष्य जीवन को जानवर की गति प्रदान कर रहा है, अथवा राहु की दशा चल रही है, और पुराने पूर्वजों की गल्तियों के कारण जातक को इस प्रकार से उनके पाप भुगतने के लिये राहु प्रयोग कर रहा है।

राहु से प्रभावित (ग्रस्त) मनुष्य के लक्षण के कारण----
लग्न में राहु तथा चंद्र और त्रिकोण में मंगल व शनि हों, तो जातक को प्रेत प्रदत्त पीड़ा होती है।
चंद्र पाप ग्रह से दृष्ट हो, शनि सप्तम में हो तथा कोई शुभ ग्रह चर राशि में हो, तो भूत से पीड़ा होती है।
शनि तथा राहु लग्न में हो, तो जातक को भूत सताता है।
लग्नेश या चंद्र से युक्त राहु लग्न में हो, तो प्रेत योग होता है।
यदि दशम भाव का स्वामी आठवें या एकादश भाव में हो और संबंधित भाव के स्वामी से दृष्ट हो, तो उस स्थिति में भी प्रेत योग होता है।
1. नीच राशि में स्थित राहु के साथ लग्नेश हो तथा सूर्य, शनि व अष्टमेश से दृष्ट हो।
2. पंचम भाव में सूर्य तथा शनि हो, निर्बल चन्द्रमा सप्तम भाव में हो तथा बृहस्पति बारहवें भाव में हो।
3. जन्म समय चन्द्रग्रहण हो और लग्न, पंचम तथा नवम भाव में पाप ग्रह हों तो जन्मकाल से ही पिशाच बाधा का भय होता है।
4. षष्ठ भाव में पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट राहु तथा केतु की स्थिति भी पैशाचिक बाधा उत्पन्न करती है।
5. लग्न में शनि, राहु की युति हो अथवा दोनों में से कोई भी एक ग्रह स्थिति हो अथवा लग्नस्थ राहु पर शनि की दृष्टि हो।
6. लग्नस्थ केतु पर कई पाप ग्रहों की दृष्टि हो।
7. निर्बल चन्द्रमा शनि के साथ अष्टम में हो तो पिशाच, भूत-प्रेत मशान आदि का भय।
8. निर्बल चन्द्रमा षष्ठ अथवा बाहरहवें में मंगल, राहु या केतु के साथ हो तो भी पिशाच भय।
9. चर राशि (मेष, कर्क, तुला, मकर) के लग्न पर यदि षष्ठेश की दृष्टि हो।
10. एकादश भाव में मंगल हो तथा नवम भाव में स्थिर राशि (वृष, सिंह,वृश्चिक, कुंभ) और सप्तम भाव में द्विस्वभाव राशि(मिथुन, कन्या, धनु मीन) हो।
11. लग्न भाव मंगल से दृष्ट हो तथा षष्ठेश, दशम, सप्तम या लग्न भाव में स्थिति हों।
12. मंगल यदि लग्नेश के साथ केंद्र या लग्न भाव में स्थिति हो तथा छठे भाव का स्वामी लग्नस्त हो।
13. पापग्रहों से युक्त या दृष्ट केतु लग्नगत हो।
14. शनि राहु केतु या मंगल में से कोई भी एक ग्रह सप्तम स्थान में हो।
15. जब लग्न में चन्द्रमा के साथ राहु हो और त्रिकोण भावों में क्रूर ग्रह हों।
16. अष्टम भाव में शनि के साथ निर्बल चन्द्रमा स्थित हो।
17. राहु शनि से युक्त होकर लग्न में स्थित हो।
18. लग्नेश एवं राहु अपनी नीच राशि का होकर अष्टम भाव या अष्टमेश से संबंध करे।
19. राहु नीच राशि का होकर अष्टम भाव में हो तथा लग्नेश शनि के साथ द्वादश भाव में स्थित हो।
20. द्वितीय में राहु द्वादश मं शनि षष्ठ मं चंद्र तथा लग्नेश भी अशुभ भावों में हो।
21. चन्द्रमा तथा राहु दोनों ही नीच राशि के होकर अष्टम भाव में हो।
22. चतुर्थ भाव में उच्च का राहु हो वक्री मंगल द्वादश भाव में हो तथा अमावस्या तिथि का जन्म हो।
23. नीचस्थ सूर्य के साथ केतु हो तथा उस पर शनि की दृष्टि हो तथा लग्नेश भी नची राशि का हो।
24. जिन जातकों की कुण्डली में उपरोक्त योग हों, उन्हें विशेष सावधानीपूर्वक रहना चाहिए तथा संयमित जीवन शैली का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। जिन बाहय परिस्थितियों के कारण प्रेत बाधा का प्रकोप होता है उनसे विशेष रूप से बचें। जातक को प्रेतबाधा से मुक्त रखने में अधोलिखित उपाय भी सहायक सिद्ध हो सकते हैं:-
25. शारीरिक सुचिता के साथ-साथ मानसिक पवित्रता का भी ध्यान रखें।
26. नित्य हनुमान चालीसा तथा बजरंग बाण का पाठ करें।
27. मंगलवार का व्रत रखें तथा सुन्दरकांड का पाठ करें।
28. पुखराज रत्न से प्रेतात्माएं दूर भागती हैं, अतः पुखराज रत्न धारण करें।
29. घर में नित्य शंख बजाएं।
30. नित्य गायत्री मंत्र की एक माला का जाप करें।

सूर्यकृत पितृदोष निवारण
1. शुक्लपक्ष के प्रथम रविवार के दिन घर में विध विधान से सूर्ययंत्र स्थापित करें। सूर्य को नित्य तांबे के पात्र में जल लेकर अघ्र्य दें। जल में कोई लाल पुष्प चावल व रोली अवश्य मिश्रित कर लें। जब घर से बाहर जाएं तो यंत्र दर्शन जरूर करें।
2. निम्न मंत्र का एक माला नित्य जप करें। ध्यान रहे आपका मुख पूर्व दिशा में हो। ऊं आदित्याय विद्महे, प्रभाकराय, धीमहि तन्नो सूर्यः प्रचोदयात्।।
3. ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष के प्रथम रविवार से प्रारंभ कर कम से कम 12 व अधिक से अधिक 30 रविवार व्रत रखें। सूर्यास्त के पूर्व गेहूं गुड घी आदि से बनी कोई सामग्री खा कर व्रतपूर्ण करें। व्रत के दिन सूर्य स्तोत्र का पाठ भी करें।
4. लग्नानुसार सोने या तांबे में 5 रत्ती के ऊपर का माणिक्य रविवार के दिन विधि विधान से धारण कर लें।
5. पांच मुख रूद्राक्ष धारण करें। तथा नित्य द्वादश ज्योतिर्लिंगो के नामों का स्मरण करें।
6. पिता का अपमान न करें। बड़े बुजुर्गों को सम्मान दें।
7. रविवार के दिन गाय को गेहूं व गुउ़ खिलाएं। स्वयं घर से बाहर जाते समय गुड़ खाकर निकला करें।
8. दूध में शहद मिलाकर पिया करें।
9. सदैव लाल रंग का रूमाल अपने पास अवश्य रखें।
मंगलकृत पितृदोष निवारण:
1. शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार के दिन घर में मंगल यंत्र पूर्ण विधि विधान से स्थापित करें । जब घर के बाहर जाएं तो यंत्र दर्शन अवश्य करके जाएं।
2. नित्य प्रातःकाल उगते हुए सूर्य को अघ्र्य दें।
3. निम्य एक माला जप निम्न मंत्र का करें। ऊं अंगारकाय विद्महे, शक्तिहस्ताय, धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्।।
4. शुक्लपक्ष के प्रथम मंगलवार से आरंभ करके 11 मंगलवार व्रत करें। हनुमान जी व शिवजी की उपासना करें। जमीन पर सोएं।
5. मंगलवार के दिन 5 रत्ती से अधिक वनज का मूंगा सोने या तांबे में विधि विधान से धारण करें।
6. तीनमुखी रूद्राख धारण करें तथा नित्य प्रातःकाल द्वादश ज्योतिर्लिंगों के नामों का स्मरण करें।
7. बहनों का भूलकर भी अपमान न करें।
8. लालमुख वाले बंदरों को गुड़ व चना खिलाएं।
9. जब भी अवसर मिले रक्तदान अवश्य करें।
10. 100 ग्राम मसूर की दाल जल में प्रवाहित कर दें।
11. सुअर को मसूर की दाल व मछलियों को आटे की गोलियां खिलाया करें।
विशेष:- हो सकता है कि कुंडली में सूर्य व मंगलकृत दोनों ही पितृदोष हो। यह स्थिति अत्यंत घातक हो सकती है। यदि ऐसी स्थिति है तो जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सूर्य मंगल राहु की युति विशेष रूप से कष्टकारी हो सकती है। अतः अनिष्टकारी प्रभावों से बचने के लिए निम्न उपाय करने चाहिए।
1. शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार को सांय काल पानी वाला नारियल अपने ऊपर से 7 बार उतार कर तीव्र प्रवाह वाले जल में प्रवाहित कर दें तथा पितरों से आशीर्वाद का निवेदन करें।
2. अष्टमुखी रूद्राक्ष धारण करें। घर में 21 मोर के पंख अवश्य रखें तथा शिवलिंग पर जलमिश्रित दूध अर्पित करें। प्रयोग अनुभूत है अवश्य लाभ मिलेगा।
3. जब राहु की महादशा या अंतर्दशा चल रही हो तो कंबल का प्रयोग कतई न करें।
4. सफाईकर्मी को दान दक्षिणा दे दिया करें।
उपरोक्त प्रयोग पूर्ण श्रद्धा लगन व विश्वास के साथ करने पर पितृदोष के दुष्प्रभावों का शमन होता है।
भूतप्रेत निवारण के लिए हनुमानजी की भक्ति श्रीराम भक्त हनुमान को केसरीनन्दन पवनसुत अंजनीपुत्र आदि नामों से पुकारा जाता है। हनुमान जी आठ तरह की सिद्धियों और नौ तरह की निधियों के दाता हैं। हनुमान जी के प्रत्येक पाठ इतने चमत्कारी हैं कि उनके मात्र एक बार स्मरण से ही व्यक्ति मुसीबत से पार हो जाता है। चाहे वह चालीसा हो सुन्दरकांड हो कवच हो या स्तोत्र हो इनमें से किसी का भी पाठ कर लेने से बाधाओं में धंसा हुआ व्यक्ति जैसे तुरंत ही भवसागर तर जाता है।
प्रत्येक मंगलवार और शनिवार के दिन हनुमान मंदिर पर भक्तों का आकर्षण इस बात का परिचायक है कि प्रभु श्री राम के साथ हनुमान भी सभी के हृदय में विराजे हैं।
किसी भी प्रकार की बाधा हो चाहे व्यक्ति आर्थिक संकट से ग्रस्त हो या भूतपिशाच जैसे ऊपरी बाधाओं से परेशान तथा मारण सम्मोहन उच्चाटन आदि से ग्रस्त व्यक्ति को हनुमान आराधना से बहुत ही अच्छा लाभ मिलता है। यदि कोर्ट कचहरी लड़ाई मुकदमों से ग्रस्त व्यक्ति भी हनुमान जी की शरण में आएं तो उसे लाभ अवश्य मिलता है।
हनुमान साधना के नियम
शास्त्रों में मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन व्रत करने से और इसी दिन हनुमान पाठ जप अनुष्ठान आदि प्रारंभ करने से त्वरित फल प्राप्त होता है। 1. हनुमान-साधना में लाल चीजों का प्रयोग अधिक हो।
2. जप पाठ अनुष्ठान आदि प्रारंभ करने से पूर्व किसी भी हनुमान मंदिर में जाकर हनुमान जी से आज्ञा मांग लेनी चाहिए।
3. जातक को पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह करके लाल आसन का प्रयोग करते हुए हनुमान साधना प्रारंभ कर लेनी चाहिए व जप मूंगे की माला से भी कर सकते हैं।
4. साधना के दौरान ब्रहमचर्य का पालन आहार विहार पर नियंत्रण रखना चाहिए।

राहु से प्रभावित (ग्रस्त) मनुष्य को ठीक करने के उपाय---
उक्त योगों के जातकों के आचरण और व्यवहार में बदलाव आने लगता है। ऐसे में उन योगों के दुष्प्रभावों से मुक्ति हेतु निम्नलिखित उपाय करने चाहिए।
संकट निवारण हेतु पान, पुष्प, फल, हल्दी, पायस एवं इलाइची के हवन से दुर्गासप्तशती के बारहवें अध्याय के तेरहवें श्लोक सर्वाबाधा........न संशयः मंत्र से संपुटित नवचंडी प्रयोग कराएं।
दुर्गा सप्तशती के चौथे अध्याय के चौबीसवें श्लोक का पाठ करते हुए पलाश की समिधा से घृत और सीलाभिष की आहुति दें, कष्टों से रक्षा होगी।
शक्ति तथा सफलता की प्राप्ति हेतुग्यारहवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक सृष्टि स्थिति विनाशानां......का उच्चारण करते हुए घी की आहुतियां दें।
शत्रु शमन हेतु सरसों, काली मिर्च, दालचीनी तथा जायफल की हवि देकर अध्याय के उनचालीसवें श्लोक का संपुटित प्रयोग तथा हवन कराएं।

कुछ अन्य उपाय---------
महामृत्युंजय मंत्र का विधिवत्‌ अनुष्ठान कराएं। जप के पश्चात्‌ हवन अवश्य कराएं।
महाकाली या भद्रकाली माता के मंत्रानुष्ठान कराएं और कार्यस्थल या घर पर हवन कराएं।
गुग्गुल का धूप देते हुए हनुमान चालीस तथा बजरंग बाण का पाठ करें।
उग्र देवी या देवता के मंदिर में नियमित श्रमदान करें, सेवाएं दें तथा साफ सफाई करें।
यदि घर के छोटे बच्चे पीड़ित हों, तो मोर पंख को पूरा जलाकर उसकी राख बना लें और उस राख से बच्चे को नियमित रूप से तिलक लगाएं तथा थोड़ी-सी राख चटा दें।
घर की महिलाएं यदि किसी समस्या या बाधा से पीड़ित हों, तो निम्नलिखित प्रयोग करें।
सवा पाव मेहंदी के तीन पैकेट (लगभग सौ ग्राम प्रति पैकेट) बनाएं और तीनों पैकेट लेकर काली मंदिर या शस्त्र धारण किए हुए किसी देवी की मूर्ति वाले मंदिर में जाएं। वहां दक्षिणा, पत्र, पुष्प, फल, मिठाई, सिंदूर तथा वस्त्र के साथ मेहंदी के उक्त तीनों पैकेट चढ़ा दें। फिर भगवती से कष्ट निवारण की प्रार्थना करें और एक फल तथा मेहंदी के दो पैकेट वापस लेकर कुछ धन के साथ किसी भिखारिन या अपने घर के आसपास सफाई करने वाली को दें। फिर उससे मेहंदी का एक पैकेट वापस ले लें और उसे घोलकर पीड़ित महिला के हाथों एवं पैरों में लगा दें। पीड़िता की पीड़ा मेहंदी के रंग उतरने के साथ-साथ धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी।
व्यापार स्थल पर किसी भी प्रकार की समस्या हो, तो वहां श्वेतार्क गणपति तथा एकाक्षी श्रीफल की स्थापना करें। फिर नियमित रूप से धूप, दीप आदि से पूजा करें तथा सप्ताह में एक बार मिठाई का भोग लगाकर प्रसाद यथासंभव अधिक से अधिक लोगों को बांटें। भोग नित्य प्रति भी लगा सकते हैं।
कामण प्रयोगों से होने वाले दुष्प्रभावों से बचने के लिए दक्षिणावर्ती शंखों के जोड़े की स्थापना करें तथा इनमें जल भर कर सर्वत्र छिड़कते रहें।
हानि से बचाव तथा लाभ एवं बरकत के लिए गोरोचन, लाक्षा, कुंकुम, सिंदूर, कपूर, घी, चीनी और शहद के मिश्रण से अष्टगंध बनाकर उसकी स्याही से नीचे चित्रित पंचदशी यंत्र
बनाएं तथा देवी के १०८ नामों को लिखकर पाठ करें।

बाधा मुक्ति के लिए :-------
किसी भी प्रकार की बाधा से मुक्ति के लिए मत्स्य यंत्र से युक्त बाधामुक्ति यंत्र की स्थापना कर उसका नियमित रूप से पूजन-दर्शन करें।
अकारण परेशान करने वाले व्यक्ति से शीघ्र छुटकारा पाने के लिए : यदि कोई व्यक्ति बगैर किसी कारण के परेशान कर रहा हो, तो शौच क्रिया काल में शौचालय में बैठे-
बैठे वहीं के पानी से उस व्यक्ति का नाम लिखें और बाहर निकलने से पूर्व जहां पानी से नाम लिखा था, उस स्थान पर अपने बाएं पैर से तीन बार ठोकर मारें। ध्यान रहे, यह
प्रयोग स्वार्थवश न करें, अन्यथा हानि हो सकती है।
रुद्राक्ष या स्फटिक की माला के प्रयोगों से प्रतिकूल परिस्थितियों का शमन होता है। इसके अतिरिक्त स्फटिक की माला पहनने से तनाव दूर होता है।
ऊपरी हवा पहचान और निदान
प्रायः सभी धर्मग्रंथों में ऊपरी हवाओं, नजर दोषों आदि का उल्लेख है। कुछ ग्रंथों में इन्हें बुरी आत्मा कहा गया है तो कुछ अन्य में भूत-प्रेत और जिन्न।
यहां ज्योतिष के आधार पर नजर दोष का विश्लेषण प्रस्तुत है।
ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार गुरु पितृदोष, शनि यमदोष, चंद्र व शुक्र जल देवी दोष, राहु सर्प व प्रेत दोष, मंगल शाकिनी दोष, सूर्य देव दोष एवं बुध कुल देवता दोष का कारक होता है। राहु, शनि व केतु ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह हैं। जब किसी व्यक्ति के लग्न (शरीर), गुरु (ज्ञान), त्रिकोण (धर्म भाव) तथा द्विस्वभाव राशियों पर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है, तो उस पर ऊपरी हवा की संभावना होती है।
लक्षण
नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति का शरीर कंपकंपाता रहता है। वह अक्सर ज्वर, मिरगी आदि से ग्रस्त रहता है।
कब और किन स्थितियों में डालती हैं ऊपरी हवाएं किसी व्यक्ति पर अपना प्रभाव?
जब कोई व्यक्ति दूध पीकर या कोई सफेद मिठाई खाकर किसी चौराहे पर जाता है, तब ऊपरी हवाएं उस पर अपना प्रभाव डालती हैं। गंदी जगहों पर इन हवाओं का वास होता है, इसीलिए ऐसी जगहों पर जाने वाले लोगों को ये हवाएं अपने प्रभाव में ले लेती हैं। इन हवाओं का प्रभाव रजस्वला स्त्रियों पर भी पड़ता है। कुएं, बावड़ी आदि पर भी इनका वास होता है। विवाह व अन्य मांगलिक कार्यों के अवसर पर ये हवाएं सक्रिय होती हैं। इसके अतिरिक्त रात और दिन के १२ बजे दरवाजे की चौखट पर इनका प्रभाव होता है।
दूध व सफेद मिठाई चंद्र के द्योतक हैं। चौराहा राहु का द्योतक है। चंद्र राहु का शत्रु है। अतः जब कोई व्यक्ति उक्त चीजों का सेवन कर चौराहे पर जाता है, तो उस पर ऊपरी हवाओं के प्रभाव की संभावना रहती है।
कोई स्त्री जब रजस्वला होती है, तब उसका चंद्र व मंगल दोनों दुर्बल हो जाते हैं। ये दोनों राहु व शनि के शत्रु हैं। रजस्वलावस्था में स्त्री अशुद्ध होती है और अशुद्धता राहु की द्योतक है। ऐसे में उस स्त्री पर ऊपरी हवाओं के प्रकोप की संभावना रहती है।
कुएं एवं बावड़ी का अर्थ होता है जल स्थान और चंद्र जल स्थान का कारक है। चंद्र राहु का शत्रु है, इसीलिए ऐसे स्थानों पर ऊपरी हवाओं का प्रभाव होता है।
जब किसी व्यक्ति की कुंडली के किसी भाव विशेष पर सूर्य, गुरु, चंद्र व मंगल का प्रभाव होता है, तब उसके घर विवाह व मांगलिक कार्य के अवसर आते हैं। ये सभी ग्रह शनि व राहु के शत्रु हैं, अतः मांगलिक अवसरों पर ऊपरी हवाएं व्यक्ति को परेशान कर सकती हैं।
दिन व रात के १२ बजे सूर्य व चंद्र अपने पूर्ण बल की अवस्था में होते हैं। शनि व राहु इनके शत्रु हैं, अतः इन्हें प्रभावित करते हैं। दरवाजे की चौखट राहु की द्योतक है। अतः जब राहु क्षेत्र में चंद्र या सूर्य को बल मिलता है, तो ऊपरी हवा सक्रिय होने की संभावना प्रबल होती है।
मनुष्य की दायीं आंख पर सूर्य का और बायीं पर चंद्र का नियंत्रण होता है। इसलिए ऊपरी हवाओं का प्रभाव सबसे पहले आंखों पर ही पड़ता है।
यहां ऊपरी हवाओं से संबद्ध ग्रहों, भावों आदि का विश्लेषण प्रस्तुत है।
राहु-केतु : जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, शनिवत राहु ऊपरी हवाओं का कारक है। यह प्रेत बाधा का सबसे प्रमुख कारक है। इस ग्रह का प्रभाव जब भी मन, शरीर, ज्ञान, धर्म, आत्मा आदि के भावों पर होता है, तो ऊपरी हवाएं सक्रिय होती हैं।
शनि : इसे भी राहु के समान माना गया है। यह भी उक्त भावों से संबंध बनाकर भूत-प्रेत पीड़ा देता है।
चंद्र : मन पर जब पाप ग्रहों राहु और शनि का दूषित प्रभाव होता है और अशुभ भाव स्थित चंद्र बलहीन होता है, तब व्यक्ति भूत-प्रेत पीड़ा से ग्रस्त होता है।
गुरु : गुरु सात्विक ग्रह है। शनि, राहु या केतु से संबंध होने पर यह दुर्बल हो जाता है। इसकी दुर्बल स्थिति में ऊपरी हवाएं जातक पर अपना प्रभाव डालती हैं।
लग्न : यह जातक के शरीर का प्रतिनिधित्व करता है। इसका संबंध ऊपरी हवाओं के कारक राहु, शनि या केतु से हो या इस पर मंगल का पाप प्रभाव प्रबल हो, तो व्यक्ति के ऊपरी हवाओं से ग्रस्त होने की संभावना बनती है।
पंचम : पंचम भाव से पूर्व जन्म के संचित कर्मों का विचार किया जाता है। इस भाव पर जब ऊपरी हवाओं के कारक पाप ग्रहों का प्रभाव पड़ता है, तो इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति के पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों में कमी है। अच्छे कर्म अल्प हों, तो प्रेत बाधा योग बनता है।
अष्टम : इस भाव को गूढ़ विद्याओं व आयु तथा मृत्यु का भाव भी कहते हैं। इसमें चंद्र और पापग्रह या ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह का संबंध प्रेत बाधा को जन्म देता है।
नवम : यह धर्म भाव है। पूर्व जन्म में पुण्य कर्मों में कमी रही हो, तो यह भाव दुर्बल होता है।
राशियां : जन्म कुंडली में द्विस्वभाव राशियों मिथुन, कन्या और मीन पर वायु तत्व ग्रहों का प्रभाव हो, तो प्रे्रत बाधा होती है।
वार : शनिवार, मंगलवार, रविवार को प्रेत बाधा की संभावनाएं प्रबल होती हैं।
तिथि : रिक्ता तिथि एवं अमावस्या प्रेत बाधा को जन्म देती है।
नक्षत्र : वायु संज्ञक नक्षत्र प्रेत बाधा के कारक होते हैं।
योग : विष्कुंभ, व्याघात, ऐंद्र, व्यतिपात, शूल आदि योग प्रेत बाधा को जन्म देते हैं।
करण : विष्टि, किस्तुन और नाग करणों के कारण व्यक्ति प्रेत बाधा से ग्रस्त होता है।
दशाएं : मुख्यतः शनि, राहु, अष्टमेश व राहु तथा केतु से पूर्णतः प्रभावित ग्रहों की दशांतर्दशा में व्यक्ति के भूत-प्रेत बाधाओं से ग्रस्त होने की संभावना रहती है।
युति
किसी स्त्री के सप्तम भाव में शनि, मंगल और राहु या केतु की युति हो, तो उसके पिशाच पीड़ा से ग्रस्त होने की संभावना रहती है।
गुरु नीच राशि अथवा नीच राशि के नवांश में हो, या राहु से युत हो और उस पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो जातक की चांडाल प्रवृत्ति होती है।
पंचम भाव में शनि का संबंध बने तो व्यक्ति प्रेत एवं क्षुद्र देवियों की भक्ति करता है।
ऊपरी हवाओं के कुछ अन्य मुख्य ज्योतिषीय योग
यदि लग्न, पंचम, षष्ठ, अष्टम या नवम भाव पर राहु, केतु, शनि, मंगल, क्षीण चंद्र आदि का प्रभाव हो, तो जातक के ऊपरी हवाओं से ग्रस्त होने की संभावना रहती है। यदि उक्त
ग्रहों का परस्पर संबंध हो, तो जातक प्रेत आदि से पीड़ित हो सकता है।
यदि पंचम भाव में सूर्य और शनि की युति हो, सप्तम में क्षीण चंद्र हो तथा द्वादश में गुरु हो, तो इस स्थिति में भी व्यक्ति प्रेत बाधा का शिकार होता है।
यदि लग्न पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि हो, लग्न निर्बल हो, लग्नेश पाप स्थान में हो अथवा राहु या केतु से युत हो, तो जातक जादू-टोने से पीड़ित होता है।
लग्न में राहु के साथ चंद्र हो तथा त्रिकोण में मंगल, शनि अथवा कोई अन्य क्रूर ग्रह हो, तो जातक भूत-प्रेत आदि से पीड़ित होता है।
यदि षष्ठेश लग्न में हो, लग्न निर्बल हो और उस पर मंगल की दृष्टि हो, तो जातक जादू-टोने से पीड़ित होता है। यदि लग्न पर किसी अन्य शुभ ग्रह की दृष्टि न हो, तो जादू-टोने से पीड़ित होने की संभावना प्रबल होती है। षष्ठेश के सप्तम या दशम में स्थित होने पर भी जातक जादू-टोने से पीड़ित हो सकता है।
यदि लग्न में राहु, पंचम में शनि तथा अष्टम में गुरु हो, तो जातक प्रेत शाप से पीड़ित होता है।
ऊपरी हवाओं के प्रभाव से मुक्ति के सरल उपाय
ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु शास्त्रों में अनेक उपाय बताए गए हैं। अथर्ववेद में इस हेतु कई मंत्रों व स्तुतियों का उल्लेख है। आयुर्वेद में भी इन हवाओं से मुक्ति के उपायों का विस्तार से वर्णन किया गया है। यहां कुछ प्रमुख सरल एवं प्रभावशाली उपायों का विवरण प्रस्तुत है।
ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु हनुमान चालीसा का पाठ और गायत्री का जप तथा हवन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अग्नि तथा लाल मिर्ची जलानी चाहिए।
रोज सूर्यास्त के समय एक साफ-सुथरे बर्तन में गाय का आधा किलो कच्चा दूध लेकर उसमें शुद्ध शहद की नौ बूंदें मिला लें। फिर स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर मकान
की छत से नीचे तक प्रत्येक कमरे, जीने, गैलरी आदि में उस दूध के छींटे देते हुए द्वार तक आएं और बचे हुए दूध को मुख्य द्वार के बाहर गिरा दें। क्रिया के दौरान इष्टदेव का स्मरण करते रहें। यह क्रिया इक्कीस दिन तक नियमित रूप से करें, घर पर प्रभावी ऊपरी हवाएं दूर हो जाएंगी।
रविवार को बांह पर काले धतूरे की जड़ बांधें, ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिलेगी।
लहसुन के रस में हींग घोलकर आंख में डालने या सुंघाने से पीड़ित व्यक्ति को ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिल जाती है।
ऊपरी बाधाओं से मुक्ति हेतु निम्नोक्त मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए।
" ओम नमो भगवते रुद्राय नमः कोशेश्वस्य नमो ज्योति पंतगाय नमो रुद्राय नमः सिद्धि स्वाहा।''
घर के मुख्य द्वार के समीप श्वेतार्क का पौधा लगाएं, घर ऊपरी हवाओं से मुक्त रहेगा।
उपले या लकड़ी के कोयले जलाकर उसमें धूनी की विशिष्ट वस्तुएं डालें और उससे उत्पन्न होने वाला धुआं पीड़ित व्यक्त्ि को सुंघाएं। यह क्रिया किसी ऐसे व्यक्ति से करवाएं जो अनुभवी हो और जिसमें पर्याप्त आत्मबल हो।
प्रातः काल बीज मंत्र ÷क्लीं' का उच्चारण करते हुए काली मिर्च के नौ दाने सिर पर से घुमाकर दक्षिण दिशा की ओर फेंक दें, ऊपरी बला दूर हो जाएगी।
रविवार को स्नानादि से निवृत्त होकर काले कपड़े की छोटी थैली में तुलसी के आठ पत्ते, आठ काली मिर्च और सहदेई की जड़ बांधकर गले में धारण करें, नजर दोष बाधा से मुक्ति मिलेगी।
निम्नोक्त मंत्र का १०८ बार जप करके सरसों का तेल अभिमंत्रित कर लें और उससे पीड़ित व्यक्ति के शरीर पर मालिश करें, व्यकित पीड़ामुक्त हो जाएगा।
मंत्र : ओम नमो काली कपाला देहि देहि स्वाहा।
ऊपरी हवाओं के शक्तिषाली होने की स्थिति में शाबर मंत्रों का जप एवं प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोग करने के पूर्व इन मंत्रों का दीपावली की रात को अथवा होलिका दहन की रात को जलती हुई होली के सामने या फिर श्मषान में १०८ बार जप कर इन्हें सिद्ध कर लेना चाहिए। यहां यह उल्लेख कर देना आवष्यक है कि इन्हें सिद्ध करने के इच्छुक साधकों में पर्याप्त आत्मबल होना चाहिए, अन्यथा हानि हो सकती है।
निम्न मंत्र से थोड़ा-सा जीरा ७ बार अभिमंत्रित कर रोगी के शरीर से स्पर्श कराएं और उसे अग्नि में डाल दें। रोगी को इस स्थिति में बैठाना चाहिए कि उसका धूंआ उसके मुख के सामने आये। इस प्रयोग से भूत-प्रेत बाधा की निवृत्ति होती है।
मंत्र : जीरा जीरा महाजीरा जिरिया चलाय। जिरिया की शक्ति से फलानी चलि जाय॥ जीये तो रमटले मोहे तो मशान टले। हमरे जीरा मंत्र से अमुख अंग भूत चले॥ जाय हुक्म पाडुआ पीर की दोहाई॥
एक मुट्ठी धूल को निम्नोक्त मंत्र से ३ बार अभिमंत्रित करें और नजर दोष से ग्रस्त व्यक्ति पर फेंकें, व्यक्ति को दोष से मुक्ति मिलेगी।
मंत्र : तह कुठठ इलाही का बान। कूडूम की पत्ती चिरावन। भाग भाग अमुक अंक से भूत। मारुं धुलावन कृष्ण वरपूत। आज्ञा कामरु कामाख्या। हारि दासीचण्डदोहाई।
थोड़ी सी हल्दी को ३ बार निम्नलिखित मंत्र से अभिमंत्रित करके अग्नि में इस तरह छोड़ें कि उसका धुआं रोगी के मुख की ओर जाए। इसे हल्दी बाण मंत्र कहते हैं।
हल्दी गीरी बाण बाण को लिया हाथ उठाय। हल्दी बाण से नीलगिरी पहाड़ थहराय॥ यह सब देख बोलत बीर हनुमान। डाइन योगिनी भूत प्रेत मुंड काटौ तान॥ आज्ञा कामरु कामाक्षा माई। आज्ञा हाड़ि की चंडी की दोहाई॥
जौ, तिल, सफेद सरसों, गेहूं, चावल, मूंग, चना, कुष, शमी, आम्र, डुंबरक पत्ते और अषोक, धतूरे, दूर्वा, आक व ओगां की जड़ को मिला लें और उसमें दूध, घी, मधु और गोमूत्र मिलाकर मिश्रण तैयार कर लें। फिर संध्या काल में हवन करें और निम्न मंत्रों का १०८ बार जप कर इस मिश्रण से १०८ आहुतियां दें।
मंत्र : ओम नमः भवे भास्कराय आस्माक अमुक सर्व ग्रहणं पीड़ा नाशनं कुरु-कुरु स्वाहा।
नजर दोष निवारक मंत्र व यंत्र
वायुमंडल में व्याप्त अदृश्य शक्तियों के दुष्प्रभाव से ग्रस्त लोगों का जीवन दूभर हो जाता है। प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न देने के फलस्वरूप किसी चिकित्सकीय उपाय से इनसे मुक्ति संभव नहीं होती। ऐसे में भारतीय ज्योतिष तथा अन्य धर्म ग्रंथों में वर्णित मंत्रों एवं यंत्रों के प्रयोग सहायक सिद्ध हो सकते हैं। यहां कुछ ऐसे ही प्रमुख एवं अति प्रभावशाली मंत्रों तथा यंत्रों के प्रयोगों के फल और विधि का विवरण प्रस्तुत है। ये प्रयोग सहज और सरल हैं, जिन्हें अपना कर सामान्य जन भी उन अदृश्य शक्तियों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
गायत्री मंत्र : गायत्री मंत्र वेदोक्त महामंत्र है, जिसके निष्ठापूर्वक जप और प्रयोग से प्रेत तथा ऊपरी बाधाओं, नजर दोषों आदि से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। नियमित रूप से गायत्री मंत्र का जप करने वालों को ये शक्तियां कभी नहीं सताती। उन्हें कभी डरावने सपने भी नहीं आते।
गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित जल से अभिषेक करने से अथवा गायत्री मंत्र से किए गए हवन की भस्म धारण करने से पीड़ित व्यक्ति को प्रेत बाधाओं, ऊपरी हवाओं, नजर दोषों आदि से मुक्ति मिल जाती है। इस महामंत्र का अखंड प्रयोग कभी निष्फल नहीं होता।
मंत्र : ओम भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्‌।
प्रयोग विधि
गायत्री मंत्र का सवा लाख जप कर पीपल, पाकर, गूलर या वट की लकड़ी से उसका दशांश हवन करें, ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिलेगी।
सोने, चांदी या तांबे के कलश को सूत्र से वेष्टित करें और रेतयुक्त स्थान पर रखकर उसे गायत्री मंत्र पढ़ते हुए जल से पूरित करें। फिर उसमें मंत्रों का जप करते हुए सभी तीर्थों का आवाहन करके इलायची, चंदन, कपूर, जायफल, गुलाब, मालती के पुष्प, बिल्वपत्र, विष्णुकांता, सहदेवी, वनौषधियां, धान, जौ, तिल, सरसों तथा पीपल, गूलर, पाकर व वट आदि वृक्षों के पल्लव और २७ कुश डाल दें। इसके बाद उस कलश में भरे हुए जल को गायत्री मंत्र से एक हजार बार अभिमंत्रित करें। इस अभिमंत्रित जल को भूता बाधा, नजर दोष आदि से पीड़ित व्यक्ति के ऊपर छिड़कर उसे खिलाएं, वह शीघ्र स्वस्थ हो जाएगा। इस प्रयोग से पैशाचिक उपद्रव भी शांत हो जाते हैं।
जो घर ऊपरी बाधाओं और नजर दोषों से प्रभावित हो, उसमें गायत्री मंत्र का सवा लाख जप करके तिल, घृत आदि से उसका दशांश हवन करें। फिर उस हवन स्थल पर एक चतुष्कोणी मंडल बनाएं और एक त्रिशूल को गायत्री मंत्र से एक हजार बार अभिमंत्रित करके उपद्रवों और उपद्रवकारी शक्तियों के शमन की कामना करते हुए उसके बीच गाड़ दें।
किसी शुभ मुहूर्त में अनार की कलम और अष्टगंध की स्याही से भोजपत्र पर नीचे चित्रांकित यंत्र की रचना करें।
फिर इसे गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर गुग्गुल की धूप दें और विधिवत पूजन कर ऊपरी बाधा या नजरदोष से पीड़ित व्यक्ति के गले में बांध दें, वह दोषमुक्त हो जाएगा।
अमोघ हनुमत-मंत्र : ऊपरी बाधाओं और नजर दोष के शमन के लिए निम्नोक्त हनुमान मंत्र का जप करना चाहिए।
ओम ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रीं ओम नमो
भगवतेमहाबल पराक्रमाय भूत-प्रेत-पिशाच-शाकिनी डाकिनी- यक्षिणी-पूतना मारी महामारी यक्ष-राक्षस भैरव-वेताल ग्रह राक्षसादिकम क्षणेन हन हन भंजय मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामारेश्वर रुद्रावतार हुं फट स्वाहा।
इस मंत्र को दीपावली की रात्रि, नवरात्र अथवा किसी अन्य शुभ मुहूर्त में या ग्रहण के समय हनुमान जी के किसी पुराने सिद्ध मंदिर में ब्रह्मचर्य पूर्वक रुद्राक्ष की माला पर दस हजार बार जप कर उसका दशांश हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिए ताकि कभी भी अवसर पड़ने पर इसका प्रयोग किया जा सके।
सिद्ध मंत्र से अभिमंत्रित जल प्रेत बाधा या नजर दोष से ग्रस्त व्यक्ति को पिलाने तथा इससे अभिमंत्रित भस्म उसके मस्तक पर लगाने से वह इन दोषों से मुक्त हो जाता है।
उक्त सिद्ध मंत्र से एक कील को १००८ बार अभिमंत्रित कर उसे भूत-प्रेतों के प्रकोप तथा नजर दोषों से पीड़ित मकान में गाड़ देने से वह मकान कीलित हो जाता है तथा वहां फिर कभी किसी प्रकार का पैशाचिक अथवा नजर दोषजन्य उपद्रव नहीं होता।
भूत-प्रेता बाधा नाशक यंत्र इस यंत्र को सिद्ध करने हेतु इसे सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण अथवा दीपावली की रात्रि में अनार की कलम तथा अष्टगंध से भोजपत्र पर ३४ बार लिखकर और धूप-दीप देकर किसी नदी में प्रवाहित करें। तत्पश्चात इस यंत्र को पुनः लिखकर विधिवत पूजन कर अपने पास रखें, हर प्रकार की प्रेत बाधा से रक्षा होगी।
ऊपरी हवाओं से बचाव के कुछ अनुभूत प्रयोग
लहसुन के तेल में हींग मिलाकर दो बूंद नाक में डालने, नीम के पत्ते, हींग, सरसों, बच व सांप की केंचुली की धूनी देने तथा रविवार को काले धतूरे की जड़ हाथ में बांधने से ऊपरी बाधा दूर होती है। इसके अतिरिक्त गंगाजल में तुलसी के पत्ते व काली मिर्च पीसकर घर में छिड़कने, गायत्री मंत्र के (सुबह की अपेक्षा संध्या समय किया गया गायत्री मंत्र का जप अधिक लाभकारी होता है) जप, हनुमान जी की नियमित रूप से उपासना, राम रक्षा कवच या रामवचन कवच के पाठ से नजर दोष से शीघ्र मुक्ति मिलती है। साथ ही, पेरीडॉट, संग सुलेमानी, क्राइसो लाइट, कार्नेलियन जेट, साइट्रीन, क्राइसो प्रेज जैसे रत्न धारण करने से भी लाभ मिलता है।
उतारा : उतारा शब्द का तात्पर्य व्यक्ति विशेष पर हावी बुरी हवा अथवा बुरी आत्मा, नजर आदि के प्रभाव को उतारने से है। उतारे आमतौर पर मिठाइयों द्वारा किए जाते हैं, क्योंकि मिठाइयों की ओर ये श्ीाघ्र आकर्षित होते हैं।
उतारा करने की विधि :
उतारे की वस्तु सीधे हाथ में लेकर नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति के सिर से पैर की ओर सात अथवा ग्यारह बार घुमाई जाती है। इससे वह बुरी आत्मा उस वस्तु में आ जाती है। उतारा की क्रिया करने के बाद वह वस्तु किसी चौराहे, निर्जन स्थान या पीपल के नीचे रख दी जाती है और व्यक्ति ठीक हो जाता है।
किस दिन किस मिठाई से उतारा करना चाहिए, इसका विवरण यहां प्रस्तुत है।
रविवार को तबक अथवा सूखे फलयुक्त बर्फी से उतारा करना चाहिए। सोमवार को बर्फी से उतारा करके बर्फी गाय को खिला दें। मंगलवार को मोती चूर के लड्डू से उतार कर लड्डू कुत्ते को खिला दें। बुधवार को इमरती से उतारा करें व
उसे कुत्ते को खिला दें। गुरुवार को सायं काल एक दोने में अथवा कागज पर पांच मिठाइयां रखकर उतारा करें। उतारे के बाद उसमें छोटी इलायची रखें व धूपबत्ती जलाकर किसी पीपल के वृक्ष के नीचे पश्चिम दिशा में रखकर घर वापस जाएं। ध्यान रहे, वापस जाते समय पीछे मुड़कर न देखें और घर आकर हाथ और पैर धोकर व कुल्ला करके ही अन्य कार्य करें।शुक्रवार को मोती चूर के लड्डू से उतारा कर लड्डू कुत्ते को खिला दें या किसी चौराहे पर रख दें। शनिवार को उतारा करना हो तो इमरती या बूंदी का लड्डू प्रयोग में लाएं व उतारे के बाद उसे कुत्ते को खिला दें।
इसके अतिरिक्त रविवार को सहदेई की जड़, तुलसी के आठ पत्ते और आठ काली मिर्च किसी कपड़े में बांधकर काले धागे से गले में बांधने से ऊपरी हवाएं सताना बंद कर देती हैं।
नजर उतारने अथवा उतारा आदि करने के लिए कपूर, बूंदी का लड्डू, इमरती, बर्फी, कड़वे तेल की रूई की बाती, जायफल, उबले चावल, बूरा, राई, नमक, काली सरसों, पीली सरसों मेहंदी, काले तिल, सिंदूर, रोली, हनुमान जी को चढ़ाए जाने वाले सिंदूर, नींबू, उबले अंडे, गुग्गुल, शराब, दही, फल, फूल, मिठाइयों, लाल मिर्च, झाडू, मोर छाल, लौंग, नीम के पत्तों की धूनी आदि का प्रयोग किया जाता है।
स्थायी व दीर्घकालीन लाभ के लिए संध्या के समय गायत्री मंत्र का जप और जप के दशांश का हवन करना चाहिए। हनुमान जी की नियमित रूप से उपासना, भगवान शिव की उपासना व उनके मूल मंत्र का जप, महामृत्युंजय मंत्र का जप, मां दुर्गा और मां काली की उपासना करें। स्नान के पश्चात्‌ तांबे के लोटे से सूर्य को जल का अर्य दें। पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा स्वयं करें अथवा किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से सुनें। संध्या के समय घर में दीपक जलाएं, प्रतिदिन गंगाजल छिड़कें और नियमित रूप से गुग्गुल की धूनी दें। प्रतिदिन शुद्ध आसन पर बैठकर सुंदर कांड का पाठ करें। किसी के द्वारा दिया गया सेव व केला न खाएं। रात्रि बारह से चार बजे के बीच कभी स्नान न करें।
बीमारी से मुक्ति के लिए नीबू से उतारा करके उसमें एक सुई आर-पार चुभो कर पूजा स्थल पर रख दें और सूखने पर फेंक दें। यदि रोग फिर भी दूर न हो, तो रोगी की चारपाई से एक बाण निकालकर रोगी के सिर से पैर तक छुआते हुए उसे सरसों के तेल में अच्छी तरह भिगोकर बराबर कर लें व लटकाकर जला दें और फिर राख पानी में बहा दें।
उतारा आदि करने के पश्चात भलीभांति कुल्ला अवश्य करें।
इस तरह, किसी व्यक्ति पर पड़ने वाली किसी अन्य व्यक्ति की नजर उसके जीवन को तबाह कर सकती है। नजर दोष का उक्त लक्षण दिखते ही ऊपर वर्णित सरल व सहज उपायों का प्रयोग कर उसे दोषमुक्त किया जा सकता है।

क्या करें, क्या न करें:-
1. किसी निर्जन एकांत या जंगल आदि में मलमूत्र त्याग करने से पूर्व उस स्थान को भलीभांति देख लेना चाहिए कि वहां कोई ऐसा वृक्ष तो नहीं है जिस पर प्रेत आदि निवास करते हैं अथवा उस स्थान पर कोई मजार या कब्रिस्तान तो नहीं है।
2. किसी नदी तालाब कुआं या जलीय स्थान में थूकना या मल-मूत्र त्याग करना किसी अपराध से कम नहीं है क्योंकि जल ही जीवन है। जल को प्रदूषित करने स जल के देवता वरुण रूष्ट हो सकते हैं।
3. घर के आसपास पीपल का वृक्ष नहीं होना चाहिए क्योंकि पीपल पर प्रेतों का वास होता है।
4. सूर्य की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए।
5. गूलर मौलसरी, शीशम, मेहंदी आदि के वृक्षों पर भी प्रेतों का वास होता है। रात के अंधेरे में इन वृक्षों के नीचे नहीं जाना चाहिए और न ही खुशबुदार पौधों के पास जाना चाहिए।
6. सेब एकमात्र ऐसा फल है जिस पर प्रेतक्रिया आसानी से की जा सकती है। इसलिए किसी अनजाने का दिया सेब नहीं खाना चाहिए।
7. कहीं भी झरना, तालाब, नदी अथवा तीर्थों में पूर्णतया निर्वस्त्र होकर या नग्न होकर नहीं नहाना चाहिए।
8. अगर प्रेतबाधा की आशंका हो तो.घर में प्राणप्रतिष्ठा की बजरंगबलि हनुमान की सुसज्जित प्रतिमा और हनुमान चालीसा रखनी चाहिए।
9. प्रतिदिन प्रातःकाल घर में गंगाजल का छिड़काव करना चाहिए।
10. प्रत्येक पूर्णमासी को घर में सत्यनारायण की कथा करवाएं।
11. सूर्यदेव को प्रतिदिन जल का अघ्र्य देना प्रेतवाधा से मुक्ति देता है।
12. घर में ऊंट की सूखी लीद की धूनी देकर भी प्रेत बाधा दूर हो जाती है।
13. घर में गुग्गल धूप की धूनी देने से प्रेतबाधा नहीं होती है।
14. नीम के सूखे पत्तों का धुआं संध्या के समय घर में देना उत्तम होता है।

क्या करें कि भूत प्रेतों का असर न हो पाए:-
1. अपनी आत्मशुद्धि व घर की शुद्धि हेतु प्रतिदिन घर में गायत्री मंत्र से हवन करें।
2. अपने इष्ट देवी देवता के समक्ष घी का दीपक प्रज्वलित करें।
3. हनुमान चालीसा या बजरंग बाण का प्रतिदिन पाठ करें।
4. जिस घर में प्रतिदिन सुन्दरकांड का पाठ होता है वहां ऊपरी हवाओं का असर नहीं होता।
5. घर में पूजा करते समय कुशा का आसन प्रयोग में लाएं।
6. मां महाकाली की उपासना करें।
7. सूर्य को तांबे के लोटे से जल का अघ्र्य दें।
8. संध्या के समय घर में धूनी अवश्य दें।
9. रात्रिकालीन पूजा से पूर्व गुरू से अनुमति अवश्य लें।
10. रात्रिकाल में 12 से 4 बजे के मध्य ठहरे पानी को न छुएं।
11. यथासंभव अनजान व्यक्ति के द्वारा दी गई चीज ग्रहण न करें।
12. प्रातःकाल स्नान व पूजा के प्श्चात ही कुछ ग्रहण करें।
13. ऐसी कोई भी साधना न करें जिसकी पूर्ण जानकारी न हो या गुरु की अनुमति न हो।
14. कभी किसी प्रकार के अंधविश्वास अथवा वहम में नहीं पड़ना चाहिए। इससे बचने का एक ही तरीका है कि आप बुद्धि से तार्किक बनें व किसी चमत्कार अथवा घटना आदि या क्रिया आदि को विज्ञान की कसौटी पर कसें, उसके पश्चात ही किसी निर्णय पर पहुंचे।
15. किसी आध्यात्मिक गुरु, साधु, संत, फकीर, पंडित आदि का अपमान न करें।
16. अग्नि व जल का अपमान न करें। अग्नि को लांघें नहीं व जल को दूषित न करें।
17. हाथ से छूटा हुआ या जमीन पर गिरा हुआ भोजन या खाने की कोई भी वस्तु स्वयं ग्रहण न करें।

भूत-प्रेत आदि से ग्रसित व्यक्ति की पहचान कैसे करें?
1. ऐसे व्यक्ति के शरीर या कपड़ों से गंध आती है।
2. ऐसा व्यक्ति स्वभाव में चिड़चिड़ा हो जाता है।
3. ऐसे व्यक्ति की आंखें लाल रहती हैं व चेहरा भी लाल दिखाई देता है।
4. ऐसे व्यक्ति सिरदर्द व पेट दर्द की शिकायत अक्सर करता ही रहता है।
5. ऐसा व्यक्ति झुककर या पैर घसीट कर चलता है।
6. कंधों में भारीपन महसूस करता है।
7. कभी कभी पैरों में दर्द की शिकायत भी करता है।
8. बुरे स्वप्न उसका पीछा नहीं छोड़ते।
9. जिस घर या परिवार में भूत प्रेतों का साया होता है वहां शांति का वातावरण नहीं होता। घर में कोई न कोई सदस्य सदैव किसी न किसी रोग से ग्रस्त रहता है। अकेले रहने पर घर में डार लगता है बार-बार ऐसा लगता है कि घर के ही किसी सदस्य ने आवाज देकर पुकारा है जबकि वह सदस्य घर पर होता ही नहीं? इसे छलावा कहते हैं।