Tuesday, 12 May 2015

विवाह में विलंभ होने का कारण और निवारण



हमारे हिन्दू संस्कारों में विवाह को जीवन का आवश्यक संस्कार बताया गया है. विवाह के योग प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में होते हैं लेकिन कुछ ऐसे कारक हैं जो उसमें विलंब कराते हैं. ज्योतिषशास्त्र में मंगल, शनि, सूर्य, राहु और केतु को विलंब का कारक बताया गया है.जन्मकुंडली के सप्तम भाव में अशुभ या क्रूर ग्रह के स्थित होने अथवा सप्तमेश व उसके कारक ग्रह बृहस्पति व शुक्र के कमजोर होने से विवाह में बाधा आती है.
आम बोलचाल के शब्दों में कहें तो अगर आपके जीवन में विवाह का योग पैदा करने वाले ग्रहों के मुकाबले वे ग्रह ज्यादा हावी हैं जो विवाह योग को रोकते हैं, तो विवाह में बाधा आती है.आज लगभग लोग वैवाहिक समस्या से ग्रस्त है । किसी को विवाह होने में रूकावट का सामना करना पङता है तो कुछ विवाह बाद के वैचारिक मतभेदों से पीङित है । सबसे पहले हम देखते है कि कौनसे योग है जो विवाह होने में बाधा देते है और कौनसे योग वैवाहिक जीवन को नारकीय बना देते है।
विवाह वह समय है ,जब दो अपरिचित युगल दाम्पत्य सूत्र में बंधकर एक नए जीवन का प्रारंभ करते है ,,ज्योतिष में योग ,दशा और गोचरीय ग्रह स्थिति के आधार पर विवाह समय का निर्धारण होता है ,परन्तु कभी-कभी विवाह के योग ,दशा और अनुकूल गोचरीय परिभ्रमण के द्वारा विवाह काल का निश्चय करने पर भी विवाह नहीं होता क्योकि जातक की कुंडली में विवाह में बाधक या विलम्ब कारक योग होते है |विवाह के लिए पंचम ,सप्तम ,द्वितीय और द्वादश भावों का विचार किया जाता है ,द्वितीय भाव सप्तम से अष्टम होने के कारण विवाह के आरम्भ व् अंत का ज्ञान कराता है ,साथ ही कुटुंब कभी भाव होता है ,द्वादश भाव शैया सुख के लिए विचारणीय होता है |स्त्रियों के संदर्भ में सौभाग्य ज्ञान अष्टम से देखा जाता है अतः यह भी विचारणीय है |शुक्र को पुरुष के लिए और स्त्री के लिए गुरु को विवाह का कारक माना जाता है |प्रश्न मार्ग में स्त्रियों के विवाह का कारक ग्रह शनि होता है |सप्तमेश की स्थिति भी महत्वपूर्ण होती है
मंगल यदि आठवें, बारहवें भाव में स्थित हो तो निश्चित रूप से दोनों काम करते है , बारहवें भाव के मंगल तलाक अथवा पति या पत्नि की मृत्यु का कारण भी बन सकते है । मंगल की किसी भी रूप में सप्तम भाव पर दृष्टि वैवाहिक समस्याओं का कारण बनती है । शनि यदि सप्तम भाव को देखते हो या सप्तम भाव में स्थित हो तो परेशान करते है । सूर्य और राहु की लग्न या सप्तम में स्थिति भी वैवाहिक समस्याओ से दो चार करवा सकती है ।
इनमें जानने वाली बात ये है कि सिर्फ मंगल और शनि ही जीवन भर के लिए परेशानी का सबब बनते है बाकि सूर्य और राहु सिर्फ उसी समय परेशानी देते है जब कि वो गोचर अथवा अन्तर्दशा , महादशा से गुजर रहे हो । पति पत्नि दोनों की कुंडली के सप्तम भाव में अकेला शुक्र हो तो भी परेशानी देता है हालांकि यदि शुक्र सप्तमेश भी हो तो कम परेशानी देता है लेकिन देता अवश्य है । सप्तमेश यदि नीच राशि अस्त या दुःस्थान में बैठा हो तो भी कष्टकारी है । सप्तम भाव का संबंध किसी भी रूप में शनि से बनते ही समस्याऒं की शुरूआत मानिये ।
आजकल के अतिविद्वान लोग व्यर्थ की वैज्ञानिकता के चक्कर में बिना कुंडली दिखाये संतान का विवाह कर देते है और उनको कष्टपूर्ण जीवन की ओर धकेल देते है । सभी ज्योतिष प्रेमियों हेतु मजेदार बात है कि व्यक्ति प्रेम विवाह का कदम तभी उठायेगा , जब ऊपरोक्त ग्रह स्थिति हो अब बाकि बात आप समझ गए होंगे । दूसरी चीज हमारी प्रार्थना है कि यदि उपरोक्त स्थिति हो तो 90% मामलों में संबंधित ग्रह का रत्न पहनने से बचना चाहिए ।
यदि आप भी किसी ऎसी ही वैवाहिक समस्या अर्थात् विवाह न होना अथवा विवाह के बाद कष्टों से पीङित है तो संपर्क करें , हम पूरे आत्मविश्वास के साथ कहते है कि इन समस्याओं से छुटकारा दिलाने में हम समर्थ है और हाँ , ये भी कहने में हमें संकोच नही है कि खर्चा आपका लगेगा वो चाहे आप अपने यहाँ करें या हमारे साथ , निश्चित रूप से यदि आप वैवाहिक या आर्थिक समस्या से जूझ रहे हो तो इसका निदान संभव है हम करके दिखा सकते है सिर्फ वे लोग संपर्क न करें जो प्रेम विवाह में रूचि रखते हो। आप ज्योतिष से लगाव बनाये रखिये , अगर ज्योतिष आपकी समस्या का सटीक संकेत कर सकता है तो उसका पूर्णतः निदान भी ॥
इस समस्या के निवारणार्थ अच्छा होगा की किसी विद्वान ज्योतिषी को अपनी जन्म कुंडली दिखाकर विवाह में बाधक ग्रह या दोष को ज्ञात कर उसका निवारण करें। ज्योतिषीय दृष्टि से जब विवाह योग बनते हैं, तब विवाह टलने से विवाह में बहुत देरी हो जाती है। वे विवाह को लेकर अत्यंत चिंतित हो जाते हैं।
सातवें भाव का अर्थ—-
जन्म कुन्डली का सातंवा भाव विवाह पत्नी ससुराल प्रेम भागीदारी और गुप्त व्यापार के लिये माना जाता है। सातवां भाव अगर पापग्रहों द्वारा देखा जाता है,उसमें अशुभ राशि या योग होता है,तो स्त्री का पति चरित्रहीन होता है,स्त्री जातक की कुंडली के सातवें भाव में पापग्रह विराजमान है,और कोई शुभ ग्रह उसे नही देख रहा है,तो ऐसी स्त्री पति की मृत्यु का कारण बनती है,परंतु ऐसी कुंडली के द्वितीय भाव में शुभ बैठे हों तो पहले स्त्री की मौत होती है,सूर्य और चन्द्रमा की आपस की द्रिष्टि अगर शुभ होती है तो पति पत्नी की आपस की सामजस्य अच्छी बनती है,और अगर सूर्य चन्द्रमा की आपस की १५० डिग्री,१८० डिग्री या ७२ डिग्री के आसपास की युति होती है तो कभी भी किसी भी समय तलाक या अलगाव हो सकता है।केतु और मंगल का सम्बन्ध किसी प्रकार से आपसी युति बना ले तो वैवाहिक जीवन आदर्शहीन होगा,ऐसा जातक कभी भी बलात्कार का शिकार हो सकता है,स्त्री की कुंडली में सूर्य सातवें स्थान पर पाया जाना ठीक नही होता है,ऐसा योग वैवाहिक जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है,केवल गुण मिला देने से या मंगलीक वाली बातों को बताने से इन बातों का फ़ल सही नही मिलता है,इसके लिये कुंडली के सातंवे भाव का योगायोग देखना भी जरूरी होता है।

सातवां भाव और पति पत्नी—-
सातवें भाव को लेकर पुरुष जातक के योगायोग अलग बनते है,स्त्री जातक के योगायोग अलग बनते है,विवाह करने के लिये सबसे पहले शुक्र पुरुष कुंडली के लिए और मंगल स्त्री की कुन्डली के लिये देखना जरूरी होता है,लेकिन इन सबके बाद चन्द्रमा को देखना भी जरूरी होता है,मनस्य जायते चन्द्रमा,के अनुसार चन्द्रमा की स्थिति के बिना मन की स्थिति नही बन पाता है। पुरुष कुंडली में शुक्र के अनुसार पत्नी और स्त्री कुंडली में मंगल के अनुसार पति का स्वभाव सामने आ जाता है।



जानिये धर्म क्या है?? क्या हैं धर्म के मायने

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(दोष रहित, सत्य प्रधान, उन्मुक्त, अमर और भरा-पूरा जीवन विधान ही धर्म है।)
धर्म क्या है -- एक प्रकार की ब्रम्हाण्डीय जानकारी और उस जानकारी के अनुसार अपने आपको स्थित और व्यवस्थित करना अर्थात् ब्रम्हाण्डीय स्थिति की यथार्थत: जानकारी रखते हुये अपने को उसके अनुसार व्यस्थित कर देना । जो कुछ और जितना भी हम ब्रम्हाण्डीय विधान से अलग हट चुके हैं, उसमें अपने को स्थित कर देना । पिण्ड (शरीर) ब्रम्हाण्ड की एक इकाई है । ब्रम्हाण्डीय विधान क्या है और उसमें यह जो हमारा पिण्ड है यह कहाँ और कैसा है-- इसकी सम्पूर्ण जानकारी रखते हुये, यह जहाँ जैसा था, वहाँ वैसा रख देना, उसमें जोड़ देना या व्यवस्थित कर देना । ब्रम्हाण्डीय विधान से जानकारी रखते हुये उसमें पिण्डीय स्थिति को स्थित कर देना। जो ब्रम्हाण्डीय विधान से छूट चुके हैं अथवा किसी विपरीत गति में जा चुके हैं उस विपरीत गति से अनुकूल गति में स्थित कर देना । जब हम ऐसा कर लेंगे तो हमारा सारा उद्देश्य भगवन्मय होता रहेगा ! अपनी दृष्टि को हमेशा 'तत्त्व' के तरफ मोड़ते हुए तत्त्वमय बनाए रखना चाहिये। शरीर रूप में अपने को देखने की कोशिश कदापि नहीं करना चाहिये क्योंकि शरीरमय देखने से ही संसार में सारे दोष और दुष्कृत्य उत्पन्न होते रहते हैं जिससे पतन और विनाश को हर कोई ही जाने लगता और जाता ही रहता है।
'धर्म' अपने आप में एक परिपूर्ण शब्द है । ''परमाणु से परमात्मा तक का सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड शिक्षा (एजुकेशन) से तत्त्वज्ञान (नॉलेज) तक का सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण प्रयोग-उपलब्धि समाहित रहता है जिसमें वह विधान ही 'धर्म' है।''
जड़ जगत्-शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर:-- संसार और शरीर के मध्य शरीर तक की पूर्ण जानकारी शिक्षा (Education); शरीर और जीव के मध्य जीव तक की पूर्ण जानकारी स्वाध्याय (Self Realization); जीव और ईश्वर के मध्य ईश्वर तक की पूर्ण जानकारी अध्यात्म (Spiritualization) और ईश्वर और परमेश्वर के मध्य की जानकारी, साथ ही साथ सम्पूर्ण जानकारी ( True Supreme KNOWLEDGE ) समाहित रहता है जिसमें, वही है 'धर्म' ।
भगवान श्री कृष्ण जी महाराज के अनुसार-- ''जिस माध्यम से अनन्य भगवद् भक्ति-भाव होता रहता हो वही 'धर्म' है; जिस माध्यम से अद्वैत्तत्त्व बोध—भगवत्तत्त्व बोध रूप एकत्व बोध होता हो, वही तत्त्वज्ञान है; जिस माध्यम से सम्पूर्ण संसार के प्रति त्याग-भाव (विषयों से असंग) और भगवान के प्रति समर्पण-शरणागत भाव हो, वही वैराग्य है और अणिमा-गणिमा आदि सिध्दियाँ जिसमें हों, वही ऐश्वर्य है।'' आप श्रीमद्भागवत् महापुराण के अधोलिखित श्लोक में जान-देख सकते हैं--
धर्मो मद्भक्तिकृत् प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्।
गुणेष्वसंगो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादय: ॥
(श्रीमदभागवत्महापुराण 11/19/27)
उपर्युक्त श्लोक के माध्यम से सूत्र रूप में श्रीकृष्ण जी महाराज ने धर्म-ज्ञान-वैराग्य और ऐश्वर्य की जो परिभाषा दिया है, वह अपने आप में पूर्ण है । मगर सूत्र रूप में होने के नाते सभी पाठक जनों से उसे समझ पाने की उम्मीद नहीं की जा सकती है और कोई चीज समझ में न आने का अर्थ उसका गलत होना नहीं है ।
स्वामी विवेकानन्द जी ने भी 'धर्म' की परिभाषा को अपने 'मेरे गुरुदेव' नामक पुस्तिका के पृष्ठ संख्या 18 के दूसरे पैरा में दिया है--
'मनुष्य को परमेश्वर प्राप्त करना चाहिए, परमेश्वर का अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिए तथा उससे बातचीत करनी चाहिए--यही 'धर्म' है ।' (यथार्थता हेतु ईश्वर के स्थान पर परमेश्वर प्रतिस्थापित)
स्वामी विवेकानन्द जी ने जो उपर्युक्त परिभाषा दिया है, उसमें कुछ भ्रामकता है । अर्थ और भाव तो बिल्कुल ही सत्य है मगर जानकारी और शब्द भ्रामकता को प्रदर्शित कर दे रहे हैं । जैसे स्वामी विवेकानन्द की स्थिति आत्मामय जीव प्रधानता की थी अर्थात् कभी-कभी आत्मामय और बराबर जीव की स्थिति में रहा करते थे। प्राय: जितने आत्मामय जीवधारी होते हैं, वे भी नाजानकारी और भूल-भ्रम के कारण आत्मा को ही परमात्मा, ईश्वर को ही परमेश्वर, ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह, नूर-सोल-स्पिरिट को ही खुदा-गॉड-भगवान, पतनोन्मुख सोऽहँ--भ्रामक शिवोऽहँ--ऊर्ध्वमुखी हँसो- -स: ज्योति रूप शिव शक्ति को ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वं मान बैठते हैं । यह स्थिति आदिम काल से वर्तमान तक के सभी योगी-साधक तथा अध्यात्मवेत्ताओं की ही रही है और है भी। इसी के अन्तर्गत स्वामी विवेकानन्द भी आ जाते हैं । इसीलिए 'धर्म' की परिभाषा में इन्होंने परमेश्वर के जगह पर ईश्वर का प्रयोग कर दिया है ।
आप पाठक बन्धुओं को योगी-योगेश्वर तथा तथाकथित भगवानों आदि-आदि आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं और तथाकथित गुरुओं-सद्गुरुओं आदि के द्वारा दिग्भ्रमित कर-करा दिया गया है कि जीव-आत्मा और परमात्मा अथवा जीव-ईश्वर और परमेश्वर अथवा जीव-ब्रम्ह और परमब्रम्ह अथवा रूह-नूर और अल्लाहतआला अथवा सेल्फ-सोल एण्ड गॉड अथवा नूर-सोऽहँ-शिवोऽहँ- हँसो-स: ज्योति; दिव्य ज्योति रूप शिव और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अलम् रूप गॉड रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान तीनों को ही एक ही बता कर वास्तव में अपने जानकारी एवं नासमझदारी का और अपने मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्या अहंकार का ही परिचय दिए हैं और दे भी रहे हैं, मगर सामान्य जनमानस तो यह समझ पाता नहीं और इन लोगों के भरमाने-भटकाने में भ्रम-भटककर तीनों; जीव-ईश्वर और परमेश्वर अथवा रूह-नूर और अल्लातऽला अथवा सेल्फ-सोल एण्ड गॉड अथवा नूर-सोऽहँ-हँसो ज्योति-शिव और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् को एक ही मान-मनवा कर 'परमसत्य रूप वास्तविक सत्य' और उनके यथार्थत: ज्ञान से वंचित कर-करा दिया जा रहा है।
आप सत्यान्वेषी ज्ञानाभिलाषी बन्धुओं को निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से इन तीनों के नाम-रूप-स्थान- गुण-कर्म-प्रभाव -लीला भाव आदि को पृथक्-पृथक् रूप में बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन एवं यथार्थत: जानने परिचय-पहचान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। ये उपर्युक्त तीनों ही तीन हैं और पृथक्-पृथक् हैं, न कि एक ही ।
वास्तव में हमारा इन उपर्युक्त तथाकथित भगवानों -सद्गुरुओं आदि महानुभावों से कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं है और न ही किसी प्रकार के लेनी-देनी का टकराव या झगड़ा ही है । हाँ, उनसे टकराव अथवा झगड़ा अवश्य है जो असत्य-अधर्म-ढोंग-पाखण्ड आदि-आदि वाले रहते हुए अपने को सत्य-धर्म और वास्तविक 'तत्तवज्ञान' दाता अथवा भगवद् ज्ञान दाता होने की घोषणा करते हैं। जैसे कि बताते-जनाते हैं—नूर-सोऽहँ-शिवोऽहँ-ह्ँसो-ज्योति की आध्यात्मिक अथवा साधनात्मक क्रियाओं को यह घोषित करते-कराते हैं कि यही 'तत्त्वज्ञान' अथवा भगवद् ज्ञान, अथवा अद्वैत्तत्त्व ज्ञान है जबकि यह बिल्कुल गलत बात है। ऐसे लोगों के असत्य-अधर्म आडम्बर-ढोंग-पाखण्ड का पर्दाफास करना इनके वास्तविकता को समाज में उजागर करना तथा इनके गलत तथ्यों के जगह पर परमसत्य रूप वास्तविक सत्य को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करना या रखना और प्रत्येक जिज्ञासु को सत्य प्रधान बनाना और बनाए रखना ही हमारा उद्देश्य अथवा लक्ष्य है जिसका परिपालन करना-कराना ही हमारा कर्तव्य है और हम अपने कर्तव्य पालन में लगे भी हैं। अब हमारे इस कर्तव्य पालन करने में इन उपर्युक्त तथाकथित महानुभावों अथवा इनके अनुयायियों को अपना अथवा अपने गुरुदेव का पर्दाफास होते हुए अपमान और दु:ख-कष्ट ही होता हो तो आखिरकार हम क्या करें? क्या हम इनके असत्य- अधर्म और मिथ्याज्ञानाभिमान- मिथ्यावादिता रूप आडम्बर- ढोंग-पाखण्ड के वास्तविकता को जानते हुए भी उन्हें सत्य स्वीकार कर लें? ऐसा तो मेरे वश का नहीं! मेरे वश का कदापि नहीं, क्योंकि असत्य-अधर्म विनाशक और सत्य-धर्म संस्थापक एवं संरक्षक होने-रहने के कारण मुझसे ऐसा हो ही नहीं सकता। वास्तविकता तो यह है कि जीव, ईश्वर और परमेश्वर आदि तीनों की जानकारी तो इन्हें होती नहीं, प्राय: शरीर से हटकर मात्र ज्योति को ही कुछेक जान-देख पाते हैं, हालाँकि इनमें से अधिकतर यह भी समझ नहीं पाते कि साधनात्मक ध्यान के अन्तर्गत जिस ज्योति का दर्शन करते हैं, वह पंच पदार्थ तत्वों की है अथवा आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट की । यदि ये शरीर और ज्योति मात्र, दो को ही मान-जान पाये हैं जिसे चेतन दिव्य-ज्योति, चेतन-दिव्य-ज्योति, चेतन-दिव्य-ज्योति कहकर गुण गाते हैं और जगत् सहित शरीर को जड़ कह-कह कर निन्दा करते हैं तो इनके दृष्टि में तो जड़-चेतन ब्रम्हाण्ड में दो ही रूप हैं।
ये उपर्युक्त योगी-साधक-अध्यात्म वाले जगत् सहित शरीर को जड़ तथा जीव-ईश्वर-परमेश्वर आदि तीनों उपाधियों वाले को चेतन ज्योति है-- ऐसा ही नाजानकारी एवं नासमझदारीवश मानने वाले हैं। इनके दृष्टि में आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह तो चेतन है ही, बस यही चेतन ही जीव और परमेश्वर भी हैं अर्थात् जीव-ईश्वर और परमेश्वर अथवा रूह-नूर और अल्लाहतआला अथवा सेल्फ-सोल एण्ड गॉड अथवा नूर-सोऽहँ-हँसो-ज्योति-शिव और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् तीनों ही एक ही चेतन के विभिन्न नाम-उपाधियाँ हैं । ये लोग समझ ही नहीं पाते कि जीव और परमेश्वर अथवा रूह और अल्लातऽला अथवा सेल्फ और गॉड दोनों ही इस आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट से भिन्न-भिन्न हैं अथवा पृथक्-पृथक् हैं । उपर्युक्त तथाकथित महानुभाव लोग शरीरस्थ जीवात्मा रूप हँस को ही परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रम्ह-खुदा-गॉड आत्मतत्त्वम्
शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् भी स्वयं तो मान बैठते ही हैं, अनुयायियों को भी प्रभावी रूप से मनवाने लगते हैं और उपनिषद्-गीता-रामायण आदि से अपने पक्ष वाला-काट वाला (सत्य वाला नहीं) उदाहरण भी तुरन्त पेश कर देते हैं कि--
एको हँसो भुवनस्यास्य मध्ये
स एवाग्नि:सलिले सन्निविष्ट: ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति
नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् 6/15)
व्याख्या- इस ब्रम्हाण्ड के बीच में जो एक प्रकाश स्वरूप परमब्रम्ह-परमेश्वर (यहाँ हंस: को ही प्रकाशमय परमेश्वर कह दिया गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही है, परमेश्वर नहीं है। प्रकाशमय हंस परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर से प्रकट और पृथक् होता रहता है । वास्तव में वह परमतत्त्वम् रूप ही परमेश्वर है, यह प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है । ऐसा आगे के मन्त्र में देखने को मिलेगा।) है, वही जल में स्थित अग्नि है उसे जानकर ही मृत्यु रूप संसार समुद्र से सर्वथा पार हो जाता है; दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है ।
नवद्वारे पुरे देही हँसो लेलायते बहि: ।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् 3/18)
व्याख्या- सम्पूर्ण स्थावर और जंगम जीवों के समुदाय रूप इस जगत् को अपने वश में रखने वाले वे प्रकाशमय परमेश्वर (यहाँ भी हंस को ही प्रकाशमय परमेश्वर कह दिया गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही है, परमेश्वर नहीं है । यह विशुध्दत: ईश्वर भी नहीं है। यह प्रकाशमय हंस जीव का आत्मामय रूप अर्थात् जीवात्मा है और परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर या परमात्मा से प्रकट और पृथक् होने के कारण उसका पुत्र है । वास्तव में वह परमतत्त्वम् ही परमेश्वर है, प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है।) दो ऑंख, दो कान, दो नासिका, एक मुख, एक गुदा और एक उपस्थ-- इस प्रकार नौ दरवाजों वाले मनुष्य शरीर रूप नगर में अन्तर्यामी रूप से स्थित हैं और वे ही इस बाह्य जगत् में भी लीला कर रहे हैं ।
श्वेताश्वतरोपनिषद् के उपर्युक्त मन्त्रों को दिखलाकर कि हँसो प्रकाश स्वरूप परमात्मा और अर्थ-व्याख्या में हँस के स्थान पर प्रकाश स्वरूप परमात्मा उल्लिखित किया है और प्राय: यही मान्यता समस्त तथाकथित भगवानों सद्गुरुओं-आध्यात्मिक गुरुओं, सन्त-महात्मनों की भी आदिम काल से रही है और वर्तमान में भी है, जबकि इसी श्वेताश्वतरोपनिषद् के अन्तर्गत उन मन्त्रों को ये महानुभाव लोग अपने शिष्यों एवं अनुयायियों को नहीं बताते-दिखाते अथवा उनसे छिपा लेते हैं जिन मन्त्रों में हँसों को जीवात्मा मात्र कहकर उल्लिखित किया गया है और अविनाशी चेतन आत्मा (ईश्वर या ब्रम्ह) से भी पृथक्, परे, उत्तम और इसका मालिक-शासक परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह होता है । उन मन्त्रों को प्राय: ये लोग छिपा ही लेते हैं । यदि यहाँ पर यह कहा जाय कि अपने शिष्यों-अनुयायियों को ये धोखा नहीं देते हैं तो एक ही उपनिषद् गीता-रामायण- बाइबिल-कुर्आन आदि के वे मन्त्र-श्लोक-उध्दरण आदि तो इनको याद होते हैं और प्रमाण में दिखलाते हैं जो इनके अनुकूल पड़ता है और जहाँ इनके प्रतिकूल पड़ता है वे इन्हें याद ही नहीं होते अथवा दिखलाई ही नहीं देते हैं ! क्या इसे मान लिया जाय ? नहीं, ऐसा कदापि सम्भव नहीं । आप स्वयं उन प्रमाणों को देखे-पढ़ें-ज़ानें और समझते हुये निर्णय लें । आप के लिये हम उन्हें यहाँ उल्लिखित कर रहे हैं--
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते
अस्मिन् हँसो भ्राम्यते ब्रम्हचक्रे ।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा
जुष्टस्ततस्तेनामृत्तात्त्वमेति ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् 1/6)
व्याख्या-- जो सबके जीवन निर्वाह का हेतु है और जो समस्त प्राणियों का आश्रय है, ऐसे इस जगत् रूप ब्रम्हचक्र में परमब्रम्ह परमात्मा द्वारा संचालित तथा परमात्मा के ही विराट शरीर रूप संसार चक्र में यह जीवात्मा (ह्ँसो) अपने कर्मों के अनुसार उन परमात्मा द्वारा घुमाया जाता है । (श्वेताश्वतरोपनिषद् के मन्त्र संख्या 6/15 और 3/18 में हंस को ही प्रकाशमय परमेश्वर कहा गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही है परमेश्वर नहीं है । यह विशुध्दत: ईश्वर भी नहीं है। यह प्रकाशमय हंस जीव का आत्मामय रूप अर्थात् जीवात्मा है और परमतत्त्ववम् रूप परमेश्वर या परमात्मा से प्रकट और पृथक् होने के कारण उसका पुत्र है। वास्तव में वह परमतत्त्वम् ही परमेश्वर है, प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है। यहाँ पर ऐसे उस हँस रूप जीवात्मा को परमब्रम्ह-परमात्मा द्वारा इस संसार चक्र में घुमाया जाना बताया गया है ।(जब तक यह जीवात्मा (ह्ँसो) इसके संचालक (परमात्मा) को जानकर उनका कृपा पात्र नहीं बन जाता, अपने को उनका प्रिय नहीं बना लेता, तब तक इस जीवात्मा (हँसो) का इस चक्र से छुटकारा नहीं हो सकता । जब यह जीवात्मा (हँसो) अपने को व सबके प्रेरक परमात्मा को भली-भाँति पृथक्-पृथक् जान-समझ लेता है कि उन्हीं के घुमाने से मैं इस संसार चक्र में घूम रहा हूँ और उन्हीं की कृपा से छूट सकता हूँ, तब वह उन परमेश्वर का प्रिय बनकर उनके द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है । (कठोपनिषद् 1/2/23 और मुण्डकोपनिषद् 3/2/3 में भी इसी प्रकार का वर्णन है।) फिर तो वह अमृत 'तत्त्वम्' को प्राप्त हो जाता है,। जन्म-मरण रूप संसार चक्र से सदा के लिए छूट जाता है । परमशान्ति एवं सनातन परमधाम को प्राप्त कर लेता है ।
द्वे अक्षरे ब्रम्हपरे त्वनन्ते
विद्याविद्ये निहिते यत्रा गूढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्ययमृतं तु विद्या
विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य: ।,
(श्वेताश्वतरोपनिषद्5/1)
व्याख्या-- परमेश्वर, ब्रम्ह से भी अत्यन्त श्रेष्ठ है। अपनी माया के पर्दे में छिपा हुआ है, जो सीमा रहित और अविनाशी है अर्थात् जो देश-काल से सर्वथा अतीत है तथा जिनका कभी किसी प्रकार से विनाश नहीं हो सकता तथा जिन परमात्मा में अविद्या और विद्या --दोनों विद्यमान रहते हैं, वे ही पूर्णब्रम्ह पुरुषोत्तम हैं । इस मन्त्र में परिवर्तनशील घटने-बढ़ने वाले और उत्पत्ति विनाशशील-क्षरतत्त्व को तो अविद्या नाम से कहा गया है, क्योंकि वह जड़ है, उसमें विद्या का सर्वथा अभाव है । उससे भिन्न जो अविनाशी कूटस्थ जीवात्मा है, उसको विद्या के नाम से कहा गया है, क्योंकि वह चेतन है, विज्ञानमय है। उपनिषदों में जगह-जगह उसका विज्ञानात्मा के नाम से भी वर्णन आया है । यहाँ श्रुति में स्वयं ही विद्या और अविद्या की परिभाषा कर दी गयी है। अर्थान्तर की कल्पना अनावश्यक है । जो इस अविद्या नाम से कहे जाने वाले क्षर और विद्या नाम से कहे जाने वाले अक्षर-- दोनों पर शासन करते हैं, दोनों के स्वामी हैं, दोनों जिनकी प्रकृतियाँ अथवा शक्तियाँ हैं, वे परमेश्वर इन दोनों से अन्य ---सर्वथा विलक्षण और श्रेष्ठ हैं ।
श्रीमद्भगवद् गीता में भी कहा है-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥
(गीता 15/16 )
अर्थ--इस संसार में नाशवान एवं अविनाशी ये दो प्रकार के पुरुष हैं । इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है ।
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत : ।
यो लोकत्रायमावृत्य बिभर्त्यव्यय परमेश्वर: ॥
(गीता 15/17 )
अर्थ--इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों को घेर करके सबका धारण-पोषण करता है एवं 'परमात्मा-परमेश्वर' नाम से जाना जाता है ।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: ॥
(गीता 15/18)
अर्थ--क्योंकि 'मैं' (परमपिता परमात्मा) नाशवान् जड़ वर्ग ;क्षर जगत् से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीव-आत्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी 'पुरुषोत्तम' नाम से प्रसिध्द हूँ ।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत: ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
(गीता 18/55)
अर्थ--उस पराभक्ति के द्वारा जिज्ञासु भक्त मुझ परमात्मा को, 'मैं' जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा का वैसा ही 'तत्त्व' से जान लेता है, तथा उस भक्ति से मुझ को 'तत्त्व' से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है ।
इन्द्र्रियेभ्य: परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन: ।
मनसस्तु परा बुध्दिर्बुध्देरात्मा महान् पर: ॥
महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुष: पर: ।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गति: ॥
(कठोपनिषद् 1/3/10-11)
अर्थ--इन्द्रियों से श्रेष्ठ शब्दादि विषय हैं, विषयों से श्रेष्ठ मन है, मन से श्रेष्ठ बुध्दि और बुध्दि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ और बलवान महान् आत्मा है । उस आत्मा से भी बलवती भगवान की मायाशक्ति; आदिशक्ति है और उस माया शक्ति से भी श्रेष्ठ व परे वह परमप्रभु परमेश्वर है जिससे श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी और कोई भी नहीं है, वही सबका परम अवधि और वही परम गति है ।
इन उपर्युक्त सारे तथ्यों और उदाहरणों के आधार और माध्यम से आप पाठक जिज्ञासु बन्धुओं को प्रारम्भिक जानकारी-समझदारी तो हो ही जानी चाहिए कि वास्तव में ''धर्म'' क्या है । 'धर्म' कोई कपोल-कल्पित अथवा साम्प्रदायिक वर्ग-संघर्ष जैसे घृणित कोई बात नहीं अपितु सम्पूर्ण की सम्पूर्णतया भरा-पूरा परमसत्य रूप एक ब्रम्हाण्डीय जीवन विधान है ।

स्त्री का सम्मान और आदर:खुशियाँ और लक्ष्मी का वास

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जब किसी घर में शादी के बाद पहली बार दुल्हन आती है तब उसे लक्ष्मी स्वरुप माना जाता है। वास्तव में लक्ष्मी होती भी है। प्रायः सुनने में आता है कि बहू के पैर बहुत ही भाग्यशाली हैं, जब से पड़े है, घर में लक्ष्मी बरसने लगी है। इसके विपरीत ऐसे पैर भी सुनने को मिलते हैं जिनके घर में प्रवेश करते ही सुख-सम्पदा का पलायन प्रारम्भ हो जाता है। परन्तु मैं प्रत्येक स्त्री के पर घर में शुभ मानता हॅ। मेरी पूर्ण आस्था स्त्री का लक्ष्मी स्वरुप मानने में है। इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि जिस घर से स्त्री का मान-सम्मान उठा है, वहा सर्वनाष ही हुआ है। इस उपाय को उस घर में कदापि न किया जाए जहा स्त्रीयों के प्रति सोहार्दपूर्ण व्यवहार नहीं होता।
स्त्री को घर में प्रवेष करने के प्रथम दिन से ही आदर दें। विवाह के बाद उसके घर आने के समय अपनी-अपनी धर्म जाति के अनुसार जो भी पारम्परिक प्रथाएं हैं, पहले वह पूरी कर लें। उसके बाद दुल्हन से यह उपाय करवाएं। इससे प्रत्येक स्त्री के घर में आने वाले पैर शुभ सिद्ध होंगे।
घर के मुख्य द्वार में प्रवेष से पूर्व स्त्री से द्वार की चैखट पर दाएं अथवा बायीं ओर गंगा जल से थोड़ी सी जगह धुलवाएं उसके ऊपर दही तथा केसर मिश्रित घोल से (इसमें नागकेसर तथा लाल चंदन का चूर्ण भी डाल लें तो और भी शुभ है) स्वास्तिक का पवित्र चिन्ह दांए हाथ की अनामिका उंगली से बनवाएं। इसके ऊपर मध्य में थोड़ा सा गुड़ रखवा कर एक बूंद शहद टपकवा दें। स्वास्तिक की चार बत्ती वाले दिए, धूप-दीप, पुष्प आदि से यथाषक्ति पूजा करवाएं। घर की उपस्थित समस्त स्त्रियाॅ कल्पना करें कि हमारे घर में लक्ष्मी जी के चरण पड़ रहे हैं। बहू को ससम्मान घर के अंदर ले आएं। घर में सर्वप्रथम उसे मीठी खीर, दही आदि जो कुछ भी उपलब्ध हो सप्रेम खिलाएं। स्वास्तिक बनें स्थान को भूल जाएं। उस पर किसी का पैर पड़े, कोई
उसे बिगाड़ दे, अब कोई शंका न करें। तदंतर में प्रत्येक गुरुवार को, गुरु की ही होरा में उक्त प्रकार से वह स्त्री स्वास्तिक बनाती रहे। पहले यह घर के बाहर से अंदर आने पर बनाया गया था। बाद में वह घर के अंदर से बनाया जाएगा। यदि किसी गुरुवार को वह स्त्री पवित्र नहीं है तो उसके स्थान पर घर की अन्य कोई नहाई-धोई स्वच्छ महिला यह उपाय दोहरा दे और अगले गुरुवार से वह स्त्री पुनः ये उपाय जारी रखे। किन्हीं अन्य कारणों से कोई गुरुवार ये उपाय होना छूट भी जाए तो अगले गुरुवार से ये पुनः प्रारम्भ कर दें। चार बत्ती वाला दिया एक बार ही घर में प्रवेष करते समय जलाना है। बाद में जलाना अथवा न जलाना उस स्त्री की सुविधा तथा इच्छा पर निर्भर है परन्तु गंगा जल से लीपने से लेकर शहद की बूंद टपकाने तक संपूर्ण प्रक्रिया आवष्यक रुप से करनी ही है।

इस सरल उपाय से उस नवविवाहिता स्त्री के पैर सर्वदा भाग्यषाली बनें रहेंगे। घर में श्री का सदा वास होगा। ये एक ऐसा उपाय है जिसे प्रत्येक हिन्दू परिवार में मैं आवष्यक समझता हॅ। नवविवाहिता के विपरीत घर की किसी अन्य कुआरी अथवा विवाहित स्त्री द्वारा भी यह उपाय सर्वप्रथम प्रारंभ करवाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में उपाय प्रारम्भ करने वाली स्त्री नहा-धोकर घर के बाहर किसी मंदिर में जाए और घर लौटते समय उपरोक्त विधि से ही यह उपाय आरम्भ कर देवें ।

जानें कालभैरव अष्टमी के दिन का महत्व

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कालभैरव अष्टमी 

शिव अवतार कहे जाने वाले कालभैरव का अवतार मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ। इस संबंध में शिवपुराण की शतरुद्रासंहिता में बताया गया है शिवजी ने कालभैरव के रूप में अवतार लिया और यह स्वरूप भी भक्तों को मनोवांछित फल देने वाला है।कोयले से भी प्रगाढ़ रंग, विशाल प्रलंब, स्थूल शरीर, अंगारकाय त्रिनेत्र, काले वस्त्र, रूद्राक्ष की कण्ठमाला, हाथों में लोहे का भयानक दण्ड और काले कुत्ते की सवारी – यह है महाभैरव, अर्थात् भय के भारतीय देवता का स्वरूप।

भैरव जी के उपवास के लिए रविवार और मंगलवार ग्राह्य माने गए हैं। ऐसी मान्यता है कि अष्टमी के दिन स्नान के बाद पितरों का श्राद्ध और तर्पण करने के बाद यदि कालभैरव की पूजा की जाए तो उपासक के साल भर के सारे विघ्न टल जाते हैं। मान्यता यह भी है कि महाकाल भैरव मंदिर में चढ़ाए गए काले धागे को गले या बाजू में बांधने से भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता है। कहते हैं कि भगवान शंकर ने इसी अष्टमी को ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट किया था, इसलिए यह दिन भैरव अष्टमी व्रत के रूप में मनाया जाने लगा। भैरव अष्टमी 'काल' का स्मरण कराती है, इसलिए मृत्यु के भय के निवारण हेतु कालभैरव की शरण में जाने की सलाह धर्मशास्त्र देते हैं। ऐसा जन विश्वास है कि सामाजिक मर्यादाओं का पालन करने वालों की भैरव जी रक्षा करते हैं। 



आज के दिन प्रत्येक प्रहर में काल भैरव और ईशान नाम के शिव की पूजा और अर्घ्य देने का विधान है। आधी रात के बाद काल भैरव की आरती की जाती है। इसके बाद पूरी रात का जागरण किया जाता है। मान्यता है कि भगवान भैरव का वाहन कुत्ता है। इसलिए इस दिन कुत्ते की भी पूजा की जाती है। कहते हैं कि अगर कुत्ता काले रंग का हो तो पूजा का माहात्म्य और बढ़ जाता है। कुछ भक्त तो उसे प्रसन्न करने के लिए दूध पिलाते हैं और मिठाई खिलाते हैं। 


भगवान भैरव उल्लेख आदित्य पुराण में विस्तार से आया है। भैरव भगवान शिव के दूसरे रूप में माने गए हैं। मान्यता है कि इसी दिन दोपहर के समय शिव के प्रिय गण भैरवनाथ का जन्म हुआ था। कहा जाता है कि भैरव से काल भी भयभीत रहता है, इसलिए उन्हें कालभैरव भी कहते हैं। देश में भैरव जी के कई मंदिर हैं, जिनमें काशी स्थित कालभैरव मंदिर काफी प्रसिद्ध है। 

भगवान भैरव पर दूध चढ़ाया जाता है, लेकिन किलकारी भैरव के विषय में मान्यता है कि वह शराब चढ़ाने पर प्रसन्न होते हैं। उज्जैन स्थित काल भैरव मंदिर में श्रद्धालु भैरव जी को मदिरा अर्पित करते हैं। ऐसा मानते हैं कि यह व्रत गणेश, विष्णु, यम, चंद्रमा, कुबेर आदि ने भी किया था और इसी व्रत के प्रभाव से भगवान विष्णु लक्ष्मीपति बने, अप्सराओं को सौभाग्य मिला और कई राजा चक्रवर्ती बने। यह सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला व्रत कहा गया है। 

इस दिन चन्द्रमा सिंह राशि में रहेगा और आश्लेषा नक्षत्र रहेगा..
कहते हैं, औरंगजेब के शासन काल में जब काशी के भारत-विख्यात विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस किया गया, तब भी कालभैरव का मंदिर पूरी तरह अछूता बना रहा था। जनश्रुतियों के अनुसार कालभैरव का मंदिर तोड़ने के लिये जब औरंगज़ेब के सैनिक वहाँ पहुँचे तो अचानक पागल कुत्तों का एक पूरा समूह कहीं से निकल पड़ा था। उन कुत्तों ने जिन सैनिकों को काटा वे तुरंत पागल हो गये और फिर स्वयं अपने ही साथियों को उन्होंने काटना शुरू कर दिया। बादशाह को भी अपनी जान बचा कर भागने के लिये विवश हो जाना पड़ा। उसने अपने अंगरक्षकों द्वारा अपने ही सैनिक सिर्फ इसलिये मरवा दिये किं पागल होते सैनिकों का सिलसिला कहीं खु़द उसके पास तक न पहुँच जाए।

उपासना की दृष्टि से भैरव तमस देवता हैं। उनको बलि दी जाती है और जहाँ कहीं यह प्रथा समाप्त हो गयी है वहाँ भी एक साथ बड़ी संख्या में नारियल फोड़ कर इस कृत्य को एक प्रतीक क्रिया के रूप में सम्पन्न किया जाता है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि भैरव उग्र कापालिक सम्प्रदाय के देवता हैं और तंत्रशास्त्र में उनकी आराधना को ही प्राधान्य प्राप्त है। तंत्र साधक का मुख्य लक्ष्य भैरव की भावना से अपने को आत्मसात करना होता है।

कालभैरव की पूजा प्राय: पूरे देश में होती है, और अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग नामों से वह जाने-पहचाने जाते हैं। महाराष्ट्र में खण्डोबा उन्हीं का एक रूप है, और खण्डोबा की पूजा-अर्चना वहाँ ग्राम-ग्राम में की जाती है। दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है। वैसे हर जगह एक भयदायी और उग्र देवता के रूप में ही उनको मान्यता मिली हुई है, और उनकी अनेक प्रकार की मनौतियां भी स्थान-स्थान पर प्रचलित हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि की गणना भगवान शिव के अन्यतम गणों में की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो विविध रोगों और आपत्तियों विपत्तियों के वह अधिदेवता हैं। शिव प्रलय के देवता हैं, अत: विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके अपने सैनिक हैं। इन सब गणों के अधिपति या सेनानायक हैं महाभैरव। सीधी भाषा में कहें तो भय वह सेनापति है जो बीमारी, विपत्ति और विनाश के पार्श्व में उनके संचालक के रूप में सर्वत्र ही उपस्थित दिखायी देता है।
भय स्वयं तामस-भाव है। तम और अज्ञान का प्रतीक है यह भाव। जो विवेकपूर्ण है वह जानता है कि समस्त पदार्थ और शरीर पूरी तरह नाशवान है। आत्मा के अमरत्व को समझ कर वह प्रत्येक परिस्थिति में निर्भय बना रहता है। जहाँ विवेक तथा धैर्य का प्रकाश है वहाँ भय का प्रवेश हो ही नहीं सकता। वैसे भय केवल तामस-भाव ही नहीं, वह अपवित्र भी होता है।। इसीलिये भय के देवता महाभैरव को यज्ञ में कोई भाग नहीं दिया जाता। कुत्ता उनका वाहन है। क्षेत्रपाल के रूप में उन्हें जब उनका भाग देना होता है तो यज्ञीय स्थान से दूर जाकर वह भाग उनको अर्पित किया जाता है, और उस भाग को देने के बाद यजमान स्नान करने के उपरांत ही पुन: यज्ञस्थल में प्रवेश कर सकता है।
पुराणों के अनुसार शिव के अपमान-स्वरूप भैरव की उत्पत्ति हुई थी। यह सृष्टि के प्रारंभकाल की बात है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भगवान शंकर की वेशभूषा और उनके गणों की रूपसज्जा देख कर शिव को तिरस्कारयुक्त वचन कहे। अपने इस अपमान पर स्वयं शिव ने तो कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु उनके शरीर से उसी समय क्रोध से कम्पायमान और विशाल दण्डधारी एक प्रचण्डकाय काया प्रकट हुई और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ आयी। स्रष्टा तो यह देख कर भय से चीख पड़े। शंकर द्वारा मध्यस्थता करने पर ही वह काया शांत हो सकी। रूद्र के शरीर से उत्पन्न उसी काया को महाभैरव का नाम मिला। बाद में शिव ने उसे अपनी पुरी, काशी का नगरपाल नियुक्त कर दिया।
ऐसी मान्यता है कि अष्टमी के दिन स्नान के बाद पितरों का श्राद्ध और तर्पण करने के बाद यदि कालभैरव की पूजा की जाए तो उपासक के साल भर के सारे विघ्न टल जाते हैं। मान्यता यह भी है कि महाकाल भैरव मंदिर में चढ़ाए गए काले धागे को गले या बाजू में बाँधने से भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता है। ऐसा कहा गया है कि भगवान शंकर ने इसी अष्टमी को ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट किया था, इसलिए यह दिन भैरव अष्टमी व्रत के रूप में मनाया जाने लगा। भैरव अष्टमी ‘काल’ का स्मरण कराती है, इसलिए मृत्यु के भय के निवारण हेतु बहुत से लोग कालभैरव की उपासना करते हैं।
भारत में भैरव के अनेक प्रसिद्ध मंदिर हैं जिनमें काशी का काल भैरव मंदिर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से भैरव मंदिर कोई डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दूसरा नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुक भैरव का पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। तीसरा उज्जैन के काल भैरव की प्रसिद्धि का कारण भी ऐतिहासिक और तांत्रिक है। नैनीताल के समीप घोड़ाखाल का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। इसके अलावा शक्तिपीठों और उपपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है।
भारतीय संस्कृति प्रारंभ से ही प्रतीकवादी रही है और यहाँ की परम्परा में प्रत्येक पदार्थ तथा भाव के प्रतीक उपलब्ध हैं। यह प्रतीक उभयात्मक हैं – अर्थात स्थूल भी हैं और सूक्ष्म भी। सूक्ष्म भावनात्मक प्रतीक को ही कहा जाता है देवता। चूँकि भय भी एक भाव है, अत: उसका भी प्रतीक है – उसका भी एक देवता है, और उसी भय का हमारा देवता हैं महाभैरव।
व्रत की विधि :-मार्गशीर्ष अष्टमी पर कालभैरव के निमित्त व्रत उपवास रखने पर जल्द ही भक्तों की इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। इस पर्व की व्रत की विधि इस प्रकार है-
भैरवाष्टमी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठें। स्नान आदि कर्म से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प करें। तत्पश्चात किसी भैरव मंदिर जाएं। मंदिर जाकर भैरव महाराज की विधिवत पूजा-अर्चना करें। साथ ही उनके वाहन की भी पूजा करें। साथ ही ऊँ भैरवाय नम: मंत्र से षोडशोपचारपूर्वक पूजन करना चाहिए। भैरवजी का वाहन कुत्ता है, अत: इस दिन कुत्तों को मिठाई खिलाएं। दिन में फलाहार करें।
भैरवाष्टमी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठें। स्नान आदि कर्म से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प करें। तत्पश्चात किसी भैरव मंदिर जाएं। मंदिर जाकर भैरव महाराज की विधिवत पूजा-अर्चना करें। साथ ही उनके वाहन की भी पूजा करें। साथ ही ऊँ भैरवाय नम: मंत्र से षोडशोपचारपूर्वक पूजन करना चाहिए। भैरवजी का वाहन कुत्ता है, अत: इस दिन कुत्तों को मिठाई खिलाएं। दिन में फलाहार करें।
कैसे करें कालभैरव का पूजन : - 
काल भैरवाष्टमी के दिन मंदिर जाकर भैरवजी के दर्शन करने से पूर्ण फल की प्राप्ति होती है। उनकी प्रिय वस्तुओं में काले तिल, उड़द, नींबू, नारियल, अकौआ के पुष्प, कड़वा तेल, सुगंधित धूप, पुए, मदिरा, कड़वे तेल से बने पकवान दान किए जा सकते हैं।
शुक्रवार को भैरवाष्टमी पड़ने पर इस दिन उन्हें जलेबी एवं तले पापड़ या उड़द के पकौड़े का भोग लगाने से जीवन के हर संकट दूर होकर मनुष्य का सुखमय जीवन व्यतीत होता है।
कालभैरव के पूजन-अर्चन से सभी प्रकार के अनिष्टों का निवारण होता है तथा रोग, शोक, दुखः, दरिद्रता से मुक्ति मिलती है। कालभैरव के पूजन में उनकी प्रिय वस्तुएं अर्पित कर आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है।
भैरवजी के दर्शन-पूजन से सकंट व शत्रु बाधा का निवारण होता है। दसों दिशाओं के नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति मिलती है तथा पुत्र की प्राप्ति होती है। इस दिन भैरवजी के वाहन श्वान को गुड़ खिलाने का विशेष महत्व है।
यूं तो भगवान भैरवनाथ को खुश करना बेहद आसान है लेकिन अगर वे रूठ जाएं तो मनाना बेहद मुश्किल। पेश है काल भैरव अष्टमी पर कुछ खास सरल उपाय जो निश्चित रूप से भैरव महाराज को प्रसन्न करेंगे।
रविवार, बुधवार या गुरुवार के दिन एक रोटी लें। इस रोटी पर अपनी तर्जनी और मध्यमा अंगुली से तेल में डुबोकर लाइन खींचें। यह रोटी किसी भी दो रंग वाले कुत्ते को खाने को दीजिए। अगर कुत्ता यह रोटी खा लें तो समझिए आपको भैरव नाथ का आशीर्वाद मिल गया। अगर कुत्ता रोटी सूंघ कर आगे बढ़ जाए तो इस क्रम को जारी रखें लेकिन सिर्फ हफ्ते के इन्हीं तीन दिनों में (रविवार, बुधवार या गुरुवार)। यही तीन दिन भैरव नाथ के माने गए हैं।
उड़द के पकौड़े शनिवार की रात को कड़वे तेल में बनाएं और रात भर उन्हें ढंककर रखें। सुबह जल्दी उठकर प्रात: 6 से 7 के बीच बिना किसी से कुछ बोलें घर से निकले और रास्ते में मिलने वाले पहले कुत्ते को खिलाएं। याद रखें पकौड़े डालने के बाद कुत्ते को पलट कर ना देखें। यह प्रयोग सिर्फ रविवार के लिए हैं।
शनिवार के दिन शहर के किसी भी ऐसे भैरव नाथ जी का मंदिर खोजें जिन्हें लोगों ने पूजना लगभग छोड़ दिया हो। रविवार की सुबह सिंदूर, तेल, नारियल, पुए और जलेबी लेकर पहुंच जाएं। मन लगाकर उनकी पूजन करें। बाद में 5 से लेकर 7 साल तक के बटुकों यानी लड़कों को चने-चिरौंजी का प्रसाद बांट दें। साथ लाए जलेबी, नारियल, पुए आदि भी उन्हें बांटे। याद रखिए कि अपूज्य भैरव की पूजा से भैरवनाथ विशेष प्रसन्न होते हैं।
. प्रति गुरुवार कुत्ते को गुड़ खिलाएं।
रेलवे स्टेशन पर जाकर किसी कोढ़ी, भिखारी को मदिरा की बोतल दान करें।
सवा किलो जलेबी बुधवार के दिन भैरव नाथ को चढ़ाएं और कुत्तों को खिलाएं।
शनिवार के दिन कड़वे तेल में पापड़, पकौड़े, पुए जैसे विविध पकवान तलें और रविवार को गरीब बस्ती में जाकर बांट दें।
रविवार या शुक्रवार को किसी भी भैरव मं‍दिर में गुलाब, चंदन और गुगल की खुशबूदार 33 अगरबत्ती जलाएं।
. पांच नींबू, पांच गुरुवार तक भैरव जी को चढ़ाएं।
सवा सौ ग्राम काले तिल, सवा सौ ग्राम काले उड़द, सवा 11 रुपए, सवा मीटर काले कपड़े में पोटली बनाकर भैरव नाथ के मंदिर में बुधवार के दिन चढ़ाएं।
मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी काल भैरवाष्टमी के रूप में मनाई जाती है। इस दिन भगवान महादेव ने कालभैरव के रूप में अवतार लिया था। कालभैरव भगवान महादेव का अत्यंत ही रौद्र, भयाक्रांत, वीभत्स, विकराल प्रचंड स्वरूप है। भैरवजी को काशी का कोतवाल भी माना जाता है।
तंत्राचार्यों का मानना है कि वेदों में जिस परम पुरुष का चित्रण रुद्र में हुआ, वह तंत्र शास्त्र के ग्रंथों में उस स्वरूप का वर्णन ‘भैरव’ के नाम से किया गया, जिसके भय से सूर्य एवं अग्नि तपते हैं। इंद्र-वायु और मृत्यु देवता अपने-अपने कामों में तत्पर हैं, वे परम शक्तिमान ‘भैरव’ ही हैं। भगवान शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट महत्व है।
तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं। वामकेश्वर तंत्र की योगिनीहदयदीपिका टीका में अमृतानंद नाथ कहते हैं- ‘विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात्‌ सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवो भैरवः।’
भ- से विश्व का भरण, र- से रमश, व- से वमन अर्थात सृष्टि को उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले शिव ही भैरव हैं। तंत्रालोक की विवेक-टीका में भगवान शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक बताया गया है।
श्री तंत्वनिधि नाम तंत्र-मंत्र में भैरव शब्द के तीन अक्षरों के ध्यान के उनके त्रिगुणात्मक स्वरूप को सुस्पष्ट परिचय मिलता है, क्योंकि ये तीनों शक्तियां उनके समाविष्ट हैं-
‘भ’ अक्षरवाली जो भैरव मूर्ति है वह श्यामला है, भद्रासन पर विराजमान है तथा उदय कालिक सूर्य के समान सिंदूरवर्णी उसकी कांति है। वह एक मुखी विग्रह अपने चारों हाथों में धनुष, बाण वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
‘र’ अक्षरवाली भैरव मूर्ति श्याम वर्ण हैं। उनके वस्त्र लाल हैं। सिंह पर आरूढ़ वह पंचमुखी देवी अपने आठ हाथों में खड्ग, खेट (मूसल), अंकुश, गदा, पाश, शूल, वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
‘व’ अक्षरवाली भैरवी शक्ति के आभूषण और नरवरफाटक के सामान श्वेत हैं। वह देवी समस्त लोकों का एकमात्र आश्रय है। विकसित कमल पुष्प उनका आसन है। वे चारों हाथों में क्रमशः दो कमल, वर एवं अभय धारण करती हैं।
स्कंदपुराण के काशी- खंड के 31वें अध्याय में उनके प्राकट्य की कथा है। गर्व से उन्मत ब्रह्माजी के पांचवें मस्तक को अपने बाएं हाथ के नखाग्र से काट देने पर जब भैरव ब्रह्म हत्या के भागी हो गए, तबसे भगवान शिव की प्रिय पुरी ‘काशी’ में आकर दोष मुक्त हुए।
ब्रह्मवैवत पुराण के प्रकृति खंडान्तर्गत दुर्गोपाख्यान में आठ पूज्य निर्दिष्ट हैं- महाभैरव, संहार भैरव, असितांग भैरव, रूरू भैरव, काल भैरव, क्रोध भैरव, ताम्रचूड भैरव, चंद्रचूड भैरव। लेकिन इसी पुराण के गणपति- खंड के 41वें अध्याय में अष्टभैरव के नामों में सात और आठ क्रमांक पर क्रमशः कपालभैरव तथा रूद्र भैरव का नामोल्लेख मिलता है। तंत्रसार में वर्णित आठ भैरव असितांग, रूरू, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण संहार नाम वाले हैं।
भैरव कलियुग के जागृत देवता हैं। शिव पुराण में भैरव को महादेव शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। इनकी आराधना में कठोर नियमों का विधान भी नहीं है। ऐसे परम कृपालु एवं शीघ्र फल देने वाले भैरवनाथ की शरण में जाने पर जीव का निश्चय ही उद्धार हो जाता है।
भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। भैरव की सवारी कुत्ता है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं और इनकी आराधना का खास समय भी मध्य रात्रि में 12 से 3 बजे का माना जाता है।
भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे संतान को लंबी उम्र प्रदान करते है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं।
जन्मकुंडली में अगर आप मंगल ग्रह के दोषों से परेशान हैं तो भैरव की पूजा करके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। भैरव की पूजा में काली उड़द और उड़द से बने मिष्‍ठान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगाना लाभकारी है इससे भैरव प्रसन्न होते है।
भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता काशी के कोतवाल माने जाते हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है।
खास तौर पर कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से आपको अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। भारत भर में कई परिवारों में कुलदेवता के रूप में भैरव की पूजा करने का विधान हैं। वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, ‍लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे।
भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। शनि या राहु से पीडि़त व्यक्ति अगर शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है।
एक बार भगवान शिव के क्रोधित होने पर काल भैरव की उत्पत्ति हुई। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने असमर्थता जताई। तब ब्रह्म हत्या को लेकर हुई आकाशवाणी के तहत ही भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए थे।
मध्यप्रदेश के उज्जैन में भी कालभैरव के ऐतिहासिक मंदिर है, जो बहुत महत्व का है। पुरानी धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। इसलिए उज्जैन दर्शन के समय कालभैरव के मंदिर जाना अनिवार्य है। तभी महाकाल की पूजा का लाभ आपको मिल पाता है।
जीवन में आने वाली समस्त प्रकार की बाधाओं को दूर करने के लिए भैरव आराधना का बहुत महत्व है। खास तौर भैरवाष्टमी के दिन तंत्र-मंत्रों का प्रयोग करके आप अपने व्यापार-व्यवसाय, जीवन में आने वाली कठिनाइयां, शत्रु पक्ष से आने वाली परेशानियां, विघ्न, बाधाएं, कोर्ट कचहरी आदि मुकदमे में जीत के लिए भैरव आराधना करेंगे, तो निश्चित ही आपके सारे कार्य सफल और सार्थ क हो जाएंगे।
भैरव आराधना के खास मंत्र निम्नानुसार है : -
- ‘ॐ कालभैरवाय नम:।’
- 2 ॐ भयहरणं च भैरव:।’
- ‘ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरूकुरू बटुकाय ह्रीं।’
- ‘ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नम:।’
- ‘ॐ भ्रां कालभैरवाय फट्‍।’
जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में शनि, मंगल, राहु आदि पाप ग्रह अशुभ फलदायक हों, नीचगत अथवा शत्रु क्षेत्रीय हों। शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से पीडित हों, तो वे व्यक्ति भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार, मंगलवार या बुधवार प्रारम्भ कर बटुक भैरव मूल मंत्र की एक माला (108 बार) का जाप प्रतिदिन रूद्राक्ष की माला से 40 दिन तक करें, अवश्य ही शुभ फलों की प्राप्ति होगी।
उपरोक्त मंत्र जप आपके समस्त शत्रुओं का नाश करके उन्हें भी आपके मित्र बना देंगे। आपके द्वारा सच्चे मन से की गई भैरव आराधना और मंत्र जप से आप स्वयं को जीवन में संतुष्ट और शांति का अनुभव करेंगे।


जानिये शनि अमावस्या की पूजा और दिन का महत्व

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सभी जानते हैं की मार्गशीर्ष अमावस्या का एक अन्य नाम अगहन अमावस्या भी है. इस अमावस्या का महत्व कार्तिक अमावस्या से कम नहीं है. जिस प्रकार कार्तिक मास की अमावस्या को लक्ष्मी पूजन कर दिपावली बनाई जाती है. इस दिन भी श्री लक्ष्मी का पूजन करना शुभ होता है. इसके अतिरिक्त अमावस्या होने के कारण इस दिन स्नान- दान आदि कार्य भी किये जाते है. अमावस्या के दिन पितरों के कार्य विशेष रुप से किये जाते है. तथा यह दिन पूर्वजों के पूजन का दिन होता है.

धर्म ग्रंथों के अनुसार सूर्य की द्वितीय पत्नी छाया के गर्भ से शनिदेव का जन्म हुआ। शनि के श्याम वर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया कि शनि मेरा पुत्र नहीं है, तभी से शनि अपने पिता से शत्रुभाव रखते हैं। शनिदेव ने अपनी साधना-तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्यदेव की भाँति शक्ति को प्राप्त किया और शिवजी ने शनि को वरदान माँगने के लिए कहा। तब शनिदेव ने प्रार्थना की कि युगों-युगों से मेरी माता छाया की पराजय होती रही है। मेरे पिता सूर्य द्वारा बहुत ज्यादा अपमानित व प्रताडि़त किया गया है। अतः माता की इच्छा है कि मेरा पुत्र शनि अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने। तब भगवान शंकर ने वरदान देते हुए कहा कि नवग्रहों में तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ स्थान रहेगा। मानव तो क्या देवता भी तुम्हारे नाम से भयभीत रहेंगे। आज के इस भौतिक युग में हर व्यक्ति किसी न किसी परेशानी से व्यथित रहता है। इसका मुख्य कारण ग्रह दोष होता है। ग्रह प्रतिकूल होने के कारण ऐसी परेशानियाँ आती हैं।

शनि अमावस्या के दिन श्री शनिदेव की आराधना करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होंती हैं. श्री शनिदेव भाग्यविधाता हैं, यदि निश्छल भाव से शनिदेव का नाम लिया जाये तो व्यक्ति के सभी कष्टï दूर हो जाते हैं. श्री शनिदेव तो इस चराचर जगत में कर्मफल दाता हैं जो व्यक्ति के कर्म के आधार पर उसके भाग्य का फैसला करते हैं. इस दिन शनिदेव का पूजन सफलता प्राप्त करने एवं दुष्परिणामों से छुटकारा पाने हेतु बहुत उत्तम होता है. इस दिन शनि देव का पूजन सभी मनोकामनाएं पूरी करता है.

शनिचरी अमावस्या का दिन काफी शुभ माना जाता है। इस दिन किए गए उपाय से कुंडली के दोष शांत होते हैं और परेशानियां समाप्त होती है। इस दिन किसी पवित्र नदी में स्नान करने के बाद शनि की वस्तुओं का दान करना चाहिए।ज्योतिष के अनुसार जिस व्यक्ति की कुंडली में शनि अशुभ फल देने वाला हो या जिन लोगों पर शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या चल रही हो उन सभी के लिए यह योग खास फल देने वाला है। अत: इस दिन शनि दोष को दूर करने के लिए ज्योतिषीय उपाय अवश्य करने चाहिए।

शनि मंदिरों पर शनिश्चरी अमावस्या के दिन भक्तों का जनसैलाब उमड़ेगा। जहां आने वाले भक्त शनि के प्रकोप से बचने के लिए उनकी आराधना करते नजर आऐंगे। शनिचरी अमावस्या के चलते लोगों में यह ज्यादा महत्व रखता है कि इस दिन शनिदेव की पूजा करने से भक्तों की मनोकामनाऐं पूर्ण होती है। इस के लिए भक्तों में उत्साह भी नजर आ रहा है।शनिचरी अमावस्या के दिन शनि मंदिरों पर भक्तों का तांता लगता है। जहां शनिचरी अमावस्या को शनि आराधना करने से कष्ट से मुक्ति मिलती है।

शनिश्चरी अमावस्या पर शनिदेव का विधिवत पूजन कर सभी लोग पर्याप्त लाभ उठा सकते हैं. शनि देव क्रूर नहीं अपितु कल्याणकारी हैं. इस दिन विशेष अनुष्ठान द्वारा पितृदोष और कालसर्प दोषों से मुक्ति पाई जा सकती है. इसके अलावा शनि का पूजन और तैलाभिषेक कर शनि की साढेसाती, ढैय्या और महादशा जनित संकट और आपदाओं से भी मुक्ति पाई जा सकती है...

इन प्रयोगों / उपायों से होगा लाभ----

शनि की पूर्ण दृष्टि धनु एवं कर्क राशि पर पड़ने से अशांति, बीमारी, मानसिक तनाव एवं सामाजिक परेशानियां से इस राशि वाले भी प्रभावित हो रहे हैं। शनिवार को आने वाली शनिश्चरी अमावस्या के दिन शनि दोष से प्रभावित व्यक्ति , काल सर्प दोष, पित्र  दोष, ग्रहण दोष एवं चाण्डाल दोष  से प्रभावित लोग इस अमावस्या पर पूजन एवं दान कर परेशानियों से राहत प्राप्त कर सकते हैं।

-----भगवान सूर्यदेव के पुत्र शनिदेव को खुश करने के लिए शनिचरी अमावस्या पर तिल, जौ और तेल का दान करना चाहिए, ऐसा करने पर मनोवांछित फल मिलता है।
-------जिन राशियों के लिए शनि अशुभ है, वे खासकर इस अद्भुत योग पर शनि की पूजा करें तो उन्हें शनि की कृपा प्राप्त होगी और अशुभ योगों को टाला जा सकता है। 
--- शनि को तेल से अभिषेक करना चाहिए, सुगंधित इत्र, इमरती का भोग, नीला फूल चढ़ाने के साथ मंत्र के जाप से शनि की पी़ड़ा से मुक्ति मिल सकती है।
----इस दिन शनि मं-दिर में जाकर शनि देव के श्री विग्रह पर काला तिल, काला उड़द, लोहा, काला कपड़ा, नीला कपड़ा, गुड़, नीला फूल, अकवन के फूल-पत्ते अर्पण करें.
---अमावस्या के दिन काले रंग का कुत्ता घर लें आएं और उसे घर के सदस्य की तरह पालें और उसकी सेवा करें. अगर ऐसा नहीं कर सकते तो किसी कुत्ते को तेल चुपड़ी हुई रोटी खिलाएं. कुत्ता शनिदेव का वाहन है और जो लोग कुत्ते को खाना खिलाते हैं उनसे शनि अति प्रसन्न होते हैं.
----अमावस्या की रात्रि में 8 बादाम और 8 काजल की डिब्बी काले वस्त्र में बांधकर संदूक में रखें.
-----शनि अमावस्या के दिन शनि ग्रह शांति के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए-शनि जयंती के दिन सुबह जल्दी स्नान आदि से निवृत्त होकर सबसे पहले अपने इष्टदेव, गुरु और माता-पिता का आशीर्वाद लें. सूर्य आदि नवग्रहों को नमस्कार करते हुए श्रीगणेश भगवान का पंचोपचार (स्नान, वस्त्र, चंदन, फूल, धूप-दीप) पूजन करें.



शनिचरी अमावस्या को की जाने वाली पूजा अर्चना से विशेष पुण्यदायी फल भी मिलता है जिसका परिणाम बहुत लाभकारी होता हैं..शनिदेव की पूजा करने का सबसे बड़ा अवसर शनिचरी अमावस्या होता है इसलिए ऐसे अवसर का लाभ उठाकर ईश्वरीय आराधना अवश्य करें। 

शनि अमावस्या पितृदोष से मुक्ति दिलाए-----

शनि अमावस्या, पितृकार्येषु अमावस्या के रुप में भी जानी जाती है. कालसर्प योग, ढैय्या तथा साढ़ेसाती सहित शनि संबंधी अनेक बाधाओं से मुक्ति पाने का यह दुर्लभ समय होता है जब शनिवार के दिन अमावस्या का समय हो जिस कारण इसे शनि अमावस्या कहा जाता है.

शनि अमावस्या के अवसर पर  अनेक श्रद्धालु नदियों एवं सरोवर में श्रद्धा की डुबकी लगते । अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंड दान भी करते हैं । पंडित ने बताया कि है आज के दिन ही सावित्री ने शनिदेव से अपने पति की प्राण वापस लिए थे और शनिचरी अमावस्या के दिन दान औऱ तृपण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।सनातन संस्कृति के अनुसार वंशजों का यह कर्तव्य है कि वे अपने माता-पिता और पूर्वजों के निमित्त कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें जिससे उन मृत आत्माओं को परलोक में अथवा अन्य योनियों में भी सुख की प्राप्ति हो सके। 

शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ श्राद्ध सदैव कल्याणकारी होता है परन्तु जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सकें, उन्हें कम से कम आश्विन मास में पितृगण की मरण तिथि के दिन श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए।





कौन सी ग्रह आपकी जीवन प्रभावित करता है


एक नया वर्ष एक फिर आने वाला हें..नए वर्ष के स्वागत में हम सभी अपने पुराने गम,दुःख-दर्द,तकलीफ भूलकर नयी आशा ,नयी उर्जा और नयी सोच से एक बार फिर से नए जोश के साथ इस नए साल/वर्ष का स्वागत करते हें..जीवन का एक नया अध्याय शुरू होने वाला हें..हमने पुरुषार्थ के साथ साथ कर्म प्रधान भी बनाना हें ..एक नयी प्रेरणा से इस नए वर्ष का स्वागत करना हें..दृढ संकल्प प्रत्येक मनुष्य को कर्मनिष्ठ बनाकर सफलता प्राप्ति में सहयोग प्रदान करता हें...
भारतीय संस्कृति में वैद और उनके एक अंग ज्योतिष का बहुत महत्त्व हें..ज्योतिष अर्थात ज्योति + इश अर्थात इश की ज्योति अर्थात इश के नेत्र जिनसे इश इस श्रृष्टि का संचार व नियंत्रण करते है | ये आज का अध्युनिक विज्ञानं भी मानता है के हर ग्रह की हर जीव की हर प्राणी की हर अणु की अपनी एक निश्चित नकारात्मक व सकारात्मक उर्जा होती है | अगर हम उस उर्जा का सही संतुलन अपने जीवन में बना ले तो वही ईश्वर की प्राप्ति का सच्चा साधन है | यहाँ हम चर्चा करेंगे ग्रहों के नकारात्मक प्रभाव की और उससे कैसे दूर कर के हम अपने जीवन को सफल व सुफल कर सकते है |
आइये जाने की कोनसा गृह किस राशी पर उच्च का होकर शुभ फल देता हें और किस राशी में नीच का होकर अशुभ परिणाम/फल देता हें.---
01 .--- सूर्य ग्रह मेष राशी में उच्च का होकर शुभ फल देता हें और तुला राशी में नीच का होकर अशुभ फल देता हें ...
02 .--चन्द्रमा ग्रह वृषभ राशी में उच्च का होकर शुभ फल देता हें और वृश्चिक में नीच का होकर अशुभ फल देता हें ...
03 .--मंगल ग्रह मकर में उच्च का होकर शुभ फल देता हें और कर्क में नीच का फल होकर अशुभ फल देता हें ...
04 .---बुध ग्रह कन्या में उच्च का होकर शुभ फल देता हें का और मीन में नीच का होकर अशुभ फल देता हें ...
05 ..--गुरु ग्रह कर्क में उच्च का होकर शुभ फल देता हें और मकर में नीच का होकर अशुभ फल देता हें ...
06 .---शुक्र ग्रह मीन में उच्च का होकर शुभ फल देता हें और कन्या में नीच का होकर अशुभ फल देता हें ...
07 .---शनि ग्रह तुला में उच्च का होकर शुभ फल देता हें और मेष में नीच का होकर अशुभ फल देता हें ...
08 .---राहू ग्रह मिथुन में उच्च का होकर शुभ फल देता हें और धनु में नीच का होकर अशुभ फल देता हें ...
09 .---केतु ग्रह धनु में उच्च का होकर शुभ फल देता हें और मिथुन में नीच का होकर अशुभ फल देता हें ...
---ध्यान रखें..सिंह एवं कुंभ राशी में कोई भी ग्रह उच्च या नीच का नहीं होता हें..
--- मनुष्य/मानव के शरीर में ग्रहों का अपना एक मुख्य स्थान हें ---जेसे---सूर्य को शरीर कहा गया हें...चन्द्रमा को मन कहा गया हें..मंगल को सत्व , बुध को वाणी-विवेक, गुरु को ज्ञान और सुख ,शुक्र को काम और वीर्य, शनि को दुःख,कष्ट और परिवर्तन तथा राहू और केतु को रोग एवं चिंता का करक/अधिष्ठाता माना जाता हें...ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार संक्षिप्त में जानिए ग्रह दोष से उत्पन्न रोग और उसके निवारण तथा किस ग्रह के क्या नकारात्मक प्रभाव है और साथ ही उक्त ग्रहदोष से मुक्ति हेतु अचूक उपाय ----
--सूर्य गृह :--- सूर्य पिता, आत्मा समाज में मान, सम्मान, यश, कीर्ति, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा का करक होता है | इसकी राशि है सिंह | कुंडली में सूर्य के अशुभ होने पर पेट, आँख, हृदय का रोग हो सकता है साथ ही सरकारी कार्य में बाधा उत्पन्न होती है। इसके लक्षण यह है कि मुँह में बार-बार बलगम इकट्ठा हो जाता है, सामाजिक हानि, अपयश, मनं का दुखी या असंतुस्ट होना, पिता से विवाद या वैचारिक मतभेद सूर्य के पीड़ित होने के सूचक है |
---ये करें उपाय--- ऐसे में भगवान राम की आराधना करे | आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करे, सूर्य को आर्घ्य दे, गायत्री मंत्र का जाप करे | ताँबा, गेहूँ एवं गुड का दान करें। प्रत्येक कार्य का प्रारंभ मीठा खाकर करें। ताबें के एक टुकड़े को काटकर उसके दो भाग करें। एक को पानी में बहा दें तथा दूसरे को जीवन भर साथ रखें। ॐ रं रवये नमः या ॐ घृणी सूर्याय नमः १०८ बार (१ माला) जाप करे|
----चंद्र गृह :--- चन्द्रमा माँ का सूचक है और मनं का करक है |शास्त्र कहता है की "चंद्रमा मनसो जात:" | इसकी कर्क राशि है | कुंडली में चंद्र अशुभ होने पर। माता को किसी भी प्रकार का कष्ट या स्वास्थ्य को खतरा होता है, दूध देने वाले पशु की मृत्यु हो जाती है। स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है। घर में पानी की कमी आ जाती है या नलकूप, कुएँ आदि सूख जाते हैं मानसिक तनाव,मन में घबराहट,तरह तरह की शंका मनं में आती है औरमनं में अनिश्चित भय व शंका रहती है और सर्दी बनी रहती है। व्यक्ति के मन में आत्महत्या करने के विचार बार-बार आते रहते हैं।
ये करें उपाय---- सोमवार का व्रत करना, माता की सेवा करना, शिव की आराधना करना, मोती धारण करना, दो मोती या दो चाँदी का टुकड़ा लेकर एक टुकड़ा पानी में बहा दें तथा दूसरे को अपने पास रखें। कुंडली के छठवें भाव में चंद्र हो तो दूध या पानी का दान करना मना है। यदि चंद्र बारहवाँ हो तो धर्मात्मा या साधु को भोजन न कराएँ और ना ही दूध पिलाएँ। सोमवार को सफ़ेद वास्तु जैसे दही,चीनी, चावल,सफ़ेद वस्त्र, १ जोड़ा जनेऊ,दक्षिणा के साथ दान करना और ॐ सोम सोमाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है |
---- मंगल गृह---- मंगल सेना पति होता है,भाई का भी द्योतक और रक्त का भी करक माना गया है | इसकी मेष और वृश्चिक राशि है |कुंडली में मंगल के अशुभ होने पर भाई, पटीदारो से विवाद, रक्त सम्बन्धी समस्या, नेत्र रोग, उच्च रक्तचाप, क्रोधित होना, उत्तेजित होना, वात रोग और गठिया हो जाता है। रक्त की कमी या खराबी वाला रोग हो जाता। व्यक्ति क्रोधी स्वभाव का हो जाता है। मान्यता यह भी है कि बच्चे जन्म होकर मर जाते हैं।
----ये करें उपाय----: ताँबा, गेहूँ एवं गुड,लाल कपडा,माचिस का दान करें। तंदूर की मीठी रोटी दान करें। बहते पानी में रेवड़ी व बताशा बहाएँ, मसूर की दाल दान में दें। हनुमद आराधना करना,हनुमान जी को चोला अर्पित करना,हनुमान मंदिर में ध्वजा दान करना, बंदरो को चने खिलाना,हनुमान चालीसा,बजरंग बाण,हनुमानाष्टक,सुंदरकांड का पाठ और ॐ अं अंगारकाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है |
----बुध गृह ---- बुध व्यापार व स्वास्थ्य का करक माना गया है | यह मिथुन और कन्या राशि का स्वामी है | बुध वाक् कला का भी द्योतक है | विद्या और बुद्धि का सूचक है | कुंडली में बुध की अशुभता पर दाँत कमजोर हो जाते हैं। सूँघने की शक्ति कम हो जाती है। गुप्त रोग हो सकता है। व्यक्ति वाक् क्षमता भी जाती रहती है। नौकरी और व्यवसाय में धोखा और नुक्सान हो सकता है।
----ये करें उपाय----भगवान गणेश व माँ दुर्गा की आराधना करे | गौ सेवा करे | काले कुत्ते को इमरती देना लाभकारी होता है | नाक छिदवाएँ। ताबें के प्लेट में छेद करके बहते पानी में बहाएँ। अपने भोजन में से एक हिस्सा गाय को, एक हिस्सा कुत्तों को और एक हिस्सा कौवे को दें, या अपने हाथ से गाय को हरा चारा, हरा साग खिलाये। उड़दकी दाल का सेवन करे व दान करे | बालिकाओं को भोजन कराएँ। किन्नेरो को हरी साडी, सुहाग सामग्री दान देना भी बहुत चमत्कारी है | ॐ बुं बुद्धाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है आथवा गणेशअथर्वशीर्ष का पाठ करे | पन्ना धारण करे या हरे वस्त्र धारण करे यदि संभव न हो तो हरा रुमाल साथ रक्खे |
-----गुरु गृह ----वृहस्पति की भी दो राशि है धनु और मीन | कुंडली में गुरु के अशुभ प्रभाव में आने पर सिर के बाल झड़ने लगते हैं। परिवार में बिना बात तनाव, कलह - क्लेश का माहोल होता है | सोना खो जाता या चोरी हो जाता है। आर्थिक नुक्सान या धन का अचानक व्यय,खर्च सम्हलता नहीं, शिक्षा में बाधा आती है। अपयश झेलना पड़ता है। वाणी पर सयम नहीं रहता |
----ये करें उपाय----ब्रह्मण का यथोचित सामान करे | माथे या नाभी पर केसर का तिलक लगाएँ। कलाई में पीला रेशमी धागा बांधे | संभव हो तो पुखराज धारण करे अन्यथा पीले वस्त्र या हल्दी की कड़ी गांड साथ रक्खे | कोई भी अच्छा कार्य करने के पूर्व अपना नाक साफ करें। दान में हल्दी, दाल, पीतल का पत्र, कोई धार्मिक पुस्तक, १ जोड़ा जनेऊ, पीले वस्त्र, केला, केसर,पीले मिस्ठान, दक्षिणा आदि देवें। विष्णु आराधना करे | ॐ व्री वृहस्पतये नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है |
----शुक्र गृह :----- शुक्र भी दो राशिओं का स्वामी है, वृषभ और तुला | शुक्र तरुण है, किशोरावस्था का सूचक है, मौज मस्ती,घूमना फिरना,दोस्त मित्र इसके प्रमुख लक्षण है | कुंडली में शुक्र के अशुभ प्रभाव में होने पर मनं में चंचलता रहती है, एकाग्रता नहीं हो पाती | खान पान में अरुचि, भोग विलास में रूचि और धन का नाश होता है | अँगूठे का रोग हो जाता है। अँगूठे में दर्द बना रहता है। चलते समय अगूँठे को चोट पहुँच सकती है। चर्म रोग हो जाता है। स्वप्न दोष की श‍िकायत रहती है।
---ये करें उपाय --- माँ लक्ष्मी की सेवा आराधना करे | श्री सूक्त का पाठ करे | खोये के मिस्ठान व मिश्री का भोग लगाये | ब्रह्मण ब्रह्मणि की सेवा करे | स्वयं के भोजन में से गाय को प्रतिदिन कुछ हिस्सा अवश्य दें। कन्या भोजन कराये | ज्वार दान करें। गरीब बच्चो व विद्यार्थिओं में अध्यन सामग्री का वितरण करे | नि:सहाय, निराश्रय के पालन-पोषण का जिम्मा ले सकते हैं। अन्न का दान करे | ॐ सुं शुक्राय नमः का 108 बार नित्य जाप करना भी लाभकारी सिद्ध होता है |
----शनि गृह :---- शनि की गति धीमी है | इसके दूषित होने पर अच्छे से अच्छे काम में गतिहीनता आ जाती है | कुंडली में शनि के अशुभ प्रभाव में होने पर मकान या मकान का हिस्सा गिर जाता या क्षतिग्रस्त हो जाता है। अंगों के बाल झड़ जाते हैं। शनिदेव की भी दो राशिया है, मकर और कुम्भ | शारीर में विशेषकर निचले हिस्से में ( कमर से नीचे ) हड्डी या स्नायुतंत्र से सम्बंधित रोग लग जाते है | वाहन से हानि या क्षति होती है | काले धन या संपत्ति का नाश हो जाता है। अचानक आग लग सकती है या दुर्घटना हो सकती है।
ये करें उपाय---
----- हनुमान आराधना करना, हनुमान जी को चोला अर्पित करना, हनुमान मंदिर में ध्वजा दान करना, बंदरो को चने खिलाना, हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, सुंदरकांड का पाठ और ॐ हन हनुमते नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है | नाव की कील या काले घोड़े की नाल धारण करे | यदि कुंडली में शनि लग्न में हो तो भिखारी को ताँबे का सिक्का या बर्तन कभी न दें यदि देंगे तो पुत्र को कष्ट होगा। यदि शनि आयु भाव में स्थित हो तो धर्मशाला आदि न बनवाएँ।कौवे को प्रतिदिन रोटी खिलाएँ। तेल में अपना मुख देख वह तेल दान कर दें (छाया दान करे ) । लोहा, काली उड़द, कोयला, तिल, जौ, काले वस्त्र, चमड़ा, काला सरसों आदि दान दें।
----राहु ------- मानसिक तनाव, आर्थिक नुक्सान,स्वयं को ले कर ग़लतफहमी,आपसी तालमेल में कमी, बात बात पर आपा खोना, वाणी का कठोर होना व आप्शब्द बोलना, व कुंडली में राहु के अशुभ होने पर हाथ के नाखून अपने आप टूटने लगते हैं। राजक्ष्यमा रोग के लक्षण प्रगट होते हैं। वाहन दुर्घटना,उदर कस्ट, मस्तिस्क में पीड़ा आथवा दर्द रहना, भोजन में बाल दिखना, अपयश की प्राप्ति, सम्बन्ध ख़राब होना, दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता है, शत्रुओं से मुश्किलें बढ़ने की संभावना रहती है। जल स्थान में कोई न कोई समस्या आना आदि | ---ये करें उपाय --- ---गोमेद धारण करे | दुर्गा, शिव व हनुमान की आराधना करे | तिल, जौ किसी हनुमान मंदिर में या किसी यज्ञ स्थान पर दान करे | जौ या अनाज को दूध में धोकर बहते पानी में बहाएँ, कोयले को पानी में बहाएँ, मूली दान में देवें, भंगी को शराब, माँस दान में दें। सिर में चोटी बाँधकर रखें। सोते समय सर के पास किसी पत्र में जल भर कर रक्खे और सुबह किसी पेड़ में दाल दे,यह प्रयोग 43 दिन करे | इसके साथ हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, हनुमान बाहुक, सुंदरकांड का पाठ और ॐ रं राहवे नमः का 108 बार नित्य जाप करना लाभकारी होता है |
---- केतु ----- कुंडली में केतु के अशुभ प्रभाव में होने पर चर्म रोग, मानसिक तनाव, आर्थिक नुक्सान,स्वयं को ले कर ग़लतफहमी, आपसी तालमेल में कमी, बात बात पर आपा खोना, वाणी का कठोर होना व आप्शब्द बोलना, जोड़ों का रोग या मूत्र एवं किडनी संबंधी रोग हो जाता है। संतान को पीड़ा होती है। वाहन दुर्घटना,उदर कस्ट, मस्तिस्क में पीड़ा आथवा दर्द रहना, अपयश की प्राप्ति, सम्बन्ध ख़राब होना, दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता है, शत्रुओं से मुश्किलें बढ़ने की संभावना रहती है।
- ---ये करें उपाय --- दुर्गा, शिव व हनुमान की आराधना करे | तिल, जौ किसी हनुमान मंदिर में या किसी यज्ञ स्थान पर दान करे | कान छिदवाएँ। सोते समय सर के पास किसी पत्र में जल भर कर रक्खे और सुबह किसी पेड़ में दाल दे,यह प्रयोग 43 दिन करे | इसके साथ हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, हनुमान बाहुक, सुंदरकांड का पाठ और ॐ कें केतवे नमः का १०८ बार नित्य जाप करना लाभकारी होता है | अपने खाने में से कुत्ते,कौव्वे को हिस्सा दें। तिल व कपिला गाय दान में दें। पक्षिओं को बाजरा दे | चिटिओं के लिए भोजन की व्यस्था करना अति महत्व्यपूर्ण है |
------कभी भी किसी भी उपाय को 43 दिन करना चहिये तब ही फल प्राप्ति संभव होती है। मंत्रो के जाप के लिए रुद्राक्ष की माला सबसे उचित मानी गई है | इन उपायों का गोचरवश प्रयोग करके कुण्डली में अशुभ प्रभाव में स्थित ग्रहों को शुभ प्रभाव में लाया जा सकता है। सम्बंधित ग्रह के देवता की आराधना और उनके जाप, दान उनकी होरा, उनके नक्षत्र में अत्यधिक लाभप्रद होते है |

ये हें ग्रह दोष निवारण के सरल/आसन उपाय----
- घर की पूर्व दिशा में लगे हुए किसी भी वट वृक्ष की जड़ को शुभ मुहूर्त में निकालकर पास रखने से राहु ग्रह की पीड़ा शांत होती है.
- यदि राहु ग्रह के अशुभ प्रभाव को दूर करना हो तो जल में २ वट पत्र को डालकर उस जल से स्नान करना चाहिए. यह राहु के दुष्प्रभाव को मिटाने का सरल और प्रभावी तरीका है.
- चतुर्दशी के दिन वट वृक्ष की जड़ में दूध चढ़ाने से देव बाधा दूर होती है.
- गिरी के गोले में छेद करके उसमें मेवा और शक्कर भर दें तथा उसे जमीन में दबा दें. इससे केतु ग्रह का प्रभाव शांत होता है.
- महालक्ष्मी पूजन के समय सीताफल को शामिल करने से दरिद्रता योग का नाश होता है. दीपावली पर इसे पूजन में रखना शुभ होता है.
- चन्द्र ग्रह की पीड़ा शांत करने हेतु चमेली के पुष्प से चन्द्र पूजन करना चाहिए.
- शिवजी को नित्य चमेली का फूल अर्पित करने से भूत बाधा दूर होती है.
- जिस व्यक्ति को नजर लगी हो तो उसके ऊपर लोहे की कील ११ बार उतारकर गूलर वृक्ष के तने में ठोंक दें नजर उतर जाती है. दुकान,व्यापार की नजर उतारने के लिए भी यह प्रयोग किया जा सकता है.
- किसी भी प्रकार के प्रमेह को दूर करने के लिए गूलर की लकड़ी का शहद और गन्ने के रस के साथ हवन करना चाहिए. इससे डायबिटीज़ का शमन होता है.
- मेष राशि के सूर्य के समय एक मसूर तथा दो नीम की पत्तियों को खाने से एक साल तक सर्प भय नहीं रहता.
- अनिंद्रा की स्थिति में मेहँदी के फूल सिरहाने रखने चाहिए. नींद आती है.
- बिल्ब, देवदारु और प्रियंगु की जड़ों को एक साथ कूटकर चूर्ण बना लें. इस चूर्ण की धूनी देने से भूत प्रेत भाग जाते हैं.
- भविष्य पुराण के अनुसार जो व्यक्ति पलाश का पुष्प शिवजी पर अर्पित करता है उसे भूत बाधा और पितर दोष नहीं सताते हैं.
- व्याधियों के शमन के लिए पलाश के पत्तों की पत्तल में कुछ दिन निरंतर भोजन करना चाहिए.
- सत्यानाशी की जड़ पास रखने से राहु पीड़ा शांत होती है.
- भरणी नक्षत्र में निकाली गई ग्वारपाठे की जड़ को अपने पास रखने से अस्त्र शस्त्र का भय नहीं रहता.
- हरसिंगार के पुष्प प्रत्येक पूर्णिमा को बाबड़ी में डालने से चन्द्र पीड़ा दूर होती है.
- नवमी तिथि के दिन आंवले के वृक्ष का पूजन करने से सौभाग्य में वृद्वि होती है. वैधव्य का नाश होता है.
- तीन गुलाब, तीन बेला के पुष्प पानी की कुईया /बाबड़ी में डालने से रुका हुआ कार्य बनता है.