Sunday, 20 December 2015

दशहरा पर्व की उत्पत्ति

दशहरा उत्सव की उत्पत्ति के विषय में कई कल्पनायें की गयी हैं। भारत के कतिपय भागों में नये अन्नों की हवि देने, द्वार पर धान की हरी एवं अनपकी बालियों को टाँगने तथा गेहूँ आदि को कानों, मस्तक या पगड़ी पर रखने के कृत्य होते हैं। अत: कुछ लोगों का मत है कि यह कृषि का उत्सव है। कुछ लोगों के मत से यह रणयात्रा का द्योतक है, क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है, नदियों की बाढ़ थम जाती है, धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। सम्भवत: यह उत्सव इसी दूसरे मत से सम्बंधित है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतु निश्चित थी। शमी पूजा भी प्राचीन है। वैदिक यज्ञों के लिए शमी वृक्ष में उगे अश्वत्थ (पीपल) की दो टहनियों (अरणियों) से अग्नि उत्पन्न की जाती थी। अग्नि शक्ति एवं साहस की द्योतक है, शमी की लकड़ी के कुंदे अग्नि उत्पत्ति में सहायक होते हैं। जहाँ अग्नि एवं शमी की पवित्रता एवं उपयोगिता की ओर मंत्रसिक्त संकेत हैं। इस उत्सव का सम्बंध नवरात्र से भी है क्योंकि इसमें महिषासुर के विरोध में देवी के साहसपूर्ण कृत्यों का भी उल्लेख होता है और नवरात्र के उपरांत ही यह उत्सव होता है।
शास्त्रों के अनुसार:
आश्विन शुक्ल दशमी को विजयदशमी का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसका विशद वर्णन हेमाद्रि, सिंधुनिर्णय, पुरुषार्थचिंतामणि, व्रतराज, कालतत्त्वविवेचन, धर्मसिंधु आदि में किया गया है।
* कालनिर्णय के मत से शुक्ल पक्ष की जो तिथि सूर्योदय के समय उपस्थित रहती है, उसे कृत्यों के सम्पादन के लिए उचित समझना चाहिए और यही बात कृष्ण पक्ष की उन तिथियों के विषय में भी पायी जाती है जो सूर्यास्त के समय उपस्थित रहती हैं।
1. वह तिथि, जिसमें श्रवण नक्षत्र पाया जाए, स्वीकार्य है।
2. वह दशमी, जो नवमी से युक्त हो।
किंतु अन्य निबंधों में तिथि सम्बंधी बहुत से जटिल विवेचन उपस्थित किये हैं। यदि दशमी नवमी तथा एकादशी से संयुक्त हो तो नवमी स्वीकार्य है, यदि इस पर श्रवण नक्षत्र ना हो।
* स्कंद पुराण में आया है- जब दशमी नवमी से संयुक्त हो तो अपराजिता देवी की पूजा दशमी को उत्तर पूर्व दिशा में अपराह्न में होनी चाहिए। उस दिन कल्याण एवं विजय के लिए अपराजिता पूजा होनी चाहिए।
* यह द्रष्टव्य है कि विजयादशमी का उचित काल है, अपराह्न, प्रदोष केवल गौण काल है। यदि दशमी दो दिन तक चली गयी हो तो प्रथम (नवमी से युक्त) अवीकृत होनी चाहिए। यदि दशमी प्रदोष काल में (किंतु अपराह्न में नहींं) दो दिन तक विस्तृत हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी स्वीकृत होती है। जन्माष्टमी में जिस प्रकार रोहिणी मान्य नहींं है, उसी प्रकार यहाँ श्रवण निर्णीत नहींं है। यदि दोनों दिन अपराह्न में दशमी न अवस्थित हो तो नवमी से संयुक्त दशमी मान ली जाती है, किंतु ऐसी दशा में जब दूसरे दिन श्रवण नक्षत्र हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी मान्य होती है। ये निर्णय, निर्णय सिंधु के हैं। अन्य विवरण और मतभेद भी शास्त्रों में मिलते हैं।
शुभ तिथि:
विजयादशमी वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं - चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की दशमी और कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा। इसीलिए भारतवर्ष में बच्चे इस दिन अक्षरारम्भ करते हैं, इसी दिन लोग नया कार्य आरम्भ करते हैं, भले ही चंद्र आदि ज्योतिष के अनुसार ठीक से व्यवस्थित ना हों, इसी दिन श्रवण नक्षत्र में राजा शत्रु पर आक्रमण करते हैं, और विजय और शांति के लिए इसे शुभ मानते हैं।
प्रमुख कृत्य:
इस शुभ दिन के प्रमुख कृत्य हैं- अपराजिता पूजन, शमी पूजन, सीमोल्लंघन (अपने राज्य या ग्राम की सीमा को लाँघना), घर को पुन: लौट आना एवं घर की नारियों द्वारा अपने समक्ष दीप घुमवाना, नये वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण करना, राजाओं के द्वारा घोड़ों, हाथियों एवं सैनिकों का नीराजन तथा परिक्रमणा करना। दशहरा या विजयादशमी सभी जातियों के लोगों के लिए महत्वपूर्ण दिन है, किंतु राजाओं, सामंतों एवं क्षत्रियों के लिए यह विशेष रूप से शुभ दिन है।
धर्मसिंधु में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है, अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए, संकल्प करना चहिए - ‘‘मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्डय़र्थमपराजितापूजनं करिष्ये। इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और साथ ही क्रियाशक्ति को नमस्कार एवं उमा को नमस्कार कहना चाहिए। इसके उपरांत ‘‘अपराजितायै नम:, जयायै नम:, विजयायै नम:’’ मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16उपचारों के साथ करनी चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए। ‘‘हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को जा सकती हैं। राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है। राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए - ‘‘वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छा रखती है, मुझे विजय दे।’’ इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करना चाहिए। तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए। शमी की पूजा के पूर्व या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए। कुछ लोगों के मत से विजयादशमी के अवसर पर राम और सीता की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उसी दिन राम ने लंका पर विजय प्राप्त की थी। राजा के द्वारा की जाने वाली पूजा का विस्तार से वर्णन ‘हेमाद्रि’ एवं ‘तिथितत्व’ में वर्णित है। निर्णय सिंधु एवं धर्मसिंधु में शमी पूजन के कुछ विस्तार मिलते हैं। यदि शमी वृक्ष ना हो तो अश्मंतक वृक्ष की पूजा की जानी चाहिए।
पौराणिक मान्यताएँ:
इस अवसर पर कहीं कहीं भैंसे या बकरे की बलि दी जाती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व देशी राज्यों में, यथा बड़ोदा, मैसूर आदि रियासतों में विजयादशमी के अवसर पर दरबार लगते थे और हौदों से युक्त हाथी दौड़ते तथा उछलकूद करते हुए घोड़ों की सवारियाँ राजधानी की सडक़ों पर निकलती थीं और जुलूस निकाला जाता था।
* कालिदास ने वर्णन किया है कि जब शरद ऋतु का आगमन होता था तो रघु वाजिनीराजना नामक शांति कृत्य करते थे।
* वराह ने वृहत्संहिता में अश्वों, हाथियों एवं मानवों के शुद्धियुक्त कृत्य का वर्णन विस्तार से किया है।
* निर्णयसिंधु ने सेना के नीराजन के समय मंत्रों का उल्लेख यूँ किया है जिसका मतलब है ‘‘हे सब पर शासन करने वाली देवी, मेरी वह सेना, जो चार भागों (हस्ती, रथ, अश्व एवं पदाति) में विभाजित है, शत्रुविहीन हो जाए और आपके अनुग्रह से मुझे सभी स्थानों पर विजय प्राप्त हो।’’
* तिथितत्व में ऐसी व्यवस्था है कि राजा को अपनी सेना को शक्ति प्रदान करने के लिए नीराजन करके जल या गोशाला के समीप खंजन को देखना चाहिए और उसे निम्न मन्त्र से सम्बोधित करना चाहिए, ‘‘खंजन पक्षी, तुम इस पृथ्वी पर आये हो, तुम्हारा गला काला एवं शुभ है, तुम सभी इच्छाओं को देने वाले हो, तुम्हें नमस्कार है।’’
* तिथितत्व ने खंजन के देखे जाने आदि के बारे में प्रकाश डाला है।
* वृहत्संहिता ने खंजन के दिखाई पडऩे तथा किस दिशा में कब उसका दर्शन हुआ आदि के विषय में घटित होने वाली घटनाओं का उल्लेख किया है।
* मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति ने खंजन को उन पक्षियों में परिगणित किया है जिन्हें नहींं खाना चाहिए।
विजयादशमी के दस सूत्र:
1. दस इन्द्रियों पर विजय का पर्व है।
2. असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है।
3. बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय का पर्व है।
4. अन्याय पर न्याय की विजय का पर्व है।
5. दुराचार पर सदाचार की विजय का पर्व है।
6. तमोगुण पर दैवीगुण की विजय का पर्व है।
7. दुष्कर्मों पर सत्कर्मों की विजय का पर्व है।
8. भोग पर योग की विजय का पर्व है।
9. असुरत्व पर देवत्व की विजय का पर्व है।
10. जीवत्व पर शिवत्व की विजय का पर्व है।
वनस्पति पूजन:
विजयदशमी पर दो विशेष प्रकार की वनस्पतियों के पूजन का महत्व है। एक है शमी वृक्ष, जिसका पूजन रावण दहन के बाद करके इसकी पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को ससम्मान प्रदान किया जाता है। इस परंपरा में विजय उल्लास पर्व की कामना के साथ समृद्धि की कामना करते हैं। दूसरा है अपराजिता (विष्णु-क्रांता)। यह पौधा अपने नाम के अनुरूप ही है। यह विष्णु को प्रिय है और प्रत्येक परिस्थिति में सहायक बनकर विजय प्रदान करने वाला है। नीले रंग के पुष्प का यह पौधा भारत में सुलभता से उपलब्ध है। घरों में समृद्धि के लिए तुलसी की भाँति इसकी नियमित सेवा की जाती है।

जाने बंगाल की दुर्गा पूजा के बारे में

दुर्गा पूजा का पर्व भारतीय सांस्कृतिक पर्वों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। लगभग दशहरा, दीवाली और होली की तरह इसमें उत्सव धार्मिकता का पुट आज सबसे ज़्यादा है। बंगाल के बारे में कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, कल पूरा देश उसे स्वीकार करता है। बंगाल के नवजागरण को इसी परिप्रेक्ष्य में इतिहासकार देखते हैं। यानि उन्नीसवीं शताब्दी की भारतीय आधुनिकता के बारे में भी यही बात कही जाती है कि बंगाल से ही आधुनिकता की पहली लहर का उन्मेष हुआ। स्वतंत्रता का मूल्य बंगाल से ही विकसित हुआ। सामाजिक सुधार, स्वराज्य आंदोलन, भारतीय समाज और साहित्य में आधुनिकता और प्रगतिशील मूल्य बंगाल से ही विकसित हुए और कालांतर में पूरे देश में इसका प्रचार-प्रसार हुआ।
नवजागरण का प्रयोग दुर्गा पूजा:
संयोग से दुर्गा पूजा पर्व की ऐतिहासिकता बंगाल से ही जुड़ी है। आज पूरा देश इसे धूमधाम से मनाता है। दुर्गा पूजा की परंपरा का सूत्रपात यदि बंगाल से हुआ है तो इसका बंगाल के नवजागरण से क्या रिश्ता है? क्योंकि नवजागरण तो आधुनिक आंदोलन की चेतना है, जबकि दुर्गा पूजा ठीक उलट परंपरा का हिस्सा है। पर ग़ौर करने की बात है कि बंगाल दुर्गा पूजा को परंपरा की चीज़ मानकर उसे पिछड़ा या आधुनिकता का निषेध नहींं मानता है। बल्कि दुर्गा पूजा की लोकप्रियता को देखकर आज लगता है, यह भी बंगाल के नवजागरण का एक बहुमूल्य हिस्सा है। बंगाल के आधुनिक जीवन में दुर्गा पूजा की परंपरा का चलन दरअसल आधुनिकता में परंपरा का एक बेहतर प्रयोग है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए को परंपरा में प्रयोग की आधुनिकता है।
बंगाल में आज जो दुर्गा पूजा है वह अपने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ‘‘शक्ति पूजा’’ नाम से प्रचलित है, जैसे महाराष्ट्र के नवजागरण में लोकमान्य तिलक द्वारा प्रतिष्ठित गणेशोत्सव का पर्व और बीसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा चित्रकूट में रामायण मेला की स्थापना। देखा जाए तो तिलक और लोहिया भारतीय स्वराज्य और समाज के प्रखर प्रहरी थे। भारतीय आधुनिकता के विकास के ये दोनों प्रखर प्रवक्ता थे, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर ये दोनों कहीं गहरे स्तर पर पारंपारिक भी थे। तिलक द्वारा प्रतिष्ठापित ‘गणेशोत्सव’ और उत्तर भारत में लोहिया द्वारा ‘रामायण मेला’ का शुभारंभ परंपरा में आधुनिकता की खोज के दुर्लभ उदाहरण हैं।
दुर्गा पूजा बंगाल में आज भी शक्ति पूजा के रूप में प्रचलित है। अगर उसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करें तो आपको कई दिलचस्प परिणाम दिखाई पड़ेंगे। पहला परिणाम तो यह निकलता है कि बंगाल की सांस्कृतिक जड़ें अत्यंत गहरी और अपनी आस्थाओं के प्रति बेहद सचेत भी हैं। बंगाल एक छोर पर बेहद आधुनिक है तो दूसरे छोर पर अत्यंत पारंपारिक, अपनी सांस्कृतिक चेतना की विरासत के प्रति सचेत है। बंगाल में शक्ति पूजा का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। शक्ति पूजा की प्रतीक देवी अपने चमचमाते खड्गशस्त्र से महिषासुर का संहार कर महिषासुरमर्दिनी कहलाई। त्रिमंग देवी दुर्गा शक्ति की अधिष्ठाती है। उनके साथ पद्महस्ता लक्ष्मी, वाणी पाणि सरस्वती, मूषक वाहन गणेश और मयूर वाहक कार्तिकेय विराजमान हैं।
ये जितनी मूर्तियाँ हैं, सब हमारे जीवन में सामाजिक न्याय की प्रतीक हैं। महिषासुर यदि अन्याय, अत्याचार और पापाचार का प्रतीक है तो दुर्गा शक्ति, न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की प्रतीक है। उसकी आँखों में सिर्फकरुणा और दया के आँसू ही नहींं बहते, बल्कि क्रोध के स्फुलिंग भी छिटकते हैं। यह आकस्मिक नहींं है कि सन 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अचूक राजनीतिक बुद्धिमत्ता को देखकर अटल बिहारी वायपेयी ने उन्हें दूसरी दुर्गा कहा था। यह ‘दुर्गा’ कोई सांस्कृतिक मिथ नहींं, बल्कि हर औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का एक धधकता लावा है। भारतीय स्त्री की छवि में एक ओर देवदासी का असहाय चेहरा कौंधता है तो दूसरी तरफ़ उसकी आँखों में दुर्गा का शक्तिशाली तेवर भी चमकता है। दुर्गा जैसी महास्त्री जिसे हमारे लोक जीवन और सांस्कृतिक जीवन में ‘देवी’ कहा जाता है, दरअसल अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक हस्तक्षेप का प्रतीक है। दुर्गा के सान्निध्य में आसन ग्रहण करती हुई देवियाँ लक्ष्मी, सरस्वती, धन और विद्या की प्रतीक हैं। गणेश हमेशा से विघ्न का विनाश करनेवाले एक शुभ देवता हैं, जबकि कार्तिकेय जीवन में विनय और सृजन के प्रतीक हैं। इनकी उपस्थिति से ही सामाजिक सृजन संभव है।
स्त्री के स्वाभिमान की पूजा:
दुर्गा पूजा सिर्फ़ मिथ की पूजा नहींं, बल्कि स्त्री की ताकत, सामर्थ्य और उसके स्वाभिमान की एक सार्वजनिक ‘पूजा’ है। आज दुर्गा पूजा के निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है। नारी आज भी शक्ति है और जो उसपर अत्याचार करेगा उसका विनाश निश्चित है।
मूर्ति निर्माण का परंपरा:
दुर्गा पूजा के इतिहास पर ग़ौर करें। बंगाल में दुर्गा पूजा कब से शुरू हुई, इस पर इतिहास के विद्वानों के अनेक मत हैं, फिर भी इस तथ्य से लोकमानस और विद्वान एक मत हैं कि सन 1790 में पहली बार कलकत्ता के पास हुगली के बारह ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरुआत की। इतिहासकारों का मानना है कि बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की शुरुआत ग्यारहवीं शताब्दी में शुरू हुई थी। आज बंगाल सहित पूरे देश में सांस्कृतिक वैभव के इस पर्व को जनजीवन में प्रतिष्ठान करने का श्रेय सन 1583 ई. में ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता है। कहा जाता है कि वह दुर्गा पूजा के इतिहास की पहली विशाल पूजा थी।
पहले की दुर्गा पूजा में सिर्फ मूर्ति के रूप में दुर्गा महिषासुर का वध करती नहींं दीखती थी, बल्कि पूजा की आखिरी पेशकश पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया जाता था लेकिन बाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। आज हमारे लोक जीवन में दुर्गा की पूजा करने में लोगों का यकीन उतना नहींं रह गया है, जितना उसकी झाँकी देखने में है। दुर्गा की प्रतिमाएँ कलात्मक प्रतिमान हैं, स्त्री सौंदर्य का प्रदर्शन नहींं है।
दुर्गा पूजा मनाने का सही मतलब तो यही है कि समाज में स्त्री को लेकर किसी तरह के दिखावे, छलावे और शोषण के लिए लोक मानस में स्थान नहींं होना चाहिए।
‘‘दुर्गा-पूजा’’ पर्व हमारे सामने हर साल एक नई चुनौती के रूप में आता है। प्रश्न उससे प्रेरणा लेने का है। मात्र पूजा की झाँकी देखने का नहींं।
नवरात्री पूरे देश के लिए आनंद मनाने का समय होता है और यह भारत के सबसे बड़े त्योहारों में से एक है। माँ दुर्गा के आह्वान् करने का यह समय होता है। नौ दिनों का यह उत्सव दशहरा या विजयादशमी के साथ खत्म होता है और इसको बहुत पवित्र और मंगलदायी माना जाता है, इसलिए लोग बहुत ही श्रद्धास्वरूप इसको मनाते है। यह आश्विन महीने के अमवस्या के दूसरे दिन से नवें दिन तक चलता है। यह अंग्रेजी महीने के सितम्बर/ अक्टूबर महीने में पड़ता है।
इस पूरे नौ दिनों तक भक्तगण मंत्रों का उच्चारण करते हैं, गाना या भजन गाते हैं ताकि देवी उनके भक्ति से प्रसन्न हो। नवरात्री के समय उपवास रखना पवित्र माना जाता है। इस त्योहार को मनाने के समय, इन नौ दिनों तक बहुत सारी पूजा की जाती है। यह त्योहार भी अन्य हिन्दु त्योहारों की तरह बुराई के ऊपर अच्छाई के विजय का प्रतीक है। दंतकथाओं के अनुसार नवरात्री देवी दुर्गा को समर्पित किया जाता है, जो नारी शक्ति के दो रूपों का प्रतीक है-एक नरम और रक्षकस्वरूपा और दूसरा प्रचंड और विनाशकारी रूप। इस त्योहार के दौरान तीन दिन एक-एक देवी की पूजा की जाती है, वह है देवी दुर्गा, देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती।
इन नौ दिनों तक अलग- अलग प्रांत में देवी दुर्गा अलग- अलग रूप की पूजा की जाती है:
दुर्गा- देवी जो हमारे पहुँच से बाहर है
भद्रकाली- समय की मंगलदायी शक्ति
अम्बा या जगदम्बा- विश्वमयीमाँ
अन्नपूर्णा- पर्याप्त मात्रा की दानी
सर्वमंगला- सौभग्यशालिनी देवी
भैरवी- भयानक, मृत्युदायिनी
चंद्रिका या चंडी- रूद्ररुपधारिणी
ललिता- आनंदमयी
भवानी- अस्तित्व प्रदान करने वाली
दशहरा के दिन लोग गाड़ी और अस्त्र-शस्त्र की पूजा करते हैं। वे शारदा-पूजन का विमोचन करते हैं। दशहरा खुद के ऊपर विजय प्राप्त करने का प्रतीक माना जाता है। इस समय कोई भी काम शुरू किया जा सकता है, क्योंकि यह समय मंगलदायी माना जाता है, पंचाङ्ग देखने की ज़रूरत नहींं पड़ती है। विद्दार्थीगण, विद्दा की देवी सरस्वती की पूजा करते हैं।
यह उत्सव अपनी कई वर्णिमा में विद्दमान रहता है
भारत के हर राज्य की अपनी-अपनी संस्कृति है, यह त्योहार पूरे भारत वर्ष में अपने-अपने मनोभाव की तरह अलग-अलग तरह से मनाया जाता है।
फसल काटने का त्योहार:
अपने अच्छे फसल के लिए धन्यवादस्वरूप वे इस त्योहार को मनाते है। नवरात्री के पहले दिन, अनाज का दाना घर में मिट्टी में बोया जाता है और रोज पानी डाला जाता है। दंसवे दिन जब अंकुर निकलता है तब देवी को यह अर्पित किया जाता है, जो देवी का आर्शिवाद माना जाता है। यह अच्छे फसल का प्रतीक माना जाता है।
गुजरात का डांडियारास:
मुख्यत: महाराष्ट्र और गुजरात में नवरात्री का सबसे मनोरंजन वाला अंग है डांडिया और गरबा, जो शाम को किया जाता है। यह देवी के सम्मान में किया जाता है। शाम के वक्त लोग एक जगह एकत्र होकर दिल से इस नृत्य को करते हैं। मुम्बई और गुजरात में कई गोष्ठियाँ या दल इसका आयोजन करते है। यह पूरे देश भर में, यहाँ तक भारतीय सम्प्रदायों में यह लोकप्रिय हो गया है जिसमें यू.के. और यू.एस.ए. भी शामिल है।
पश्चिम बंगाल में त्योहार का आनंद
पश्चिम बंगाल में नवरात्री में देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। देवी दुर्गा की पूजा महाषष्ठी से शुरू होती है। देवी का आगमन एक विशेष प्रकार के ड्रम, जिसे ढाक कहते है उसे बजा कर की जाती है। दुर्गापूजा का अभिन्न अंग यह ढाक होता है। इस दिन देवी के मूर्ति का अनावरण किया जाता है। पूजा शुरू होने के पहले कल्पारंभ होता है, उसके बाद बोधन, आमंत्रण और अधिवास होता है। प्राचीन काल से ही नौ तरह के पौधें की पूजा की जाती है। देवी के प्रतीक के रूप में एक साथ इन सबकी पूजा की जाती है।
सप्तमी दुर्गापूजा का पहला दिन होता है। सुबह हजारों लोग पूजा पंडाल में पुष्पाजंली देने के लिए एकत्र होते है। आंठवे दिन (महाअष्टमी) संधिपूजा होता है, जो महाअष्टमी और महानवमी का संधिकाल होता है। इस समय विशेष प्रकार का भोजन दिया जाता है जिसमें, खिचड़ी, मैदे का पूरी, मिक्सड वेजिटेबल का व्यंजन, फ्राई किया हुआ बैंगन, और पायेश दिया जाता है।
संधिपूजा के बाद मूल नवमी पूजा आरंभ होता है। नवमी का भोग भगवान को दिया जाता है। जो बाद में भक्तगण में बाँटा जाता है। दंसवे दिन (दशमी) आंसू के साथ देवी को विदा किया जाता है। सफेद और लाल किनारा वाला साड़ी विवाहित महिलायें पहनकर माँ दुर्गा को सिंदूर पहनाती है, संदेश खिलाती है। प्रतिमा को स्थानीय जगहों में जुलूस में घुमाकर नदी में विसर्जित किया जाता है। विजयादशमी पूरे देश भर में मनाया जाता है।
रामलीला की परम्परा:
दंतकथा के अनुसार, भगवान राम ने देवी दुर्गा की पूजा नौ दिनों तक की थी और दंसवे दिन रावण को मारा था, जो विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। उत्तरी भारत में रामलीला, नौ दिनों तक मनाया जाता है, इन नौ दिनों तक पूरे रामायण को अभिनेताओं द्वारा उस तरह का वेशभूषा पहनकर नाटकीय रूप में चरितार्थ किया जाता है। दशमी के दिन उत्सव का आखिरी दिन होता है। भगवान राम के हाथों राक्षसराज रावण का वध होता है, इसके प्रतीकस्वरूप ड्रम बजाकर पटाखों से बने पुतलाओं को जलाया जाता है।
दक्षिण भारत की दुर्गा पूजा:
दक्षिण भारत के निचले क्षेत्र, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक में वे देवी की मूर्ति बनाते हैं, देवी को वे बोमाई कालु के नाम से पुकारते हैं। नौ या सात स्तरों तक सजाते हैं। किसी भी चीज़ से मूर्ति बना सकते है मगर लकड़ी का बना मूर्ति ज़्यादा पवित्र और मांगलिक (मारबाची) माना जाता है।
नवें दिन विवाहित महिलायें और कुँवारी महिलायें कुमकुम-हल्दी के लिए बुलाती है। हर दिन अलग अनाज का अंकुर जिसे नैवेद्य कहा जाता है, भगवान को दिया जाता है, फिर औरतों में बाँटा जाता है। हर दिन अलग-अलग दाल से मिठाई बनाकर भगवान को दी जाती है। नवें दिन महानवमी को पुस्तक को रेशम के कपड़े में बाँध करके भगवान के सामने रखा जाता है, देवी सरस्वती की पूजा करने के लिए। दशहरा के दिन उस पुस्तक में एक पन्ना लिखकर या पढक़र देवी सरस्वती को श्रद्धाज्ञापन दिया जाता है। मिठाई देवी सरस्वती को प्रदान किया जाता है, उसमें दूध का बना विभिन्न तरह पुडिंग होता है जिसे पायसम कहते हैं।
रंग की संस्कृति:
नवरात्री के नौ दिनों तक विभिन्न रंग का कपड़ा पहनने का रिवाज है। नव अवतार नौ रंगों का प्रतीक है, देवी दुर्गा के नौ रूपों का प्रकटीकरण है। नौ दिनों तक देवी दुर्गा यह नौ रंग पहनेंगी। हर रंग का अपना एक महत्व है। परम्परागत रूप से हर साल रंग बदलता रहता है। लाल रंग सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यह देवी को द्दौतित करता है। विभिन्न योग के ऊर्जा के चक्र के रूप में हर एक अपना महत्व है।
महाभोज और उपवास का समय:
नवरात्री उपवास का समय होता है। कुछ लोग नव दिनों तक उपवास रहते हैं मगर कुछ लोग सांतवें और आठंवें दिन ही उपवास करते हैं। नवें दिन देवी को दिए भोग को खाकर उपवास तोड़ते हैं। नवरात्री के दौरान देवी को विभिन्न तरह का भोग दिया जाता है, हर दिन अलग-अलग तरह का भोग होता है।
* पहले दिन उपवास शुरू होता है, माँ शैलपुत्री के चरण में घी दिया जाता है। भक्त को व्याधि रहित जीवन का आर्शिवाद प्राप्त होता है।
* दूसरे दिन देवी ब्रह्मचारिणी को चीनी भोगस्वरूप दिया जाता है। परिवारजन के लंबे उम्र के लिए यह भोग दिया जाता है।
* तीसरे दिन, दूध, दूध से बनी मिठाई, खीर भोगस्वरूप माँ चंद्रघंटा को दिया जाता है। हर दुख से मुक्ति प्राप्त करने के लिए और जीवन में आनंद का आगमन करने के लिए यह भोग दिया जाता है।
* चौथे दिन नवरात्री को माँ कुशमांडा की पूजा की जाती है। देवी को भोग में मालपुआ दिया जाता है ताकि देवी भक्तगण को खुश होकर बुद्धि और ज्ञान प्रदान करें।
* माता स्कंधमाता नवरात्री के पांचवे दिन पूजी जाती है। शारीरिक स्वास्थ्य के लाभ के लिए देवी को केला भोगस्वरूप दिया जाता है।
* छठे दिन, माँ कात्यायनी को भोगस्वरूप शहद दिया जाता है। जिससे भक्त ज़्यादा आकर्षक लगे।
* सांतवे दिन, पूरे दिन उपवास के बाद माता कालरात्री को गुड़ भोग में दिया जाता है। इससे देवी भक्त के हर दर्द को हर लेंगी।
* दुर्गा अष्टमी के दिन, माता महागौरी की पूजा की जाती है। भोग में इस दिन नारियल दिया जाता है।
* नवें दिन देवी सिद्धिदात्री को तिल भोग में दिया जाता है। यह माना जाता है देवी भक्त के मृत्यु भय को दूर करती है। दुर्घटना से देवी बचाती है।
उपवास के दौरान भोज:
उपवास के दौरान लोग बहुत सारी चीजें बनाते हैं, लेकिन पूजा के नियम के अनुसार यह पहले से तय रहता है कि किस तरह का विशुद्ध खाना बनाना है और क्या नहींं। खाना बिल्कुल शाकाहारी होना चाहिए, फल, दूध, आलू और दूसरे जड़ वाले सब्जी होने चाहिए। विशेष प्रकार के सामग्रियों का इस्तेमाल नवरात्री के व्यंजन बनाने में होता है। मसालों का इस्तेमाल कम होता है, लाल मिर्च, हल्दी और जीरा का इस्तेमाल कम होता है और नमक के जगह पर सेंधा नमक का इस्तेमाल होता है। प्याज और लहसुन का इस्तेमाल बिल्कुल नहींं होता है। दूध, दही, फल और नट खा सकते हैं।
Pt.P.S.Tripathi
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असत्य पर सत्य की जीत विजयादशमी

हर तरफ फैले भ्रष्टाचार और अन्याय रूपी अंधकार को देखकर मन में हमेशा उस उजाले की चाह रहती है जो इस अंधकार को मिटाए। कहीं से भी कोई आस ना मिलने के बाद हमें हमारी संस्कृति के ही कुछ पन्नों से आगे बढऩे की उम्मीद मिलती है। हम सबने रामायण को किसी ना किसी रूप में सुना, देखा और पढ़ा ही होगा। रामायण हमें यह सीख देता है कि चाहे असत्य और बुरी ताकतें कितनी भी ज्यादा हो जाएं, पर अच्छाई के सामने उनका वजूद एक ना एक दिन मिट ही जाता है। अंधकार के इस मार से मानव ही नहींं भगवान भी पीडि़त होते हैं। सच और अच्छाई ने हमेशा सही व्यक्ति का साथ दिया है।
अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरे का आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है, इसीलिए इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पाप यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।
राम और रावण की कथा तो हम सब जानते ही हैं जिसमें राम को भगवान विष्णु का एक अवतार बताया गया है। राम महान राजा दशरथ के पुत्र थे और पिता के वचन के कारण उन्होंने 14 साल का वनवास सहर्ष स्वीकार किया था। लेकिन वनवास के दौरान ही रावण नामक एक राक्षस ने भगवान राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया था। अपनी पत्नी को असुर रावण से छुड़ाने और इस संसार को रावण के अत्याचार से मुक्त कराने के लिए राम ने रावण के साथ दस दिनों तक युद्ध किया था और दसवें दिन रावण के अंत के साथ इस युद्ध को समाप्त कर दिया था। वह चाहते तो अपनी शक्तियों से सीता को छुड़ा सकते थे लेकिन मानव जाति को यह पाठ पढ़ाने के लिए कि ‘‘हमेशा बुराई अच्छाई से नीचे रहती है और चाहे अंधेरा कितना भी घना क्यूं न हो एक दिन मिट ही जाता है।’’ उन्होंने मानव योनि में जन्म लिया और एक आदर्श प्रस्तुत किया।
दशहरा भारत के उन त्यौहारों में से है जिसकी धूम देखते ही बनती है। बड़े-बड़े पुतले और झांकियां इस त्यौहार को रंगा-रंग बना देती हैं। रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतलों के रूप में लोग बुरी ताकतों को जलाने का प्रण लेते हैं। आज दशहरे का मेला छोटा होता जा रहा है लेकिन दशहरा आज भी लोगों के दिलों में भक्तिभाव को ज्वलंत कर रहा है।
दुर्गा पूजा:
विजयदशमी को देश के हर हिस्से में मनाया जाता है। बंगाल में इसे नारी शक्ति की उपासना और माता दुर्गा की पूजा अर्चना के लिए श्रेष्ठ समयों में से एक माना जाता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए मशहूर बंगाल में दशहरा का मतलब है दुर्गा पूजा। बंगाली लोग पांच दिनों तक माता की पूजा-अर्चना करते हैं जिसमें चार दिनों का अलग महत्व होता है। ये चार दिन पूजा के सातवें, आठवें, नौवें और दसवें दिन होते हैं जिन्हें क्रमश: सप्तमी, अष्टमी, नौवीं और दसमी के नामों से जाना जाता है। दसवें दिन प्रतिमाओं की भव्य झांकियां निकाली जाती हैं और उनका विसर्जन पवित्र गंगा में किया जाता है। गली-गली में मां दुर्गा की बड़ी-बड़ी प्रतिमाओं को राक्षस महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है।
देश के अन्य शहरों में भी हमें दशहरे की धूम देखने को मिलती है। गुजरात में जहां गरबा की धूम रहती है तो कुल्लू का दशहरा पर्व भी देखने योग्य रहता है। बस्तर का दशहरा भी देश में खासा प्रसिद्ध है।
दशहरे के दिन हम तीन पुतलों को जलाकर बरसों से चली आ रही परपंरा को तो निभा देते हैं लेकिन हम अपने मन से झूठ, कपट और छल को नहीं निकाल पाते। हमें दशहरे के असली संदेश को अपने जीवन में भी अमल में लाना होगा तभी यह त्यौहार सार्थक बन पाएगा।
दशेंद्रियों पर विजय:
वैदिक परम्परा में जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण अज्ञान से बाहर निकल कर ज्ञान प्राप्ति अथवा मुक्ति का क्षण माना गया है। दशहरा का अर्थ है, वह पर्व जो दसों प्रकार के पापों को हर ले। इस दिन को विजय दशमी का दिन भी स्वीकार किया गया है। एक मान्यता के अनुसार आश्विन-शुक्ल-दशमी को तारा उदय होने के समय ‘विजय’ नामक काल होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। यह वह क्षण है जब दशेंद्रियों पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर मानव जीवन की सीमाओं का उल्लंघन कर ज्ञान प्राप्त करता है। इसीलिए दशहरे के पर्व को ‘सीमोल्लंघन’ के नाम से भी पुकारा जाता है। पूर्वी भारत में यह ‘बिजोया’ नव वर्ष की भाँति उल्लास से नवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। यहाँ इसे मां भगवती की महिषासुर पर विजय का प्रतीक माना जाता है।
विजयदशमी का त्योहार वर्षा ऋतु की समाप्ति तथा शरद के आगमन की सूचना देता है। ब्राह्मण इस दिन सरस्वती का पूजन करते हैं जबकि क्षत्रिय शास्त्रों की पूजा करते हैं। अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में यह त्योहार सदियों से भारत के कोने कोने में मनाया जाता है। यह अधर्म पर धर्म की विजय का द्योतक माना गया और दशमी के इस दिन को विजय दशमी के रूप में मनाया जाने लगा।
एक अन्य कथा के अनुसार परशुराम की माता रेणुका ने शापग्रस्त देवताओं के आग्रह पर उनके कुष्ठ रोग दूर करने के लिए अपने पति ‘भृगु’ की आज्ञा के बिना नौ दिन तक देवताओं की सेवा की फलत: दसवें दिन उनका कोढ़ दूर हो गया। शाप मुक्त होने के कारण देवताओं ने यह दिवस दु:ख मुक्ति अथवा विजय दिवस के रूप में मनाया। इस दिन आश्विन-शुक्ल दशमी थी अत: तभी से यह दिन विजय दशमी के रूप में मनाया जाने लगा। इसी प्रकार इस दिन को नरकासुर राक्षस के वध के साथ भी जोड़ा जाता है। कहते हैं कि नरकासुर ने अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए 1600 स्त्रियों की बलि देने का निश्चय किया। उसे वरदान प्राप्त था कि उसका वध केवल नारी द्वारा ही होगा। भगवान श्री कृष्ण ने ‘सत्यभामा’ के हाथों उसका वध करवाया। नरकासुर के हाथों बच जाने के कारण नारियों ने इसे विजय पर्व के रूप में मनाया। चाहे राम ने रावण का संहार किया हो अथवा अर्जुन द्वारा कौरवों पर विजय पाई गई हो, यह दिवस सर्वत्र निर्विवाद अधर्म पर धर्म की जीत के रूप में मनाया जाता है। स्थानीय रीति रिवाजों, वेश भूषाओं और परम्पराओं के कारण इस त्योहार का बाह्य रूप पृथक पृथक हो सकता है परन्तु इसकी भावना एक ही है और वह है ‘‘असत्य पर सत्य की जीत।’’
दशहरा एक प्रतीक पर्व है। राम-रावण के युद्ध में जिस रावण की कल्पना की गई है वह है मन का विकार है और जो विकार रहित हैं वह हैं परम पुरुष राम। सीता आत्मा है जबकि राम स्वयं परमात्मा। आत्मा का अपहरण जब रावण ने किया तो चारों ओर धर्म नष्ट होने लगा, लोग वानरों की भाँति चंचल और उच्छृंखल होने लगे, तब राम ने उनको अर्थात उनके काम-क्रोध-मोह आदि को अनुशासित किया तभी रावण का वध संभव हो पाया। राम और रावण विपरीतार्थ के बोधक हैं। रावण का अर्थ है रुलाने वाला जबकि राम का अभिप्राय है लुभाने वाला। रावण के दस सिर कहे गए हैं। उसका सिर तो एक ही है, शेष- काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर, लोभ, मन, बुद्धि और अहंकार को उसके सिरों के रूप में स्वीकार किया गया है।
राम को दशरथ का पुत्र माना गया है। उपनिषदों में शरीर को रथ कहा गया है। शरीर की दशेन्द्रियों को योगी साधना द्वारा वश में कर सकते हैं। ऐसे संयमी योगी साधक ही होते हैं दशरथ। इस प्रकार राम दशरथी हैं। रावण दशमुखी है, वह ब्राह्मण है। शास्त्र कहते हैं, ‘ब्रह्मं जानाति ब्राह्मण’ जो ब्रह्म को जानता है वही ब्राह्मण है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उच्च आचार विचार द्वारा ब्रह्म को प्राप्त न करके दशग्रन्थों को मुखाग्र कर, दशेंन्द्रियों के पराधीन होकर स्वयं को ब्राह्मण घोषित करना केवल पाखंड ही हैं। ऐसे पाखंडियों को ही रावण कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार, ‘‘रवैतीति रावण’ जो अपने कथित ज्ञान का स्वयं ढोल पीटता है, वही रावण है। यही वृत्ति राक्षसी है। जिस पर नियंत्रण करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम की आवश्यकता होती है। इसी वृत्ति पर विजय प्राप्त करने का त्योहार है विजयदशमी। महाभारत की कथा का भी आशय यही है। वेद व्यास जी ने पाण्डवों के बारह वर्ष के वनवास के बाद एक वर्ष के अज्ञातवास की बात की है। इस का अभिप्राय है कि साधक बारह वर्ष तक साधना की सफलता से इतना अहंकारी न हो जाए कि अपनी साधना का ढिंढोरा पीटने लगे इसलिए साधक को एक वर्ष के अज्ञातवास का प्रावधान किया गया। यहाँ भी दुर्योधन अर्थात् बुरी वृत्तियों वाला तथा बृहन्नला जिसने अपनी बृहत वृत्तियों को संयमित कर रखा है, में परस्पर युद्ध होता है और अच्छी वृत्तियों की विजय होती है।
महाराष्ट्र और उससे लगे भू प्रदेशों में दशहरे के दिन आपटा अथवा शमी वृक्ष की पत्तियाँ अपने परिजनों एवं मित्रों में स्वर्ण के रूप में वितरित करने की प्रथा है। आपटा वृक्ष की पत्तियाँ मध्य से दो समान भागों में विभक्त रहती हैं। यह वृक्ष गाँव की सीमा से बाहर ही होते थे। इस पत्ती को गाँव की सीमा से बाहर जा कर तोडऩा ही सीमोल्लंघन है। यह पत्ती द्वैत वृत्ति पार कर अद्वैतवृत्ति में जा कर दशेंन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का प्रतीक है। इसी प्रकार शमी की पत्तियाँ सुवर्ण मान कर वितरित की जाती हैं। शमी वृक्ष की पत्तियाँ बुद्धि के देवता गणेश जी को अर्पित की जाती हैं। शम् अर्थात् कल्याणकारक। ‘शमीं’ वह कल्याणकारी अवस्था है जो बुद्धि के देवता की शरण में जाने पर प्राप्त होती है। बुद्धि के देवता की शरण में जाने का अर्थ भी दशेन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही है। कई शताब्दीयों से मनाये जाने वाले इस त्योहार को मध्य युगीन राजाओं, महाराजाओं ने नए आयाम दिए, कुल्लू, कोटा, और कर्नाटक में आज भी 15वीं शताब्दी की कई बातों की झलक मिल जाती है। कुमाउँ का दशहरा भी उत्तर भारत में रामायण के पात्रों के पुतलों के कारण काफी चर्चित है।
कुल्लू का दशहरा:
कुल्लू में दशहरा देवताओं के मिलन का मेला मान कर मनाया जाता है। विश्वास किया जाता है कि देवता जमलू ने देवताओं को एक टोकरी में उठा कर किन्नर कैलाश की ओर से कुल्लू पहुँचाया था। तभी से कुल्लू देवताओं की भूमि मानी जाती है और यहाँ पर देवताओं का मिलन प्रति वर्ष होता है। कुल्लू घाटी के प्रत्येक गाँव का अपना ग्राम देवता होता है। प्रत्येक देवता का अपना मेला लगता है। देश के दूसरे भागों में विजय दशमी के समाप्त होते ही आश्विन शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक कुल्लू के ढाल मैदान में सभी देवता सज धज कर, गाजे बाजे के साथ लाये जाते हैं। परम्परागत वेश भूषा में सजे स्त्री पुरुष देवता की सवारी के साथ आते हैं। कुल्लू की घाटी के कण-कण में लोक नृत्य, संगीत और मस्ती भरी हुई है फलत: यह मिलन स्थली विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों के स्वरों एवं लोक नर्तकों की थापों पर थिरक उठती हंै। इन्हीं लोगों के उल्लास भरे नृत्यों एवं रंग बिरंगे परिधानों की छटा ने कुल्लु के दशहरे की महक को विदेशों तक पहुँचा दिया है। अब आधुनिकता का प्रभाव भी इस मेले में दिखाई देने लगा है जिसके फलस्वरूप इसका परम्परागत रूप बदलने लगा है। पहले इस मेले में भाग लेने के लिए तीन सौ पैंसठ देवता कुल्लू आया करते थे अब इनकी संख्या घट कर साठ सत्तर रह गई हैं।
कुल्लू के राजाओं ने इस मेले को वर्षों गरिमा प्रदान की है। देवताओं की मिलन स्थली ढालपुर का नामकरण भी 16वीं शताब्दी में राजा बहादुर सिंह ने अपने छोटे भाई ढाल सिंह के नाम पर किया था। 17वीं शताब्दी में राजा मानसिंह ने इसे व्यावसायिक रूप दिया और कुल्लू दशहरा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का संगम बन गया। हिमालय पर्वत के दुर्गम दर्रे लांघ कर रूस, चीन, लद्दाख, तिब्बत, समरकन्द, यारकन्द और लौहल स्पिति के व्यापारी यहाँ पर ऊन और घोड़ों का व्यापार करने आते थे। आज भी यहाँ दूर दूर से व्यापारी आ कर अच्छा व्यापार करते हैं। इस अवसर पर यहाँ पशु मेलों का भी आयोजन होता है। मेले का मुख्य आकर्षण रघुनाथ जी की यात्रा होती है जिसमें राजपरिवार के सदस्य राजसी वेश भूषा में सम्मिलित होते हैं। इस अवसर पर द्वापर युग की राक्षसी, भीम की पत्नी हिडिंबा की उपस्थिति को अनिवार्य माना जाता है। पांडु पुत्र भीम के संसर्ग से हिडिंबा को मानवी स्वीकार कर लिया गया था। अब मनाली स्थित हिडिंबा मन्दिर में उनकी पूजा एक देवी के रूप में की जाती है।
कुल्लू दशहरे में रघुनाथ जी की यात्रा हिडिंबा की उपस्थिति के बिना नहींं निकल सकती। इसके लिए हिडिंबा देवी को निमंत्रण भेजने का एक विशेष विधान है। मनाली से चल कर देवी कुल्लू के पास रामशिला नामक स्थान पर ठहरती है। यहीं उन्हें राजा की ओर से छड़ी भेज कर बुलावा भेजा जाता है। देवी का धूप जलाने का पात्र स्वयं राजा उठाता है। इस मेले में जहाँ हिडिंबा की उपस्थिति अनिवार्य है वही विश्व के सबसे प्राचीन लोकतंत्र ‘मलाना’ के संस्थापक देवता जमलू तथा कमाद की पराश्र भेखली देवी इसमें शामिल नहींं होते। झाड़-फूस की लंका दहन के साथ दशहरा पूर्ण होता है और रघुनाथ जी की यात्रा वापिस लौटती है। लौटते समय रघुनाथ जी के साथ सीता जी की मूर्ति भी विराजमान कर दी जाती है। यह राम द्वारा लंका से सीता को छुड़ा कर लाने का प्रतीक माना जाता है।
मैसूर का दशहरा:
दक्षिण भारत में कर्नाटक प्रान्त के मैसूर नगर का दशहरा भी अपनी भव्यता और तडक़-भडक़ के लिए विश्व प्रसिद्ध है। कन्नड़ में दशहरे को नांदहप्पा अर्थात राज्य का त्योहार कहा जाता है। 15वीं शताब्दी में मैसूर के लोकप्रिय एवं कलाप्रेमी राजा कृष्णदेव राय ने इस उत्सव को राजकीय प्राश्रय दिया, नवरात्रि उत्सव के अन्तिम दिन राजा हाथी पर सवार हो कर नागरिकों के मध्य जाते और उनके द्वारा सम्मानपूर्वक दिए गये उपहार प्रेम से स्वीकार करते। राजमहल से चल कर राजा की यात्रा नगर सीमा बाहरबली मंडप तक जाती। यहाँ पर दशहरे के साथ महाभारत काल से ही जुड़े शमी वृक्ष की पूजा की जाती और इस वृक्ष की पत्तियों को सुर्वण मान कर परिजनों में वितरित किया जाता है।
शमी वृक्ष के संबंध में विद्वानों का मत है कि पांडवों ने अपने एक वर्ष के अज्ञातवास में इसी वृक्ष पर अपने अस्त्र शस्त्र छिपा कर रखे थे। इस वृक्ष को न्याय, अच्छाई और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। कर्नाटक के निवासियों का मत है कि जिस प्रकार पांडवों ने धर्म की रक्षा की उसी प्रकार से यह वृक्ष उनकी तथा उनके परिजनों की रक्षा करेगा।
इस त्योहार को प्राश्रय देने वाला विजय नगरम राज्य अपने अपार वैभव के लिए विश्व प्रसिद्ध था फलत: राजा की सवारी बहुत ही भव्यता के साथ निकाली जाती थी। आजकल जुलूस में राजा का स्थान महिषासुरमर्दिनी चांमुडेश्वरी देवी की प्रतिमा ने ले लिया है। चामुंडेश्वरी देवी का मन्दिर मैसूर महल से थोड़ी ही दूर एक सुन्दर पहाड़ी पर बना हुआ है।
मैसूर में दशहरे के अवसर पर एक विशाल प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। इसमें देश भर से व्यापारी पहुँचते हैं। राज्य के महत्वपूर्ण कला-शिल्प यहाँ पूरी सज-धज के साथ रखे जाते हैं। चन्दन की लकड़ी से बनी कलाकृतियाँ, अगरबत्तियों और रेशमी साडिय़ों के लिए लोग इस उत्सव की वर्ष भर प्रतीक्षा करते हैं। सांस्कृतिक गतिविधियों की चहल पहल से भरे वातावरण में मैसूर का राजमहल जब विद्युत के प्रकाश से जगमगाता है तो उसकी छटा देखते ही बनती है।
राजस्थान का दशहरा:
कुल्लू और कर्नाटक की ही भाँति कोटा, राजस्थान का दशहरा भी पिछले पांच सौ वर्ष से हडौती संभाग की जनता के लिए आकर्षक का केन्द्र बना हुआ है। उत्तर भारत का यह सबसे प्राचीन दशहरा माना जाता है। कोटा के महाराजा इसे शक्ति पर्व के रूप में मनाते आये हैं। 15वीं शताब्दी में राव नारायण दास ने मालवा सुल्तान महमूद को परास्त करने के उपलक्ष में इसे प्रारम्भ किया था। कोटा में दशहरा का प्रारम्भ आश्विन मास से शक्तिपर्व मनाने से होता है और इसका समापन विजय पर्व के रूप में विजय दशमी के दिन राजाओं द्वारा प्राश्रय प्राप्त यह मेला 1995 से स्थानीय नगर परिषद् द्वारा आयोजित किया जाता है। गत पांच सौ वर्षों में इस मेले के रंग रूप में समयानुकूल परिवर्तन होते रहे हैं।
1579 में कोटा राज्य की स्थापना के साथ राव माधे सिंह ने यहाँ लंका पुरी का निर्माण कराया और पुतलों के स्थान पर मिट्टी के रावण-वध की प्रथा डाली। स्वतंत्रता प्राप्ति तक यहाँ 15.20 फुट ऊंचे रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के मिट्टी के पुतले बनाये जाते थे। उनके गले में बंधी जंजीर को खींच कर राजदरबार का शाही हाथी उनका वध करता था। 1771 मेंजब महाराव उम्मेद सिंह गद्दी पर बैठे तो उन्होंने इस उत्सव के सार्वजनिक रूप को निखारा।
नवरात्रि से पहले ही दिन दशहरा शुरू करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा डाड़ देवी, अन्नपूर्णा, काल भैरव, आशापुरा और बाला जी जैसे क्षेत्र के प्रतिष्ठित मन्दिरों में पूजा की जाती थी। कोटा नरेश सज-धज के साथ हाथी की सवारी करके रावण वध के लिए निकलते थे। लंका क्षेत्र और गढ़ की बुर्जियों पर रखीं तोपें दागी जाती थीं। कोटा नरेश स्वयं लंका पुरी में प्रवेश करके रावण वध करते थे। आज इस मेले में आकर्षण को बनाये रखने के लिए नगर पालिका अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करती है। 20 दिन तक लगने वाले इस मेले में देर रात तक रौनक रहती है। मेला स्थल पर स्थाई रूप सेपक्की दुकानें बना दी गई हैं और मेले में भाग लेने के लिए आए व्यापारियों को चुंगी कर से मुक्त रखा गया है।
मेले की अनेक पुरानी परम्पराएं समाप्त होती जा रहीं है फिर भी अभी तक भगवान बृजनाथ की शोभा यात्रा निकाली जाती है। राजा के स्थान पर अब भगवान लक्ष्मी नारायण रावण की नाभि को लक्ष्य करके तीर चलाते हैं और कागज के पुतलों में आग लगा दी जाती है। मैसूर और कुल्लू दशहरों का आकर्षण आज भी बना हुआ है जबकि कोटा दशहरा अपना आकर्षण खोता जा रहा है।
कुमाऊं का दशहरा:
कुमाऊं क्षेत्र में अल्मोड़ा के लोगों में दशहरा पुतलों के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। अल्मोड़ा के आस पास के ग्रामीण क्षेत्रों के लोग रामायण के राक्षसी पात्रों के विशाल पुतले बनाते हैं। यह सुनिश्चित किया जाता है कि एक ही पात्र के दो पुतले न बनें। सभी धर्मों के लोग मिल जुल कर पूरे उत्साह के साथ इन पुतलों का निर्माण करते हैं। इन पुतलों का जुलूस निकाला जाता है और लोग उनके विरूद्ध नारे लगाते हैं। चौधान में ला कर सभी पुतलों के कीमती वस्त्र और आभूषण उतार कर उन्हें जला दिया जाता है। इस उत्सव में स्थानीय लोगों का उत्साह देखते ही बनता है।
बस्तर का दशहरा:
बस्तर के दशहरे को ले कर आम लोगों की उत्सुकता बेवजह नहींं है। बस्तर का दशहरा वाकई खास और शेष देश के दशहरों से अलग होता है। यह पर्व एक, दो या तीन दिन नहींं, बल्कि पूरे 75 दिन मनाया जाता है। तय है कि यह दुनिया का सब से ज्यादा अवधि तक मनाया जाने वाला त्योहार है जिस की शुरुआत सावन के महीने की हरियाली अमावस से होती है। बस्तर के दशहरे की दूसरी खासीयत यह है कि बस्तर में गैर पौराणिक देवी की पूजा होती है। आदिवासी लोग शक्ति के उपासक होते हैं। सच जो भी हो, इन विरोधाभासों से परे बस्तर के आदिवासी हरियाली अमावस के दिन लकडिय़ां ढो कर लाते हैं और बस्तर में तयशुदा जगह पर इक_ा करते हैं। इसे स्थानीय लोग पाट यात्रा कहते हैं। बस्तर कभी घने जंगलों के लिए जाना जाता था, आज भी उस की यह पहचान कायम है और सागौन व टीक जैसी कीमती लकडिय़ों की यहां इतनी भरमार है कि हर एक आदिवासी को करोड़पति कहने में हर्ज नहींं। इस त्योहार पर 8पहियों वाला रथ आकर्षण का केंद्र होता है।
75 दिन रुकरुक कर दर्जनभर क्रियाकलापों के बाद दशहरे के दिन आदिवासियों की भीड़ पूरे बस्तर को गुलजार कर देती है। इस दिन आदिवासी अपने पूरे रंग में रंगे, नाचते, गाते और मस्ती करते हैं। वे तमाम वर्जनाओं से दूर रहते हैं। उन्हें देख समझ में आता है कि आदिवासियों को क्यों सरल व सहज कहा जाता है। त्योहार के अवसर पर यहां 11 बकरों की बलि देने और शराब खरीदने के लिए भी पैसा जमा होता है। मदिरा सेवन के अलावा इस दिन मांस, मछली, अंडा, मुरगा वगैरह खाया जाना आम है। दूरदराज से आए आदिवासी अपने साथ नारियल जरूर लाते हैं। दशहरे के आकर्षण के कारण इस दिन पूरे जगदलपुर में आदिवासी ही दिखते हैं और शाम होते ही वे परंपरागत तरीके से नाचगाने और मेले की खरीदारी में व्यस्त हो जाते हैं।
इसलिए हो रहा मशहूर:
आदिवासी जीवन में दिलचस्पी रखने वाले लोग यों तो सालभर बस्तर आते रहते हैं पर उन में ज्यादातर संख्या इतिहास के छात्रों और शोधार्थियों की होती है। लेकिन बीते 3-4 सालों से आमलोग पर्यटक के रूप में यहां आने लगे हैं। बस्तर के दशहरे की खासीयत को रूबरू देखने का मौका न चूकने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है तो इस का एक बड़ा श्रेय छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल को जाता है जिस ने बस्तर के दशहरे को एक ब्रैंड सा बना दिया है। बस्तर आ कर ही पता चलता है कि प्रकृति की मेहरबानी सब से ज्यादा यहीं बरसी है। चारों तरफ सीना ताने झूमते घने जंगल, तरहतरह के पशुपक्षी, जगहजगह झरते छोटेबड़े झरने और चट्टानें देख लोग भूल जाते हैं कि बाहर हर कहीं भीड़ है, इमारतें और वाहन हैं कि चलना और सांस लेना तक दूभर हो जाता है। यहां आ कर जो ताजगी मिलती है वह वाकई अनमोल व दुर्लभ है।
बस्तर जाने के लिए अब रायपुर से लग्जरी बसें भी चलने लगी हैं और टैक्सियां भी आसानी से मिल जाती हैं। उत्सव के दिनों में पर्यटकों की आवाजाही बढऩे से यहां पर्यटन एक नए रूप में विकसित हो रहा है। वैसे भी, पर्यटन का यह वह दौर है जिस में पर्यटक कुछ नया चाहते हैं, रोमांच चाहते हैं और ठहरने के लिए सुविधाजनक होटल भी, जो छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल ने यहां बना रखा है। दशहरा उत्सव के दौरान यानी अक्टूबर-नवंबर में बस्तर का मौसम अनुकूल होता है। अप्रैल-मई की भीषण गरमी तो यहां बस गए बाहरी और नौकरीपेशा लोग भी बरदाश्त नहींं कर पाते। इसलिए भी दशहरा देखने के लिए भीड़ उमड़ती है। दशहरे के बहाने पूरे छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी जनजीवन, रीतिरिवाजों, रहनसहन और संस्कृति से बखूबी परिचय भी होता है।
इस प्रकार भारत के प्रत्येक क्षेत्र में धूम धाम के साथ अधर्म पर धर्म की विजय का यह पर्व लोगों के उत्साह में वृद्धि करता है और एक विजय दशमी के सम्पूर्ण होते ही लोग अगले वर्ष की प्रतीक्षा करने लगते हैं।
Pt.P.S.Tripathi
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अचानक धनी बनने के योग

लोग अचानक धनी बनने का ख्वाब पाल लेते हैं। उनमें बिना अधिक श्रम किए समृद्ध होने की लालसा इतनी प्रबल होती है कि वे सट्टा, लाटरी, कमोडिटी या फिर शेयर मार्केट की ओर झुक जाते हैं। इसमें से अधिकांश के साथ हालत ये तक हो जाती है कि वे अपनी पूरी जमा-पूंजी, चल-अचल संपत्ति बेच-बाच कर सारा धन अपनी इच्छा पूर्ति के लिए लगा देते हैं। और ज्यादातर मामलों में परिणाम मनोनुकूल नहींं मिल पाता है। अधिकांश इस शौक के पीछे बर्बाद तक हो जाते हैं वहीं कुछ ऐसे भी कमजोर दिल वाले होते हैं, जिनको आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता सूझता नहींं है। कुछ उन चुनिंदा लोगों को भारी लाभ भी लेते पाया, जिन्होंने शेयर, सट्टा, लाटरी अथवा कमोडिटी आदि अनिश्चित धन लाभ संयोगों में ज्योतिषीय फलादेश के अनुसार निवेश का साहस किया। किंतु जिन्होंने पूर्णतया अपने ज्ञान, अनुभव के आधार ऐसा जोखिम उठा लिया, किस्मत उनके साथ नहींं रही परिणामत: उन्हें भारी हानि से रूबरू होना पड़ा।
हमें उन ज्योतिषीय कारणों को जरूर जानना चाहिए, जिससे एक अनाड़ी और नौसिखिया इंसान भी अगर शेयर मार्केट आदि जैसे अस्थिर व अनिश्चित संभावना वाले माध्यमों से लाभ कमाने उतरता है तो उसे भारी लाभ मिल जाता है, जबकि एक पूर्ण प्रशिक्षित एनालिस्ट की राय भी फेल साबित हो जाती है। वस्तुत: हमें एक बात भली-भांति जाननी चाहिए कि सट्टा, लाटरी, अथवा शेयर मार्केट से लाभ-हानि केवल बाजार के अनुसार नहींं चलता वरन इसका अधिक संबंध व्यक्ति विशेष की किस्मत से है। यदि किसी जातक की कुण्डली में धनेश-एकादशेश, लग्नेश, चतुर्थेश, पंचमेश, भाग्येश यानि नवमेश की स्थिति मजबूत हो, तो वह जीवन भर ऐसे अप्रत्याशित लाभ की प्रत्याशा अवश्य कर सकता है।
ध्यान रहे कि लग्नेश, धनेश, एकादशेश नवमेश, दशमेश अथवा चतुर्थेश व पंचमेश की दशा-अंतरदशा चल रही हो, संबंधित स्वामियों की स्थिति मजबूत हो, ग्रह उच्च के हों, गोचर की सिचुएशन अच्छी हो, साढ़ेसाती या ढैया की स्थिति न हो, क्रूर व पापी ग्रहों का संयोग न उपस्थित हो या फिर चंद्रमा बली हो तो ऐसी कुण्डली वाला जातक सट्टा-लाटरी-शेयर मार्केट आदि में बहुत धन अर्जित करने में सफल रहता है। इसके अलावा सट्टा–लाटरी-शेयर आदि में लाभ कमाने की अच्छी अनुकूल परिस्थिति तब बनती है जबकि जातक की जन्म कुण्डली में अष्टम भाव बेहद मजबूत हो। इस दशा में एक और बात काबिल-ए-गौर है कि ऐसा मजबूत अष्टम भाव वाला जातक विरासती संपत्ति का भी दावेदार बनता है।
हमारी कोशिश ये होगी कि अगले कुछ आलेखों में हम इस विषय को कुछ अधिक गहराई से उठाएं ताकि जो जातक ऐसे अनिश्चित लाभ की संभावना वाले क्षेत्रों से धनार्जन करना चाहते हैं, उन्हें इसका वास्तविक फायदा मिल सके।
Pt.P.S.Tripathi
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Saturday, 19 December 2015

भृगुकालेंद्र पूजन से लायें बच्चों में अनुशासन एवं आज्ञापालन-


आज की युवा पीढ़ी को प्रदान की जा रही सुविधाओं के सद्पयोग के बजाय उनका दुरूपयोग कर ये बच्चे भटकाव की दिषा में अग्रसर होती जा रही है। बहुत अच्छा प्रदर्षन करने वाला अचानक अपने एजुकेषन में गिरावट ले आता है, घर तक सीमित रहने वाला बच्चा दोस्तों तथा बाहरी दुनिया में रहना चाहता है। माॅ की बातें लेक्चर लगती है तथा लगातार रोकटोक को बरदास्त नहीं करता, विरोध स्वरूप बाहर रहने का प्रयास करता है। पिता के सामने आने से बचना चाहता है। विभिन्न प्रकार के शौक शुरू हो गए हों अथवा मोबाईल या कम्प्यूटर की लत लग जाए तथा इससे कैरियर में तो प्रभाव पड़ता ही है साथ ही मनोबल भी प्रभावित होता है। ऐसी स्थिति दिखाई दे तथा बच्चा आपके लिए परेशानी का सबब बनने लगे तो सर्वप्रथम व्यवहार तथा अपने दैनिक रूटिन पर नजर डालें। इसमें क्या अंतर आया है, उसका निरीक्षण करने के साथ ही अपनी कुंडली किसी विद्धान ज्योतिष से दिखा कर यह पता करें कि क्या कुंडली में राहु या शुक्र प्रभावकारी है। यदि कुंडली में राहु या शुक्र दूसरे, तीसरे, अष्टम या भाग्यस्थान में हो साथ ही इनकी दषा, अंतरदषा या प्रत्यंतरदषा चल रही हो तो गणित या फिजिक्स जैसे विषय की पढ़ाई प्रभावित होती है साथ ही ऐसे लोगों के जीवन में कल्पनाषक्ति प्रधान हो जाती है। पहली उम्र का असर उस के साथ ही राहु शुक्र का प्रभावकारी होना एजुकेषन या कैरियर में बाधक हो सकता है। यदि इस प्रकार की बाधा दिखाइ्र दे तो शांति के लिए भृगु-कालेंद्र पूजन के साथ काउंसिलिंग कराने से कैरियर की बाधाएॅ समाप्त होकर अच्छी सफलता प्राप्त की जा सकती है।
Pt.P.S.Tripathi
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Nabhas yoga

There are 32 main Nabhasa Yogas, which are classified in four categories.
The word Nabhasa means the sky. As such, the Yogas are formed in the sky with the help of all the three constituents, namely all the seven planets (excluding Rahu and Ketu), all the 12 signs and the 12 houses (including all shodhas vargas - 16 divisional charts), are called the Nabhasa Yogas. In these Yogas, all seven planets participate simultaneously. Each nativity will have at least one yoga out of 32 main Nabhasa Yogas.
The main question which arises is that why are only seven planets are considered and Rahu and Ketu are excluded ? There are fundamental reasons for excluding these two Chhaya Grahas (nodes of the moon). This aspect needs to be examined in some detail as it contains the key to understand the purpose and utility of the Nabhasa Yogas .
The Jeeva or the individual soul or self is in reality Pursha , who operates in this world through the causal, subtle and gross (physical) body. The causal body is the combination of soul and the mind (manah) - the sun and the Moon. This represents the creative principle in the Universe .The causal body is constituted of mere desires (Vasanas). Therefore this body is the seed of one's personality in the unmanifested form. The causal body manifests and functions itself as the subtle (astral) body (the linga sareer), which operates with the help of five senses of perception represented by Mars, Mercury, Jupiter, Venus and Saturn. In other words, the subtle body is composed of feelings, emotions and thoughts generated on account of accumulated Vasanas from past births. Thus, the linga sareera represents the personality of an individual. This personality functions through the Gross body.
Nabhasa Yogas indicate basic traits and personality represented by the subtle body. The subtle body is like a sapling. It can be made to grow any way one likes. Similarly, the indications given by Nabhasa Yogas can be changed, modified or molded into any direction based on the vibration generated by the placement of Rahu and Ketu along with other Yogas in the nativity operating from time to time. The causal and subtle body operates through the Gross body. The gross body is like fully grown tree, which cannot be modified. As much, you can change or modify your feeling, emotions and thoughts manifesting in the Gross body, if you can control at the level of the subtle body, which supports the Gross body. Thus, Nabhasa Yogas contain and provide basic information that ultimately helps the individual to operate and use his own free will for the improvement of his lot.
Parasara narrated 32 Nabhasa Yogas. These are divided in four categories; there (3) are called Ashraya Yoga, two (2) Dala Yogas, twenty (20) Akriti Yoga and 7 (seven) Sankhya Yogas. These 32 Nabhasa Yogas again have 1800 different varieties (sub-divisions).
These numbers-32 and 1800 are of mystic nature as they represent subtle body (and not the gross body). The soul is immortal and never changes, it is the manah- mind that is responsible for the cycle of Birth and death, creation and destruction.
The Moon returns to the same point in the Zodiac in about 18.60 years, (which is the sidereal the period of Rahu and Ketu). If 32 is divided by number 1800, the remainder will always be 14. The number 14 represents 14 bhuvans(mansions) in which soul reappears as jeeva to exhaust his accumulated karma . Therefore, these numbers indicate the universal and immortal cycle of Karma.

Importance of nakshatras

Naksha" is "map" and "tara" is "star" and so Nakshatra is "Star Map." In the eyes of the ancient Vedic (Indian) seers the 27 Nakshatras (constellations) map the sky. 'Nakshatras' is the name given to the constellations or mansions of the Moon, as the Moon resides in each of these constellations for one day.
Predictive technique Based on a person's moon Nakshatra at the time of birth, is most accurate as compared to other forms of astrology.
The Nakshatras are classified in various ways, according to basic attribute, primary motivation (Kama - sensual desires; Artha - material desires; Dharma - living life based on spiritual principles; Moksha - liberation from birth and death).
In Vedic astrology, for exploring the personality traits the birth star (Nakshatra of the Moon) is taken under consideration primarily. Nakshatra positions of planets are examined in the birth chart as well. The use of Nakshatra is most important in Vedic astrology.
Indian seers say that the Nakshatras represent the abodes into which the fruits of our labor (our Karma) is transferred and stored. The Nakshatras dispense the fruits of Karma, the highest of which is the fruit of our worship and meditation, our spiritual labor of life.
Vedic astrology uses a system of planetary periods called Dasha (Major Period) of various planets based on the Moon Nakshatra at the time of birth. Most important is Vimshottari Dasha, a 120-year-long cycle of planetary positions based upon the birth Nakshatra, stars. The planetary periods of Vedic astrology provide an easy and comprehensive system for judging the effects of planets throughout out our lives. The planetary periods are the most accurate system of how the planets distribute their effects through time and different stages of our lives. The major seven planets plus two lunar nodes are assigned periods ranging from 6 to 20 years.
Since the constellation or nakshatra where moon finds its presence is known as the Janma Nakshatra and as moon influences the mental aspects of the native, nakshatra of the moon thus casts its indelible influence on moon. With each nakshatra having a planetary lord, the placement of the same (planetary lord) determines the initial dasa or 'phase' in the horoscope of a native. Nakshatra lords also play an important role in determining the essential quality of a person besides helping to assess the focal points of his energy and ambition.

Livelihood from planet saturn

An individual experiences these good and bad results in the Dasa Bhukti of the planets posited in different houses of the horoscope. Saturn depicts that particular category of past actions which were undesirable, and for which the individual has to undergo corresponding suffering in this life. Saturn reminds us that one has to pay for his wrong deeds. Through suffering and tribulations Saturn cautions us to avoid recurrence of past mistakes and follow the right path in present life. Saturn is described as a natural malefi c and evil planet that produces misery and suffering. But a strong, unaffl icted and well aspected Saturn helps the native attain high position, authority and prosperity as reward for his past good deeds. Benefi c aspect of Jupiter, Venus and unaffl icted Mercury augments the result. Saturn protects the house where posited and harms those receiving his 7th, 3rd and 10th aspect. He also infl uences the 2nd and 12th houses from his location in the horoscope. Saturn gives good result for those born in Capricorn and Aquarius Lagna ruled by him, in Sagittarius and Pisces Lagna ruled by Jupiter and the best result as Yogakaraka (by owning Kendra and Trikona houses) for Libra and Taurus Lagna ruled by Venus. For these Lagnas the evil effect of Sadhesati is also moderate. Saturn's highest exaltation is in Libra at 200 and deepest debilitation at 200 Aries. When occupying his own or exaltation sign in Kendra, Saturn forms 'Sasa' Mahapurusha yoga which confers high status, good wealth, name and fame on the individual. Saturn controls human life for better or worse from 36th year onwards. Saturn when posited in Capricorn, Aquarius, Taurus, Libra, Sagittarius and Pisces Lagna gives good personality, wealth, status and prosperity. In other Lagna it gives disease of old age in youth and the native looks older than his or her age. His location is considered good in Upachaya (3rd, 6th, 10th and 11th) houses. Among these his location is considered better in the 6th house from where he aspects the 8th, 12th, and 3rd house and curtails evil effect of these houses. As an exception to the maxim 'karako Bhava Nashaya', Saturn's location in 8th house bestows long life with some impediments. The influence of Saturn on 10th house makes the native hard worker. Retrograde Saturn in 6th, 8th and 12th house causes much suffering to the native. Strong Saturn gives success and elevates the native in life, while weak Saturn causes misery and suffering. when Saturn is strong and well placed in the horoscope, it indicates that the individual has well disciplined approach to creative activity and he fi nds life most rewarding. A weak and ill placed Saturn causes failure, miseries and low status in life. A large majority of people are born with weak or affl icted Saturn. Such individuals resist changes in life without trying to understand these. Instead of hard work they try shortcuts for success and stumble upon failure. Through these failures and losses Saturn teaches the real meaning of life. Astrological treatises have eulogised strong Saturn as signifi cator of 10th house which relates to one's profession. According to Saravali (Ch.30.83) "If Saturn joins the 10th house one will be rich and learned .... He will be courageous and leader of a group, village or city." phaladeepika (Ch.8.22) states: "The person having Saturn in the 10th house will be a King or Minister. He will be brave, wealthy and famous." Similarly, Jatak Parijat (Ch.8.92) states;" If Saturn is posited in the 10th house, one is a punishing offi cer, wealthy, courageous and important in his family." The placement of Saturn in the horoscope at birth, and its interaction with other planets gives a fair idea about that individual's profession and means of livelihood. For example, Aries sign represents machinery, tools, factory, fi re, undeveloped land, etc. when Saturn is placed in Aries, the profession is connected with one or the other attributes of this sign. The planets placed with Saturn, in the 2nd, 12th and 7th house from his location have a direct bearing on the activities connected with one's occupation. Saturn as a signifi cator for means of livelihood interacts fi rst with the planet placed in the house next to his own location. Planets aspecting Saturn and those aspected by Saturn also shape an individual's profession. More the number of planets interacting with Saturn, more complex would be the the professional career. The result of Saturn in different signs is as under : Saturn in Aries : Saturn is debilitated here. In keeping with the traits of aries, the native is engaged in factory, machinery, metal and engineering work involving physical labour and less return. Saturn in Taurus : This indicates enough earning through soft work, such as fi nance, banking or trading in luxury goods. Saturn in Gemini : The individual earns through intellectual pursuits like journalism, accountancy, auditing, business, trade and communication work. He gets cooperation from friends. Saturn in Cancer : It indicates work connected with art, writting, travel, water, milk, liquids and sea-borne items. Saturn in Leo : It indicates government employment or some administrative work. As ruler of Leo sign Sun is inimical to Saturn, the individual has to struggle initially in his profession, unless Saturn is associated with or aspected by Jupiter, Venus or unaffl icted Mercury. Saturn in Virgo : One earns through intellectual pursuits, commerce, accountancy, real estate and brokerage. He is very practical in business. Saturn in Libra : Exalted Saturn gives good profession, fame, status and wealth, when not conjoined with or aspected by Mars or Ketu. Lawyers and judges have Saturn in Libra. The person may earn through banking, luxury items, any soft work or as cinema or T.V. artist. Saturn in Scorpio : Saturn is uncomfortable here. The native may work in concerns in mines, minerals, engineering and agriculture involving physical energy and manual work. Saturn in Sagittarius : The native is engaged in prestigeous profession related to law, administration or religion. He may earn through forest service and spiritual activities. Saturn in Capricorn : The native earns through service, travelling, sales, liaison work or food realted business. Saturn in Aquarius : The native may work as manager, teacher, researcher, astrologer, advisor or guide in independent capacity. Saturn in Pisces : The native is successful in the fi eld of law, medicine or religion and works as administrator, doctor, lawyer or teacher in respctable position. The above tendencies prevail when Saturn is associated with these sign lords by conjuction, placement in adjoining (2/12) houses, and in the 7th house from his location. A powerful Venus placed in 2nd to Saturn indicates that prosperity in profession would follow after marriage. Jupiter in 2nd house to Saturn indicates that the career would begin at a higher level, and when there is no planet between Saturn and Jupiter, then the road to success is smooth and clear. Rahu in 2nd to Saturn indicates that the person will have to start his career at lower level and struggle in the initial stages. Ketu in 2nd to Saturn causes a pull back in position, but this lacation is good for spiritual achievement. Saturn's association with Mercury or Saturn in 2nd to Mercury is an indication of initial impediments in career. When Saturn is associated with Mars or Rahu (either by conjuction or in 2nd or 7th house) then that individual faces diffi culties in the early stages of profession. He works hard without job satisfaction, irrespective of the grade he makes in his career. When the adjoining houses to Saturn are unoccupied and Mars is placed in 7th house to Saturn, the individual has to struggle in initial stages and work hard for progress. Saturn-Rahu combination, especially in 9th house, produces severe setbacks in the life of the native and his father. Their combination in 6th, 8th or 12th house produces many scandals in the life of the native. Saturn-Mars conjuction in 5th, 8th and 12th produces very bad result. When Saturn is in direct opposition to the Sun and devoid of Jupiter's aspect, the native makes his living by coming in contact with low people and using clandestine means. Their opposition is very bad. It causes differences with father and those in authority causing fall in status. Saturn-Sun conjunction ruins paternal affection and success in life. For political success it is essential that Saturn favourably infl uences 10th house and gets the support of the Sun, Mars and Jupiter. When Jupiter, Venus or unaffl icted Mercury is posited in 2nd, 7th or in trine or 10th to Saturn, the individual enjoys regular fl ow of money through comfortable profession. The result of Saturn's connection with other planets is as under : Saturn and Sun : It indicates government connection, trade in metals or politics. Success comes after much effort and struggle. Aspect of Jupiter, Venus and unaffl ictd Mercury makes life easy. Saturn and Moon : This involves travelling, writing and liquids. There is diffi cult childhood, problem to mother, fl uctuation of mind and repeated changes in career. Saturn and Mars : As these are inimical to each other, the individual has problem in career connected with metal, machinery or engineering. Aspect of jupiter and other benefi cs increases gains, and gives land and property. Saturn and Mercury : It gives profession related to trade, writing and law, involving intelligence and tact. The aspect of benefi cs makes earning easy. Saturn and Jupiter : It gives independent career and good status. The person enjoys lot of respect in the society. Successful persons are born with Saturn and Jupiter conjunction in Trines. Saturn and Venus : The native has success after marriage. He enjoys good fortune in the fi eld of banking and business. The Transit of Saturn, Jupiter and Venus over the combination or in trine or in 7th therefrom gives increase in income and prosperity. Saturn and Rahu : It indicates profession connected with vehicle, printing press and films with low grade beginning and dissatisfaction from the job. Saturn and Ketu : Ketu is inimical to Saturn. It indicates maximum work and minimum salary. The native works in small concern. Experience in life turns him to spiritualism. The result of more than one planet with Saturn can be assessed on the basis of above indications. Besides the loacation, strength and interaction of Saturn with other planets in the horoscope, we should also look up the strength of and benefi c infl uence on, the 10th house and its lord for successful career. When the 10th lord is weak and affl icted, there will be obstacles and the profession will begin at ordinary level. In addition, presence of Raj Yoga formed by the lords of a Kendra (angle) and Trikona (Trine), Panchmahapurusha Yoga, exalted and Vargottam Planets in the horoscope are positive indications. The absense of good Yogas and presence of bad ones, such as Kemadruma and Dainya Yoga make the native struggle for professional success. The transit of the Sun, Mars, Rahu and Ketu over natal Saturn, Sadhesati, Kantak and Ashtam Shani is the period of struggle and suffering when it occurs during Saturn Dasa or Bhukti.

Sadesati topic of bane or boon in astrology

The name 'Sadesati' sends a chill in the spine of a common man. Most of them take it as a dreadful occurrence and ignore the good qualities of Saturn. Apart from seven and half years transit of Saturn i.e. Sadesati, the Transit of Saturn over the 4th house from the radical Moon i.e. Ardhashtama Shani and over the 8th house from the radical Moon i.e. Asthama Shani are also considered bad. The native born under the above mentioned disposition of Saturn with reference to Moon is likely to suffer maximum during Saturn's transit over the sensitive houses.
Brihat Samhita
During the Saturn's transit over the natal Moon the native concerned will be troubled by poison and fire, separated from one's kith and kins, will wander in foreign countries, will neither have friends nor a house to live in etc.
During Saturn's transit over the 2nd house from the natal Moon, the native will be bereft of happiness and pride. Even if he earns much wealth through many channels, it would not be sufficient to fulfil his needs.
During Saturn's transit over the 4th house from the natal Moon, the native will be separated from his friends, wealth and wife etc. Everything in his mind will be wicked, sinful and crooked.
During Saturn's transit over the 8th house from the natal Moon the native will be without wife and children. He will engage himself in mean activities.
Yavana Jathaka
When Saturn is transiting over the natal Moon, the native has fear of imprisonment. There will be danger from fire and weapons etc. Native will be deceived by others and will have miseries. Native's spouse and child may pass away or leave him alone.
During Saturn's transit over the 2nd house from the natal Moon, native will have excess of expenditure and loss of money.
During Saturn's transit over the 4th house from the natal Moon, native suffers humiliation. He will be running from pillar to post and will always be in difficulties.
During Saturn's transit over the 8th house from the natal Moon, the native suffers a lot.
During Saturn's transit over the 12th house from natal Moon, all endeavours of native fail, his intelligence and skill get diminished. His respect is affected and he suffers humiliation.
Jyotisharnava Navanitam
During Saturn's transit over the natal Moon the native loses his physical energy, mental balance and is troubled from various diseases.
During Saturn's transit over the 2nd house of the natal Moon, the native will be in grief, will incur losses in undertakings. There will be futile wandering.
During Saturn's transit over the 12th house from the natal Moon one will lose his honour, be anguished, will have limited gains. He will be in the grip of strife and penury.
During Saturn's transit over the 4th house from the natal Moon native will have body troubles, mental distress and fear etc.
During Saturn's transit over the 8th house from the natal Moon, native will face obstacles in his undertakings. He will be troubled from diseases, there will be decline in his income etc.
All the three dreadful transit positions of Saturn are dependant upon the placement of Moon in the horoscope, but what will be the exact time of occurrence of above three position is a matter of debate. I will discuss here the starting of Sadesati only and from that, occurrence of Ardhasthama Shani and Ashtama Shani may be ascertained. Most of them consider the starting point of Sadesati on Saturn's entry into 12th house from natal Moon and its ending point with leaving the 2nd house from the natal Moon, thus comprising a cycle of 7½ years spread over the three houses. Some opine that the impact of Sadesati starts when it is 45° away, towards 12th house, from the natal Moon and it ends when Saturn passes 45° from the radical Moon. Both statements seem to be ambiguous and absurd. Since it is a known fact that the occurrence of Sadesati or alike is dependent upon the exact longitude of the Moon. Say in a horoscope Moon's longitude is 3°10' in sign Cancer. Now as per theory No. 1 when Saturn will enter signs Gemini the Sadesati will start and when it is leaving the sign Leo the Sadesati will end. As per theory No. 2, Saturn's entry into a sign 45° prior its placement means when Saturn will be at 18° in sign Taurus the Sadesati will begin and when Saturn will cross 18° in sign Leo the Sadesati will end. Here arises a question that when Moon is pivotal point in deciding the occurrence and ending of sadesati, under the circumstances only Moon's longitude should be a pivot to decide the beginning and ending of Sadesati. As we have taken Moon's longitude as 3s3°10' hence as and when transiting Saturn will be at 2s3°10' it will be the beginning of Sadesati and the ending point should be 5s3°10' will reference to transiting Saturn. This method of calculating Sadesati etc coincides with equal house division as being adopted.

कुंडली में धन योग

धन जीवन की मौलिक आवश्यकता है। सुखमय, ऐश्वर्य संपन्न जीवन जीने के लिए धन अति आवश्यक है। आधुनिक भौतिकतावादी युग में धन की महत्ता इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि धनाभाव में हम विलासितापूर्ण जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते, विलासित जीवन जीना तो बहुत दूर की बात है। यही कारण है कि आज प्रत्येक व्यक्ति अधिकाधिक धन संचय करने के लिए प्रयासरत है। अपने जीवन-काल में किसे कितना धन प्राप्त होगा यह धन कैसे-कैसे साधनों के द्वारा प्राप्त होगा, इन सब संपूर्ण तथ्यों की जानकारी किसी भी जातक की जन्म पत्रिका में उपस्थित ग्रह योगों के आधार पर पूर्णरूपेण प्राप्त की जा सकती है। आइये देखें-कि वह कौन-कौन योग हैं जो किसी भी जातक को धनी, अति धनी अथवा निर्धन बनाते हैं। - ज्योतिष में जन्मकुंडली के द्वितीय भाव को धन भाव, एकादश भाव को लाभ भाव, केंद्र स्थानों (1, 4, 7, 10) को ‘विष्णु’ तथा त्रिकोण स्थानों (1, 5, 9) को लक्ष्मी स्थान माना गया है। - गुरु और शुक्र इन दो ग्रहों को मुख्यतः ‘धन कारक ग्रह’ की संज्ञा दी गई है। कुंडली में उपयुक्त भावों एवं ग्रहों पर शुभ अथवा अशुभ प्रभाव अर्थात् शुभ स्थिति, युति अथवा दृष्टि जातक की धन संबंधी स्थिति को दर्शाती है। ज्योतिष में 2, 6, 10 भावों को ‘अर्थभाव’ की संज्ञा दी गई है अर्थात् ये भाव व्यक्ति की धन संबंधी आवश्कताओं को पूरा करते हैं। - कुंडली का दूसरा भाव परिवार, कुटुंब व संचित धन को दर्शाता है। यदि द्वितीय भाव बलवान होगा तो जातक की धन संबंधी आवश्यकताएं अपने परिवार से प्राप्त हुई धन संपदा से पूर्ण होती रहेंगी। उसे कौटुंबिक संप ही इतनी अधिक मिलेगी कि कुछ और कार्य करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। षष्ठ भाव व्यक्ति की नौकरी व ऋण का द्योतक होता है। जिस जातक की कुंडली का छठा भाव बलवान होगा वह व्यक्ति नौकरी द्वारा धन प्राप्त करेगा अथवा ऋण द्वारा धन प्राप्ति से भी उसके कार्य पूर्ण होते रहेंगे। इसी प्रकार दशम् भाव पर शुभ ग्रहों की युति, दृष्टि अथवा स्थिति उम व्यवसाय द्वारा धन प्राप्त करवाती है। - जब कद्र-त्रिकोण के स्वामी ग्रहों की युति द्वितीय भाव के स्वामी के साथ केंद्र त्रिकोण में अथवा द्वितीय या एकादश भावगत हो तो जातक अति धनी होता है। - बृहत्’ पाराशर होरा शास्त्र’ के अनुसार यदि धनेश तथा लाभेश दोनों एक साथ कंद्र या त्रिकोण स्थानों में हां तो जातक अति धनवान होता है। यदि धनेश चतुर्थ भावगत गुरु से युत अथवा उच्च राशिगत हो तो जातक राजा सदृश धनवान होता है। - धनेश और लाभेश का स्थान परिवर्तन अथवा राशि परिवर्तन योग भी जातक को अति धनी बनाता है। - यदि द्वितीयेश के साथ लग्नेश, चतुर्थेश अथवा पंचमेश का किसी भी प्रकार से संबंध बनता हो तो जातक धनी होता है। - यदि पंचमेश, नवमेश, दशमेश अथवा लाभेश का लग्न, द्वितीय अथवा पंचम, नवम् के साथ युति संबंध बनता हो तो धन योग होता है। - यदि लग्नेश धन भाव में जाकर अपनी उच्चराशि, स्वराशि या मूल त्रिकोण में स्थित होता है तो जातक धनी होता है। - कुंडली में उपचय भावों (3, 6, 10, 11) को ‘वृद्धि स्थान’ कहा गया है अर्थात् यदि लग्न एवं चंद्रमा से उपचय भावों में केवल शुभ ग्रह स्थित हों तो ग्रहों की यह स्थिति ‘वसुमत योग’ का निर्माण करके जातक के धन में उर वृद्धि करती है अर्थात् जातक अतिशय धनी होता है। - यदि कुंडली में ‘पंच महापुरुष योगों’ में से किसी भी योग का निर्माण हो रहा है तथा कुंडली में किसी शाप इत्यादि का दुष्प्रभाव न हो तो जातक अति धनी होता है। - यदि कुंडली में लग्न अथवा चंद्रमा से 6, 7, 8 भावों में शुभ, ग्रह हों तो जातक को ‘लग्नाधियोग’ अथवा ‘चंद्राधियोग’ के शुभ प्रभाव द्वारा अत्यधिक धन की प्राप्ति होती है। - कुंडली में यदि किसी भी प्रकार से ‘विपरीत राजयोग’ का निर्माण हो रहा हो तो भी जातक धनवान होता है। ‘कुंडली में चतुर्थ भाव को गुप्त धन’ प्राप्ति का कारक भाव माना जाता है अर्थात् जब द्वितीयेश अपनी उच्चराशि का होकर चतुर्थ भावगत हो तो जातक को गुप्त धन अथवा छिपे खजाने की प्राप्ति हो सकती है। द्वितीयेश यदि मंगल हो और जन्मपत्रिका में उच्च स्थिति में हो तो ऐसे व्यक्ति को भूमि द्वारा गडे़ धन की प्राप्ति भी हो सकती है। - राहु-केतु को अचानक होने वाली घटनाओं का कारक ग्रह माना गया है। कुंडली में यदि राहु-केतु ग्रहों का संबंध लग्न अथवा पंचम भाव से हो और पंचम भाव अथवा राहु-केतु पर गुरु अथवा शुक्र की शुभ दृष्टि योग भी हो तो जातक को सट्टे अथवा लाॅटरी द्वारा अचानक प्रभूत धन की प्राप्ति होती है। निर्धनता योग - यदि धनेश अथवा लाभेश का किसी भी प्रकार से त्रिक भाव (6, 8, 12) के स्वामियों के साथ संबंध बन जाये तो धन हानि की संभावना बनती है। - मंगल ग्रह का संबंध ज्योतिष में भूमि एवं आवास से माना गया है। अर्थात् मंगल यदि अशुभ होकर हानिभाव में हो अथवा नवमांश में अशुभ प्रभाव में हो तो जातक को भूमि एवं आवास की हानि करवाकर निर्धनता प्रदान करता है। - द्वितीय भाव में स्थित पाप ग्रह अन्य पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो जातक दरिद्र होता है। - गुरु ग्रह यदि द्वितीयेश होकर लाभ भाव में हो किंतु शत्रुराशिस्थ भी हो (वृश्चिक लग्न में), ऐसा होता है तो जातक के पास धन तो होगा किंतु उसके परिवारजनों के द्वारा व्यर्थ में खर्च किया जायेगा, जिस कारण व्यक्ति धन की कमी महसूस करता रहेगा। - लग्नेश, द्वितीयेश, लाभेश तथा सूर्य एवं चंद्रमा पर जितना अधिक अशुभ प्रभाव होगा जातक उतना ही निर्धन अथवा धनाभाव से ग्रस्त होगा। धनदायक महादशा-अंतर्दशा: - धनेश की दशा में लाभेश की अंतर्दशा अथवा लाभेश की दशा में धनेश की अंतर्दशा निश्चित रूप से धनदायक सिद्ध होती है। - यदि लग्नेश का धन भाव से संबंध हो तो दोनों की दशा-अंतर्दशा में धन प्राप्ति संभव है। - केंद्रस्थ राहु-मुख्यतः यदि राहु 1, 4, 7, 10 में मेष या वृश्चिक राशि में स्थित हो तो ‘महर्षि पराशर’ के अनुसार राहु की महादशा विशेष धनदायक होती है। - शुक्र और गुरु ग्रह पर अशुभ प्रभाव न हो तो दोनों की दशांतर्दशा में भी जातक को अकूत धन संपदा की प्राप्ति होती है। अतः स्पष्ट है कि जिस जातक की जन्मपत्रिका में उपर्युक्त धन योग जितनी अधिक मात्रा में होंगे वह व्यक्ति उतना ही धनी होगा। साथ ही यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यदि कुंडली में शुभ धन योगों की अपेक्षा निर्धनता योग अथवा धनहानि योग अधिक बलवान है तो जातक को निर्धनता का सामना भी करना ही पड़ेगा। कुंडली में उपर्युक्त ग्रह योगों के बलाबल का उचित ज्योतिषीय विश्लेषण करने के उपरांत ही किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। यदि ये सभी धनयोग अति प्रबल हैं तो जातक अतिशय धनी होगा किंतु यदि दरिद्रता योग अधिक बलवान है तो जातक कतिपय उपायों के द्वारा ही अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार सकता है साथ ही ऐसी स्थिति में धन प्राप्ति के लिए लक्ष्मी जी की अनुकम्पा भी अति आवश्यक है।

कुंडली में ग्रहण योग

काल सर्प योग की अशुभता को बढ़ा देता है ग्रहण योग । इस योग का विस्तृत फल भी प्राप्त होता है क्योंकि यह योग कालसर्प योग की अशुभता को बढ़ा देता है। परंतु किस हद तक, इसका पूर्ण विवेचन जानने के लिए पढ़िए यह लेख। सूर्य सिद्धांत के अनुसार सूर्य से 6 राशि के अंतर अर्थात 1800 अंश की दूरी पर पृथ्वी की छाया रहती है। पृथ्वी की छाया को भूच्छाया, पात या छाया ग्रह राहु, केतु भी कहते हैं। पूर्णिमा की रात्रि के अंत में जब चंद्रमा भूच्छाया में प्रवेश कर जाता है तो चंद्रमा का लोप हो जाता है। इस खगोलीय घटना को खग्रास (पूर्ण) चंद्र ग्रहण कहते हैं। चंद्र ग्रहण के समय पृथ्वी, सूर्य व चंद्रमा के मध्य में आ जाती है, इस कारण पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ती है जिससे चंद्रमा आच्छादित हो जाता है। जब भूछाया से चंद्रमा का कुछ हिस्सा ही आच्छादित होता है तो इसे खंडग्रास चंद्र ग्रहण रहते हैं। पूर्णिमा तिथि के अंत में सूर्य व पात का अंतर 90 के भीतर रहने पर चंद्र ग्रहण अवश्य होता है। तथा 90 से 130 अंशों के बीच अंतर रहने पर भी कभी चंद्र ग्रहण होने की संभावना रहती है। दिनांक 15 जून 2011 को सूर्य व पात बिंदु (केतु) वृषभ राशि में 290 अंशों पर अर्थात् एक समान राशि अंशों पर रहेंगे तथा राहु 290 अंश व चंद्रमा 190 अंश पर वृश्चिक राशि में रहेंगे। अर्थात चंद्रग्रहण के समय राहु-चंद्र के मध्य सिर्फ 100 अंश का अंतर रहेगा। सूर्य ग्रहण : अमावस्या के दिन जब सूर्य की राहु या केतु से युति हो तथा सूर्य से राहु या केतु का अंतर 150 अंश से कम हो तो अवश्य ही सूर्य ग्रहण होता है। और 180 अंशों के अंतर पर कभी-कभी सूर्य ग्रहण संभावित रहता है। इससे अधिक अंतर पर ग्रहण नहीं होता है। सूर्य ग्रहण के समय सूर्य बिंब के आच्छादित होने का तात्पर्य यह लगाया जाता है कि राहु/केतु ने सूर्य को ग्रस लिया है। पृथ्वी के जिस हिस्से में सूर्य ग्रहण दिखाई देता है, उस हिस्से पर राहु-केतु का अधिक कुप्रभाव पड़ता है। ग्रहण का शुभाशुभ प्रभाव : महर्षि वशिष्ठ के अनुसार जिनकी जन्मराशि में ग्रहण हो, उन्हें धन आदि की हानि होती है। जिनके जन्मनक्षत्र पर सूर्य या चंद्र ग्रहण हो, उन्हें विशेष रूप से भयप्रद रोग व शोक देने वाला होता है। महर्षि गर्ग के अनुसार अपनी जन्मराशि से 3, 4, 8, 11 वें स्थान में ग्रहण पड़े तो शुभ और 5, 7, 9, 12 वें स्थान में पड़े तो मध्यमफल तथा 1, 2, 6, 10 व स्थान में ग्रहण अनिष्टप्रद होता है।'' इस प्रकार जन्म राशि में ग्रहण का होना सर्वाधिक अनिष्टप्रद होता है। जन्मकुंडली में ग्रहण योग : 1. जिस जातक की जन्मकुंडली में चंद्रमा की राहु या केतु से युति हो उस जातक की कुंडली में ग्रहण योग होता है। 2. सूर्य, चंद्र और राहु या केतु यह तीन ग्रह यदि एक ही राशि में स्थित हों तो भी ग्रहण योग होता है। यह योग पहले वाले योग से अधिक अशुभ है क्योंकि इसमें चंद्र व सूर्य दोनों ही दूषित हो जाते हैं। 3. ग्रहणकाल में अथवा ग्रहण के सूतक काल में जन्म लेने वाले जातकों के जन्मस्थ सूर्य व चंद्रमा को राहु-केतु हमेशा के लिए दूषित कर देते हैं। 4. राहु-केतु की भांति सूर्य या चंद्रमा से शनि की युति को भी बहुत से आचार्य ग्रहण योग मानते हैं। प्रभावी ग्रहण योग : 1. तुला राशि को छोड़कर अन्य किसी भी राशि में यदि युवावस्था (100 से 220 अंश) का सूर्य हो तथा उसकी राहु या केतु से युति हो तो ऐसा ग्रहण योग प्रभावहीन होता है क्योंकि प्रचंड किरणों वाले सूर्य के सम्मुख छाया ग्रह (राहु-केतु) टिक ही नहीं सकते तो फिर ग्रहण क्या लगाएंगे? कृष्ण पक्ष की चतुर्दर्शी, अमावस्या और शुक्ल प्रतिपदा को ही राहु-केतु प्रभावी रहते हैं। 2. कर्क या वृषभ राशि में शुक्लपक्ष का बलवान चंद्रमा हो तथा ग्रहणकाल का जन्म न हो तो चंद्र+राहु या केतु की युति से बनने वाला ग्रहण योग अप्रभावी रहता है अर्थात अनिष्ट प्रभाव नहीं देता है। ग्रहण योग का फल : 1. जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में ग्रहण योग होता है, वह व्यक्ति अपने जीवन में अनेक बाधाओं व कष्टों से दुखी रहता है। उसे शारीरिक, मानसिक या आर्थिक परेशानी बनी रहती है। 2. जिस भाव में ग्रहण योग होता है, उस भाव का शुभफल क्षीण हो जाता है। तथा ग्रहणशील सूर्य, चंद्र जिस भाव के स्वामी होते हैं, उस भाव से संबंधित वस्तुओं की हानि होती है। 3. यदि चंद्रमा राहु की युति हो तो जातक बहुत सी स्त्रियों के सेवन का इच्छुक रहता है। वृद्धा स्त्री और वैश्य से भी संभोग करने में नहीं हिचकिचाता है। ऐसा व्यक्ति चरित्रहीन, दुष्ट स्वभाव का, पुरुषार्थहीन, धनहीन व पराजित होता है। यदि चंद्र-केतु की युति हो तो जातक आचार-विचार से हीन, कुटिल, चालाक, प्रतापी, बहादुर, माता से शत्रुता रखने वाला व रोगी होता है। ऐसा जातक चमड़ा या धातु से संबंधित कार्य करता है। 5. जिनकी जन्म कुंडली में सूर्य, चंद्र, राहु एक ही राशि में बैठे हों वह पराधीन रहने वाला, काम-वासना से युक्त, धनहीन व मूर्ख होता हैं 6. सूर्य, चंद्र, केतु की युति हो तो वह पुरुष निम्न दर्जे का इंजीनियर या मैकेनिक होता है, लज्जाहीन, पाप कर्मों में रत, दयाहीन, बहादुर व कार्यकुशल होता है। ग्रहण योग व कालसर्प दोष का अशुभ फल राहु या केतु की दशा या अंतर्दशा में प्राप्त होता है अथवा राहु-केतु से संबंधित ग्रह की दशा या अंतर्दशा में प्राप्त होता है अथवा गोचरीय राहु-केतु जिस समय जन्मस्थ राहु-केतु की राशि में संचार करते हैं, उस समय कालसर्प व ग्रहण योग का फल प्राप्त होता है। इन अशुभ योगों की शांति में महामृत्युंजय मंत्र का जाप एवं श्री रुद्राभिषेक कारगर है। ग्रहणयोग कालसर्प दोष को भयानक बनाता है : 1. यदि जन्मकुंडली में कालसर्प दोष है तथा राहु-केतु की अधिष्ठित राशियों में सूर्य चंद्र भी बैठे हों तो इस ग्रहण योग की स्थिति में कालसर्प दोष और भी भयानक अर्थात् अनिष्टप्रद हो जाता है। 2. कालसर्प दोष तभी मान्य होगा जब कुंडली में ग्रहण योग हो। एक ही राशि में चंद्रमा और राहु या केतु 130 अंश से कम अंतर पर बैठे हों। अथवा सूर्य की राहु या केतु से युति 18' अंश से भी कम अंतर पर हो। 3. कालसर्प दोष में यह आवश्यक है कि उस कुंडली में ग्रहणयोग भी हो। कालसर्प योग में राहु-केतु अपने साथ स्थित ग्रहों को एवं उनकी वक्र गति में आने वाले (राहु-केतु से 12 वें स्थान में स्थित) ग्रहों को दूषित कर देते हैं। यह कालसर्प योग/दोष की सीमा है। 4. यदि किसी जन्मकुंडली में आंशिक कालसर्प योग हो किंतु पूर्ण ग्रहण योग हो तो राजयोग प्रदायक सूर्य या चंद्र के दूषित होने के कारण कालसर्प योग अशुभ फल देता है। 5. यदि राहु-केतु केंद्र स्थान में हो तथा ग्रहण योग हो और कालसर्प भी हो तो कालसर्प दोष सर्वाधिक अशुभ हो जाता है क्योंकि केंद्रीय भावों में सभी पापग्रहों के होने से प्राचीन सर्पयोग होता है। सर्पयोग में उत्पन्न जातक दुखी, दरिद्री, परस्त्रीगामी, कामी, क्रोधी व अदूरदर्शी होता है।

अंतर्जातीय विवाह का ज्योतिष्य कारण

भारतीय समाज में विवाह एक संस्कार के रूप में माना जाता है। जिसमें शामिल होकर स्त्री पुरुष मर्यादापूर्ण तरीके से अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर वंशवृद्धि या अपनी संतति को जन्म देते हैं। सामान्यतः विवाह का यह संस्कार परिवारजनों की सहमति या इच्छा से अपनी जाति, समाज या समूह में ही किया जाता है। पर फिर भी हमें ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां विवाह परिवार की सहमति से ना होकर स्वयं की इच्छा से किया जाता है। पूर्व समय में प्रेम सम्बन्ध या यौन आकर्षण विवाह सम्बन्ध के बाद ही होता था परंतु आज के इस भागते-दौड़ते कलयुग में विवाह के पूर्व स्त्री पुरुष के बीच प्रगाढ़ परिचय व आकर्षण हो जाने पर उनमें प्रेम सम्बन्ध हो जाते हैं जिनके विषय में मनु महाराज की उक्ति बिल्कुल सटीक बैठती है। इच्छायान्योन्य संयोगः कान्याश्च वरस्य। गंधर्वस्य तू विषेयः मैथुन्यः कामसंभव।। अर्थात स्त्री पुरुष रागाधिक्य के फलस्वरूप स्वेच्छा से परस्पर संभोग करते हैं जिसे (शास्त्रों में) गंधर्व विवाह कहा जाता है। इस सम्बन्ध में स्त्री पुरुष के अतिरिक्त किसी की भी स्वीकृति जरूरी नहीं समझी जाती है। अब चूंकि भारतीय समाज इस तरह के जीवन को अनुमति नहीं देता है तो ऐसा जीवन जी रहे स्त्री पुरुष को समाज की स्वीकार्यता हेतु मजबूरी वश वैवाहिक संस्कारों के तहत इसे अपनाना पड़ता है जिसे वर्तमान में प्रेम विवाह कहा जाता है। प्रेम विवाह या गंधर्व विवाह के कई कारण हो सकते हैं परंतु यहां केवल ज्योतिषीय दृष्टि से यह जानने का प्रयास करेंगे कि ऐसे कौन से ग्रह या भाव होते हैं जो किसी को भी प्रेम या गंधर्व विवाह करने पर मजबूर कर देते हैं। भाव- लग्न, द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम व द्वादश ग्रह- मंगल, गुरु व शुक्र लग्न भाव- यह भाव स्वयं या निज का प्रतिनिधित्व करता है जो व्यक्ति विशेष के शरीर व व्यक्तित्व के विषय में सम्पूर्ण जानकारी देता है। द्वितीय भाव- यह भाव कुटुंब, खानदान व अपने परिवार के विषय में बताता है जिससे हम बाहरी सदस्य का अपने परिवार से जुड़ना भी देखते हैं। पंचम भाव- यह भाव हमारी बुद्धि, सोच व पसंद को बताता है जिससे हम अपने लिए किसी वस्तु या व्यक्ति का चयन करते हैं। सप्तम भाव- यह भाव हमारे विपरीत लिंगी साथी का होता है जिसे भारत में हम पत्नी भाव भी कहते हैं इस भाव से स्त्री सुख देखा जाता है। नवम भाव- यह भाव परंपरा व धार्मिकता से जुड़ा होने से धर्म के विरुद्ध किए जाने वाले कार्य को दर्शाता है। द्वादश भाव- यह भाव शयन सुख का भाव है। ग्रह- मंगल यह ग्रह पराक्रम, साहस, धैर्य व बल का होता है जिसके बिना प्रेम सम्बन्ध बनाना या प्रेम विवाह करना असम्भव है क्योंकि प्रेम की अभिव्यक्ति साहस, बल व धैर्य से ही सम्भव है। शुक्र- यह ग्रह आकर्षण, यौन, आचरण, सुन्दरता, प्रेम, वासना, भोग, विलास, ऐश्वर्य का प्रतीक है जिसके बिना सम्बन्ध हो ही नहीं सकते । गुरु- यह ग्रह स्त्रियों में पति कारक होने के साथ साथ पंचम व नवम भाव का कारक भी होता है साथ ही इसे धर्म व परंपरा के लिए भी देखा जाता है। प्रेम विवाह के सूत्र वैसे तो बहुत से बताए गए हैं परन्तु हमने अपने शोध में जो सूत्र उपयोगी पाये या प्राप्त किए वह इस प्रकार से हैं: 1. पंचम भाव/पंचमेश का मंगल/शुक्र से सम्बन्ध। 2. पंचम भाव/ पंचमेश, सप्तम भाव/सप्तमेश का लग्न/लग्नेश या द्वादश भाव/द्वादशेश से सम्बन्ध। 3. लग्न, सूर्य, चन्द्र से दूसरे भाव या द्वितीयेश का मंगल से सम्बन्ध। 4. पंचम भाव/पंचमेश का नवम भाव/ नवमेश से सम्बन्ध। 5. पंचम भाव/पंचमेश, सप्तम भाव/सप्तमेश,नवम भाव/नवमेश का सम्बन्ध। 6. एकादशेश का/एकादश भाव में स्थित ग्रह का पंचम भाव/सप्तम भाव से सम्बन्ध और शुक्र ग्रह का लग्न या एकादश भाव में होना। 7. पंचम-सप्तम का सम्बन्ध 8. मंगल-शुक्र की युति या दृष्टि सम्बन्ध किसी भी भाव में होना। 9. पंचमेश-नवमेश की युति किसी भी भाव में होना। अंतर्जातीय विवाह में इन सूत्रों के अलावा ये चार सूत्र भी सटीकता से उपयुक्त पाये गए। 1. लग्न, सप्तम व नवम भाव पर शनि का प्रभाव। 2. विवाह कारक शुक्र व गुरु पर शनि का प्रभाव। 3. लग्नेश/सप्तमेश का छठे भाव/षष्ठेश से सम्बन्ध-अंतर्जातीय विवाह से शत्रुता या विवाद का होना आवश्यक होता है जिस कारण छठे भाव का सम्बन्ध लग्नेश या सप्तमेश से होना जरूरी हो जाता है। 4. द्वितीय भाव में पाप ग्रह।

मन में अहंकार पैदा क्यों ?????

जब मन को किसी गलत विक्षिप्तताओं क्रोध, घृणा, ईष्र्या, लालच में अधिक लंबाई तक खींचा जाता है तो मन में अहंकार पैदा होने लगता है। मन में पहले बड़े अहंकार आने लगते हैं जो कि स्थाई होते हैं। फिर धीरे-धीरे सूक्ष्म अहंकार आने लगते हैं जो कि हमें दिखाई नहीं देते हैं और पता भी नहीं चलता है। ये सूक्ष्म अहंकार हमारे शरीर में चल रही हार्मोनिक क्रियाओं पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं और शरीर की व्यवस्थाओं में बिखराव पैदा करना शुरू कर देते हैं। इस बिखराव के द्वारा शरीर की उपापचीय क्रियाएं गड़बड़ाने लगती हैं और धीवैज्ञानिकोंता है| कैंसर वह कोशिका है जो लगातार बढ़ती रहती है और आस-पास की स्वस्थ कोशिकाओं से अपना पोषण प्राप्त करती रहती है। इस कैंसर कोशिका का शरीर के लिए कोई उपयोग नहीं है। यह कैंसर कोशिका पूरे शरीर पर आक्रमण कर व्यक्ति को मौत के मुंह तक ले जाती है। इसी प्रकार का एक कैंसर मन में पाया जाता है और वैज्ञानिक मान भी चुके हैं कि शरीर में जो कैंसर हुआ है उसका 80 प्रतिशत कारण मन से है और सत्य भी यही है, कैसा भी कैंसर हो शुरूआत मन से ही होती है। तन का कैंसर हम सभी को दिखाई देता है पर मन का कैंसर शायद खुद को भी दिखाई नहीं देता है। जब मन का कैंसर तन के रूप में प्रकट होने लगता है तब हमें कैंसर दिखाई देता है। क्या मन इतना प्रभावशाली होता है कि वह शरीर पर प्रकट हो जाये- शरीर पर जो भी प्रकटता है वह मन ही है। जैसा मन होता है वैसा ही चेहरा होगा, व्यवहार होगा, आवाज होगी, सब कुछ मन का ही रूप है। मन का व्यवहार हमारे शरीर की सूक्ष्म से सूक्ष्म कोशिका पर भी अपना प्रभाव छोड़ता है। मन प्रभावशाली ही नहीं शक्तिशाली भी होता है जोकि किसी भी शारीरिक बीमारी से लड़ने की स्वयं क्षमता पैदा कर सकता है। मन की शक्ति इतनी होती है कि किसी भी शारीरिक बीमारी से लड़ने की स्वयं क्षमता पैदा कर सकती है। मन की शक्ति इतनी होती है कि वह मस्तिष्क को आज्ञा देकर किसी भी रोग के एंटीजन व एंटीबाडीज के निर्माण की क्षमता विकसित करवा दे। मन का संपूर्ण मस्तिष्क पर एकाधिकार होता है। मन के व्यवहार से मस्तिष्क की सभी क्रियाएं संचालित होती हैं और मस्तिष्क की कार्य प्रणाली शरीर के रूप में प्रकट होती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि मानव के गुणसूत्रों में करीब 3 अरब जीन के जोड़े होते हैं जिनमें से करीब 1 लाख के आस-पास सक्रिय होकर मानव के कार्यों, गुणों संरचना को नियंत्रित करते हैं। इन सभी जीनों के पास अपनी सूचनाएं निहित होती हैं जिनमें उनके कार्य सम्मिलित होते हैं। इन सभी जीनों का निर्धारण न्यूरोन्स (तंत्र कोशिकाओं) के माध्यम से मस्तिष्क के पास होता है। मस्तिष्क यह तय करता है कि किस जीन को कौन सा कार्य करना है और कब करना है और यह सब एक नैसर्गिक प्रक्रिया के तहत चलता रहता है। जब इस नैसर्गिक प्रक्रिया को विक्षिप्त मन के माध्यम से छेड़ा जाता है तो यह प्रक्रिया गड़बड़ाने लगती है और जीन अपना कार्य बदलकर अन्य कार्य में लग जाते हैं और शरीर बीमार हो जाता है। मन की विक्षिप्ततायें कैसे रोग पैदा करती है मन की विक्षिप्ततायें ही रोग पैदा करती हैं। जैसे समझें, मन में जब लालच आता है कि मेरे पास अधिक होना चाहिए चाहे वह रूपया हो, मकान हो या कोई वस्तु, जब लालच आता है तो उसके साथ-साथ क्रोध, घृणा व ईष्र्या भी आ जाती है। कारण साफ है लालच तभी तो पैदा होगा जब हमारे पास कम होने की ईष्र्या होगी। जब ईष्र्या होगी तो घृणा भी होने लगेगी। इस घृणा को भरने के लिए मन अधिक की चाह करने लगता है और चाहिए- और चाहिए कितना भी मिल जायेगा बस चाहिये ही चाहिए। यही स्वरूप कैंसर का है। यदि गांठ को पूरी तरह काट दिया तो ठीक नहीं तो उसकी एक कोशिका फिर गांठ बन जाती है। यही लालच का स्वरूप है। लालच को जड़ मूल से नष्ट कर दिया तो ठीक नहीं तो थोड़ा सा बचा रह गया तो फिर वह धीरे-धीरे वही रूप ले लेता है। लालच बढ़ते-बढ़ते हुआ आसक्ति व अहंकार में परिवर्तित होता है जोकि मन में कैंसर का विकराल रूप है। यदि यह बढ़ता रहे तो शरीर में अपना बाह्य प्रक्षेपण देता है। क्या अहंकार का ग्रंथियों द्वारा स्रावित हार्मोनों पर प्रभाव पड़ता है हां बिल्कुल प्रभाव पड़ता है। कारण साफ है, सहज स्थिति में ग्रंथि व अन्य क्रियायें अच्छी तरह कार्य करती हैं। जब इन ग्रन्थियों पर किसी भी तरह का दबाव या तनाव पड़ता है तो यह अपने स्वाभाविक रूप में कार्य नहीं कर पाती है और अपने द्वारा स्रावित हार्मोनों के प्रभाव को बिगाड़ देती है फलस्वरूप स्रावित होने वाले हार्मोन असंतुलित हो शरीर को रूग्ण व बीमार कर देती है। मन का सीधा संबंध मस्तिष्क से होता है और स्रावी ग्रन्थियों का भी सीधा संबंध मस्तिष्क से होता है। जब मन में कोई भी ऐसा विचार आता है जहां तनाव, क्रोध, लोभ, ईष्र्या, घृणा आदि पनपते हैं तो मष्तिष्क के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की कोशिकायें सिकुड़ जाती हैं। फलस्वरूप उनको आक्सीजन की सप्लाई में बाधा पहुंचना शुरू हो जाता है। आक्सीजन की कमी अंतःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा स्रावित हार्मोनों के स्राव में तेजी से बदलाव कर शरीर व मस्तिष्क की कार्य प्रणाली में व्यवधान पैदा करती है जो कि जीन परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है। जीन परिवर्तन की वजह से ही शरीर का कैंसर बनता है। आखिर यह मन का अहंकार क्या है- मन का अहंकार एक प्रकार से मन का वह नकारात्मक विचार है जो मन की नकारात्मक सोच को अपने अनुरूप इस प्रकार ढाल लेता है कि वह उसे अच्छा मानता है और मन के अनुरूप कार्य करवाता रहता है। जब मन में अहंकार आने लगता है तो अहंकार के पीछे से कई ऐसे विचार स्वयं ही आ जाते हैं जो हमें शुरूआत में तो पता नहीं लग पाते हैं पर भयंकर ही खतरनाक होते हैं। अहंकार विक्षिप्त मन का बीज है जिसके फल अत्यंत दुखदायी व खतरनाक हैं। आखिर अहंकार आता कहां से है- अहंकार एक मन का विकार है जो मनुष्य के मन में ही स्वयं उपजता है। जब अहंकार आता है तो व्यक्ति को स्वयं पता लग जाता है कि मुझमें अहंकार जाग रहा है। यदि उस समय सचेत रहें तो अहंकार धीरे-धीरे विदा होने लगता है। यदि इस समय गुबार में भरे रहे तो यह अपनी सीमायें लांघकर अन्य मानसिक विकारों को जन्म देता है। अपनी बात पर अड़े रहना, अपने को सही सिद्ध करना, गलती करने पर स्वीकार नहीं करना, गलत के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराना, मैं सही हूं यह भ्रम पैदा हो जाना, मेरा कैसे लाभ हो मुझे कैसे फायदा पहुंचे। यह शुरूआती अहंकार है जो बढ़ता हुआ और सूक्ष्म अहंकारों को जन्म देता है। क्या इस रोग का उपचार है जब रोग है तो इसका उपचार भी है। बस समझ आ जाये कि कहीं कैंसर की शुरूआत मन से तो नहीं हुई। यदि नहीं भी समझ में आये तो उपचार तो मन से ही शुरू होगा। तन का उपचार मात्र 20 प्रतिशत प्रभावकारी है, 80 प्रतिशत मन का ही उपचार प्रभावकारी है। कैंसर की स्थिति में आपका मनोबल ऊंचा, मन साफ, स्वच्छ, निर्मल है तो मन की क्रियाएं नैसर्गिक होने लगती हैं, आहार प्राकृतिक होने लगता है व्यवहार में आसक्ति का व्यवहार कम होने लगता है। मौत के प्रति जो भय था वह कम होने लगता है और शरीर स्वतः ही धीरे-धीरे एण्टीबाडीज डवलप करने की क्षमता विकसित करने लगता है जिससे आप कैंसर से लड़ सकें। वैज्ञानिकों के पास कई प्रमाण हैं कि व्यक्ति को कैंसर होते हुये भी वह वर्षों तक स्वस्थ जीया। जब उसे मौत आई तब कैंसर उसका कारण नहीं था वह एक प्राकृतिक मौत थी। फिर मन को मजबूत कैसे किया जाये मन को आसानी से मजबूत किया जा सकता है। मन की सबसे अच्छी खुराक है सहज स्वाभाविक स्थिति में रहना व कुछ नियमों का पालन करना। 1. स्थिति जैसी है उसे स्वीकार करना। 2. स्थिति व परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढालना 3. मन में जो चल रहा है उसे स्वीकार करना। 4. गलती हुई है तो उसे स्वीकार कर फिर न दोहराना यदि नियमित रूप से ध्यान व त्राटक का अभ्यास किया जाये तो मन की सफाई काफी हद तक की जा सकती है। गलत ईच्छाओं को पहचानने की कोई जरूरत नहीं है। यदि आप नियमित रूप से अपने मन की सफाई करते रहेंगे तो गलत ईच्छाएं, गलत विचार अपने आप ही स्वयं विदा होते रहेंगे। मन की सफाई 1. मस्तिष्क को आक्सीजन की अत्यंत जरूरत होती है, अतः नियमित रूप से नाड़ी शोधन, प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम, अनुलोम प्राणायाम, शवासन, मकरासन, आनापान करें ताकि मन चुस्त-दुरूस्त रहे। 2. आहार में हल्के सुपाच्य आहार लें जैसे अंकुरित अन्न, मौसम के फल सब्जी, मिक्स रोटी आदि। 3. प्रकृति के सान्निध्य में रहें। अधिक कोशिश हो कि प्रकृति के पंच तत्वों का भरपूर प्रयोग करें। प्रकृति के नियमों को समझना ही होगा। शरीर प्रत्येक रोगों से लड़ने की क्षमता रखता है और शरीर का एक नियम है कि जब शरीर रूग्ण होता है तो वह उनसे लड़ने व रोग को ठीक करने की औषधि स्वयं तैयार कर लेता है। शरीर रोगों से लड़ने की औषधि तभी तैयार कर पाता है जब मन स्वच्छ, साफ व सकारात्मक हो। नकारात्मक स्थिति में मन की ऊर्जा ज्यादा खर्च होती है और उस स्थिति में शरीर को स्वस्थ करने के लिए ऊर्जा नहीं बच पाती है। साफ, स्वच्छ व निर्मल मन के पास ऊर्जा का अथाह भंडार होता है जो कि शरीर की देखरेख करता रहता है।
Pt.P.S.Tripathi
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