Saturday, 2 May 2015

बुद्ध पूर्णिमा




बुद्ध पूर्णिमा -
वैषाख शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को गौतम बुद्ध का जन्म तथा निर्वाण दोनो तिथि का उत्सव मनाया जाता है। पूर्णिमा का व्रत गृहस्थों के लिए अति शुभ फलदायी होता है। प्रायः स्नान कर व्रत के साथ भगवान सत्यनारायण की पूजा कथा कर दिनभर उपवास करने के उपरांत चंद्रोदय के समय चंद्रमा को अध्र्य देने के साथ खीर का भोग लगाकर मीठा भोजन ग्रहण करने का रिवाज है। इस दिन भगवान बुद्ध का जन्म दिवस है जोकि 544बीसी को लुबिनी, नेपाल में हुआ था, उस दिन वैषाल शुक्लपक्ष की पूर्णिमा थी साथ ही उनको वैषाखषुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को ही निर्वाण की प्राप्ति हुई। इस दिन व्रत करके चंद्रोदय होने पर दीपदान करने के उपरांत भगवान बुद्ध की याद में बरगद के वृक्ष पर दीये जलाकर उत्सव मनाया जाता है। साथ ही मान्यता है कि चंद्रमा मन का कारक ग्रह है अतः पूर्णिमा व्रत के करने से मानसिक शांति के साथ पारिवारिक सामंजस्य और सौहार्द बढ़ता है।


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कौन सा रिष्ता शुभ तथा लाभकारी होगा जाने अपनी कुंडली से



कौन सा रिष्ता शुभ तथा लाभकारी होगा जाने अपनी कुंडली से -
ग्रह, नक्षत्र हमारे आपसी रिष्तों पर अपना पूरा प्रभाव डालते हैं। इस संबंध में ज्योतिषषास्त्र में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। कुंडली में प्रत्येक ग्रह से कोई ना कोई रिष्ता जुड़ा होता है तथा प्रत्येक भाव से रिष्तेदारो की स्थिति की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। सूर्य से जहाॅ पिता तथा पितातुल्य संबंधों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है वहीं पर चंद्रमा से माॅ, मौसी तथा माता संबंधी रिष्तों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। मंगल से भाई तथा मित्रों के संबंध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है तो बुध से बहन, बुआ, बेटी, साली और इससे संबंधित रिष्तों के बारे में जाना जा सकता है वहीं पर गुरू से पिता, दादा, गुरू तथा देव का पता चलता है शुक्र से पत्नी तथा स्त्री का पता चलता है शनि से चाचा, माता, सेवक तथा अधिनस्थों के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है तो राहु से साला और ससुर तथा केतु से संतान और नाना जैसे रिष्तों के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके साथ ही भाव भी रिष्तों के विषय में जानकारी देते हैं, जिसमें लग्न से स्वयं, दूसरे स्थान से कुटुंब, तीसरे स्थान से छोटे भाई-बहन तथा पड़ोसियों एवं सहायकों के बारे में जाना जा सकता है तो चतुर्थ भाव से माॅ, ससुर तथा नजदीकी रिष्तेदारों के बारे में जानकारी मिलती है तो पंचम से संतान, दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, समाज के संबंध में जाना जा सकता है। षष्ठम स्थान से मातृपक्ष, सेवक तो सप्तम स्थान से जीवनसाथी, पार्टनर के बारे में जानकारी प्राप्त हेाती है तो अष्टम स्थान पितृ संबंधी रिष्तों की जानकारी देता है वहीं नवम स्थान दादा तथा पारिवारिक बुजुर्गो के संबंध में सूचना देता है दषम स्थान से पिता, अधिकारी तथा सहयोगियों के बारे में जाना जा सकता है। एकादष स्थान से बड़े भाई-बहन तथा दोस्तों के बारे में जाना जा सकता है तो द्वादष स्थान से पिता पक्ष तथा, जीवनसाथी से संबंध जाना जाता है तो आध्यामिक रिष्तों के बारे में जाना जाता है अतः इनमें से किसी भी भाव या भावेष की स्थिति प्रतिकूल होने पर उस रिष्तें से हानि तथा कष्ट की संभावना बनती है तो जिस भाव या भावेष की स्थिति अनुकूल हो वह रिष्ता जीवन में सुख तथा सहायक बनता है। इस प्रकार जीवन में कौन सा रिष्ता सहयोगी होगा तथा किस रिष्ते से सुख प्राप्त होगा इसकी जानकारी कुंडली के भाव या भावेष से जाना जा सकता है। जीवन में जो रिष्ता दुखी करता हो, उस रिष्ते से संबंधित ग्रह तथा भाव को मजबूत करने का उपाय आजमाकर शुभ फल पाया जा सकता है।



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उपयुक्त आयु में विवाह का योग



उपयुक्त आयु में विवाह का योग -
बदले और बदलते हुए परिवेष में विवाह एक चिंता का विषय है। ज्यादातर युवा और उनके अभिभावक कैरियर को प्राथमिकता देते हुए एजूकेषन तथा कैरियर के बारे में तो गंभीर होते हैं कि शादी संबंधी विचार टालते रहते हैं, जिसके कारण विवाह की उचित आयु कब निकल जाती है, पता भी नहीं चलता। स्वावलंबी बनने के फेर में साथ ही मनवांछित जीवनसाथी पाने की आष में अपना सामाजिक या आर्थिक स्थिति समकक्ष करने के कारण विवाह में देर कई बार विवाह में बाधा का भी कारण बनता है। किंतु वास्तव में स्थिति इसके विपरीत होती है। विवाह में बाधा का क्या कारण बनना है और विवाह कब होना है। यह सब कुछ कुंडली के अध्ययन से जाना जा सकता है। सप्तमाधिपति यदि सबल शुभग्रह से युत, लग्नस्थ, द्वितीयस्थ, सप्तमस्थ या एकादषस्थ हो तो विवाह उचित समय में होता है। यदि किसी की भी कुंडली में शुक्र पाप रहित होकर मित्र राषिस्थ तथा चंद्रमा से अनुकूल हो तो विवाह का समय उचित होता है अर्थात् भारतीय दर्षन के अनुसार सही समय पर विवाह का कारक बनाता है। उचित समय में विवाह की कामना तथा उत्तम जीवनसाथी की कामना से किसी शुभ मूहुर्त में दस हजार गंधर्वराज मंत्रोपासना कर उसके उपरांत हवन, हवन का दषांष तर्पण तथा तर्पण का दषांष मार्जन, मार्जन का दषांष ब्राम्हण भोजन कराना चाहिए। इससे जीवन की वैवाहिक बाधा दूर हो सकती है।



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अक्षय तृतीया व्रत


अक्षय तृतीया व्रत -
वैषाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया के रूप में मनया जाता है हमारे धर्मग्रंथों में बहुत से दुखों तथा द्रारिदयहरण का निवारण इस दिन पूजन करने से समाप्त होना माना जाता है। इस दिन व्रत तथा पूजन करने पर जीवन दुखरहित होकर सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति का कारण हेाता है। इस दिन स्नान कर भगवान षिव के पूजन का विधान है। प्रातःकाल किसी नदी या सरोवर पर स्नान कर भगवान शंकर, पार्वती और तुलसी की एक सौ आठ परिक्रमा करें और प्रत्येक परिक्रमा में कोई वस्तु चढ़ायें। इसके पष्चात् वे सभी वस्तुएॅ किसी जरूरतमंद को दान का दिनभर भगवान शंकर के मंत्रों का मानसिक जाप करते हुए सायंकाल पुनः सरसों के तेल का दीपक वृक्ष पर जलाकर व्रत का पारण करें। ऐसा करने पर जीवन से दुख दूर होकर जीवन में सुख तथा विवाद की समाप्ति होकर जीवन र्निविवाद बनता है। आज के दिन भगवान की पूजा भी की जाती है। जीवन में अभाव तथा दरिद्रता से पीडि़त लोग आज के दिन भगवान की उपासना करके सभी अभावों से मुक्त हो सकते हैं। इस दिन प्रातःकाल स्नान संकल्पपूर्वक व्रत करना चाहिए। भगवान शिव का अभिषेक करना चाहिए। तथा विष्णुकांता के पुष्प चढ़ाकर भगवान शनि की प्रसन्नता के लिए काले तिल, काली उड़द, लोहे का छल्ला तथा सरसो का तेल एवं शहद और गुड़ का दान करना चाहिए। इस दिन याचकों को यथाषक्ति दान करना चाहिए एवं जरूरतमंदों की अपने हाथो से सेवा करनी चाहिए। ऐसा करने से सभी मनोरथ पूरे होते हैं। इस दिन विवाह या नवीन कार्य प्रारंभ करना भी शुभ माना जाता है।



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ग्रहों से जानें वैधव्य योग








स्त्री के जीवन में वैधव्य जीवन काटना बड़ा ही मुश्किल हो जाते है। यदि कम उम्र में पति की मृत्यु हो जाए और स्त्री तो दो-तीन बच्चे हों, तो उसका जीवन बड़ा ही कष्टदायक होता है। हम यहाँ पर वर्षों के शोध का आंकलन प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि हमारे पाठक समझ सके कि किन ग्रहों के कारण वैधव्य योग बनता है।

यदि इन वैधव्य ग्रहों के संबंध बनने पर संतान हो, तो उसके जीवन में ऐसा अभिशाप जल्द देखने को नहीं मिलेगा। कोई भी व्यक्ति अमर जड़ी-बूटी तो खाकर नहीं आया है। मरना एक शाश्वत सत्य है, लेकिन अकाल मृत्यु अशुभ ग्रहों से अवश्य बचा जा सकता है।

वैधव्य योग के लिए सप्तमभाव स्त्री की कुंडली में पति का पति की आयु का भाव लग्न से द्वितीय होता है। दाम्पत्य जीवन के कारक शुक्र का विशेष अध्ययन करना चाहिए। यदि ये भाव ग्रह दूषित हो तो उपाय करना ही श्रेष्ठ होगा। यदि विवाह हो गया है तब भी उपाय कर वैधव्य योग से बचा जा सकता है।

सप्तम भाव का स्वामी मंगल होने से शनि की तृतीय सप्तम या दशम दृष्टि पड़ने से वैधव्य योग बनता है। यदि इन पर गुरु या चन्द्रमा की दृष्टि पड़े, तो वैधव्य योग बनते हुए पति को कष्टकारी पीड़ा भोगनी पड़ सकती है। सप्तमेश का संबंध शनि मंगल से बनता हो सप्तमेश निर्बल हो तो वैधव्य का योग बनता है। ऐसी स्थिति वाली स्त्री कम उम्र में विधवा हो जाती है।

सप्तम भाव पर शनि या मंगल की नीच दृष्टि पड़े वहीं शनि मंगल का सप्तमेश से संबंध बनता हो, तब वैधव्य योग बनता है। जब सप्तमेश शनि मंगल को देखता हो, तब दाम्पत्य जीवन नष्ट होता है, कष्टमय होता है या वैधव्य योग बनता है। यदि गुरु चन्द्र में से कोई बली होकर द्वितीय भाव में हो तो वैधव्य टल जाता है। जिस स्त्री की कुंडली में द्वितीय भाव में मंगल हो शनि की दृष्टि पड़ती हो सप्तमेश अष्टम में हो या षष्ट में हो या द्वादश में होकर पीड़ित हो, तब भी वैधव्य आगे बनता है।



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अच्छी कैरिअर और जीवन सुदृढ कैसे बनाएँ


आज के भौतिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की एक ही मनोकामना होती है की उसे अच्छा कैरियर प्राप्त हो तथा उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ रहें तथा जीवन में हर संभव सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती रहे। किसी जातक के पास नियमित कैरियर के प्रयास में सफलता तथा आय का साधन कितना तथा कैसा होगा इसकी पूरी जानकारी उस व्यक्ति की कुंडली से जाना जा सकता है। कुंडली में दूसरे स्थान से उच्च षिक्षा तथा धन की स्थिति के संबंध में जानकारी मिलती है इस स्थान को धनभाव या मंगलभाव भी कहा जाता है अतः इस स्थान का स्वामी अगर अनुकूल स्थिति में है या इस भाव में शुभ ग्रह हो तो षिक्षा, धन तथा मंगल जीवन में बनी रहती है तथा जीवनपर्यन्त धन तथा संपत्ति बनी रहती है। चतुर्थ स्थान को सुखेष कहा जाता है इस स्थान से सुख तथा घरेलू सुविधा की जानकारी प्राप्त होती है अतः चतुर्थेष या चतुर्थभाव उत्तम स्थिति में हो तो घरेलू सुख तथा सुविधा, खान-पान तथा रहन-सहन उच्च स्तर का होता है तथा घरेलू सुख प्राप्ति निरंतर बनी रहती है। पंचमभाव से अध्ययन, सामाजिक स्थिति के साथ धन की पैतृक स्थिति देखी जाती है अतः पंचमेष या पंचमभाव उच्च या अनुकूल होतो संपत्ति सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी होती है। दूसरे भाव या भावेष के साथ कर्मभाव या लाभभाव तथा भावेष के साथ मैत्री संबंध होने से जीवन में धन की स्थिति तथा अवसर निरंतर अच्छी बनी रहती है। जन्म कुंडली के अलावा नवांष में भी इन्हीं भाव तथा भावेष की स्थिति अनुकूल होना भी आवष्यक होता है।  अतः जीवन में इन पाॅचों भाव एवं भावेष के उत्तम स्थिति तथा मैत्री संबंध बनने से व्यक्ति के जीवन में अस्थिर या अस्थिर संपत्ति की निरंतरता तथा साधन बने रहते हैं। इन सभी स्थानों के स्वामियों में से जो भाव या भावेष प्रबल होता है, धन के निरंतर आवक का साधन भी उसी से निर्धारित होता है। अतः जीवन में धन तथा सुख समृद्धि निरंतर बनी रहे इसके लिए इन स्थानों के भाव या भावेष को प्रबल करने, उनके विपरीत असर को कम करने का उपाय कर जीवन में सुख तथा धन की स्थिति को बेहतर किया जा सकता है। आर्थिक स्थिति को लगातार बेहतर बनाने के लिए प्रत्येक जातक को निरंतर एवं तीव्र पुण्यों की आवष्यकता पड़ती है, जिसके लिए जीव सेवा करनी चाहिए। सूक्ष्म जीवों के लिए आहार निकालना चाहिए। अपने ईष्वर का नाम जप करना चाहिए। कैरियर को बेहतर बनाने के लिए शनिवार का व्रत करें।


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जीवन शैली तीन चीजों पर आधारित है :सत्व, तमस और राजस



यजुर्वेद तथा भगवदगीता के अनुसार हमारा व्यवहार, विचार, भोजन और जीवनषैली तीन चीजों पर आधारित होती है वह है सत्व, तमस और राजस। सात्विक विचारों वाला व्यक्ति निष्चित स्वभाव का होता है जोकि उसे सृजनषील बनाता है वहीं राजसी विचारों वाला व्यक्ति महत्वाकांक्षी होता है जोकि स्वभाव में लालच भी देता है तथा तामसी व्यवहार वाला व्यक्ति नाकारात्मक विचारों वाला होने पर गलत कार्यो की ओर अग्रसर हो सकता है। मानव व्यवहार मूल रूप से राजसी और तामसी प्रवृत्ति का होता है, जिसके कारण जीवन में नाकारात्मक उर्जा बढ़ती है, जिससे साकारात्मक बनाने हेतु पुराणों में व्रत तथा उपवास पर जोर दिया गया है। मानव जीवन में व्रत की उपयोगिता वैदिक काल से जारी है। जिसका आधार होता है कि उपवास पाॅच ज्ञानेंद्रियों और पाॅच कर्मेद्रिंयों पर नियंत्रण करता है। अनुषासित बनाने तथा मन को आध्यामिक प्रवृत्ति की ओर अग्रसर करने हेतु उपवास तथा मंत्र जीवन में साकारात्मक दिषा देता है। उपवास जीवन में मानसिक शुद्धिकरण के अलावा शारीरिक शुद्धि हेतु भी सहायक होता है चूॅकि उपवास के दौरान अनुष्ठान करने की परंपरा भी है अतः अनुष्ठान के दौरान किया जाना वाला जाप, ध्यान, सत्संग, दान शारीरिक शुद्धता के लिए भी कार्य करती है। भोग लगाने वाले पदार्थ जैसे फल, मेवा, दूध, धी आदि का सेवन भी सात्विक गुणों को बढ़ता है।


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माॅ दुर्गाजी की नवीं शक्ति "माॅ सिद्धिदात्री"



माॅ दुर्गाजी की नवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देेने वाली हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राकाम्य, ईषित्व और वषित्व ये आठ प्रकार की सिद्धियाॅ होती हैं। माॅ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियाॅ प्रदान करने में समर्थ हैं। देवी पुराण के अनुसार भगवान षिव ने माॅ सिद्धिदात्री की कृपा से ही सारी सिद्धियाॅ प्राप्त की थीं और उनका आधा शरीर देवी का हो गया था, जिसके कारण उनका एक नाम अर्द्धनारीष्वर पड़ा।
माॅ सिद्धिदात्री देवी की चार भुजाएॅ हैं, जिसमें दाहिनी भुजा के उपर वाली भुजा में गदा, नीचे वाली भुजा में चक्र तथा दाहिनी वाली भुजा के उपर वाली भुजा में कमलपुष्प और नीचे वाली भुजा में शंख है। इनका वाहन सिंह है। नव दुर्गा के अंतिम देवी सिद्धिदात्री देवी हैं। इनकी उपासना से सभी लौकिक तथा पारलौकिक कामनाओं की पूर्ति होती है। इनकी कृपा से अनन्त दुखरूप संसार से निर्लिप्त रहकर सारे सुखों का भोग प्राप्त होकर मोक्ष प्राप्त होता है। सिद्धिदात्री कृपापात्र बनने से ही कोई कामना शेष नहीं बचती।



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माॅ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति "माॅ महागौरी"




माॅ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर हैं। इस गौर वर्ण की उपमा स्वर्ण, चंद्र और कुंद के फूल से की गई है। इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है। इनके समस्त वस्त्र, एवं आभूषण आदि श्वेत हैं। इनका वाहन वृषभ है, जिसका रंग भी श्वेत है। इनकी चार भुजाएॅ हैं दाहिने भुजा के उपर वाली भुजा में अभयमुद्रा नीचे में डमरू बायीं भुजा के उपर वाली भुजा में त्रिषूल और नीचे वरमुद्रा है। मुद्रा अत्यंत शांत व मनोहारी है। महाकाली के रूप में पावर्ती का रंग तप करने के उपरांत अत्यंत काला पड़ गया था। इनकी तपस्या से प्रसन्न और संतुष्ट होकर जब भगवान षिव ने इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से मलकर धोया त बवह विद्युत प्रभा के समान अत्यंत कांतिमान गौर हो उठा। तभ्ी से इनका नाम महागौरी हुआ।
दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना हेाती है। इनकी शक्ति अमोघ और शुभ फलदायिनी है। इनकी उपासना से पूर्व संचित पाप तथा पाप संताप, दैन्य-दुख कभी नहीं आते। इनकी उपासना से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है। इनकी उपासना करने से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।


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