Monday, 18 May 2015

जानें क्या है सप्तम भाव और उसके फल

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सप्तम भाव विवाह और गृहस्थी के सुख की दृष्टि से बड़ा ही महत्वपूर्ण भाव है। जितना महत्व इसमें उपस्थित राशि और इसमें बैठे ग्रह का है, उतना ही महत्व इस पर दृष्टि रखने वाले ग्रहों के प्रभाव का भी होता है।
##सप्तम भाव पर सूर्य की दृष्टि शुभ नहीं मानी जाती। विवाह में स्वाभाविक देरी होती ही है। जातक के वैवाहिक जीवन में हमेशा खटपट बनी रहती है। जातक और उसके पत्नी या पति के स्तर में अंतर होने से भी ये मतभेद हो सकते हैं। क्योंकि सप्तम का सूर्य होने पर जीवन साथी अपने से अच्छे स्तर वाला मिलता है और प्रभावशाली भी होता है। सप्तम का सूर्य प्रायः धनाभाव भी देता है अतः कर्ज आदि लेने की समस्या हमेशा बनी रहती है। इस कारण से भी विवाह के बाद दोनों में मतभेद बना रहता है।
##सप्तम सूर्य होने पर नौकरी का ही प्रयास करें। व्यापार करने पर घाटे की आशंका बनी ही रहती है। सप्तम का सूर्य यदि शुभ प्रभाव में हो तो जातक को पक्की नौकरी जरूर दिलवाता है।
##सप्तम पर चन्द्र की दृष्टि हो तो जीवन साथी बड़ा आकर्षक होता है। नरम दिल वाला, भावुक और सौम्यता से बातचीत करने वाला होता है। ऐसे जातकों को जीवन साथी से पूर्ण सहयोग मिलता है। यदि स्त्री जातक की कुंडली में सप्तम चन्द्र हो (दोष रहित) तो पति घर के कामों में भी पूरा सहयोग कराता है। इन जातकों को स्वतन्त्र व्यवसाय में रूचि लेनी चाहिए। ये धन को संग्रह करने में रूचि रखते है और कभी-कभी कंजूस भी कहे जा सकते हैं।
##सप्तम भाव पर यदि मंगल की नजर हो तो ये शुभ नहीं होती। मकर या स्वराशि के मंगल के फल अधिक तीव्र मिलते हैं। लग्न के मंगल की दृष्टि पति या पत्नी को अभिमानी बनती है और विवाह सुख में कमी कराती है। दोनों ही गुस्से के तेज होते हैं अतः मतभेद बने ही रहते हैं। चतुर्थ भाव के मंगल की दृष्टि भी अशुभ फल देती है। साथी को उदर रोग होते है।
##बारहवें भाव के मंगल की दृष्टि शैय्या सुख में कमी लाती है। दूसरे विवाह का भी योग बनता है। कुल मिलाकर मंगल की इन स्थितियों में कुण्डली मांगलिक ही कही जाती है अतः विवाह करते समय इस मंगल को मिला कर ही विवाह करना अच्छा रहता है अन्यथा विवाह सुख नहीं मिलना तय होता है। मंगल की दृष्टि पत्नी की कुण्डली में हो तो पति को नशे व मांसाहार की शौकीन भी बनाती है।

शिक्षा किस क्षेत्र में जानें ज्योतिष से

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प्रायः हम देखते हैं कि जिन व्यवसाय/पदों को प्राप्त करके भी हम छोड़ देते हैं या किसी अन्य व्यवसाय से जुड़ जाते हैं अथवा अनेक व्यवसाय एक साथ करने लग जाते हैं। इसका मुख्य कारण जातक की कुण्डली में ग्रहों की स्थिती होती हैं।
एक सभ्य, सुसंस्कृत एवं जिम्मेदार नागरिक बनाने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका हैं आर्थिक एवं प्रतिस्पर्धा के इस युग मंे उचित एवं सही माध्यम या विषय चयन कर अच्छे परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं । कोई व्यक्ति कितनी शिक्षा प्राप्त करेगा या उसका पढाई के प्रति क्या रूझान हैं यह जन्म पत्रिका के माध्यम से जाना जा सकता हैं । अधिकांश अभिभावकों एवं विद्यार्थियों की चिंता यह रहती हें कि क्या पढा जाएं ताकि अच्छा केरियर निर्मित हो आज के युग को देखते हुए ज्योतिष के माध्यम से शिक्षा का चयन उपयोगी हो सकता हैं ।
इस युग में शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हो गया हैं और बदलते हुए जीवन-मूल्यों के साथ-साथ शिक्षा के उद्धेश्य भी बदल गये हैं। शिक्षा व्यवसाय से जुड़ गई हैं और छात्र-छात्राएं व्यवसाय की तैयारी के रूप में ही इसे ग्रहण करते है। उनके लिए व्यवसायिक भविष्य को उज्ज्वल बनाने की दृष्टि से विषय का चयन करना अत्यन्त समस्यापूर्ण हो गया हैं। इसके अलावा शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश अथवा अच्छा व्यवसाय प्राप्त करने के लिए उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता हैं। अतः इस संदर्भ में अन्य तथ्यों को ध्यान में रखने के साथा-साथ असफलता एवं समय की बर्बादी से बचने के लिए ज्योतिष सिद्धान्तों के आधार पर लिया गया निष्कर्ष ही विषय एवं व्यवसाय के चयन में उपयोगी या लाभकारी सिद्ध हो सकता हैं।
प्राचीन काल में शिक्षा का मुख्य उद्धेश्य ज्ञान प्राप्ति होता था । विद्यार्थी किसी योग्य विद्वान के निर्देशन में विभिन्न प्रकार की शिक्षा ग्रहण करते थे । इसके अतिरिक्त उसे शस्त्र संचालन एवं विभिन्न कलाओं का प्रशिक्षण भी दिया जाता था । किन्तु वर्तमान समय मंे यह सभी प्रशिक्षण लगभग गौण हो गये । शिक्षा की महत्ता बढ़ने व प्रतिस्पर्धात्मक युग में सजग रहते हुए बालक के बोलने व समझने लगते ही माता-पिता शिक्षा के बारे में चिंतित हो जाते हैं । कुछ वर्षो बाद सबसे बड़ी समस्या यही होती हैं कि कौनसा विषय पढ़ंे जिससे भविष्य सुखमय हो। कैरियर निर्माण हेतु -
1 - सर्वप्रथम जातक के बचपन से ही उसकी कुण्डली विषय की पढाई व केरियर चयन में सहायक होती हैं ।
2 - जातक की कुण्डली से तय करना चाहिए कि वह नौकरी करेगा या व्यवसाय ।
3 - जातक की 20 से 40 वर्ष की उम्र के बीच की ग्रह दशा का सुक्ष्म अध्ययन कर यह देखना चाहिए की दशा किस प्रकार के कार्यक्षेत्र का संकेत दे रही हैं ।
4 - आगामी गोचर या दशा कार्यक्षेत्र में तरक्की का संकेत दे रहा हैं या नहीं ? इसका भी परिक्षण कर लेना चाहिए ।

शिक्षा में महत्वाकांक्षा -
जन्म कुण्डली का नवम भाव धर्म त्रिकोण स्थान हैं जिसके स्वामी देव गुरू बृहस्पति हैं यह भाव शिक्षा में महत्वाकांक्षा व उच्च शिक्षा तथा उच्च शिक्षा किस स्तर की होगी को दर्शाते हैं यदि इसका सम्बन्ध पंचम भाव से हो जाए तो अच्छी शिक्षा तय करते हैं ।

शिक्षा का स्तर -
जन्म कुण्डली का पंचम भाव बुद्धि, ज्ञान, कल्पना, अतिन्द्रिय ज्ञान, रचनात्मक कार्य, याददाश्त व पूर्व जन्म के संचित कर्म को दर्शाता हैं । यह शिक्षा के संकाय का स्तर तय करता हैं।

शिक्षा किस प्रकार होगी -
जन्म कुण्डली का चतुर्थ भाव मन का भाव हैं । यह इस बात का निर्धारण करता हैं कि आपकी मानसिक योग्यता किस प्रकार की शिक्षा में होगी । जब भी चतुर्थ भाव का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें भाव में गया हो या नीच राशि, अस्त राशि, शत्रुराशि में बैठा हो व कारक ग्रह (चन्द्रमा) पीड़ित हो तो शिक्षा में मन नहीं लगता हैं ।

शिक्षा का उपयोग -
जनम कुण्डली का द्वितीय भाव वाणी, धन संचय, व्यक्ति की मानसिक स्थिति को व्यक्त करता हैं तथा यह दर्शाता हैं कि शिक्षा आपने ग्रहण की हैं वह आपके लिए उपयोगी हैं या नहीं हैं। यदि इस भाव पर पाप ग्रह का प्रभाव हो तो व्यक्ति शिक्षा का उपयोग नहीं करता हैं ।

जातक को बचपन से किस विषय की पढाई करवानी चाहिए इस हेतु हम मुलतः निम्न चार पाठ्यक्रम (विषय) ले सकते हैं - गणित , जीव विज्ञान, कला और वाणिज्य -

गणित -
गणित के कारक ग्रह बुध का संबंध यदि जातक के लग्न, लग्नेश या लग्न नक्षत्र से होता हैं तो वह गणित में सफल होता हैं । यदि लग्न, लग्नेश या बुध बली एवं शुभ दृष्ट हो, तो उसके गणित में पारंगत होने की संभावना बढ़ जाती हैं । शनि एवं मंगल किसी भी प्रकार से संबंध बनाएं तो जातक मशीनरी कार्य में दक्ष होता हैं । इसके अतिरिक्त मंगल और राहु की युति, दशमस्थ बुध एवं सूर्य पर बली मंगली की दृष्टि, बली शनि एवं राहु का संबन्ध, चन्द्र व बुध का संबंध, दशमस्थ राहु एवं षष्ठस्थ यूरेनस आदि योग तकनीकी शिक्षा के कारक होते हैं ।

जीवविज्ञान -
सूर्य का जल राशिस्थ होना, छठे एवं दशम भाव/भावेश के बीच संबंध, सूर्य एवं मंगल का संबंध आदि चिकित्सा क्षेत्र में पढ़ाई के कारक होते हैं । लग्न/लग्नेश एवं दशम/दशमेश का संबंध अश्विनी, मघा या मूल नक्षत्र से हो तो चिकित्सा क्षेत्र में सफलता मिलती हैं।
कला -
पंचम/पंचमेश एवं कारक गुरू का पीड़ित होना कला के क्षेत्र में पढाई का कारक होता हैं। इन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि पढाई पूरी करवाने में सक्षम होती हें । पापी ग्रहों की दृष्टि-युति संबंध कला के क्षेत्र में पढाई में अवरोध उत्पन्न करता हैं । लग्न व दशम का शनि व राहु से संबंध राजनीतिक क्षेत्र में सफलता दिवलाता हें। 10 वें भाव का संबंध सूर्य, मंगल, गुरू या शुक्र से हो तो जातक जज बनता हैं ।

वाणिज्य -
लग्न/लग्नेश का संबंध बुध के साथ-साथ गुरू से भी हो तो जातक वाणिज्य की पढाई सफलतापूर्वक करता हैं ।
अच्छी शैक्षणिक योग्यता के महत्वपूर्ण योग:-
1. द्वितीयेश या बृहस्पति केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हो।
2. पंचम भाव में बुध की स्थिति अथवा दृष्टि या बृहस्पति और शुक्र की युति हो।
3. पंचमेश की पंचम भाव में बृहस्पति या शुक्र के साथ युति हो।
4. बृहस्पति , शुक्र और बुध में से कोई केन्द्र या त्रिकोण में हो।

शैक्षणिक योग्यता का अभाव या न्यूनता: -
1. पंचम भाव में शनि की स्थिति और उसकी लग्नेश पर दृष्टि हो।
2. पंचम भाव पर अशुभ ग्रहों की दृष्टि या अशुभ ग्रहों की स्थिति हो।
3. पंचमेश नीच राशि में हो और अशुभ ग्रहों से दृष्ट हो।
विभिन्न ग्रहों के शिक्षा सम्बन्धी प्रतिनिधित्व का विवरण अंकित किया जा रहा हैं जिसके आधार पर ग्रहों की उपरोक्त भावों में स्थिति को देखकर जातक के लिए उपयुक्त विषय का चयन किया जा सकता हैं।
सूर्य: - चिकित्सा, शरीर विज्ञान, प्राणीशास्त्र, नेत्र-चिकित्सा, राजभाषा, प्रशासन, राजनीति, जीव विज्ञान।
चन्द्र: - नर्सिंग, नाविक शिक्षा, वनस्पति विज्ञान, जंतु विज्ञान (जूलोजी), होटल प्रबन्धन, काव्य, पत्रकारिता, पर्यटन, डेयरी विज्ञान, जलदाय
मंगल: - भूमिति, फौजदारी, कानून, इतिहासस, पुलिस सम्बन्धी प्रशिक्षण, ओवर-सियर प्रशिक्षण, सर्वे अभियांत्रिकी, वायुयान शिक्षा, शल्य चिकित्सा, विज्ञान, ड्राइविंग, टेलरिंग या अन्य तकनीकी शिक्षा, खेल कूद सम्बन्धी प्रशिक्षण , सैनिक शिक्षा, दंत चिकित्सा
गुरू: - बीजगणित, द्वितीय भाषा, आरोग्यशास्त्र, विविध, अर्थशास्त्र, दर्शन, मनोविज्ञान, धार्मिक या आध्यात्मिक शिक्षा।
बुध: - गणित, ज्योतिष, व्याकरण, शासन की विभागीय परीक्षाएं, पर्दाथ विज्ञान, मानसशास्त्र, हस्तरेखा ज्ञान, शब्दशास्त्र (भाषा विज्ञान), टाइपिंग, तत्व ज्ञान, पुस्तकालय विज्ञान, लेखा, वाणिज्य, शिक्षक प्रशिक्षण।
शुक्र: - ललितकला (संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्रकला आदि), फिल्म, टी0वी0, वेशभूषा, फैशन डिजायनिंग, काव्य साहित्य एवं अन्य विविध कलाएं।
शनि: - भूगर्भशास्त्र, सर्वेक्षण, अभियांत्रिकी, औद्योगिकी, यांत्रिकी, भवन निर्माण, मुद्रण कला (प्रिन्टिंग)।
राहु: - तर्कशास्त्र, हिप्नोटिजम, मेस्मेरिजम, करतब के खेल (जादू, सर्कस आदि), भूत-प्रेत सम्बन्धी ज्ञान, विष चिकित्सा, एन्टी बायोटिक्स, इलेक्ट्रोनिक्स।
केतु: - गुप्त विद्याएं, मंत्र-तंत्र सम्बन्धी ज्ञान।
वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति के कारण व्यवसायों एवं शैक्षणिक विषयों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही हैं। अतः ज्योतिष सिद्धान्तों के आधार पर ग्रहों के पारस्परिक सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए विचार किया जा सकता हैं।

Sunday, 17 May 2015

जानिये आज 17/05/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से "वट सावित्री व्रत-स्त्रियों का महत्वपूर्ण पर्व"







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जानिये आज के सवाल जवाब(1) 17/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से







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जानिये आज का राशिफल 17/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से







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जानिये आज का पंचांग 17/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से







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नौकरी या व्यवसाय जानें राशिफल से

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1-मेष: - पुलिस अथवा सेना की नौकरी, इंजीनियंिरंग, फौजदारी का वकील, सर्जन, ड्राइविंग, घड़ी का कार्य, रेडियो व टी.वी. का निर्माण या मरम्मत, विद्युत का सामान, कम्प्यूटर, जौहरी, अग्नि सम्बन्धी कार्य, मेकेनिक, ईंटों का भट्टा, किसी फैक्ट्री में कार्य, भवन निर्माण सामग्री, धातु व खनिज सम्बन्धी कार्य, नाई, दर्जी, बेकरी का कार्य, फायरमेन, कारपेन्टर।
2-वृषभ: - सौन्दर्य प्रसाधन, हीरा उद्योग, शेयर ब्रोकर, बैंक कर्मचारी, नर्सरी, खेती, संगीत, नाटक, फिल्म या टी.वी. कलाकार, पेन्टर, केमिस्ट, ड्रेस डिजाइनर, कृषि अथवा राजस्व विभाग की नौकरी, महिला विभाग, सेलटेक्स या आयकर विभाग की नौकरी, ब्याज से धन कमाने का कार्य, सजावट तथा विलासिता की वस्तुओं का निर्माण अथवा व्यापार, चित्रकारी, कशीदाकारी, कलात्मक वस्तुओं सम्बन्धी कार्य, फैशन, कीमती पत्थरों या धातु का व्यापार, होटल व बर्फ सम्बन्धी कारोबार।
3-मिथुन: - पुस्तकालय अध्यक्ष, लेखाकार, इंजीनियर, टेलिफोन आपरेटर, सेल्समेन, आढ़तिया, शेयर ब्रोकर, दलाल, सम्पादक, संवाददाता, अध्यापक, दुकानदार, रोडवेज की नौकरी, ट्यूशन से जीविका कमाने वाला, उद्योगपति, सचिव, साईकिल की दुकान, अनुवादक, स्टेशनरी की दुकान, ज्योतिष, गणितज्ञ, लिपिक का कार्य, चार्टड एकाउन्टेंट, भाषा विशेषज्ञ, लेखक, पत्रकार, प्रतिलिपिक, विज्ञापन प्रबन्धन, प्रबन्धन (मेनेजमेन्ट) सम्बन्धी कार्य, दुभाषिया, बिक्री एजेन्ट।

4-कर्क: - जड़ी-बूटिंयों का व्यापार, किराने का सामान, फलों के जड़ पौध सम्बन्धी कार्य, रेस्टोरेन्ट, चाय या काफी की दुकान, जल व कांच से सम्बन्धित कार्य, मधुशाला, लांड्री, नाविक, डेयरी फार्म, जीव विज्ञान, वनस्सपति विज्ञान, प्राणी विज्ञान आदि से सम्बन्धित कार्य, मधु के व्यवसाय, सुगन्धित पदार्थ व कलात्मक वस्तुओं से सम्बन्धित कार्य, सजावट की वस्तुएं, अगरबत्ती, फोटोग्राफी, अभिनय, पुरातत्व इतिहास, संग्रहालय, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता या सामाजिक संस्थाओं के कर्मचारी, अस्पताल की नौकरी, जहाज की नौकरी, मौसम विभाग, जल विभाग या जल सेना की नौकरी, जनरल मर्चेन्ट।
5-सिंह: - पेट्रोलियम, भवन निर्माण, चिकित्सक, राजनेता, औषधि निर्माण एवं व्यापार, कृषि से उत्पादित वस्तुएं, स्टाक एक्सचेंज, कपड़ा, रूई, कागज, स्टेशनरी आदि से सम्बन्धित व्यवसाय, जमीन से प्राप्त पदार्थ, शासक, प्रसाशक, अधिकारी, वन अधिकारी, राजदूत, सेल्स मैनेजर, ऊन के गरम कपड़ों का व्यापार, फर्नीचर व लकड़ी का व्यापार, फल व मेवों का व्यापार, पायलेट, पेतृक व्यवसाय।
6-कन्या: - अध्यापक, दुकान, सचिव, रेडियो या टी.वी. का उद्घोषक, ज्योतिष, डाक सेवा, लिपिक, बैकिंग, लेखा सम्बन्धी कार्य, स्वागतकर्ता, मैनेजर, बस ड्रायवर और संवाहक, जिल्दसाज, आशुलिपिक, अनुवादक, पुस्तकालय अध्यक्ष, कागज के व्यापारी, हस्तलेख और अंगुली के विशेषज्ञ, मनोवैज्ञानिक, अन्वेषक, सम्पादक, परीक्षक, कर अधिकारी, सैल्स मेन, शोध कार्य पत्रकारिता आदि।
7-तुला: - न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट, परामर्शदाता, फिल्म या टी.वी. से सम्बन्ध, फोटोग्राफर, फर्नीचर की दुकान, मूल्यवान वस्तुओं का विनिमय, धन का लेन-देन, नृत्य-संगीत या चित्रकला से सम्बन्धित कार्य, साज-सज्जा, अध्यापक, बैंक क्लर्क, एजेन्सी, दलाली, विलासिता की वस्तुएं, राजनेता, जन सम्पर्क अधिकारी, फैशन मॉडल, सामाजिक कार्यकर्ता, रेस्तरां का मालिक, चाय या काफी की दुकान, मूर्तिकार, कार्टूनिस्ट, पौशाक का डिजाइनर, मेकअप सहायक, केबरे प्रदर्शन।
8-वृश्चिक: - केमिस्ट, चिकित्सक, वकील, इंजीनियर, भवन निर्माण, टेलीफोन व बिजली का सामान, रंग, सीमेन्ट, ज्योतिषी और तांत्रिक, जासूसी का काम करने वाला, दन्त चिकित्सक, मेकेनिक, ठेकेदार, जीवन बीमा एजेन्ट, रेल या ट्रक कर्मचारी, पुलिस और सेना के कर्मचारी, टेलिफोन आपरेटर, समुद्री खाद्यान्नों के व्यापारी, गोता लगाकर मोती निकालने का काम, होटय या रेस्टोरेन्ट, चोरी या डकैती, शराब की फैक्ट्री, वर्कशाप का कार्य, कल-पुर्जो की दुकान या फैैक्ट्री, लोहे या स्टील का कार्य, तम्बाकू या सिगरेट का कार्य, नाई, मिष्ठान की दुकान, फायर बिग्रेड की नौकरी।
9-धनु: - बैंक की नौकरी, अध्यापन, किसी धार्मिक स्थान से सम्बन्ध, ऑडिट का कार्य, कम्पनी सेकेट्री, ठेकेदार, सट्टा व्यापार, प्रकाशक, विज्ञापन से सम्बन्धित कार्य, सेल्समेन, सम्पादक, शिक्षा विभाग में कार्य, लेखन, वकालात या कानून सम्बन्धी कार्य, उपदेशक, न्यायाधीश, धर्म-सुधारक, कमीशन ऐजेन्ट, आयात-निर्यात सम्बन्धी कार्य, प्रशासनाधिकारी, पशुओं से उत्पन्न वस्तुओं का व्यापार, चमड़े या जूते के व्यापारी, घोड़ों के प्रशिक्षक, ब्याज सम्बन्धी कार्य, स्टेशनरी विक्रेता।
10-मकर: - नेवी की नौकरी, कस्टम विभाग का कार्य, बड़ा व्यापार या उच्च पदाधिकारी, समाजसेवी, चिकित्सक, नर्स, जेलर या जेल से सम्बन्धित कार्य, संगीतकार, ट्रेवल एजेन्ट, पेट्रोल पम्प, मछली का व्यापार, मेनेजमेन्ट, बीमा विभाग, ठेकेदारी, रेडिमेड वस्त्र, प्लास्टिक, खिलौना, बागवानी, खान सम्बन्धी कार्य, सचिव, कृषक, वन अधिकारी, शिल्पकार, फैक्ट्री या मिल कारीगर, सभी प्रकार के मजदूर।
11 -कुम्भ: - शोध कार्य, शिक्षण कार्य, ज्योतिष, तांत्रिक, प्राकृतिक चिकित्सक, इंजीनियर या वैज्ञानिक, दार्शनिक, एक्स-रे कर्मचारी, चिकित्सकीय उपकरणों के विक्रेता, बिजली अथवा परमाणु शक्ति से सम्बन्धित कार्य, कम्प्यूटर, वायुयान, वैज्ञानिक, दूरदर्शन टैक्नोलोजी, कानूनी सलाहकार, मशीनरी सम्बन्धी कार्य, बीमा विभाग, ठेकेदार, लोहा, तांबा, कोयला व ईधन के विक्रेता, चौकीदार, शव पेटिका और मकबरा बनाने वाले, चमड़े की वस्तुओं का व्यापार।
12 -मीन: - लेखन, सम्पादन, अध्यापन कार्य, लिपिक, दलाली, मछली का व्यापार, कमीशन एजेन्ट, आयात-निर्यात सम्बन्धी कार्य, खाद्य पदार्थ या मिष्ठान सम्बन्धी कार्य, पशुओं से उत्पन्न वस्तुओं का व्यापार, फिल्म निर्माण, सामाजिक कार्य, संग्रहालय या पुस्तकालय का कार्य, संगीतज्ञ, यात्रा एजेन्ट, पेट्रोल और तेल के व्यापारी, समुद्री उत्पादों के व्यापारी, मनोरंजन केन्द्रों के मालिक, चित्रकार या अभिनेता, चिकित्सक, सर्जन, नर्स, जेलर और जेल के कर्मचारी, ज्योतिषी, पार्षद, वकील, प्रकाशक, रोकड़िया, तम्बाकू और किराना का व्यापारी, साहित्यकार।

कुंडली के किस भावों में मंगल दोष और उसके उपाय


जिस जातक की जन्म कुंडली, लग्न/चंद्र कुंडली आदि में मंगल ग्रह, लग्न से लग्न में (प्रथम), चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भावों में से कहीं भी स्थित हो, तो उसे मांगलिक कहते हैं।
गोलिया मंगल 'पगड़ी मंगल' तथा चुनड़ी मंगल : जिस जातक की जन्म कुंडली में 1, 4, 7, 8, 12वें भाव में कहीं पर भी मंगल स्थित हो उसके साथ शनि, सूर्य, राहु पाप ग्रह बैठे हो तो व पुरुष गोलिया मंगल, स्त्री जातक चुनड़ी मंगल हो जाती है अर्थात द्विगुणी मंगली इसी को माना जाता है।
मांगलिक कुंडली का मिलान : वर, कन्या दोनों की कुंडली ही मांगलिक हो तो विवाह शुभ और दाम्पत्य जीवन आनंदमय रहता है। एक सादी एवं एक कुंडली मांगलिक नहीं होना चाहिए।
मंगल-दोष निवारण : मांगलिक कुंडली के सामने मंगल वाले स्थान को छोड़कर दूसरे स्थानों में पाप ग्रह हो तो दोष भंग हो जाता है। उसे फिर मंगली दोषरहित माना जाता है तथा केंद्र में चंद्रमा 1, 4, 7, 10वें भाव में हो तो मंगली दोष दूर हो जाता है। शुभ ग्रह एक भी यदि केंद्र में हो तो सर्वारिष्ट भंग योग बना देता है।
शास्त्रकारों का मत ही इसका निर्णय करता है कि जहाँ तक हो मांगलिक से मांगलिक का संबंध करें। ‍िफर भी मांगलिक एवं अमांगलिक पत्रिका हो, दोनों परिवार अपने पारिवारिक संबंध के कारण पूर्ण संतुष्ट हो, तब भी यह संबंध श्रेष्ठ नहीं है। ऐसा नहीं करना चाहिए।ऐसे में अन्य कई कुयोग हैं। जैसे वैधव्य विषागना आदि दोषों को दूर रखें। यदि ऐसी स्थिति हो तो 'पीपल' विवाह, कुंभ विवाह, सालिगराम विवाह तथा मंगल यंत्र का पूजन आदि कराके कन्या का संबंध अच्छे ग्रह योग वाले वर के साथ करें। मंगल यंत्र विशेष परिस्थिति में ही प्रयोग करें। देरी से विवाह, संतान उत्पन्न की समस्या, तलाक, दाम्पत्य सुख में कमी एवं कोर्ट केस इत्या‍दि में ही इसे प्रयोग करें। छोटे कार्य के लिए नहीं। विशेष : विशेषकर जो मांगलिक हैं उन्हें इसकी पूजा अवश्य करना चाहिए। चाहे मांगलिक दोष भंग आपकी कुंडली में क्यों न हो गया हो फिर भी मंगल यंत्र मांगलिकों को सर्वत्र जय, सुख, विजय और आनंद देता है। निम्न 21 नामों से मंगल की पूजा करें :-
1. ऊँ मंगलाय नम:
2. ऊँ भूमि पुत्राय नम:
3. ऊँ ऋण हर्वे नम:
4. ऊँ धनदाय नम:
5. ऊँ सिद्ध मंगलाय नम:
6. ऊँ महाकाय नम:
7. ऊँ सर्वकर्म विरोधकाय नम:
8. ऊँ लोहिताय नम:
9. ऊँ लोहितगाय नम:
10. ऊँ सुहागानां कृपा कराय नम:
11. ऊँ धरात्मजाय नम:
12. ऊँ कुजाय नम:
13. ऊँ रक्ताय नम:
14. ऊँ भूमि पुत्राय नम:
15. ऊँ भूमिदाय नम:
16. ऊँ अंगारकाय नम:
17. ऊँ यमाय नम:
18. ऊँ सर्वरोग्य प्रहारिण नम:
19. ऊँ सृष्टिकर्त्रे नम:
20. ऊँ प्रहर्त्रे नम:
21. ऊँ सर्वकाम फलदाय नम:
विशेष : किसी ज्योतिषी से चर्चा करके ही पूजन करना चाहिए। मंगल की पूजा का विशेष महत्व होता है। अपूर्ण या कुछ जरूरी पदार्थों के बिना की गई पूजा प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकती है..
मंगल दोष/ योग निवारणार्थ.....कृपया मंगलनाथ मंदिर , जो उज्जैन ( मध्य प्रदेश ) में स्थित हे ..वहा जाकर विशेष रूप से "भात पूजा" अवश्य करवाएं...इस पूजा से शादी में विलम्ब/ कर्जमुक्ति..आदि में लाभ मिलता हे..

Saturday, 16 May 2015

कैसे जाने अपने जीवन में मगल ग्रहों का असर


ज्योतिष शास्त्रों में मंगलग्रह को पराक्रम का कारक माना गया है। सौर परिवार में इसे सेनापति का पद प्राप्त है।
सामान्यतः लोग मंगल के नाम से भयभीत रहते हैं। विशेषकर जब कुण्डली को मंगली या मंगलीक कह दिया जाता है। जबकी
मेरे अनुभव में मंगल जैसा मंगलकारी ग्रह कोई नहीं हो सकता। तभी तो कहा गया है-

धरणी गर्भ संभूतं पिद्युत्कान्तिसमप्रभम्। कुमारं शक्ति हस्तं मंगलं प्रणाम्यहम।।

अर्थात्- जो धरती के गर्भ से उत्पन्न हुये हैं, जिनकी प्रभा बिजली के समान लाल है। जो कुमार हैं तथा अपने कर में शक्ति
लिये हुये हैं उन मंगल को मैं नमस्कार करता हूँ।
मानव को सफलता हेतु जितना आवष्यक परिश्रम हैं उतनाही आवष्यक हमारा घरेलु योगदान हैं ,हमे हमारे घर का वातावरण कब शांत तथा सोहार्दपूर्ण मिल सकता है, जब हमारी अघोगिनी सुलक्षणा हो, गृहस्थ धर्म जानती हो, पति को उसके हर सुख-दुख में साथ देने वाली हो, त्याग, सेवा, धैर्य, क्षमा तथा सहिष्णुता जानती हो और इनके द्वारा पती को हरदम उन्नती कि और अग्रेसर करने का प्रयास करती हों।
सौरमण्डल की प्रथम राषि मेष का स्वामी मंगल है। मेष राषि अग्नि तत्व राषि है। अतएव इसका स्वामी मंगल भी अग्नि ग्रह है। यह शौर्य का कारक है। यह सेनापति का भी कारक है। इसका रंग सिंदूरी है। यह भूमि का भी कारक है। ‘मंगल’ का नाम सुनते ही मनुष्यो में हलचल मच जाती है क्योंकि इसके द्वादष, प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम भाव में होने पर जातक या जातिका मंगली कहलाते हैं। मंगली प्रभाव के संबध में प्रथक से विवेचना की जायेगी। प्रस्तुत आलेख में मंगल का दाम्पत्यसुख पर क्या अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रभाव पडे़गा उसका ही विवेचन किया जा रहा है।विवाह एवं दाम्पत्य सुख हेतु सप्तम भाव,सप्तमेश,कारक ग्रह इन के साथ साथ सम्पम भाव में उपस्थित ग्रह भी सत्य को उजागर करते है, महर्षि पाराशर के अनुसार सप्तम भाव विवाह, यौन संबंध और पति-पत्नी के आपसी विचारों को प्रस्तुत करता हैं, कुछ ग्रह सप्तमेश होकर परम सुख प्रदान करते तो कुछ निस्टता प्रदान करता हैं। सुखमय दापत्य जीवन व्यतीत करने के लिये वर-वधु चुनाव, उनके गुण-दोषों का ज्यिोतीष शास्त्र के सभी विद्वानों का मानना है कि सप्तम भाव का मंगल अशुभ फलदाई होता है, ऐसे जातक को स्त्री झगडालु, रोगी,कुरूप,पराजित कराने वाली, कुलक्षणी निर्धन तथा दुराचरणी मिलती हैं। जिस कारण जातक का दाम्पत्य जीवन दुख भरा होता हैं, मिथुन,कन्या,वृच्छिक,मकर,सिंह तथा धनु राशि वाले जातकों के जन्म कंुडली में सप्तम भाव में मंगल हो तो ऐसे जातकों की स्त्री संताप प्राप्ती हेतु व्याभिचार करती हैं, मंगल यदि कर्क या मिन का हो तो ऐसे जातक की स्त्री का स्वभाव बहुत ही कठोर होता हैं। जिस कारण जातक का दांपत्य जीवन दुःखदाई हो जाता हैं, ऐसे जातकोकी रूचि अपके से कम उम्र की कन्याओं में होती है, जातक के जन्म कुंडली में मंगल पर यदि शनि की दृष्टि हो तो ऐसे जातक रति क्रिया में उटपंताग हरकते करते हैं जिस कारण जातक के पत्नी की अपने पति में रूची खत्म हो जाती हैं तथा ऐसे जातक का दांपत्य जीवन बदतर बन जाता हैं। सप्तम भाव का मंगल जातक को प्रबल मंगली बनाता तथा ऐसे जातक को मंगली लडकी से ही विवाह करना चाहिए जिससे उनका दांपत्य जीवन सुखि रहता हैं।

लग्ने व्यये च पाताले-जामित्रे-चाष्टमे,
कुजे कन्या मर्तृ विनाशाय भर्ता कन्या निवाशकः।।
मंगल के मारकत्व हेत यह श्लोक प्रचलित हैं अर्थात जिस जातक के जन्म कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तमया द्वादश भाव में मंगल विराजमान हो तो ऐसे में कन्या के पति की मृत्यु निश्चित हैं इस योग के अनेकों अपवाद भी हैं, जातक के जन्म कुंडली में लग्न में मेष, चतुर्थ में वृश्चिक सप्तम में मकर, अष्टम में कर्क तथा द्वादश भाव में धनु राशि हो तब वैधन्य योग नहीं बनता तात्पर्य सप्तम भाव य मंगल जातक का वैवाहिक जीवन सामान्य नहीं रखता हैं। सुखमय दापत्य जीवन व्यतीत करने के लिये वर-वधु चुनाव, उनके गुण-दोषों का विचार उनकी रूची, प्रकृति समानता आदि का विस्तार पूर्वक विवेचन कर सुखमय दाम्पत्य जीवन हेतु कुछ नियम बना रखे हैं।
1. यदि किसी जातक/जातिका की अन्य कुण्डली में मंगल सप्तम भाव में हो तो जातक किसी रजस्वला स्त्री से
संभोग करता है। कतिपय विद्वान ज्योतिषियों ने महिला की कुण्डली में मंगल सप्तम भाव में होने पर बांझ होना कहा है। हमारे
अनुभाव में आया है कि पुरुष की कुण्डली में मंगल द्वितीयेष षष्टेष या अष्टमेष होकर सप्तम भाव में हो तो पत्नी बांझ या
गर्भ को गिराने की इच्छुक रहती है। महिला के सप्तम् भाव में मंगल उसे बांझ बनाता है। यह शोध का विषय है। मंगल रज
का कारण हैं षिषु पर मांस, मंगल ग्रह से ही चढ़ता है।
2. यदि जातक/जातिका की कुण्डली में मंगल एवं बुध सम-विषम राषियों में बैठकर एक दूसरे को देखे तो पुरुष
जातक नपुंसक तथा जातिका षण्डत्व दोष से पीड़ित होंगे। यहां सम विषम राषियों से तात्पर्य यथा मंगल मेष का हो तथा
बुध कर्क राषि का हो। यह योग जन्म कुण्डली में किसी भी भाव में घटित हो सकता है। स्त्रियों में आयुर्वेद के अनुसार षण्डत्व
दोष होता है। इस दोष से पीड़ित स्त्री में ठण्डापन होता है। वह पुरूष संग के लिये उत्तेजित नहीं होती हैं। पुरुष उसके इस
दोष को जान नहीं पाता है, वह यौन क्रिया के लिये उत्कृष्ठित नहंीं रहती।
3. इसी प्रकार का फलित मंगल और सूर्य एक दूसरे को देखे अर्थात मंगल और सूर्य समसप्तक हो तो भी पुरुष से
नपंुसकता के लक्षण रहते हैं। इस योग में मंगल और सूर्य दोनों ही अग्नि ग्रह होते हैं। जो पुरुषत्व की ऊर्जा को कम करते
हैं। संभव है कि जातक शरीर से हृष्ठ-पुष्ठ हो परन्तु उसकी जननेंद्रिय में उत्तेजना कम रहती है।
4. यदि किसी महिला की जन्म कुण्डली मे सप्तम भाव में मंगल की राषि या मंगल का नवांष हो तो जातिका का
पति पर स्त्री गामी हो सकता है। क्योंकि पति पूर्ण पौरुष वाला होता है। जातिका को इस प्रकार का अनुभव मंगल की महादषा
में देखने को मिल सकता है? यदि यह दषा विवाह से पूर्व या जन्म से पूर्व ही निकल गयी हो तो अंतरदषा। प्रत्यंतर दषा
में संभव है। जातिका का लग्नेष कमजोर होगा तो पति उसको दबाकर रखेगा तथा उसकी यौन लिप्तता में वृद्धि रहेगी।
5. मंगल सप्तम भाव में हो तो जीवन साथी की मृत्यु 30 वर्ष की आयु में हो सकती है। यदि मंगल 10 से 20 अंष
के मध्य हो कथित योग घटित हो सकता है। मंगल विच्छेदात्यक ग्रह है अतएव विवाह विच्छेद की परिस्थितियाँ बन सकती
है। पति-पत्नी अलग-अलग रह सकते हैं। मंगल के साथ सूर्य या बुध या दोनों हों तो विवाह में एक साल के अंदर ही उक्त
फलित में से कोई एक फल अवष्य अनुभव में आयेगा।
6. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में चंन्द्रमा, मंगल या शनि की राषि में हो तथा जातिका के
लग्न भाव में स्थित होकर, किसी पाप ग्रह से दृृष्ट हो तो जातिका की माता भी दुष्चरित्र होती है। फलतः माता के संग के कारण जातिका का भी चरित्र गिर जाता है। वृष्चिक राषि में चंद्रमा नीच का होकर विकृति विचारों की ओर प्रेरित कर सकता हैं। मेष राषि तथा कुंभ राषि में भी यौन सम्पर्क अन्य पुरूषों से बढ़ सकते हैं। किन्तु मैं मकर राषि में चंद्र के ऐसे फल से सहमत नहीं हँू। इसी राषि में मंगल उच्च का तथा शनि स्वक्षेत्री होता है। जो चरित्र नहंी गिरने देता है।पाठक शोध करें।
7. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में मंगल सप्तमेष होकर 6, 8 या 12 वें भाव में हो तथा शनि सूर्य एक साथ कहीं भी हो एवं लग्न भाव में राहू हो तो जातिका शीध्र ही निष्चित रूप से विघवा हो जाती है। सप्तमेष का जिस भाव में बैठना सप्तम भाव के फल को नष्ट
करता हैं वैधव्य कारक राहू का लग्न में होना भी सप्तम भाव के फल को बिगाड़ता है। सौर मंडल की प्राकृतिक कुण्डली में सूर्य तुला राषि में नीच का होता है उसका शनि के साथ बैठना भी उत्तम फल नहीं देता है। क्योंकि दोनों परस्पर शत्रु ग्रह है।
8. किसी जातिका की द्विस्वभाव लग्न हो तथा मंगल और चन्द्र दोनों सम सप्तम होकर लग्न सप्तमभाव में स्थित होकर परस्पर देख रहे हो तो जातिका शीध्र ही विधवा हो जाती है। मंगल चंद्र का सम सप्तक होना दाम्पत्य सुख में बाधक होता है।
9. यदि किसी पुरूष जातक की जन्मकुण्डली में मंगल तथा सूर्य कर्क राषि के होकर सप्तम भाव में हो तो जातक की पत्नी उसके निर्देष पर पर पुरूष से यौन संम्बंध स्थापित करती हैं। कर्क राषि में सूर्य अष्टमेष होकर मंगल से पुष्टि करता है। अष्टमेष जहां भी बैठता है उस
भाव की शुचिता को शंकास्पद बना देता है। सुखेष का सप्तम भाव में स्थित होना भी अधिक सुखद स्थिति नहीं है। दोनों में संबध विच्छेद की जिम्मेदारी भी मंगल सूर्य पर रहती है। जातक धन या पुत्र प्राप्ति के उद्देष्य से अपनी पत्नी से इस प्रकार का अवैध कृत्य कराता है।
10. किसी जातिका की जन्म कुण्डली में मंगल तथा शनि एक दूसरे के नवांष मे हो तो जातिका बहुत अधिक कामुक रहती है। यहां तक की एक महिला दूसरी महिला के साथ समलैंगिक संबन्ध रखती हैं पर पुरुष गामिनी होना तो उसके लिये सहज है। (मंगल और षनि एक दूसरे की राषि में हो तब भी कथित फल अवष्य घटित होता है। यदि मंगल और शनि एक दूसरे के नक्षत्र में हो तब भी समलैंंिगकता पुर्व
पर पुरूष गामिनी होते देखा गया है।
11. यदि किसी जातक की जन्म कुण्डली में मंगल सप्तम या अष्टम भाव में दो पापग्रहों के साथ स्थित हो परन्तु इस योग में सप्तमेष सप्तम भाव में न हो तो जातक की पत्नी की मृत्यु विवाह के पष्चात दो से पांच वर्ष के अन्दर हो जाती हैं यही योग किसी महिला की कुण्डली में भी हो तो उसके साथ भी यही फलित होगा। ग्रहों की बलवत्ता भी फल कथन के लिये विचार में रखना अत्यंत आवष्यक हैं यदि कोई कुयोग जिस प्रकार लिखा गया है। उसी प्रकार हो तब तो जीवन कथित फल अवष्य घटित होते हैं परन्तु किसी कुयोग पर शुभ ग्रह के फल के अवसर जुटाकर पूर्णतः घटित नहीं होने देगा। उसी प्रकार कोई सुयोग कुण्डली में हो तथा पाप ग्रह उसे प्रभावित कर रहे हो तो पष्चात् हताष हो जाने पर मिलेगा। यह सर्वत्र विचारणीय है।
12. इसी प्रकार मंगल तथा शुक्र किसी जातिका की जन्म कुण्डली में समसप्तक हो तो भी इस प्रकार के योग वाली दो महिलाओं के मध्य समलैंगिक संबध रहते हैं। मंगल और शुक्र दोनों ही समसप्तक होने पर महिला जातकों को यौन क्रीड़ा के लिये उत्तेजित करते हैं। दुष्चरिचत्र होना अंसभव नहंी है। पर पुरुष से अतिषय कामुकता की पूर्ति हेतु संबंध रखती है। पुरुष के षिषन का भी चुंबन तक कर लेती हैं।
13. यदि किसी जाति का मंगल, वृष राषि को हो तो भी जातिका में अतिषय कामुकता रहती है। यह योग किसी भाव में हो जातिका को यौन संतुष्टि के लिये उकसाता हैं कोई भी पुरूष जातक समान्य स्तर तक अपनी पत्नी की यौन संतुष्टि कर सकता है। फलतः स्त्री अपनी तृप्ति के
लिये पर पुरुष का या अन्य स्त्री के साथ कृत्रिम साधनों से काम तृप्ति करती है।
14. मंगल, सूर्य तथा राहू लग्न में स्थित हों तो जीवन साथी की मृत्यु शीध्र हो जाती है। या लम्बें समय के लिये दोनों के यौन सम्पर्क टूट जाते हैं साथ ही यदि द्वितीय भाव में शुक्र स्थित हो तो जातक के किसी अन्य स्त्री/पुरूष से अनैतिक यौन सम्बन्ध रहे।
15. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में चंन्द्रमा, मंगल या शनि की राषि में हो तथा जातिका के लग्न भाव में स्थित होकर, किसी पाप ग्रह से दृृष्ट हो तो जातिका की माता भी दुष्चरित्र होती है। फलतः माता के संग के कारण जातिका का भी चरित्र गिर जाता है। वृष्चिक
राषि में चंद्रमा नीच का होकर विकृति विचारों की ओर प्रेरित कर सकता हैं। मेष राषि तथा कुंभ राषि में भी यौन सम्पर्क अन्य पुरूषों से बढ़ सकते हैं।
दाम्पत्य जीवन में मन व प्रेम की विशेष भूमिका रहती हैं। यदि मंगल दोष विद्यमान हो लेकिन अपने मन को नियंत्रित कर जीवन साथी से प्रेम भाव बढ़ा दिया जावे तो दाम्पत्य जीवन अच्छा रहता हैं। लेकिन प्रतिरोध की स्थित अशुभ ही करती हैं। अतः मन के कारक चंद्र व शुक्र जो प्रेम कारक हैं से भी मंगल दोष बन रहा हो तो जातक अपने अंह स्वभाव, जिद्दिपन एव जीवनसाथी से प्रेम की कमी,
घृणा के कारण मंगल दोष अपना प्रभाव अवश्य दिखाता हैं। 

अपने भवन या घर में वास्तु दोष कैसे पहचाने

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भवन निर्माण एवं वास्तु विज्ञान दो अलग अलग विषय हैं। एक व्यक्ति अपने मनोनुकूल गृह का निमार्ण तो करवा सकता है अपने आर्किटेक्ट या डिज़ाइनर से कहकर उसे अच्छी प्रकार से सजा भी सकता है परन्तु वह उसमें रहने पर सुखी जीवन व्यतीत करेगा यह आवश्यक नहीं। एक आर्किटेक्ट भी जिसे केवल भवन निर्माण तकनीक का ज्ञान है उस व्यक्ति के सुखी व मंगलमय जीवन की गारंटी कैसे ले सकता है परन्तु वास्तु विज्ञान एवं वास्तु के अनुरूप मकान का निर्माण करने से वास्तु विशेषज्ञ द्वारा गारंटी ली जा सकती है। आज के युग में अपने लिए घर बनाना एक बहुत ही बड़ी उपलब्धि है जो की उसके परिवार के लिए एक बड़े अनुष्ठान की तरह होती है। गृह प्रवेष सही मुहूर्त में सभी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान करने के पष्चात् भी किया जाता है परन्तु सभी प्रकार की पूजा अनुष्ठान आदि करने के पष्चात् भी अनेकों बार यह देखने को मिलता है कि एक मकान छोड़कर जाने से तथा दूसरे मकान में रहने से एक ही परिवार की सुख शांति का हनन हो जाता है। मनुष्य यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि पहले मकान में ऐसा क्या था। मैं उसमें सुखी व सन्तुष्ट था तथा धन संग्रह कर अपना स्वयं का घर बनाया तो- मैं संकटों से घिर गया ! यहाँ उस मकान की वास्तु का बहुत अधिक प्रभाव उस के पारिवारिक जीवन पर होता है परन्तु अब प्रष्न यह उठता है कि कैसे जाने की जिस भवन में हम रह रहें हैं उसकी वास्तु हमारे अनुरूप है घ् यदि अनुरूप है तो वह हमारे तथा हमारे परिवार के लिये लाभकारी होगा क्या! यह लाभकारी निम्नलिखित में से किसी भी रूप में हो सकता है:- (1) भवन में रहने से धर्मलाभ होना चाहिए तथा उस भवन में रहने वाले प्राणी को अध्यात्मिक एवं आत्मिक सुख की अनुभूति होनी चाहिए। (2) दैविक एवं भौतिक उपसर्गों से मुक्ति मिलनी चाहिए। (3) समाज में मान-सम्मान बढ़ना चाहिए। (4) परिवार के दूसरे सदस्य भी सुखषांति का अनुभव करें तो समझना चाहिए की उस भवन की वास्तु गृहस्वामी केे अनुरूप है। (5) गृहस्वामी के व्यवसाय में उन्नति हो, उसके धन धान्य में वृद्धि हो। (6) यदि गृह स्वामी कर्जदार है और उसका कर्ज धीरे धीरे कम होना आरम्भ हो गया है तो इसे भी शुभ संकेत माना जाता है। (7) गृहस्वामी की आय के साधनों में वृद्धि हो। (8) यदि परिवार के सदस्य गृहस्वामी की आज्ञा में रहने लगें तो यह भी यही दर्षाता है कि भवन की वास्तु गृहस्वामी के अनुकूल है। (9) परिवार के सदस्य यदि अध्यात्मिक एंव आत्मिक उन्नति करने लगें और मोक्षमार्ग का रास्ता प्रषस्त हो तो इसमें ही वास्तुषास्त्र की सार्थकता है। अब देखते हैं कि घर की वास्तु अनुरूप न होने के कारण कुटुम्बजनों पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है। (1) परिवार में झगड़ा व कलह आरंम्भ हो जाता है। (2) व्यय व्यर्थ ही बढ़ जाता है। (3) आमदनी में कमी हो जाती है। (4) गृह स्वामी आर्थिक रूप से निर्बल हो जाए तो समझें उस घर की वास्तु अनुकूल नहीं है। (5) कोर्ट केस हो जाए व्यक्ति को मानसिक तनाव रहे तो समझें की घर में वास्तु दोष है। (6) गृहस्वामी का सम्मान समाज में कम होने लगें। (7) सन्तति का नाष हो या फिर उसके बच्चे व कुटुम्बजन उसकी आज्ञा का पालन न करें तो समझें की घर में वास्तुदोष है। (8) परिवार में अकाल मृत्यु भी वास्तुदोष की सूचक है। (9) अक्समात् परिवार के सदस्यों को कोई रोग घेर ले तो समझें की भवन की वास्तु अनुकूल नहीं। यदि लगे की घर में कुछ भी उपरोक्त में से घट रहा है तो समझ लेना चाहिए की भवन में वास्तुदोष है और उसके निवारण हेतु यथा सम्भव वास्तुदोष निवारण के उपाय करने चाहिएँ।

पति-पत्नी वाद-विवाद का ज्योतिष कारण

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आज के भौतिकवादी एवं जागरूक समाज में पति-पत्नी दोनों पढ़े लिखे होते हैं और सभी अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति सजग होते हैं। परन्तु सामान्य सी समझ की कमी या वैचारिक मतभेद होने पर मनमुटाव होने लगता हैं। शिक्षित होने के कारण सार्वजनिक रूप से लड़ाई न होकर पति-पत्नी बेडरूम में ही झगड़ा करते हैं। कभी-कभी यह झगड़ा कुछ समय विशेष तक रहता हैं और कभी-कभी इसकी अवधि पूरे जीवन भर सामान्य अनबन के साथ बीतती हैं। जिससे विवाह के बाद भी वैवाहिक जीवन का आनन्द लगभग समाप्त प्रायः होता हैं।
आइए जानें बेड-रूम में झगड़ा होने के प्रमुख ज्योतिषिय कारण: -
नाम गुण मिलान: -
विवाह पूर्व कन्या व वर के नामों से गुण मिलान किया जाता हैं। जिसमें 18 से अधिक निर्दोष गुणों का होना आवश्यक हैं। किन्तु यदि मिलान में यदि दोष हो तो बेडरूम में झगड़े होते हैं। यह दोष निम्न हैं। जैसे गण दोष, भकुट दोष, नाड़ी दोष, द्विद्वादश दोष को मिलान में श्रेष्ठ नहीं माना जाता। प्रायः देखा जाता है कि उपरोक्त दोषों के होने पर इनके प्रभाव यदि सामान्य भी होते हैं तब भी पति-पत्नी में बेडरूम में झगड़े की सम्भावना बढ़ जाती हैं।
मंगल दोष: -
प्रायः ज्यातिषीय अनुभव में देखा गया हैं कि जिस दम्पति के मंगल दोष हैं व उनका मंगल दोष निवारण अन्य ग्रह से किया गया हैं उनमें मुख्यतः द्वादशः लग्न, चतुर्थ में स्थित मंगल वाले दम्पति में लड़ाई होती हैं क्योंकि इसका मुख्य कारण सप्तम स्थान को शयन सुख हेतु भी देखा जाता हैं। मंगले के द्वादश एवं चतुर्थ में स्थित होने पर मंगल अपनी विशेष दृष्टि से सप्तम स्थान को प्रभावित करता हैं और यही स्थिति लग्नस्थ मंगल में भी देखने को मिलती हैं, क्योंकि लग्नस्थ मंगल जातक को अभिमानी, अड़ियल रवैया अपनाने का गुण देता हैं।
शुक्र की स्थिति: -
ज्योतिष में शुक्र को स्त्री सुख प्रदाता माना हैं और शुक्र कि स्थिति अनुसार ही पती-पत्नी से सुख मिलने का निर्धारण विज्ञ ज्योतिषियों द्वारा किया जाता हैं। अगर शुक्र नीच का हो अथवा षष्ठ, अष्ठम में हो तो बेडरूम में झगड़ा होने की सम्भावना रहती हैं। शुक्र के द्वादश में होने पर धर्मपत्नि को सुख प्राप्ति में कमी रहती हैं। यह योग मेष लग्न के जातक में विशेष होता हैं और बेडरूम में झगड़ा होता हैं।
सप्तमेश और सप्तम स्थान पर ग्रहों का प्रभाव: - (बेडरूम में झगड़े के कारण)
1. सप्तम स्थान पर सूर्य, शनि, राहू, केतु, और मंगल में से किसी एक अथवा दो ग्रहों का सामान्य प्रभाव।
2. गुरू का दोष पूर्ण होकर सप्तमेश या सप्तम पर प्रभाव।
3. सप्तमेश का छठे, आठवें अथवा बारवें भाव में होना।
4. पाप ग्रह से सप्तम स्थान घिरा होना।
5. सप्तमेश पर पाप ग्रहों का प्रभाव।
गोचर ग्रहों का प्रभाव
दाम्पत्य सुख में गोचर ग्रह का अपना महत्व हैं। सभी ग्रह गतिमान हैं और राशि परिवर्तन करते हैं एवं प्रत्येक राशि को अपना प्रभाव देकर सुखी अथवा दुखी होने का कारण होते हैं। सर्वाधिक गतिमान चन्द्र प्रत्यें ढाई दिन में राशि परिवर्तन करता हैं और चन्द्रमा मनसो जातः के अनुसार मन का कारक होने, जलीय ग्रह होने से प्रेम का भी कारक होता हैं। अतः प्रत्येक राशि में वह अन्य ग्रहों की भांति सकारात्मक अथवा नकारात्मक प्रभाव प्रदान करता हैं। इसकी छठी, आंठवीं व बारहवीं स्थिति प्रेम को कम करती हैं व शयन सुख में बाधा देती हैं।
प्रत्येक ग्रह का प्रभाव दाम्पत्य जीवन पर सकारात्मक जहाँ आनन्द भर देता हैं वहीं नकारात्मक रति सुख नष्ट कर देता हैं।