Sunday, 24 January 2016

Habit of smoking its astrological cause and remedies

Smoking is one of the bad habits which are diffi cult to quit. There are many people who ask about the best ways to quit smoking cigarette through astrology remedies. They want to know how they can quit smoking and what are the causes of smoking habits and the best ways to quit it. Many people want to quit smoking. Smoking is the single greatest avoidable risk factor for cancer; worldwide, tobacco consumption caused an estimated 100 million deaths in the last century and if current trends continue, it will kill 1,000 million in the 21st century. Causes of Smoking in Astrology Moon's connection with Mars and Saturn makes the native smoking prone. Mercury must also be affl icted. Moon's affl iction shows unstable mind, emotional disturbance due to which native feels uncomfortable to adjust in his environment. Native does not feel good from inside. Moon must be in malefic houses specially 8th house under bad influence or in bad position. There must be affliction to 8th house also; it denotes long term bad habits. 6th lord must have connection with 4th house, 4th lord or Cancer sign. Usually Moon is in waning position in these persons chart. 2nd house represent food, mouth, throat so it must be afflicted with malefi cs. Mercury indicates swift movement, hands, mouth which must be afflicted by malefics. So 2nd, 4th , 6th houses with afflicted Moon and Mercury play an important role making person addicted to smoking/cigarettes. In the example charts natives are badly addicted to the habit of smoking. In both charts Moon were found to be in 8th house of birth chart with afflicted Mercury by Saturn. Example Chart One Moon debilitated in 8th house in the sign of Saturn sitting in 4th house in Moon sign aspected by Mercury the 6th lord. Mercury in 10th house aspected by Saturn causes continuous movements of mouth and hands. Gemini rules 3rd house under Papkartari yoga. In Navamsha chart, Mercury is in 5th house. Gemini occupied by Node aspected by Saturn. In Trimshamsha chart, Moon is in 10th house aspected by Saturn. Lagna is Gemini aspected by Saturn, Rahu with Mercury in 12th. Moon is in Saturn sign in 8th house aspected by Saturn and Rahu indicating that native will be in habit of drinking along with smoking. Saturn is aspecting 4th house while 6th lord is placed in Cancer sign. Here Moon is combust too. Mercury is in 8th house afflicted by Saturn with other malefics also. Gulika one of the malefics like Saturn is placed in Gemini. In Navamsha chart Moon is afflicted by Mars, nodes. Mercury in 8th house aspected by Saturn. In Trimshamsha chart Moon again is placed in 8th house with 4th lord Mercury aspected by Rahu and Ketu in Gemini, 6th lord Sun with Saturn aspected by nodes. Mars' involvement is also seen in these charts. Mars planet of energy represents fire giving boost to negative habits. People with strong Gemini energy (negatively strong) tend to be cigarette smokers. Gemini can be restless and jittery in nature, and those who are strongly influenced by this sign often chain smoke mainly in an effort to calm themselves. Effective healing will not only break the addiction to nicotine, but substitute healthy methods to calm the nerves and mind. Quit Smoking with Astrology Moon governs your habits, emotions, conditioning, moods and your attachments. The moon governs your emotional connection to your environment and how you feel inside. The moon influences your emotions driven moods and your will to succeed. Saturn is the planet of discipline, maturity, restriction, darkness, limitation, and structure. Saturn wants you to progress through hard work and diligent effort. The Moon must be at an angle to Saturn that provides an easy flow of energy. When determining the best aspects between the Moon and Saturn, the Moon should be waning. The waning Moon occurs after the Full Moon. As the moon waxes or reaches its fullness our desires increase. When the Moon is waning, our desires decrease. You can quit smoking when you are determined to do so. For this you need to check in transit the Moon's placement and the energy of Saturn to become smoke free forever. Saturn energy is a great guide and teacher. Saturn will reward you for your hard work and efforts. When you decide to quit smoking you will need discipline as much as you need motivation and this is where Saturn will help you. Other Remedies : •Drink milk every day in day time specially. •Take good amount of fresh fruits and Juices every day. •Don’t remain hungry, keep having something healthy, fruits, juice, toffee, lozenge. •Vegetarian diet helps in increasing the sattvic quality of the mind. •Drink lots of water. •Take Nicotine substitutes to help quit smoking gum, patch, nasal spray, inhaler and lozenge, Fennel seeds, it will also keep your mouth busy. •Wearing Rudraksha can also help as it gives stability of mind and removes negativity

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Friday, 22 January 2016

गंडमूल संज्ञक नक्षत्र

संधिकाल या संक्रमण काल सदैव से ही अशुभ, हानिकारक, कष्टदायक एवं असमंजसपूर्ण माना जाता रहा है। संधि से तात्पर्य है एक की समाप्ति तथा दूसरे का प्रारंभ, चाहे वह समय हो या स्थान हो या परिस्थिति हो। ऋतुओं के संधिकाल में रोगों की उत्पत्ति होती है। दिन व रात्रि के संधिकाल में ईश वंदना की जाती है। शासन प्रशासन के संधिकाल में जनता को कष्टों का सामना करना पड़ता है। कमरे व बरामदे के मध्य (दहलीज पर) शुभ कार्य वर्जित है। दो प्रकार के मार्गों के मिलन स्थल पर सावधानी सूचक चेतावनी पट्ट लगे होते हैं। वरदान प्राप्त करने पर भी हिरण्यकश्यप का जिस प्रकार अंत हुआ वह भी संधि का ही उदाहरण है। ज्योतिष में ऐसी ही संधिकालीन स्थिति के अनेक उदाहरण हैं, जैसे सूर्य संक्रांति, नक्षत्र संधि, राशि संधि, तिथि संधि, लग्न संधि, भाव संधि दशा संधि आदि। ऐसी संधियों में जन्मे जातक को भारी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार के संधिकालों में शुभ कार्य, विवाह, यात्रा आदि वर्जित हैं। हम यहां ऐसी संधि पर विचार करेंगे जिसमें दो प्रकार की संधियां यथा नक्षत्र संधि तथा राशि संधि एक साथ आती है। राशियों में 27 नक्षत्रों का वितरण करने के लिए भचक्र को 120 अंश के तीन तृतीयांशों में बांटा गया है। एक तृतीयांश (120 अंश) में 9 नक्षत्र, 36 चरण तथा 4 राशियां आती हैं। तीनों तृतीयांशों में 9-9 नक्षत्रों की आवृत्ति नक्षत्र स्वामी के अनुसार समान रूप से है। प्रत्येक तृतीयांश केतु के नक्षत्र (कमशः 1 आश्विनी, 10 मघा तथा 19 मूल) से प्रारंभ होता है तथा बुध के नक्षत्र (क्रमशः 9 आश्लेषा, 18 ज्येष्ठा तथा 27 रेवती) पर समाप्त होता है। यदि हम राशियों के वितरण पर ध्यान दें तो स्पष्ट होगा कि प्रत्येक तृतीयांश अग्नि तत्व राशि (क्रमशः मेष, सिंह तथा धनु) से प्रारंभ तथा जल तत्व प्रधान राशि (क्रमशः कर्क, वृश्चिक तथा मीन) पर समाप्त होता है। 0 अंश, 120 अंश तथा 240 अंश को इसी आधार पर जन्मकुंडली में भी त्रिकोणों की संज्ञा दी जाती है। ये बिंदु क्रमशः लग्न, पंचम तथा नक्षत्र भावों के प्रारंभ माने जाते हैं। ये तीनों बिंदु ऐसे स्थानों पर हैं जहां नक्षत्र व राशि दोनों एक साथ समाप्त एवं प्रारंभ होते हैं अर्थात ये बिंदु नक्षत्र एवं राशि के संयुक्त संधि स्थल हं। 1. 0 अंश पर रेवती (मीन) समाप्त होकर अश्विनी (मेष) से प्रारंभ होता है। 2. 120 अंश पर अश्लेषा (कर्क) समाप्त होकर मघा (सिंह) से प्रारंभ होता है। 3. 240 अंश पर ज्येष्ठा (वृश्चिक) समाप्त होकर मूल (धनु) से प्रारंभ होता है। उपर्युक्त समाप्त होने वाले नक्षत्रों (रेवती, अश्लेषा व ज्येष्ठा) का स्वामी बुध है तथा तीनों संबंधित राशियां (मीन, कर्क तथा वृश्चिक) जल तत्व प्रधान हैं। इसी प्रकार प्रारंभ होने वाले नक्षत्रों (अश्विनी, मघा, व मूल) का स्वामी केतु है तथा तीनों संबंधित राशियां (मेष, सिंह व धनु) अग्नि प्रधान हैं। बुध के नक्षत्र रजोगुणी तथा केतु के नक्षत्र तमो गुणी हैं। इस प्रकार ये बिंदु राशियों के अनुसार अग्नि तथा जल के संगम स्थल तथा नक्षत्रों के अनुसार रज और तम के हैं। इन्हीं के आधार पर ये संधि स्थल क्षोभपूर्ण, अशांत, विस्फोटक एवं तूफानी होने के कारण अशुभ माने जाते हैं। अतः नक्षत्रों के ये तीन युग्म यथा रेवती+अश्विनी, आश्लेषा+मघा तथा ज्येष्ठा+मूल गंडमूल संज्ञक नक्षत्र कहलाते हैं। यदि जातक का तात्कालिक चंद्र स्पष्ट उपर्युक्त राश्यांशों में हो तो उसका जन्म गंडमूल नक्षत्र में माना जाना चाहिए। बड़े व छोटे मूल: मूल, ज्येष्ठा व अश्लेषा बड़े मूल कहलाते हैं तथा अश्विनी, रेवती व मघा छोटे मूल हैं। बड़े मूलों में जन्मे जातक के लिए जन्म के 27 दिन बाद चंद्रमा जब उसी नक्षत्र में आता है तब मूल शांति कराई जाती है। तब तक पिता बालक का मुंह नहीं देखता। छोटे मूलों की शांति 10वें दिन अथवा 19वें दिन जब उसी स्वामी का दूसरा या तीसरा नक्षत्र (अनुजन्म या त्रिजन्म) आता है तब कराई जा सकती है। गण्डांत मूल: संधि के अधिकाधिक निकट गंडमूलों की अशुभता में और भी वृद्धि हो जाती है। 0, 120 व 240 अंश तो अत्यंत ही संवेदनशील बिंदु हैं, क्योंकि वहीं जल और अग्नि का वास्तविक मिलन होता है। ऐसे समय में जातक का जन्म होना अत्यंत ही दुविधाजनक होता है। या तो ऐसा बालक जीता ही नहीं, यदि जी जाए तो फिर विशेष रूप से विख्यात होता है। परंतु माता-पिता के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। सारावली के इस श्लोक से उक्त की पुष्टि होती है। ‘‘जातो न जीवति मरो मातुर पथ्यो भवेत्स्वकुलहन्ता। यदि जीवति गण्डान्ते बहुगजतुरगो भवेद् भूयः।।’’ संधि के अत्यंत निकट वाले भाग को गण्डांत मूल की संज्ञा दी जाती है। प्राचीन विद्वानों के अनुसार नक्षत्र युग्म के पिछले नक्षत्र की अंतिम 2 घटियां तथा अगले नक्षत्र की प्रथम दो घटियां (लगातार 4 घटियां) गंडान्त मूल की श्रेणी में आती हैं। इन विद्वानों ने प्रत्येक नक्षत्र में चंद्रमा का भभोग 60 घटी मानकर व्यक्त किया होगा परंतु चंद्रमा का प्रत्येक नक्षत्र में भभोग समान नहीं रहता। अतः इस समय सीमा के बजाय कोणात्मक मान में परिवर्तन करना उपयुक्त रहा। 60 घटी में से 2 घटी का अर्थ 800 कला का 2/60 अर्थात 800 X1/30 अर्थात 800 X 1/30 = 26 कला 40 विकला कोणात्मक मान होता है। उपर्युक्त गणना के आधार पर गंडांत मूल संज्ञक नक्षत्रों का कोणात्मक विस्तार निम्नानुसार होना चाहिए। अभुक्त मूल: ज्येष्ठा नक्षत्र के अंत की एक घटी (24 मिनट) तथा मूल नक्षत्र की प्रथम एक घटी (24 मिनट) अभुक्त मूल कहलाती है। उपर्युक्त गणनानुसार 2 घटी का कोणात्मक मान 26 कला 40 विकला होता है, अतः एक घटी का कोणात्मक मान 13 कला 20 विकला हुआ। इसके अनुसार अभुक्त मूल का कोणात्मक विस्तार निम्नानुसार होता है। अलग-अलग विद्वानों के अनुसार उक्त घटियों की संख्या भिन्न-भिन्न हैं। परंतु कुल मिलाकर देखा जाए तो ज्येष्ठा का चतुर्थ चरण तथा मूल का प्रथम चरण सर्वाधिक हानिकारक है। सामान्य रूप से तृतीयांशों के अंतिम नक्षत्रों (रेवती, अश्लेषा व ज्येष्ठा) के प्रथम चरणों से ज्यों-ज्यों चतुर्थ चरणों की ओर (संधि के निकट) बढ़ते हैं तो अशुभता बढ़ती जाती है। इसके विपरीत तृतीयांशों के प्रारंभिक नक्षत्रों (आश्विनी, मघा व मूल) के प्रथम चरणों से चतुर्थ चरणों की ओर संधि से दूर बढ़ने पर अशुभता कम होती जाती है। अभुक्त मूल में जन्मे बालक का मुंह पिता द्वारा 3 वर्ष तक देखना वर्जित है। इसलिए प्राचीन काल में ऐसे बालकों को त्याग दिया जाता था। इसी प्रकार के दो जातक आगे चलकर महासन्त तुलसीदास एवं कबीर के नाम से अमर हो गए। गंडमूल संज्ञक नक्षत्रों के चरणानुसार जन्मफल नीचे दिए जा रहे हैं। इन फलों में जहां पिता, माता, ज्येष्ठ भ्राता या अनुज भ्राता शब्द आए हैं, लड़कों के लिए है और लड़कियों के लिए इन्हें कुरूपा, श्वसुर, सास, जेठ या देवर समझा जाना चाहिए।

Importance of tithi in predicting astrology

Our sages, who made many contributions in the field of Astrology and wrote about their experiences in the classics in the shape of sutras or shlokas. Every body who worked on this ancient subject had mastered different theories, as per their expertise, to be used in delineating a birth chart, or horoscope, thus provided the modern world with different tools to decipher a birth chart. One of these tools is Tithi, which is of prime importance in predictive astrology. Since this article is related to the importance of Tithi in predictive astrology we shall restrict ourselves to its use only, while ignoring the method of calculating Tithi, since most of the learned fellows are aware of the method. Tithi plays a very prominent role in predictive astrology whereas most of the astrologers ignore 'its importance while making predictions' since they have kept its limitations up to Muhurta only. We have 14 Tithis of Shukla Paksha and 14 of Krishna Paksha, thus making the total of 28. Since one Tithi comprises Poornima and one Amavasya it a total 30 Tithis and these 30 Tithis make one lunar month. First Tithi is known as Pratipada and the last one is Chaturdashi, excluding Poornima and Amavasya. Every native is born on some Tithi from Pratipada to Chaturdashi and of course on Poornima and Amavasya as well. Now on every Tithi two Rashis (signs) are given the name of Dagdha Rashis and on some Tithis four Rashis(signs) fall under the category of Dagdha Rashis(signs). On Poornima and Amavasya no Rashi is Dagdha Rashi(sign). The literal meaning of Dagdha is burnt. One thing worth mentioning here is that Dagdha Rashis and Rikta Tithis are two different things, which should never be intermingled, while using Dagdha Rashis(signs). These Dagdha Rashis give either excellent, or worst results under certain conditions, as detailed below: •It is always good if this Dagdha Rashi(sign) falls in a Trik Bhava, since a negative Rashi falling in a negative Bhava/house will give good results. •In case either of the Dagdha Rashi(sign) falls in a good Bhava/house, it is destined to spoil some good traits of the concerned Bhava/house. •Apart from Sun and Moon, every planet has ownership over two Rashis (signs) and the Rashi (sign), which is Dagdha, suffers and not the other sign owned by the same planet. •If a benefic planet is posited in Dagdha Rashi (sign) at the same time it is in retrograde motion, it will give excellent results during its period, or sub period. But in case this benefic happens to be in its direct motion it will give worst results in its period or sub period. Up to some extent this rule is applicable during transit also. •If a malefic planet is posited in a Dagdha Rashi (sign) but in its direct motion it will give excellent results during its period and its sub period. But in case this malefic happens to be in its retrograde motion, it will give worst results during its period and sub period. Again up to some extent this rule applies during transit also. •Since Rahu’s and Ketu’s natural motion is retrograde only and they never move in a direct motion, hence placement of these two planets in a Dagdha Rashi (sign) will always give excellent results during their periods and sub period. But out of the two, Rahu will give much better results as compared to Ketu. •In case a Dagdha Rashi (sign) is occupied by two planets, out of which one is malefic and other is benefic and this malefic is in direct motion and the benefic in a retrograde motion, in such a case in one planet’s major period the sub period of other planet will give excellent result. In case, as per rules if malefic is in its direct motion and the benefic is retrograde, a major period is that of malefic planet” will give excellent results, but as and when the sub period of benefic runs it will give bad results and vice versa. • The sun and the moon, being luminaries and having only direct motion are exempted from the rules mentioned above

Simple astrological solution to solve marital problems

Marriage in India is a sacrament based on religious and moral factors. Its aim is to get progeny and continuance of the family line. The 7th house is important in judging marital matters. The 7th lord, Karaka (significator) Venus as also the occupants of the 7th house, the planets associated with the 7th lord, the planets aspecting the 7th, the lord of the 7th from the Lagna and Moon, and appropriate Dasa period influencing the 7th house are also to be considered. If 7th house and its lord are strong, the marriage will be successful and happy. If 7th house or its lord is severely afflicted, marriage may be devoid of happiness. Conditions for Marriage The 2nd house indicates family. Marriage implies a new member is added to the family. This addition is an agreement and agreements come under the 7th house. Such an additional member is deemed to bring happiness to the family and is denoted by the 7th house. Hence in deciding marriage the 2nd, 7th and 11th houses are to be examined. Marriage can take place if the following conditions are present : i. Moon and Venus in fruitful signs. ii. Venus and Jupiter in 2nd, 7th or 11th. iii. Jupiter with the Moon in the 1st, 5th, 10th or 11th. iv.Mercury in 7th and Venus with 7th lord. v. Lord of 7th and Venus in the 2nd. vi. Benefics in the 2nd, 7th or 11th from the ascendant or the Moon. vii.Ascendant lord in the 11th and Venus in the ascendant. viii.Lords of the 2nd, 7th or 11th in favorable association. ix.The 2nd and 11th lord in mutual exchange. x.The ascendant lord and 7th lord strong and well placed. xi:Venus in own or exalted sign and lord of 7th in beneficial houses. xii.Jupiter exalted in the 7th with benefics. xiii.Exchange between lord of 1st and 7th houses. xiv.Lord of 2nd and 7th in the 11th. xv.Ascendant lord in the 10th and 7th lord in the 11th Marriage Conferring Dasas The Dasas of the following planets can confer marriage: i. Lord of the sign occupied by the 7th lord. ii. Lord of the sign occupied by the 7th lord in Navmansa. iii.Venus, the Karaka (Significator) and Moon can give marriage in their Dasas. iv. The 7th lord if associated with Venus. v.The 2nd lord or the lord of the sign occupied by the 2nd lord in Navmans. vi. The 9th and 10th lords if the earlier periods fail. vii.The 7th lord or the planet in the 7th house. Timing The timing of marriage can be known by different methods given in classical works. The important factor is to look for the planetary condition which brings out the event. The chart is to be analysed to see whether (a) there is a delay in marriage and (b) the appropriate dasa and bhuktis operate at the time of marriage and (c) the transits of planets are conducive to marriage. (a) Marriage can take place during the Dasa of the (i) planet in the 7th, (ii) planet aspecting the 7th house and (iii) planet owning the 7th. In Chart 1, marriage took place in Jupiter Dasa , Rahu Bhukti. Jupiter is the lord of the 7th. Transitory Jupiter was in the 7th from Navmansa Ascendant. Jupiter is the 2nd and 11th lord from the Moon.

Seventh Lord and Planetary positions results

The first house in the Kundli is about identity and just opposite to this house is the seventh house which shapes our destiny in relationship. Do you find it easy to pair up or you remain a singleton all through life depends on the position of seventh lord, seventh house and planetary aspect on them in the kundli. The prime factor in correct judgment of a particular house is to study and to analyze the various influences in holistic manner keeping in view the contemporary situation, period and country-
There are various factors which influence the 7th house and the related aspects of life. 7th house does not only relate married life, but it relates all issues related to marriage I.e. the beauty of the spouse, the family of the spouse, the qualifications of the spouse, timing of marriage, status of marriage, love marriage or arranged marriage etc. The house also relates with delay in marriage or devoid of marriage. The aspect of planets on 7th house or 7th lord may materialize love affairs into marriage or may break happy life by separating the husband and the wife or it may result spinster ship for the whole life. Let us see which astrological yoga create hurdles in materializing the marriage and one has to remain bachelor -
1. If lagna, twelfth house and seventh houses have Maraka planets and combust moon is in fifth or second house. The native remains bachelor.
2. If moon and Venus are opposite to Mars and Saturn (seventh house) the native either does not get married or breaks marriage.
3. In a male’s kundli, if moon and Saturn are posited in Seventh house, the marriage does not happen.
4. If Saturn is in seventh or in lagna.
5. Saturn and Mars are posited in Seventh house or aspect 7th house one faces problems in getting married.
6. Sun in seventh house or aspects the 7th house, the native will tend to lose sexual urge and even loose his interest in marriage.
7. If fifth and seventh lord, both are afflicted.
8. If Venus and 7th lord are not in favorable position one is devoid of marriage.

Why multiple relationships created in marital life: Astrological Reasons

Since time immemorial, Astrology has been at the service of man, helping him in predicting future, comforting him in difficult times with visions of better prospects, aiding him in taking prudent decisions. But like all ancient studies, astrology too has been viewed with mixed feelings, varying from skepticism to disbelief and contempt. At many times, it has been regarded as an over-hyped belief and has been burdened with myths. But the fact is that Astrology is more than a study of coalescence of planets and its influence on man, his life and the future, in particular and of the world in general. Not taking much time. I would like to come to the topic of “Multiple Marriages and extra Marital Relationship”.
Marriage is an institution by itself. It is: not a mere association of a male and a female for biological satisfaction. Astrology says that marriages based on Correct horoscope matching seldom fail to achieve the goal and make life and living happy and prosperous. In spite of it, marriages do fail. In such cases experience would vouchsafe that either the concerned horoscopes were incorrect or the assessment or matching defective.
Certain dicta of Brihad Prashara Hora Shastra, Jatak Paarijat, Uttar Kalamrita and their versions are worth remembering in this context. There are certain principles which have been explained in our clasical text books to determine extra marital relations / connections before and after marriage and unconventional marriage of a particular native, the types of which are being explained as under:
A second marriage with the consent of the first spouse.
Developing physical relations with a virgin or’ a divorcee or a widow not legally married but treated as a wife with the first spouse approving.
The failure of first marriage leading to a the second marriage.
A secret love affair either with an unmarried girl or married women or with a woman abandoned by her husband or a widow.
Developing physical relations with other women while living away abandoning his legal wife without any concrete reason.
Under each group mentioned above which is a class by itself I wish to explain below various planetary combinations and configurations as per instructions mentioned in our classics and other ancient books and experiences laid down by eminent and illustrious astrologers of the modern age as well as worthy “Gurus” of past:
In a female horoscope the 3rd, the 4th and the 5th houses are all occupied by malefic planet or planets that are either in their debilitation sign or the looser of inter-planetary war, the character of the women may be questionable.
Similarly if the 7th, 8th, 9th house either from the Ascendant or from the strong moon are all occupied by malefic planets, the woman’s personal and sexual life will be questionable.
The presence of Mars in the 1st, 2nd, 4th, 7th, 8th, 12th houses for any lagna in a horoscope causes dissatisfied married life.
Mars in a horoscope from the lagna in above said houses causes a weak Manglik Dosha and from the Moon Mars Causes stronger Manglik Dosha while from Venus Mars, causes strongest Manglik Dosha.
Saturn in the 7th house either from Ascendant or from Navamsha ascendant causes unconventional marriage. Some texts say that if such a situation occurs in natal chart it relates to first marriage and if it occurs in navamsha chart then it causes extra marital affairs after marriage.
The Moon-Venus combination in the 7th house owned by the Moon or Venus or the lord of their respective exaltation sign causes disturbances in married life. In male horoscope this combination gives more then one marriage.
In the case of a female horoscope if the 4th house of her horoscope is occupied by the debilitated Moon especially with the Sun and Moon is of Mars, Rahu or Ketu’s Nakshatra and without any benefic aspect of Jupiter, the girl will be of very loose character with multiple relationships.
The weak 7th Lord occupying the 9th house, in a female horoscope causes disturbance / divorce or judicial separation after marriage and cancellation of engagement at the 11th hour of marriage.
In the case of females an afflicted 5th house aspected by the weak or seriously afflicted 5th Lord causes pre-marriage or extra marital sex, especially in cases where the 7th Lord is placed in 12th, 8th or 3rd house from the 7th house.
If Lagan of a particular native is Scorpio occupied by Saturn and Mars is in 12th house aspecting 7th house or conjoins Saturn in Lagan the native becomes very sexy and his/her sexual appetite can’t be satisfied so easily.
If Lagan is Scorpio and Saturn is posited in it and Mars is posited in 7th house, this combination delays marriage. If Venus is debilitated or combust in this combination the native will be highly sexy.
If Lagan is Capricorn and Saturn is in lagan and Saturn gets aspect of debilitated Mars the girl will be of loose character and will not hold chastity.
If Lagan is Gemini and also Navamsha Lagan is Gemini i.e. Vargottam and Venus is in lagna in Natal Chart it causes second marriage or marriage with a divorcee.
If lagan is Gemini and Lagan is Vargottam and Venus is dully aspected by Saturn in Lagan chart, the girl will be of immoral character.
In this case if Venus belongs to Mars, Mercury or Saturn’s Trishamsha the girl will be of loose character. There will be difference of opinion if Venus is posited in Cancer Rashi and Lagan is Vargottam.
Venus of Leo Rashi if occupies 7th house, there will be a break in married life.
Exalted Venus in 12th house duly aspected by Mars gives sex pleasure before marriage, rather in early age.
Saturn is hemmed in Paapkastrari Yoga and also posited in Lagan or 7th house causes sex before marriage.
If weak lord of 10th is posited in Dusthan (6th, 8th and 12th houses) and Venus is in its debilitation sign without any benefic aspect, it causes love affair.
If the 7th Lord is in eleven or 11th Lord is in 7th or 7th Lord and 11th Lord exchange their house there will be more than one marriage.
If the 11th house is of Virgo sign and Venus is posited there and have malefic aspect there will be more than one marriage.
When Venus occupies a moveable sign and gets aspect of Mars or Rahu or Saturn there will be extra marital affairs even after marriage.
Strong Rahu is in 10th or in 11th house with relationship to 7th house or 7th house Lord there will be clandestine love affair.
If the 4th Lord (the house of masses) placed in the 10th house (house of sex of masses) and Venus or Mars are involved either in shape of aspect or conjunction there will be extreme sexual lust in that native.
5th Lord is in 7th or 7th Lord is in 9th and 5th and 9th Lord in 7th house or 5th, 7th and 9th Lords in 11th or in 2nd there will be love affair which ends in love marriage
Gemini Sagittarius and Pisces, the dual signs if any one of these hold Venus in it and gets aspect of Rahu or Saturn there will be many relationships.
Strong Moon and Venus together in one house cause extra marital relationship or unhappy married life leading to separation or divorce.
7th Lord is placed in 6-8-12 houses without any significant power or benefic aspect causes extra marital affairs.
The 7th Lord if placed in 3rd the native will get love marriage against the will of his/her parents.
If Saturn in 2nd house and Rahu in 7th house there may be extra marital affairs.
If 11th house occupies two planets and the 7th is in afflictions then there will much disturbance in married life.

Success growth in life of people having "Panch Mahapurush Rajayoga"

Persons having Panch Mahapurush Rajayoga in their birth charts get good jump in life and progress well during dasa, antardasa of planet causing this rajyoga. Definition of Panch Mahapurush Rajayoga is very well defined by ancient astrologer Acharya “Varahamihir” in Chapter 68 of Vrahat Samhita. As per his definition -Five planets Mars, Mercury, Jupiter, Venus and Saturn; when placed in kendra and either in their own house or in the house of exaltation form Panch Mahapurush Rajayogas. One more condition is mentioned in the said rules that Sun and Moon should also be powerful for getting full result of this rajayoga. Names of these Rajayogas are given below :
(1) Hamsa Yoga :Jupiter placed in its own house or in house of exaltation in Kendra forms Hamsa Yoga . Hamsa yoga is possible in respect of ascendants of all common signs and movable signs -named Aries, Cancer, Libra and Capricorn. The strength of the yoga is dependent on strength of lagna and Jupiter. Tenth kendra is most powerful. As per Vedic Astrology the persons having this yoga will have markings of lotus, fish and ankush on their legs. It is to be verified in actual cases.
A person having this yoga will posses handsome body, he will be liked by others and will have a righteous disposition.
2. Malavya Yoga : When Venus is placed in Kendra in its own House or in House of exaltation, it forms “Malavya” Panch Mahapurush Rajyoga. As per vedic astrology this rajyoga gives the person good physique, strong mind, wealth, happiness with children and wife. He will command vehicles and will be renowned and learned. It makes him immensely rich and gives him name and fame. Malavya yoga renders fortune with all indications of Venus.
While Hamsa and Malavya both are Rajayogas; the former makes one more idealistic, spiritual, broad minded and selfless; the later indicates love of pleasure and materialistic outlook of life.
(3) Bhadra Yoga : When Mercury is placed in Kendra in its own house or in exaltation Bhadra Panch Mahapurush Rajayoga is formed. The person born in this yoga will be strong, will have lion like face, well developed chest, well proportioned limbs, will help relatives and have a long life span. Mercury is a planet of intellect and in consonance with the Inherent nature of Mercury, the person would be intelligent.
4) Ruchak Panch Mahapurush Rajyoga: When Mars is in Kendra in exaltation or in its own sign, it forms Ruchak Mahapurush Rajayoga. A person having Ruchak Rajyoga will have strong physique, fame, he will be equal to a king or a king. He will have ruddy complexion, attractive body, charitable disposition, wealthy and long life, may be a leader of an army, Ruchak Rajyoga gives martial tendencies, an aggressive but a patriotic person.
(5) Shash Panch Mahapurush Rajyoga: It is formed when Saturn is placed in kendra in its own house or in house of exaltation. Such persons command good servants. Their character could be questionable. They covet other’s riches and will be wicked in disposition
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क्यूँ लोग कभी कभी कहते है की मन नहीं लगता

क्यूँ लोग कभी कभी कहते है की मन नहीं लगता या मन नहीं लग रहा जाने ज्योतिष की नजरिये से
मन नहीं लगता या नहीं लग रहा ये अकसर सुनने में आता है। मन अति चंचल है। कहा जाता है कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अतः मन किसी व्यक्ति में इतना मायने रखता है। और कई बार मन कुछ भी करने को नहीं करता है। मन की भटकन को रोकने के लिए ज्योतिष कारगर साबित होता है। मन को हम कुंडली के तीसरे स्थान से देखते है। अगर किसी का तीसरा स्थान विपरीत स्थिति में या कू्रर ग्रहों के साथ हो तो ऐसा व्यक्ति मन के अधीन रहने का आदी होता है और अपने जीवन में अनुषासन नहीं रख पाता जिसके कारण सफलता प्राप्ति नहीं होती और परेषान रहता है। वहीं यदि किसी का तीसरा स्थान अनुकूल स्थिति में और सौम्य ग्रह हो या सौम्य ग्रह की दृष्टि हो तो ऐसे लोग हमेषा मन को काबू में रख पाते हैं। अतः यदि आपका मन भी बहुत चंचल हो तो अपने तीसरे स्थान के ग्रहों का विष्लेषण कराकर उस ग्रह की शांति कराना चाहिए साथ ही तीसरे स्थान का स्वामी बुध होता है अतः बुद्धि को साकारात्मक रखने एवं लगातार क्रियाषील रहने के लिए बुध से संबधित मंत्रजाप, दान करना भी मन को रूकने में सफल हो सकता है।
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जब सद्संग कम हों तो जीवन में आते हैं कष्ट:

जब भी किसी का समय खराब आता है तो उसके जीवन में सद्संग तथा सद्व्यवहार दोनो कम होते हैं या समाप्त होने लगते हैं। बुरे समय का सबसे पहला असर बुद्धि पर पड़ता है और वह बुद्धि को विपरित करके भले को बुरा व बुरे को भला दिखलाने लगता है। विनाशकाल समीप आ जाने पर बुद्धि खराब हो जाती है, अन्याय भी न्याय के समान दिखने लगती है। मनुष्य का जीवन उसके निर्णयों पर आधारित है। हर व्यक्ति को दो या अधिक रास्तों में से किसी एक को चुनना पड़ता है और बाद में उसका वही चुनाव उसके आगे के जीवन की दिशा और दशा को निर्धारित करता है। इसे हम ज्योतिषीय गणना में कालपुरूष की कुंडली द्वार उसके लग्नेष, तृतीयेष, भाग्येष और एकादषेष द्वारा देख सकते हैं। अगर किसी जातक की कुंडली में ये स्थान उच्च तथा उसके स्वामी अनुकूल स्थिति में हों तो उसके निर्णय सही साबित होते हैं और अगर क्रूर ग्रहों से आक्रांत होकर पाप स्थानों पर बैठ जाये तो निर्णय गलत हो जाता है। किंतु कई बार ऐसे विपरीत बैठे ग्रह दषाओं में लिए गए निर्णय बेहद कष्टकारी साबित होते हैं, जिसे कहा जा सकता है कि विनाष काले विपरीत बुद्धि। जैसे किसी की राहु की दषा प्रारंभ हो रही हो या होने वाली हो तो वह नौकरी छोड़ने या व्यापार करने का निर्णय ले ले, जिसमें हानि की संभावना शतप्रतिषत होती है। अतः किसी को अपनो के विरोध का सामना करना पड़े तो उसे ग्रह शांति जरूर करानी चाहिए।
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महाभद्रा अष्टमी में सूर्य पूजन से पायें स्वास्थ्य -

मानव जाति त्रिविध (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) कष्ट भोगता है उनमें मृत पूर्वजों की अतृप्ति के कारण वंशजों को जो कष्ट होता है वह आध्यात्मिक कारणों से होने वाले कष्टो में से एक है। समस्याओं से मुक्ति के अनेक उपाय करने के बावजूद भी राहत नहीं मिलती है। सामान्यतः दैनिक जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। शारीरिक रूप से कमजोर, मानसिक रूप से विक्षिप्त, विकलांग रूप में जन्म लेना इत्यादि। भद्राअष्टमी में सूर्य की पूजा करने से स्वयं और आने वाले वंष को शारीरिक कष्टो से छुटकारा मिलकर स्वास्थ्य एवं समृद्धि की प्राप्ति का योग बनता है। किसी भी प्रकार से शारीरिक या किसी बीमारी से मृत्यु को प्राप्त पितरों के कारण शारीरिक कष्टो के कारण जीवन दुखमय होने पर दुख की निवृत्ति और उस प्रकार के शारीरिक कष्ट से रक्षा हेतु भद्राअष्टमी का में सूर्य पूजन करना चाहिए। इस दिन दीपक, कपूर, धूप, लालपुष्प और चावल, शक्कर से सूर्य को गंगाजल का अध्र्य देते हुए सूर्य पुराण का पाठ कर दान देने से चर्मरोग पंगुपन या मूकपन से मुक्ति प्राप्त होती है।
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Thursday, 21 January 2016

शनि देव की कथा

आकाश में ग्रह नक्षत्रों की चाल बदलते ही किस्मत बदल जाती है। यह सब नौ ग्रहों के 12 राशियों में संचरण से होता है। इन्ही नौ ग्रहों में से एक है शनि देव। शनि देव सदैव से जिज्ञासा का केंद्र रहे हैं। पौपौराणिक कथाओं के अनुसार शनिदेव कश्यप वंश की परंपरा में भगवान सूर्य की पत्नी छाया के पुत्र हैं। शनिदेव को सूर्य पुत्र के साथ साथ पितृ शत्रु भी कहा जाता है। शनिदेव के भाई-बहन मृत्यु देव यमराज, पवित्र नदी यमुना व क्रूर स्वभाव की भद्रा हैं। शनिदेव का विवाह चित्ररथ की बड़ी पुत्री से हुआ था। ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शनिदेव का जन्म उत्सव मनाया जाता है। शनिदेव का जन्म स्थान सौराष्ट्र में शिंगणापुर माना गया है। हनुमान, भैरव, बुध व राहू को वे अपना मित्र मानते हैं। शनिदेव का वाहन गिद्ध है और उनका रथ लोहे का बना हुआ है। शनि देव के दस नाम: शनिदेव के 10 अन्य प्रसिद्ध नाम हैं: यम, बभ्रु, पिप्पलाश्रय, कोणस्थ, सौरि, शनैश्चर, कृष्ण, रोद्रान्तक, मंद, पिंगल। शनिदेव अपना शुभ प्रभाव विशेषतः कानून, राजनीति व अध्यात्म के विषयों में देते हैं। शनि के बुरे प्रभाव से गुर्दा रोग, डायबिटीज, मानसिक रोग, त्वचा रोग, वात रोग व कैंसर हो सकते है जिनसे राहत के लिये शनि की वस्तुओं का दान करना चाहिये। शनिदेव का रंग काला क्यों है?: जब शनिदेव अपनी माता छाया के गर्भ में थे, तब शिव भक्तिनी माता ने तेजस्वी पुत्र की कामना हेतु भगवान शिव की घोर तपस्या की जिस कारण धूप व गर्मी की तपन में शनि का रंग गर्भ में ही काला हो गया लेकिन मां के इसी तप ने शनिदेव को अपार शक्ति भी दी। शनि की गति अन्य ग्रहों से मंद क्यों है?: शनि एक धीमी गति से चलने वाला ग्रह है। पुराणों में यह कहा गया है कि शनिदेव लंगड़ाकर चलते हैं जिस कारण उनकी गति धीमी है। उन्हें एक राशि को पार करने में लगभग ढा़ई वर्ष का समय लगता है। शनिदेव लंगड़ाकर क्यों चलते हैं?: इस विषय पर शास्त्रों में दो कथाएं प्रचलित हैं - - एक बार सूर्य देव का तेज सहन न कर पाने की वजह से उनकी पत्नी संज्ञा देवी ने अपने शरीर से अपने जैसी ही एक प्रतिमूर्ति तैयार की और उसका नाम स्वर्णा रखा। उसे आज्ञा दी कि तुम मेरी अनुपस्थिति में मेरी सारी संतानों की देखरेख करते हुये सूर्यदेव की सेवा करो और पत्नी सुख भोगो। ये आदेश देकर वह अपने पिता के घर चली गयी। स्वर्णा ने भी अपने आप को इस तरह ढाला कि सूर्यदेव भी यह रहस्य न जान सके। इस बीच सूर्यदेव से स्वर्णा को पांच पुत्र व दो पुत्रियां हुई। स्वर्णा अपने बच्चों पर अधिक और संज्ञा की संतानों पर कम ध्यान देने लगी। एक दिन संज्ञा के पुत्र शनि को तेज भूख लगी, तो उसने स्वर्णा से भोजन मांगा। तब स्वर्णा ने कहा कि अभी ठहरो, पहले मैं भगवान का भोग लगा लूं और तुम्हारे छोटे भाई बहनों को खाना खिला दूं, फिर तुम्हें भोजन दूंगी। यह सुन शनि को क्रोध आ गया और उसने माता को मारने के लिये अपना पैर उठाया तो स्वर्णा ने शनि को श्राप दे दिया कि तेरा पांव अभी टूट जाये। माता का श्राप सुनकर शनिदेव डरकर अपने पिता के पास गये और सारा किस्सा कह दिया। सूर्यदेव समझ गये कि कोई भी माता अपने बच्चे को इस तरह का श्राप नहीं दे सकती। तब सूर्यदेव ने क्रोध में आकर पूछा कि बताओ तुम कौन हो? सूर्य का तेज देखकर स्वर्णा घबरा गयी और सारी सच्चाई बता दी। तब सूर्य देव ने शनि को समझाया कि स्वर्णा तुम्हारी माता तो नहीं है परंतु मां के समान है। इसलिए उसका श्राप व्यर्थ तो नहीं होगा, परंतु यह उतना कठोर नहीं होगा कि टांग पूरी तरह से अलग हो जाये। हां, तुम आजीवन एक पांव से लंगड़ाकर चलते रहोगे। - रावण की पत्नी मंदोदरी जब गर्भवती हुई तो रावण ने अपराजय व दीर्घायु पुत्र की कामना से सभी ग्रहों को अपनी इच्छानुसार स्थापित कर लिया। सभी ग्रह भविष्य में होने वाली घटनाओं को लेकर चिंतित थे लेकिन रावण के भय से वहीं ठहरे रहे। जब रावण पुत्र मेघनाद का जन्म होने वाला था तो उसी समय शनिदेव ने स्थान परिवर्तन कर लिया जिसके कारण मेघनाद की दीर्घायु, अल्पायु में परिवर्तित हो गई। शनि की बदली हुई स्थिति को देखकर रावण अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने शनि के पैर में अपनी गदा से प्रहार किया जिसके कारण शनिदेव लंगडे़ हो गये। शनिदेव पर तेल क्यों चढ़ाया जाता है?: आनन्द रामायण में लिखा है कि जब भगवान राम की सेना ने सागर सेतु बांध लिया था, तब राक्षस उन्हें हानि न पंहुचा सकें, उसके लिये पवनसुत हनुमान को उसकी देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी गई। जब हनुमान जी शाम के समय राम के ध्यान में मग्न थे, तभी सूर्य पुत्र शनि ने अपना काला कुरुप चेहरा बनाकर क्रोधपूर्ण कहा- हे वानर, मैं देवताओं में शक्तिशाली शनि हूं। सुना है तुम बहुत बलशाली हो। आंखें खोलो और मेरे साथ युद्ध करो। इस पर हनुमान जी ने विनम्रता से कहा - इस समय मैं अपने प्रभु को याद कर रहा हूं। आप मेरी पूजा में विध्न मत डालिये। जब शनि देव लड़ने पर उतर ही आये तो हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेटना शुरु कर दिया। शनि देव उस बंधन से मुक्त न होकर पीड़ा से व्याकुल होने लगे। शनि के घमंड को तोड़ने के लिये हनुमान ने पत्थरों पर पूंछ को पटकना शुरु कर दिया जिससे शनिदेव लहुलुहान हो गये। तब शनिदेव ने दया की प्रार्थना की जिस पर हनुमान जी ने कहा - मैं तुम्हें तभी छोडू़गा जब तुम मुझे वचन दोगे कि श्री राम के भक्त को कभी परेशान नहीं करोगे। शनि ने गिड़गिड़ाकर कहा - मैं वचन देता हूं कि कभी भूलकर भी आपके और श्रीराम के भक्तों की राशि पर नहीं आऊंगा। तब हनुमान जी ने शनि को छोड़ दिया और उसके घावों पर लगाने के लिये जो तेल दिया तो उससे शनिदेव की सारी पीड़ा मिट गई। उसी दिन से शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है जिससे उनकी पीड़ा शांत होती है और वे प्रसन्न हो जाते हैं। शनिदेव की दृष्टि में क्रूरता क्यों है?: ब्रह्मपुराण में कहा गया है - बचपन से ही शनिदेव भगवान कृष्ण के परम भक्त थे। वयस्क होने पर उनके पिता ने चित्ररथ की कन्या से उनका विवाह कर दिया। एक रात उनकी पत्नी ऋतु स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा से उनके पास पंहुची तो शनिदेव भगवान कृष्ण के ध्यान में मग्न थे। पत्नी प्रतीक्षा करके थक गई। उसका ऋतुकाल निष्फल हो गया। तब उसने क्रुद्ध होकर शनिदेव को श्राप दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वह नष्ट हो जायेगा। ध्यान टूटने पर शनिदेव ने अपनी पत्नी को मनाया लेकिन श्राप के प्रतिकार की शक्ति उसमें न थी। तभी से शनिदेव की दृष्टि को क्रूर माना जाने लगा और वे अपना सिर नीचा करके रहने लगे क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनकी दृष्टि के द्वारा किसी का अनावश्यक अनिष्ट हो। शनि को न्यायाधीश क्यांे कहते हैं?: कहा गया है कि शनिदेव क्रूर ग्रह नहीं हैं, वे न्यायकर्ता हैं। व्यक्ति जब पाप करता है, वह लोभ, हवस, गुस्सा, मोह से प्रभावित होकर अन्याय, अत्याचार, दुराचार, अनाचार, पापाचार, व्याभिचार का सहारा लेता है तो शनिदेव उस व्यक्ति के जीवन में साढे़साती लाकर उसके पापों का हिसाब स्वयं कर देते हैं। लेकिन यदि साढे़साती के दौरान भी व्यक्ति सत्य को नहीं छोड़ते, दया और सुकर्म का सहारा लेते हैं, तब समय शुभता से व्यतीत करवा देते हैं। अतः शनिदेव अच्छे कर्मो के फलदाता है व बुरे कर्मों का दंड भी देते हैं जिस कारण से उन्हे न्यायधीश कहा जाता है। देवी लक्ष्मी के पूछने पर शनिदेव ने उन्हें बताया था कि परमपिता परमात्मा ने ही मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है। शनिदेव काजल की डिबिया से क्यों प्रसन्न होते हैं?: ज्योतिष ग्रंथों में कहा गया है कि शनि को काला रंग व लोहे की धातु अत्याधिक प्रिय है और वह जमीन, भूगर्भ, वीरान स्थल आदि का कारक ग्रह है। इसलिये किसी भी शनिवार को किसी सुनसान जगह पर काजल की लोहे की छोटी सी डिबिया को जमीन में गाड़ दें और बिना पीछे देखे घर लौट आयंे तो यह शनिदेव की अशुभता से बचने का सटीक व सरल उपाय है। दशरथ स्त्रोत से शनि प्रसन्न क्यों होते हैं?: शास्त्रों में यह आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पंहुचे तो उनका पुरुषार्थ देखकर शनिदेव ने उनसे वरदान मांगने को कहा। राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर स्वरचित स्त्रोत से उन्हें प्रसन्न किया तो शनिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि चतुर्थ व अष्टम ढैया होने पर ‘दशरथ स्त्रोत’ पढ़कर मेरे द्वारा दिये जाने वाले कष्टों से रक्षा की जा सकती है। कोकिला वन का शनिदेव मंदिर सिद्ध क्यों कहलाता है?: द्वापरयुग में बंसी बजाते हुये एक पैर पर खडे़ हुये भगवान श्रीकृष्ण ने शनिदेव की पूजा-अर्चना से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये और कहा कि नंदगांव से सटा ‘कोकिला वन’ उनका वन है। जो इस वन की परिक्रमा करेगा और शनिदेव की पूजा करेगा, वह मेरी व शनिदेव दोनों की कृपा प्राप्त करेगा। इस कारण से कोकिलावन के शनिदेव मंदिर को सिद्ध मंदिर का दर्जा प्राप्त है। काशी विश्वनाथ मंदिर का शनिदेव से क्या संबंध है?: स्कन्द पुराण में वृतांत है कि एक बार शनिदेव ने अपने पिता सूर्यदेव से कहा कि मैं ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूं जो आज तक किसी ने प्राप्त न किया हो, मेरी शक्ति आप से सात गुणा अधिक हो, मेरे वेग का सामना कोई देव-दानव-साधक आदि न कर पायें और मुझे मेरे आराध्य श्रीकृष्ण के दर्शन हों। शनिदेव की यह अभिलाषा सुन सूर्यदेव गदगद हुये और कहा कि मैं भी यही चाहता हूं कि मेरा पुत्र मुझसे भी अधिक महान हो, परंतु इसके लिये तुम्हें तप करना पडे़गा और तप करने के लिये तुम काशी चले जाओ, वहां भगवान शंकर का घनघोर तप करो और शिवलिंग की स्थापना कर भगवान शंकर से अपने मनवांछित फलों का आशीर्वाद लो। शनिदेव ने अपनी पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया और तप करने के बाद वर्तमान में भी मौजूद शिवलिंग की स्थापना की। इस प्रकार काशी विश्वनाथ मंदिर के स्थल पर शनिदेव को भगवान शंकर से आशीर्वाद के रुप में सर्वोपरि पद मिला। निष्कर्ष: जीवन के अच्छे समय में भी शनिदेव का गुणगान करो। आपातकाल में शनिदेव के दर्शन व दान करो। पीड़ादायक समय में शनिदेव की पूजा करो। दुखद प्रसंग में भी शनिदेव पर विश्वास रखो।

राहु के उद्भव की गाथा

श्रीमद्भागवत महापुराण में राहु को चंद्रार्क प्रमर्दन (सूर्य-चंद्र के तेज को नष्ट करने वाला) कहा गया है। बृहद योगरत्नाकर ग्रंथ के पृष्ठ 28 के अनुसार कई पुराणों में राहु का नामांतरण स्वर्भानु बताया गया है। श्रीमद्भागवत महापुराण में राहु की कन्या का नाम स्वर्भानुपुत्री कहा गया है। ज्योतिष शास्त्रों में भी अनेक स्थानों पर राहु को स्वर्भानु पुकारा गया है। राहु के उद्भव के संबंध में श्रीमद्भागवत, महाभारत, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण तथा छान्दोग्य उपनिषद् इत्यादि में विस्तृत रूप से वर्णित है। दैत्यराज हिरण्यकश्यपु की पुत्री सिंहिका विप्रचिति नामक दैत्य को ब्याही गई थी। सिंहिका के गर्भ से ही राहु की उत्पत्ति हुई थी। राहु के सौ भाई और भी थे। राहु ही सबसे बड़ा था। सिंहिका का पुत्र होने के कारण राहु को सैंहिकेय के नाम से पुकारा जाता है। एक समय देवताओं व दानवों के मध्य दीर्घकाल तक युद्ध चला। भगवान विष्णु ने दोनों पक्षों से कुछ समय के लिए युद्ध रोकने के लिए कहा ताकि समुद्र मंथन किया जा सके। इस बात पर दोनों पक्ष सहमत हो गए। समुद्रमंथन के लिए मन्दाचल पर्वत को मथानी के रूप में तथा नागराज वासुकि को रस्सी के रूप में लपेटकर मंथन किया गया। देवराज इंद्र के नेतृत्व में देवतागण वासुकि की पूंछ और दैत्यराज बली के नेतृत्व में असुरगण मुंह पकड़ कर मंथन करने लगे। समुद्र मंथन से सर्वप्रथम घोर कालकूट हलाहल विष निकला जिसे भगवान शिव ने स्वेच्छा से पान कर लिया लेकिन इसे अपने कंठ में ही रोके रखा जिस कारण उनका कंठ नीला हो गया। इसी कारण भगवान शिव को नीलकंठ कहा जाता है। इसके पश्चात मंथन से कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा नामक अश्व, ऐरावत नामक श्रेष्ठ हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, भगवती लक्ष्मी, वारूणी देवी, अप्सराएं, चंद्रमा तथा अंत में अमृत कलश लेकर धन्वंतरी (आयुर्वेद के जनक) का आगमन हुआ। अमृत कलश को देखते ही दैत्य लोग उनके हाथ से कलश छीनकर भाग गए। देवताओं का मन दुखित हो गया तब उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। विष्णु ने कहा-तुम लोग खेद न करो, मैं अपनी माया से उनमें आपसी कलह करवाकर तुम्हारा काम बना दूंगा। तभी अमृत कलश को लेकर भागे दैत्य आपस में झगड़ने लगे, सभी पहले अमृत पीना चाहते थे। इस प्रकार जब तू-तू, मैं-मैं हो रही थी तभी भगवान विष्णु ने अद्वितीय सौंदर्यवती अवर्णनीय सुंदर स्त्री का रूप धारण कर त्रिभुवन मोहिनी के रूप में प्रकट हुये। अनुपम सुगंध और नुपूर की ध्वनि से समस्त दैत्यगण उस मोहिनी की तरफ आकर्षित हो गये और उसे ही अमृत वितरित करने का कार्य सौंप दिया और कहा हे सुंदरी ! हम देवता और दानव दोनों ही कश्यप ऋषि के पुत्र हैं। अमृत प्राप्ति के लिए हम दोनों ने ही पुरूषार्थ किया और उसके लिए ही कलह हो रहा है। हे मानिनी! तुम न्याय के अनुसार निष्पक्ष भाव से हमें यह अमृत बांट दो। दैत्यों की इस प्रार्थना पर मोहिनी मुस्कुराई और तिरछी चितवन से कटाक्ष करते हुए बोली- मैं उचित अनुचित जो कुछ भी करूं, वह सब यदि तुमको स्वीकार हो तो मैं अमृत का वितरण कर सकती हूं। मोहिनी के मीठे एवं मृदु वचनों को सभी ने स्वीकार किया। मोहिनी रूपी भगवान विष्णु देवताओं को एक कतार में, दैत्यों को दूसरी कतार में, पंक्तिबद्ध बिठाया तथा पहले देवताओं को अमृतपान कराना प्रारंभ किया। जिस समय भगवान देवताओं को अमृत पिला रहे थे तभी सिंहिका का पुत्र राहु जो दैत्यों की कतार में बैठा था वह देवताओं का रूप धारण कर देवताओं की पंक्ति में जा बैठा और उसने भी अमृतपान कर लिया। दैत्य राहु की इस हरकत को सूर्य तथा चंद्रमा ने देख लिया तथा उन्होंने भगवान के समक्ष तत्काल उसकी पोल खोल दी। तत्क्षण भगवान ने अपने तीक्ष्ण सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया लेकिन राहु अमृत को मुख में ले चुका था इसलिए वह धड़विहीन होने के बावजूद भी जीवित रहा और अमर हो गया। इसी कारण ब्रह्माजी ने उसे ग्रह बना दिया और राहु अन्य ग्रहों के साथ ब्रह्मा की सभा में बैठने लगा। ग्रह बनने के बाद भी राहु वैर-भाव से पूर्णिमा को चंद्र पर और अमावस्या को सूर्य पर आक्रमण करता है। इसे ग्रहण कहा जाता है। सिर छेदन के पश्चात सिर वाला भाग राहु कहलाया तथा धड़ वाला भाग केतु कहलाया। कालांतर में सिर के पीछे सर्प की देह उत्पन्न हो गई और धड़ के ऊपर सर्प का सिर उत्पन्न हो गया तथा ब्रह्मा जी ने दोनांे को ही ग्रह बना दिया। खगोलीय परिचय: चंद्र की कक्षा क्रांतिवृत्त को जिन दो स्थानों पर काटती है वे दोनों स्थान राहु और केतु कहलाते हैं। चंद्र के आरोहीपात को राहु तथा अवरोहीपात को केतु कहते हैं। इन पात बिंदुओं (राहु-केतु) की सदा वक्र गति होती है और अपना एक भ्रमण (भचक्र का चक्कर) लगभग 18.6 वर्ष में पूरा कर लेते हैं। औसतन 3 कला 11 विकला प्रतिदिन इनकी गति होती है। ये दोनों ग्रह 180 डिग्री अंश की दूरी पर रहते हैं। आधुनिक गणनानुसार 6798 दिन 16 घंटा 44 मिनट और 24 सेकेंड में ये ग्रह द्वादश राशि को भोगते हैं तथा 18 मास एक राशि पर, 240 दिन एक नक्षत्र पर तथा 60 दिन एक नक्षत्र पाद पर रहते हैं। ज्योतिषीय परिचय: सिंहिका का बड़ा पुत्र राहु अष्टम ग्रह माना जाता है। पैठानीस गोत्र वाला तथा बर्बर देश के नैर्ऋत्य दिशा में सूर्याकार मंडल का निवासी है। इस दैत्य का शरीर काजल के पहाड़ जैसा, अंधकार रूपी, भयंकर, महाबलवान है। यह चांडाल जाति का है तथा वन में रहता है। इसकी धातु शीशा है, दक्षिण-पश्चिम दिशा का स्वामी है। यह पृथकतावादी ग्रह है। यह दशम स्थान में बलशाली माना गया है। जिस भाव में स्थित होता है उसी में बाधा पहुंचाने की इसकी प्रकृति होती है। यह जिस ग्रह के साथ बैठता है उसको भी दूषित कर देता है। स्पष्ट रूप से तो राहु की कोई राशि निर्धारित नहीं है परंतु दशाफलों के निर्णय हेतु आचार्यों द्वारा राहु की उच्च राशि वृषभ, नीच राशि वृश्चिक, मूल त्रिकोण राशि मिथुन तथा राहु की स्व राशि कुंभ तथा मतांतर से कन्या मानी गयी है। अद्भुत विलक्षण वस्तुओं, अपस्मार, चेचक, नासूर, भूत-प्रेत-पिशाच बाधा, अरूचि, कीडे़, कोढ़, गुप्त रोग और गुप्त शत्रुओं का कारक ग्रह है। रत्न गोमेद है। महादशा काल 18 वर्ष है। राहु का नैसर्गिक बल सूर्य से दुगुना माना गया है। राहु तृतीय, षष्ठ व एकादश भाव में शुभ माना गया है। पत्रिका में राहु पीड़ित होने पर पितृदोष का प्रभाव देता है। पराशर ऋषि के अनुसार राहु केंद्र भाव के स्वामियों के साथ केंद्र में हो तो राजयोग प्रदान करता है। बुध, शुक्र व शनि मित्र तथा सूर्य, चंद्र, मंगल व गुरु शत्रु हैं। पंचम, सप्तम व नवम भाव पर पूर्ण दृष्टि मानी जाती है। राहु बुध की राशियों में श्रेष्ठ फल प्रदान करता है। राहु सूर्य या चंद्र के साथ होने पर ग्रहण योग, मंगल के साथ अंगारक योग, बुध के साथ जड़त्वयोग, गुरु के साथ चांडालयोग, शुक्र के साथ लम्पट योग व शनि के साथ होने से धूर्त योग (मान्दी योग) निर्मित करता है। सूर्य-चंद्र के साथ राहु पूर्ण ग्रहण योग निर्मित करता है। यह युति वर्ष में एक बार होती है। किसी भी माह की अमावस्या के दिन या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन यह युति संभव है।

कुंडली में अनिष्टकारी योग और उसके उपाय

1. केमद्रुम योग
ज्योतिष शास्त्र के दुर्लभ ग्रंथ मानसागरी के अनुसार जब चंद्र किसी ग्रह से युत न हो, चंद्र से द्वितीय तथा द्वादश स्थान में जब कोई ग्रह न हो तथा शुभ ग्रह चंद्र को न देखते हों तो ‘‘केमद्रुम योग’’ की रचना होती है। राजयोग और मंगलकारी योग जन्मपत्रिका में चाहे जितने निर्मित होते हों परंतु यदि एक ‘केमद्रुम योग’ बनता है तो सारे राजयोग और मंगलकारी योग उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे एक सिंह सारे गजसमूह को भगा देता है। यह योग दुःख का मूल है।
इस योग के प्रभाव के कारण जातक के एकत्रित धन का नाश होता है, पुत्र व पत्नी संबंधी पीड़ा देता है। जातक निर्धन, इधर-उधर भटकता है तथा धन प्राप्ति हेतु दर-दर भटकता है परंतु धन एकत्रित नहीं होने देता।
केमद्रुम योग निवारण हेतु कुछ उपाय
सोमवार के दिन (शुक्ल पक्ष के प्रथम) सफेद धागे में प्राण प्रतिष्ठित सिद्ध चंद्र यंत्र धारण करें।
किसी भी शनिवार के दिन ‘‘सिरनी वृक्ष की जड़’’ को आमंत्रित कर रविवार को प्रातःकाल लाकर चांदी के ताबीज में भरकर सफेद धागे में ताबीज को गले में धारण करें।
किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के सोमवार से प्रारंभ कर 4 सोमवार लगातार सवा चार किलो चावल, नए सफेद वस्त्र में बांधकर बहती हुई नदी में प्रवाहित करें।
2. शकट योग
गुरु से चंद्र षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थान पर हो और चंद्र केंद्र स्थानों में न हो तो ‘‘शकट योग’’ बनता है। इस योग में जन्मे जातक दुर्भाग्यशाली होते हैं। इनके पास हमेशा धन का अभाव रहता है। जीवन में बहुत सारे उतार-चढ़ाव आते हैं। सगे-संबंधी भी संकट के समय सहायता नहीं करते हैं।
शकट योग निवारण हेतु कुछ उपाय
‘‘सिनवार वृक्ष के पत्ते’’ शुक्ल पक्ष के सोमवार को चांदी के ताबीज में भरकर, सफेद धागे में ताबीज को डालकर गले में धारण करें।
पलंग या चारपाई के चारों पायों में सोमवार को चंद्र उदय होने के बाद रात्रि को ‘‘चांदी की कली’’ लगावें।
ओलों (आसमानी बर्फ) को कांच की सफेद शीशी में भरकर घर में रखें।
3. दुर्भाग्यशाली योग
सूर्य नीच राशि का पीड़ित होकर यदि केंद्र स्थानों (1, 4, 7, 10) में हो तथा लग्नेश बलहीन हो। मिथुन लग्न में सूर्य वृष, वृश्चिक या मकर राशि में हो।
कर्क लग्न में सूर्य मिथुन या कुंभ राशि में हो।
सिंह लग्न में सूर्य कर्क, मकर या मीन राशि में हो तो यह योग घटित होता है।
विशेष: इस योग की सार्थकता केवल वृष लग्न, वृश्चिक लग्न तथा मीन लग्न में पूर्णरूप से घटित होती है। केंद्र वाली बात केवल मेष, कर्क, तुला एवं मकर लग्न पर लागू होती है।
इस योग के प्रभाव से अरबपति परिवार में जन्मा जातक खाकपति बन जाता है। उसे रुपयों के लिए दूसरों के समक्ष हाथ पसारना पड़ता है। पिता के चमकते व्यवसाय को जन्म लेते ही तबाह कर देता है। हर वक्त अपने आपको तबाही के आलम में पाता है। लोग उसका मजाक उड़ाते हैं और वह जीवित शव के समान जीवन यापन करने पर मजबूर हो जाता है।
दुर्भाग्य निवारण हेतु कुछ उपाय
हर सोमवार को कच्चा दूध शिवलिंग पर चढ़ावें।
दूध से भरा गिलास रात को सिरहाने की तरफ रखें तथा प्रातः बबूल के वृक्ष की जड़ में डालें।
प्रत्येक माह की पूर्णिमा को गंगा स्नान करें।
चांदी का चंद्रमा सोमवार के दिन सफेद धागे में डालकर गले में धारण करें।
4. राजदंड से संपत्ति नाशक योग
यदि धनेश और लाभेश दोनों षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थान में हों तथा मंगल एकादश व राहु द्वितीय भाव में हों।
लग्नेश अल्पबली हो, धनेश सूर्य से युत होकर द्वादश भाव में हो, द्वादश नीच राशिगत या पाप दृष्ट हो तो यह योग निर्मित होता है। ऐसे जातक का राजदंड से धन का नाश होता है।
उपरोक्त योगों में जन्मे जातक मुकदमे में अत्यधिक धन व्यय करने के बावजूद भी मुकदमा हार जाता है, जेल जाना पड़ता है। यदि जातक शासकीय सेवा में है तो उच्च अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित होता है और उसे नौकरी से हटने का खतरा भी बना रहता है। अधिकारी नाराज होकर उसका अनिष्ट करते हैं। आयकर से जुर्माना लगने का भय और छापा पड़ने का भय बना रहता है। कुल मिलाकर इस योग में जन्मे जातक को राज्य के द्वारा दंडित होना पड़ता है जिसका सीधा प्रभाव जातक की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है।
राजदंड निवारण हेतु कुछ उपाय
11 रविवार का व्रत रखें व रविवार को नमक का सेवन न करें।
चरित्र (चाल-चलन व व्यवहार) ठीक रखें।
5 रविवार को सवा किलो गुड़ बहती नदी में बहावें।
प्राण-प्रतिष्ठित सिद्ध सूर्य यंत्र गले में रविवार के दिन धारण करें।
5. महादरिद्री योग
यदि लाभेश षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थान में हो साथ ही लाभेश नीच का हो, अस्त हो या पाप पीड़ित हो तो जातक महादरिद्र होता है।
तृतीयेश, नवमेश व दशमेश यदि निर्बल, नीचराशिगत या अस्त हो तो जातक को भिक्षुक योग बनता है। दशम भाव का स्वामी यदि षष्ठ, अष्टम या द्वादश में हो।
इस योग के कारण जातक को अपने परिश्रम का पूर्ण फल नहीं मिलता। धन अभाव की पीड़ा हमेशा बनी रहती है। ऐसा जातक धन के लिए दूसरों से याचना करता रहता है। उपरोक्त चारों योग अति निष्कृट योग हैं।
दरिद्रता निवारण हेतु कुछ उपाय
घर के पूजा-स्थल पर प्राण प्रतिष्ठित सिद्ध श्रीयंत्र स्थापित करें और प्रतिदिन सुबह-शाम धूप व गौघृत का दीपक जलावें।
चांदी के गिलास में ही जल या कोई पेय पदार्थ पीयें।
सूर्यास्त के पश्चात दूध न पीयें।
हर सोमवार को बबूल के पेड़ की जड़ में दूध चढ़ायें।
हर पूर्णिमा को तीन सफेद फूल बहती नदी में बहायें।
6. ऋणग्रस्त योग
धन स्थान में पाप ग्रह हो, लग्नेश द्वादश भाव में हो, लग्नेश नवमेश या लाभेश से युत या दृष्ट हो तो ऋणग्रस्त योग की रचना होती है। धनेश अस्तगत और नीचराशि का हो, धन स्थान और अष्टम स्थान पाप ग्रह युत या पापग्रस्त हो तो यह योग निर्मित होता है।
इस योग से ग्रस्त जातक हमेशा ऋणग्रस्त रहता है। एक कर्ज उतरेगा तो दूसरा कर्ज तत्काल चढ़ जायेगा। हर समय बाधाओं से घिरा रहता है तथा शत्रुगण तबाही मचाते रहते हैं।
ऋण मुक्ति हेतु कुछ उपाय
शनिवार के दिन अश्लेषा नक्षत्र में बरगद के पत्ते को आमंत्रित कर रविवार को लाकर लाल वस्त्र में लपेटकर पूजा स्थल पर रखें।
माता लक्ष्मी के चित्र या प्रतिमा के समक्ष धूप-दीप जलाकर दोनों हाथ जोड़ कर पांच मिनट तक ‘‘ऊँ श्रीं नमः’’ का जाप करें।
देवदार का चूर्ण, इलायची, खस, अमलतास, कुमकुम, मेनसिल तथा कमल पुष्प की पंखुड़ियां तथा शहद जल में डालकर सात रविवार स्नान करें।
प्राण प्रतिष्ठित सिद्ध श्रीगणेश व बगलामुखी यंत्र संयुक्त रूप से लाल धागे में डालकर गले में धारण करें।
7. पैतृक संपत्ति न मिलने का योग
मेष राशि में चंद्र, धनु राशि में सूर्य, मकर राशि में शुक्र तथा कुंभ राशि में शनि हो तो यह योग बनता है। ऐसे जातक को दादा या पिता की अर्जित संपत्ति नहीं मिलती है। ऐसा जातक स्वयं के पराक्रम से संपत्ति अर्जित करता है।
पैतृक संपत्ति मिलने हेतु कुछ उपाय
केशर का तिलक लगायें।
पीला धागा हमेशा गले में धारण करें।
मंदिर निर्माण के कार्य हेतु रेता (बालू या बजरी) दान करें।
मिट्टी का खाली घड़ा छः बुधवार लगातार बहती नदी में बहायें।
8. नौकरी, कृषि, व्यापार या व्यवसाय तथा दुर्घटना आदि में अकस्मात धन हानि योग
यदि धनेश अष्टम, द्वादश भाव में होकर पापग्रस्त हो।
अष्टम भाव में कोई ग्रह वक्री होकर स्थित हो।
अष्टमेश शत्रु क्षेत्री हो।
अष्टमेश वक्री होकर कहीं भी स्थित हो।
गुरु द्वादश भाव में हो एवं धनेश बलहीन हो तथा लग्न पर शुभ ग्रह की दृष्टि न हो।
अष्टम भाव में कोई ग्रह नीच का हो एवं अस्तगत हो।
गोचर में राहु का अष्टम भाव में भ्रमण हो या राहु या अन्य पाप ग्रह स्थित हो तो जातक को अचानक धन की हानि होती है। काम-धंधे, व्यापार-व्यवसाय में, नौकरी में या कृषि में कोई कार्य ऐसा हो जाता है कि अकस्मात धन की हानि उठानी पड़ती है। मनुष्य के जीवन में अकस्मात दुर्घटनायें होती हैं और इन योगों के कारण धन का काफी नुकसान होता है।
धन हानि, दुर्घटना से रक्षा हेतु कुछ उपाय
केले के वृक्ष की जड़ गुरुवार के दिन सोने के ताबीज में भरकर पीले धागे के साथ गले में धारण करें।
पीले कनेर के फूल रोजाना गुरु प्रतिमा या चित्र पर चढ़ायें।
गुरुवार के दिन पीले वस्त्र मंदिर में दान करें।
चमेली के 9 फूल 9 गुरुवार लगातार बहती नदी में बहायें।
प्राणप्रतिष्ठित सिद्ध श्री गणेश तारा संयुक्त यंत्र गले में धारण करें।

गुणवान संतान पाने हेतु जन्म से पूर्व कुछ ज्योतिष्य उपाय आपनाएं

उत्तम एवं सर्वगुण संतान उत्पन्न करने के लिए हमारे पूर्वजों ने कुछ संस्कारों को करने हेतु अनिवार्य कहा है। जिन्हें संतान उत्पन्न करने से पूर्व करना चाहिए प्रत्येक पति पत्नी की पारस्परिक इच्छा, अभिलाषा होती है कि वह एक बुद्धिमान, मेधावी, धैर्यवान, भाग्यवान संतान के माता-पिता बने, परंतु मालूम न होने के कारण कि एक सर्वगुण संतान का माता-पिता कैसे बना जा सकता है वह चूक जाते हैं और संतान जनम के बाद जीवन भर उससे कष्ट पाते हैं। इसलिए आइये जानें कि सर्वगुण संपन्न संतान प्राप्त करने हेतु उसके जनम लेने से पूर्व किस योजना बद्ध तरीकों को अपनाना चाहिए। पुरातन विधाओं में संस्कार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया गया है। बृहदारण्यक, छान्दोग्य, कौषीतिकि उपनिषदों में इसका अर्थ संस्करोति, अर्थात उन्नतिकारक कहा गया है। पाणिनी ने इसका अर्थ ‘उत्कर्ष साधन हि संस्कार’ यानि उत्कर्ष करने वाला माना है। अद्वैत वेदांत में यह आत्मा के ऊपर स्मृतियों का अध्यारोप है तो वैशेषिक दर्शन में यह चैबीस गुणों में से एक है। उत्तम एवं सर्वगुण संतान उत्पन्न करने के लिए हमारे पूर्वजों ने कुछ संस्कारों को करने हेतु अनिवार्य कहा है। जिन्हें संतान उत्पन्न करने से पूर्व करना चाहिए जिनका प्रयोग निम्न है- 1. गर्भाधान संस्कार: वास्तव में सहवास एक भावात्मक संबंध है। इसलिए यदि यह दिव्य, उदांत एवं उन्नत भावना से परिपूर्ण होगा तो संतान का मन तन भी दिव्य एवं स्वस्थ होगा। इसी दिव्य एवं उन्नत भावना को उत्पन्न करने हेतु सहवास काल में यह गर्भाधान संस्कार किया जाता है। भोग एवं संभोग इन दो शब्दों में केवल शब्दों का ही अंतर नहीं वरन् अर्थों में भी मर्म निहित है। केवल कामवासना या क्षणिक यौन संतुष्टि के लिए किये जाने वाला सहवास भोग होता है जबकि स्वस्थ, सुयोग्य एवं दीर्घायु संतान की उत्पति हेतु किया जाने वाला सहवास संभोग कहलाता है। यदि आप चाहते हैं कि आपकी संतान अल्पायु, विकलांग रोगी मूढ न होकर बलवान, बुद्धिमान एवं दीर्घायु हो तो सहवास (गर्भाधान संस्कार) निम्न अनुसार करना चाहिए- जब गर्भाधान करना हो तो कम से कम 3 दिन पूर्व से सुपाच्य, सात्विक आहार लेना, पर्याप्त विश्राम करना, विचारधारा अच्छी और सात्विक रखना तथा मधुर व चिकनाई युक्त पदार्थों एवं फलों के रस का सेवन करना चाहिए। पुत्र प्राप्ति की इच्छा हो तो गर्भाधान हेतु सहवास ऋतुकाल की 8वीं 10वी और 12वीं रात्रि में तथा यदि पुत्री की कामना हो तो 9, 11, 13 की रात्रि में तथा इसी के साथ साथ रिक्ता तिथियों एवं अमावस्या नहीं होनी चाहिए एवं दिन सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार होना चाहिए तथा नक्षत्र गंडांत एवं पति पत्नी के जनम नक्षत्र से 23वां नक्षत्र नहीं होना चाहिए। जिसे वैनाशिक नक्षत्र कहते हैं। कारण व्याघात, वैधृति, व्यतिपात तथा परिघ नहीं होना चाहिए। लग्न से केंद्र में एवं त्रिकोण में शुभ ग्रह, त्रिषडाय में पापग्रह तथा लग्न पर पुरुष ग्रह की दृष्टि और विषम राशि या नवांश में चंद्रमा होना चाहिए। इसी को गर्भाधान संस्कार कहते हैं। इसके अतिरिक्त इस गर्भाधान संस्कार के पश्चात 60 दिन और 90 दिन के भीतर पुंसवन एवं सीमंत संस्कार भी करना चाहिए। इस संस्कारों के करने से भ्रूण के पुलिंग होने में सहायता मिलती है तथा स्त्री, पुरुष के रज में कोई दोष हो तो उसका भी निराकरण होता है। जब गर्भ की पुष्टि हो जाये तो नवमास तक पति पत्नी को संयुक्त रूप से जहां आवश्यकता हो निम्न क्रियाएं करनी चाहिए। इस क्रियाओं को करने से मनोवांछित संतान की प्राप्ति होने में सहायता मिलती है। मुख्य क्रिया - प्रतिदिन अपने ईष्ट का स्मरण 5 मिनट दोनों समय करें। स्मरण के पश्चात जैसी संतान की इच्छा हो उसी प्रकार की संतान प्रदान करने का निवेदन ईष्ट से करें। मास मासेश क्रियात्मक कार्य 1. प्रथम मास शुक्र पति पत्नी विचार शुद्ध रखें। गुस्सा न करें। धूएं से दूर रहें। यदि दोनों में से कोई धूम्रपान करते हो तो न करें। 2. द्वितीय मास मंगल इस मास में भ्रूण में हड्डी, मज्जा आदि का निर्माण प्रारंभ होता है। इन्हें मजबूत करने के लिए प्रतिदिन लाल मसूर की दाल खाये तथा कुछ बीज लाल मिर्च या लाल मिर्च डालकर खाये। क्रोध न करें। 3. तृतीय मास गुरु वाथरूम और घर के नल ठीक रखें। घर को सुंदर सजायें और सुगंधित रखें। घर में कीड़े मकोड़े छिपकली आदि न रहने दें। ढोकला खाये या घी, वेसन के लड्डु खायें। इससे गुरु बलवान होंगे तथा राहु का बल कम होगा। 4. चतुर्थ मास सूर्य सूर्य भगवान की आराधना करें। माता-पिता सूर्योदय से पहले उठें और फिर सूर्य के सामने बैठकर 5-10 मिनट तक इस मंत्र का जप करें। ‘ऊं ह्रीं हंसः। यदि सूर्य न मिले या न दिखे तो समाचार पत्र या पंचांग से सूर्योदय का समय देखकर पूर्व की ओर मुंह करके मंत्र जाप करें। आवश्यक नहीं है कि इस क्रिया को करते समय स्नान किये ही हों। इस क्रिया को करने से संतान को कभी अवसाद रोग नहीं होगा एवं आत्मबली होगी। 5. पंचम मास चंद्र चंद्र मंत्र का जप करें। सूर्यास्त के बाद बाये हाथ में चांदी का कड़ा पहनें। दिन में दूध जरूर पीएं मुंह में दांत के नीचे इलाइची या सौंफ दबाये रखें। इसको करने से संतान का मस्तिष्क तेज और उर्वरक होगा। 6. षष्ठ मास शनि प्रत्येक शनिवार को कुष्ठ रोगी को कुछ खाद्य वस्तु दें। पति घर में खासकर रसोई में झाडू पोंछा करें। दूध मलाई का प्रयोग करें। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार के कैरियर की संतान चाहते हो उस प्रकार से संबंधित साहित्य युगल पढ़ें, उनपर चर्चा करें। वैज्ञानिक वार्तालाप करें। 7.सप्तम मास बुध रात दिन में ठंडा भोजन करने का प्रयास न करें। हरी साग सब्जी अधिक खायें। धूप में बैठकर गरी का तेल शरीर में लगायें। ऊं बुं बुधायः मंत्र का जप करें। इसको करने से संतान बुद्धिमान होगी। 8. अष्टम मास गुरु नहाने के पानी में आधा घंटे पहले बेलपत्र डालकर उस पानी से स्नान करें। हल्दी का प्रयोग करें। बादी चीजें न खाये। समझदारी, ज्ञानवर्द्धक वार्तालाप करें। इसको करने से संतान समझदार, तेज एवं गुणवान होगी। 9. नवम मास चंद्र रसीले फलों का सेवन करें। प्रयास करें कि सफेद वस्त्र ही धारण करें। लाल, ग्रे या डार्क भेड के कपड़ों एवं रंगों से परहेज करें। पानी खूब पीएं। तांबे के बरतन में जलभर कर सिरहाने बाये तरफ रखकर सोयें। सुबह इस जल को भूमि में डाल दें। अच्छी-अच्छी बातें करें। इसको करने से संतान कष्ट रहित उत्पन्न होगी तथा वह स्वस्थ और सर्वगुण संपन्न होगी।

पुनर्जन्म : एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण

एक ऊंची सी समुद्र की लहर दूसरी छोटी लहर से इठलाकर बोली कि मुझे देखो, मैं कितनी बड़ी और ताकतवर हूं, और फिर कुछ ही क्षणों उपरांत वह समुद्र के किनारे पड़े एक पत्थर से टकराई और शांत हो गई। उसी के साथ फिर दूसरी लहर आई और वह भी पत्थर से टकराकर शांत हो गई और यह क्रम चलता रहा। क्या अब उस पहली लहर का पुनर्जन्म होगा? एक तालाब के किनारे कुछ बच्चे खेल रहे थे। तालाब में पत्थर फेंक रहे थे जिससे कुछ बुलबुले उठ रहे थे। बुलबुले उठते और समाप्त हो जाते फिर नए बुलबुले उठते और वे भी समाप्त हो जाते। क्या इन बुलबुलों का जन्म होगा?क्या ये बुलबुले पहले भी कोई जन्म ले चुके हैं? एक कुम्हार ने बहुत सारे खिलौने बनाए। एक गुड़िया बहुत सुंदर थी जिसे ऊंचे दाम में एक रईस परिवार के बच्चे ने खरीद लिया। वह उसके हाथ से छूट कर चकनाचूर हो गई। क्या इस गुड़िया का पुनर्जन्म होगा? एक बहुत हरा भरा मैदान था जिसमें घास की असंख्य पत्तियां उग रही थीं। घर बनाने के लिए सारी घास को उखाड़ दिया गया। घास सूख कर समाप्त हो गई। क्या घास की उन पत्तियों का पुनर्जन्म होगा? रोशनी की चकाचैंघ में लाखों पतंगे उड़ रहे थे। प्रातः तक उस रोशनी में सभी पतंगे अपना शरीर छोड़ चुके थे। क्या उन पतंगों का पुनर्जन्म होगा? मनुष्य का शरीर अरबों खरबों कोशिकाओं से निर्मित है। शरीर में अनेक प्रकार के जीवाणु भी पल रहे हैं। प्रत्येक कोशिका व जीवाणु अपने आप में जीवित है। हर क्षण कोशिकाएं व जीवाणु मर रहे हैं और नए पैदा हो रहे हैं। क्या इन कोशिकाओं व जीवाणुओं का पुनर्जन्म होगा? यदि ध्यान से विचार करें तो समुद्र की लहर समुद्र में समा गई, जल जल में विलीन हो गया और जो दूसरी लहर उठी, उसे पहली लहर का पुनर्जन्म कहें तो यह तर्कसंगत नहीं लगता। इसी प्रकार से जीव भी मृत्योपरांत पंचमहाभूत में विलीन हो जाता है और पंचमहाभूत के समुद्र से अर्थात इस सृष्टि से नए जीव की उत्पत्ति होती है। इस शरीर का पिछले शरीर से कोई संबंध है यह कहना कठिन है। यदि कहें कि शरीर का विलय तो होता ही रहता है, पुनर्जन्म तो आत्म तत्व का होता है, तो इसका क्या अर्थ होगा जबकि आत्मा एक है और समान रूप से हर जगह विद्यमान है। यह जीव अजीव में एक रूप से विद्यमान है। यदि जीव का पुनर्जन्म होता है तो हर अजीव का भी पुनर्जन्म होना चाहिए। यदि कहें कि पुनर्जन्म आत्मा का न होकर जीवात्मा का होता है तो क्या आत्मा और जीवात्मा में भेद है?तो क्या यह जीवात्मा पेड़ पौधों में या अजीव पदार्थों में नहीं होती?जीव सर्वदा अजीव पर निर्भर है और अजीव में जीवन सुषुप्त अवस्था में विद्यमान रहता है जैसे बीज के अंदर पूरा वृक्ष। अतः जीवात्मा चराचर में एक रूप से विद्यमान है। तो पुनर्जन्म किसका? शरीर के अंदर अन्य जीवाणु व कोशिकाएं विद्यमान हैं तो क्या एक जीवात्मा के अंदर बहुत सारी जीवात्माएं स्थित हैं। एक जीवात्मा के मरने से क्या उन सबकी भी मृत्यु हो जाती है और बाद में उनका भी पुनर्जन्म होता है?ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर पुनर्जन्म के सिद्धांत के आधार पर देना कठिन है। मूलतः मनुष्य का अपने जीवन से मोह उसे नष्ट होते हुए नहीं देख सकता। उसे अपने जीवन का पंचमहाभूत में विलीन होना जीवन का अंत नहीं लगता। अतः वह जन्म मृत्यु के चक्र द्वारा अपनी मृत्यु के पुनर्जन्म का अहसास करता है। हमारे शास्त्र भी इसे सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं क्योंकि प्रथमतः जीव को अपना जीवन निरर्थक न लगे एवं दूसरे वह इस पुनर्जन्म के भय के कारण इस जन्म में मनमानी नहीं करे और अपने कर्मों से दूसरे जन्म को अच्छा बनाने में प्रयासरत रहे। यदि हमारा जीवन इस शरीर तक ही है तो शास्त्र हमें वस्तुओं का उपभोग करने की अनुमति क्यों नहीं देते। क्यों शास्त्र तप व त्याग के लिए ही प्रेरित करते रहते हैं?कारण यह है कि उपभोग शरीर को केवल कुछ समय के लिए ही आनंद देते हैं व उपभोग से शरीर की क्षमताएं कम हो जाती हैं। तप व त्याग कड़वी दवाई की तरह से हैं जो शरीर, मन व बुद्धि को पुष्ट रखने के साथ साथ चिर आनंद देते हैं। पुनर्जन्म का सिद्धांत तो जीवन की गहराइयों के प्रति गहरा विष्वास बनाए रखने के लिए एवं इस जीवन के महत्व को बढ़ाने के लिए निरूपित किया गया है। लेकिन पुनर्जन्म को हमने इतना सच मान लिया है कि इसके विपरीत सोचना हमें निरर्थक लगता है। पुनर्जन्म की कथाओं को क्या हम अस्वीकार करें जो पुनर्जन्म को सिद्ध करती हैं?इसके एउत्तर में यही कहना है कि बहुत सी बातें इस चेतन शरीर से हम महसूस कर लेते हैं जो हमने कभी नहीं देखी होती हैं या फिर वे भविष्य में होने वाली होती हैं। अनेकानेक स्वप्न भी हमें भविष्य का पूर्वाभास कराते हैं। विज्ञान ने भी माना है कि भूत या भविष्य को देखा या महसूस किया जा सकता है। जैसे एक बच्चा भी बिना देखे घंटी बजने पर जान जाता है कि उसके पिता कार्य से लौटे हैं। जैसे फोन की घंटी बजते ही हमें अहसास हो जाता है कि यह अमुक का फोन है। पूर्वाभास होना चेतन शरीर का गुणधर्म है जिसे हम आत्मरूप से समझने लगते हैं। इस शरीर के अंदर जीव तत्व का अस्तित्व समझ लेना गणेश जी की प्रतिमा को दूध पिलाने के समान ही है। अंततः पुनर्जन्म के सिद्धांत का प्रतिपादन जीवन के स्वरूप को आम मनुष्य को समझाने के लिए ही किया गया है। आत्मा तो अमर है और सर्वव्यापक है। जो अमर है उसका पुनर्जन्म हो ही नहीं सकता। शरीर जो नश्वर है, पंचमहाभूत में विलीन हो ही जाता है और दूसरे शरीर के जन्म का पहले शरीर से संबंध तर्कसंगत नहीं है। केवल शास्त्रों के प्रति हमारी श्रद्धा ही पुनर्जन्म के सिद्धांत को नकारने में अवरोधक है।

कुंडली के विभिन्न योगों में नक्षत्रों का प्रभाव

प्रत्येक व्यक्ति किसी शुभ कार्य को शुभ समय में प्रारंभ करना चाहता है ताकि वह कार्य सफल, लाभकारी तथा मंगलमय हो। ऐसे अनेक शुभ समय (अवसर) विभिन्न कालांगों तथा वार, तिथि, नक्षत्र आदि के सम्मिश्रण से बनते हैं जिन्हें योग कहा जाता है। इसी प्रकार के शुभ योग प्रत्येक कार्य के लिए आचार्यों ने निर्धारित किए हैं। शुभ योगों की भांति अशुभ योग (कुयोग) भी इन्हीं कालांगों से मिलकर बनते हैं जिनमें शुभ कार्यों का प्रारंभ वर्जित है। इस आलेख में उन्हीं योगों का वर्णन करेंगे जिनकी रचना में नक्षत्रों की भूमिका रहती है। द्विपुष्कर योग: यह निम्न स्थितियों में बनता है। तिथि: 2, 7, 12 दिन: मंगलवार, शनिवार या रविवार। नक्षत्र: मृगशिरा, चित्रा या धनिष्ठा (मंगल के तीन नक्षत्र)। यह एक शुभाशुभ योग है जिसका नामानुरूप अर्थ ‘दोहरा’ होता है अर्थात इस योग में कोई कार्य होने पर दोहरा लाभ या दोहरी हानि होती है। यदि कोई लाभकारी कार्य हो तो वह एक बार और होता है। इसी प्रकार यदि कोई वस्तु खो जाए तो पुनः एक बार कोई वस्तु खो जाती है। अतः शुभ कार्य करते समय ऐसे योग की तलाश की जाती है। त्रिपुष्कर योग - त्रिपष्कर यागे निम्न स्थितियों में बनता है। तिथि: 2, 7 या 12 वार: मंगलवार, शनिवार या रविवार नक्षत्र: कृतिका, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद। त्रिपुष्कर योग में शुभ अथवा अशुभ कार्य हो तो वह कुल तीन बार होता है, जैसे किसी की मृत्यु इस योग में हो जाए तो दो अन्य व्यक्तियों की मृत्यु की आशंका हो जाती है। यदि इस योग में किसी विशिष्ट कारण से धनागम हो तो दो बार और धन प्राप्ति होती है। इसीलिए मकान खरीदने, गहने बनवाने या लाटरी-रेस आदि में धन प्राप्ति हो तो इसकी पुनरावृत्ति दो बार और होती है। अतः शुभ कार्यों के लिए त्रिपुष्कर योग का उपयोग किया जाता है। द्विपुष्कर एवं त्रिपुष्कर योग में बहुमूल्य एवं उपयोगी पदार्थ, वस्तुएं जसै जमीन-जायदाद, हीरे जवाहरात, स्वर्ण-चांदी के आभूषण, कार, ट्रक, स्कूटर, गाय, भैंस क्रय करना, नवीन उद्योग की स्थापना आदि करना लाभदायक रहता है। गुरु पुष्य योग: जैसा कि नाम से स्पष्ट है, गुरुवार को यदि पुष्य नक्षत्र हो तो गुरुपुष्य योग घटित होता है। विद्यारंभ, व्यापार, गृहप्रवेश एवं अन्य शुभ कार्यों के लिए गुरु पुष्य योग अत्यंत शुभ है। गुरु पुष्य योग में गुरु अथवा पिता, दादा या श्रेष्ठ व्यक्ति से मंत्र, तंत्र या किसी विशिष्ट विषय के संबंध में उच्च विद्या ग्रहण करना, धन, भूमि, विद्या एवं आध्यात्मिक ज्ञान पा्र प्त करना, गरु से दीक्षा ग्रहण करना, विदेश गमन करना शुभ होता है। सभी योगों में से किसी भी योग का चयन करने से पूर्व तिथि एवं चंद्रमा का बल भी ध्यान में रख लें तो अत्यंत लाभदायक होगा अर्थात् कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा पर्यन्त चंद्रमा निर्बल माना जाता है। इसके अतिरिक्त गुरु, शुक्र ग्रहों के अस्तकाल में ग्रहण काल, श्राद्ध काल आदि का भी ध्यान कर लने आवश्यक है। विवाह, मुंडन, गृहप्रवेश आदि कार्य निर्धारित मुहूर्तों में ही करने से कल्याणकारी होंगे। रवि पुष्य योग: यदि रविवार को पुष्य नक्षत्र हो तो रवि पुष्य योग होता है। रवि पुष्य योग शुभ कार्यों के लिए उपयोगी है। मंत्रादि साधन के लिए भी यह श्रेयस्कर है। रविपुष्य ज्योतिष के श्रेष्ठतम् योगों में गिना जाता है। इसमे जडी़ बटू ताडे ऩ, आष्धि बनाना एवं रोग विशेष के लिए औषधि ग्रहण करना शुभ एवं लाभदायक होता है। इसके अतिरिक्त मंत्र-तंत्र, यंत्र आदि तैयार करने के लिए भी यह योग विशेष उपयुक्त माना जाता है। पुष्कर योग: सूर्य विशाखा नक्षत्र में हो तथा चंद्रमा कृतिका नक्षत्र में हो तो ऐसा संयोग ‘पुष्कर योग’ कहलाता है। यह शुभ योग अत्यंत दुर्लभ है। रवि योग: रवि योग अत्यंत शक्तिशाली शुभ योग है। इस योग के दिन यदि तेरह प्रकार के कुयोग में से कोई भी कुयोग हो तो रवि योग उस कुयोग की अशुभता नष्ट कर शुभ कार्यों के प्रारंभ करने हेतु मार्ग प्रशस्त करता है। रवि योग निम्न स्थिति में घटित होता है। सूर्याधिष्ठित नक्षत्र से चैथे, छठे, दसवें, तेरहवें अथवा बीसवें नक्षत्र में यदि चंद्रमा हो तो उस दिन रवि योग घटित होता है। यदि किसी दिन किसी पक्रर के कयुागे केकारण र्काइे शुभ कार्य प्रारंभ नहीं किया जा सके तो विद्वज्जन रवि योग के आधार पर उस शुभ कार्य को प्रारंभ करवाते हैं। कुयोग: वार, तिथि एवं नक्षत्रों के संयोग से अथवा केवल नक्षत्र के आधार पर कुछ ऐसे अशुभ योग बनते हैं जिन्हें, कुयोग कहा जा सकता है। इन कुयोगों में कोई शुभ कार्य प्रारंभ किया जाए तो वह सफल नहीं होता अपितु उसमें हानि, कष्ट एवं भारी संकट का सामना करना पड़ता है। कुयोग सुयोग: यदि किन्हीं कारणों से एक कुयोग तथा एक सुयोग एक ही दिन पड़ जाए दग्ध नक्षत्र: रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मंगलवार को उत्तराषाढ़ा, बुधवार को धनिष्ठा, गुरुवार को उत्तरा फाल्गुनी, शुक्रवार को ज्येष्ठा, शनिवार को रेवती नक्षत्र दग्ध नक्षत्र कहलाते हैं। इनमें कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाना चाहिए। मास-शून्य नक्षत्र: चैत्र में अश्विनी और रोहिणी, वैशाख में चित्रा और स्वाति, ज्येष्ठ में उत्तराषाढ़ा और पुष्य, आषाढ़ में पूर्वा फाल्गुनी और धनिष्ठा, श्रवण में उत्तराषाढा़ और श्रवण, भाद्रपद में शतभिषा और रेवती, अश्विनी में पूर्वा भाद्रपद, कार्तिक में कृतिका और मघा, मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा, पौष में आद्र्रा और अश्विनी, माघ में श्रवण और मूल तथा फाल्गुन में भरणी और ज्येष्ठा मास-शून्य नक्षत्र होते हैं। इनमें शुभ कार्य करने से धन नाश होता है। जन्म नक्षत्र: जातक का जन्म नक्षत्र, 10 वां अनुजन्म नक्षत्र तथा 19 वां त्रिजन्म नक्षत्र कहलाते है। समान रूप से जन्म नक्षत्र की श्रेणी में आते हैं। शुभ कार्य प्रारंभ करने हेतु जन्म नक्षत्र त्यागना चाहिए।

कुंडली से जाने रियल स्टेट में निवेश या व्यवसाय में लाभ या हानि

हस्त रेखा एवं ज्योतिष द्वारा जानें रियल स्टेट में लाभ एवं हानि भारती आनंद हाथ की रेखाओं के द्वारा हर एक क्षेत्र को समझा तथा जाना जा सकता है। यदि आप रीयल एस्टेट में पैसा इनवेस्ट करना चाहते हैं, तो उससे पहले आपको अपने हाथ की रेखाओं का अध्ययन जरूरी है। यदि आपके हाथ में रेखाएं रीयल एस्टेट के हिसाब से ठीक हैं तो आप उससे फायदा उठा सकते हैं अन्यथा नहीं। यदि हाथ भारी, अंगुलियां चौकोर, ग्रह पर्वत सीधे खासकर शनि और मंगल के उठे हुए हों और जीवन रेखा गोल तथा भाग्य रेखा जीवन रेखा से दूरी पर हो तो रीयल एस्टेट में आपका लगाया हुआ धन कुछ ही वर्षों में भारी लाभ करायेगा। हाथ कोमल व गुलाबी हो, अंगुलियां पीछे की तरफ झुकती हों, मस्तिष्क रेखा सीधे मंगल के क्षेत्र पर जाती हो, हृदय रेखा शनि की अंगुली के नीचे समाप्त हो, भाग्य रेखा का उदग्म जीवन रेखा से हो रहा हो तो आप रीयल एस्टेट के अच्छे निवेशक बन कर लाभ ले सकते हैं। जीवन रेखा व मस्तिष्क रेखा शुरूआत से एक ही जोड़ में से निकल रही हो, अंगुलियों के आधार बराबर हों, हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा में अंतर हो, हृदय रेखा साफ सुथरी हो व मस्तिष्क रेखा को भी कोई अन्य मोटी-मोटी रेखाएं न काट रही हों, हाथ भारी हो तो रीयल एस्टेट में भविष्य स्वर्णिम होता है। यदि हाथ में भाग्य रेखा एक से अधिक हों, सूर्य रेखा भाग्य रेखा के अंदर समा रही हो, मंगल ग्रह के दोनों क्षेत्र उठे हुए हों, जीवन रेखा के साथ एक अन्य जीवन रेखा हो अर्थात् दोहरी जीवन रेखा हो तो भी रीयल एस्टेट के कार्य से अच्छा खासा लाभ होता है। . हाथ में शनि व मंगल ग्रह के पर्वत उठे हुए व साफ सुथरे हों, हाथ भारी हो, जीवन रेखा से कुछ रेखाएं ऊपर की ओर उठकर अर्थात अंगुलियों की तरफ जा रही हो तो मनुष्य को रीयल एस्टेट से लाभ होता ही रहता है। हाथ भारी हो व उसमें एक से अधिक भाग्य रेखा हो व मस्तिष्क रेखा पर त्रिकोण हो तो मनुष्य स्वयं कई संपत्तियों का स्वामी होता है। रीयल एस्टेट का व्यवसाय भी उसके लिए बहुत लाभप्रद होता है। रीयल एस्टेट की ज्योतिष विवेचना द्वारा भी जाना जा सकता है कि आपको रीयल एस्टेट में कितना लाभ है। उसके कुछ योग इस प्रकार है। 1. चतुर्थेश केंद्र या त्रिकोण में हो 2. मंगल त्रिकोण में हो। 3. चतुर्थेश स्वगृही, वर्गोत्तम, स्व नवांश या उच्च का हो तो भूमि व रीयल एस्टेट के काम में लाभ होता है। 4. यदि व्यक्ति का चतुर्थेश बलवान हो और लग्न से उसका संबंध हो तो भवन सुख की प्राप्ति होती है। 5. यदि चतुर्थ भाव पर दो शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो व्यक्ति भवन का स्वामी बनता है व रीयल एस्टेट में मुनाफा कमाता है। 6. शनि, मंगल व राहु की युति हो तो ऐसे व्यक्ति की भू-संपदा व मकान इत्यादि अवैध कमाई से निर्मित होता है। परंतु रीयल एस्टेट में सौदा फायदे का ही होता है। 7. गुरु की महादशा में शनि की अंतर्दशा में व्यक्ति को मकान का सुख तो प्राप्त होता है, परंतु उसे यह सुख पुराने मकान के रूप में प्राप्त होता है। उसे अपने मकान का नवीकरण करना पड़ता है एवं रीयल एस्टेट में बहुत ज्यादा इनवेस्ट ठीक नहीं होता है। ऐसे लोगों को चाहिए रीयल एस्टेट के कारोबार में अपनी आय का एक सीमित हिस्सा ही लगायें। इसके अतिरिक्त ऐसे अन्य कई लक्षण हैं जिससे इस विषय को और अधिक गहराई से जाना जा सकता हैं।

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