छाया ग्रह केतु परम पुण्यदायी और मोक्ष कारक है। जिस ग्रह के साथ केतु बैठता है उसी के अनुसार कार्य करता है। सामान्यतः यह मंगल के समान कार्य करता है। केतु की अच्छी स्थिति के बिना मोक्ष प्राप्ति संभव नहीं है। कारकांश कुंडली से राजयोग: जिस प्रकार लग्नेश व पंचमेश के संबंध से राजयोग देखा जाता है, उसी प्रकार आत्मकारक और पुत्र कारक से राजयोग देखना चाहिए। आत्मकारक और पुत्रकारक दोनों लग्न या पंचम भाव में बैठे हों अथवा परस्पर दृष्ट हों अथवा उनमें किसी प्रकार का संबंध हो और अपने उच्च नवांश या स्व की राशि में स्थित हो तथा शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट हो तो महाराज योग होता है।भाग्येश और आत्मकारक लग्न, पंचम या सप्तम में हो तो हाथी घोड़े और धन से युक्त राज्य देते हैं। कारक से 2, 4, 5 भाव में शुभ ग्रह हो तो निश्चय ही राजयोग प्रदान करते हैं। राजयोगों जन्मलग्नं पश्यंदुच्चग्रहों यदि। षष्ठाष्टमेगते नीचे लग्नं पश्यति योगकृत।। अपनी उच्चराशि में स्थित ग्रह लग्न को देखता हो तो राजयोग होता है। छठे, आठवें भाव में अपनी नीच राशि में बैठा ग्रह यदि लग्न को देखे तो वह राजयोग कारक होता है। अथवा षष्ठेश या अष्टमेश तीसरे या ग्यारहवें भाव में बैठकर लग्न को देखते हों तो राजयोग प्रदान करते हैं। सारांश यह है कि जन्मलग्न या कारकांश लग्न को देखने वाले ग्रह भी राजयोग कारक होते हैं। राहु-केतु के कारकत्व: दो ग्रहों के अंश समान होने पर सूर्य से राहु पर्यंत आठ ग्रहों में आत्मादि कारकों का विचार करना चाहिए। अतः आत्मादि कारकों में केतु को सम्मिलित नहीं किया गया है। महर्षि पाराशर जी ने केतु को घाव-फोड़ा आदि रोग, चर्म रोग, अत्यंत शूल (दर्द), भूख से कष्ट आदि का कारक बताया है। व्रणरोग चर्मातिशूलस्फुट क्षुधार्तिकारकः केतुः (बृ.पा.हो. 12/09) कहते हैं कि अंतरिक्ष में केतु की धर्म- ध्वजा सूर्य से भी अधिक ऊंची है, जो ब्रह्मलोक को स्पर्श करती है। इसलिए केतु का झण्डा आध्यात्मिक पराकाष्ठा का प्रतीक है। केतु वेदान्त दर्शन, महान तपस्या, वैराग्य, ब्रह्मज्ञान आदि शक्तियों के उत्थान का प्रतीक है। ‘केतौ कैवल्यम’ महर्षि जैमिनी ने केतु को मोक्ष का स्थिर कारक माना है। यदि केतु कारकांश लग्न से द्वाद्वश भाव में स्थित हो तो मनुष्य को मोक्ष प्राप्त हो जाता है। बृहद पाराशर होराशास्त्रम के अनुसार कारकांश से बारहवें भाव में मेष या धनु राशि में केतु स्थित हो तथा उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो व्यक्ति को मोक्षपद की प्राप्ति होती है। यह मत अधिक उपयुक्त है। सद्गति में कौन देवता सहायक: व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति में कौन से देवी-देवता सहायक होंगे। किस देवी-देवता के सहारे साधक की जीवन नैया भवसागर से पार उतरेगी। अपने अनुकूल देवी-देवता को पहचान कर उसकी भक्ति-आराधना करनी चाहिए क्योंकि आपके अनुकूल देवी-देवता ही आपकी सद्गति में सहायक होता है तथा वह स्वर्ग लोक और मोक्ष आदि की प्राप्ति कराता है। कारकांश लग्न से बारहवें भाव में केतु सूर्य से युत हो तो जातक गौरा-पार्वती की भक्ति करने वाला शाक्त होता है। कारकांश लग्न से बारहवें भाव में केतु चंद्रमा से युत हो तो सूर्य का उपासक होता है। कारकांश लग्न से बारहवें भाव में केतु शुक्र से युत हो तो लक्ष्मी का उपासक और धनी होता है। कारकांश लग्न से बारहवें भाव में केतु मंगल से युत हो तो स्कंद (कार्तिकेय) का भक्त, बुध या शनि से युत हो तो भगवान विष्णु का उपासक, गुरु से युत हो तो शिव का उपासक होता है। कारकांश लग्न से बारहवें भाव में राहु हो तो तामसी दुर्गा (कालिका, चामुण्डा) का और भूत-प्रेतादि का सेवक होता है तथा केतु (अकेला) हो तो गणेश या स्कंद का उपासक होता है। कारकांश लग्न से बारहवें भाव में शनि या शुक्र पाप ग्रह की राशि में हो तो क्षुद्र देवता (छोटे देवता) का उपासक होता है। तत्व ज्ञाता का मरणान्त कृत्य: ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरम्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमांगतिम्।। भगवान विष्णु कहते हैं- हे गरुड़! एकाक्षर ब्रह्म ऊँकार का जप तथा मेरा स्मरण करते-करते जो जीव शरीर का त्याग करता है वह परमगति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।’’ यह अकस्मात् संभव नहीं हो सकता, इसके लिए पहले से ही हमें ध्यान योग में अभ्यस्त होना पड़ेगा। अतः अपने मस्तक में हमंे ऊँ का ध्यान करना चाहिए। सूर्य की रश्मियां जीवात्मा को ब्रह्मलोक ले जाती है- छान्दोग्योपनिषद् में बताया गया है कि सूर्य की रश्मियां मृत्युलोक व सूर्यलोक दोनों जगह गमन करती है। वे सूर्य मण्डल से निकलती हुई शरीर की नाड़ियों में व्याप्त हो रही है तथा नाड़ियों से निकलती हुई सूर्य में फैली हुई हैं। जब तक शरीर रहता है तब तक हर जगह और हर समय सूर्य रश्मियां शरीर की नाड़ियों में व्याप्त रहती हैं। अत ब्रह्मवेŸाा ज्ञानी पुरुष का किसी भी समय (दिन-रात, शुक्ल-कृष्ण पक्ष,उत्तारायण या दक्षिणायन) में निधन होने पर, सूक्ष्म शरीर सहित जीवात्मा का, नाड़ियों द्वारा तत्काल सूर्य की रश्मियों से संबंध होता है। सूर्य की रश्मियां उसे सूर्य मार्ग (देवयान मार्ग) ब्रह्मलोक में ले जाती हैं। ऐसा ब्रह्म विद्या व तत्व ज्ञान के प्रभाव से होता है। जो ब्रह्मविद्या के रहस्य को जानते हैं तथा वन में रहकर श्रद्धापूर्वक सत्य की उपासना करते हैं, वे अर्चि (अग्नि) को प्राप्त होेते हैं। अर्चि से दिन को, दिन से शुक्ल पक्ष को, शुक्ल पक्ष से उत्तारायण के छः महीने को, उत्तारायण के छः महीनों से संवत्सर को, संवत्सर से सूर्य को, सूर्य से ब्रह्मलोक को जाते हैं। यह देवयान मार्ग है- इस अर्चिआदि देवयान मार्ग का ही गीता में उल्लेख उत्तारायण मार्ग से किया गया है। अग्निज्र्योतिरहः शुक्लः षणमासा उत्तरायणम्। तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।। पुण्यात्मा को स्वर्ग प्राप्ति: तत्वज्ञों/ब्रह्मवेŸााओं को मोक्ष और धार्मिकों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। आसक्त भाव से किये गये यज्ञ, दान, जप और परोपकार आदि शुभ कर्मों का फल स्वर्ग प्राप्ति है। छान्दोग्यो पनिषद् के अनुसार जो यहां (गांव या शहर में) रहकर इच्छापूर्वक दानादि सकाम पुण्यकर्म करते हैं वे धूम्र मार्ग से जाते हैं। धूम्र मार्ग से गये हुए पुण्यकर्मा पुरुष धूम्र रात्रि से कृष्णपक्ष को, कृष्णपक्ष से दक्षिणायन के छः महीनांे को, वहां से चंद्रलोक को और चंद्रलोक से पितृलोक को तथा पितृलोक से स्वर्गलोक को जाते हंै। स्वर्गलोक में रहकर स्वर्ग के सुखों को भोगते हंै। बहुत समय पश्चात पुण्य कर्मों का फल क्षीण होने पर पुनः पृथ्वी लोक में मनुष्य योनी में जन्म लेते हैं। यहां रात्रि, कृष्णपक्ष व दक्षिणायन आदि काल नहीं है, इनका संबंध तो पितृयान मार्ग में पड़ने वाले कालाभिमानी देवताओं से है। इनका कार्य पुण्यात्मा पुरुष की सहायता करना है।

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Monday, 7 March 2016
राजनीती में राहु का प्रभाव
जन्मकुंडली में सात ग्रहों के साथ दो छाया ग्रह राहु एवं केतु को भी उनके गोचर के अनुसार स्थापित किया जाता है। वैदिक युग में राहु ग्रह नहीं था, बल्कि एक राक्षस था। पौराणिक युग में उस राक्षस के दो भाग हो गये। समुद्र मंथन के पश्चात् मिले अमृत को देवताओं में बांटते समय धोखे से अमृतपान करने के पश्चात राक्षस का सिर भगवान श्री हरि विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र द्वारा धड़ से अलग हो गया। सिर-राहु में तथा धड़ केतु में अमर हो गया। पौराणिक गाथाआंे में राहु-केतु सर्प के सिर और पूंछ माने गये। राहु के काल तथा केतु को सर्प भी माना गया है। राहु और केतु दोनों ही पापग्रह हैं। राहु स्त्रीलिंग है। आद्र्रा, स्वाति, शतभिषा नक्षत्रों पर उसका शासन है। 3, 6, 11 भावों में इसे अच्छा मानते हैं। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है- ‘‘अजहुं देत दुख रवि शशिह सिर अवेशषित राहु’’ उच्चराशि मिथुन, नीचराशि धनु है। इसकी जाति म्लेच्छ एवं आकृति दीर्घ तथा दिशा नैर्ऋत्य है। राहु का रत्न गोमेद है। बृहत्पाराशर होराशास्त्र के अनुसार पंचम भाव में राहु हो और उस पर मंगल की दृष्टि हो अथवा पंचम भाव में मंगल की राशि हो तो पूर्वजन्म के सर्पशाप के कारण इस जन्म में ऐसी कुंडली वाले जातक के पुत्र नहीं होते हैं। यदि होते हैं तो भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। राहु केतु की उच्चता व नीचता के विषय में ज्योतिषियों में बड़ा मतभेद है। ‘‘राहोस्तु कन्यका गेहं मिथुन स्वाच्चमं समृतम् कन्या राहु ग्रह प्रोक्त राहुच्च मिथुन समृतम् राहानीचिं धनुः प्रोक्त केतोः सप्तम मेवच’’ राहु कन्या राशि में स्वगृही तथा मिथुन में उच्च तथा धनु में नीच माना जाता है एवं इसकी मूल त्रिकोण राशि कर्क मानी गई है। परंतु कई ज्योतिष शास्त्री राहु को वृषभ राशि में उच्च एवं केतु वृश्चिक में उच्च तथा इसकी मूल त्रिकोण कुंभ और प्रिय राशि मिथुन मानी है। राहोस्तु वृषभ केतोः वृश्चिके तुंभ संजितम्। मूल त्रिकोण कुंभचं प्रिय मिथुन उच्चते।। बृहत्पाराशर होरा में राहु का उच्च वृष, केतु का उच्च वृश्चिक, राहु मूल त्रिकोण कर्क, केतु का मूल त्रिकोण मिथुन और धनु, राहु का स्वगृह कन्या व केतु का स्वगृह मीन माना है। इस तरह राहु के स्वगृह, उच्च, मूल त्रिकोण और नीच के बारे में ज्योतिष सर्व सम्मत नहीं है। राहु को ब्रह्माजी ने ग्रह होने का वरदान तो दिया परंतु छाया जैसे घूमती है (वक्र गति) वैसे ही ये ग्रह घूमते हैं। इसलिए राहु के परिणाम आकस्मिक होते हैं। कई ज्योतिषी राहु-केतु को ग्रह ही नहीं मानते हैं। राहु-केतु ग्रहण में सूर्य और चंद्र के विमर्दक हैं, अतः प्रबल पाप ग्रह हैं। परंतु आकाश में इनका अपना बिंब नहीं है, अतः ये स्वतंत्र फलकारक नहीं हैं। राहु नवम स्थान में हो और नवमेश यदि बलवान हो तो अच्छा फलकारक होता है। विशेषरूप से बुध नवमेश हो तो अचानक भाग्य चमकता है, राहु, शनि के साथ हो तो धन हानि योग कर देता है। यदि जन्मकुंडली में चंद्रमा एवं राहु का परस्पर संबंध हो तो, व्यक्ति की मानसिक स्थिति को असामान्य बनाता है। यदि यह संबंध शुभ हो, तो जातक जीवन में अप्रत्याशित सफलताएं प्राप्त करता है व यदि चंद्रमा राहु के साथ दूषित स्थिति में हो तो जातक को जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव, अस्थिरता एवं धोखे की स्थितियों का सामना करना पड़ता है। चंद्रमा यदि अपनी नीच राशि वृश्चिक में हो तो तथा उस पर राहु की दृष्टि हो तो जातक मन से परेशान रहता है। चंद्रमा यदि अष्ट्म भाव में राहु के प्रभाव में हो तो, उससे त्रिकोण में राहु का गोचर जातक को लंबी यात्राओं के लिए विवश कर देता है। यदि चंद्रमा द्वादश भाव में हो तथा राहु से प्रभावित हो तो, उससे त्रिकोण में राहु का गोचर धन हानि करता है। किसी कारणवश धन का अपव्यय होता है या जातक ठगी का शिकार हो जाता है। राहु की महादशा जातक के लिए विशेष महत्वपूर्ण होती है। यदि राहु के नक्षत्रों में बली एवं योगकारण ग्रह स्थित हांे तो ऐसे जातक के लिए राहु की दशा-महादशा अतीव शुभ फलदायक होती है।
Sunday, 6 March 2016
कुंडली से मिलते है भाग्यशाली होने का संकेत
इस संसार में कुछ लोग अपने जीवन में जल्दी तरक्की कर जाते हैं जबकि कुछ लोगों को इसके लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। कई बार इतना संघर्ष करने के बावजूद सफलता नहीं मिल पाती है। कुछ बहुत ही अमीर घर में पैदा होते हैं और कुछ लोग बहुत ही गरीब घर में। कुछ अमीर घर में पैदा होकर धीरे-धीरे गरीब हो जाते हैं और कुछ लोग गरीब घर में पैदा होकर धीरे-धीरे अमीर हो जाते हैं। कुछ लोग बहुत अच्छा पढ़ लिखकर बेरोजगार रहते हैं और कुछ लोग थोड़ा पढ़े लिखे होने पर भी अच्छे काम काज में लग जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि बच्चे के जन्म के बाद घर में बहुत तरक्की हुई और सब कुछ अच्छा हो गया जबकि कुछ लोग कहते हैं कि जब से बच्चा पैदा हुआ मां बाप बीमार रहते हैं और घर में परेशानी आ गई है। कुछ लोग कहते हैं कि शादी के बाद पत्नी के आने से तरक्की और उन्नति होती गई जबकि कुछ लोग कहते हैं कि शादी के बाद दिन प्रतिदिन काम खराब हो रहा है। इस संसार में अधिकतर लोग चढ़ते हुए सूर्य को नमस्कार करते हैं। अगर आप अच्छे पद पर हंै या आपको सब प्रकार की सुख सुविधा है तो आपके अनेक मित्र होंगे, अगर कुछ नहीं तो आपको कोई पूछने वाला नहीं होगा। ज्योतिष में नवम स्थान को भाग्य एवं धर्म स्थान माना जाता है। जन्मपत्री देखते समय सभी विषयों पर विस्तार पूर्वक विचार करना चाहिए। सबसे पहले लग्न को देखें, वह एक अंश से कम और 29 अंश से अधिक नहीं होना चाहिए। अगर लग्न कमजोर हो या संधि में हो तो कुंडली कमजोर होती है। लग्नेश के अस्त होने पर कुंडली में बहुत ही खराबी आ जाती है। ऐसे में ग्रह कितने भी अच्छे हों, कुछ न कुछ परेशानी बनी रहेगी। लग्नेश वक्री हो और अपने स्थान से छठे, आठवें या बारहवें, चला गया हो तो कंुडली कमजोर होगी। ज्योतिष में गुरु, शुक्र, बुध और पक्षबली चंद्रमा को शुभ माना गया है। अगर ये ग्रह केंद्र या त्रिकोण में हों, तो कुंडली में अरिष्ट भंग करते हैं अर्थात अच्छा योग बनाते हैं। जन्मकुंडली में त्रिकोण स्थान 1, 5, 9 और केंद्र स्थान 1, 4, 7, 10 को अच्छा माना गया है लग्न। (प्रथम स्थान) को केंद्र और त्रिकोण दोनों माना गया है। जन्मकुंडली में आमदनी और धन के लिए दूसरा और ग्यारहवां स्थान दोनों अच्छे हंै, लेकिन तंदुरस्ती के लिए नहीं क्योंकि दूसरा स्थान मारक है और ग्यारहवां छठे से छठा है। जन्मकुंडली में 6, 8, 12 स्थानों को खराब माना जाता है। इसलिए अगर लग्नेश, भाग्येश, नवमेश, लाभेश और धनेश केंद्र या त्रिकोण में हों, तो कुंडली में अच्छा योग बन जाता है। अगर कोई अच्छा ग्रह नवम में हो, तो अच्छा फल देता है। चंद्रमा पक्ष बली हो और उस पर किसी पापी ग्रह का प्रभाव नहीं हो, तो जन्मपत्री में बहुत ही शक्ति आ जाती है। कुंडली में चंद्रमा की स्थिति बहुत अच्छी होने से आधी कुंडली स्वतः ही शुभ है और खराब होने से अशुभ होती है।
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स्वस्थ न रहने के ज्योतिषीय कारण: जब आपकी कुंडली में लग्न, लग्नेश, चंद्र लग्न, चंद्र लग्नेश, सूर्य लग्न व सूर्य लग्नेश कमजोर या पीड़ित हो और किसी शुभ ग्रह का प्रभाव न हो तो जातक को स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अगर आप अत्यधिक मोटापे से परेशान हैं तो क्या करें? - ऐसा अक्सर देखा गया है कि आप व्यायाम भी करते हैं, दौड़ भी लगाते हैं, खाना भी कम खाते हैं किंतु फिर भी आप मोटे होते चले जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में आप किसी भी शनिवार की सायंकाल को रांगा धातु की अंगूठी मध्यमा अंगुली में डालें ( रांगा धातु जो बर्तनों को कलई करने के काम में आता है)। साथ में आप जो भी व्यायाम करते हैं, करते रहें व अपने खान-पान पर ध्यान भी रखें आपको अवश्य लाभ होगा। अगर आप आलस्य से पीड़ित हैं तो क्या करें? - मंगलवार के दिन लाल रंग का मूंगा खरीदें व उसी दिन चांदी की अंगूठी में जड़वा लें और हनुमान जी के मंदिर जायें। पूजा उपरांत एक माला श्री रामदूताय नमः मंत्र का जप करें और वहीं पर धारण करें, आपको अवश्य लाभ होगा। अगर आपको सिरदर्द की शिकायत ज्यादा रहती है और किसी भी दवाई का असर नहीं हो रहा हो तो क्या करें? सूर्य उदय होने से पहले एक पुराने गुड़ का टुकड़ा लें व किसी चैराहे के समीप दक्षिण की ओर मुख कर दांतों से गुड़ को काटें व वहीं चैराहे पर डाल दें और किसी से बात किये बिना और पीछे मुड़ के देखे बिना घर वापिस आ जायें। ऐसा करने से आपको दवाई का असर होने लगेगा व धीरे-धीरे पुराने से पुराना सिर दर्द भी हो तो भी आपको अवश्य लाभ मिलेगा। अगर आप सफेद दागों से पीड़ित हैं तो क्या करें? कपास के पत्तों को पीस कर रस निकालें। इस रस को सूर्योदय से पहले सफेद दागों पर लगाएं। थोड़ी देर बाद सूख जाने पर पानी से धो लें तथा शुद्ध गाय के घी उस पर लगा लें। प्रयोग के दिनों में खाने में भी केवल गाय के घी का ही इस्तेमाल करें। अन्य तेल-घी का परहेज रखें आपको अवश्य लाभ मिलेगा। अगर कोई जातक पहले कभी लकवे से पीड़ित रहा हो और दोबारा इसका प्रकोप न झेलना पड़े तो क्या करें? - किसी भी रवि पुष्य योग के समय काले घोड़े की नाल की अंगूठी या कड़ा बनवा कर रोगी को पहनाने से उसे जीवन में दोबारा कभी लकवे का प्रकोप नहीं झेलना पड़ेगा। - अगर पथरी संबंधी समस्या का सामना बार-बार करना पड़ता हो तो क्या करें? - शुक्ल पक्ष में शनि पुष्य योग में असली काले घोड़े की नाल का छल्ला बनाकर अपने दाहिने हाथ की कनिष्ठिका ऊंगली में पहनने से पथरी संबंधी समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। अगर किसी भी तरह का रोग आपको बार-बार परेशान कर रहा है तो क्या करें? पांच गोमती चक्र लें व उसे लाल सूती धागे में पिरोकर जिस पलंग पर आप सोते हांे उसके एक पाये पर बांध दें। धीरे-धीरे आपको रोगों से निवारण मिलेगा। अगर रोगी ज्यादा गंभीर स्थिति में हो और वह आॅक्सीजन या वेंटिलेटर पर हो तो क्या करें? जौ का सवा पाव आटा लें, उसमें साबूत काले तिल मिलाकर रोटी बनायें, उस पर थोड़ा सा तिल का तेल लगायें और उस पर गुड़ रखकर रोटी को रोगी के ऊपर से 7 बार वार कर भैंसे को खिला दें। खिलाने के बाद पीछे मुड़कर न देखें, न ही उसे कोई आवाज दें। सीधे घर वापिस आयें, अवश्य लाभ होगा।
Saturday, 5 March 2016
अध्यात्म ज्योतिष और वास्तु
कुतः सर्वमिदं जातं कस्मिश्च लयमेफ्यति। नियंता कश्च सर्वेषां वदस्व पुरूषोत्तम।। यह जगत किससे उत्पन्न हुआ है और किसमें जा कर विलीन हो जाता है? इस संसार का नियंता कौन है? हे पुरुषोत्तम ! यह बताने की कृपा करें। महेश्वरः परोऽव्यक्तः चर्तुव्यूह सनातनः। अननंता प्रमेयश्च नियंता सर्वतोमुखः।। सनातन अनंत अप्रमेय सर्वशक्तिमान महेश्वर सबके नियंता हैं। तत्व चिंतको ने उन्हें ही अव्यक्त कारण, नित्य, सत, असत्य रूप, प्रधान तथा प्रकृति कहा है। वह (परमात्मा) गंध, वर्ण तथा रस से हीन, शब्द और स्पर्श से वंचित, अजर, ध्रुव, अविनाशी, नित्य और अपनी आत्मा में अवस्थित रहते हैं। वही संसार के कारण, महाभूत परब्रह्म, सनातन, सभी भूतों के शरीर, आत्मा में अधिष्ठित, महत्, अनादि, अनंत, अजन्मा, सूक्ष्म, त्रिगुण, प्रभव, अव्यय, और अविज्ञेय ब्रह्म सर्वप्रथम थे। आत्मपुरुष के गुण साम्य की अवस्था में रहने पर जब तक विश्व की रचना नहीं हो जाती है, तब तक प्राकृत प्रलय होता है। यह प्राकृत प्रलय ब्रह्मा की रात्रि कही गयी है और सृष्टि करना उनका दिन कहा गया है। वस्तुतः ब्रह्मा का न दिन होता है, न रात। रात्रि के अंत में जागने पर जगत के अंतर्यामी, आदि, अनादि सर्वभूतमय, अव्यक्त ईश्वर प्रकृति और पुरूष में शीघ्र (हलचल) प्रवेश कर के परम योग से स्पंदन उत्पन्न करता है। वही परमेश्वर क्षोभ उत्पन्न करने वाला है। वही क्षुब्ध होने वाला है। वह संकुचन और विकास (लय और सृष्टि) द्वारा प्रधानत्व प्रकृति में अवस्थित होता है। स्पंदित प्रकृति से पुरातन पुरुष से प्रधान पुरुषात्मक बीज उत्पन्न हुआ। उसी से आत्मा, मति, ब्रह्मा, प्रबुद्धि, ख्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, धृति, स्मृति और सवित् की उत्पत्ति हुई। यह सृष्टि मनोमय है। यही प्रथम विकार है। यह तीन प्रकार के हैं- तेजस, भूतादि, तामस। वैकारिक अहंकार से वैकारिक सृष्टि हुई। इंद्रियां तेज का विकार हैं। इनके वैकारिक दस देवता है। ग्यारहवां मन है, जो, अपने गुणों से, उभयात्मक है। भूतादि (तामस अहंकार) से शब्द तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे आकाश उत्पन्न हुआ, जिसका गुण शब्द माना जाता है। आकाश ने भी विकार को प्राप्त कर के स्पर्श तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे आयु उत्पन्न हुआ, जिसका गुण स्पर्श कहा गया है। वायु ने भी विकार अग्नि को उत्पन्न कर के रूप तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे अग्नि से जल उत्पन्न हुआ, जो रस (जिह्वा) का आधार है। जल ने भी, विकार को प्राप्त कर के, गंध तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे गुण संघातमयी पृथ्वी उत्पन्न हुई। उसका गुण गंध है। इस प्रकार पुराणसम्मत उत्पत्ति विषयक तथ्यों से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि यह व्यावहारिक जगत उस प्रथम पुरुष के अधीन एक सत्ता है। सतोगुण, रजोगुण तमोगुण से युक्त यह पृथ्वी ईश्वर की माया के अधीन है। पृथ्वी कभी नष्ट नहीं होती है। प्रलय के पश्चात् इसका प्रकटीकरण होता है। यह जगत वास्तव में क्या है? कहां से इसकी उत्पत्ति हुई और कहां इसका लय है? व्यावहारिक जगत में इसका उत्तर है मुक्ति से ही जगत की उत्पत्ति हुई है। मुक्ति में ही विश्राम है और मुक्ति (निवृत्ति) में ही अंत में लय हो जाता है। यह भावना कि हम मुक्त हुए एक आश्चर्यजनक भावना है, जिसके बिना हम एक क्षण भी नहीं चल सकते हैं। इस विचार के अभाव में हमारे सभी कार्य, यहां तक कि हमारा जीवन भी व्यर्थ है। प्रत्येक क्षण प्रकृति यह संदेश सिद्ध कर रही है कि हम दास हैं। पर उसके साथ ही यह भाव उत्पन्न होता है कि हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण हम माया से आहत हो कर बंधन में प्रतीत होते हैं। उसी क्षण अंतरस में हलचल होती है। हम मुक्त हैं। यह मुक्ति की भावना ही हमें ईश्वर अंश जीव अविनाशी का बोध कराती है और यह बंधन हमें हमारी शेष इच्छाओं और वासनाओं का। इच्छाएं, वासनाएं जगत प्रपंच के अंतर्गत हंै, जबकि भुक्ति जगत से ऊपर है। जहां किसी प्रकार गति नहीं है, किसी प्रकार का परिणाम नहीं है, यही मोक्ष है। जगत का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहीं है। प्रत्येक पदार्थ पर उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है; अर्थात् परस्पर सापेक्षता समस्त विश्व का नियम है। कार्य-कारण का सिद्धांत ही पुनर्जन्म की मान्यता को सिद्ध करता है। जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं और अनुभव करते हैं, संक्षेप में जगत का सभी कुछ एक बार कारण बनता है और फिर कार्य। एक वस्तु अपने आने वाली वस्तु का कारण बनती है। वह स्वयं अपनी पूर्ववर्ती किसी अन्य वस्तु का कार्य भी है। हम अपनी ही वासनाओं के परिवर्तित रूपों को हर जन्म में जीते हैं। गीता का यही संदेश है। जगत का प्रत्येक प्राणी वैकारिक अहंकार के अधीन ही कर्म करता है और कर्म के परिणामों से सुखी और दुःखी अनुभव करता है। ज्योतिष और वास्तु का ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति का मार्ग दिखा सकता है। कर्म प्रधान संसार होने के कारण ही योनियां निर्धारित हैं। दिशाओं और ब्रह्मांडीय ऊर्जा, चुंबकीय बल का प्रभाव समस्त अंडज, पिंडज, स्वदेज उद्भिज पर पड़ता है। इसमें मानव योनि ही कर्मशील और विवेकयुक्त है। अन्य सभी भोग योनियां रहती हैं। अथर्व वेद से निकले स्थापत्य वेद के नियमानुसार भवन निर्माण की प्रक्रिया पूर्णतया वैज्ञानिक है। ग्रहीय प्रभाव, उत्तरी और दक्षिणी अंक्षाश के प्राकृतिक अंतर को ध्यान में रख कर, वास्तु का पूर्ण लाभ लिया जा सकता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पंच महाभूतों, तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण, इनके प्रभाव को मानव अपने और प्रकृति के मध्य एक सामंजस्य बना कर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। वास्तु शास्त्र को सरलता से समझने के लिए ऋषियों ने इसे वास्तु पुरुष की संज्ञा दी, जो विभिन्न दिशाओं पर राज्य करते हैं, जिनका प्रभाव, सूर्य के उदय और अस्त होने के कारण, जैविक ऊर्जा और प्राणिक उर्जा के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को दर्शाते हैं। प्रत्येक दिशा अपना शुभ और अशुभ प्रभाव रखती है। उत्तर-पूर्व दिशा, ऐश्वर्य और सोम (अमृत) प्रदान करती है और शरीर में वाणी, बुद्धि, विद्या, न्रमता, आध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है। पूर्व दिशा मन-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने, अस्थियों के विकास और वंश वृद्धि में सहायक होने के साथ-साथ दीर्घायु कारक है। जापान में आयु का प्रतिशत विश्व में सबसे अधिक है। उसे उगते हुए सुरज का देश कहा जाता है। अग्नि कोण और दक्षिण, जहां शुक्र और मंगल से युक्त है वहीं, प्रदूषणयुक्त और जीवाणुरहित क्षेत्र होने के कारण, स्वास्थ्य और समृद्धि, जोश एवं उत्साह का संवाहक है। उत्तर-पूर्व दिशाएं जहां सकारात्मक प्रभाव डालती हंै, दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम दिशाएं नकारात्मक ऊर्जा की संवाहक है। पूर्व से पश्चिम सौर ऊर्जा का प्रभाव क्षेत्र रहता है। सूर्योदय से तीन घंटे सूर्य जीवन के लिए लाभदायक हैं और वृद्धि देता है। अगले तीन घंटे सूर्य के अग्नि और प्रकाश तत्व बढ़ जाते हैं। ऊर्जा का अधिक विकिरण होने के कारण ये हानिकारक ऊर्जा देते हैं। अगले तीन घंटे सूर्य अपने संपूर्ण प्रभाव से यम दिशा में स्थित होता है। यह सूर्य की विध्वंसक अवस्स्था होती हैं। अगले तीन घंटे सूर्य पश्चिम दिशा में फिर सौम्य रूप में होता है। रात्रि भर सूर्य की किरणें चंद्रमा के ऊपर पड़ कर पृथ्वी पर आती हैं और मानव, वनस्पति और सभी जड़-चेतन पर अपना प्रभाव डालती है। ज्योतिष और वास्तु में, संपूर्ण सौर मंडल में सूर्य ही एक नियामक ग्रह है, जिसकी किरणों के सातों अंश ग्रहोत्पादक हैं। सुषुम्न, हरिकेश, विश्वकर्मा, विश्वश्र्रवा संयद्वंसु, अर्वावसु और सप्तम स्वर है । इनमें सुषुम्न नामक किरण चंद्रमा को पुष्ट करती है। हरिकेश नामक किरण नक्षत्रों को पुष्ट करती है। विश्वकर्मा नामक किरण बुध का पोषण करती है। शुक्र का पोषण विश्वश्रवा नामक किरण करती है। संयद्वंसु नामक किरण मंगल का पोषण करती है। अर्वावसु किरण बृहस्पति को पुष्ट करती है। सप्तम स्वर नामक किरण शनि को पुष्ट करती है। इस प्रकार सूर्य के प्रभाव को प्राप्त कर के तारे-नक्षत्र वृद्धि को प्राप्त होते हैं और प्राणी जगत को प्रभावित करते हैं।
कारकांश लग्न और आपका जीवन
(1) कारकांश लग्न में सूर्य व राहु की युति हो व शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो व्यक्ति विषवैद्य अर्थात चिकित्सक होता है। (हमने इसे एम.सी. डाॅक्टरों में उचित पाया है) (2) कारकांश लग्न में सूर्य व शुक्र दोनों की दृष्टि हो तो व्यक्ति राजा अथवा सरकार का विश्वसनीय होता है। (3) कारकांश लग्न व केतु दोनों पर शुक्र की दृष्टि हो तो व्यक्ति दीक्षा ग्रहण करता है कर्मकाण्डी, यज्ञ, हवन करने वाला होता है। (4) कारकांश लग्न में केतु हो उस पर बुध शनि की दृष्टि हो तो जातक नपुंसक होता है। यदि शुक्र बुध की दृष्टि हो तो जातक दासी पुत्र (नजायज संतान) होता है। (5) कारकांश लग्न में केतु केवल शनि द्वारा दृष्ट हो तो वह व्यक्ति कपटी होता है अर्थात् जैसा वह दिखता है वैसा नहीं होता। (6) यदि कारकांश लग्न से चतुर्थ भाव में चंद्र हो और उस पर शुक्र, मंगल, केतु (किसी भी एक की) दृष्टि हो तो व्यक्ति कुष्ट रोगी होता है। (7) कारकांश लग्न से चतुर्थ में केतु हो तो जातक सूक्ष्म यंत्रों को बनाने वाला (घड़ी साज) मंगल हो तो हथियार रखने वाला शनि हो तो निशानेबाज (धर्नुधारी) राहु हो तो लोहे से समान बनाने वाला होता है। (8) कारकांश लग्न से पंचम भाव में शुुक्र हो तो व्यक्ति कवि, वक्ता या साहित्यकार होता है यदि गुरु हो तो बहुत से विषयों का जानकार विद्वान होता है। यदि शुक्र चंद्र हो तो लेखक, मंगल हो तो तर्कशास्त्री, वकील तथा सूर्य हो तो वेदों का ज्ञाता एवं गायक होता है। (9) कारकांश से सप्तम भाव में गुरु और चंद्र हो तो जातक की पत्नी सुंदर व उसे चाहने वाली होती है, शनि हो तो उम्र में बड़ी रोगी अथवा तपस्विनी होती है। बुध हो तो गायन, वादन कला में निपुण होती है। (10) कारकांश से दशम भाव में बुध हो या बुध की दृष्टि हो तो जातक अपने पेशे में प्रसिद्ध होता है यदि बुध हो और उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो जातक वकील, जज होता है अर्थात विवादों को हल करने वाला होता है। (11) कारकांश लग्न से बाहरवें सूर्य और केतु हो तो जातक शिव भक्त चंद्र हो तो गौरी भक्त, मंगल हो तो कार्तिकेय, बुध और शनि हो तो विष्णु भक्त, गुरु हो तो शिव गौरी (दोनों) शुक्र हो तो लक्ष्मी भक्त या उपासक होता है, राहु हो तो तामसिक भक्ति केतु हो तो गणेश भक्ति वाला होता है। इस प्रकार बहुत से अन्य योग भी दिये गये हैं जिनसे काफी कुछ जानकारी व्यक्ति विशेष के बारे में जानी जा सकती है यहां यह भी ध्यान रखें कि यह सारे फलादेश आज के संदर्भ में समयानुसार परिवर्तन के साथ समझे जा सकते हैं वहीं दृष्टि यहां पर जैमिनी मानी गई है पराशरीय नहीं।
कुंडली में चार्टेड अकाउंटेंट बनने के ग्रह योग
भारतीय ज्योतिष के अंतर्गत होराशास्त्रों में जातक की आजीविका संबंधी कार्यक्षेत्रों और व्यवसायों का विचार भी किया गया है। प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ये फल आज के परिप्रेक्ष्य में लागू नहीं होते हैं, क्योंकि पिछले 50-60 वर्षों में कार्य और व्यावसायिक क्षेत्र में व्यापक बदलाव आया है। ज्योतिष विषय के मूल आधार को परिवर्तित नहीं करते हुए, आज के परिप्रेक्ष्यानुसार आजीविका निर्णय करना ज्योतिषियों के लिए बहुत आवश्यक है। यह निर्णय तब ही संभव है, जब आज के कार्यक्षेत्र और व्यवसायों को जानकर ज्योतिष विषय में उनके योगों की व्याख्या की जाए। यह अनुसंधान काफी समय से ज्योतिर्विद करते रहे हैं। कई आधुनिक ज्यातिर्विदों ने आज के परिप्रेक्ष्यानुसार कुंडली में स्थित वर्तमान कार्यक्षेत्र और व्यवसाय के योगों की व्याख्या भी की है। इन अनुसंधानों के अंतर्गत कुंडली में बनने वाले योग जैसे- इंजीनियर, डाॅक्टर, शिक्षक, सी. ए., प्रबंधन क्षेत्र, प्रशासनिक सेवा, मीडिया, थिएटर आदि लाइन में जाने का योग तथा विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्याख्या की गई है। यहां पर कुंडली में स्थित चार्टर्ड अकाउंटेंट (सी. ए.) द्वारा आजीविका के योगों की व्याख्या की जा रही है। सी. ए. या चार्टर्ड अकाउंटेंट: वर्तमान समय में बहुत प्रसिद्ध कार्यक्षेत्र है। सी. ए. बनने के लिए वाणिज्य विषय में विशेषज्ञता आवश्यक होती है। ज्योतिष में वाणिज्य विषय का कारक बुध को माना जाता है। अतः कंुडली में निम्नलिखित योग होने पर जातक सी. ए. बन सकता है। 1. बली पंचमेश यदि पंचम, चतुर्थ, एकादश, द्वितीय या सप्तम भाव में स्थित हो। 2. गुरु बली होकर पंचम भाव से संबंध बना रहा हो तथा चतुर्थ, पंचम, सप्तम, दशम या द्वितीय भाव में स्थित हो। 3. पंचमेश के अतिरिक्त कुंडली में बुध, गुरु व राहु भी बली होने चाहिए। 4. बली बुध और राहु का परस्पर संबंध बन रहा हो अथवा उनका पंचम और पंचमेश से संबंध बने। 5. लग्नेश बली होकर पंचम भाव में स्थित हो तथा पंचमेश भी पंचम या लग्न से संबंध बनाता हो। 6. पंचमेश का संबंध गुरु, बुध, राहु तथा लग्नेश में से किन्हीं दो ग्रहों से हो तथा पंचमेश बलवान हो। उपर्युक्त योगों में से कोई दो या तीन योग किसी जातक की कुंडली में बन रहे हों, तो जातक सी. ए. बन सकता है।
शनि और करियर
शनि को ब्रह्माण्ड का बैलेंस व्हील माना जाता है अर्थात् शनि सृष्टि के संतुलन चक्र का नियामक है। क्योंकि बैलेंस शनि का मुख्य गुण है इसलिए यह बैलेंस की कारक राशि तुला में अतिप्रसन्न अर्थात् उच्चराशिस्थ होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में अधिक संतुलन, सुरक्षा व स्थिरता अर्थात् जाॅब सैक्यूरिटी आदि देने में समर्थ होते हैं। इसे न्याय का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि यह मनुष्य को उसकी गलतियों और पाप कर्मों के लिए दण्डित करके मानवता की रक्षा करता है और सृष्टि में संतुलन स्थापित करने की प्रक्रिया को स्थिरता पूर्वक गति देता रहता है। यदि जातक की जन्मकुंडली में करियर के उच्चतम शिखर पर पहंुचने के सभी शुभ योग विद्यमान हों तो यह सही है कि जातक अपने करियर में ऊंचा उठेगा लेकिन उन्नति प्राप्त होने का उसका मार्ग सरल होगा या कठिनाइयों से भरा हुआ होगा इसका सूक्ष्म विष्लेषण करने हेतु कुंडली में शनि की स्थिति का अध्ययन करना होगा। यदि कुंडली में शनि की स्थिति उत्तम हो, यह 3, 6, 10 या 11वें भाव में स्थित हो, नीचराषिस्थ व पीड़ित न हो तो आसानी से सफलता मिलेगी। नीचराषिस्थ होने की स्थिति में पूर्ण नीचभंग हो रहा हो तो भी सफलता मिल सकती है। परंतु यदि शनि का नीचभंग नहीं हुआ या शनि शत्रुराषिस्थ व पीड़ित होकर अषुभ भाव में स्थित हुआ तो जातक की सफलता पर प्रष्न चिह्न लग जाएगा तथा विषेष योग्यता संपन्न होने के बावजूद भी उसे जीवन में कठिनाइयों व संघर्ष से जूझना पड़ेगा तथा वह साधारण जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाएगा। शनि हमें यथार्थवादी बनाकर हमारी वास्तविक शक्तियों व योग्यताओं से अवगत करवाता है तथा हमें एकान्तप्रिय होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर करवाता है अर्थात् हमें थ्वबनेमक रखता है। कालपुरुष के अनुसार शनि को व्यवसाय के कारक दशम भाव का स्वामी माना जाता है। हमारे जीवन में स्थिरता व संतुलन का विचार दशम भाव से भी किया जाता है क्योंकि दशम भाव व्यवसाय का घर होता है और जितना हम व्यावसायिक स्तर पर सफल होते हैं उतनी ही श्रेष्ठ सफलता हमें जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी प्राप्त होती है। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं संतुलन अर्थात् बैलेंस के कारक शनि की राशि का व्यवसाय के भाव में होना उचित ही है। ग्रहों में शनि को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि यह ग्रह बलवान होकर शुभ भाव में स्थित हो तो सफलता जातक के कदम चूमती है। शनि की विशेष उत्तम स्थिति से जातक को बहुत से नौकर-चाकर, उच्च पद्वी, सत्ता व धन सम्पदा आदि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। शनि को सत्ता का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि राजनीति, कूटनीति, मंत्रीपद सभी इसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। यदि कुंडली में शनि लग्न में बैठा हो तो यह कालपुरुष की दशम राशि मकर को दशम दृष्टि से देखकर न केवल व्यावसायिक जीवन में सफलता की गारंटी देता है अपितु अपनी लग्नस्थ स्थिति के कारण जातक को कुशल विचारक व योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने की योग्यता भी देता है। बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों, व्यापारियों, वैज्ञानिकों, तांत्रिकों व ज्योतिषियों की कुंडली में शनि की इस प्रकार की स्थिति देखी जा सकती है। यदि लग्नस्थ शनि नीच का भी हो तो भी व्यावसायिक जीवन में स्थिरता व अधिकार प्राप्ति का कारक बनता है क्योंकि वह दशम दृष्टि से अपनी राशि को देखता है और कालपुरुष के अनुसार भी दशम भाव में इसकी मकर राशि ही होती है जिसे व्यवसाय की कारक राशि माना जाता है। लग्नस्थ शनि सभी लग्नों के लिए श्रेष्ठ है यद्यपि चर लग्न के लिए शनि की लग्नस्थ स्थिति अधिक उत्तम मानी जाएगी क्योंकि चर लग्नों के जातकों में शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता होती है जबकि शनि का गुण धैर्य व स्थिरितापूर्वक एकाग्रचित्त होकर कार्य सम्पादन करना है। इसलिए इन दोनों गुणों का सम्मिश्रण जातक को श्रेष्ठस्तरीय सफलता का सूत्र व मार्ग स्पष्ट कर देता है। यदि कर्क लग्न के शनि का विचार करें तो यह सामान्य रूप से प्रबल अकारक होता है लेकिन शुभ भाव लग्न में बैठकर यह न केवल अष्टमेश का शुभ फल देकर दीर्घायु बनाता है अपितु जातक को रिसर्च ओरिएंटड, गुप्त व कूटनीतिक योग्यताओं से सम्पन्न भी कर देता है। कर्क लग्न की अपनी यह विशेषता होती है कि इससे प्रभावित जातकों का शरीर, मन और आत्मा एकात्म समन्वित होते हैं। लग्न से शरीर व आत्मा का विचार तो होता ही है साथ ही मन की राशि कर्क के लग्न में आ जाने से चंद्रमा का प्रभाव भी लग्न मंे आ जाएगा क्योंकि यह लग्नेश होगा इसलिए ऐसी कंुडली में लग्नस्थ शनि शरीर, मन व आत्मा तीनों को प्रभावित करेगा अर्थात् मानव को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले ग्रह शनि का प्रभाव आपके जीवन के हर पक्ष पर सीधे रूप से पड़ेगा और फलस्वरूप आप सर्वाधिक सफलता प्राप्त करने में सक्षम होंगे तथा राजनीति के गलियारों में आपकी कुशलता का विशेष डंका बजेगा। तुला लग्न की पत्री में लग्नस्थ शनि उच्चराशिस्थ होकर चतुर्थेश व पंचमेश होकर आपको शश योग से समन्वित करके परम भाग्यशाली बना देगा तथा जीवन के हर क्षेत्र में आप सफल होंगे। ऐसा भी संभव है कि आप योग, अध्यात्म, वैराग्य, दर्शन, त्याग आदि की कठिनतम रहस्यमयी आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश करके संसार को चमत्कृत कर दें अथवा कोई बड़े वैज्ञानिक बनें। मकर राशि की कुंडली में लग्नेश शनि अपार धन सम्पदा से सम्पन्न बड़ा व्यापारी तो बना ही देगा साथ ही आपकी एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति को भी सुदृढ़ करेगा। अधिकतर ऐसा देखा गया है कि दशम भावस्थ शनि चाहे किसी भी राशि का हो, जातक के जीवन में व्यावसायिक स्थिरता बनी रहती है। यदि ऐसा शनि नीच का हो तो भी जातक का कार्य चलता रहता है। नीच राशि का शनि अक्सर ज्योतिष कार्यों से या अन्य परामर्श संबंधी कार्यों से लाभान्वित कराता है। शनि का दशम भाव से संबंध होने से लोहे का व्यापार तथा तिल, तेल, खनिज पदार्थ, पेट्रोल, शराब आदि के क्रय-विक्रय से, ठेकेदारी से, दण्डाधिकारी, सरपंच अथवा मंत्री पद आदि से लाभान्वित करवा सकता है। जब शनि गोचर में उच्चराशिस्थ होता है तो समाज, देश व संसार में जगह-जगह पर न्याय व्यवस्था के समुचित रूप से स्थापित किए जाने की आवाजें उठने लगती हैं। ऐसा 30 वर्ष में एक बार होता है और ऐसे में शनि समाज में फैली अव्यवस्थाओं और अन्याय को नियंत्रित करता ही है। मानव के स्वभाव, भाग्य व जीवन चक्र का नियमन चंद्र की गति, नक्षत्र व चंद्र पर अन्य ग्रहों के प्रभाव द्वारा होता है इसलिए जातक की मानसिकता, मनः स्थिति, ग्रह दशा के क्रम व गोचर का विचार भी चंद्रमा को केंद्र में रखकर ही किया जाता है। कुंडली में सत्ता की प्राप्ति के प्रबल कारक शनि का गोचर में चंद्रमा के निकट आना जीवन में जिम्मेदारियों के बढ़ने तथा सत्ता प्राप्ति का सबब बनते देखा गया है। इसे साढ़ेसाती भी कहते हैं। कुंडली में शनि की खराब स्थिति तथा साढ़ेसाती में अशुभ भाव व राशि में वक्री या अस्त होकर गोचर करना करियर में जबर्दस्त नुकसान देता है, नौकरी छूट जाती है, राजनीति में हार तथा व्यापार में हानि उठानी पड़ती है। वहीं कुंडली में शनि की शुभ स्थिति हो तथा अच्छे राजयोग बन रहे हों तो ऐसे में साढ़ेसाती के समय शनि का शुभ भाव व राशि में गोचर करियर में श्रेष्ठतम सफलता प्रदान करता है। जितनी श्रेष्ठ कुंडली होगी उतनी ही ऊंची सफलता सुनिश्चित हो जाएगी। श्रेष्ठतम कुंडली में शुभ साढ़ेसाती सत्ता का सुख देती है। चाहे ग्रह योग व साढ़ेसाती का सूक्ष्म निरीक्षण कितना ही शुभ फलदायी प्रतीत होता हो परंतु जातक को साढ़ेसाती के समय व्यापार में जोखिम नहीं उठाना चाहिए। शनि की साढ़ेसाती आपको अपने व्यवसाय के बारे में सूक्ष्म रूप से यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करती है साथ ही आपको जोखिम उठाने के लिए मना करती है। आपके लिए ऐसी कठिनाइयां भी उत्पन्न करती है जिससे आप अपनी गलतियों से सीखें। यह तकलीफें देकर आपको न केवल एक अच्छा इंसान बना देती है अपितु करियर को भी समुचित दिशा प्रदान करती है। जब कुंडली में शनि की स्थिति श्रेष्ठ हो, धन व लाभ भाव के स्वामी विशेष बली हों तथा गुरु व बुध भी उत्तम स्थिति में हों और गोचरस्थ शनि चंद्रमा से तृतीय, षष्ठ व एकादश भावों में शुभ राशि व शुभ ग्रहों के ऊपर से गोचर कर रहा हो तो वह समय व्यापारिक क्षेत्र में उन्नति के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। इस समय यदि शुभ भावों में स्थित ग्रह की दशा भी चल रही हो तो जोखिम भी उठाए जा सकते हैं क्योंकि सफलता तय है। जिस समय दशम भाव, दशमेश व दशम के कारक पर शनि व गुरु दोनों का गोचरीय प्रभाव आ रहा हो और यह गोचर चंद्रमा से शुभ हो व शुभ राशि में भी हो तो करियर में उन्नति निश्चित रूप से होती है। यदि शनि मेष या वृश्चिक राशि में हो या मंगल से दृष्ट हो तो जातक मशीनरी, फैक्ट्री, धातु, इंजीनियरिंग, इंटीरियर या बिजली संबंधी कार्यों, केंद्रीय सरकार, कृषि विभाग, खान, खनिज या वास्तुकला विभाग में कार्य करता है। यदि इस ग्रह योग पर गुरु व शुक्र का भी प्रभाव हो तो ऐसा जातक न केवल धन लाभ अर्जित करता है अपितु उसे भूमि व संपत्ति का लाभ भी प्राप्त होता है। यदि शनि वृष या तुला राशि में हो अथवा इस पर शुक्र की दृष्टि हो तो कला, प्रबंधन, कम्प्यूटर के व्यवसाय से लाभ उठाता है। यदि गुरु व बुध का शुभ प्रभाव भी इस ग्रह योग पर पड़ता हो तो कानूनविद्, वकील, न्यायाधीश आदि के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। शनि और शुक्र मित्र हैं इसलिए शनि पर शुक्र का यह प्रभाव सौभाग्यवर्धक माना जाता है। शनि से गुरु, शुक्र व बुध की शुभ स्थिति के फलस्वरूप जीवन में आय लाभ नियमित रूप से होता रहता है। ऐसे जातक अपने व्यवसाय में विशेष सुखी होते हैं। उनके पास धन, वाहन और भवन सभी मौजूद रहते हैं। शनि मिथुन या कन्या में हो अथवा बुध से दृष्ट हो तो ऐसे जातक एकाउंटिंग, काॅस्टिंग, अभिनय, बुद्धिजीवी वाले कार्यों, व्यापार, वित्तीय सौदों, विज्ञान व वाकपटुता आदि के अतिरिक्त लेखन कला व कानून संबंधी कार्यों से धन लाभ प्राप्त करते हैं। यदि गुरु व शुक्र का भी प्रभाव रहे तो धन कमाना सरल होने लगता है। ऐसे जातक को मित्रों से भी सहयोग मिलता है। शनि कर्क राशि में हो या चंद्रमा से दृष्ट हो तो ऐसा व्यक्ति कला, ज्योतिष, राजनीति, धर्म, यात्रा, पेय पदार्थ, साहित्य, जल, मदिरा आदि के कार्यों से लाभ उठाते हैं। ऐसे लेगों के करियर में बार-बार परिवर्तन होते हैं। करियर में यात्राएं भी खूब होती हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं कि ऐसे लोग कठिन परिश्रम वाले कार्यों में संलग्न होना चाहें। ऐसे लोग अधिकतर शांत व नरम स्वभाव के होते हैं। शनि सिंह राशि में हो अथवा सूर्य से दृष्ट हो तो ऐसे जातक को सरकारी नौकरी या सत्ताधारी लेागों से लाभ मिलता है। इसका यह भी संकेत निकाल सकते हैं कि पिता पुत्र का व्यापार या साझेदारी आदि में संबंध है। इसके कारण सरकारी नौकरी व राजनीति से लाभ मिलता है। शनि सूर्य की शत्रुता के चलते कुछ संघर्ष के पश्चात् सफलता मिलती है। इसलिए यदि गुरु, शुक्र व बुध आदि ग्रहों का शनि पर प्रभाव न हो तो व्यावसायिक जीवन में संघर्ष का सामना करना पड़ता है। लेकिन यदि गुरु, शुक्र, बुध व बलवान चंद्रमा का प्रभाव आ जाए तो जातक को विशेष प्रसिद्धि की प्राप्ति होती है। यदि शनि धनु या मीन राशि म हो या गुरु से दृष्ट हो तो जातक को कानून, वन विभाग, लकड़ी या धार्मिक संस्थाओं आदि में विशेष सफलता मिलती है। यह ग्रह योग जातक को मनोविज्ञान, गुप्त ज्ञान (पराविद्या), प्रशासनिक कार्य, प्रबंधन कार्य, शिक्षक, अन्वेषक, वैज्ञानिक, ज्योतिषी, मार्गदर्शक, वकील, इतिहासकार, चिकित्सक, धर्मोपदेशक आदि के रूप में प्रतिष्ठित कराता है। ऐसे जातक में वाद-विवाद करने का विशेष चातुर्य होता है व व्यक्तित्व विशेष आकर्षक होता है। इनके बहुत से मित्र होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में निश्चित रूप से प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। ऐसा ग्रह योग स्वतंत्र व्यवसाय या रोजगार की प्राप्ति करवाता है। शनि मकर या कुंभ राशि में हो तो जातक को सेवा, यात्रा, जन आंदोलन, विक्रय कार्य अथवा लायजनिंग संबंधी कार्यों से लाभ होता है। शनि विदेशी भाषा का कारक है इसलिए विद्या व भाषा पर अधिकार देने वाले ग्रहों जैसे शुक्र, गुरु, बुध व केतु से इसका शुभ संबंध और स्थिति जातक को अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं का विद्वान बनाती है। शनि के ऊपर, गुरु, बुध, केतु इन सभी का प्रभाव पड़े तो मशहूर वकील बने। शनि पर केवल राहु का प्रभाव हो तो जातक छोटी नौकरी से गुजर बसर करता है परंतु यदि राहु के साथ-साथ गुरु, शुक्र का भी प्रभाव हो तो प्रारंभ में नौकरी करने के पश्चात् जातक धीरे-धीरे अपने आप को स्वतंत्र व्यवसाय में भी स्थापित कर लेता है।
जन्म दशा से जुड़ा पंचम, नवम व द्वादश भावों का संबंध
हिंदू ज्योतिष कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत पर आधारित है। यह तथ्य प्रायः सभी ज्योतिषी तथा ज्ञानीजन अच्छी तरह से जानते हैं। मनुष्य जन्म लेते ही पूर्व जन्म के परिणामों को भोगने लगता है। जैसे फल फूल बिना किसी प्रेरणा के अपने आप बढ़ते हैं उसी तरह पूर्वजन्म के हमारे कर्मफल हमें मिलते रहते हैं। हर मनुष्य का जीवन पूर्वजन्म के कर्मों के भोग की कहानी है, इनसे कोई भी बच नहीं सकता। जन्म लेते ही हमारे कर्म हमें उसी तरह से ढूंढने लगते हैं, जैसे बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूढ़ निकालता है। पिछले कर्म किस तरह से हमारी जन्मकालीन दशाओं से जुड़ जाते हैं, यह किसी भी व्यक्ति की कुंडली में आसानी से देखा जा सकता है। कुंडली के प्रथम, पंचम और नवम भाव हमारे पूर्वजन्म, वर्तमान तथा भविष्य के सूचक हैं। इसलिए जन्म के समय हमें मिलने वाली महादशा/ अंतर्दशा/ प्रत्यंतर्दशा का संबंध इन तीन भावों में से किसी एक या दो के साथ अवश्य जुड़ा होता है। यह भावों का संबंध जन्म दशा के किसी भी रूप से होता है - चाहे वह महादशा हो या अंतर्दशा हो अथवा प्रत्यंतर्दशा। दशा तथा भावों के संबंध के इस रहस्य को जानने की कोशिश करते हैं पंचम भाव से। पंचम भाव, पूर्व जन्म को दर्शाता है। यही भाव हमारे धर्म, विद्या, बुद्धि तथा ब्रह्म ज्ञान का भी है। नवम भाव, पंचम से पंचम है अतः यह भी पूर्व जन्म का धर्म स्थान और इस जन्म में हमारा भाग्य स्थान है। इस तरह से पिछले जन्म का धर्म तथा इस जन्म का भाग्य दोनों गहरे रूप से नवम भाव से जुड़ जाते हैं। यही भाव हमें आत्मा के विकास तथा अगले जन्म की तैयारी को भी दर्शाता है। जिस कुंडली में लग्न, पंचम तथा नवम भाव अच्छे अर्थात मजबूत होते हैं वह अच्छी होती है क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के अनुसार ”धर्म की सदा विजय होती है“। द्वादश भाव हमारी कुंडली का व्यय भाव है। अतः यह लग्न का भी व्यय है। यही मोक्ष स्थान है। यही भाव पंचम से अष्टम होने के कारण पूर्वजन्म का मृत्यु भाव भी है। मरणोपरांत गति का विचार भी फलदीपिका के अनुसार इसी भाव से किया जाता है। दशाओं के रूप में कालचक्र निर्बाध गति से चलता रहता है। ”पद्मपुराण“ के अनुसार ”जो भी कर्म मानव ने अपने पिछले जन्मों में किए होते हैं उसका परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा“। कोई भी ग्रह कभी खराब नहीं होता, ये हमारे पूर्व जन्म के बुरे कर्म होते हैं जिनका दंड हमें उस ग्रह की स्थिति, युति या दशा के अनुसार मिलता है। इसलिए हमारे सभी धर्मों ने जन्म मरण के जंजाल से मुक्ति की कामना की है। जन्म के समय पंचम, नवम और द्वादश भावों की दशाओं का मिलना निश्चित होता है।
गत्यात्मक दशा पद्धति
इसमें प्रत्येक ग्रह के प्रभाव को अलग-अलग 12 वर्षाें के लिए निर्धारित किया गया है। साथ ही ग्रहों की शक्ति निर्धारण के लिए स्थान बल, दिक् बल, काल बल, नैसर्गिक बल, दृक बल, अष्टक वर्ग बल से भिन्न ग्रहों की गतिज और स्थैतिज ऊर्जा को स्थान दिया गया हैं। भचक्र के 30 प्रतिशत तक के विभाजन को यथेष्ट समझा गया है तथा उससे अधिक विभाजन की आवश्यकता नहीं समझी गयी है। लग्न को सबसे महत्वपूर्ण राशि समझते हुए इसे सभी प्रकार की भविष्यवाणियों का आधार माना गया है। चंद्रमा मन का प्रतीक ग्रह है। जन्म से 12 वर्ष की उम्र तक बालक अपने मन के अनुसार ही कार्य करना पसंद करते हैं। इसलिए इस अवधि को चंद्रमा का दशा काल माना गया है, चाहे उनका जन्म किसी भी नक्षत्र में क्यों न हुआ हो। चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति के निर्धारण के लिए इसकी सूर्य से कोणिक दूरी पर ध्यान देना आवश्यक होगा। यदि चंद्रमा की स्थिति सूर्य से 00 की दूरी पर हो, तो चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत, यदि 900, या 2700 दूरी पर हो, तो चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत और यदि 1800 की दूरी पर हो, तो चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती है। चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका चंद्रमा स्वामी है तथा जहां उसकी स्थिति है, के कारण जातक के बाल मन के मनोवैज्ञानिक विकास में बाधाएं उपस्थित होती हंै। यदि चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत हो, तो उन भावों की अत्यधिक स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका चंद्रमा स्वामी है तथा जहां उसकी स्थिति है, के कारण बचपन में जातक का मनोवैज्ञानिक विकास संतुलित ढंग से होता है। यदि चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत हो, तो उन भावों की अति सहज, सुखद एवं आरामदायक स्थिति, जिनका चंद्रमा स्वामी है तथा जहां उसकी स्थिति है, के कारण बचपन में जातक का मनोवैज्ञानिक विकास काफी अच्छा होता है। 5वें-6ठे वर्ष में चंद्रमा का प्रभाव सर्वाधिक दिखायी पड़ता है। बुध विद्या, बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक ग्रह है। 12 वर्ष से 24 वर्ष की उम्र विद्याध्ययन की होती है, चाहे वह किसी भी प्रकार की हो। इसलिए इस अवधि को बुध का दशा काल माना गया है। बुध की गत्यात्मक शक्ति के निर्धारण के लिए इसकी सूर्य से कोणिक दूरी के साथ इसकी गति पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है। यदि बुध सूर्य से 00 की दूरी पर स्थित हो और इसकी गति वक्र हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत होती है। यदि बुध सूर्य से 260-270 के आसपास स्थित हो तथा बुध की गति 10 प्रतिदिन की हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत होती है। यदि बुध सूर्य से 00 की दूरी पर स्थित हो और बुध की गति 20 प्रतिदिन के आसपास हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती है। बुध की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक विद्यार्थी जीवन में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि बुध की शक्ति 0 प्रतिशत हो, तो उन संदर्भोंे की कमजोरियों, जिनका बुध स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक के मानसिक विकास में बाधाएं आती हैं। यदि बुध की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका बुध स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक का मानसिक विकास उच्च कोटि का होता है। यदि बुध की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की आरामदायक स्थिति, जिनका बुध स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक का मानसिक विकास सहज ढंग से होता है। 17वें-18वें वर्ष में यह प्रभाव सर्वाधिक दिखायी पड़ता है। मंगल शक्ति एवं साहस का प्रतीक ग्रह है। युवावस्था, यानी 24 वर्ष से 36 वर्ष की उम्र तक जातक अपनी शक्ति का सर्वाधिक उपयोग करते हैं। इस दृष्टि से इस अवधि को मंगल का दशा काल माना गया है। मंगल की गत्यात्मक शक्ति का आकलन भी सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के आधार पर किया जाता है। यदि मंगल सूर्य से 1800 की दूरी पर स्थित हो, तो मंगल की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत, यदि 900 की दूरी पर स्थित हो, तो मंगल की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत, यदि 00 की दूरी पर स्थित हो, तो मंगल की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होगी। मंगल की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपनी युवावस्था में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि मंगल की शक्ति 0 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका मंगल स्वामी है और जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक के उत्साह में कमी आती है। यदि मंगल की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की अत्यधिक स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका मंगल स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण उनका उत्साह उच्च कोटि का होता है। यदि मंगल की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की सुखद एवं आरामदायक स्थिति, जिनका मंगल स्वामी है और जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक की परिस्थितियां सहज होती हैं। 29वें-30वें वर्ष में यह प्रभाव सर्वाधिक दिखायी पड़ता है। शुक्र चतुराई का प्रतीक ग्रह है। 36 वर्ष से 48 वर्ष की उम्र के प्रौढ़ अपने कार्यक्रमों को युक्तिपूर्ण ढंग से अंजाम देते हैं। इसलिए इस अवधि को शुक्र का दशा काल माना गया है। शुक्र की गत्यात्मक शक्ति के आकलन के लिए, सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के साथ-साथ, इसकी गति पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है। यदि शुक्र सूर्य से 00 की दूरी पर हो और इसकी गति वक्र हो, तो शुक्र की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत होती है। यदि शुक्र सूर्य से 450 की दूरी के आसपास स्थित हो और इसकी गति प्रतिदिन 10 की हो, तो शुक्र की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत होती है। यदि शुक्र की सूर्य से दूरी 00 हो और इसकी गति प्रतिदिन 10 से अधिक हो, तो शुक्र की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती है। शुक्र की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपनी प्रौढ़ावस्था पूर्व का समय व्यतीत करते हैं। यदि शुक्र की शक्ति 00 हो, तो उन संदर्भों की कमजोरियों, जिनका शुक्र स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक अपनी जिम्मेदारियों का पालन करने में कठिनाई प्राप्त करते हैं। यदि शुक्र की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन संदर्भोें की मजबूत एवं स्तरीय स्थिति, जिनका शुक्र स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक अपनी जिम्मेदारियों का पालन काफी सहज ढंग से कर पाते हैं। 41वें-42वें वर्ष में यह प्रभाव सर्वाधिक दिखायी पड़ता है। ज्योतिष की प्राचीन पुस्तकों में मंगल को राजकुमार तथा सूर्य को राजा माना गया है। मंगल के दशा काल 24 से 36 वर्ष में पिता बनने की उम्र 24 वर्ष को जोड़ दिया जाए, तो यह 48 वर्ष से 60 वर्ष हो जाता है। इसलिए इस अवधि को सूर्य का दशा काल माना गया है। एक राजा की तरह ही जनसामान्य को सूर्य के इस दशा काल में अधिकाधिक कार्य संपन्न करने होते हैं। सभी ग्रहों को ऊर्जा प्रदान करने वाले अधिकतम ऊर्जा के स्रोत सूर्य को हमेशा ही 50 प्रतिशत गत्यात्मक शक्ति प्राप्त होती है। इसलिए इस समय उन भावों की स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका सूर्य स्वामी है तथा जिसमें उसी स्थिति है, के कारण उनकी बची जिम्मेदारियोें का पालन उच्च कोटि का होता है। बृहस्पति धर्म का प्रतीक ग्रह है। 60 वर्ष से 72 वर्ष की उम्र के वृद्ध, हर प्रकार की जिम्मेदारियों निर्वाह कर, धार्मिक जीवन जीना पसंद करते हैं। इसलिए इस अवधि को बृहस्पति का दशा काल माना गया है। बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति का आकलन भी सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के आधार पर किया जाता है। यदि बृहस्पति सूर्य से 1800 की दूरी पर स्थित हो, तो बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत, 900 की दूरी पर स्थित हो, तो बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत तथा यदि 00 की दूरी पर स्थित हो, तो बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होगी। बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपने वृद्ध जीवन में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि बृहस्पति की शक्ति 0 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका बृहस्पति स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण उनका जीवन निराशाजनक बना रहता है। यदि बृहस्पति की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की मजबूत एवं स्तरीय स्थिति, जिनका बृहस्पति स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण अवकाश प्राप्ति के बाद का जीवन उच्च कोटि का होता है। यदि बृहस्पति की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की आरामदायक स्थिति, जिनका बृहस्पति स्वामी है और जिसमें इसकी स्थिति है, के कारण जातक की परिस्थितियां वृद्धावस्था में काफी सुखद होती हैं। प्राचीन ज्योतिष के कथनानुसार ही शनि को, अतिवृद्ध ग्रह मानते हुए, जातक के 72 वर्ष से 84 वर्ष की उम्र तक का दशा काल इसके आधिपत्य में दिया गया है। शनि की गत्यात्मक शक्ति का आकलन भी सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के आधार पर ही किया जाता है। यदि शनि सूर्य से 1800 की दूरी पर हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत होती है। यदि शनि सूर्य से 900 की दूरी पर स्थित हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत होती है। यदि शनि सूर्य से 00 की दूरी पर स्थित हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती है। शनि की शक्ति के अनुसार ही जातक अति वृद्धावस्था में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि शनि की शक्ति 0 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका शनि स्वामी है, या जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण अति वृद्धावस्था का उनका समय काफी निराशाजनक होता है। यदि शनि की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की अत्यधिक मजबूत एवं स्तरीय स्थिति, जिनका शनि स्वामी है, या जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण उनका यह समय उच्च कोटि का होता है। यदि शनि की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की अति सुखद एवं आरामदायक स्थिति, जिनका शनि स्वामी हो, या जिसमें उसकी स्थिति हो, के कारण, वृद्धावस्था के बावजूद, उनका समय काफी सुखद होता है। इसी प्रकार जातक का उत्तर वृद्धावस्था का 84 वर्ष से 96 वर्ष तक का समय यूरेनस, 96 से 108 वर्ष तक का समय नेप्च्यून तथा 108 से 120 वर्ष तक का समय प्लूटो के द्वारा संचालित होता है। यूरेनस, नेप्च्यून एवं प्लूटो की गत्यात्मक शक्ति का निर्धारण भी, मंगल, बृहस्पति और शनि की तरह ही, सूर्य से इसकी कोणात्मक दूरी के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार इस दशा पद्धति में सभी ग्रहों की एक खास अवधि में एक निश्चित भूमिका होती है। विंशोत्तरी दशा पद्धति की तरह एक मात्र चंद्रमा का नक्षत्र ही सभी ग्रहों को संचालित नहीं करता है। इस पद्धति के जन्मदाता श्री विद्या सागर महथाजी पेटखार, बोकारो निवासी हैं, जिन्होंने इस पद्धति की नींव जुलाई 1975 में रखी। ग्रहों की गत्यात्मक शक्ति के रहस्य की खोज 1981 में हुई। इस दशा पद्धति का संपूर्ण गत्यात्मक विकास 1987 जुलाई तक होता रहा। 1987 जुलाई के पश्चात अब तक हजारों कुंडलियों में इस दशा पद्धति की प्रायोगिक जांच हुई और सभी जगहों पर सफलता ही मिली। आज गत्यात्मक दशा पद्धति किसी भी कुंडली को ग्रहों की शक्ति के अनुसार लेखाचित्र में अनायास रूपांतरित कर सकती है। ‘गत्यात्मक दशा पद्धति’ की जानकारी के पश्चात् किसी भी व्यक्ति के जीवन की सफलता-असफलता, सुख-दुख, महत्वाकांक्षा, कार्यक्षमता एवं स्तर को लेखाचित्र में ईस्वी के साथ अंकित किया जा सकता है। जीवन में अकस्मात् उत्थान एवं गंभीर पतन को भी ग्राफ से निकाला जा सकता है। सभी ग्रह, अपनी अवस्था विशेष में कुंडली में प्राप्त बल और स्थिति के अनुसार, अपने कार्य का संपादन करते हैं। लेकिन इन 12 वर्षों में भी समय-समय पर उतार-चढ़ाव आना तथा छोटे-छोटे अंतरालों के बारे में जानकारी इस पद्धति से संभव नहीं है। 12 वर्ष के अंतर्गत होने वाले उलट-फेर का निर्णय ‘लग्न सापेक्ष गत्यात्मक गोचर प्रणाली’ से करें, तो दशा काल से संबंधित सारी कठिनाइयां समाप्त हो जाएंगी। इन दोनों सिद्धांतों का उपयोग होने से ज्योतिष विज्ञान दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति के पथ पर होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।
ज्योतिष के आधार पर इच्हित संतान कैसे ????
ज्योतिष सिद्धांत से जन्मपत्रिका में उपलब्ध ग्रहों, नक्षत्रों एवं गोचर ग्रह व दशांतर का गहन अध्ययन कर निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। ज्योतिष सिद्धांत के कुछ नियम जिनसे इच्छित संतान प्राप्ति में मदद मिल सकती है। संसार के प्रत्येक पति-पत्नी की यही भावना होती है कि मेरी संतान ऐसे समय पर जन्म लेवे जो संस्कारित हो, उच्च शिक्षित हो, निरोगी काया हो, वैभवशाली बने, परिवार, समाज व घर का कुलदीपक बने, राजनैतिक व सामाजिक क्षेत्र में अपनी अहम भूमिका रहे, जैसे गुणों से परिपूर्ण हो। साथ ही इच्छित संतान के बारे में पति-पत्नी के अलावा भारतीयों में प्रथम लड़का होने की भी इच्छा रहती है ताकि उनका वंश आगे बढ़ सके। इन्हीं सभी प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए ज्योतिष सिद्धांत में बताए गए नियमों का पालन करने पर कुछ हद तक अपनी इच्छित कामनाओं के अनुसार ऐसी संतान को जन्म देने में सफलता प्राप्त की जा सकती है। वैसे तो यही प्रधानता रही है कि विधाता ने अपने हाथों में जन्म-मरण, परण (विवाह), लाभ, हानि को रखा है फिर भी ज्योतिष सिद्धांत से जन्मपत्रिका में उपलब्ध ग्रहों, नक्षत्रों एवं गोचर ग्रह व दशांतर का गहन अध्ययन कर निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। आइए जानते हैं ज्योतिष सिद्धांत के कुछ नियम जिनसे इच्छित संतान प्राप्ति में मदद मिल सकती है। सर्वप्रथम पति-पत्नी के जन्मकालीन ग्रहों में चंद्र व सूर्य बल को देखें कि जिस समय वे रति क्रिया में प्रवेश करेंगे उस समय गोचर में दोनों ग्रहों की क्या स्थिति है। क्योंकि चंद्रमा से मन व सूर्य से आत्मा की स्थिति जानी जायेगी कि उस वक्त यदि चंद्रमा या सूर्य निर्बल होंगे तो दोनों आत्माओं का मिलन वास्तविकता से दूर रहेगा। यदि दोनों ग्रह बलवान होंगे तो पूर्णता की ओर अग्रसर होकर आनंद की प्राप्ति होगी। सोलह संस्कार में से गर्भाधान संस्कार के अनुसार रिक्ता, षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, गंडमूल नक्षत्रों को छोड़कर ऋतुकाल की चार रात्रियों को त्यागकर विषम व सम दिनों के साथ ही शुक्ल पक्ष को ध्यान में रखकर रतिक्रिया करने पर भी इच्छित संतान के साथ ही पुत्र या पुत्री प्राप्त की जा सकती है। इच्छित संतान प्राप्ति के लिए गर्भधारण के समय से लेकर संतान जन्म लेने तक नौ माह ग्यारह दिनों में गोचर ग्रहों व दशांतर की स्थिति को देखते हुए ग्रहों की शांति व लाभ लेने हेतु संबंधित रंग व रत्न धारण करवाना भी एक ज्योतिषी के लिए आवश्यक होता है। गर्भधारण करते समय मंगल-शनि व शुक्र ग्रहों की स्थिति भी कुंडली में देखना आवश्यक है क्योंकि मंगल व शुक्र से वीर्य एवं शनि से स्पर्शता आती है जिसके कारण गर्भधारण करने में सुगमता होती है। गर्भाधान काल से लेकर बच्चे के जन्म के समय तक के बारे में कहावत है जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन और जैसा पियोगे पानी वैसी होगी वाणी, जैसा देखोगे वैसी होगी संतान अर्थात यदि अच्छा भोजन होगा तो विचार अच्छे होंगे अच्छा सोचेंगे व बोलेंगे तथा अच्छा व्यवहार रहेगा जिससे आने वाली संतान में भी वैसे ही गुण दिखेंगे। जन्मकाल के समय लग्न, पंचम, सप्तम, नवम, दशम भाव के स्वामी की स्थिति एवं उनकी दृष्टियां, नक्षत्र के स्वामी व उनकी लग्न व नवांश, दशमांश कुंडलियों में शुभ स्थितियां इच्छित संतान प्राप्ति में सहयोगी बन सकते हैं अन्यथा पापी ग्रहों की युति व दृष्टियां इच्छित संतान प्राप्ति में बाधक बन सकती है इनका भी विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।संतान जन्म लेते समय गुरु की लग्न में उपस्थिति हो ताकि पंचम, सप्तम व नवम भाव पर शुभ दृष्टि होने पर ग्रह के नैसर्गिक गुण का लाभ लेकर संतान शिक्षित, धार्मिक, संस्कारित बनने में मदद हो। संतान का जन्म ऐसे समय हो जब गंडमूल नक्षत्र गोचर में नहीं रहे जिससे संतान को अपनी सफलता में कम कठिनाई आए। संतान का जन्म ऐसे समय पर हो जब पत्रिका में मांगलिक न हो क्योंकि ऐसी धारणा है कि मांगलिक जातकों के कार्यों में भी अड़चन ज्यादा आती है किंतु अनेक पत्रिकाओं में ऐसा देखा गया है कि मांगलिक जातक अपने क्षेत्र में सफलता जरूर पाता है। संतान का जन्म ऐसे समय हो जब लग्न का स्वामी अपने से षष्टम, अष्टम, द्वादश में नहीं रहे साथ ही लग्न कुंडली में ग्रह उच्च का हो और नवांश में नीच का हो तो भी संतान को अपने क्षेत्र में उन्नति कम मिलती है। ज्ञानवान हेतु गुरु, धनवान हेतु शुक्र व मंगल तथा विदेश यात्रा के लिए शनि ग्रहों की दृष्टियां, भाव में उपस्थिति भी इच्छित संतान प्राप्ति में सहायक व अवरोध बन सकती है। साधारण प्रसव की तुलना में शल्य क्रिया द्वारा संतान होने पर एक निश्चित लग्न व ग्रहों की स्थिति को ध्यान में रखकर अपने समयानुसार इच्छित संतान प्राप्त की जा सकती है। इसके साथ ही संतान को डाॅक्टर बनाने के लिए शनि, बुध, मंगल ग्रहों इंजीनियर बनाने के लिए मंगल, बुध, गुरु, शुक्र तथा शनि की भाव स्थिति व दृष्टि तथा प्रोफेसर के लिए गुरु, बुध की प्रधानता, सरकारी नौकरी के लिए सूर्य, बुध व मंगल की स्थिति, राजनेता बनने के लिए राहु, केतु, मंगल, शनि के साथ ही शुक्र बल को देखकर ही उचित समय पर गर्भ धारण करवाने एवं सही समय पर संतान जन्म लेने पर इच्छित संतान प्राप्ति के योग ज्योतिष सिद्धांत का पूर्णतया पालन करने पर बन सकते हैं।
गंड अरिष्टादि
आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका ये छह नक्षत्र ‘मूल संज्ञक’ नक्षत्र कहलाते हैं। 27 नक्षत्र को तीन भागों में बांटने पर 9 नक्षत्रों का एक भाग प्राप्त होता है जिनमें प्रत्येक नक्षत्र 9 ग्रहों से प्रत्येक का अधिपत्य रखता है। मेष, सिंह, धनु राशि का प्रारंभ केतु के नक्षत्रों से होता है। कर्क, वृश्चिक, मीन का अंत बुध के नक्षत्रों में होता है। कर्क का समाप्ति, सिंह का प्रारंभ काल, वृश्चिक का समाप्ति काल, धनु का प्रारंभ काल तथा मीन का अंत, मेष का प्रारंभ काल का जोड़ गंड कहलाता है। अर्थात जिस समय राशि तथा नक्षत्र का एक साथ अंत होता है वह समय गंड कहलाता है। आश्लेषा का अंत और मघा के प्रारंभ का काल रात्रि गंड कहलाता है। ज्येष्ठा का अंत मूल का प्रारंभ दिवा गंड कहलाता है। रेवती की समाप्ति व अश्विनी का प्रारंभ संध्या गंड कहलाता है। ज्योतिष मर्मज्ञों ने ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र में पैदा हुए जातकों के बारे में यहां तक लिखा है कि इन नक्षत्रों के किसी भी अंश में उत्पन्न हुए जातक अनिष्ट करते हैं। ज्येष्ठा का अंतिम 1 घटी (2) घंटा) मूल का प्रारंभ 2 घटी (5 घंटा) तो इतना बुरा माना गया है कि ऐसे जन्म के उपरांत नौ वर्ष बाद ही पिता पुत्र का मुख देखे। अश्विनी का गंड दोष होने पर 16 वर्ष, मघा का 8 वर्ष, मूल का 4 वर्ष, आश्लेषा का 2 वर्ष, ज्येष्ठा का 1 वर्ष, रेवती का 1 वर्ष पर्यंत अनिष्ट का भय रहता है। यदि प्रातःकाल अथवा संध्या के समय जन्म हो और संध्या गंड दोष हो तो उस बालक को अरिष्ट होता है। रात्रि काल में जन्म होने से रात्रि गंड दोष से जातक की माता को अरिष्ट होता है। दिवा गंड में दिन में जन्म होने से पिता को अरिष्ट होता है। दिन में जन्म होने से रात्रि गंड और रात्रि में जन्म होने से दिवा गंड अरिष्टकारी नहीं होता है। दिवा गंड में कन्या का और रात्रि गंड में पुरुष का जन्म होने से गंड दोष नहीं लगता है। वैशाख, श्रवण और फाल्गुन में गंड दोष आकाश वासियों को लगता है। आषाढ़, पौष, मार्गशीर्ष और ज्येष्ठ में गंड दोष मनुष्य को तथा चैत्र, भाद्रपद अश्विन और कार्तिक में गंड दोष पाताल वासियों को लगता है। माघ में गंड दोष मृत्युकारक है। यदि आषाढ़, पौष, मार्गशीर्ष, ज्येष्ठ और माघ में गंड दोष हो तो जातक को गंड दोष होता है अर्थात शेष के मासों में गंड दोष का प्रभाव नहीं होता। चित्रा नक्षत्र में प्रारंभ में दो चरण ही कन्या राशि है, पुष्य के चारों चरण जो कर्क राशि है और पूर्वाषाढ़ के चारों चरण जो धनु राशि है, इनमें जन्म होने से क्रमशः माता-पिता तथा मामा के लिए अनिष्टकारी होता है। हस्त नक्षत्र व मघा के तीसरे चरण में माता-पिता के लिए कष्टकारी होता है। तीनांे उत्तरा नक्षत्रों का प्रथम चरण जातक स्वयं के लिए कष्टकारी होता है। चित्रा, विशाखा और हस्त नक्षत्रों में जन्म होने से माता पिता के लिए कष्टकारी होता है। मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में पिता, द्वितीय में माता, तृतीय में जन्म होने से पूरे परिवार के लिए कष्टकारी होता है, परंतु चतुर्थ चरण में जन्म हो तो उन्नति प्रदान करता है। आश्लेषा का प्रथम चरण सुखदायी है, द्वितीय चरण परिवार को, तृतीय माता को, चतुर्थ चरण पिता को कष्टकारी होता है। इन सभी अशुभ फलों का नाश लग्न में किसी बली ग्रह के विराजमान से हो जाता है। जिस नक्षत्र में जातक का जन्म हो वह जन्म नक्षत्र कहलाता है। उस नक्षत्र से दसवां नक्षत्र कर्मक्र्ष कहलाता है। जन्म नक्षत्र से 16वां नक्षत्र संघातिका, 18वां समुदाय, 19वां आघान, 23वां वैनाशिक, 25वां जाति, 26वां देश, 27वां अभिषेक कहलाता है। यदि जन्म समय इन नक्षत्रों पर पाप ग्रह स्थित हो तो जातक की मृत्यु तक हो सकती है। परंतु शुभ ग्रह का होना शुभ फलदायी होता है।
पर्व-त्योहारों की तारीखों में मतांतर क्यों?
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की गरिमा के प्रतीक पर्व-त्यौहारों के संबंध में कई बार मतांतर हो जाने से पर्व-त्यौहारों की तिथियों एवं तारीखों के बारे में भ्रांतियां उत्पन्न हो जाती हैं। फलस्वरूप, धर्म परायण लोगों के मन में कई प्रकार की शंकाएं पैदा होने लगती हैं, जिससे उनकी श्रद्धा एवं आस्था को भी ठेस पहुंचती है। अधिसंख्य लोगों को पर्व-त्योहारों एवं छुट्टियां संबंधी जानकारी अलग-अलग प्रांतों से छपने वाले जंत्री/पंचांगों, समाचारपत्र, पत्रिका, कैलेंडर, डायरियां, तिथिपत्र, रेडियो, टेलीविजन आदि संचार साधनों द्वारा प्राप्त होती है। केंद्रीय एवं प्रांतीय सरकारों द्वारा उद्घोषित पर्व-त्योहारों एवं सरकारी छुट्टियों की घोषणा राष्ट्रीय कैलेंडर समिति द्वारा, प्रस्तावित सूची के अनुसार, की जाती है। इनमें राष्ट्रीय स्तर के पर्व, जैसे 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्तूबर आदि छुट्टियों की तारीखों के संबंध में तो कोई मतभेद नहीं होता है, परंतु हिंदुओं के धार्मिक पर्व-त्योहारों की तारीखों के संबंध में कई बार मतांतर की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। पर्व-त्योहारों की तारीखों में भिन्नता के कुछ कारण उल्लेखनीय हैं: 1. देश में छपने वाली विभिन्न जंत्री/पंचांगों की तिथ्यादि पंचांग गणित में अंतर। 2. पर्व-त्योहारों के संबंध में कतिपय कैलेंडरों, पत्रिकाओं आदि में छपने वाली अपुष्ट जानकारी। 3. प्राचीन आचार्यों के वचनों में एकरूपता का अभाव। 4. विभिन्न प्रांतों के सूर्योदय, चंद्रोदय, अस्तादि में अंतर। 5. कुछ धार्मिक संप्रदायों में मतांतर होना। 6. सरकारी तंत्र का प्रभाव। प्रस्तुत लेख में मैं प्रथम कारण का ही विशेष रूप से विवेचन करना चाहूंगा। अन्य 5 कारण तो प्रत्यक्षतः तथ्याधारित हैं। तिथ्यादि पंचांग गणित में अंतर: देश में छपने वाली विभिन्न प्रकार के पंचांग/जंत्रियों, कैलेंडरो/डायरियों इत्यादि में तिथ्यादि के मान में कई बार भारी अंतर पाया जाता है। विशेष कर अप्रामाणिक एवं अस्तरीय पंचांग गणित को आधार मान कर छपने वाली जंत्रियों, पंचांगों, डायरियों अथवा कैलंडरों में तिथि/नक्षत्रों एवं पर्व-त्योहारों संबंधी तिथियों में भारी विसंगतियां एवं अशुद्धियां पायी जाती हंै। उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारतवर्ष में आजकल प्रतिवर्ष लगभग 150 पंचांग/जंत्रियां छप रहे हैं। तिथि-कैलेंडरों की संख्या तो इससे भी अधिक ही होगी। इनमें अधिकांश आधुनिक पंचांगकर्ता चित्रा पक्षीय दृक् गणिताधारित निरयण पंचांग की गणना अनुसार पंचांग गणित करते हैं। यह गणित, शास्त्र अनुमोदित होने के साथ-साथ, प्रत्यक्षतः दृश्य होने से विज्ञान सम्मत भी है। आधुनिक सूक्ष्म संस्कारों पर आधारित कंप्यूटर प्रक्रिया द्वारा तैयार किये जाने वाले पंचांगों के तिथि, नक्षत्र, योग, ग्रह का राशि संचार,, भोगांश, सूर्य-चंद्रोदयास्तादि तथा कंप्यूटरीकृत विस्तृत जन्मपत्री की रचना भी भारतीय दृग्गणित पद्धति द्वारा ही की जाती है। यह अत्यंत खेद का विषय है कि देश के कुछ पंचांगकार प्राचीनता के मोहवश अवैज्ञानिक एवं अशुद्ध पंचांग गणित का आश्रय ले रहे हैं। उनके इस कृत्य से पर्व-त्योहारों की तारीखों में प्रतिवर्ष कहीं न कहीं भेद उत्पन्न हो जाता है, जिससे सामान्य लोगों में भ्रांतियां पैदा होती हैं। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: आज से लगभग 90 वर्ष, पूर्व भारतवर्ष में अधिसंख्य पंचांगकर्ता पौराणिक सिद्धांत ग्रंथों में प्रतिपादित सूत्रों के अनुसार तिथ्यादि, पंचांग गणित का कष्ट साध्य कार्य करते थे। विभिन्न स्थानीय पंचांगों के तिथ्यादि मान में भी अंतर रहते थे। परंतु 19वीं शताब्दी में नाभिकीय विज्ञान एवं गणितीय क्षेत्रों में, उत्तरोतर उन्नति के साथ-साथ, सूर्यादि ग्रहों की गत्यादि के संबंध में भी अनेक संशोधनात्मक प्रयास हुए हैं। उदाहरणस्वरूप सूर्य सिद्धांत द्वारा प्रतिपादित वर्षमान तथा आधुनिक वेधसिद्ध अनुसंधान द्वारा प्रमाणित वर्षमान में 8 पलों एवं 37 विपलों, अर्थात् लगभग 3) मिनटों का अंतर प्रतिवर्ष रहता है, जिस कारण प्राचीन सूर्य सिद्धांतीय वर्ष प्रवेश सारिणी तथा आधुनिक वेधसिद्ध सूक्ष्म सारिणी द्वारा वर्ष लग्नों में अंतर आ जाना स्वाभाविक ही है। आधुनिक कंप्यूटरों द्वारा निर्मित वर्ष कुंडलियां भी नवीन वेधसिद्ध संशोधित सिद्धांत की परिपुष्टि करती हैं। मानवकृत ज्ञान प्रशाखा के प्रत्येक क्षेत्र में, युग एवं परिस्थितियों के अनुसार, सुधार एवं यथोचित संस्कारों की संभावना रहती है। गणित ज्योतिष के क्षेत्र में भी समय के भेद एवं काल गति के भेद से ग्रहों के गणित में थोड़ा-थोड़ा अंतर पड़ता जाता है। इस संबंध में भारतीय गणिताचार्य एवं विद्वानों ने भी पंचांग गणित की प्रक्रिया में वेधसिद्ध दृक्तुल्य संशोधन कर के भारतीय पंचांग पद्धति को वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया है
अष्टकवर्ग दशा और शनि का गोचर
जहां एक ओर साधारण जन-मानस शनि की साढ़े-साती व ढैय्या (कंटक शनि) को लेकर भयभीत रहता है, वहीं एक विद्वान व अनुभवी ज्योतिषी यह जानता है कि गोचर फल अध्ययन के लिए जातक की कुंडली को अनेक कसौटियों पर परखना पड़ता है। मात्र शनि के जन्मकालीन चंद्रमा, उससे 2 या 12 भावों पर 4 अथवा 8वें भाव पर गोचरस्थ होने से भयभीत होने का कोई कारण नहीं। गोचर का सूक्ष्मता से अध्ययन करने हेतु महर्षि पराशर द्वारा बताई अष्टकवर्ग की विधि का प्रयोग एक अनुभवी ज्योतिषी करना कभी नहीं भूलता। अष्टकवर्ग पद्धति में ग्रह की गोचर में स्थिति न केवल जन्मकालीन चंद्रमा तथा जन्म लग्न से संबंध रखते हैं, अपितु प्रत्येक ग्रह की स्थिति जन्मकालीन सूर्य, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि से विभिन्न भावों में देखी जाती है। इनमें राहु-केतु जो कि छाया ग्रह है, को सम्मिलित नहीं किया जाता। महर्षि पराशर कृत बृहत पाराशर होरा शास्त्र में राहु-केतु के अष्टकवर्ग बनाने का कोई उल्लेख नहीं है। राहु-केतु का गोचर यद्यपि भृगु (नाड़ी) में बहुत महत्वपूर्ण है, परंतु शास्त्रीय ग्रंथों के अनुसार अष्टकवर्ग में इनका कोई स्थान नहीं। अष्टकवर्ग पद्धति में प्रत्येक ग्रह को लग्न तथा अन्य सभी ग्रहों से उसकी विभिन्न भावों में जन्मकालीन स्थिति के अनुसार विभिन्न राशियों में 0 (शून्य) अथवा 1 (एक) अंक प्राप्त होता है। इसी के आधार पर प्रत्येक ग्रह का भिन्नाष्टक वर्ग बनाया जाता है। तत्पश्चात् सभी सातों ग्रहों के भिन्नाष्टक वर्ग के आधार पर सर्वाष्टक वर्ग की गणना की जाती है। सर्वाष्टक वर्ग के आधार पर त्रिकोण शोधन तथा एकाधिपति शोधन के पश्चात शोध्य पिंड की गणना की जाती है। इसके बाद शुभ-अशुभ फल देने वाले नक्षत्रों की गणना की जाती है, जिसपर सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों के गोचर के परिणाम स्वरूप जातक को विभिन्न ग्रहों के कारक तत्व अनुसार फलों को भोगना पड़ता है। सामान्यतः सर्वाष्टक वर्ग में जिस राशि को 18 से कम अंक प्राप्त हांे वह राशि निर्बल मानी जाती है, 25 अंक पर मध्यम, 30 या उससे अधिक अंक पर शुभ। शनि तथा अन्य ग्रहों के गोचर में संबंधित फलादेश में सर्वाष्टक वर्ग तथा उनके अपने भिन्नाष्टक वर्ग में अच्छे बिंदु होने पर शुभ कम बिंदु होने पर अशुभ फल कहे गये हैं। ग्रहों के भिन्नाष्टक में 4 से कम बिंदु किसी राशि में होना अशुभ माना गया है तथा 4 या उससे अधिक बिंदु शुभ माने जाते हैं। परंतु इन सामान्य नियमों के कुछ अपवाद भी हैं। जैसे 6, 8 अथवा 12 भावों में सर्वाष्टक वर्ग तथा ग्रहों के भिन्नाष्टक वर्ग में कम बिंदु होना अच्छा माना जाता है। साथ ही यदि विंशोत्तरी दशा अच्छी चल रही हो तो अन्य भावों में (6, 8, अथवा 12 को छोड़) भी यदि कम बिंदु हों तब भी बुरे फल नहीं प्राप्त होते। अर्थात शुभ ग्रहों की प्रबल दशा में यदि शनि का गोचर अष्टकवर्ग में कम बिंदु लिये राशि से हो तब भी शुभ फल ही प्राप्त होंगे।
Friday, 4 March 2016
स्कीन एलर्जी का ज्योतिष्य कारण
स्कीन एलर्जी और ज्योतिषीय कारण
खुजली या एलर्जी दरअसल यह त्वचा की दर्द तंत्रिकाओं की उत्तेजना है। जब हमारी तंत्रिकाएं उत्तेजित होती हैं, तो हमें खुजलाहट का अनुभव होता है, इसमें दर्द का अहसास नहीं होता। त्वचा में एलर्जी अथवा खुजली की समस्या से कमोबेश सभी को कभी न कभी सामना करना पड़ता है, जो कि स्कैबीज, जुआ, दाद, पायोडरमा, तेज गर्मी, कीड़े के काटने, एलर्जी या त्वचा के सूख जाने इत्यादि से हो सकती है। किंतु कई लोगों की यह आम समस्या होती है जो उन्हें अकसर होती रहती है। जिसे मेडिकल सांईस द्वारा नहीं जाना जा सकता है कि किसी को क्यू लगातार एलर्जी होती है। किंतु ज्योतिषीय गणना द्वारा पता चलता है कि अगर लग्न, तीसरे, छठवे, एकादष अथवा द्वादष स्थान में शनि या इन स्थानों के ग्रह स्वामी शनि से आक्रांत हों अथवा लग्न तीसरे स्थान में राहु हो तो ऐसे जातक को स्कीन एलर्जी की संभावना होती है। अगर इनकी ग्रह दषाएॅ चले तो ये समस्या ज्यादा बढ़ जाती है। अतः किसी जातक को लगातार ऐसे परेषानी दिखाई दे तो अपनी कुंडली में इन स्थानों में उपस्थित शनि अथवा राहु की शांति कराना, आहार में एलर्जी उत्पन्न करने वाले खाद्य पदार्थो से परहेज करना चाहिए।
खुजली या एलर्जी दरअसल यह त्वचा की दर्द तंत्रिकाओं की उत्तेजना है। जब हमारी तंत्रिकाएं उत्तेजित होती हैं, तो हमें खुजलाहट का अनुभव होता है, इसमें दर्द का अहसास नहीं होता। त्वचा में एलर्जी अथवा खुजली की समस्या से कमोबेश सभी को कभी न कभी सामना करना पड़ता है, जो कि स्कैबीज, जुआ, दाद, पायोडरमा, तेज गर्मी, कीड़े के काटने, एलर्जी या त्वचा के सूख जाने इत्यादि से हो सकती है। किंतु कई लोगों की यह आम समस्या होती है जो उन्हें अकसर होती रहती है। जिसे मेडिकल सांईस द्वारा नहीं जाना जा सकता है कि किसी को क्यू लगातार एलर्जी होती है। किंतु ज्योतिषीय गणना द्वारा पता चलता है कि अगर लग्न, तीसरे, छठवे, एकादष अथवा द्वादष स्थान में शनि या इन स्थानों के ग्रह स्वामी शनि से आक्रांत हों अथवा लग्न तीसरे स्थान में राहु हो तो ऐसे जातक को स्कीन एलर्जी की संभावना होती है। अगर इनकी ग्रह दषाएॅ चले तो ये समस्या ज्यादा बढ़ जाती है। अतः किसी जातक को लगातार ऐसे परेषानी दिखाई दे तो अपनी कुंडली में इन स्थानों में उपस्थित शनि अथवा राहु की शांति कराना, आहार में एलर्जी उत्पन्न करने वाले खाद्य पदार्थो से परहेज करना चाहिए।
प्रेम में पंगा क्यू ????
प्रेम में पंगा क्यू ????
सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे आधुनिक काल में प्रेम का नाम दिया जाता है। जब भी कोई अपनी पसंद रखता तब वह प्रेम करता है। यह प्रेम जब माता-पिता, भाई-बहनों, दोस्त-रिष्तेदारों से हो सकता है तब किसी से भी होता है। ज्योतिषीय रूप देखा जाए तो प्रेम करने हेतु लग्न, तीसरे, पंचम, सप्तम, दसम या द्वादष स्थान में शनि अथवा गुरू, शुक्र, चंद्रमा, राहु या सप्तमेष अथवा द्वादषेष शनि से आक्रांत हो तो ऐसे लोगों को प्यार जरूर होता है। चूॅकि शनि स्वायत्तषासी बनाता है अतः प्रेम के बाद स्वयं की स्वेछा से कार्य करने के कारण अपने प्यार से ही पंगा भी कर लेते हैं। अतः जो ग्रह प्यार का कारक है वहीं ग्रह प्यार में पंगा भी देता है। अतः अगर किसी के प्यार में पंगा हो जाए तो उसे तत्काल शनि की शांति कराना चाहिए। इसके साथ शनि के मंत्रों का जाप, काली चीजों का दान एवं व्रत करना चाहिए। इससे प्यार हो और वह प्यार निभ भी जाए।
सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे आधुनिक काल में प्रेम का नाम दिया जाता है। जब भी कोई अपनी पसंद रखता तब वह प्रेम करता है। यह प्रेम जब माता-पिता, भाई-बहनों, दोस्त-रिष्तेदारों से हो सकता है तब किसी से भी होता है। ज्योतिषीय रूप देखा जाए तो प्रेम करने हेतु लग्न, तीसरे, पंचम, सप्तम, दसम या द्वादष स्थान में शनि अथवा गुरू, शुक्र, चंद्रमा, राहु या सप्तमेष अथवा द्वादषेष शनि से आक्रांत हो तो ऐसे लोगों को प्यार जरूर होता है। चूॅकि शनि स्वायत्तषासी बनाता है अतः प्रेम के बाद स्वयं की स्वेछा से कार्य करने के कारण अपने प्यार से ही पंगा भी कर लेते हैं। अतः जो ग्रह प्यार का कारक है वहीं ग्रह प्यार में पंगा भी देता है। अतः अगर किसी के प्यार में पंगा हो जाए तो उसे तत्काल शनि की शांति कराना चाहिए। इसके साथ शनि के मंत्रों का जाप, काली चीजों का दान एवं व्रत करना चाहिए। इससे प्यार हो और वह प्यार निभ भी जाए।
मन नहीं लगता किसी भी कार्य में...क्यों??
मन नहीं लगता -
मन नहीं लगता या नहीं लग रहा ये अकसर सुनने में आता है। मन अति चंचल है। कहा जाता है कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अतः मन किसी व्यक्ति में इतना मायने रखता है। और कई बार मन कुछ भी करने को नहीं करता है। मन की भटकन को रोकने के लिए ज्योतिष कारगर साबित होता है। मन को हम कुंडली के तीसरे स्थान से देखते है। अगर किसी का तीसरा स्थान विपरीत स्थिति में या कू्रर ग्रहों के साथ हो तो ऐसा व्यक्ति मन के अधीन रहने का आदी होता है और अपने जीवन में अनुषासन नहीं रख पाता जिसके कारण सफलता प्राप्ति नहीं होती और परेषान रहता है। वहीं यदि किसी का तीसरा स्थान अनुकूल स्थिति में और सौम्य ग्रह हो या सौम्य ग्रह की दृष्टि हो तो ऐसे लोग हमेषा मन को काबू में रख पाते हैं। अतः यदि आपका मन भी बहुत चंचल हो तो अपने तीसरे स्थान के ग्रहों का विष्लेषण कराकर उस ग्रह की शांति कराना चाहिए साथ ही तीसरे स्थान का स्वामी बुध होता है अतः बुद्धि को साकारात्मक रखने एवं लगातार क्रियाषील रहने के लिए बुध से संबधित मंत्रजाप, दान करना भी मन को रूकने में सफल हो सकता है।
मन नहीं लगता या नहीं लग रहा ये अकसर सुनने में आता है। मन अति चंचल है। कहा जाता है कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अतः मन किसी व्यक्ति में इतना मायने रखता है। और कई बार मन कुछ भी करने को नहीं करता है। मन की भटकन को रोकने के लिए ज्योतिष कारगर साबित होता है। मन को हम कुंडली के तीसरे स्थान से देखते है। अगर किसी का तीसरा स्थान विपरीत स्थिति में या कू्रर ग्रहों के साथ हो तो ऐसा व्यक्ति मन के अधीन रहने का आदी होता है और अपने जीवन में अनुषासन नहीं रख पाता जिसके कारण सफलता प्राप्ति नहीं होती और परेषान रहता है। वहीं यदि किसी का तीसरा स्थान अनुकूल स्थिति में और सौम्य ग्रह हो या सौम्य ग्रह की दृष्टि हो तो ऐसे लोग हमेषा मन को काबू में रख पाते हैं। अतः यदि आपका मन भी बहुत चंचल हो तो अपने तीसरे स्थान के ग्रहों का विष्लेषण कराकर उस ग्रह की शांति कराना चाहिए साथ ही तीसरे स्थान का स्वामी बुध होता है अतः बुद्धि को साकारात्मक रखने एवं लगातार क्रियाषील रहने के लिए बुध से संबधित मंत्रजाप, दान करना भी मन को रूकने में सफल हो सकता है।
जीवन यापन के लिए आप किसका चयन करें नौकरी या व्यवसाय
सधारणतया हम आजीविका के लिए जन्मकुंडली में दशम भाव देखते हैं। छठा भाव नौकरी एवं सेवा का है। उसका कारक ग्रह शनि है। दशम भाव का छठे भाव से संबंध होनानौकरी दर्शाता है। नौकरी में जातक किसी दूसरे के अधीन कार्यरत होता है। लग्न में, अथवा दशम भाव में शनि का होना भी नौकरी दर्शाता है। शनि ग्रह को ‘दास’ एवं शूद्र ग्रह की पदवी दी गयी है। भचक्र में शनि दशम भाव का कारक ग्रह है। शनि ग्रह के बलवान होने की स्थिति में जातक स्वयं मेहनत करके जीविकोपार्जन करता है। इसके साथ सप्तम भाव को भी देखते हैं, जो दशम भाव से दशम है और भावात भावम सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। सप्तम भाव से साझेदारी, सहयोग, दैनिक आय तथा यात्रा का निर्धारण करते हैं। व्यापार में कई सहयोगियों की आवश्यकता होती है, चाहे सहयोग, साझेदारों के अलावा कर्मचारी, अथवा नौकर ही क्यों न दें। दशम भाव बलवान होने पर नौकरी तथा सप्तम भाव बलवान होने पर व्यवसाय का चयन करना चाहिए। अब दशम और सप्तम भाव के कुछ विशेष बिंदुओं को ध्यान से देखेंगे, जो व्यापार एवं नौकरी में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैंः दशम भाव: भचक्र में दशम भाव में स्थित मकर राशि के कारक तत्वों में नौकरी संबंधी गुणों की अधिकता होती है। इस राशि पर विशेष प्रभाव रखने वाले ग्रह है: मंगल मकर राशि में उच्च का होता है, जो ऊर्जा, क्षमता तथा पुरूषार्थ का प्रतीक है और एक सेवक के लिए आवश्यक है। बृहस्पति मकर राशि में नीच का होता है, जो नेतृत्व गुण का क्षय, धन की अल्पता तथा तेजहीनता का सूचक है। शनि इस राशि का स्वामी भी है। वह शूद्र वर्ण, एकांतप्रिय, शांत स्वभाव वाला है। ये सभी कारकत्व नौकरी एवं सेवा की ओर अग्रसर करते हैं। इसके अलावा दशम भाव का त्रिकोणीय संबंध द्वितीय भाव, षष्ठ भाव से होता है। द्वितीय भाव धन एवं षष्ठ भाव सेवा, अथवा नौकरी दर्शाते हैं। षष्ठ भाव, दशम भाव का भाग्य भाव है। अतः इसको अच्छा होना चाहिए। सप्तम भाव: भचक्र में सप्तम भाव में स्थित तुला राशि के कारकत्वों में व्यापार संबंधी गुणों की प्रधानता होती है। इस राशि पर विशेष प्रभाव रखने वाले ग्रह है:- सूर्य जो न्याय एवं आत्मा का प्रतीक है। उसके नीच होने के कारण व्यक्ति व्यापार में मापदंड में भेद की नीति अपनाता है। शनि उच्च का होने के कारण जातक में दूसरों के श्रम से धनोपार्जन तथा जनता एवं सेवकों से लाभ प्राप्त करने का गुण होता है। शुक्र इस राशि का स्वामी है जो काम, भोग एवं कला का प्रतीक है और ये एक कुशल व्यापारी के गुण है। व्यापार की सफलता के लिए द्वितीय, पंचम, नवम, सप्तम, दशम और एकादश भाव तथा उन भावों में ग्रहों की स्थिति अच्छी होनी चाहिए अन्यथा ऐसा जातक नौकरी करता है। धन योग: जातक की कुंडली में धन योग की मात्रा देखकर निर्धारित कर सकते हैं कि जातक की पत्री में व्यापार एवं नौकरी का स्तर क्या हो सकता है। व्यवसाय योग: जन्मपत्री में दशम भाव कर्म का है और नौकरी से संबंधित है तथा सप्तम भाव व्यापार प्रक्रिया तथा साझेदारी व्यवसाय को व्यक्त करता है। वृष, कन्या तथा मकर व्यापार की मुख्य राशियां है। चंद्र, बुध, गुरु तथा राहु व्यापार करने के लिए महत्वपूर्ण ग्रह है। जन्मकुंडली में लग्न, चंद्रमा, द्वितीय, एकादश, दशम, नवम तथा सप्तम भाव का मजबूत होना। लग्न स्वामी के साथ द्वितीय और एकादश के स्वामी का केंद्र या त्रिकोण में होना तथा शुभ ग्रह से दृष्ट होना। मजबूत लग्न स्वामी के साथ द्वितीय या एकादश के स्वामी का बृहस्पति के साथ दशम या सप्तम में होना। पंचम भाव या भावेश का संबंध यदि दशम, दशमेश से है तो जातक अपनी शिक्षा का उपयोग व्यवसाय में अवश्य करता है। व्यवसाय के संदर्भ में राशियों और ग्रहों की प्रकृति और तत्व को भी ध्यान में रखना होगा। साथ में नक्षत्र भी व्यापार एवं नौकरी के संदर्भ में जानकारी देने में सहयोगी होते हैं। बुद्धिमान ज्योतिषी को ग्रह, योग, महादशा, अंतर्दशा, गोचर के साथ ही देश, काल और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए नौकरी व्यवसाय का निर्धारण करना चाहिए। रोजगार से संबंधित अनिष्ट दूर करने के उपाय यदि दशमेश 5, 8, 12 भावों में हो तो उस ग्रह से संबंधित रत्न या उपरत्न या उसकी धातु के दो बराबर वजन के टुकड़े लेकर, एक टुकड़े को बहते हुए जल में प्रवाहित करके, दूसरा टुकड़ा अपने पास आजीवन संभाल कर रखें। किसी उग्र देवी या देवता जैसे हनुमान जी, पंचमुखी हनुमान जी, भैरव जी, काली जी, तारा, कालरात्रि, छिन्नमस्ता, भैरवी जी, मां बगलामुखी जी का अनुष्ठान करके उसकी नित्य साधना करें। नवग्रह शांति करवाएं। इसके लिए भगवान दत्तात्रेय जी के तंत्र का उपाय इस प्रकार है: एक हांडी में मदार की जड़, धतूरे, चिरचिटे दूब, बट, पीपल की जड़, आम, भूजर, शमी का पत्ता, घी, दूध, चावल, मूंग, गेहूं, तिल, शहद और मट्ठा भर कर शनिवार के दिन संध्या काल के समय, पीपल के पेड़ की जड़ में गाड़ देने से समस्त ग्रहों के उपद्रवों का नाश हो जाता है। द्वितीयेश यदि 6, 8, 12 भावों में न हो, तो उस ग्रह का रत्न धारण करें। दस अंधे व्यक्तियों को भोजन कराने से कष्ट कम हो सकता है। अपने भोजन में से एक रोटी निकाल कर, उसके तीन भाग करके, एक भाग गाय को, दूसरा भाग कुत्ते को और तीसरा भाग कौए को नित्य खिलाएं। केसर खाएं या नित्य हल्दी का तिलक लगाएं। खोये के गोले को ऊपर से काट कर उसमें देशी घी और देशी खांड भर कर बाहर सुनसान जगह, जहां चींटी का स्थान हो, उसके समीप जमीन खोद कर उस गोले को इस तरह गाड़ दें कि उसका मुंह खुला रहे, ताकि चींटियां को खाने में असुविधा न हो।
कैसे आपके परिस्थितयों को ग्रह ख़राब करते है........
ललाट पहे लिखिता विधाता, षष्ठी दिने याऽक्षर मालिका च। ताम् जन्मत्री प्रकटीं विधत्ते, दीपो यथा वस्तु धनान्धकारे। (मान सागरी) अर्थात् ईश्वर ने भाग्य में जो लिख दिया, उसे भोगना ही पड़ता है। जन्मपत्री के अध्ययन से इस बात का आसानी से पता चल जाता है कि उसने पूर्व जन्म में कैसे-कैसे कर्म किये है और इस जन्म में उसे कैसा क्या सुख भोग मिलेगा। मातुलो यस्य गोविन्दः पिता यस्य धनंजयः। सोऽपित कालवशं प्राप्तः कालो हि बुरतिक्रमः।। अर्थात् अभिमन्यु युवा था, सुंदर था, स्वस्थ था, वीर था, नवविवाहित था। भला क्या उसकी मरने की आयु थी या स्थिति? भगवान श्री कृष्ण उसके मामा थे, उसके पिता अर्जुन महाभारत के अप्रतिम योद्धा थे। किंतु अभिमन्यु काल से न बच सका। तब साधारण जन कैसे बच सकता है। मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते। अथ वाष्दशतान्ते वा मृत्युवै प्राणिनां धु्रवः।। देहे पंचत्वमापन्ने देहि कर्मानुगोऽवंशः। देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः।।अर्थात कंस वासुदेव-देवकी को स्नेह से पहुंचाने जा रहा था। मार्ग में आकाशवाणी हुई ‘अस्यास्त्वाभस्तमा गर्भो हन्ता यां वहसेऽबुध।’ हे मूर्ख! जिसे तुम पहुंचाने जा रहे हो इसका आठवां गर्भ तुम्हंे मार डालेगा।’ क्रुद्ध कंस देवकी के केशों को पकड़कर उसकी जीवन लीला ही समाप्त कर रहा था, तभी वासुदेव जी ने उसे समझाया - हे वीर! जन्मधारण करने वालों के साथ ही उनकी मृत्यु भी उत्पन्न हो जाती है। आत्म कर्मानुसार देहान्तर प्राप्त कर पूर्व देह छोड़ देता है। कहने का अर्थ यही है कि जीव को कर्मानुसार विविध देहांे की विभिन्न प्रकार के सुखों की रोगों की, अभावों की प्राप्ति होती है। तब जन्म पत्री को देखकर कैसे समझा जाए कि ग्रह एक साथ जीवन के कितने क्षेत्रों को प्रभावित करता है। इस तथ्य की सत्यता हेतु कुछ कुण्डलियों का अध्ययन करते हैं। यह सोनीपत शहर में रहने वाली एक ऐसी स्त्री की कुंडली है, जिसके विवाह को सात वर्ष बीत गए लेकिन इसे संतान नहीं हुई। इस औरत की कुंडली जन्म लग्न, चंद्र लग्न, सूर्य लग्न, शुक्र लग्न से मंगली है। लग्न सिंह है और प्रथम भाव में ही मंगल है और चंद्रमा भी सिंह राशि में ही है। लग्नेश सूर्य लग्न से छठे भाव में है। परंतु मंगल सूर्य से अष्टम भाव में है। पंचमेश एवं पंचम कारक गुरु संतान भाव (पंचम भाव) से द्वादश है तथा बृहस्पति पर पाप ग्रह मंगल की चतुर्थ दृष्टि है। संतान भाव पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं है। कुंटुंब भाव (द्वितीय) पाप कर्तरी योग में है यानी इस भाव के एक ओर मंगल है व द ूसरी ओर केतु पाप ग्रह है, लग्न पर राहु का तथा कुंटुंब भाव पर शनि का दुष्प्रभाव है। इसी कारण संतान नहीं हो पायी। इस व्यक्ति को उठने बैठने चलने-फिरने आदि में अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि यह पुट्ठे की क्षीणता से ग्रस्त हो गया है। देखते हैं ऐसा किन ग्रह स्थितियों के कारण हुआ। यदि कोई ग्रह षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थानों में स्थित हो और इस पर शुभ दृष्टि न हो तो वह अत्यंत निर्बल हो जाता है। ऐसा ग्रह जिस धातु का कारक होता है, वह उसमें रोग उत्पन्न कर देता है। उपरोक्त कुंडली में मंगल पुट्ठों का कारक है जो मृत्यु भाव अर्थात अष्टम स्थान में स्थित है। वह नीच (कर्कस्थ) भी है। मंगल पर राहु की पंचम की दृष्टि है। इसके अलावा मंगल पर शुभ ग्रह शुक्र की दृष्टि है, परंतु शुक्र भी षष्ठेश तथा एकादशेश होकर मारक भाव में स्थित है शुक्र षष्ठ से षष्ठ अर्थात् एकादश भाव का स्वामी होने से भी रोगदायक है। यही नहीं शुक्र दो पाप ग्रहों शनि तथा सूर्य के बीच भी है जो उसकी निर्बलता बढ़ा रहे हैं। इसी कारण पुट्ठों की क्षीणता अत्यंत कठिनाइयों को पैदा कर रही है। यह पुरुष जातक व्यभिचारी है। यह अपनी पत्नी को उत्पीड़ित करता रहता है। उसे कई बार मारने की कोशिश भी कर चुका है। दो बार पुलिस केस भी हो चुका है। इसके अन्य महिलाओं के साथ भी यौन संबंध हैं। इसकी जन्मकुंडली की ग्रह स्थितियों का अध्ययन कर इन कारणों को जानने का प्रयास करते हैं। यदि लग्नेश चतुर्थ भाव में हो, चतुर्थ एवं सप्तम भाव मंगल या राहु से पीड़ित हो, चतुर्थेश, सप्तमेश एक साथ हो तथा राहु से प्रभावित हो तो जातक व्यभिचारी, बहुस्त्री भोगी, कलंकित होता है। उपरोक्त कुंडली में लग्नेश-चतुर्थेश बुध चतुर्थ भाव में है तथा सप्तमेश गुरु शत्रु राशिस्थ होकर लग्नेश के साथ सुखेश बुध त्रिक भाव के स्वामी सूर्य के साथ है। इसके अतिरिक्त धनेश चंद्रमा केमुद्रम योग बना रहा है तथा शत्रु राशीस्थ होकर द्वादश भाव में है। भोग कारक शुक्र रोग, ऋण व शत्रु भाव में गृहस्थ भाव से द्विद्र्वादश योग बना रहा है। सप्तम भाव पापकर्तरी योग में है। पंचम भाव में शनि से दृष्ट है। लग्न एवं पंचम भाव पर राहु की दृष्टि है। चंद्रमा पर मंगल की दृष्टि भी है। इसी कारण यह व्यभिचारी है। यह कुंडली एक ऐसे व्यक्ति की है, जिसको कई वर्षों से पेट में गैस की तकलीफ रही है। बिना दवाइयों के यह शौच तक नहीं कर सकता। इसकी जन्मकुंडली में पंचमेश और पंचम भाव और पेट का कारक गुरु दोनों इकट्ठे हैं और साथ में शुक्र भी विराजमान है और वह भी सूर्य से पंचमेश है। इन सब पेट के द्योतक ग्रहों पर शनि की पूर्ण तृतीय दृष्टि भी पड़ रही है और फिर शनि चूंकि सूर्य और केतु अधीष्ठित राशि का स्वामी है, इसमें केतु तथा सूर्य का प्रभाव भी सम्मिलित है। इस प्रकार जहां लग्न, चंद्र लग्न और सूर्य लग्न से पंचमेश होने के कारण पेट के द्योतक हैं वहां पीड़ित करने वाले ग्रह भी बहुत क्रूर हैं। इसका फल बहुत देर तक पेट में कष्ट उत्पन्न करता है। गैस इसलिए कि शनि का प्रभाव मुख्य है और शनि वायु का ग्रह है। यह कुंडली एक ऐसे विवाहित जोड़े की है जिनका विवाह बिना गुण मिलान के सम्पन्न हुआ। विवाह के सप्ताह बाद ही दोनों में कलह शुरु हो गया। यह विवाह दो वर्षों तक चलता रहा, फिर ये दोनों एक-दूसरे को तलाक देकर अलग हो गए। देखते हैं इनका ववाह क्यों नहीं निभ पाया। वर की जन्मकुंडली के लग्न में केतु और सप्तम में राहु विवाह में असफलता का सूचक है। साथ ही भोग कारक शुक्र भोग स्थान अर्थात गृहस्थ भाव से द्वादश, लग्न से षष्ठ तथा राशि से चतुर्थ अशुभ ग्रह इसके अतिरिक्त शुक्र सूर्य द्वारा अस्त भी है तथा अष्टमेश मंगल के साथ है। पराक्रमेश बुध जहां षष्ठ भाव में है, वहीं लग्नेश मंगल शत्रु भाव में शत्रु राशि में है, इतना ही नहीं सभी ग्रह राहु-केतु के मध्य कालसर्प योग भी बना रहे हैं। गृहस्थ भाव से भी कालसर्प योग बन रहा है, सूर्य, बुध, मंगल तथा शुक्र पर शनि की पाप दृष्टि भी है। वधू की जन्मकुंडली में गृहस्थ भाव से द्वादश राहु है तथा उस पर शनि की अशुभ दृष्टि है। अष्टमेश सूर्य शनि द्वारा दृष्ट है। सप्तमेश चंद्र केमदु्रम योग बना रहा है, षष्ठेश बुध के साथ अष्टमेश सूर्य सर्वथा अशुभ है। इसके अलावा राशि एवं मंगल की पाप दृष्टि है। पराक्रमेश गुरु के दोनों ओर पाप ग्रह सूर्य, शनि व मंगल पापकर्तरी योग बना रहे है | गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है- जो जस करई सो तस फल चाखा; क्योंकि कर्म प्रधान विश्व करि राखा। अर्थात इस संसार में कर्म ही प्रधान है और जैसे कर्म वह करता है उसी के अनुसार मनुष्य के जीवनकाल में न तो आकस्मिक रूप से कुछ होता है और न अनायास ही। बल्कि हमें जो कुछ अप्रत्याशित लगता है वह कर्म विधान के अंतर्गत दुर्भाग्य अथवा सौभाग्य के रूप में पूर्व निश्चित क्रमानुसार हमारे सामने आता है। जन्मकुंडली में ग्रह स्थिति के अनुसार हम उस कर्म फल को जान पाते हैं।
शनि की शुभता और अशुभता
ज्योतिष में शनि की बहुत बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। मनुष्य जीवन को संचालित करने वाले अनेकों घटक शनि के अंतर्गत आते हैं और हमारे जीवन में आने वाले बड़े परिवर्तन शनि की गतिविधियों पर ही निर्भर करते हैं। जैसा कि हम जानते हैं शनि, सूर्य के पुत्र हैं और नव ग्रहों में उन्हें दण्डाधिकारी का पद भगवान शिव के द्वारा दिया गया है। भचक्र में मकर और कुम्भ राशि पर शनि का स्वामित्व है तथा तुला राशि में शनि को उच्च व मेष राशि में नीचस्थ माना जाता है। सूर्य, चंद्रमा, मंगल और केतु की शनि से शत्रुता, बृहस्पति सम व शुक्र, बुध, राहु से मित्रता मानी जाती है। शनि को हमारे कर्म, जनता, नौकर, नौकरी, अनुशासन, तपस्या, अध्यात्म आदि का कारक माना गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि शनि की हमारे जीवन में शुभ भूमिका होगी या अशुभ। वास्तव में यह हमारी जन्मकुंडली में शनि की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है सामान्यतया वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर तथा कंुभ लग्न वाले जातकों के लिए शनि को शुभ कारक ग्रह माना जाता है और मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु और मीन लग्न की कुण्डली में शनि को अकारक ग्रह माना जाता है। इसके अतिरिक्त शनि से मिलने वाला शुभ या अशुभ फल इस बात पर निर्भर करता है कि शनि हमारी कुण्डली में है किस स्थिति में। शनि यदि जन्मकुंडली में स्व, उच्च, मित्र आदि राशि में बलवान होकर बैठा है तो निश्चित ही ऐसा शनि जातक को दूरद्रष्टा, कर्मप्रधान, अनुशासित एवं अच्छे पद वाला व्यक्ति बनायेगा। ऐसा व्यक्ति कर्म करते हुए भी अपने जीवन को प्रभु चरणों में लगाएगा और यदि शनि नीच राशि (मेष), शत्रु राशि या शत्रु ग्रहों से प्रभावित होकर पीड़ित या कुपित स्थिति में है तो वह जातक को आलस्य, लापरवाही, नकारात्मक सोच, कर्मों को कल पर छोड़ने की प्रवृत्ति देकर जीवन को संघर्षों से भर देगा कमजोर शनि वाले जातक को अपने करियर में बहुत संघर्षों के बाद ही सफलता मिलती है। शनि की अन्य ग्रहों से युति: 1. शनि-सूर्य: शनि और सूर्य का योग शुभ फल कारक नहीं माना जाता विशेष रूप से पिता और पुत्र दोनों में मतभेद रह सकते हैं। ऐसे व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी रहेगी तथा यश प्राप्ति में बाधाएं आयेंगी। 2. शनि-चंद्रमा: ऐसे जातक को मानसिक शांति की कमी सदैव अनुभव होगी, मानसिक एकाग्रता नहीं रहेगी। जल्दी डिप्रेस हो जायेगा, स्वभाव में आलस्य रहेगा और माता के सुख में भी कमी हो सकती है। 3. शनि-मंगल: ऐसे जातक को अपने व्यवसाय या करियर में अपेक्षाकृत अधिक संघर्ष करना पड़ता है और कठिन परिश्रम से ही सफलता मिलती है। 4. शनि-बुध: ऐसे जातक अपनी बुद्धि, वाणी, बुद्धि परक कार्यों से सफलता प्राप्त करते हैं और गहन अध्ययन में रुचि रखते हैं। 5. शनि-बृहस्पति: यह बहुत शुभ योग होता है। ऐसे जातक अपने सभी कार्य काफी लगन से करते हैं तथा जीवन में अच्छे पद प्राप्त करते हैं। 6. शनि-शुक्र: यह भी शुभफल कारक होता है। ऐसे जातक विवाह उपरान्त विशेष उन्नति पाते हैं तथा धन समाप्ति के लिए यह योग शुभ है। 7. शनि$राहु: यह बहुत अच्छा योग नहीं है। संघर्षपूर्ण स्थितियों के पश्चात् सफलता मिलती है, उतार-चढ़ाव अधिक आते हैं। 8. शनि$केतु: शनि की युति केतु के साथ हो तो जातक का ध्यान अध्यात्म या समाज सेवा की ओर उन्मुख हो सकता है परंतु ऐसे जातक को अपनी आजीविका चलाने के लिए अथक प्रयास करने पड़ते हैं। शनि और स्वास्थ्य: हमारे शरीर में शनि विशेषतः पाचनतंत्र और हड्डियों के जोड़ों को नियंत्रित करता है। इसके अतिरिक्त, दांत, नाखून, बाल, टांग, पंजे भी शनि के अंतर्गत आते हैं। जिन व्यक्तियों की कुंडली में शनि नीच राशि (मेष) में कुंडली के छठे या आठवें भाव में हो या अन्य प्रकार से पीड़ित हो तो ऐसे में पाचन तंत्र से जुड़ी समस्याएं और जाॅइंट्स पेन की समस्या का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त दीर्घकालीन रोगों में भी शनि की भूमिका होती है। विशेष रूप से कर्क, सिंह और धनु लग्न वाले जातकों के लिए शनि अपनी दशाओं में स्वास्थ्य कष्ट उत्पन्न करता है। शनि और आजीविका: वर्तमान युग में शनि को एक तकनीकी ग्रह के रूप में देखा जाना चाहिए। यदि शनि कुंडली में अच्छी स्थिति में है तो निश्चित ही तकनीकी क्षेत्र में उन्नति देगा। इसके अंतर्गत मेकेनिकल इंजीनियरिंग, मशीनों से जुड़ा कार्य, लोहा, स्टील, कोयला पेट्रोल, गैस, कच्ची धातुएं, केमिकल प्रोडक्ट, सीमंेट तथा पुरातत्व विभाग से जुड़े कार्य आते हैं। शनि और साढ़ेसाती: साढ़ेसाती को लेकर सभी व्यक्ति भय से व्याप्त रहते हैं। जब शनि हमारी जन्म राशि से बारहवीं राशि में आते हैं तब साढ़ेसाती का प्रारंभ होता है। वास्तव में यह समय हमें संघर्ष की अग्नि में तपाकर हमारे पूर्व अशुभ कर्मों को स्वच्छ करने का कार्य करता है। परंतु ज्योतिषीय दृष्टिकोण से बात करें तो साढ़ेसाती का फल सबके लिए एक समान कभी नहीं होता। यह कुंडली में बनी ग्रह स्थितियों पर निर्भर करता है। यदि हमारी कुंडली में स्थित शनि बहुत पीड़ित व कमजोर और विशेषकर मंगल, केतु के प्रभाव में हो तो ऐसे में साढ़ेसाती बहुत संघर्ष और बाधापूर्ण होती है। कुंडली में चन्द्रमा यदि अतिपीड़ित हो तब भी साढ़ेसाती में दुष्परिणाम मिलते हैं। परंतु यदि कुंडली में शनि बृहस्पति या मित्र ग्रहों बुध, शुक्र के अधिक प्रभाव में शुभ स्थिति में है तो साढ़ेसाती में अधिक समस्याएं नहीं आतीं। इसके अलावा साढ़ेसाती के अंतर्गत गोचर का शनि यदि उन राशियों से गुजरता है जिनमें हमारे जन्मकालीन शुक्र, बुध व बृहस्पति बैठे हैं तब भी साढ़ेसाती शुभफल कारक होती है। शनि शांति के उपाय: यदि शनि की दशा या साढ़ेसाती में प्रतिकूल परिणाम मिल रहे हों तो निम्नलिखित उपाय अवश्य करें। 1. ऊँ शं शनैश्चराय नमः का 108 बार जाप करें। 2. शनिवार को पीपल के वृक्ष में जल दें। 3. लगातार पांच शनिवार साबुत उड़द का दान करें। 4. हनुमान चालीसा का पाठ करें। 5. सूर्यास्त के बाद घर की पश्चिम दिश में सरसों के तेल का दीया जलाएं। 6. माह में एक बार वृद्धाश्रम में कुछ धन या खाद्य सामग्री का दान अवश्य करें।
जुड़वां बच्चों का ज्योतिष्य अवधारणा
यदि दो जुड़वां भाई/बहन हं और दोनों का जन्म समय, तिथि व स्थान एक ही है तो निश्चित ही जन्मपत्री एक सी ही बनेगी तथा शक्ल, सूरत, विचार, इच्छाएं, रोग, जीवन की घटनाएं भी एक समान हो सकती हैं। परंतु फिर भी जुड़वां बच्चों के व्यक्तित्व, कर्म व जीवनधारा में काफी अंतर हो सकता है यद्यपि कि जन्मपत्री में ग्रह स्थिति एक सी ही हो। उसके कुछ कारण निम्नवत हैं: गर्भ कुंडली: वास्तविक जन्म गर्भ में भ्रूण प्रवेश/निषेचन के समय हो जाता है तथा यह भी तय हो जाता है कि बच्चा लड़का होगा या लड़की। जिस क्षण विशेष में गर्भ में भ्रूण स्थापित होता है वही क्षण उस बालक/बालिका के पूरे जीवन का आधार बनता है। भ्रूण समस्त ग्रहों का प्रभाव पिता व माता द्वारा स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ, जो स्त्रियां पक्षबली चंद्रमा के समय में गर्भाधान करती हैं उन्हें निश्चित ही स्वस्थ, सुंदर, सफल व संस्कारवान संतान प्राप्त होती है। जुड़वां संतान की गर्भ कुंडली देखें तो उनमें अधिक अंतर होने की संभावना है क्योंकि गर्भ भ्रूण प्रवेश/ निषेचन एक ही समय में हो ऐसा संभव नहीं है। ज्योतिष नियमानुसार जन्म कुंडली से गर्भ कुंडली बनाई जा सकती है। पर यह निश्चित ही कठिन कार्य है। गर्भ कुंडली भिन्न हो जाने से जातक का व्यक्तित्व व भविष्य भिन्न रूप में विकसित होगा, यह निश्चित है। जैसे - एक राजा समान जीवन यापन कर रहा है तो दूसरा फुटपाथ पर मजदूरी। इसका कारण गर्भ में कुछ समय मिनट अंतराल में दोनों का गर्भ स्थापित होना है जिसमें दोनों की जन्मपत्री तो एक समान आती है, लेकिन हाथ की रेखाओं में काफी अंतर पाया जाता है। अतः ऐसे प्रश्नों का उत्तर ‘‘हस्त रेखा शास्त्र’’ आसानी से दे सकता है। जन्मकुंडली की इस परेशानी को दक्षिण भारत के महान ज्योतिष विद्वान ‘‘कृष्णमूर्ति’’ ने नक्षत्र पर आधारित पद्धति का निर्माण कर किया, जिसे ‘‘के. पी. पद्धति‘’ कहते हैं। इसके अनुसार किसी भाव का फल भावेश अर्थात उसका स्वामी न करके, वह ग्रह जिस नक्षत्र में स्थित हैं, उसका उपनक्षत्र स्वामी करेगा अर्थात् उस भाव का फल उपनक्षत्रेश के आधार पर होगा। जैसे-किसी की जन्मपत्री में तुला लग्न में दशमेश चंद्र, उच्च या स्वगृही है तो उसे किसी कंपनी/सरकारी नौकरी में उच्च पद पर या प्रतिष्ठित व्यवसाय में होना चाहिए। परंतु वास्तव में वह व्यक्ति फुटपाथ पर मजदूरी कर रहा था, तब ‘ऐसे में उसकी जन्मपत्री का अध्ययन किया तो यह पाया कि उसका उपनक्षत्र स्वामी, जन्मपत्री में नीच राशि में स्थित था, अतः उसे वास्तव में निम्न स्तर का रोजगार मिला। ठीक इस प्रकार जुड़वां बच्चों या समकक्ष में के. पी. ने उपनक्षत्र स्वामी का निर्माण राशियों को 4-4 मिनट में बांटकर सारणी तैयार कर किया तथा जुड़वां बच्चों के फल कथन में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया तो बिल्कुल सटीक पाया गया। क्योंकि जुडवां बच्चों में 2-3 मिनट का ही अंतर रहता है या एक ही स्थान, समय में भी 2-3 मिनट का ही अंतर पाया जाता है। अतः के. पी. की उपनक्षत्रेश पद्धति इनपर बिल्कुल सही साबित हुई। इसके अलावा, के. पी. पद्धति में प्रश्न कुंडली के आधार पर भी इन बच्चों का भविष्य कथन ज्ञात कर सकते हैं। यह आधुनिक ज्योतिष को के. पी. की महान देन है। हस्त रेखा एवं आयुर्विज्ञान के अनुसार, हस्तरेखाओं में भिन्नता 21वें क्रोमोसोम (गुणसूत्र) के कारण होती है, अतः गर्भ स्थान में कुछ समय (मिनट) अंतराल वास्तव में गर्भाशय में शुक्राणु का अंडाणु से निषेचन से होता है। अतः किसी का भी भाग्य का निर्माण चाहे सिंगल हो या जुड़वां, वह तो गर्भ स्थापन में ही हो जाता है बाकी के नौ महीने तो बालक के भ्रूण के पूर्ण निर्माण में लगते हैं। अतः यहां पर गर्भ स्थापन में 16 संस्कारों में गर्भाधान संस्कार का महत्व उपरोक्त कारण से है। के. पी. पद्धति से पूर्व ज्योतिष द्वारा जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन पूरी तरह सक्षम नहीं था। ऐसे में हस्तरेखा शास्त्र, भविष्य कथन में सहायक सिद्ध होता था। दो जातकों की हस्त रेखायें भिन्न होती हैं, जो जुडवां हो या एक ही समय और स्थान पर पैदा हुये हों। लेकिन के. पी. की नक्षत्र आधारित पद्धति ने ज्योतिष में जान डालकर हस्तरेखा की भांति सजीव बना दिया। के. पी. एवं हस्तरेखा के अलावा ‘‘प्रश्न ज्योतिष’ द्वारा भी जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन ज्ञात कर सकते हैं। ज्योतिष में पंचम भाव, पंचमेश व कारक गुरु तीनों संतान से जुड़े हैं, ये किसी स्त्री ग्रह से युक्त/दृष्ट (प्रभावित) हो तो जुडवां संतानें होती हैं। ये योग स्त्री एवं पुरूष में न्यूनतम एक में होना अनिवार्य है। दैनिक जीवन में भी देखते हैं तो कई जातकों के जुडवां बच्चे पैदा होते हैं, उनमें न्यूनतम एक में यह योग अवश्य होता है। जीवनशैली/लालन पालन का महत्व: यदि जन्मकुंडली पूर्ण रूप से समान हो, जुड़वां बच्चों की लग्न, चंद्र राशि व नक्षत्र चरण समान हो फिर भी यदि बच्चों के लालन-पालन में, शिक्षा, संस्कार में भिन्नता हो तो भी बच्चे भिन्न व्यक्तित्व के हो सकते हैं। ग्रह प्रभाव की व्यापकता: यदि दोनों बच्चों का कारक ग्रह एक हो तो भी उनके जीवन में भिन्नता आ सकती है।
मंगल और शुक्र की भूमिका
चंद्र मन का प्रतिनिधित्व करता है और मन काम शक्ति का कारक है। सभी प्रकार के संबेधों का कारण भी चंद्र होता है। जब चंद्र की दृष्टि, युति आदि सूर्य से हो, तो संबंध में आश्रय पाने के विचार होते हैं। मंगल कारण कर्मठ व्यक्तियों से, बुध के कारण व्यापारी वर्ग से, गुरु के कारण आध्यात्मिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों से, शुक्र के कारण विपरीत लिंग से और शनि के कारण आलोचना करने वालों से संबंध होते हैं। राहु-केतु के कारण उनके स्वामी के अनुरूप ही संबंध होते हैं। मंगल तथा शुक्र के कारण कामुक संबंध स्थापित होते हैं। लेकिन इनके साथ चंद्र की भी अहं भूमिका होती है। और इन योगों में शनि का योगदान अनैतिक संबंध कारक माना जाता है। चतुर्थ भाव का संबंध नैतिक तथा पवित्र माना जाता है। लेकिन सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव का संबंध उपर्युक्त योगों के साथ अनैतिक होता है। निर्बल मंगल गोपनीय संबंध बनाकर विवाहोपरांत जीवन को कष्टमय बना देता है। लेकिन मंगल और शुक्र दोनों बलवान हों तो बहु संबंधों के साथ बहुविवाह भी सफल होते हैं। विवाह आठ प्रकार के होते हैं- ब्राह्मण विवाह, प्राजापत्य विवाह, आर्ष विवाह, देव विवाह, गांधर्व विवाह, आसुर विवाह, राक्षस विवाह, पैशाच विवाह। इन आठ प्रकार के विवाहों में ब्राह्मण वर्ण के लिए ब्रह्म विवाह, प्राजापत्य विवाह, आर्ष विवाह और देव विवाह सर्वश्रेष्ठ होते हैं। क्षत्रिय वर्ण के लिए आसुर विवाह और राक्षस विवाह श्रेष्ठ माने जाते हैं। वैश्य तथा शूद्र वर्णों के लिए गांधर्व विवाह तथा पैशाच विवाह श्रेष्ठ माने जाते हैं। गांधर्व विवाह की अनुमति सभी वर्णों के व्यक्तियों को होती है क्योंकि इस विवाह का कारक चंद्र, मंगल और शुक्र हैं। इसके अंतर्गत पुरुष स्त्री से प्रेम संबंध स्थापित कर विवाह कर लेता है। यह दोनों की सहमति से ही होता है। उपर्युक्त योगों के साथ-साथ अन्य ग्रहों की भी अपनी-अपनी भूमिका होती है। जैसे लग्नेश यदि चतुर्थ भाव में हो तथा चतुर्थ एवं सप्तम भाव मंगल और राहु से प्रभावित हों, तो जातक या जातका के कई स्त्रियों या पुरुषों से संबंध होते हैं। इसी प्रकार सप्तम भाव व सप्तमेश, पंचम भाव व पंचमेश तथा द्वादश भाव व द्वादशेश का किसी भी रूप में संबंध हो, तो स्त्री या पुरुष कामुकता के वशीभूत होकर विवाहेतर संबंध बनाते हैं। ज्योतिष में शुक्र दूसरों को रोमांस की दृष्टि से आकर्षित करने की क्षमता का परिचायक है। वह जातक या जातका को उसकी कामेच्छा, अभिलाषा, अभीप्सा आदि की पूर्ति हेतु संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। बहु संबंध एवं बहु विवाह का एक प्रमुख कारण स्थान विशेष का वातावरण भी होता है। स्वभाव से पुरुष सौंदर्यप्रिय तथा स्त्री धनप्रिय होती है। वर्तमान काल में 40 प्रतिशत विवाह धन के कारण तथा 30 प्रतिशत विवाह सौंदर्य के कारण होते हैं। शेष 30 प्रतिशत विवाह निवास या कार्यालय के वास्तुदोषों के कारण होते हैं। लेकिन इन सभी कारणों में उपर्युक्त ग्रह योगों की भूमिका अहम होती है। इसी प्रकार उपर्युक्त योगों को हाथ की रेखाओं के माध्यम से भी देखा जा सकता है। यदि मंगल व शुक्र के कारण बहु संबंध या अनैतिक संबंध बन रहे हों, तो जातक की हस्त परीक्षा से शुक्र पर्वत पर महीन जाली मिलेगी या गुरु पर्वत पर एक तारा का चिह्न अवश्य मिलेगा। यदि त्रिकोण के अंदर चंद्र की आकृति हो, तो चारित्रिक शिथिलता का बोध होता है। शुक्र पर्वत पर 2 क्राॅस अति कामी बनाकर बहु संबंध बनाते हों, तो शुक्र पर्वत के नीचे की तरफ कोई वर्ग हो तथा किसी अंगुली में 4 पर्व हांे, तो अनैतिक संबंध से कारागार प्राप्त होता है
जीवन में कष्ट और क्लेश हो करें कुछ उपाय........
आप भी जानते हैं, कि संसार का हर एक जीव अपने परिवार तथा आस पास के लोगों से बहुत प्यार करता है और हर किसी के मन मंे प्यार और सम्मान पाने की बहुत चाह होती है। लेकिन आज-कल परिवार में छोटी-छोटी बातों को लेकर क्लेश होना और फिर उसके कारण उस क्लेश का विकराल रूप होने में देर नहीं लगती है। हम भी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, कि ये उसी कारण ऐसा हुआ है, अगर वो ऐसा नहीं करता तो आज ये हालात नहीं होते। ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है, हम या आप किसी को गलत नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इन सबके लिए जिम्मेदार हमारे कर्म तो होते हैं, लेकिन सबसे बड़े जिम्मेदार हमारे ग्रह ही होते हैं। कोई भी जीव धरती पर बुरा नहीं है, आइये अब कैसे इसे ठीक करें, जिससे कि हम हमारे प्यार करने वाले अनमोल परिवार से किसी भी तरह दूर न हों।
सबसे पहले क्या करें:
हमारे घर में छोटी-मोटी जरूरतों के लिए कीलें, बिना ताले की चाभियां, जंग लगा हुआ लोहा, बरसात की भीगी लकड़ी, कबाड़ के और भी जो रूप होते हैं, पड़े हुये मिल जाते हैं उन्हें बाहर निकालें।
छत पर भी कोई कबाड़, लोहा, लकड़ी आदि नहीं होना चाहिए, घर की छत बिस्तर के सुख वाले ग्रह से संबन्धित माना गया है।
घर में मूर्ति लगाकर, ज्योत जलाकर पूजा पाठ न करें, मंदिर में जाकर आप दोनों प्रकार से पूजा कर सकते हैं, सिर्फ आपको घर में मना किया जा रहा है।
सुबह जल्दी उठकर घर में साफ-सफाई करके पूरे घर में अच्छी लेकिन हल्की खूशबू वाली अगरबत्ती या धूप जला दें, जिससे कि परिवार में सभी लोगों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो सके।
गंदे-फटे बिस्तरों का प्रयोग न करें, हर सप्ताह में एक बार बिस्तरों के लिहाफ आदि बदल दें।
घर में नीले-काले रंग के पेंट आदि न करवाएँ और पर्दे आदि भी इस रंग के प्रयोग न करें।
घर के पूर्वी और उत्तर दिशा को हमेशा साफ रखें, इस दिशा में कभी भी कबाड़ या भारी सामान न रखें।
रोजाना घर की सबसे पहली रोटी में से कुत्ते, कौवे और गाय को हिस्सा जरूर दें, अगर रोटी में से न दे पाएँ तो अपने भोजन में से इनके लिए हिस्से अवश्य निकालें, ये कार्य करने से आपके सहकर्मी और आपके बड़े अधिकारी आपसे खुश रहेंगे तथा जीवनसाथी का सुख भी अच्छा मिलेगा।
घरेलू सुख-शांति के लिए ऐसा करें-
चाँदी के बड़े से बर्तन में गंगाजल भरकर चाँदी का एक चैकोर टुकड़ा डालकर घर में रखें, गंगाजल कभी सूखने न दें।
हर सप्ताह कम से कम एक बार गायों की सेवा जरूर करें, और संभव हो सके तो गली में साफ-सफाई करने वाले को भरपेट शाकाहारी भोजन अपने घर पर ही करवाएँ ।
जीवनसाथी के प्रति वफादारी कभी भी कम न करें।
तला हुआ खाना कम से कम बनाएँ, नारियल, बादाम तलने भुनने से बचें।
शौचालय, स्नानागार आदि बिल्कुल साफ सुथरे रखें, इनमें भी हल्की खूशबू का हमेशा प्रबंध रखें।
रात के समय जूठे बर्तन और गंदे कपड़े भिगोकर न सोएँ, अन्यथा आपके परिवार में एकता कभी नहीं बनेगी, और घर के सभी लोग अपनी- अपनी इच्छा का दबाव बनाकर सब कुछ नष्ट कर देंगे।
जो लोग दिन में मांसाहारी भोजन और शराब का सेवन करते हैं तो वो इसका सेवन सिर्फ रात को ही करें।
बीमारियाँ दूर न होती हों तो क्या करें ?-
हर महीने के किसी भी एक मंगलवार को पूरे महीने में आए रिश्तेदारों और घर के सदस्यों को जोड़ें। उनमंे चार और फालतू जोड़ लें तो जितनी भी संख्या हो उतनी ही आटे मंे गुड़ मिलाकर रोटियाँ तंदूर में लगवाकर कुत्तों और कौवों को डालें, लेकिन ध्यान रहे कि रोटियों मे लोहे का प्रयोग न हो।
हर रोज रात को सिरहाने दो-चार रुपए सिक्के के रूप में रखकर सोयें और सुबह उठाकर सफाई-कर्मचारी को दे दें।
घर के नौकर-चाकर और साथ में काम करने वालों को खुश रखें, उनसे झगड़ा और बहस कभी न करें।
रोजाना सुबह जल्दी उठकर सूर्य की रोशनी से स्नान करें।
सबसे पहले क्या करें:
हमारे घर में छोटी-मोटी जरूरतों के लिए कीलें, बिना ताले की चाभियां, जंग लगा हुआ लोहा, बरसात की भीगी लकड़ी, कबाड़ के और भी जो रूप होते हैं, पड़े हुये मिल जाते हैं उन्हें बाहर निकालें।
छत पर भी कोई कबाड़, लोहा, लकड़ी आदि नहीं होना चाहिए, घर की छत बिस्तर के सुख वाले ग्रह से संबन्धित माना गया है।
घर में मूर्ति लगाकर, ज्योत जलाकर पूजा पाठ न करें, मंदिर में जाकर आप दोनों प्रकार से पूजा कर सकते हैं, सिर्फ आपको घर में मना किया जा रहा है।
सुबह जल्दी उठकर घर में साफ-सफाई करके पूरे घर में अच्छी लेकिन हल्की खूशबू वाली अगरबत्ती या धूप जला दें, जिससे कि परिवार में सभी लोगों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो सके।
गंदे-फटे बिस्तरों का प्रयोग न करें, हर सप्ताह में एक बार बिस्तरों के लिहाफ आदि बदल दें।
घर में नीले-काले रंग के पेंट आदि न करवाएँ और पर्दे आदि भी इस रंग के प्रयोग न करें।
घर के पूर्वी और उत्तर दिशा को हमेशा साफ रखें, इस दिशा में कभी भी कबाड़ या भारी सामान न रखें।
रोजाना घर की सबसे पहली रोटी में से कुत्ते, कौवे और गाय को हिस्सा जरूर दें, अगर रोटी में से न दे पाएँ तो अपने भोजन में से इनके लिए हिस्से अवश्य निकालें, ये कार्य करने से आपके सहकर्मी और आपके बड़े अधिकारी आपसे खुश रहेंगे तथा जीवनसाथी का सुख भी अच्छा मिलेगा।
घरेलू सुख-शांति के लिए ऐसा करें-
चाँदी के बड़े से बर्तन में गंगाजल भरकर चाँदी का एक चैकोर टुकड़ा डालकर घर में रखें, गंगाजल कभी सूखने न दें।
हर सप्ताह कम से कम एक बार गायों की सेवा जरूर करें, और संभव हो सके तो गली में साफ-सफाई करने वाले को भरपेट शाकाहारी भोजन अपने घर पर ही करवाएँ ।
जीवनसाथी के प्रति वफादारी कभी भी कम न करें।
तला हुआ खाना कम से कम बनाएँ, नारियल, बादाम तलने भुनने से बचें।
शौचालय, स्नानागार आदि बिल्कुल साफ सुथरे रखें, इनमें भी हल्की खूशबू का हमेशा प्रबंध रखें।
रात के समय जूठे बर्तन और गंदे कपड़े भिगोकर न सोएँ, अन्यथा आपके परिवार में एकता कभी नहीं बनेगी, और घर के सभी लोग अपनी- अपनी इच्छा का दबाव बनाकर सब कुछ नष्ट कर देंगे।
जो लोग दिन में मांसाहारी भोजन और शराब का सेवन करते हैं तो वो इसका सेवन सिर्फ रात को ही करें।
बीमारियाँ दूर न होती हों तो क्या करें ?-
हर महीने के किसी भी एक मंगलवार को पूरे महीने में आए रिश्तेदारों और घर के सदस्यों को जोड़ें। उनमंे चार और फालतू जोड़ लें तो जितनी भी संख्या हो उतनी ही आटे मंे गुड़ मिलाकर रोटियाँ तंदूर में लगवाकर कुत्तों और कौवों को डालें, लेकिन ध्यान रहे कि रोटियों मे लोहे का प्रयोग न हो।
हर रोज रात को सिरहाने दो-चार रुपए सिक्के के रूप में रखकर सोयें और सुबह उठाकर सफाई-कर्मचारी को दे दें।
घर के नौकर-चाकर और साथ में काम करने वालों को खुश रखें, उनसे झगड़ा और बहस कभी न करें।
रोजाना सुबह जल्दी उठकर सूर्य की रोशनी से स्नान करें।
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