Sunday, 12 April 2015

अक्षय तृतीया महत्व और मान्यतायें


अक्षय तृतीया के रूप में प्रख्यात वैशाख शुक्ल तीज को स्वयं सिद्ध मुहुर्तों में से एक माना जाता है। पौराणिक मान्यताएं इस तिथि में आरंभ किए गए कार्यों को कम से कम प्रयास में ज्यादा से ज्यादा सफलता प्राप्ति का संकेत देती है। समान्यत: अक्षय तृतीया में 42 घड़ी और 21 पल होते हैं। पद्म पुराण, अपरान्ह काल को व्यापक फल देने वाला मानता है। भौतिकता के अनुयायी इस काल को स्वर्ण खरीदने का श्रेष्ठ काल मानते हैं। इसके पीछे शायद इस तिथि की अक्षय प्रकृति ही मुख्य कारण है। सोच यह है कि इस काल में हम यदि घर में स्वर्ण लाएंगे तो अक्षय रूप से स्वर्ण आता रहेगा। अध्ययन या अध्ययन का आरंभ करने के लिए यह काल सर्वश्रेष्ठ है।
यह समय अपनी योग्यता को निखारने और अपनी क्षमता को बढ़ाने के लिए उत्तम है। यह मुहूर्त अपने कर्मों को सही दिशा में प्रोत्साहित करने के लिए श्रेष्ठ माना जाता है। शायद यही मुख्य कारण है कि इस काल को दान इत्यादि के लिए सबसे अच्छा माना जाता है।
दान को वैज्ञानिक तर्कों में उर्जा के रूपांतरण से जोड़ कर देखा जा सकता है। दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तित करने के लिए यह दिवस सर्वश्रेष्ठ है। यदि अक्षय तृतीया सोमवार या रोहिणी नक्षत्र को आए तो इस दिवस की महत्ता हजारों गुणा बढ़ जाती है, ऐसी मान्यता है। इस दिन प्राप्त आशीर्वाद बेहद तीव्र फलदायक माने जाते हैं। भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की गणना युगादि तिथियों में होती है। सतयुग, त्रेता और कलयुग का आरंभ इसी तिथि को हुआ और इसी तिथि को द्वापर युग समाप्त हुआ था।
रेणुका के पुत्र परशुराम और ब्रह्मा के पुत्र अक्षय कुमार का प्राकट्य इसी दिन हुआ था। इस दिन श्वेत पुष्पों से पूजन कल्याणकारी माना जाता है। धन और भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति तथा भौतिक उन्नति के लिए इस दिन का विशेष महत्व है। धन प्राप्ति के मंत्र, अनुष्ठान व उपासना बेहद प्रभावी होते हैं। स्वर्ण, रजत, आभूषण, वस्त्र, वाहन और संपत्ति के क्रय के लिए मान्यताओं ने इस दिन को विशेष बताया और बनाया है। बिना पंचांग देखे इस दिन को श्रेष्ठ मुहुर्तों में शुमार किया जाता है। लोक भाषाओं में इसे 'आखातीज, 'अखाती और 'अकतीÓ कहा जाता है। पौराणिक कथाओं में आख्यान आता है कि देवताओं को यह तिथि बहुत प्रिय है। इसलिए इसे उत्तम और पवित्र तिथि माना गया है। ये ऐसी तिथि है जिसमें हर घड़ी, हर पल को शुभ माना जाता है। बड़े से बड़े काम की सफलता तय मानी जाती है।
क्यों खास होती है आखा-तीज :
भविष्य पुराण के अनुसार 'अक्षय तृतीया के दिन सतयुग एवं त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था। भगवान विष्णु के 24 अवतारों में भगवान परशुराम, नर-नारायण एवं हयग्रीव आदि तीन अवतार अक्षय तृतीया के दिन ही धरा पर आए। तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के पट भी अक्षय तृतीया को खुलते हैं।
वृंदावन के बांके बिहारी के चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया को होते हैं। वर्ष में साढ़े तीन अक्षय मुहूर्त है, उसमें प्रमुख स्थान 'अक्षय तृतीया का है। ये हैं- चैत्र शुक्ल गुड़ी पड़वा, वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीया सम्पूर्ण दिन, आश्विन शुक्ल विजयादशमी तथा दीपावली की पड़वा का आधा दिन।
ऐसे करें अक्षय तृतीया पर व्रत पूजा :
वैसाख शुक्ल 'तृतीया को अक्षय तृतीया कहते हैं। चूंकि इस दिन किया हुआ जप, तप, ज्ञान तथा दान अक्षय फल देने वाला होता है अत: इसे 'अक्षय तृतीया कहते हैं।
- व्रत के दिन ब्रह्म मुहूर्त में सोकर उठें।
- घर की सफाई व नित्य कर्म से निवृत्त होकर पवित्र या शुद्ध जल से स्नान करें।
- घर में ही किसी पवित्र स्थान पर भगवान विष्णु की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।
मंत्र से संकल्प करें -
ममाखिलपापक्षयपूर्वक सकल शुभ फल प्राप्तये
भगवत्प्रीतिकामनया देवत्रयपूजनमहं करिष्ये।
संकल्प करके भगवान विष्णु को पंचामृत से स्नान कराएं। षोडशोपचार विधि से भगवान विष्णु का पूजन करें। नैवेद्य में जौ या गेहूं का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पण करें। अगर हो सके तो विष्णु सहस्रनाम का जप करें। अंत में तुलसी जल चढ़ाकर भक्तिपूर्वक आरती करनी चाहिए। इसके पश्चात उपवास रहें।
लोक अंचलों में ऐसे मनायी जाती है 'आखा तीज:
अक्षय तृतीया का शास्त्रों में तो बड़ा महत्व है ही और लोग शास्त्रों में उल्लेखित पद्धति के अनुसार पूजन करते हैं वहीं इसे मनाने के लिए कई तरह की लोक परंपराएं भी हैं। माना जाता है कि इस दिन पवित्र सरोवरों और नदियों में डुबकी लगाने से मन को शांति मिलती है साथ ही बुरे कर्मों का प्रभाव कम होता है। इस दिन नदियों के घाटों पर जन सैलाब उमड़ पड़ता है। साथ ही ऐसी मान्यता है कि इस दिन दिया गया दान स्वर्ग में दस हजार गुना होकर मिलता है और भगवान विष्णु के धाम की प्राप्ति होती है। आंचलिक रीति-रिवाजों के अनुसार घरों में सुबह से ही इस पर्व का आनंद दिखाई देता है। बाजार में मिट्टी के घड़ों, इमली और खरबूजों की दुकाने सज जाती है। आज के दिन जल और इमली के शर्बत से भरे कुंभ का दान दिया जाता है। भगवान के सामने नए मिट्टी के नए कुंभ को स्थापित किया जाता है। इसे लीप-पोतकर मंगल स्वस्तिक बनाकर हरे आम्र पत्र और पान के पत्तों से सजाया जाता है। जल से भरे इस कलश के भीतर पैसे और अखंड सुपारी डाली जाती है। पलाश के पत्तों के दोने से इसे ढका जाता है। दोने में इमली व गुड़ से बना शर्बत भरा जाता है। इसका भोग भगवान को लगा कर सबको बांटा जाता है।
खास बात ये है इस कलश को मिट्टी के चार ढेलों पर रखा जाता है। ये चार ढेले आषाढ़, श्रावण, भादों और क्वार मास के प्रतीक हैं। माना जाता है कि जिस मास का ढेला अधिक गीला होता है उस मास में अधिक वर्षा होगी है। देश के किसी हिस्से में मिट्टी के जल से भरे नए घड़े पर खरबूज रखकर दान किया जाता है तो कहीं घड़े के साथ सत्तू या इमली-गुड़ का शर्बत दान देते हैं। इस त्यौहार पर दान की सामग्री का वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो तेज धूप, ऊंचे तापमान और लू के थपेड़ों के बीच खरबूज, सत्तू और इमली का शर्बत और घड़े का शीतल जल राहत दिलाता है। लोक भाषाओं के 'आखातीज, 'अखाती और 'अकाती की हर घड़ी, हर पल को शुभ माना जाता है।
तीज पर सोने की शुभ खरीदारी:
अक्षय तृतीया पर सोना खरीदना अत्यंत शुभदायी माना जाता है और इसलिए सोना खरीदने की परंपरा भी इस त्यौहार से जुड़ी हुई हैं। लोग ठोस सोने के साथ ही सोने के आभूषण भी इस तिथि को खरीदते हैं। बदलते जमाने के साथ ही यह त्यौहार पर भी आधुनिकता की छाप दिखने लगी है। पुराण, पंडित और ज्योतिषी तो सैकड़ो सालों से इस दिन सोना खरीदने की सलाह देते आ रहे हैं और अब इंवेस्टमेंट अडवाईजर्स भी सोना खरीदने की राय दे रहे हैं। इसी कारण सोना खरीदने के साथ ही इस दिन लोग गोल्ड एक्सचेंज ट्रैडेड फंड के जरिए डीमैट फार्मेंट में सोने की खरीदारी करने लगे हैं और सोने को बतौर निवेश देखने लगे हैं। अक्षय तृतीया को स्वर्ण युग की आरंभ तिथि भी मानी गई है। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि इस दिन खरीदा और धारण किए गए सोने और चांदी के गहने अखंड सौभाग्य का प्रतीक माने गए हैं। मान्यताओं के मुताबिक सोने और चांदी के आभूषण खरीदने से घर में बरकत ही बरकत आती है। अक्षय तृतीया के मौके पर सोना खरीदना बड़ा ही शुभ माना जाता है। दरअसल सोने में मां लक्ष्मी का वास माना जाता है। इसलिए ऐसी मान्यता है कि इस दिन सोना खरीदने के शुभ फल का भी क्षय नहीं होता अर्थात मां लक्ष्मी उस सोने के रूप में उस घर में स्थिरा हो जाती है। जिससे घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है। इसलिए अक्षय तृतीया के दिन सोना खरीदने और पहनने की भी परंपरा है।
अक्षय तृतीया पर शादी का मुहूर्त:
ऐसा माना जाता है कि इस दिन जिनका परिणय होता है, उनका सौभाग्य अखंड रहता है। इस दिन महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए किए गए अनुष्ठान का अखंड पुण्य मिलता है। शास्त्रों के अनुसार अक्षय तृतीया को स्वयंसिद्ध मुहूर्त माना गया है। अक्षय तृतीया पर सूर्यदेवता अपनी उच्च राशि मेष में रहेंगे और वे इस दिन के स्वामी होंगे। रात्रि के स्वामी चंद्रमा भी अपनी उच्च राशि वृषभ में रहेंगे। शुक्र का वृषभ राशि में रहने से 27 तरह के योगों में अक्षय तृतीया का सौभाग्य योग रहेगा। यह अपने नाम के अनुसार ही फलदायी होगा। सूर्य के साथ मंगल कार्यों के स्वामी बृहस्पति अपनी मित्र राशि मेष में होंगे। ऐसी स्थिति प्रत्येक 12 वर्ष बाद बनती है।
दान का खास महत्व है:
पुराणों के अनुसार अक्षय तृतीया पर दान-धर्म करने वाले व्यक्ति को वैकुंठ धाम में जगह मिलती है। इसीलिए इस दिन को दान का महापर्व भी माना जाता है। इस दिन नए कार्य शुरू करने के लिए इस तिथि को शुभ माना गया है। भगवान विष्णु को सत्तू का भोग लगाया जाता है और प्रसाद में इसे ही बांटा जाता है। अक्षय तृतीया के दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस दिन स्नान करके जौ का हवन, जौ का दान, सत्तू को खाने से मनुष्य के सब पापों का नाश होता है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति पर चंदन या इत्र का लेपन भी किया जाता है।

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सच्चा दान


जिसको जो चीज अच्छी लगे उसको वह चीज दे देना, यही तो दान है? नहीं, किसी की रुचि की वस्तु देना दान है। या, जिसके देने से अपना और लेने वाले का दोनों का हित होता है वही दान है। सुनो, मैं तुम्हें एक छोटी-सी कथा सुनाती हूँ।
पूर्व विदेह के पुष्कलावती देश में पुंडरीकिणी नाम की नगरी थी। किसी समय वहाँ पर राजा मेघरथ राज्य करते थे। एक दिन वे आष्टाह्निक पर्व में उपवास करते हुए महापूजा करके धर्म का उपदेश दे रहे थे कि इतने में काँपता हुआ एक कबूतर वहाँ आया और पीछे बड़े ही वेग से एक गिद्ध आया। कबूतर राजा के पास बैठ गया। तब गिद्ध ने कहा- ''राजन! मैं अत्यधिक भूख की वेदना से आकुल हो रहा हूँ, अत: आप यह कबूतर मुझे दे दीजिये। हे दानवीर! यदि आप यह कबूतर मुझे नहीं देंगे तो मेरे प्राण अभी आपके सामने ही निकल जायेंगे। मनुष्य की वाणी में गिद्ध को बोलते देखकर युवराज दृढऱथ ने पूछा- ''हे देव! कहिये इस गिद्ध पक्षी के बोलने में क्या रहस्य है? राजा मेघरथ ने कहा, सुनो- इस जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में पद्मिनी खेट नाम का एक नगर है। वहाँ के धनमित्र और नन्दिषेण नाम के दो भाई धन के निमित्त से आपस में लडकर मर गये, सो ये कबूतर और गिद्ध पक्षी हो गये हैं। इस गिद्ध के शरीर में देव आ गया है सो यह ऐसे बोल रहा है। वह कौन है? सो भी सुनो- ईशानेन्द्र ने अपनी सभा में मेरी स्तुति करते हुए यह कहा कि पृथ्वी पर मेघरथ से बढ़कर दूसरा कोई दाता नहीं है। मेरी ऐसी स्तुति सुनकर परीक्षा करने के लिये एक देव वहाँ से आकर इसके शरीर में प्रविष्ट होकर बोल रहा है। किन्तु हे भाई! दान का लक्षण आप सभी को मैं समझाता हूँ, सो चित्त स्थिर करके उसे सुनो। स्व और पर के अनुग्रह के लिये जो वस्तु दी जाती है, वही दान कहलाता है।
जो शक्ति, विज्ञान, श्रद्धा आदि गुणों से युक्त होता है वह दाता कहलाता है और जो वस्तु देने वाले तथा लेने वाले, दोनों के गुणों को बढ़ाती है उसे देय कहते हैं। ये देय आहार, औषधि, शास्त्र तथा समस्त प्राणियों पर दया करना, इस तरह से चार प्रकार का है, ऐसा श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है। अत: ये चारों ही शुद्ध देय हैं तथा क्रम से मोक्ष के साधन हैं। जो मोक्षमार्ग में स्थित हैं, अपने आपकी तथा दूसरों की संसार-भ्रमण से रक्षा करते हैं, वे पात्र कहलाते हैं। इससे अतिरिक्त माँस आदि पदार्थ देय नहीं हैं। इनकी इच्छा करने वाला पात्र नहीं है और इनका देने वाला दाता नहीं है। माँसादि वस्तु के पात्र और दाता ये दोनों तो नरक के अधिकारी हैं। कहने का सारांश यह है कि यह गिद्ध तो दान का पात्र नहीं है और कबूतर देने योग्य वस्तु नहीं है।
इस प्रकार से मेघरथ की वाणी सुनकर वह देव अपना असली रूप प्रगट कर राजा की स्तुति करने लगा और कहने लगा कि हे राजन! तुम अवश्य ही दान के विभाग को जानने वाले दानशूर हो, ऐसी स्तुति करके वह चला गया। उन गिद्ध और कबूतर दोनों पक्षियों ने भी मेघरथ की कही सब बातें समझीं और आयु के अन्त में शरीर छोड़कर सुरूप तथा अतिरूप नाम के व्यंतर देव हो गये। तत्क्षण ही वे दोनों देव राजा मेघरथ के पास आकर स्तुति-वन्दना करके कहने लगे-हे पूज्य! आपके प्रसाद से ही हम दोनों कुयोनि से निकल सके हैं अत: आपका उपकार हमें सदा ही स्मरण करने योग्य है।

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धर्म-अर्थ-काम जीवन के तीन लौकिक पुरुषार्थ


भारतीय संस्कृति का मूल धर्म ही है। बल्कि कहना चाहिए कि भारतीय संस्कृति का प्राण धर्म है। दूसरे देशों की संस्कृति में जहां भौतिक तत्व की प्रधानता है, वहीं भारतीय संस्कृति में धर्म की प्रधानता है। इसलिए वह आध्यात्मिक संस्कृति है। धर्म शब्द को परिभाषा में बांधना कठिन ही नहीं बल्कि दुष्कर है। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की धातु से हुई है। जिसका अर्थ है-धारण करना।
धारणात् धर्ममित्याहुरू धर्मो धारयति प्रजा:
अर्थात् धारण करने वाले को धर्म कहते हैं, धर्म प्रजा को धारण करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म व्यक्ति ही नहीं धारण करता बल्कि स्वयं धर्म भी व्यक्ति को धारण किए हुए है।
पंचतंत्र में धर्म की परिभाषा मनुष्य को अन्य जीवधारियों से अलग करने वाले तत्व के रूप में की गई है। खाना, सोना, भय और संतानोत्पति मनुष्य और पशुओं में एक समान है। इन क्रियाओं के करने में मनुष्य और पशु दोनों एक ही स्तर पर हैं। लेकिन धर्म मनुष्य को अन्य जीवधारियों से अलग करता है। यदि मनुष्य से धर्म तत्व को अलग कर दिया जाए तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है। पंचतंत्र का श्लोक उद्धृत है-
आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणम्।
धर्मों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना: पशुभिर्समाना॥
वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद धर्म को वैशेषिक सूत्र में इस प्रकार परिभाषित करते हैं-
यतोभ्युदयनिरूश्रेयस सिद्धरू स धर्म:।
अर्थात् जिससे अभ्युदय (सांसारिक सुख) और निरूश्रेयस (आध्यात्मिक कल्याण) प्राप्त हो, वही धर्म है। धर्म का यह लक्षण स्पष्ट रूप से भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों में समन्वय स्थापित करता है। निश्चित ही जो धर्म आध्यात्मिकता की ओर ध्यान न देकर केवल भौतिक उन्नति पर ही अपना ध्यान रखता है, वह एकांगी है और धर्म नहीं है।
मनुस्मृति में धर्म के चार स्रोत बताए गए हैं - श्रुति, स्मृति, सदाचार तथा जो अपनी आत्मा को प्रिय लगे। धर्म में सर्व का कल्याण निहित है। सर्व के कल्याण से इसमें नैतिकता, आदर्श और मूल्य समाहित हो गए हैं। गौतम ने अपने धर्मसूत्र में कहा है-
अथाष्टा वात्मार्गुणारू दया सर्वभूतेषुरू क्षान्तिरनसूया शौच मता मासौ मंगलमय कार्यण्य स्पृहेति।
अर्थात् सब प्राणियों पर दया, क्षमा, अनुसूया, शुचिता, अतिश्रम वर्जन, शुभ में प्रवृत्ति, दानशीलता तथा निलोभता, ये आठ आत्मगुण हैं अर्थात धर्म हैं।
उपनिषदों में कहा गया है कि धर्म समस्त विश्व का आधार है, क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति के आचरण की वे सभी बुराइयां दूर हो जाती हैं, जो विश्व कल्याण में बाधक हैं। कौटिल्य ने धर्म को वह शाश्वत सत्य माना है जो सारे संसार पर शासन करता है। बौद्धधर्म के अनुसार अच्छाई तथा बुराई, सत्य और असत्य में धर्म ही अंतर स्पष्ट करता है।
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बतलाए गए हैं। मनु ने लिखा है-
धृति: क्षमा दमोस्तेयं
शौचमिन्द्रिनयनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं
धर्म लक्षणम्॥
अर्थात् धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, आंतरिक व बाह्य शुद्धि, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, शिक्षा, सत्य और क्रोध न करना धर्म के दस लक्षण हैं।
महाभारत में धर्म को अर्थ और काम का स्रोत माना गया है -
उध्र्वबाहुर्विरौम्येष, न च कश्चित शृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च, स किमर्थ न सेव्यते॥
अर्थात् मैं बाहों को उठाकर जोर-शोर से चिल्ला रहा हूँ, किंतु मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से ही अर्थ और काम प्राप्त होते हैं, फिर उस धर्म का किसलिए पालन नहीं किया जाता?
गीता में भी धर्म के महत्व को स्वीकार किया गया है। गीता के अठारहवें अध्याय में कृष्ण अर्जुन को धर्म का महत्व बतलाते हुए कहते हैं-
श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥
अर्थात गुण रहित होने पर भी स्वधर्म (जो अपना विवेक कहे) पालन करना अच्छा है, चाहे दूसरे का धर्म (विवेक) कितना भी अच्छा क्यों न हो। यदि मनुष्य अपने धर्म का पालन करता है तो वह पाप से बचा रहता है। गीता तो यहां तक कह देती है कि अपने धर्म (स्वविवेक) के पालन के लिए प्राण भी गवां देना दूसरे के धर्म(किसी अन्य की समझ से चलने से) पालन से अच्छा है, क्योंकि दूसरे का धर्म भयावह (अपरिचित) है।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मों भयावह:।।
धर्म के इस महत्व को पुराणों में भी स्वीकार किया गया है। पुराणों का कहना है कि अधर्मी (अपने विवेक से च्युत) पुरुष यदि काम और अर्थ संबंधी क्रियाएं करता है तो उसका फल बांझ स्त्री के पुत्र जैसा होता है अर्थात् उनसे किसी प्रकार के कल्याण की सिद्धि नहीं होती।
अर्थ: हिंदू जीवन दर्शन में अर्थ को दूसरा पुरुषार्थ कहा गया है। अर्थ का शाब्दिक अर्थ वस्तु या पदार्थ है। इसमें वे सभी भौतिक वस्तुएं आती हैं जिन्हें जीवन यापन के लिए मनुष्य अपने अधिकार-क्षेत्र में रखना चाहता है। अर्थ से ही मनुष्य अपने उदर की पूर्ति करता है। कत्र्तव्य-निर्वहण में अर्थ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अर्थ में केवल धन या मुद्रा ही नहीं बल्कि वे सभी चीजें शामिल हैं जिनसे भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। भारत में कभी भी अर्थ को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा गया। बल्कि इसे धर्म का साधन कहा गया है।
संस्कृत में एक श्लोक है-धनाद् धर्म अर्थात् धन से धर्म की सिद्धि होती है। भारतीय धर्मशास्त्रों में धर्म-संबंधी ही चर्चा नहीं है, बल्कि उनमें अर्थनीति, राजनीति, दंडनीति आदि विषयों पर भी चर्चा हुई है। समाज व्यवस्था में अर्थ का नियोजन बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्रÓ में बहुत से विषयों जैसे राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा, मंत्री-मंडल, जासूस, राजदूत, निवास, शासन-व्यवस्था, दुष्टों की रोकथाम, कानून, वस्तुओं में मिलावट, मूल्य-नियंत्रण, झूठे नाप-तौल को रोकने के उपाय, कूटनीति, युद्ध-संचालन, गुप्त-विद्या आदि बहुत से विषयों पर सुलझे हुए विचार दिए हैं, जो उसके अर्थशास्त्र से जुड़े हुए हैं। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी ये विचार न केवल व्यवहारिक बल्कि समीचीन भी हैं।
मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान अर्थ से ही पूरी होती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और सुविधा भी अर्थ से ही पूरी होती हैं। इसी लिए भारतीय धर्मशास्त्रों में मनुष्य की दूसरी अवस्था (गृहस्थ आश्रम) में धन कमाना मनुष्य का लक्ष्य कहा गया है। एक श्लोक में कहा गया है कि जिस मनुष्य ने अपनी पहली अवस्था(ब्रह्मचर्य आश्रम) में विद्या नहीं ग्रहण की, दूसरी अवस्था (गृहस्थ आश्रम) में धन नहीं अर्जित किया, तीसरी अवस्था (वानप्रस्थ आश्रम) में तप नहीं किया, वह चौथी अवस्था(संन्यास आश्रम) में क्या कर सकेगा अर्थात् उसका जन्म व्यर्थ है-
आद्ये वयसि नाद्योतं द्वितीये नार्जिते धनम्।
तृतीय न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति ॥
द्वितीय अवस्था में धन कमाना इसलिए जरुरी है क्योंकि इस अवस्था में व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। उसका परिवार बनता है। परिवार की आवश्यकताओं के लिए धन का होना जरुरी है। इस तरह से धर्म (कत्र्तव्य) और काम की पूर्ति का साधन अर्थ है। धर्म समाज को धारण करता है और काम समाज में प्रवाह बनाए रखता है।
अर्थ को भारतीय संस्कृति में वहीं तक महत्व प्राप्त है, जहां तक वह मनुष्य को शिष्ट और सभ्य बनाए अर्थात उसके विवेक में सहायक हो। मनुष्य के जीवन के लिए अर्थ है, मनुष्य स्वयं अर्थ के लिए नहीं। इसलिए भारतीय संस्कृति में धन के एकत्रीकरण को महत्व नहीं दिया गया है। धन को साध्य मान लेने पर समाज का स्वाभाविक पतन होने लगता है। इसलिए संभवत: हिंदू-दर्शन में दान की परम्परा है।
काम: तीसरा पुरुषार्थ काम है। इसका शाब्दिक अर्थ है-'इच्छा। पुरुषार्थ के रूप में काम से अभिप्राय: मनुष्य की उन सभी शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा कलात्मक इच्छाओं की पूर्ति से है जो उसके संपूर्ण विकास और जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करने में सहायक हैं। इच्छा सभी कार्यों की प्रेरक शक्ति होती है। इस प्रकार हर कार्य के पीछे काम का होना एक अनिवार्य शर्त है। इस काम को भारतीय मनीषी ने तीन श्रेणियों में रखा है-सात्विक, राजसिक और तामसिक। सात्विक काम फल की प्रत्याशा के बिना स्वधर्मानुसार (विवेकानुसार) संपन्न किया जाता है। इस तरह का काम धर्मसम्मत होता है। इसीलिए श्री कृष्ण गीता के सातवें अध्याय के 11वें श्लोक में कहते हैं-
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ॥
अर्थात मैं बलवानों का कामना और आसक्ति से रहित बल(अर्थात् सामथ्र्य) हूँ तथा सभी प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम हूँ। राजसिक काम विषय, वासना और इंद्रिय संयोग से पैदा होने वाला अहंकारयुक्त और फल की इच्छा से किया जाने वाला काम है। इस प्रकार का काम भोगते समय तो सुखकारी प्रतीत होता है, किंतु परिणाम दुखकारी होता है। तामसिक काम में मनुष्य मोहपाश में बंधा होता है, वह न तो वर्तमान का और न ही भविष्य का कोई विचार करता है। आलस्य, निद्रा और प्रमाद इस काम के जनक कहे गए हैं। इस प्रकार का काम न तो भोगते समय सुख देता है और न ही इसका परिणाम सुखकारी होता है। इन तीनों कामों में सात्विक काम श्रेष्ठ है, जो भोगते समय विषकारी प्रतीत हो सकता है, लेकिन परिणाम सदैव आनंददायी और मुक्तिकारक होता है। अन्य काम बंधन बनते हैं। यही कारण है कि भारतीय मनीषा ने यह स्वीकार किया है कि यौन संबंधी इच्छाओं की तृप्ति जीवन का एक सहज, स्वाभाविक या मूल प्रवृत्यात्मक अंग है। इसकी संतुष्टि के लिए विवाह का विधान है।
गीता में इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए काम को तृप्त करने के लिए कहा गया है। गीता के दूसरे अध्याय के 62वें और 63वें श्लोक में कहा गया है कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की इन विषयों के साथ आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से काम पैदा होता है और काम की तृप्ति न होने से क्रोध पैदा होता है। क्रोध से मोह पैदा होता है, मोह से स्मृति-भंग, अविवेक पैदा होता है। अविवेक से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि नष्ट हो जाने से मनुष्य नष्ट हो जाता है अर्थात् पुरुषार्थ के योग्य नहीं रहता।

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शनि है राजा!!!


आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से ही अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पहुंचे तो उनका पुरुषार्थ देख कर शनिदेव ने उनसे वरदान मांगने के लिये कहा। राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर उन्हे प्रसन्न किया। पदम पुराण में इस प्रसंग का सविस्तार वर्णन है।
ब्रह्मैर्वत पुराण में शनिदेव ने जगत जननी माँ पार्वती को बताया है कि मैं सौ जन्मो तक जातक की करनी (कर्मो) का फल भुगतान करता हूँ। एक बार जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनिदेव से पूंछा कि तुम क्यों मनुष्यों को दारूण दु:ख देते हो, क्यों सृष्टि के सभी जीव तुम्हारे प्रभाव से प्रताडित रहते हैं तो शनिदेव ने उत्तर दिया कि ''मातेश्वरी, इसमें मेरा किंचित भी कोई दोष नहीं है, परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है, इसलिये जो भी तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है तो उसे दंडित करना मेरा कर्म है।
एक आख्यान और मिलता है कि किस प्रकार से ऋषि अगस्तय् ने जब शनिदेव से प्रार्थना की थी तो उन्होंने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी। जिस किसी ने भी अन्याय किया, उनको ही उन्होंने दंड दिया। चाहे वह भगवान शिव की अर्धांगिनी सती रही हों, जिन्होंने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से झूठ बोलकर अपनी सफाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की यज्ञ में हवन कुंड मे जल कर मरने के लिये शनि देव ने विवश कर दिया अथवा सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र रहे हों, जिनके दान देने के अभिमान के कारण उन्हें बाजार में बिकना पड़ा और शमशान की रखवाली तक करनी पड़ी। राजा नल और दमयन्ती को ही ले लीजिये जिनके तुच्छ पापकर्मों की सजा के लिये उन्हें दर-दर का होकर भटकना पड़ा। फिर साधारण मनुष्य के द्वारा जो भी मनसा, वाचा, कर्मणा, पापकर्म कर दिया जाता है वह चाहे जानबूझकर किया गया कर्म हो अथवा अनजाने में, उसे उस किए गये कर्म का भुगतना तो करना पड़ेगा ही।
मत्स्य पुराण में शनि देव का शरीर इन्द्र कांति की नीलमणि जैसा बताया गया है। वे गिद्ध पर सवार है, हाथ मे धनुष बाण है। एक हाथ से वर मुद्रा भी है। शनिदेव का विकराल रूप जहाँ पापियों के लिए भयावह हैं, वहीं सज्जनों के लिए उनकी वर मुद्रा अभय एवं सुख देने वाली है। कर्माधीश होने के नाते शनिदेव पापियों के लिये हमेशा ही संहारक हैं।
शनि मुख्य रूप से शारीरिक श्रम से संबंधित व्यवसायों तथा इनके साथ जुड़े व्यक्तियों के कारक होते हैं जैसे कि श्रम उद्योगों में काम करने वाले श्रमिक, इमारतों का निर्माण कार्य तथा इसमें काम करने वाले श्रमिक, निर्माण कार्यों में प्रयोग होने वाले भारी वाहन चलाने वाले चालक तथा इमारतों, सड़कों तथा पुलों के निर्माण में प्रयोग होने वाली मशीनरी और उस मशीनरी को चलाने वाले लोग। इसके अतिरिक्त शनि जमीन के क्रय-विक्रय के व्यवसाय, इमारतों को बनाने या बना कर बेचने के व्यवसाय तथा ऐसे ही अन्य व्यवसायों, होटल में वेटर का काम करने वाले लोगों, द्वारपालों, भिखारियों, अंधें, लंगड़े व्यक्तियों, कसाईयों, लकड़ी का काम करने वाले लोगों, नेताओं, वैज्ञानिकों, अन्वेषकों, अनुसंधान क्षेत्र में काम करने वाले लोगों, इंजीनियरों, न्यायाधीशों, पराशक्तियों का ज्ञान रखने वाले लोगों तथा अन्य कई प्रकार के क्षेत्रों तथा उनसे जुड़े व्यक्तियों के कारक होते हैं।
शनि मनुष्य के शरीर में मुख्य रूप से वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा ज्योतिषियों का एक वर्ग इन्हें तटस्थ अथवा नपुंसक ग्रह मानता है, जबकि दूसरा वर्ग इन्हें पुरुष ग्रह मानता है। तुला राशि में स्थित होने से शनि को सर्वाधिक बल प्राप्त होता है तथा इस राशि में स्थित शनि को उच्च का शनि भी कहा जाता है। तुला के अतिरिक्त शनि को मकर तथा कुंभ में स्थित होने से भी अतिरिक्त बल प्राप्त होता है जो शनि की अपनी राशियां हैं। शनि के प्रबल प्रभाव वाले जातक आमतौर पर इंजीनियर, जज, वकील, आईटी क्षेत्र में काम करने वाले लोग, रिएल एस्टेट का काम करने वाले लोग, पराशक्तियों के क्षेत्रों में काम करने वाले लोग तथा शनि ग्रह के कारक अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग ही होते हैं। शनि के जातक आमतौर पर अनुशासित, मेहनती तथा अपने काम पर ध्यान केंद्रित रखने वाले होते हैं।
शनि पर किन्ही विशेष बुरे ग्रहों का प्रभाव जातक को जोड़ों के दर्द, गठिया, लकवा, हड्डियों से संबंध्ति बीमारियों से पीडि़त कर सकता है। कुंडली में शनि पर किन्ही विशेष ग्रहों का प्रबल प्रभाव सामान्य सेहत तथा आयु पर भी विपरीत प्रभाव डाल सकता है।

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रतनपुर का सिद्धशक्ति पीठ:



भारत में देवी माता के अनेक सिद्ध मंदिर हैं, जिनमें माता के 51 शक्तिपीठ सदा से ही श्रद्धालुओं के लिए विशेष धार्मिक महत्व के रहे हैं। इन्हीं में से एक है छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में रतनपुर स्थित माँ महामाया देवी मंदिर। रतनपुर का महामाया मंदिर इन्हीं शक्तिपीठों में से एक है। शक्ति पीठों की स्थापना से संबंधित एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। शक्तिपीठ उन पूजा स्थलों को कहते हैं, जहां सती के अंग गिरे थे। पुराणों के अनुसार, पिता दक्ष के यज्ञ में अपमानित हुई सती ने योगबल द्वारा अपने प्राण त्याग दिए थे। सती की मृत्यु से व्यथित भगवान शिव उनके मृत शरीर को लेकर तांडव करते हुए ब्रह्मांड में भटकते रहे। इस समय माता के अंग जहां-जहां गिरे, वहीं शक्तिपीठ बन गए। इन्हीं स्थानों को शक्तिपीठ रूप में मान्यता मिली। महामाया मंदिर में माता का स्कंध गिरा था। इसीलिए इस स्थल को माता के 51 शक्तिपीठों में शामिल किया गया। बिलासपुर- कोरबा मुख्य मार्ग पर 25 कि.मी. पर स्थित आदिशक्ति महामाया देवी की पवित्र पौराणिक नगरी रतनपुर का इतिहास प्राचीन एवं गौरवशाली हैं। पौराणिक ग्रंथ महाभारत, जैमिनी पुराण आदि में इसे राजधानी होने का गौरव प्राप्त हैं। त्रिपुरी के कलचुरियो ने रतनपुर को अपनी राजधानी बनाकर दीर्घकाल तक छत्तीसगढ़ में शासन किया। इसे चर्तुयुगी नगरी भी कहा जाता हैं जिसका तात्पर्य है कि इसका अस्तित्व चारों युगों में विद्यमान रहा है। राजा रत्नदेव प्रथम ने मणिपुर नामक गांव को रतनपुर नाम देकर अपनी राजधानी बनाया।

श्री आदिशक्ति माँ महामाया देवी: लगभग 1000 वर्ष प्राचीन महामाया देवी का दिव्य एवं भव्य मंदिर दर्शनीय हैं। इसका निर्माण राजा रत्नदेव प्रथम द्वारा 11वी शताब्दी में कराया गया था। 1045 ई में राजा रत्नदेव प्रथम, मणिपुर नामक गांव में शिकार के बाद जहां रात्रि विश्राम एक वट वृक्ष पर किया, अर्धरात्रि में जब राजा की आँख खुली तब उन्होंने वट वृक्ष के नीचे अलौकिक प्रकाश देखा, यह देखकर चमत्कृत हो गये कि वहां आदिशक्ति श्री महामाया देवी की सभा लगी हुई हैं। इतना देखकर वे अपनी चेतना खो बैठे। सुबह होने पर वे अपनी राज -धानी तुम्मान खोल लौट गये और रतनपुर को अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया तथा 1050 ई में श्री महामाया देवी का भव्य मंदिर निर्मित कराया। मंदिर के भीतर महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी की कलात्मक प्रतिमांए विराजमान हैं। मान्यता है कि इस मंदिर में यंत्र-मंत्र का केन्द्र रहा होगा तथा रतनपुर में देवी सती का दाहिना स्कंध गिरा था भगवान शिव ने स्वयं आविर्भूत होकर उसे कौमारी शक्ति पीठ का नाम दिया था। जिसके कारण माँ के दर्शन से कुंवारी कन्याओं को सौभाग्य की प्राप्ति होती हैं। यह जागृत पीठ हैं जहां भक्तों की समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं। नवरात्रि पर्व पर यहां की छटा दर्शनीय होती हैं। इस अवसर पर श्रद्धालुओं द्वारा यहाँ हजारो की संख्या में मनोकामना ज्योति कलश प्रज्जवलित किये जाते हैं।
रतनपुर में हनुमानजी का पुरूष रूप प्राप्त होता है। आपने हनुमान जी को आज तक सिर्फ पुरूष रूप में देखा है तो एक हनुमान मंदिर हैं जहां हनुमान नारी रूप में हैं। हनुमान जी का यह मंदिर छत्तीसगढ़ के रतनपुर नामक स्थान में स्थित है। यह संसार का इकलौता मंदिर है जहां हनुमान जी की नारी प्रतिमा की पूजा होती है। माना जाता है कि हनुमान जी की यह प्रतिमा दस हजार साल पुरानी है। जो भी भक्त श्रद्धा भाव से इस हनुमान का दर्शन करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।
कहां से आए नारी रूपी हनुमान: इस क्षेत्र के लोग नारी रूपी हनुमान जी के विषय में कथा कहते हैं कि प्राचीन काल में रतनपुर के एक राजा थे पृथ्वी देवजू। राजा हनुमान जी के भक्त थे। राजा को एक बार कुष्ट रोग हो गया। इससे राजा जीवन से निराश हो चुके थे। एक रात हनुमान जी राजा के सपने में आए और मंदिर बनवाने के लिए कहा। मंदिर निर्माण का काम जब पूरा हो गया तब हनुमान जी फिर से राज के सपने में आए और अपनी प्रतिमा को महामाया कुण्ड से निकालकर मंदिर में स्थापित करने का आदेश दिया। हनुमान जी द्वारा बताये स्थान से राजा ने प्रतिमा को लाकर मंदिर में स्थापित कर दिया।
मूर्ति की विशेषता: हनुमान जी की यह प्रतिमा दक्षिणमुखी है। इनके बायें कंधे पर श्री राम और दायें पर लक्ष्मण जी विराजमान हैं। हनुमान जी के पैरों के नीचे दो राक्षस हैं। मान्यता है कि हनुमान की प्रतिमा को स्थापित करने के बाद राजा ने कुष्ट रोग से मुक्ति एवं लोगों की मुराद पूरी करने की प्रार्थना की। हनुमान जी की कृपा से राजा रोग मुक्त हो गया और राजा की दूसरी इच्छा को पूरी करने के लिए हनुमान जी सालों से लोगों की मनोकामना पूरी करते आ रहे हैं।

रतनपुर में स्थित अन्य प्रसिद्ध देवस्थली-
श्री काल भैरवी मंदिर: यहां पर काल भैरव की करीब 9 फुट ऊँची भव्य प्रतिमा विराजमान हैं। कौमारी शक्ति पीठ होने के कारण कालांतर में तंत्र साधना का केन्द्र था। बाबा ज्ञानगिरी ने इस मंदिर का निर्माण कराया था।

श्री खंडोबा मंदिर: यहां शिव तथा भवानी की अश्वारोही प्रतिमा विराजमान है। इस मंदिर का निर्माण मराठा नरेश बिंबाजी भोसले की रानी ने अपने भतीजे खांडो जी के स्मृति में बनवाया था। किवदंती है कि मणि मल्ल नामक दैत्यों के संहार के लिये भगवान शिव ने मार्तण्ड भैरव का रूप बनाकर सहयाद्री पर्वत पर उनका संहार किया था। खंडोबा मंदिर के पाश्र्व में प्राचीन एवं विशाल सरोवर दुलहरा तालाब स्थित हैं।

श्री महालक्ष्मी देवी मंदिर: कोटा मुख्य मार्ग पर इकबीरा पहाड़ी पर श्री महालक्ष्मी देवी का ऐतिहासिक मंदिर स्थित हैं। इसका निर्माण राजा रत्नदेव तृतीय के प्रधानमंत्री गंगाधर ने करवाया था। इसका स्थानीय नाम लखनीदेवी मंदिर भी हैं। यहाँ नवरात्रि के पर्व पर मंगल जवारा बोया जाता हैं तथा धार्मिक अनुष्ठान होते हैं।

जूना शहर तथा बादल महल: लखनी देवी मंदिर के आगे मुख्य मार्ग पर ऐतिहासिक जूना शहर नामक बस्ती स्थित है इसे राजा राजसिंह ने राजपुर के नाम से बसाया था। साथ ही उन्होंने यहाँ अपनी प्रिय रानी कजरा देवी के लिए यह बेजोड़ महल बनाया। इसमें सात मंजिले थी इसे सतखंडा महल भी कहा जाता है किन्तु वर्तमान में इसकी दो ही मंजिले शेष रह गयी है। महल के पास ही अस्तबल तथा जूनाशहर में कोकशाह द्वारा निर्मित कोको बावली एवं कंकन बावली हैं।

हजरत मूसे खां बाबा का दरगाह: यह जूना शहर की पहाड़ी पर स्थित प्राचीन एवं ऐतिहासिक दरगाह है जहां मुस्लिमों के अलावा बाकी धर्मों के इबादतगार भी मन्नतें मांगने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इसमें स्थित वृक्ष पर धागा बांधने से मन्नत पूरी होती है।

हाथी किला: रतनपुर बस स्टैण्ड के पास राजा पृथ्वी देव द्वारा निर्मित ऐतिहासिक हाथी किला का पुरावशेष स्थित हैं। यह किला चारों ओर से खाइयों से घिरा है। किले में चार द्वार सिंह द्वार, गणेश द्वार, भैरव द्वार, तथा सेमर द्वार बने हुए हैं। सिंह द्वार बायी ओर गंधर्व, किन्नर, अप्सरा एवं देवी देवताओं के साथ ही दशानन रावण अपना सिर काटकर यज्ञ करते हुए उत्कीर्ण हैं। इसके आगे एक विशाल प्रस्तर प्रतिमा है जिससे सिर एवं पैर का अंश शेष हैं। यह वीर गोपाल राय (गोपाल वीर) के नाम से जानी जाती हैं। यह कहा जाता है कि गोपाल वीर की वीरता से प्रभावित होकर मुगल बादशाह जहांगीर ने राजा कल्याण साय को अनेक उपाधियां दी तथा रतरपुर से लगान लेना बंद कर दिया था। इसके पश्चात गणेश द्वार हैं जहां हनुमान जी की प्रतिमा हैं। यहां से आगे जाने पर मराठा सामाज्ञी अनन्दी बाई द्वारा निर्मित लक्ष्मी नारायण मंदिर अवस्थित है। इसके आगे जगन्नाथ मंदिर स्थित है जिसका निर्माण राजा कल्याण साय ने करवाया था। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा एवं बलभद्र की प्रतिमा स्थापित हैं। साथ ही यहां भगवान विष्णु, राजा कल्याण साय तथा देवी अन्नापूर्ण की सुन्दर प्रतिमाएं भी हैं। इस मंदिर के पाश्र्व भाग में रनिवास एवं महल के अवशेष विद्यमान हैं। इस किले की अंतिम द्वार मोतीपुर की ओर है जहां बीस दुआरिया तालाब के किनारे राजा लक्ष्मण साय की 20 रानियां सती हुई थी। इन्हीं की स्मृति में यहां बीस दुआरिया मंदिर बनवाया गया है।

रामटेकरी: इस पहाड़ी पर श्री राम पंचायत का भव्य एवं ऐतिहासिक मंदिर स्थित हैं। गर्भगृह में भगवान राम, देवी सीता, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न की प्रतिमा, पंचायत शैली में विराजमान हैं। भगवान राम की प्रतिमा के अंगूठे से जल की धारा प्रवाहित होती है। साथ ही सभा मण्डप में भगवान विष्णु तथा हनुमान जी की प्रतिमा हैं। सभागृह के आगे रानी अनन्दी बाई द्वारा निर्मित राजा बिंबाजी का मंदिर है।

वृद्धेश्वर महादेव मंदिर: रामटेकरी के नीचे की ओर राजा पृथ्वीदेव द्वितीय द्वारा निर्मित यह मंदिर अत्यंत ही अद्भुत है। यहां विराजित शिवलिंग स्वयंभू है। स्थानीय लोगो में यह बूढ़ा महादेव के नाम से प्रसिद्ध हैं।

गिरजावर हनुमान मंदिर: रामटेकरी मार्ग में पूर्व दिशा की ओर राजा पृथ्वी देव द्वितीय द्वारा निर्मित सिद्ध दक्षिणमुखी हनुमान जी का ऐतिहासिक मंदिर हैं। हनुमान जी की इस कलात्मक प्रतिमा में उनके कांधे पर श्री राम व लक्ष्मण बैठे हुए पैरों के नीचे अहिरावण दबा हैं। इसी परिसर में श्री रामजानकी तथा शिव मंदिर भी स्थित है।

कण्ठीदेवल मंदिर: श्री महामाया देवी मंदिर परिसर में श्री नीलकंठेश्वर महादेव का भव्य मंदिर स्थित है। इस मंदिर का पुन: निर्माण केन्द्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा कराया गया हैं। राष्ट्रीय धरोहर सूची में शामिल यह मंदिर 15वी शताब्दी में निर्मित है। इसके चार प्रवेश द्वार है तथा आस पास के क्षेत्रों से पायी प्रतिमाओं का अस्थायी संग्रहालय है तथा स्थायी संग्रहालय निर्माणधीन है।

बैरागवन एवं बीस दुवारिया मंदिर: श्री महामाया देवी मंदिर के पीछे कुछ दूरी पर आम्रकुंजो से घिरे बैरागवन में तालाब तथा इसके किनारे पर भगवान नर्मदेश्वर महादेव का मंदिर एवं दूसरी ओर राजा राजसिंह का भव्य स्मारक है जिसे बीस दुवारिया मंदिर कहते हैं। यह मंदिर मूर्ति विहिन हैं तथा 20 द्वार युक्त है। बैरागवन के पास ही खिचरी केदारनाथ का प्राचीन मंदिर स्थित है।
श्री रत्नेश्वर महादेव मंदिर: करैहांपारा में रत्नेश्वर तालाब के किनारे स्थित हैं। यह राजा रत्नदेव द्वारा स्थापित किया गया था। यहीं पर वेद-रत्नेश्वर तालाब के किनारे चार सौ वर्ष पुराना कबीर आश्रम है जिसकी स्थापना कबीर पंथ के श्री सुदर्शन नाम साहेब ने की थी।

भुवनेश्वर महादेव मंदिर: रतनपुर-चपोरा मार्ग पर कृष्णार्जुनी तालाब के किनारे यह प्राचीन मंदिर स्थित है। इस मंदिर में भगवान भास्कर (सूर्यदेव) की प्रतिमा भी स्थापित है तथा इसे सूर्यश्वर मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर एवं शिवलिंग ज्यामितीय आधार पर निर्मित है। गर्भगृह में प्रवेश द्वार पर शिलालेख उत्कीर्ण है।
खूंटाघाट बाँध: मनोहरी प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर यह बांध पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र हैं। भाद्रमास में गणेश चतुर्थी के दिन यहां मेला लगता है। इसका निर्माण अंग्रेजों के काल में हुआ। 1926 में यह बनकर तैयार हुआ। इस जलाशय के नीचे की ओर सुन्दर उद्यान है तथा ऊपर पहाड़ी पर रेस्ट हाऊस बना हुआ है। यह वाटर स्पोट्र्स की दृष्टि से उत्तम स्थान है।

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भटकाव ज्योतिष कारण व निवारण


आज के आधुनिक युग में जहाँ सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ जुटाने का प्रयास हर जातक करता है, वहीं पर उन सुविधाओं के उपयोग से आज की युवा पीढ़ी भटकाव की दिशा में अग्रसर होती जा रही है। पैंरेंटस् जिन वस्तुओं की सुविधाएँ अपने बच्चों को उपयेाग हेतु मुहैया कराते हैं, वहीं वस्तुएँ बच्चों को गलत दिशा में ले जाती है। कई बार देखने में आता है कि जो बच्चे बहुत अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वे भी ठीक कैरियर के समय अपनी दिशा से भटक कर अपने अध्ययन तथा लक्ष्य से भटकर अपना पूरा कैरियर खराब कर देते हैं। कई बार माता-पिता इन सभी बातों से पूर्णत: अनजान रहते हैं और कई बार जानते हुए भी कोई हल निकालने में असमर्थ होते हैं। सभी इन समस्याओं का दोषारोपण आधुनिक सुविधाओं को देते हुए मूक दर्शक बने रहना चाहते हैं किंतु सच्चाई यह है कि यदि आप थोड़े से ज्योतिष और समय रहते उनके प्रतिकूल असर पर काबू पाने का प्रयास कर उपयुक्त समाधान तलाश लें तो भटकाव से पूर्व ही अपने संतान को सही मार्गदिशा देकर उन्हें उचित निर्णय तथा कैरियर हेतु लक्ष्य मेंं बनाये रखने में सक्षम हो सकते हैं। यदि बच्चों के व्यवहार में अचानक बदलाव दिखाई दें, जैसे बच्चा अचानक गुस्सैल हो जाए, उसमें अहं की भावना जागृत होने लगे। दोस्तों में ज्यादा समय बिताने या इलेक्टानिक्स गजट पर पूरा ध्यान केंद्रित करें, बड़ों की बाते बुरी लगे तो तत्काल सावधानी आवश्यक है। किसी विद्वान ज्योतिषीय से अपने संतान की कुंडली का ग्रह दशा जानें तथा पता लगायें कि आपके संतान की शुक्र, राहु, सप्तमेश, पंचमेश की दशा तो नहीं चल रही है और इनमें से कोई ग्रह विपरीत स्थिति में या नीच का होकर तो नहीं बैठा है। अगर ऐसी कोई स्थिति दिखाई दे तो उपयुक्त उपाय तथा थोड़े से अनुशासन से अपने संतान के भटकाव पर काबू पाते हुए उसके लक्ष्य के प्रति एकाग्रता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
बढ़ते बच्चों की चिंता का एक कारण उनके गलत संगत में पड़कर कैरियर बर्बाद करने के साथ व्यसन या गलत आदतों की ओर अग्रसर होना भी है। दिखावें या शौक से शुरू हुई यह आदत व्यसन या लत की सीमा तक चला जाता है। इसका ज्योतिष कारण व्यक्ति के कुंडली से जाना जाता है। किसी व्यक्ति का तृतीयेश अगर छठवे, आठवें या द्वादश स्थान पर होने से व्यक्ति कमजोर मानसिकता का होता है, जिसके कारण उसका अकेलापन उसे दोस्ती की ओर अग्रेषित करता है। कई बार यह दोस्ती गलत संगत में पड़कर गलत आदतों का शिकार बनता है उसके अलावा लक्ष्य हेतु प्रयास में कमी या असफलता से डिप्रेशन आने की संभावना बनती है। अगर यह डिप्रेशन ज्यादा हो जाये तथा उसके अष्टम या द्वादश भाव में सौम्य ग्रह राहु से पापाक्रांत हो तो उस ग्रह दशाओं के अंतरदशा या प्रत्यंतरदशा में शुरू हुई व्यसन की आदत लत बन जाती है। लगातार व्यसन मन:स्थिति को और कमजोर करता है। अत: यह व्यसन समाप्त होने की संभावना कम होती है। अत: व्यसन से बाहर आने के लिए मनोबल बढ़ाने के साथ राहु की शांति तथा मंगल का व्रत मंगल स्तोत्र का पाठ करना जीवन में व्यसन मुक्ति के साथ सफलता का कारक होता है।

गर्भ में ग्रहों का प्रभाव


''कथम उत्पद्यते मातु: जठरे नरकागता गर्भाधि दुखं यथा भुंक्ते तन्मे कथय केशव गरूड पुराण में उक्त पंक्तियां लिखी हैं, जिससे साबित होता है कि गर्भस्थ शिशु के ऊपर भी ग्रहों का प्रभाव शुरू हो जाता है। गर्भ के पूर्व कर्मो के प्रभाव से माता-पिता तथा बंधुजन तथा परिवार तय होते हैं। इसी लिए कहा जाता है कि शुचिनाम श्रीमतां गेहे योग भ्रष्ट प्रजायते अर्थात् जो परम् भाग्यशाली हैं वे श्रीमंतों के घर में जन्म लेते हैं। जिन बच्चों का ग्रह नक्षत्र उत्तम होता है, उनका जन्म तथा परवरिश भी उसी श्रेणी का होता है। कर्मणा दैव नेत्रेण जन्तु: देहोपत्तये अर्थात् कर्मो को भोगने के लिए ही जीव की उत्पत्ति होती है। महाभारत में उल्लेख है कि जब सुभद्रा के गर्भ में अर्जुन पुत्र अभिमन्यु था, उस समय एक रात अर्जुन ने सुभद्रा को युद्ध कौशल एवं उसमें चक्रव्यूह की रचना, प्रवेश तथा तोडऩे से संबंधित कहानी सुना रहे थे। सुभद्रा बड़े मनोयोग से कहानी सुन रही थी और चक्रव्यूह रचना उसमे प्रवेश की कहानी सुनते-सुनते उसे नींद आ गई। अर्जुन ने देखा कि सुभद्रा को नींद आ गई है, उसने चक्रव्यूह की आगे की कथा सुनानी बंद कर दी। किंतु सच्चाई कुछ और है। चूॅकि विधि को कुछ और ही मंजूर था, क्योंकि अभिमन्यु के प्रारब्ध में लिखा जा चुका था कि उसी चक्रव्यूह को तोड़ तो लेंगे किंतु वापस आने में सफ ल नहीं हो पायेंगे और उस युद्ध में उन्हें अपने प्राण गॅवाने पड़ सकते हैं। इससे यह बात सिद्ध होता है कि शिशु के गर्भ में आते ही उसका भाग्य तय हो जाता है अत: ग्रह दशा का असर उस पर शुरू हो जाता है।
कहा तो यहां तक जाता है कि जिस व्यक्ति के प्रारब्ध में कष्ट लिखा होता है उसका जन्म विपरीत ग्रह नक्षत्र एवं कष्टित परिवार में होता है। गरूड पुराण में वर्णन है कि किंतु देखने में यह भी आया है कि जिनके प्रारब्ध उत्तम नहीं होते उन्हें बचपन से ही कष्ट सहना होता है। उनका जन्म परिवार के विपरीत परिस्थितियों में होता है और जिन्हें बड़ी उम्र में कष्ट सहना होता है, उनका कार्य व्यवसाय या बच्चों का भाग्य बाधित हो जाता है। इससे जाहिर होता है कि आपका प्रारब्ध कभी ही आप पर असर दिखा सकता है।
हिंदु रिवाज है कि पूर्वजो के किसी प्रकार के अशुभ या नीति विरूद्ध आचरण का दुष्परिणाम उनके वंशजो को भोगना पड़ता हैं। माना जाता है कि व्यक्ति का अपना प्रारब्ध ही उसके जन्म का आधार बनता है, जिसके तहत उसका पालन-पोषण तथा संस्कार निर्धारित होते हैं। जातक द्वारा पूर्व जन्म में किए गए या इसी जन्म में पूर्वजों द्वारा किए गए गलत, अशुभ, पाप या अधर्म का फल जातक को कष्ट, हानि, बाधा तथा पारिवारिक दुख, शारीरिक कष्ट, आर्थिक परेशानी के तौर पर भोगना होता हैं यह प्रभाव पितृदोष के हैं यह पता लगाने के लिए जातक या परिवारजनों के जीवनकाल में विपरीत स्थिति या घटना जिसमें अकल्पित असामयिक घटना-दुर्घटना, जन-धन हानि, वाद-विवाद, अशांति, वंश परंपरा में बाधक, स्वास्थ्य, धन अपव्यय, असफलता आदि की स्थिति बनने पर पितृदोष का कारक माना जा सकता है। पितृदोष का प्रत्यक्ष कुंडली में जानकारी प्राप्त करने हेतु जातक के जन्म कुंडली के द्वितीय, तृतीय, अष्टम या भाग्य स्थान में प्रमुख ग्रहों का राहु से पापाक्रांत होना पितृदोष का कारण माना जाता हैं माना जाता है कि प्रमुख ग्रह जिसमें विशेषकर शनि यदि राहु से आक्रांत होकर इन स्थानों पर हो तो जीवन में कष्ट का सामना जरूर करना पड़ सकता हैं। इसके निवारण के लिए किसी नदी के किनारे स्थित देवता के मंदिर में किसी भी माह के शुक्लपक्ष की पंचमी अथवा एकादशी अथवा श्रवण नक्षत्र में विद्वान आचार्य के निर्देश में अज्ञात पितृदोषों की निवृत्ति के लिए पलाश विधि के द्वारा नारायणबलि, नागबलि तथा रूद्राभिषेक कराना चाहिए। किंवदति है कि यह पूजा किसी विशेष स्थान पर ही हो सकती है पर ऐसा नहीं है। यह पूजा किसी भी नदी के किनारे संभव है परंतु इस विषय में ग्रंथ का अभाव है इस स्थिति में यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि जिन आचार्यो से आप पूजा करा रहे हैं, उनके पास यह पूजा विधि अवश्य हों। ऐसा करने से संतति अवरोध, वंश परंपरा में बाधा, अज्ञात रोगों की व्याप्ति, व्यवसायिक असफलता तथा पारिवारिक अशांति व असमृद्धि जैसे पीड़ा से मुक्ति पाई जा सकती है। ऐसा धर्म सिंधु ग्रंथ में तथा कौस्तुभ ग्रंथों में लिखा है। इस विधि द्वारा गर्भ में आने वाले शिशु के सुखद और उज्जवल भविष्य की कामना की जा सकती है अत: उचित उपाय अपनाते हुए अपने पितरों द्वारा की गई भूल या हुई चूक के दोष को दूर कर अपने आने वाली पीढिय़ों को सुख, समृद्धि तथा ऐश्वर्यशाली बनाया जा सकता है।

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धर्म की शुरुआत


मानवजाति के भाग्य निर्माण मे जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं, उन सब में धर्म के रूप में प्रकट होने वाली शक्ति से अधिक महत्वपूर्ण कोई नहीं है। सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा इसी शक्ति से प्राप्त हुयी है। हम सभी जानते है कि धार्मिक एकता का सम्बन्ध प्राय: जातिगत जलवायुगत तथा वंशानुगत एकता के सम्बन्धों से भी दृढ़तर सिद्ध होता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि एक ईश्वर को पूजने वाले तथा एक धर्म में विश्वास करने वाले लोग जिस दृढ़ता और शक्ति से एक दूसरे का साथ देते हैं, एक ही वंश के लोगों की बात तो क्या, भाई-भाई में भी देखने को नहीं मिलती है। धर्म के प्रादुर्भाव को समझने के लिये अनेक प्रयास किये गये हैं, अब तक हमें जितने प्राचीन धर्मों का ज्ञान है वे सब एक ही दावा करते हैं कि वे सभी अलौकिक हैं, मानो उनका उद्भव मानव मस्तिष्क से नहीं बल्कि उस स्तोत्र से हुया, जो उनके बाहर है। आधुनिक विद्वान दो सिद्धान्तों के बारे में कुछ अंश तक सहमत हंै, एक है धर्म का आत्मामूलक सिद्धान्त और दूसरा असीम की धारणा का विकासमूलक सिद्धान्त। पहले सिद्धान्त के अनुसार पूर्वजों की पूजा से ही धार्मिक भावना का विकास हुआ, दूसरे के अनुसार प्राकृतिक शक्तियों को वैयक्तिक स्वरूप देने धर्म का प्रारम्भ हुआ। मनुष्य अपने दिवंगत सम्बन्धियों की स्मृति सजीव रखना चाहता है और सोचता है कि यद्यपि उनके शरीर नष्ट हो चुके हैं, फिर भी वे जीवित हैं। इसी विश्वास पर वह उनके लिये पितृपक्ष में खाद्य पदार्थ रखना एक अर्थ में उसकी पूजा करना चाहता है। मनुष्य की इस भावना से धर्म का विकास हुआ। मिस्त्र बेबीलोन, चीन तथा अमेरिका आदि के प्राचीन धर्मों के अध्ययन से ऐसे स्पष्ट चिन्हों का पता चलता है जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि पितर पूजा से धर्म का अविर्भाव हुया है। प्राचीन मिश्र-वासियों की आत्मा सम्बन्धी धारणा द्वितत्व-मूलक थी। उनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव शरीर के भीतर एक और जीव रहता है जो शरीर के ही समरूप होता है और मनुष्य के मर जाने पर भी उसका यह प्रतिरूप शरीर जीवित रहता है, किन्तु यह प्रतिरूप शरीर तभी तक जीवित रहता है, जब तक मृत शरीर को सुरक्षित रखने की प्रथा पाते हैं। इसी के लिये उन्होंने विशाल पिरामिडों का निर्माण किया, जिसमें मृत शरीर को सुरक्षित ढंग से रखा जा सके। उनकी धारणा थी कि अगर इस शरीर को किसी तरह की क्षति पहुंची तो उस प्रतिरूप शरीर को ठीक वैसी ही क्षति पहुंचेगी। यह स्पष्टत: पितर पूजा ही है। बेबिलोन के प्राचीन निवासियों में प्रतिरूप शरीर की ऐसी ही धारणा देखने को मिलती है। यद्यपि वे कुछ अंश में इसे भिन्न है। वे मानते है कि प्रतिरूप शरीर में स्नेह का भाव नहीं रह जाता है, उसकी प्रेतात्मा भोजन और पेय तथा अन्य सहायताओं के लिये जीवित लोगों को आतंकित करती है। अपनी पत्नी और बच्चों तक के लिये उनके अन्दर कोई प्रेम नही होता है। प्राचीन हिन्दुओं में भी इस पितर पूजा के उदाहरण देखने को मिलते है। चीन वालों के सम्बन्ध में भी इस पितर पूजा की मान्यता देखी जाती है और आज भी व्याप्त है। अगर चीन में कोई धर्म माना जा सकता है तो केवल पितर पूजा ही मानी जा सकती है। इस तरह से ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म पितर पूजा से विकसित मानने वालों का आधार काफी मजबूत है। किन्तु कुछ ऐसे विद्वान है जो प्राचीन आर्य साहित्य के आधार पर सिद्ध करते है कि धर्म का अविर्भाव प्रकृति की पूजा से हुआ, यद्यपि भारत में पितरपूजा के उदाहरण सर्वत्र देखने को मिलते हैं। आर्य जाति के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद संहिता में इसका उल्लेख है, 'धर्म-सिंधुÓ ग्रंथ में भी इसका उल्लेख है। मानव मस्तिष्क जो प्रस्तुत दृश्य के परे हैं, उसकी एक झांकी पाने के लिये आकुल प्रतीत होता है, उषा संध्या चक्रवात प्रकृति की विशाल और विराट शक्तियां उसका सौंदर्य इस सबने मानव मस्तिष्क के ऊपर ऐसा प्रभाव डाला कि वह इन सबके परे जाने की और उसे समझने की आकांक्षा करने लगा। इस प्रयास में मनुष्य ने इन दृश्यों में वैयक्तिक गुणों का आरोपण करना शुरु कर दिया, उन्होंने उनके अन्दर आत्मा और शरीर की प्रतिष्ठा की, जो कभी सुन्दर और कभी परात्पर होते थे, उनको समझने के हर प्रयास में उन्हें व्यक्तिरूप दिया गया या नहीं दिया गया, किन्तु उनका अन्त उनको अमूर्त रूप कर देने में हुआ। ठीक ऐसी ही बात प्राचीन यूनानियों के सम्बन्ध में हुई, उनके तो सम्पूर्ण पुराणोपाख्यान अमूर्त प्रकृति पूजा ही है और ऐसा ही प्राचीन जर्मनी तथा स्केंडिनेविया के निवासियों एवं शेष सभी आर्य जातियों के बारे में भी कहा जा सकता है। इस तरह प्रकृति की शक्तियों का मानवीकरण करने में धर्म का आदि स्तोत्र मानने वालों का भी यश काफी प्रबल हो जाता है। यद्यपि दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी लगते हैं, किन्तु उनका समन्वय एक तीसरे आधार पर किया गया जा सकता है, जो मेरी समझ में धर्म का वास्तविक बीज है। जिसे मैं इन्द्रियों की सीमा का अतिक्रमण करने के लिये संघर्ष मानता हूँ, एक ओर मनुष्य अपने पितरों की आत्माओं की खोज करता है, मृतकों की प्रेतात्माओं को ढूंढता है, अर्थात शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी वह जानना चाहता है कि मौत के बाद क्या होता है, दूसरी ओर मनुष्य प्रकृति की विशाल दृश्यावली के पीछे काम करने वाली शक्ति को समझना चाहता है, इन सब बातों से लगता है कि वह इन्द्रियों की सीमा से बाहर जाना चाहता है वह इन्द्रियों से संतुष्ट नही है, वह इनसे भी परे जाना चाहता है। इस व्याख्या को रहस्यात्मक रूप देने की आवश्यक्ता नहीं है। मुझे तो यह स्वाभाविक लगता है कि धर्म की पहली झांकी स्वप्न में मिली होगी। मनुष्य अमरता की कल्पना स्वप्न के आधार पर कर सकता है। कैसी अद्भुत है यह स्वप्न की अवस्था! हम जानते है कि बच्चे और कोरे मस्तिष्क वाले लोग स्वप्न और जागृत अवस्था में भेद नही समझते है, उनके लिये साधारण तर्क के रूप में इससे अधिक और क्या स्वाभाविक हो सकता है। स्वपनावस्था में जब शरीर प्राय: मृतक जैसा हो जाता है, मन के सारे जटिल क्रिया कलाप चलते रहते हैं, अत: इसमें क्या आश्चर्य, यदि मनुष्य भले ही यह निष्कर्ष निकाल ले, कि इस शरीर के विनष्ट हो जाने पर इसकी क्रियायें जारी रहेंगी, मेरे विचार से अलौकितता की इससे अधिक स्वाभाविक व्याख्या और कोई हो ही नहीं सकती। स्वप्न पर आधारित इस धारणा को क्रमश: विकसित करता हुआ, मनुष्य ऊंचे से ऊंचे विचारों तक पहुंचा होगा। हाँ, यह भी अवश्य ही सत्य है कि समय पाकर अधिकांश लोगों ने यह अनुभव किया कि ये स्वप्न हमारी जाग्रतावस्था में सत्य सिद्ध नहीं होते, और स्वप्नावस्था में मनुष्य का कोई आस्तित्व नहीं हो जाता है, बल्कि वह जाग्रतावस्था के अनुभवों का ही स्मरण करता है।

राहू का प्रकोप


राहु के सम्बन्ध में समुद्र मंथन वाली कथा से प्राय: सभी परिचित है, एक पौराणिक आख्यान के अनुसार राहु दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पुत्री सिंहिका का पुत्र था, उसके पिता का नाम विप्रचित था। विप्रचित के सहवास से सिंहिका ने सौ पुत्रों को जन्म दिया उनमें सबसे बड़ा पुत्र राहु था।
देवासुर संग्राम में राहु भी भाग लिया। समुद्र मंथन के फलस्वरूप प्राप्त चौदह रत्नों में अमृत भी था, जब विष्णु सुन्दरी का रूप धारण कर देवताओं को अमृत पान करा रहे थे, तब राहु उनका वास्तविक परिचय और वास्तविक हेतु जान गया। वह तत्काल माया से रूप धारण कर एक पात्र ले आया, और अन्य देवतागणों के बीच जा बैठा, सुन्दरी का रूप धरे विष्णु ने उसे अमृत पान करवा दिया, तभी सूर्य और चन्द्र ने उसकी वास्तविकता प्रकट कर दी, विष्णु ने अपने चक्र से राहु का सिर काट दिया, अमृत पान करने के कारण राहु का सिर अमर हो गया, उसका शरीर कांपता हुआ गौतमी नदी के तट पर गिरा, अमृतपान करने के कारण राहु का धड़ भी अमरत्व पा चुका था। इस तथ्य से देवता भयभीत हो गये, और शंकरजी से उसके विनास की प्रार्थना की, शिवजी ने राहु के संहार के लिये अपनी श्रेष्ठ चंडिका को मातृकाओं के साथ भेजा, सिर देवताओं ने अपने पास रोके रखा, लेकिन बिना सिर की देह भी मातृकाओं के साथ युद्ध करती रही।
अपनी देह को परास्त होता न देख राहु का विवेक जागृत हुआ, और उसने देवताओं को परामर्श दिया कि इस अविजित देह के नाश के लिये उसे पहले आप फाड दें, ताकि उसका अमृत रस निवृत हो जाये, इसके उपरांत शरीर क्षण मात्र में भस्म हो जायेगा, राहु के परामर्श से देवता प्रसन्न हो गये, उन्होंने उसका अभिषेक किया, और ग्रहों के मध्य एक ग्रह बन जाने का ग्रहत्व प्रदान किया, बाद में देवताओं द्वारा राहु के शरीर की विनास की युक्ति जान लेने पर देवी ने उसका शरीर फाड़ दिया, और अमृत रस को निकालकर उसका पान कर लिया।
ग्रहत्व प्राप्त कर लेने के बाद भी राहु, सूर्य और चन्द्र को अपनी वास्तविकता के उद्घाटन के लिये क्षमा नहीं कर पाया, और पूर्णिमा और अमावस्या के समय चन्द्र और सूर्य के ग्रसने का प्रयत्न करने लगा।
राहु के एक पुत्र मेघदास का भी उल्लेख मिलता है, उसने अपने पिता के बैर का बदला चुकाने के लिये घोर तप किया, पुराणों में राहु के सम्बन्ध में अनेक आख्यान भी प्राप्त होते है।
ज्योतिष शास्त्र में राहु:
भारतीय ज्योतिष शास्त्रों में राहु और केतु को अन्य ग्रहों के समान महत्व दिया गया है, पाराशर ने राहु को 'तमो अर्थात 'अंधकार युक्त ग्रह कहा है, उनके अनुसार धूम्र वर्णी जैसा नीलवर्णी राहु, वनचर, भयंकर, वात प्रकृति प्रधान तथा बुद्धिमान होता है, नीलकंठ ने राहु का स्वरूप शनि जैसा निरूपित किया है।
सामन्यत: राहु और केतु को राशियों पर आधिपत्य प्रदान नहीं किया गया है, हां उनके लिये नक्षत्र अवश्य निर्धारित हैं। तथापि कुछ आचार्यों ने जैसे नारायण भट्ट ने कन्या राशि को राहु के अधीन माना है, उनके अनुसार राहु मिथुन राशि में उच्च तथा धनु राशि में नीच होता है।
राहु एक छाया ग्रह है, जिसे चन्द्रमा का उत्तरी ध्रुव भी कहा जाता है, इस छाया ग्रह के कारण अन्य ग्रहों से आने वाली रश्मियां पृथ्वी पर नहीं आ पाती हैं, और जिस ग्रह की रश्मियां पृथ्वी पर नहीं आ पाती हैं, उनके अभाव में पृथ्वी पर तरह-तरह के उत्पात होने चालू हो जाते हंै, यह छाया ग्रह चिंता का कारक ग्रह कहा जाता है।
राहु को देवी सरस्वती के रूप में जाना जाता है, इसका रंग नीला है और अनन्त भावपूर्ण है, यह सूर्य और चन्द्र को भी अपने घेरे में ले लेता है, राहु की सीमा का कोई विस्तार नहीं है, आसमान में दिखाई देने वाला नीला रंग ही इसके रूप में जाना जाता है, विद्या और ज्ञान के क्षेत्र में राहु कल्पित ग्रह है और कल्पना से संबंधित सभी विषय का संबंध राहु से है चाहे वह ग्लैमर इंडस्ट्री हो, या कंप्यूटर से संबंधित माध्यम हो, आईटी या उड्डयन भी राहु की सीमा में आते हैं। रिश्तेदारी में राहु को पूर्वज माना जाता है, इसका विस्तार ससुराल खानदान से भी सम्बन्ध रखता है, कालसर्प-दोष में राहु के पास वाले ग्रह प्रताणित होते हंै, और केतु की तरफ वाले ग्रह सुरक्षित होते हैं।
राहु नशा देता है, वह जिस भाव का मालिक होता है उसी भाव का नशा दिमाग में छाने लगता है और धीरे-धीरे वह उसी प्रकार के काम करने का नशा दिमाग में इस कदर फैला देता है कि दिमाग अन्य कहीं काम करने का नाम ही नहीं लेता है। राहु, गुरु, शनि और केतु जो कुछ भी होते हैं, अपना असर अपने से छोटों पर या फिर अपने पुत्र-पुत्रियों पर और अपने जानकार और जीवन साथी पर साथ ही अपने कुल के ऊपर डालते है, केवल शनि कुल पर अपना असर इसलिये नहीं दे पाता क्योंकि जो जैसा करता है वह वैसा फल प्राप्त करता है, कर्म का फल कर्मानुसार ही मिलता है।
गुरु जीव है और राहु उसका सिर, केतु उसका धड़, शुक्र उसकी जननेद्रियां, चन्द्र उसके शरीर का पानी, उसकी सोच और उसके जान पहिचान के लोग। शुक्र-चन्द्र का मतलब है कि माता के द्वारा प्राप्त किया जाने वाला धन और भौतिक सम्पत्ति। केतु का मतलब है उसकी रखवाली करना, केतु कुत्ता है, तो कुत्ते की भांति उस भौतिक संपत्ति पर नजर रखना।
सूर्य पिता भी है और पुत्र भी, पत्नी के भाव से दूसरे भाव में (अष्टम) सूर्य के आने से अपने को पिता की तरह से दिखाना और अपना नाम रोशन करना पत्नी के कुटुंब के अन्दर ही समझ में आता है, पत्नी से नवें भाव में केतु का आना, धर्म पुत्र की तरह से अपने को चलाना, पत्नी के द्वारा जनता के अन्दर अपने को धार्मिक रूप से प्रदर्शित करना, बुध वक्री होने से संतान के रूप में पत्नी की बहिन के पुत्र को संभालना और उसकी ही देखभाल करना आदि कारण माने जाते हैं।
राहु की पूजा का समय किसी भी माह के श्रावण नक्षत्र, अश्विन नक्षत्र के कृष्ण पक्ष में की जाती है, भारत में यह पूजा श्राद्ध के रूप में मान्य है, राहु को पितरों के रूप में माना जाता है और वैदिक विवेचना के अनुसार इस समय में पृथ्वी पर चन्द्रमा के ऊध्र्व भाग से सीधी किरणें आती हैं और जो भी पितरों के लिये तर्पण किया जाता है, उसे ग्रहण करती हैं। इसके अलावा दोपहर के दो बजे रोजाना यह किरणें पृथ्वी की तरफ आती है, और जो भी दिन रात में पितरों के लिये किया जाता है, वह इन किरणों के माध्यम से चन्द्रमा के ऊध्र्व भाग में श्रद्धा के रूप में चला जाता है।
उपरोक्त सभी प्रकार के राहु से ग्रसित ग्रहों के दोष अर्थात पितृ दोष शान्ति हेतु नारायण बलि, नाग बली, पिण्ड दान के साथ नवग्रह शान्ति, रूद्राभिषेक के विधान का वर्णन वेदों में मिलता है। इसे लगातार तीन से पांच बार कराना चाहिए जिससे जातक एवं उसके परिवार में पितृ-दोष दूर होकर सुख-समृद्धि, शांति, स्वास्थ्य, यश इत्यादि की प्राप्ति होती है।

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अंधकार के प्रति आकर्षण


असल में जो हमें पसंद नहीं है, मन होता है कि वह शैतान ने किया होगा। जो गलत, असंगत नहीं है, वह भगवान ने किया होगा। ऐसा हमने सोच रखा है कि हम केंद्र पर हैं जीवन के, और जो हमारे पसंद पड़ता है, वह भगवान का किया हुआ है, भगवान हमारी सेवा कर रहा है। जो पसंद नहीं पड़ता, वह शैतान का किया हुआ है शैतान हमसे दुश्मनी कर रहा है। यह मनुष्य का अहंकार है, जिसने शैतान और भगवान को भी अपनी सेवा में लगा रखा है।
भगवान के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जिसे हम शैतान कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। जिसे हम बुरा कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। और अगर हम बुरे में भी गहरे देख पाएं, तो फौरन हम पाएंगे कि बुरे में भला छिपा होता है। दुख में भी गहरे देख पाएं, तो पाएंगे कि सुख छिपा होता है। अभिशाप में भी गहरे देख पाएं, तो पाएंगे कि वरदान छिपा होता है। असल में बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शैतान के खिलाफ जो भगवान है, उसे मैं अज्ञात नहीं कह रहा। मैं अज्ञात उसे कह रहा हूं, जो हम सबके जीवन की भूमि है, जो अस्तित्व का आधार है। उस अस्तित्व के आधार से ही रावण भी निकलता है, उस अस्तित्व के आधार से ही राम भी निकलते हैं। उस अस्तित्व से अंधकार भी निकलता है, उस अस्तित्व से प्रकाश भी निकलता है।
हमें अंधकार में डर लगता है, तो मन होता है, अंधकार शैतान पैदा करता होगा। हमें रोशनी अच्छी लगती है, तो मन होता है कि भगवान पैदा करता होगा। लेकिन अंधकार में कुछ भी बुरा नहीं है, रोशनी में कुछ भी भला नहीं है। और जो अस्तित्व को प्रेम करता है, वह अंधकार में भी परमात्मा को पाएगा और प्रकाश में भी परमात्मा को पाएगा।
सच तो यह है कि अंधकार को भय के कारण हम कभी उसके सौंदर्य को जान ही नहीं पाते, उसके रस को, उसके रहस्य को हम कभी जान ही नहीं पाते। हमारा भय मनुष्य निर्मित भय है। कंदराओं से आ रहे हैं हम, जंगली कंदराओं से होकर गुजरे हैं हम। अंधेरा बड़ा खतरनाक था। जंगली जानवर हमला कर देता, रात डराती थी। इसलिए अग्नि जब पहली दफा प्रकट हो सकी, तो हमने उसे देवता बनाया। क्योंकि रात निश्चिंत हो गई, आग जलाकर हम निर्भय हुए। अंधेरा हमारे अनुभव में भय से जुड़ गया है। रोशनी हमारे हृदय में अभय से जुड़ गई है।
लेकिन अंधेरे का अपना रहस्य है, रोशनी का अपना रहस्य है। और इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण घटित होता है, वह अंधेरे और रोशनी दोनों के सहयोग से घटित होता है। एक बीज हम गड़ाते हैं अंधेरे में, फूल आता है रोशनी में। बीज हम गड़ाते हैं अंधेरे में, जमीन में जड़ें फैलती हैं अंधेरे में, जमीन में। फूल खिलते हैं आकाश में, रोशनी में। एक बीज को रोशनी में रख दें, फिर फूल कभी न आएंगे। एक फूल को अंधेरे में गड़ा दें, फिर बीज कभी पैदा न होंगे। एक बच्चा पैदा होता है मां के पेट के गहन अंधकार में, जहां रोशनी की एक किरण नहीं पहुंचती। फिर जब बड़ा होता है, तो आता है प्रकाश में। अंधेरा और प्रकाश एक ही जीवन-शक्ति के लिए आधार हैं। जीवन में विभाजन, विरोध, पोलेरिटी मनुष्य की है। नहीं, कोई शैतान नहीं है। और अगर शैतान हमें दिखाई पड़ता है, तो कहीं न कहीं हमारी बुनियादी भूल है। धार्मिक व्यक्ति शैतान को देखने में असमर्थ है। परमात्मा ही है। और अचेतन, जहां से वैज्ञानिक सत्य को पाता है या धार्मिक सत्य को पाता है, वह परमात्मा का द्वार है। धीरे-धीरे हम उसकी गहराई में उतरेंगे, तो खयाल में निश्चित आ सकता है।

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जानिये आज 12/04/2015 के विषय के बारे में "बच्चे अपने पिता को दुश्मन क्यों समझतें हैं"


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जानिये आज के सवाल जवाब(1) 12/04/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से



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जानिये आज के सवाल जवाब 12/04/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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जानिये आज का राशिफल 12/04/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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