Sunday, 12 April 2015

धर्म की शुरुआत


मानवजाति के भाग्य निर्माण मे जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं, उन सब में धर्म के रूप में प्रकट होने वाली शक्ति से अधिक महत्वपूर्ण कोई नहीं है। सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा इसी शक्ति से प्राप्त हुयी है। हम सभी जानते है कि धार्मिक एकता का सम्बन्ध प्राय: जातिगत जलवायुगत तथा वंशानुगत एकता के सम्बन्धों से भी दृढ़तर सिद्ध होता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि एक ईश्वर को पूजने वाले तथा एक धर्म में विश्वास करने वाले लोग जिस दृढ़ता और शक्ति से एक दूसरे का साथ देते हैं, एक ही वंश के लोगों की बात तो क्या, भाई-भाई में भी देखने को नहीं मिलती है। धर्म के प्रादुर्भाव को समझने के लिये अनेक प्रयास किये गये हैं, अब तक हमें जितने प्राचीन धर्मों का ज्ञान है वे सब एक ही दावा करते हैं कि वे सभी अलौकिक हैं, मानो उनका उद्भव मानव मस्तिष्क से नहीं बल्कि उस स्तोत्र से हुया, जो उनके बाहर है। आधुनिक विद्वान दो सिद्धान्तों के बारे में कुछ अंश तक सहमत हंै, एक है धर्म का आत्मामूलक सिद्धान्त और दूसरा असीम की धारणा का विकासमूलक सिद्धान्त। पहले सिद्धान्त के अनुसार पूर्वजों की पूजा से ही धार्मिक भावना का विकास हुआ, दूसरे के अनुसार प्राकृतिक शक्तियों को वैयक्तिक स्वरूप देने धर्म का प्रारम्भ हुआ। मनुष्य अपने दिवंगत सम्बन्धियों की स्मृति सजीव रखना चाहता है और सोचता है कि यद्यपि उनके शरीर नष्ट हो चुके हैं, फिर भी वे जीवित हैं। इसी विश्वास पर वह उनके लिये पितृपक्ष में खाद्य पदार्थ रखना एक अर्थ में उसकी पूजा करना चाहता है। मनुष्य की इस भावना से धर्म का विकास हुआ। मिस्त्र बेबीलोन, चीन तथा अमेरिका आदि के प्राचीन धर्मों के अध्ययन से ऐसे स्पष्ट चिन्हों का पता चलता है जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि पितर पूजा से धर्म का अविर्भाव हुया है। प्राचीन मिश्र-वासियों की आत्मा सम्बन्धी धारणा द्वितत्व-मूलक थी। उनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव शरीर के भीतर एक और जीव रहता है जो शरीर के ही समरूप होता है और मनुष्य के मर जाने पर भी उसका यह प्रतिरूप शरीर जीवित रहता है, किन्तु यह प्रतिरूप शरीर तभी तक जीवित रहता है, जब तक मृत शरीर को सुरक्षित रखने की प्रथा पाते हैं। इसी के लिये उन्होंने विशाल पिरामिडों का निर्माण किया, जिसमें मृत शरीर को सुरक्षित ढंग से रखा जा सके। उनकी धारणा थी कि अगर इस शरीर को किसी तरह की क्षति पहुंची तो उस प्रतिरूप शरीर को ठीक वैसी ही क्षति पहुंचेगी। यह स्पष्टत: पितर पूजा ही है। बेबिलोन के प्राचीन निवासियों में प्रतिरूप शरीर की ऐसी ही धारणा देखने को मिलती है। यद्यपि वे कुछ अंश में इसे भिन्न है। वे मानते है कि प्रतिरूप शरीर में स्नेह का भाव नहीं रह जाता है, उसकी प्रेतात्मा भोजन और पेय तथा अन्य सहायताओं के लिये जीवित लोगों को आतंकित करती है। अपनी पत्नी और बच्चों तक के लिये उनके अन्दर कोई प्रेम नही होता है। प्राचीन हिन्दुओं में भी इस पितर पूजा के उदाहरण देखने को मिलते है। चीन वालों के सम्बन्ध में भी इस पितर पूजा की मान्यता देखी जाती है और आज भी व्याप्त है। अगर चीन में कोई धर्म माना जा सकता है तो केवल पितर पूजा ही मानी जा सकती है। इस तरह से ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म पितर पूजा से विकसित मानने वालों का आधार काफी मजबूत है। किन्तु कुछ ऐसे विद्वान है जो प्राचीन आर्य साहित्य के आधार पर सिद्ध करते है कि धर्म का अविर्भाव प्रकृति की पूजा से हुआ, यद्यपि भारत में पितरपूजा के उदाहरण सर्वत्र देखने को मिलते हैं। आर्य जाति के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद संहिता में इसका उल्लेख है, 'धर्म-सिंधुÓ ग्रंथ में भी इसका उल्लेख है। मानव मस्तिष्क जो प्रस्तुत दृश्य के परे हैं, उसकी एक झांकी पाने के लिये आकुल प्रतीत होता है, उषा संध्या चक्रवात प्रकृति की विशाल और विराट शक्तियां उसका सौंदर्य इस सबने मानव मस्तिष्क के ऊपर ऐसा प्रभाव डाला कि वह इन सबके परे जाने की और उसे समझने की आकांक्षा करने लगा। इस प्रयास में मनुष्य ने इन दृश्यों में वैयक्तिक गुणों का आरोपण करना शुरु कर दिया, उन्होंने उनके अन्दर आत्मा और शरीर की प्रतिष्ठा की, जो कभी सुन्दर और कभी परात्पर होते थे, उनको समझने के हर प्रयास में उन्हें व्यक्तिरूप दिया गया या नहीं दिया गया, किन्तु उनका अन्त उनको अमूर्त रूप कर देने में हुआ। ठीक ऐसी ही बात प्राचीन यूनानियों के सम्बन्ध में हुई, उनके तो सम्पूर्ण पुराणोपाख्यान अमूर्त प्रकृति पूजा ही है और ऐसा ही प्राचीन जर्मनी तथा स्केंडिनेविया के निवासियों एवं शेष सभी आर्य जातियों के बारे में भी कहा जा सकता है। इस तरह प्रकृति की शक्तियों का मानवीकरण करने में धर्म का आदि स्तोत्र मानने वालों का भी यश काफी प्रबल हो जाता है। यद्यपि दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी लगते हैं, किन्तु उनका समन्वय एक तीसरे आधार पर किया गया जा सकता है, जो मेरी समझ में धर्म का वास्तविक बीज है। जिसे मैं इन्द्रियों की सीमा का अतिक्रमण करने के लिये संघर्ष मानता हूँ, एक ओर मनुष्य अपने पितरों की आत्माओं की खोज करता है, मृतकों की प्रेतात्माओं को ढूंढता है, अर्थात शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी वह जानना चाहता है कि मौत के बाद क्या होता है, दूसरी ओर मनुष्य प्रकृति की विशाल दृश्यावली के पीछे काम करने वाली शक्ति को समझना चाहता है, इन सब बातों से लगता है कि वह इन्द्रियों की सीमा से बाहर जाना चाहता है वह इन्द्रियों से संतुष्ट नही है, वह इनसे भी परे जाना चाहता है। इस व्याख्या को रहस्यात्मक रूप देने की आवश्यक्ता नहीं है। मुझे तो यह स्वाभाविक लगता है कि धर्म की पहली झांकी स्वप्न में मिली होगी। मनुष्य अमरता की कल्पना स्वप्न के आधार पर कर सकता है। कैसी अद्भुत है यह स्वप्न की अवस्था! हम जानते है कि बच्चे और कोरे मस्तिष्क वाले लोग स्वप्न और जागृत अवस्था में भेद नही समझते है, उनके लिये साधारण तर्क के रूप में इससे अधिक और क्या स्वाभाविक हो सकता है। स्वपनावस्था में जब शरीर प्राय: मृतक जैसा हो जाता है, मन के सारे जटिल क्रिया कलाप चलते रहते हैं, अत: इसमें क्या आश्चर्य, यदि मनुष्य भले ही यह निष्कर्ष निकाल ले, कि इस शरीर के विनष्ट हो जाने पर इसकी क्रियायें जारी रहेंगी, मेरे विचार से अलौकितता की इससे अधिक स्वाभाविक व्याख्या और कोई हो ही नहीं सकती। स्वप्न पर आधारित इस धारणा को क्रमश: विकसित करता हुआ, मनुष्य ऊंचे से ऊंचे विचारों तक पहुंचा होगा। हाँ, यह भी अवश्य ही सत्य है कि समय पाकर अधिकांश लोगों ने यह अनुभव किया कि ये स्वप्न हमारी जाग्रतावस्था में सत्य सिद्ध नहीं होते, और स्वप्नावस्था में मनुष्य का कोई आस्तित्व नहीं हो जाता है, बल्कि वह जाग्रतावस्था के अनुभवों का ही स्मरण करता है।

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