Monday, 18 May 2015

यमराज प्रसन्न होंगे : दीपदान करें धनतेरस पर

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कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस का पर्व मनाया जाता है। इस दिन मृत्यु के देवता यमराज व भगवान विष्णु के अंशावतार धन्वन्तरि का पूजन किए जाने का विधान है। धनतेरस पर भगवान यमराज के निमित्त व्रत भी रखा जाता है।
पूजन विधि- इस दिन सायंकाल घर के बाहर मुख्य दरवाजे पर एक पात्र में अन्न रखकर उसके ऊपर यमराज के निर्मित्त दक्षिण की ओर मुंह करके दीपदान करना चाहिए। दीपदान करते समय यह मंत्र बोलना चाहिए-
"मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह।त्रयोदश्यां दीपदानात्सूर्यज: प्रीतयामिति।।"

रात्रि को घर की स्त्रियां इस दीपक में तेल डालकर चार बत्तियां जलाती हैं और जल, रोली, चावल, फूल, गुड़, नैवेद्य आदि सहित दीपक जलाकर यमराज का पूजन करती हैं। हल जूती मिट्टी को दूध में भिगोकर सेमर वृक्ष की डाली में लगाएं और उसको तीन बार अपने शरीर पर फेर कर कुंकुम का टीका लगाएं और दीप प्रज्जवलित करें।
इस प्रकार यमराज की विधि-विधान पूर्वक पूजा करने से अकाल मृत्यु का भय समाप्त होता है तथा परिवार में सुख-समृद्धि का वास होता है।
दीपदान का महत्व :-
धर्मशास्त्रों में भी उल्लेखित है-कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे।यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति।।
अर्थात- कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को यमराज के निमित्त दीपदान करने से मृत्यु का भय समाप्त होता है।
इस दिन भगवान धन्वंतरि का षोडशउपचार पूजा विधिवत करने का भी विशेष महत्व है जिससे परिवार में सभी स्वस्थ रहते हैं तथा किसी प्रकार की बीमारी नहीं होती।

विवाह पूर्व क्यों आवश्यक है गुण मिलाना

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वर्तमान आधुनिम परिवेष खुला वातावरण एवं टी.वी. संस्कुति के कारण हमारी युवा पीढी अपने लक्ष्यों से भटक रही है। विना सोच विचार किये गये प्रेम विवाह शीघ्र ही मन मुटाव के चलते तलाक तक पहुंच जाते हैं। टी.वीत्र धारावाहिकों एवं फिल्मो की देखादेखी युवक युवती एक दूसरे को आकर्षित करने प्रयास करते हैं। रोज डे, वेलेन्टाईन डे जैसे अवसर इस कार्यको बढावा देते है। पयार मोहब्बत करें लेकिन सोच समझकर। अवसाद कार षिकार होने आत्माहत्या से बचने या बदनामी से बचने हेतु दिल लगान से पूर्व अपने साथी से अपने गुण-विचार ठीक प्रकार से मिला लें ताकि भविष्य में पछताना न पडे। सोच-समझ कर ही निर्णय लें।
ग्रहों के कारण व्यत्ति प्रेम करता है और इन्हीं ग्रहों के प्रभाव से दिल भी टूटते हैं। ज्योतिष शास्त्रों में प्रेम विवाह के योगों के बारे में स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता है, परन्तु जीवनसाथी के बारे में अपने से उच्च या निम्र का विस्तृत विवरण है। कोई भी स्त्री-पुरूष अपने उच्च या निम्र कुल मं तभी विवाह करेगा जब वे दोनों प्रेम करते होंगे। आज की पढी-लिखी और घोर भोैतिकवादी युवा पीढी ओधिकतर प्रेम विवाह की ओर आकर्षित हो रही है। कई बार प्रेम एक-दूसरे की देखी या फेषन के तौर पर भी होता है किनतु जीवनपर्यत निभ नहीं पाता। ग्रह अनुकूल नहीं होन के कारण ऐसी स्थिति बनाती है। शास्त्रों मे प्रेम विवाह को गांधर्व विवाह के नाम से जाना जावाहै। किसी युवक-युवती के मध्य प्रेम की जो भावना पैदा होती है, वह सब उनके ग्रहों का प्रभाव ही होता है, जो कमाल दिखाता है। ग्रह हमारी मनोदषा, पसंद नापसंद और रूचियों को वय करते और बदलते है। वर्तमान में प्रेम विवाह बजुत हद तक गंधर्व विवाह का ही परिवर्तित रूप है।
प्रेम विवाह के कुछ मुख्य योग:
1 -लेग्रेष का पंचक से संबंध हो और जन्मपत्रिका में पंचमेष-सम्तमेष का किसी भी रूप मे संबंध हो। शुक्र, मंगल की युति, शुम्र की राषि में स्थिति और लग्र त्रिकोण का संबंधप्रेम संबंधो का सूचक है। पंचम या सप्तक भाव में शुक्र सप्तमेष या पंचमेष के साथ हो।
2 -किसी की जन्मपत्रिका में लग्न , पंचम , सप्तम भाव व इनके स्वामियों और शुक्र तथा चन्द्रमा जातक के वैवाहिक जीवन व प्रेम संबेधों को समान रूप से प्रभावित करते हैं। लग्र या लग्रेष का सप्तम और सप्तमेष का पंचम भाव व पंचमेष से किसी भी रूप में संबंध प्रेम संबंध की सूचना देता है। यह संबंध सफल होगा अथवा नही, इसकी सूचना ग्रह योगों की शुभ-अषुभ स्थिति देती है।
3 -यदि सप्तकेष लग्रेष से कमजोर हो अथवा यदि सप्तमेष अस्त हो अथवा मित्र राषि में हो या नवाष मे नीच राषि हो तो जातक का विवाह अपने से निम्र कुल में होता है। इसमे विपरित लगेष से सप्तवेष बाली हो, शुभ नवांष मे ही तो जीवनसाथी उच्च कुल का होता है।
4 -पंचमेष सप्तम भाव में हो अथवा लग्रंेष और पंचमेष सप्तम भाव के स्वामी के साथ लग में स्थित हो। सप्तमेष पंचम भाव मं हो और लग्र से संसबंध बना रहा हो। पंचमेष सप्तम में हो और सप्तमेष पंचम में हो। सप्तमेष लग्र में और लग्रेष सप्तम मे हो, साथ ही पंचम भाव के स्वामी से दृष्टि संबंधहो तो भी प्रेम संबंध का योग बनता है।
5 -पंचम में मंगल भी प्रेम विवाह करवाता हैं। यदि राहू पंचम या सप्तम में हो तो प्रेम विवाह की संभावना होती हैं। सप्तम भाव में यदि मेष राषि में मंगल हो तो प्रेम विवाह होता हैं सप्तमेष और पंचमेष एक-दूसरे के नक्षत्र पर हों तो भी प्रेम विवाह का योग बनता हैं।
6 -पंचमेष वथा सप्तमेष कहीं भी, किसी भी तरह से द्वादषेष से संबंध बनायें लग्रेष या सप्तमेष का आपस मं स्थान परिवर्तन अथवा आपस में युकत होना अथवा दृष्टि संबंधं।
7 -जैमिनी सूत्रानुसार दाराकारक और पुत्रकारक की युति भी प्रेम विवाह कराती है। पेचमेष और दाराकार का संबंध भी प्रेम विाह करवाताहै।
8-सप्तमेष स्वगृही हो, एकाादष स्थान पापग्रहों के प्रभाव में बिलकुल न हो, शुक्र लग्र मे ं लग्रेष के साथ, मंगल सप्तक भाव में हो, सप्तमेषके साथ, चन्द्रमा लग्र में लग्रेष के साथ हो, तो भी प्रेम विवाह का योग बनताहै।
प्रेम विाह असफल रहने के कारण:
9 शुक्र व मंगल की स्थिति व प्रभाव प्रेम संबेधें को प्रभावित करने की क्षमता रखते है। यदि किसी जातक की कुण्डली में सभीर अनुकूल स्थितियां होते हुई थी , शुक्र की स्थिति अनुकूल हो तो प्रेम संबंध टूटकर दिल टूटने की घटना होती र्है।
10 सपतम भाव या सव्तमेषका पाप पीडित होनापापयोग में होना प्रेम विवाह की सफलता पा प्रश्रचिह् लगाता है। पंचमेष व सप्तमेष देानों की स्थिति इस प्रकार हो कि उनका सपतम-पंचम से कोई संबंध न हो तो प्रेम की असफलता दुष्टिगत होतो है।
11 शुक्र का सुर्य के नक्षत्र में होनाऔर उस पर चन्द्रमा का प्रभाव होने की स्थिति में प्रेम संबेधहोने के उपरांत या परिस्थितिवष विवाह हो जाने पर भी सफलता नहीं मिलती । शुक्र का सूर्य-चन्द्रमा के मध्य में होना असफल प्रेम का कारण हौ।
12 पंचम व सप्तम भाव के स्वामी ग्रह यदि धीमी गति के ग्र्रह हों तो प्रेम संबंधों का योग होने पा चिर स्थाइ्र प्रेम की अनुभूति दर्षाता है। इस प्रकार के जातक जीवन भर प्रेम प्रसंगों को नहीं भूलते चाहे वे सफल हों या असफल।
प्रेम विवाह को बल देने या मजबूत करने के उपाय: 13 शुक्र देव की पूजा करें।
14 पंचमेश व सप्तमेष की पूजा करें।
15 पंचमेश का रत धारण करें ।
16 ब्ल्यू टोपाज सुखद दाम्पत्य एवं वषीकरएा हेतु पहनें।
17 चन्द्रमणी प्रेम प्रसंग में सफलता प्रदान करती है।
प्रेम विवाह के लिये जन्मकुण्डली के पहले, पांचवें सप्तम भाव के साथ-साथ बारहवें भाव को भी देखे क्योंकि विवाह के लिये बारहवां भाव भी देखा जाता हैं यह भाव शया सुख का भी है। इन भावों के साथ-साथ उन भावों के स्वामियों की स्थिति का पता करना होता है। यदि इन भावों के स्वामियों का संबंध किसी भी रूप् में अपने भावों से बन रहा हो तो निश्रित रूप से जातक प्रेम विवाह करता है।
अन्तरजातीय विवाह के मामले में शनि की मुख्य भूमिका होती है। यदि कुण्डली मे शनि का संबंध किसी भी रूप से प्रेम विवाह कराने वाले भावेषो के भाव से हो तो जातक अन्तरजातीय विवाह करेगा। जीवनसाथी का संबंध सातवें भाव से होता है, जबकि पंचम भाव को सन्तान, उदन एवं बुद्धि का भाव माना गया है, लेमिन यह भाव प्रेम को भी दर्षाता है। प्रेम विवाह के मामलों मे यह भाव विषेष भूमिका दर्षाता है।
कबीरदास जी, ने कहा है-
पोथी पढ-पढ जग मुआ पडित भयो ना कोई।
ढाई आखर प्रेम के, पढे सो पण्डित होई।।
प्रेम एक दिव्य, अलौकिक एवं वंदनीय तथा प्रफुलता देने वाली स्थिति है। प्रेम मनुष्य में करूणा , दुलार स्नेह की अनुभूति देताहै। फिर चाहे वह भक्त का भगवान से हो, माता का पुत्र से या प्रेमी का प्रेमिका के लिये हो, सभी का अपना महत्व है। प्रेम और विवाह ,विवाह और प्रेम दोनां के समान अर्थ है लेमिन दोनों के क्रम में परिवर्तन है। विवाह पश्रत पति या पत्नी के बीच समर्पण व भावनात्मकता प्रेम का एक पहलू है। प्रेम संबेध का विवाह में रूपांतरित होना इस बात को दर्षाता है कि प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से भावनात्मक रूप् से इतनाजुडे हुये है िकवे जीवन भर साथ रहना चाहते है सर्वविदित है कि हिनदू संस्कृति में जिन सोलह संस्कारें का वर्णन कियाहै उनमें से विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कर है। जीवन के विकास, उसमें सरलता और सृष्टि को नये आयाम देने के लिये विवाह परम आवष्यक प्रकिगय है, इस सच्चाइ्र को नकारा नहीं जा सकता है। प्रेम और विवाह आदर्ष स्थितियों में वन्दनीय, आनन्ददायक और प्रफुलता देन वाला है।प्रेम संवंध का परिणाम विवाह होगा या नहीं इस प्राकर की स्थिति में ज्योतिष का आश्रय लेकर काफी हद तक भविष्य के संभावित परिणामों के बारे में जाना जा सकता है। दिल लगाने से पूर्व या टूटने की स्थिति न आये, इस हेतु प्रेमी प्रेमिका को अपनी जन्मपत्रिका के ग्रहों की स्थिति किसी योग्य ज्योतिषी से अवष्य पूछ लेनी चाहिये कि उनके जीवन में प्रेम की घटना होगी या नहीं। प्रेम ईश्रृर का वरदान है। प्रेम करे अवष्य लेकिन सोच समझकर।

जीवन में सुख समृद्धि हेतु उत्तर-पूर्व रखें शुभ



खुले स्थान का महत्व : वास्तु शास्त्र के अनुसार भूखण्ड में उत्तर, पूर्व तथा उत्तर-पूर्व (ईशान) में खुला स्थान अधिक रखना चाहिए। दक्षिण और पश्चिम में खुला स्थान कम रखें।

बॉलकनी, बरामदा, पोर्टिको के रूप में उत्तर-पूर्व में खुला स्थान ज्यादा रखें, टैरेस व बरामदा खुले स्थान के अन्तर्गत आता है। सुख-समृद्धि हेतु उत्तर-पूर्व में ही निर्मित करना शुभ होता है।

यदि दो मंजिला मकान बनवाने की योजना है, तो पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर भवन की ऊँचाई कम रखें। उन्हीं दिशाओं में ही छत खुली रखनी चाहिए। उत्तर-पूर्व में ही दरवाजे व खिड़कियाँ सर्वाधिक संख्या में होने चाहिए। यह भी सुनिश्चित करें कि दरवाजे व खिड़कियों की संख्या विषम न होने पाएँ। जैसे उनकी संख्या 2, 4, 6, 8 आदि रखें।

मकान में गार्डेनिंग ः ----आजकल लोग स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा जागरूक होते जा रहे हैं। प्रायः शहरों में बन रहे मकानों में गार्डेनिंग की आवश्यकता पर जोर दिया जा रहा है। वास्तु के अनुसार मकान में गार्डेनिंग के कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं। ऊँचे व घने वृक्ष दक्षिण-पश्चिम भाग में लगाएँ।

पौधे भवन में इस तरह लगाएँ कि प्रायः तीसरे प्रहर अर्थात्‌ तीन बजे तक मकान पर उनकी छाया न पड़े। वृक्षों में पीपल पश्चिम, बरगद पूर्व, गूलर दक्षिण और कैथ का वृक्ष उत्तर में लगाएँ।

वास्तु से लायें रिश्तों में प्रेम भाव

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ग्रह, उपग्रह, नक्षत्रों की चाल व ब्रह्मांड की क्रियाकलापों को देखते ही मन यह सोचने पर विवश हो जाता है कि यह परस्पर एक-दूसरे के चक्कर क्यों लगाते हैं। कभी तो अपनी परिधि में चलते हुए बिल्कुल पास आ जाते हैं तो कभी बहुत दूर। ब्रह्मांड की गतिशीलता व क्रियाकलाप परस्पर आपसी संबंधों पर निर्भर हैं। जिनको कभी हम प्रतिकूल और कभी अनुकूल स्थितियों में देखते या पाते हैं।

ठीक इसी के अनुरूप विश्व के देव-दानव, गंधर्व, नाग, किन्नर, मानव रिश्तों के डोर में आ बँधे। मानव जीवन के कई पवित्र व अनुपम रिश्ते हैं, जो जीवन के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इनमें समय के अनुसार उतार-चढ़ाव देखे जाते हैं, जो जीवन पथ पर कई खट्टी-मीठी यादें देते रहते हैं। किन्तु बढ़ती नीरसता, स्वार्थपरता, आपाधापी व अनैतिकता से आज सिर्फ पिता-पुत्र के मध्य ही नहीं बल्कि अनेक रिश्ते मतभेद, कटुता, कलह, नीरसता व कंलक के हत्थे चढ़ते जा रहे हैं।

इन सम्पूर्ण विकारों ने मिलकर रिश्ते की पवित्र नींव को उखाड़ने का मानो ठेका ले रखा हो, शर्म, संकोच, दायित्व, सामाजिक मर्यादाएँ जो यथा समय इनकी रक्षा करती थीं आज वे विवश नजर आ रही हैं। जिन पंच तत्वों के सहारे तन, मन, श्वॉस, रक्त, दृष्टि में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता था आज उनकी वास्तु स्थिति गड़बडा गई है। आज वह लाख प्रयास करने के बावजूद भी चोट पर चोट खाते जा रहे हैं।
वास्तु अध्ययन व अनुभव यह बताता है कि जिस भवन में वास्तु स्थिति गड़बड होती है वहाँ व्यक्ति के पारिवारिक व व्यक्तिगत रिश्तों में अक्सर मतभेद, तनाव उत्पन्न होते रहते हैं। वास्तु में पूर्व व ईशानजनित दोषों के कारण पिता-पुत्र के संबंधों में धीरे-धीरे गहरे मतभेद व दूरियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और साथ ही कई परिवारों को पुत्र हानि का भी सामना करना पड़ता है। सूर्य को पुत्र का कारक ग्रह माना जाता है, जब भवन में ईशान व पूर्व वास्तु दोषयुक्त हो तो यह घाव में नमक का कार्य करता है। जिससे पिता-पुत्र जैसे संबंधों में तालमेल का भाव व पुत्र-पिता के प्रति दुर्भावना रखता है। वास्तु के माध्यम से पिता पुत्र के संबंधों को अति मधुर बनाया जा सकता है।

महत्वपूर्ण व उपयोगी तथ्य जो पिता-पुत्र के संबंधों को प्रभावित करते हैं :---
- ईशान (उत्तर-पूर्व) में भूखण्ड कटा हुआ नहीं होना चाहिए।
- भवन का भाग ईशान (उत्तर-पूर्व) में उठा होना अशुभ हैं। अगर यह उठा हुआ है तो पुत्र संबंधों में मधुरता व नजदीकी का आभाव रहेगा।
- उत्तर-पूर्व (ईशान) में रसोई घर या शौचालय का होना भी पुत्र संबंधों को प्रभावित करता है। दोनों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ बनी रहती है।
- दबे हुए ईशान में निर्माण के दौरान अधिक ऊँचाई देना या भारी रखना भी पुत्र और पिता के संबंधों को कलह और परेशानी में डालता रहता है।
- ईशान (उत्तर-पूर्व) में स्टोर रूम, टीले या पर्वतनुमा आकृति के निर्माण से भी पिता-पुत्र के संबंधों में कटुता रहती है तथा दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं।
- इलेक्ट्रॉनिक आइटम या ज्वलनशील पदार्थ तथा गर्मी उत्पन्न करने वाले अन्य उपकरणों को ईशान (उत्तर-पूर्व) में रखने से पुत्र, पिता की बातों की अवज्ञा अर्थात्‌ अवहे‌लना करता रहता है, और समाज में बदनामी की स्थिति पर ला देता है।
- इस दिशा में कूड़ेदान बनाने या कूड़ा रखने से भी पुत्र, पिता के प्रति दूषित भावना रखता हैं। यहाँ तक मारपीट की नौबत आ जाती है।
- ईशान कोण खंडित होने से पिता-पुत्र आपसी मामलों को लेकर सदैव लड़ते-झगड़ते रहते हैं।
- यदि कोई भूखंड उत्तर व दक्षिण में सँकरा तथा पूर्व व पश्चिम में लंबा है तो ऐसे भवन को सूर्यभेदी कहते हैं यहाँ भी पिता-पुत्र के संबंधों में अनबन की स्थिति सदैव रहती है। सेवा तो दूर वह पिता से बात करना तथा उसकी परछाई में भी नहीं आना चाहता है।

इस प्रकार ईशान कोण दोष अर्थात्‌ वास्तुजनित दोषों को सुधार कर पिता-पुत्र के संबंधों में अत्यंत मधुरता लाई जा सकती हैं। सूर्य संपूर्ण विश्व को ऊर्जा शक्ति प्रदान करता है तथा इसी के सहारे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया संचालित होती है तथा पराग कण खिलते हैं जिसके प्रभाव से वनस्पति ही नहीं बल्कि समूचा प्राणी जगत्‌ प्रभावित होता है। पूर्व व ईशानजनित दोषों से प्राकृतिक तौर पर प्राप्त होने वाली सकारात्मक ऊर्जा नहीं मिल पाती और पिता-पुत्र जैसे संबंधों में गहरे तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। अतएव वास्तुजनित दोषों को समझते हुए ईशान की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए।

राशि अनुरूप करें लक्ष्मी मंत्र का जाप

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राशि के अनुरूप मंत्र जाप ------

व्यक्ति यदि अपनी राशि के अनुकूल मंत्र का जाप करे तो लाभकारी होता है। इन मंत्रों का कोई विशेष विधान नहीं है लेकिन सामान्य सहज भाव से स्नान के पश्चात अपने पूजा घर या घर में शुद्ध स्थान का चयन कर प्रतिदिन धूप-दीप के पश्चात ऊन या कुशासन पर बैठें एवं अपनी शक्ति अनुरूप एक, तीन या पाँच माला का जाप करें। विशेषकर उन लोगों के लिए जो माँ की आराधना में अधिक समय नहीं दे सकते और जो लोग कठिन मंत्रों का जाप नहीं कर सकते।

निश्चित ही इसका प्रभाव होगा, जिससे धन, यश और समृद्धि की वृद्धि होगी।

राशि - लक्ष्मी मंत्र

मेष - ॐ ऐं क्लीं सौं:

वृषभ - ॐ ऐं क्लीं श्रीं

मिथुन - ॐ क्लीं ऐं सौं:

कर्क - ॐ ऐं क्लीं श्रीं

सिंह - ॐ ह्रीं श्रीं सौं:

कन्या - ॐ श्रीं ऐं सौं:

तुला - ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं

वृश्चिक - ॐ ऐं क्लीं सौं:

धनु - ॐ ह्रीं क्लीं सौं:

मकर - ॐ ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं सौं:

कुंभ - ॐ ह्रीं ऐं क्लीं श्रीं

मीन - ॐ ह्रीं क्लीं सौं:

माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा

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नौ रूपों को पूजने का पर्व नवरात्रि--जगदम्बा माता के रूप---

शरणागतदीनार्तपरित्राण परायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि! नारायणि नमोऽस्तु ते।
- शरण में आए हुए प्राणियों एवं दीन-दुःखी जीवों की रक्षा के लिए सर्वदा रत, सबके कष्ट को दूर करने वाली हे देवि! हे देवि! आपको नमस्कार है।

पौराणिक कहावतों के अनुसार जय-विजय नामक दो देवदूत भगवान के द्वारपाल थे। एक बार की बात है। दैत्यों की शक्ति वृद्धि के कारण देवता उन दैत्यों से परास्त होकर शक्ति लोक में जगदम्बा माता शक्ति का आवाहन कर रहे थे। जगदम्बा उनके आवाहन पर उनके पास जा रही थीं। किन्तु द्वारपालों ने उन्हें अन्दर जाने से मना कर दिया। सप्तर्षि आदि ऋषि-मुनि जो आवाहन कर्म में भाग लेने जा रहे थे। उन्होंने बताया कि इन्हें जाने दो। इन्हीं की पूजा अन्दर हो रही है। किन्तु द्वारपाल नहीं माने।

उन्होंने बताया कि हम अपने स्वामी के आज्ञापालक हैं। दूसरे किसी की आज्ञा पालन नहीं कर सकते। हमें आदेश है कि किसी को भी बिना अनुमति के अन्दर न आने दिया जाए। यदि इसी देवी की पूजा अन्दर हो रही है। तो हम भी इन्हें प्रणाम करते हैं। इन्हें अपना शीश झुकाते हैं। किन्तु अन्दर नहीं जाने देंगे।

यह सुनकर माता अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। उन्होंने नौ विग्रह साकार रूप धारण कर लिए और शाप दिया कि तुम अभी दैत्य हो जाओ। सभी देवी-देवता भयभीत हो गए। सबने मिलकर देवी की प्रार्थना की। देवी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम्हें मेरे नौ रूपों ने शाप दिया है। अतः तुम वर्तमान शरीर को मिलाकर नौ शरीर धारण करोगे। किन्तु तुम्हारा नौवाँ शरीर दैत्य का नहीं अपितु मूल रूप होगा।

अतः तुम्हें मात्र 7 शरीर ही दैत्य के धारण करने पड़ेंगे। इस शरीर से लेकर नौ शरीर तक तुम्हें मैं अपने प्रत्येक रूप का यंत्र प्रदान कर रही हूँ, जिससे तुम्हें समस्त सांसारिक सुख व यश प्राप्त होगा तथा मेरे अलावा तुम्हारा कोई वध भी नहीं कर सकेगा। यह सुनकर दोनों द्वारपाल बहुत प्रसन्न हुए।

उन्होंने स्तुति करते हुए कहा कि- 'हे! माता आपका शाप तो हमारे लिए बहुत बड़ा वरदान हो गया। ऐसा शाप तो सम्भवतः किसी महान तपस्वी या देवी-देवता को भी प्राप्त नहीं हो सकता है।'

माता ने पूछा कि- तुम यह कैसे कह रहे हो?

उन्होंने बताया कि इस समय जो यंत्र आपके हाथ की हथेली पर दिखाई दे रहा है। वह यह बता रहा है कि आपसे बड़ा यह आपका यंत्र अब सदा ही हमारे साथ रहेगा तथा आप तो आवाहन-पूजन एवं बहुत बड़े यज्ञ-तपस्या से दर्शन देंगी। किन्तु यंत्र रूप में तो सदा आप हमारे साथ रहेंगी। किंतु हे! माता हमें एक वरदान और चाहिए।

माता ने वर माँगने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि- 'हे भगवती! हम तो पूजा-पाठ एवं यज्ञ-तप आदि वेद-विधि से कर नहीं पाएँगे। फिर यह यंत्र कैसे सिद्ध होगा?

माता ने वरदान दिया- जाओ! आज से मेरे यह सारे यंत्र स्वयं सिद्ध हुए। मात्र इसे जागृत करना होगा। जो तुम इन्हें मेरे आवाहन मात्र से पूर्ण कर सकते हो। और तब से देवी के नौ यंत्र स्वयं सिद्ध हो गए।

क्रम से यह नौ यंत्र निम्न प्रकार हैं। जिसे स्वयं भगवान शिव ने भी अनुमोदित किया है-

आदौसंवत्सरेऽमायां संक्रमणे चाशुभे रवौ। निशाकरौ तंत्र कार्यार्थमष्टम्यां सर्वोत्तमम्‌।
यंत्र मंत्र तंत्रार्थं देवि विनवाधा निवारणम्‌। अभिप्शितमवाप्त्यर्थं अमोघ नवरात्र वर्तते॥

अर्थात् संवत्सर के प्रारंभ, होली के दिन, अमावस्या अर्थात् दीपावली के दिन, सूर्य-चन्द्र संक्रमण अर्थात् ग्रहण में एवं नवरात्र में विशेषतः अष्टमी के दिन तुम्हारे नौ यंत्र सहज ही जागृत हो जाते हैं।
जिसे धारण करने वाले के लिए कुछ भी पाना दुर्लभ नहीं होता है।

'सुदीर्घश्चहयग्रीवो कर्कोकुम्भश्चचित्रकं। कात्यायनी संवर्तको जातो कालिका यामिनी तथा॥'

ये ही नौ माता दुर्गा के नौ यंत्र हैं। ये स्वयं सिद्ध यंत्र हैं। इन्हें सिद्ध नहीं करना नहीं पड़ता। इन्हें मात्र धारण ही करना पड़ता है। ये क्रमशः प्रथम रूप या दिन से नववें दिन के यंत्र हैं।