त्रेता युग से भी एक युग पहले अर्थात सतयुग में एक प्रजापालक अनन्य भक्त था। उस समय यह क्षेत्र पद्मावती क्षेत्र या पद्मपुर कहलाता था। इसके आसपास का इलाका दंडकारण्य के नाम से प्रसिद्ध था। यहां अनेक राक्षस निवास करते थे। राजा रत्नाकर समय-समय पर यज्ञ, हवन, जप-तप करवाते रहते थे ऐसे ही एक आयोजन में राक्षसों ने ऐसा विघ्न डाला कि राजा दुखी हो कर वहीं खंडित हवन कुंड के सामने ही ईश आराधना में लीन हो गए और ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि वे स्वयं आकर इस संकट से उबारें। ठीक इसी समय गजेंद्र और ग्राह में भी भारी द्वन्द्व चल रहा था, ग्राह गजेंद्र को पूरी शक्ति के साथ पानी में खींचे लिए जा रहा था और गजेंद्र ईश्वर को सहायता के लिए पुकार रहा था। उसकी पुकार सुन भक्त वत्सल विष्णु जैसे बैठे थे वैसे ही नंगे पांव उसकी मदद को दौड़े। और जब वह गजेंद्र को ग्राह से मुक्ति दिलवा रहे थे तभी उनके कानों में राजा रत्नाकर का आर्तनाद सुनाई दी। भगवान उसी रूप में राजा रत्नाकर के यज्ञ में पहुंचे और राजा रत्नाकर ने यह वरदान पाया कि अब श्री विष्णु उनके राज्य में सदा इसी रूप में विराजेंगे। तभी से राजीव लोचन की मूर्ति इस मंदिर में विराज रही है। कहते हैं कि इस मूर्ति का निर्माण स्वयं विश्वकर्मा ने किया था। इतिहासकारों की दृष्टि से पकी हुई ईंटो से बने इस राजीव लोचन मंदिर का निर्माणकाल आठवीं सदी के लगभग ही माना जाता है।
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