लग्नकुंडली के आधार पर की गई भविष्यवाणी मिथ्या हो जाती है, जिसके निराकरण हेतु महर्षि पराशर ने षड्वर्ग की व्यवस्था की। जब कोई फल लग्नकुंडली के साथ-साथ षड्वर्ग कुंडली से भी प्रकट होता है, तो उसके मिथ्या होने की संभावना कम होती है और वह समय की कसौटी पर खरा उतरता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु जैमिनि और पराशर दोनों महर्षियों ने अपने ग्रंथों में पद, उपपद, अर्गला और कारकांश जैसे विषयों का समावेश किया है। इन तथ्यों के आधार पर फल कथन का प्रचलन उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक है। जैमिनि सूत्रम में श्लोक 30,31 और 32 पद को परिभाषित करते हैं - यावदीशाश्रयं पद मृज्ञाणाम्।।30।। स्वस्थे दाराः ।।31।। सुतस्थे जन्म ।।32।। श्लोक 30 के अनुसार विचारणीय भाव से उसके स्वामी ग्रह तक गिनकर जो संख्या हो, उतनी ही संख्या उस स्वामी ग्रह से गिनकर जो राशि आती है, वही विचारणीय राशि का पद होती है। इसेे आरूढ़ भी कहते हैं। श्लोक 31 और 32 के अनुसार इस नियम के कुछ अपवाद हैं यदि जैसे यदि विचारणीय भाव से उसका स्वामी चतुर्थ स्थान पर हो, तो यही स्थान उस भाव का पद होगा। स्वस्थः = चतुर्थ स्थान, दाराः = चतुर्थ स्थान मेव पदं भवति। इसी प्रकार यदि विचारणीय भाव से उसका स्वामी सप्तम स्थान पर हो, तो विचारणीय भाव से दशम स्थान उस भाव का पद होगा। लग्न के पद को लग्नपद या लग्नारूढ और द्वादश भाव के पद को उपपद या उपारूढ कहते है। लग्नपद को मुख्य पद और अन्य भावों के पदों को क्रमशः धनपद, सहजपद, सुखपद, पुत्रपद आदि कहते है। महर्षि पराशर के अनुसारः स्वस्थानं सप्तम् नैव पदं भवितुमर्हति। तस्मिन पदत्वे सम्प्राप्ति मध्यंतुर्य क्रमात् पदम्।। बृहत् पराशर होराशास्त्र, अध्याय 27, श्लोक 4 यदि किसी भाव का स्वामी स्वस्थान में हो, तो उक्त नियम के विपरीत उस भाव से दशम स्थानगत राशि उस भाव की पद राशि होगी। इसी प्रकार यदि विचारणीय भाव से सप्तम स्थान पर भावेश है, तो वह भाव स्वयं ही पद होना चाहिए। किंतु, ऐसा नहीं है। इसके अपवाद स्वरूप इस स्थान से चतुर्थ स्थान पद होगा। अतः स्वस्थान और सप्तम स्थान पद नहीं होते, बल्कि उनके स्थान पर क्रमशः दशम और चतुर्थ स्थान पद होते हैं। अर्गला क्या है? विचारणीय भाव से दूसरे, चैथे, पांचवें या 11वें स्थान में ग्रह स्थित होने पर भाव अर्गला से युक्त होता है। यदि विचारणीय भाव से 12वें, 10वें, नौवें या तीसरे स्थान में ग्रह हो, तो भाव अर्गला से बाधित होता है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि भाव दो का अर्गला बाधित स्थान 12वां, भाव चार का 10वां, भाव पांच का नौ और भाव 11 का बाधित स्थान तीसरा है। यदि भाव 12, 10, नौ और तीन ग्रह रहित हों तो शुभ अर्गला बनती है, जो अत्यधिक लाभ की सूचक है। राहु और केतु के लिए अर्गला स्थान नौ और बाधक स्थान पांच होता है। अर्गला से युक्त भाव के फल को स्थिरता प्राप्त होती है, इसलिए वह फल निश्चित रूप से फलित होता है। यदि बाधक स्थान तीन में तीन या अधिक पाप ग्रह हों, तो यह स्थान बाधक नहीं होता। इसे विपरीत अर्गला कहते हैं। यह एक प्रकार से विपरीत राजयोग के समान है। यस्माद्यावतिथे राशौ खेटात् तद्भवनं द्विज। ततस्तावतिथं राशिं खेटारूढं़ प्रचक्षते।। द्विनाथ द्विभयोरेवं व्यवस्था सबलावधि। विगणय्य पदं विप्र ततस्तस्य फलं वदेत्।। बृहत् पाराशर होरा शास्त्र, अध्याय 27, श्लोक 5,6 विचारणीय ग्रह से उसकी राशि तक की संख्या गिनों। तत्पश्चात उस राशि से उतनी ही संख्या आगे गिनकर पर जो स्थान आएगा उसमें स्थित राशि उस ग्रह का पद होता है। सूर्य और चंद्र को छोड़कर अन्य ग्रहों की दो-दो राशियां होती हैं। ऐसी अवस्था में बलवान राशि तक गणना करके पद का निर्धारण करना चाहिए। बलवान राशि कौन सी होगी,? जैमिनि के अनुसार ग्रह रहित राशि की तुलना में ग्रह युक्त राशि अधिक बली, कम ग्रह वाली राशि से अधिक ग्रहों वाली राशि अधिक बली और समान ग्रह होने पर स्व, उच्च या शुभ ग्रह वाली राशि अधिक बली होती है। जैसे किसी कर्क लग्न की कुंडली में सूर्य मेंष राशिस्थ है। मंगल का पद अर्थात आरूढ़ ज्ञात करना है। मंगल की दो राशियों मेष और वृश्चिक में सूर्य के अधिष्ठित होने के कारण मेष बलवान है। मंगल से मेष तक की गिनती संख्या चार है, इसलिए मेष से आगे चार संख्या गिनने पर लग्न भावगत कर्क राशि मंगल की पद राशि होगी। पद, उपपद और अर्गला से फल कथन भाव 2, 5, 9, 11 या किसी केंद्र भाव का पद लग्नपद से यदि केंद्र या त्रिकोण स्थान में हो, शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो और पाप ग्रहों से मुक्त हो, तो जातक का जीवन उन्नतिशील होता है। ऐसे लोगों को कोई अदृश्य शक्ति अतिरिक्त बल प्रदान करती है, जिससे वे उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु प्रापत करके अपने परिश्रम, दूरदर्शिता और तेजोबल से अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। निर्बल लग्नपद के मनुष्य अयोग्य, अक्षम, अशिक्षित, अज्ञानी, अस्थिर व मंद बुद्धि के, शिथिल, उत्साहहीन, अदूरदर्शी और उद्देश्यहीन होते हैं। यदि केंद्र-त्रिकोण भाव अर्गला से युक्त हों, तो व्यक्ति भाग्यवान, राजसम्मान और अनेक क्षेत्रों में लाभ अर्जित करने वाला होता है। इसके विपरीत भाव 6, 8, और 12 अर्गला से युक्त हों तो अशुभ फल प्राप्त होते हैं। जैसे षष्ठ भाव की अर्गला से शत्रु भय, अष्टम भाव की अर्गला से दैहिक कष्ट और द्वादश भाव की अर्गला से अपव्यय होता है। जैमिनि सूत्रम, अध्याय 1, श्लोक 22 और 23 के अनुसार यदि लग्नपद और उससे सप्तम स्थान की शुभ ग्रहों से युक्त अर्गला बाधित भी हो, तो धन-धान्य की वृद्धि होती है। चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, पं. जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण अडवाणी, धीरूभाई अंबानी, अमत्र्य सेन, हरिवंश राय बच्चन जैसे महापुरुषों के लग्नपद केंद्र -त्रिकोण जैसे शुभ स्थानों में हैं और लग्नकुंडली के अनेक भाव अर्गला से युक्त हैं। ये सभी अपने-अपने क्षेत्रों में बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के स्वामी रहे हैं। लग्नपद से एकादश स्थान: लग्न कुंडली से सभी भावों के पद ज्ञात करके एक पद कुंडली बना लें। एकादश स्थान लाभ का होता है, इसलिए लग्नपद से एकादश स्थान में कोई भी ग्रह हो या उस पर किसी ग्रह की दृष्टि हो, तो मनुष्य का जीवन उन्नतिशील, कर्मशील, यश, धन और संपत्ति से युक्त होता है। यदि इस स्थान पर शुभ ग्रहों की दृष्टि या स्थिति हो, तो प्रशंसनीय कार्यों से उन्नति होती है और यदि अशुभ ग्रहों का प्रभाव हो, तो निंदनीय कार्यों से जीवन स्तर उच्च होता है। यदि एकादश भाव अर्गला से युक्त भी हो, तो और अधिक लाभ होता है। लग्नपद से द्वितीय और सप्तम स्थान: इन स्थानों में शुभ ग्रह चंद्रमा, बृहस्पति या शुक्र हो या कोई स्वोच्च पाप ग्रह हो, तो व्यक्ति यश, धन, पद और संपत्ति से सुखी होता है। बुध होने से प्रशासनिक पद की संभावना होती है और शुक्र होने से व्यक्ति, भोगी और साहित्य प्रेमी होता है। लग्नपद से द्वितीय स्थान में केतु होता हो तो बुढ़ापे के लक्षण शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं और सप्तम स्थान में राहु या केतु से उदर रोग होने की संभावना होती है। लग्नपद से सप्तम भाव का पद केंद्र या त्रिकोण स्थान में हो, तो जातक लक्ष्मीवान होता है और यदि छठे, आठवें, 12वें स्थान पर हो तो दरिद्र होता है। लग्नपद से द्वादश स्थान: यह व्यय का स्थान है जिस पर ग्रहों की दृष्टि या स्थिति होने पर व्यय अधिक होता है। यदि द्वादश की तुलना में एकादश भाव पर अधिक ग्रहों का प्रभाव हो तो व्यय कम और लाभ अधिक होता है। द्वादश स्थान पर पाप ग्रहों के प्रभाव से अशुभ कार्यों में धन नष्ट होता है और शुभ ग्रहों के प्रभाव से शुभ कार्यों जैसे विवाह, मकान, शिक्षा, वाहन आदि पर व्यय होता है। जैमिनि सूत्रम् अध्याय 1, पाद 3, श्लोक 7 तथा बृहत् पराशर होराशास्त्र के अध्याय 27 श्लोक 16 के अनुसार लग्नपद से द्वादश स्थान में सूर्य, शुक्र और राहु एकत्र हों, तो सरकार के कारण धन हानि होती है और यदि इस स्थान को चंद्रमा देखे, तो निश्चित रूप से सरकार के कारण ही धन हानि होती है। धन और व्यापार योग: व्यापारियों की कुंडली में लग्न, धन, भाग्य और कर्म भाव तथा इनके स्वामी पुष्ट और बलवान होने चाहिए। व्यापार जगत में धन की भूमिका अहम् होती है, इसलिए धन से संबंधित भाव, भावेश और कारक ग्रहों का आपसी तालमेल और उनकी का अवस्था बलवान होना बहुत आवश्यक है। इनकी निर्बल अवस्था वालों को व्यापार नहीं बल्कि नौकरी करनी चाहिए, अन्यथा धन-व्यापार के साथ-साथ सामाजिक प्रतिष्ठा का नाश हो जाता है।
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