Monday, 13 April 2015

गाड़ीवान की आत्मग्लानि

एक बहुत बडे मंदिर मेंं एक पुजारी थे। लोग उन्हें अत्यंत श्रद्घा एवं भक्ति भाव से देखते थे। पुजारी प्रतिदिन सुबह मंदिर जाते और दिनभर मंदिर मेंं रहते। सुबह से ही लोग उनके पास प्रार्थना के लिए आने लगते। जब कुछ लोग इक_े हो जाते, तब मंदिर मेंं सामूहिक प्रार्थना होती।
जब प्रार्थना संपन्न हो जाती, तब पुजारी लोगों को अपना उपदेश देते। उसी नगर मेंं एक गाड़ीवान था। वह सुबह से शाम तक अपने काम मेंं लगा रहता। इसी से उसकी रोजी-रोटी चलती।
यह सोचकर उसके मन मेंं बहुत दुख होता कि मैं हमेंशा अपना पेट पालने के लिए काम-धंधे मेंं लगा रहता हूं, जबकि लोग मंदिर मेंं जाते हैं और प्रार्थना करते हैं। मुझ जैसा पापी शायद ही कोई इस संसार मेंं हो। यह सोचकर उसका मन आत्मग्लानि से भर जाता था। सोचते-सोचते कभी तो उसका मन और शरीर इतना शिथिल हो जाता कि वह अपना काम भी ठीक से नहीं कर पाता। इससे उसको दूसरों की झिड़कियां सुननी पड़तीं।
जब इस बात का बोझ उसके मन मेंं बहुत अधिक बढ़ गया, तब उसने एक दिन पुजारी के पास जाकर अपने मन की बात कहने का निश्चय किया। अत: वह पुजारी के पास पहुंचा और श्रद्घा से अभिवादन करते हुए बोला-हे धर्मपिता! मैं सुबह से लेकर शाम तक एक गांव से दूसरे गांव गाड़ी चलाकर अपने परिवार का पेट पालने मेंं व्यस्त रहता हूं। मुझे इतना भी समय नहीं मिलता कि मैं ईश्वर के बारे मेंं सोच सकूं। ऐसी स्थिति मेंं मंदिर मेंं आकर प्रार्थना करना तो बहुत दूर की बात है।
पुजारी ने देखा कि गाड़ीवान की आंखों मेंं एक भय और असहाय होने की भावना झांक रही है। उसकी बात सुनकर पुजारी ने कहा-तो इसमेंं दुखी होने की क्या बात है?
गाड़ीवान ने फिर से अभिवादन करते हुए कहा-हे धर्मपिता! मैं इस बात से दुखी हूं कि कहीं मृत्यु के बाद ईश्वर मुझे गंभीर दंड ने दे। स्वामी, मैं न तो कभी मंदिर आ पाया हूं और लगता भी नहीं कि कभी आ पाऊंगा। गाड़ीवान ने दुखी मन से कहा- धर्मपिता! मैं आपसे यह पूछने आया हूं कि क्या मैं अपना यह पेशा छोड़कर नियमित मंदिर मेंं प्रार्थना के लिए आना आरंभ कर दूं। पुजारी ने गाड़ीवान की बात गंभीरता से सुनी। उन्होंने गाड़ीवान से पूछा-अच्छा, तुम यह बताओ कि तुम गाड़ी मेंं सुबह से शाम तक लोगों को एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचाते हो। क्या कभी ऐसे अवसर आए हैं कि तुम अपनी गाड़ी मेंं बूढ़े, अपाहिजों और बच्चों को मुफ्त मेंं एक गांव से दूसरे गांव तक ले गए हो?
गाड़ीवान ने तुरंत ही उत्तर दिया-हां धर्मपिता! ऐसे अनेक अवसर आते हैं। यहां तक कि जब मुझे यह लगता है कि राहगीर पैदल चल पाने मेंं असमर्थ है, तब मैं उसे अपनी गाड़ी मेंं बिठा लेता हूं।
पुजारी गाड़ीवान की यह बात सुनकर अत्यंत उत्साहित हुए। उन्होंने गाड़ीवान से कहा-तब तुम अपना पेशा बिलकुल मत छोड़ो। थके हुए बूढ़ों, अपाहिजों, रोगियों और बच्चों को कष्ट से राहत देना ही ईश्वर की सच्ची प्रार्थना है। जिनके मन मेंं करुणा और सेवा की यह भावना रहती है, उनके लिए पृथ्वी का प्रत्येक कण मंदिर के समान होता है और उनके जीवन की प्रत्येक सांस मेंं ईश्वर की प्रार्थना बसी रहती है।
मंदिर मेंं तो वे लोग आते हैं, जो अपने कर्मों द्वारा ईश्वर की प्रार्थना नहीं कर पाते। तुम्हें मंदिर आने की बिलकुल जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि सच्ची प्रार्थना तो तुम ही कर रहे हो। यह सुनकर गाड़ीवान अभिभूत हो उठा। उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह चली। उसने पुजारी का अभिवादन किया और काम पर लौट गया।

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भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में रक्षा बन्धन पर्व की भूमिका:

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में रक्षा बन्धन पर्व की भूमिका:
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता मातृभूमि वन्दना का प्रकाशन हुआ जिसमें वे लिखते हैं ''हे प्रभु! मेरे बंगदेश की धरती, नदियाँ, वायु, फूल - सब पावन हों; है प्रभु! मेरे बंगदेश के, प्रत्येक भाई बहन के उर अन्त:स्थल, अविछन्न, अविभक्त एवं एक हों।
सन् 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंग भंग करके वन्दे मातरम् के आन्दोलन से भड़की एक छोटी सी चिंगारी को शोलों में बदल दिया। 16अक्तूबर 1905 को बंग भंग की नियत घोषणा के दिन रक्षा बन्धन की योजना साकार हुई और लोगबाग गंगा स्नान करके सड़कों पर यह कहते हुए उतर आये-
सप्त कोटि लोकेर करुण क्रन्दन, सुनेना सुनिल कर्जन दुर्जन;
ताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करिल, आमि स्वजने राखी बन्धन।
महाराष्ट्र राज्य में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधने का रिवाज है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुँदना लगा होता है। यह केवल भगवान को ही बाँधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूडिय़ों में बाँधी जाती है। जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकत्र्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट (पूजास्थल) बनाकर उनकी मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनायी जाती है। राखी को कच्चे दूध से अभिमन्त्रित करते हैं और इसके बाद ही भोजन करने का प्रावधान है। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिये यह दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। गये वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भाँति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भाँति नया जीवन प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण 6महीनों के लिये वेद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं। इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नयी शुरुआत। व्रज में हरियाली तीज (श्रावण शुक्ल तृतीया) से श्रावणी पूर्णिमा तक समस्त मन्दिरों एवं घरों में ठाकुर झूले में विराजमान होते हैं। रक्षाबन्धन वाले दिन झूलन-दर्शन समाप्त होते हैं।
राखी और आधुनिक तकनीकी माध्यम:
आज के आधुनिक तकनीकी युग एवं सूचना सम्प्रेषण युग का प्रभाव राखी जैसे त्योहार पर भी पड़ा है। बहुत सारे भारतीय आजकल विदेश में रहते हैं एवं उनके परिवार वाले (भाई एवं बहन) अभी भी भारत या अन्य देशों में हैं। इण्टरनेट के आने के बाद कई सारी ई-कॉमर्स साइट खुल गयी हैं जो ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गये पते पर पहुँचाती है। फेसबुक, ऑर्कुट, चेटिंग जैसी सुविधाओं से अब भाई-बहिनों की दूरी भी कम हो चुकी है।
रक्षाबन्धन के अवसर पर कुछ विशेष पकवान भी बनाये जाते हैं जैसे घेवर, शकरपारे, नमकपारे और घुघनी। घेवर सावन का विशेष मिष्ठान्न है यह केवल हलवाई ही बनाते हैं जबकि शकरपारे और नमकपारे आमतौर पर घर में ही बनाये जाते हैं। घुघनी बनाने के लिये काले चने को उबालकर चटपटा छौंका जाता है। इसको पूरी और दही के साथ खाते हैं। हलवा और खीर भी इस पर्व के लोकप्रिय पकवान हैं।

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रक्षा बन्धनं सामाजिक और पौराणिक प्रसंग

सामाजिक प्रसंग: रक्षाबन्धन आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से रिश्तों को मजबूती प्रदान करने का पर्व है। यही कारण है कि इस अवसर पर न केवल बहन भाई को ही अपितु अन्य सम्बन्धों में भी रक्षा (या राखी) बाँधने का प्रचलन है। गुरु शिष्य को रक्षासूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरु को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परम्परा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षासूत्र बाँधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिये परस्पर एक दूसरे को अपने बन्धन में बाँधते हैं। मौजूदा समय में बहिन का भाईयों को राखी बांधना एवं भाइयों का उसकी रक्षा करने के लिए प्रतिज्ञा करना ज्यादा लाकप्रिय है, और जिसकी समाज को जरूरत भी।
पौराणिक प्रसंग: राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नजर आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां इंद्र को एक रक्षा सूत्र बांधा गया, उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन,शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।
स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। रसातल में राजाबलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। अब विष्णुजी बलि के पास ही रहने लगे। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और राजा बलि से उपहार में अपने पति को मांग लिया और बलि ने सहर्ष दे दिया। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।
ऐतिहासिक प्रसंग: राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं, मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लडऩे में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की। एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पुरूवास को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।
महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलता है। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।
रामायण: त्रेता युग में रावण की बहन शूर्पणखा लक्ष्मण द्वारा नाक कटने के पश्चात रावण के पास पहुँची और रक्त से सनी साड़ी का एक छोर फाड़कर रावण की कलाई में बाँध दिया और कहा कि- भैया! जब-जब तुम अपनी कलाई को देखोगे, तुम्हें अपनी बहन का अपमान याद आएगा और मेरी नाक काटनेवालों से तुम बदला ले सकोगे।

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रक्षाबन्धन भाई-बहिन के प्रेम का त्योहार


श्रावण मास के पूर्णिमा को भाई-बहिन का पवित्र त्योहार रक्षा-बंधन आता है। आज के दिन बहिनों को अपना नैहर याद आता है और खासकर अपने भैया की याद आती है। आज के दिन बहनें अपने भाई को राखी बांधती है और उसके रक्षा की कामना करती है और भाई जीवन पर्यन्त उसकी रक्षा करने और इस रिश्ते की मर्यादा को निभाने की प्रतिज्ञा करता है।
रक्षाबन्धन- होली, दीवाली और दशहरे की तरह हिंदुओं का प्रमुख त्योहार है, जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। यह भाई-बहन को स्नेह की डोर से बांधने वाला त्योहार है। यह त्योहार भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक है। रक्षाबंधन का अर्थ है (रक्षा+बंधन) अर्थात किसी को अपनी रक्षा के लिए बांध लेना। इसीलिए राखी बांधते समय बहन कहती है - भैया! मैं तुम्हारी शरण में हूँ, मेरी सब प्रकार से रक्षा करना। आज के दिन बहन अपने भाई के हाथ में राखी बांधती है और उन्हें मिठाई खिलाती है। फलस्वरूप भाई भी अपनी बहन को रुपये या उपहार आदि देते हैं। रक्षाबंधन स्नेह का वह अमूल्य बंधन है जिसका बदला धन तो क्या सर्वस्व देकर भी नहीं चुकाया जा सकता। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यत: बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बन्धियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है।
अनुष्ठान: भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी विश्वास का बन्धन है। यह पर्व मात्र रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। पहले रक्षा बन्धन बहन-भाई तक ही सीमित नहीं था, अपितु आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा या भेजा जाता था। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि- 'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव- अर्थात 'सूत्र अविच्छिन्नता का प्रतीक है, क्योंकि सूत्र (धागा) बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर एक माला के रूप में एकाकार बनाता है। माला के सूत्र की तरह रक्षा-सूत्र (राखी) भी लोगों को जोड़ता है। प्रात: स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिठाई और कुछ पैसे भी होते हैं। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिये पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बाँधी जाती है और पैसों से न्यौछावर करके उन्हें गरीबों में बाँट दिया जाता है। भाई अपनी बहिनों को उपहार देते हैं।
भारत के अनेक प्रान्तों में भाई के कान के ऊपर भोजली या भुजरियाँ लगाने की प्रथा भी है। भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षाबन्धन के अनुष्ठान को पूरा करने के बाद ही भोजन किया जाता है। प्रत्येक पर्व की तरह उपहारों और खाने-पीने के विशेष पकवानों का महत्व रक्षाबन्धन में भी होता है। आमतौर पर दोपहर का भोजन महत्वपूर्ण होता है और रक्षाबन्धन का अनुष्ठान पूरा होने तक बहनों द्वारा व्रत रखने की भी परम्परा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह सुबह यजमानों के घर पहुँचकर उन्हें राखी बाँधते हैं और बदले में धन वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फि़ल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।

पूजन में सम्मिलित द्रव्य का धार्मिक एवं वैज्ञानिक आधार



भारतीय दर्शन में पूजा एवं अनुष्ठान का विशेष महत्व है साथ ही पूजन में शामिल द्रव्य का भी विशेष महत्व माना गया है जोकि जीवन में मानसिक तथा शारीरिक के अलावा साकारात्मक उर्जा हेतु भी उपयोगी है। वेदों में माना जाता है कि अनुष्ठान ना केवल करने से बल्कि सम्मिलित होने से भी जीवन में पुण्य बढ़ता है। पूजन हेतु कलश स्थापन से लेकर आरती तक की अपनी उपयोगिता निर्धारित है। पूजन के दौरान स्थापित कलश में माना जाता है कि कलश के अंदर खाली स्थान में शिव का वास होता है, जोकि पूजन के दौरान शिव से एकाकार होने में सहायक होता है। साथ ही किंवदंति है कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था इसलिए कलश में जल रखने से सभी देवताओं का वास माना जाता है। कलश के उपर स्थापित नारियल के संबंध में मान्यता है कि नारियल की शिराओं में सकारात्मक उर्जा का भंडार होता है जिसे पूजन के समय उपयोग करने से नारियल की शिराओं से उर्जा तरंगे कलश के जल में पहुंचती हंै जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं। इसलिए नारियल को श्री फल माना जाता है।
तांबे का पात्र उपयोग करने के पीछे धारणा है कि तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता होती है जिससे मन में सात्विक गुणों का समावेश होता है। सप्तनदियों का जल इसलिए उपयोग किया जाता है कि मान्यता है कि सभी ऋषि मुनि द्वारा इन नदियों के तट पर तपस्या कर उस वातावरण को ईश्वरमय कर दिया गया है। सुपारी, रजोगुण को समाप्त करने की तथा सिक्का दान का प्रतीक होता है, साथ ही पान के पत्ते को नागबेल कहा जाता है, माना जाता है कि पान भूलोक और ब्रम्हलोक को जोडऩे वाली कड़ी है इसलिए देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक उर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है। तुलसी को अमृततुल्य माना गया है, साथ ही धी की ज्योति आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। इस प्रकार पूजन में प्रयुक्त सामग्री देवता तथा मनुष्य के बीच की कड़ी है। साथ ही शरीर के पांचों भागों अर्थात पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर का पूजन तथा आरती, मन तथा शरीर में सकारात्मक गुणों को विकसित करने में सक्षम होते हैं।

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मोक्षदा एकादशी



मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष को आने वाली यह एकादशी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त कराती है। इस व्रत को धारण करने वाला मनुष्य जीवन भर सुख भोगता है और अपने समय में निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त होता है। मोक्ष दिलाने वाले इस दिन को मोक्षदा एकादशी भी कहते हैं।
विधि-विधान :
इस दिन प्रात: स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर प्रभु श्रीकृष्ण का स्मरण कर पूरे घर में पवित्र जल छिड़ककर अपने आवास तथा आसपास के वातावरण को शुद्ध बनाएँ। पश्चात पूजा सामग्री तैयार करें। तुलसी की मंजरी (तुलसी के पौधे पर पत्तियों के साथ लगने वाला), सुगंधित पदार्थ विशेष रूप से पूजन सामग्री में रखें। गणेशजी, श्रीकृष्ण और वेदव्यासजी की मूर्ति या तस्वीर सामने रखें। गीता की एक प्रति भी रखें। इस दिन पूजा में तुलसी की मंजरियाँ भगवान श्रीगणेश को चढ़ाने का विशेष महत्व है।
चूँकि इसी दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रणभूमि में उपदेश दिया था अत: आज के दिन उपवास रखकर रात्रि में गीता-पाठ करते हुए या गीता प्रवचन सुनते हुए जागरण करने का भी काफी महत्व है। पूजा-पाठ कर व्रत कथा को सुनें, पश्चात आरती कर प्रसाद बाँटें।
व्रत-कथा:
काफी समय पुरानी बात है, चम्पक नामक नगर में एक ब्राह्मण वास करता था। वहाँ का राजा वैखानस काफी दयालु था, वह अपनी प्रजा को संतान की तरह प्यार करता था। एक दिन राजा ने स्वप्न में देखा कि उनके पिता नरक में घोर यातनाएँ भुगत कर विलाप कर रहे हैं। राजा की नींद खुल गई। अब वह बेचैन हो गया। प्रात: उसने अपने दरबार में सभी ब्राह्मणों को बुलाया और स्वप्न की सारी बात बता दी। फिर सभी ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि कृपा कर कोई ऐसा उपाय बताओ, जिससे मेरे पिता का उद्धार हो सके।
ब्राह्मणों ने राजा को सलाह दी कि यहाँ से थोड़ी दूरी पर महा विद्वान, भूत-भविष्य की घटनाओं को देखने वाले पर्वत ऋषि रहते हैं, वे ही आपको उचित मार्गदर्शन दे सकेंगे। तत्काल राजा पर्वत ऋषि के आश्रम में गया और ऋषिवर को प्रार्थना की कि हे मुनि! कृपाकर मुझे ऐसा उपाय बताइए जिससे मेरे पिता को मुक्ति मिल जाए। राजा की बात सुन ऋषि बोले, तुम्हारे पिता ने अपने जीवन काल में बहुत अनाचार किए थे, जिसकी सजा वे नरक में रहकर भुगत रहे हैं।
यदि आप चाहते हैं कि आपके पिता की मुक्ति हो जाए तो आप मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष को आने वाली मोक्षदा एकादशी का उपवास करें। राजा वैखानस ने वैसा ही किया, फलस्वरूप उनके पिता को मोक्ष की प्राप्ति हुई। अत: जो भी व्यक्ति इस त्योहार को धारण करता है, उसे स्वयं को तो मोक्ष मिलता ही है, उसके माता-पिता को भी मोक्ष प्राप्ति होती है। मोक्षदा एकादशी व्रत को करने से व्यक्ति के पूर्वज जो नरक में चले गये है, उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है.
इस दिन भगवान विष्णु रूपी कृष्ण का पूजन किया जाता है तथा गरीब ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। इस व्रत को दानादि से पारण करने से मौक्ष की प्राप्ति होती है।
ग्रह शांति- सभी कलेशों की शांति होती है।
जन्म राशि- सभी राशियों के लिए।
सौंदर्य- आर्कषण और स्थिर सुन्दरता बढ़ती है।
धन और समृधि- निरन्तर उन्नति होती है।
नौकरी और व्यवसाय- मनोरथ की प्राप्ति और पद प्राप्त होता है।
स्वास्थ्य- स्वास्थ्य उत्तम रहता है।
अन्य कष्ट- घर मे से सारे पाप क्षय होकर स्थिर लक्ष्मी का वास होता है।
तिथि व समय:
(संवत 2071 मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष)

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100 बीमारी का एक इलाज


खाना खाने से 1 घंटे बाद पानी पिएं और हमेशा स्वस्थ रहें, कभी भी खाना खाने के तुरंत बाद पानी नहीं पीना चाहिए! यही है असली सेहत का राज। अब ये भी जानना जरुरी है, हम पानी क्यों ना पीयें खाना खाने के बाद। सबसे पहले आप हमेशा ये बात याद रखें कि शरीर मे सारी बीमारियाँ वात-पित्त और कफ के बिगडऩे से ही होती हैं। अब आप पूछेंगे ये वात-पित्त और कफ क्या होता है...??? बहुत ज्यादा गहराई में जाने की जरूरत नहीं है, आप ऐसे समझें की सिर से लेकर छाती के बीच तक जितने रोग होते हैं वो सब कफ बिगडऩे के कारण होते हैं। छाती के बीच से लेकर पेट और कमर के अंत तक जितने रोग होते हैं वो पित्त बिगडऩे के कारण होते हैं और कमर से लेकर घुटने और पैरों के अंत तक जितने रोग होते हैं वो सब वात बिगडऩे के कारण होते हैं।
हमारे हाथ की कलाई में ये वात-पित्त और कफ की तीन नाडिय़ाँ होती हैं। इस वात-पित्त और कफ के संतुलन के बिगडऩे से ही सभी रोग आते हैं। ये तीनों ही मनुष्य की आयु के साथ अलग अलग ढंग से बढ़ते हैं। बच्चे के पैदा होने से 14 वर्ष की आयु तक कफ के रोग ज्यादा होते है। बार-बार खांसी, सर्दी, छींके आना आदि। 14 वर्ष से 60 साल तक पित्त के रोग सबसे ज्यादा होते हैं, बार-बार पेट दर्द करना, गैस बनना, खट्टी-खट्टी डकारे आना आदि। और उसके बाद बुढ़ापे में वात के रोग सबसे ज्यादा होते हैं जैसे घुटने दुखना, जोड़ो का दर्द आदि।
अब बात हो खान-पान की। जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि खाने के बीच में पानी पीना हमारे पाचन तंत्र के लिए अच्छा नहीं है। क्योंकि हमारे शरीर का पूरा केंद्र है हमारा पेट। ये पूरा शरीर चलता है पेट की ताकत से और पेट चलता है भोजन की ताकत से। जो कुछ भी हम खाते हैं वो ही हमारे पेट की ताकत है। हमने जो कुछ भोजन के रूप में ग्रहण किया ये सब कुछ हमको उर्जा देता है और पेट उस उर्जा का आधार बनता है। अमाशय, जिस स्थान का संस्कृत नाम है जठर। ये एक थैली की तरह होता है और यह जठर हमारे शरीर में सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि सारा खाना सबसे पहले इसी में आता है। अब अमाशय में क्या होता है? खाना जैसे ही पहुँचता है तो तुरंत इसमें आग (अग्नि) जल जाती है। आमाशय में अग्नि प्रदीप्त होती है उसी को कहते हे जठराग्नि। ये जठराग्नि खाने को पचाती है। अब अपने खाते ही गटागट पानी पी लिया तो जो आग(जठराग्नि) जल रही थी वो बुझ गयी। आग अगर बुझ गयी तो खाने की पचने की जो क्रिया है वो रुक गयी। खाना पचने पर हमारे पेट मे दो ही क्रिया होती है, एक क्रिया है जिसको हम कहते हैं सडना और दूसरा है पचना। आयुर्वेद के हिसाब से आग जलेगी तो खाना पचेगा, खाना पचेगा तो उसका रस बनेगा, जो रस बनेगा तो उसी रस से मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, हड्डियां, मल, मूत्र और अस्थि बनेगा और सबसे अंत मे मेद बनेगा। ये तभी होगा जब खाना पचेगा। क्योंकि खाना पचने पर जो बनता है वो है मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, हड्डिया, मल, मूत्र, अस्थि। और खाना नहीं पचने पर बनता है यूरिक एसिड, कोलेस्ट्रोल और यही आपके शरीर को रोगों का घर बनाते है!
हमें जिंदगी में ध्यान इस बात पर देना है की जो हम खा रहे हे वो शरीर मे ठीक से पचना चाहिए और खाना ठीक से पचना चाहिए इसके लिए पेट में ठीक से आग (जठराग्नि) प्रदीप्त होनी ही चाहिए। क्योंकि महत्व की बात खाने को खाना नहीं, खाने को पचाना है।
खाना पच नहीं रहा तो समझ लीजिये विष निर्माण हो रहा है शरीर में और यही सारी बीमारियों का कारण है। तो खाना अच्छे से पचे इसके लिए वाग्भट्ट जी ने सूत्र दिया: ''भोजनान्ते विषं वारी (मतलब खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीना जहर पीने के बराबर है।)
इसलिए खाने के तुरंत बाद पानी कभी मत पियें। अब आपके मन में सबाल आएगा कितनी देर तक नहीं पीना...??? तो 1 घंटे 48मिनट तक नहीं पीना! जब हम खाना खाते हैं तो जठराग्नि द्वारा सब एक दूसरे में मिक्स होता है और फिर खाना पेस्ट में बदलता हैं। पेस्ट में बदलने की क्रिया होने तक 1 घंटा 48मिनट का समय लगता है। उसके बाद जठराग्नि कम हो जाती है। (बुझती तो नहीं लेकिन बहुत धीमी हो जाती है)। पेस्ट बनने के बाद शरीर में रस बनने की परिक्रिया शुरू होती है तब हमारे शरीर को पानी की जरूरत होती है। तब आप जितना इच्छा हो उतना पानी पियें। जो बहुत मेहनती लोग हैं (खेत में हल चलाने वाले, रिक्शा खींचने वाले, पत्थर तोडऩे वाले, उनको 1 घंटे के बाद ही रस बनने लगता है। खाना खाने के 45 मिनट पहले तक आप पानी पी सकते हैं।

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कर्म, प्रारब्ध और भाग्य


पु रूषार्थ का महत्व भाग्य से अधिक है, किंतु अधिकांश लोगों की मान्यता होती है कि भाग्य नाम की कोई चीज नहीं होती, जितना कर्म किया जाता है उसी के अनुरूप फल मिलता है। जीवन की कई अवस्थाओं पर नजर डालें तो भाग्य की धारणा से इंकार नहीं किया जा सकता। भारतीय शास्त्र में कर्म को तीन श्रेणियों में बांटा गया है जो कि क्रमश: संचित कर्म, क्रियामाण कर्म और प्रारब्ध है। जो वर्तमान में कर्म किया जाता है वही क्रियामाण कर्म कहा जाता है। जिसका कोई फल अभी हमें प्राप्त नहीं होता है, वही कर्म भविष्य में संचित कर्म बनता है। इन्हीं संचित कर्म में से जिसका फल हमें प्राप्त हो जाता है, वह चाहे अच्छा हो या बुरा, प्रारब्ध कहा जा सकता है। अब करें संचित कर्म का विचार। वह कर्म जिसका परिणाम हमें वर्तमान में नहीं प्राप्त होता, माना जाता है कि वह किसी भी जन्म में प्राप्त हो सकता है, क्योंकि जन्म के समय किसी भी प्रकार के कर्म के बिना भी जीव ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, स्वस्थ या अस्वस्थ होने के तौर पर प्राप्त करता है। जिसका वर्णन ज्योतिष शास्त्र में जातक के जन्मकुंडली के पंचम या पंचमेश के आधार पर किया जा सकता है।
कर्म का दूसरा भाग है प्रारब्ध। प्रारब्ध को अपने इसी जन्म में भोगना होता है अर्थात इसे उत्पति कर्म भी कहा जा सकता है जोकि व्यक्ति के जींस तय कर देते हैं कि उसका प्रारब्ध क्या होगा। अर्थात् गर्भधारण के समय ही उसका प्रारब्ध निर्धारित हो जाता है। प्रयत्न के बिना ही पैदा होते ही जो कुछ प्राप्त होता है या अप्राप्त रह जाता है वह प्रारब्ध होता है। कुंडली में प्रारब्ध को नवम भाव या नवमेश से देखा जा सकता है। अब कर्म के तीसरे स्वरूप क्रियामाण को देखें। क्रियामाण अर्थात् जो वर्तमान में कर्म चल रहा है मतलब इसे हम पुरूषार्थ कह सकते हैं। भारतीय मान्यता है कि इंसान के 12 वर्ष अर्थात् कालपुरूष के भाग्य के एक चक्र के पूरा होने के उपरांत क्रियामाण का दौर शुरू हो जाता है, जोकि जीवन के अंत तक चलता है। अब व्यक्ति की शिक्षा उसकी रूचि, सामाजिक स्थिति, पारिवारिक तथा निजी परिस्थिति, पसंद-नापसंद, प्रयास तथा उसमें सकाकरात्मक या नाकारात्मक सोच से व्यक्ति का क्रियामाण उसके जीवन को प्रतिकूल या अनुकूल स्थिति हेतु प्रभावित करता है। अत: पुरूषार्थ या क्रियामाण कर्म ही संचित होकर प्रारब्ध बनता है अत: जीवन के सिर्फ कर्म के आधार पर नहीं वरन् कर्म और भाग्य के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है, जो कि कुंडली के पंचम, नवम और दशम स्थान से देखा जाता है। इसमें प्रयास का स्तर, मनोभाव या सहयोग कि स्थिति देखना भी आवश्यक होता है जो कि कुंडली के अन्य भाव से निर्धारित होता है, अत: मानव जीवन में भाग्य का भी अहम हिस्सा होता है।

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तत्त्वों के अन्वेषण


तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम 'वैदिक युग' के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्टयूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार।
प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ।
भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ।

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‘दर्शन

‘दर्शन’ ......'दर्शन' शब्द पाणिनीय व्याकरण के अनुसार 'दृशिर् प्रेक्षणे' धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है। अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना, ‘जिसके द्वारा देखा जाय’ या ‘जिसमें देखा जाय’ होगा। दर्शन शब्द का शब्दार्थ केवल देखना या सामान्य देखना ही नहीं है। इसीलिए पाणिनी ने धात्वर्थ में ‘प्रेक्षण’ शब्द का प्रयोग किया है। प्रकृष्ट ईक्षण, जिसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालना ही दर्शन का अभिधेय है। इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन है। जहाँ पर इन सिद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दर्शन ही होगा, जैसे-न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन मीमांसा दर्शन आदि-आदि।
दर्शन ग्रन्थों को दर्शनशास्त्र भी कहते हैं। यह शास्त्र शब्द ‘शासु अनुशिष्टौ’ से निष्पन्न होने के कारण दर्शन का अनुशासन या उपदेश करने के कारण ही दर्शन-शास्त्र कहलाने का अधिकारी है। दर्शन अर्थात् साक्षात्कृत धर्मा ऋषियों के उपदेशक ग्रन्थों का नाम ही दर्शन शास्त्र है।

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भारतीय दर्शन

भारतीय दर्शन का विषय...........दर्शनों का उपदेश वैयक्तिक जीवन के सम्मार्जन और परिष्करण के लिए ही अधिक उपयोगी है। आध्यात्मिक पवित्रता एवं उन्नयन, बिना दर्शनों को होना दुर्लभ है। दर्शन-शास्त्र ही हमें प्रमाण और तर्क के सहारे अन्धकार में दीपज्योति प्रदान करके हमारा मार्ग-दर्शन करने में समर्थ होता है। गीता के अनुसार किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: (संसार में करणीय क्या है और अकरणीय क्या है ? इस विषय में विद्वान भी अच्छी तरह नहीं जान पाते।) परम लक्ष्य एवं पुरुषार्थ की प्राप्ति दार्शनिक ज्ञान से ही संभव है, अन्यथा नहीं।
दर्शन द्वारा विषयों को हम संक्षेप में दो वर्गों में रख सकते हैं। लौकिक और अलौकिक अथवा भौतिक और आध्यात्मिक। दर्शन या तो विस्तृत सृष्टि प्रपंच के विषय में सिद्धान्त या आत्मा के विषय में हमसे चर्चा करता है। इस प्रकार दर्शन के विषय जड़ और चेतन दोनों ही हैं। प्राचीन ऋग्वैदिक काल से ही दर्शनों के मूल तत्त्वों के विषय में कुछ न कुछ संकेत हमारे आर्ष साहित्य में मिलते हैं।


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चारों वेदों के चार ऐसे सत्य जो जीवन बदल सकते हैं


आत्म-निर्माण के मूलभूत चार दार्शनिक सिद्धान्तों पर हर दिन बहुत गंभीरता के साथ बहुत देर तक मनन-चिन्तन करना चाहिए। जब भी समय मिले चार तथ्यों को चार वेदों का सार तत्त्व मानकर समझना और हृदयंगम करना चाहिए। यह तथ्य जितनी गहराई तक अन्त:करण मेंं प्रवेश कर सकेंगे, प्रतिष्ठित हो सकेंगे, उसी अनुपात से आत्म-निर्माण के लिए आवश्यक वातावरण बनता चला जायेगा।
प्रथम सत्य-
आत्म-दर्शन का प्रथम तथ्य है आत्मा को परमात्मा का परम पवित्र अंश मानना और शरीर एवं मन को उससे सर्वथा भिन्न मात्र वाहन अथवा औजार भर समझना, शरीर और आत्मा के स्वार्थों का स्पष्ट वर्गीकरण करना। काया के लिए उससे सम्बन्धित पदार्थों एवं शक्तियों के लिए हम किस सीमा तक क्या करते हैं, इसकी लक्ष्मण रेखा निर्धारित करना और आत्मा के स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी क्षमताओं का एक बड़ा अंश बचाना, उसे आत्मकल्याण के प्रयोजनों मेंं लगाना।
दूसरा सत्य-
दूसरा आध्यात्मिक तथ्य है मानव जीवन को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार मानना। इसे लोकमंगल के लिए दी हुई परम पवित्र अमानत स्वीकार करना। स्पष्ट है कि प्राणिमात्र को ईश्वर की संतान मानना। निष्पक्ष न्यायकारी पिता समान रूप से ही अपने सब बालकों को अनुदान देता है। मनुष्य को इतनी सुविधा साधन और विलासिता का साधन देकर वह पक्षपाती और अन्यायी नहीं बन सकता। जो मिला वह खजांची के पास रहने वाली बैंक अमानत की तरह है।
संसार को सुखी समुन्नत बनाने के लिए ही मनुष्य को विभिन्न सुविधाएं मिली हैं। उनमेंं से निर्वाह के लिए न्यूनतम भाग अपने लिये रखकर शेष को लोकमंगल के लिए ईश्वर के इस सुरम्य उद्यान को अधिक सुरम्य सुविकसित बनाने के लिए खर्च किया जाना चाहिए।
तीसरा सत्य-
तीसरा सत्य है अपूर्णता को पूर्णता तक पहुँचाने का जीवन लक्ष्य प्राप्त करना। दोष-दुर्गुणों का निराकरण करते चलने और गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता बढ़ाते चलने से ही ईश्वर और जीव के बीच की खाई पट सकती है। इन्हीं दो कदमों को साहस और श्रद्धा के साथ अनवरत रूप से उठाते रहने पर जीवन लक्ष्य तक पहुंचना संभव हो सकता है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की नीति अपनाकर ही आत्मा को परमात्मा बनने और नर को नारायण स्तर तक पहुंचने का अवसर मिल सकता है। स्वर्ग, मुक्ति, आत्मदर्शन, ईश्वरप्राप्ति आदि इसी अपूर्णता के निराकरण का काम है।
चौथा महासत्य-
चतुर्थ महासत्य है इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वर की साकार प्रतिमा मानना। श्रम सीकरों और श्रद्धा सद्भावना के अमृत जल से उसका अभिषेक करने की तप साधना करना। दूसरों के दु:ख बंटाने और अपने सुख बांटने की सहृदयता विकसित करना। आत्मीयता का अधिकाधिक विस्तार करना। अपनेपन को शरीर परिवार तक सीमित न रहने देकर उसे विश्व सम्पदा मानना और अपने कर्तव्यों को छोटे दायरे मेंं थोड़े लोगों तक सीमित न रखकर अधिकाधिक व्यापक बनाना।
यह चार सत्य चार, तथ्य ही समस्त अध्यात्म विज्ञान के साधना विधान के केन्द्रबिन्दु हैं। चार वेदों का सार तत्व यहीं है। इन्हीं महासत्यों को हृदयंगम करने और उन्हें व्यवहार मेंं उतारने से परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। जीवनोद्देश्य पूर्ण होता है। इन महासत्यों को जितनी श्रद्धा और जागरुकता के साथ अपनाया जाएगा आत्मनिर्माण उतना ही सरल और सफल होता चला जायेगा।

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शिवरीनारायण गुप्त तीर्थधाम



शिवरी नारायण महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के त्रिधारा संगम के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण और छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी के नाम से विख्यात कस्बा है। यह छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिला के अन्तर्गत आता है। यह बिलासपुर से 64 कि. मी., राजधानी रायपुर से बलौदाबाजार से होकर 120 कि. मी., जांजगीर जिला मुख्यालय से 60 कि. मी., कोरबा जिला मुख्यालय से 110 कि. मी. और रायगढ़ जिला मुख्यालय से सारंगढ़ होकर 110 कि. मी. की दूरी पर अवस्थित है।
अप्रतिम सौंदर्य और चतुर्भुजी विष्णु की मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण मेंं इसे श्री पुरूषोत्तम और श्री नारायण क्षेत्र कहा गया है। हर युग मेंं इस नगर का अस्तित्व रहा है और सतयुग मेंं बैकुंठपुर, त्रेतायुग मेंं रामपुर और द्वापरयुग मेंं विष्णुपुरी तथा नारायणपुर के नाम से विख्यात यह नगर मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम और शबरी की साधना स्थली भी रहा है। भगवान श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर यहीं खाये थे और उन्हें मोक्ष प्रदान करके इस घनघोर दंडकारण्य वन मेंं आर्य संस्कृति के बीज प्रस्फुटित किये थे। शबरी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए शबरी-नारायण नगर बसा है। भगवान श्रीराम का नारायणी रूप आज भी यहां गुप्त रूप से विराजमान हैं। कदाचित् इसी कारण इसे गुप्त तीर्थधाम कहा गया है। याज्ञवलक्य संहिता और रामावतार चरित्र मेंं इसका उल्लेख है। भगवान जगन्नाथ की विग्रह मूर्तियों को यहीं से पुरी (उड़ीसा) ले जाया गया था। प्रचलित किंवदंती के अनुसार प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिला मुख्यालय से 64 किमी की दूरी पर मैकल पर्वत श्रृंखलाओ के मध्य शिवनाथ, जोंक और महानदी के संगम पर स्थित शिवरी नारायण को तीर्थ नगरी प्रयाग जैसी मान्यता मिली है। यहाँ पर छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध शिवरी नारायण मंदिर है। पर्यटन की दृष्टी से यह स्थल अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहां अत्यंत प्राचीन मन्दिर समूह है। इनमें से कुछ मंदिर निम्नानुसार है-
शिवरीनारायण:
इस मंदिर को बडा मंदिर एवं नरनारायण मंदिर भी कहा जाता है। उक्त मंदिर प्राचीन स्थापत्य कला एवं मुर्तिकला का बेजोड नमूना है। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण राजा बाबर ने करवाया था। 9वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक की प्राचीन मुर्तियो की स्थापना है। मंदिर की परिधि 136फीट तथा ऊंचाई 72 फीट है जिसके ऊपर 10 फीट के स्वर्णीम कलश की स्थापना है शायद इसीलिये इस मंदिर का नाम बडा मंदिर भी पडा। सम्पूर्ण मंदिर अत्यन्त सुंदर तथा अलंकृत है जिसमें चारो ओर पत्थरों पर नक्काशी कर लता वल्लरियों व पुष्पों से सजाया गया है। मंदिर अत्यंत भव्य दिखायी देता है।
रामायण मेंं एक प्रसंग आता है जब देवी सीता को ढूंढते हुए भगवान राम और लक्ष्मण दंडकारण्य मेंं भटकते हुए माता शबरी के आश्रम मेंं पहुंच जाते हैं। जहांं शबरी उन्हें अपने जूठे बेर खिलाती है जिसे राम बड़े प्रेम से खा लेते हैं। शिवरी नारायण मंदिर के कारण ही यह स्थान छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। मान्यता है कि इसी स्थान पर प्राचीन समय मेंं भगवान जगन्नाथ जी की प्रतिमा स्थापित रही थी, परंतु बाद मेंं इस प्रतिमा को जगन्नाथ पुरी मेंं ले जाया गया था।
शिवरीनारायण - गुप्त धाम:
देश के प्रचलित चार धाम उत्तर मेंं बद्रीनाथ, दक्षिण मेंं रामेंश्वरम, पूर्व मेंं जगन्नाथपुरी और पश्चिम मेंं द्वारिका धाम स्थित हैं। लेकिन मध्य मेंं स्थित शिवरी नारयण को गुप्तधाम का स्थान प्राप्त है। इस बात का वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता मेंं मिलता है। शबरी का असली नाम श्रमणा था, वह भील सामुदाय के शबर जाति से सम्बन्ध रखती थीं। उनके पिता भीलों के राजा थे। बताया जाता है कि उनका विवाह एक भील कुमार से तय हुआ था, विवाह से पहले सैकड़ों बकरे-भैंसे बलि के लिए लाये गए जिन्हें देख शबरी को बहुत बुरा लगा कि यह कैसा विवाह जिसके लिए इतने पशुओं की हत्या की जाएगी। शबरी विवाह के एक दिन पहले घर से भाग गई। घर से भाग वे दंडकारण्य पहुंच गई। दंडकारण्य मेंं ऋषि तपस्या किया करते थे, शबरी उनकी सेवा तो करना चाहती थी पर वह हीन जाति की थी और उनको पता था कि उनकी सेवा कोई भी ऋषि स्वीकार नहीं करेंगे। इसके लिए उन्होंने एक रास्ता निकाला, वे सुबह-सुबह ऋषियों के उठने से पहले उनके आश्रम से नदी तक का रास्ता साफ़ कर देती थीं, कांटे बीन कर रास्ते मेंं रेत बिछा देती थी। यह सब वे ऐसे करती थीं कि किसी को इसका पता नहीं चलता था।
एक दिन ऋषि मतंग की नजऱ शबरी पर पड़ी, उनके सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम मेंं शरण दे दी, इस पर ऋषि का सामाजिक विरोध भी हुआ पर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम मेंं ही रखा। जब मतंग ऋषि की मृत्यु का समय आया तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे अपने आश्रम मेंं ही भगवान राम की प्रतीक्षा करें, वे उनसे मिलने जरूर आएंगे। मतंग ऋषि की मौत के बात शबरी का समय भगवान राम की प्रतीक्षा मेंं बीतने लगा, वह अपना आश्रम एकदम साफ़ रखती थीं। रोज राम के लिए मीठे बेर तोड़कर लाती थी। बेर मेंं कीड़े न हों और वह खट्टा न हो इसके लिए वह एक-एक बेर चखकर तोड़ती थी। ऐसा करते-करते कई साल बीत गए।
एक दिन शबरी को पता चला कि दो सुकुमार युवक उन्हें ढूंढ रहे हैं। वे समझ गईं कि उनके प्रभु राम आ गए हैं, तब तक वे बूढ़ी हो चुकी थीं, लाठी टेक के चलती थीं। लेकिन राम के आने की खबर सुनते ही उन्हें अपनी कोई सुध नहीं रही, वे भागती हुई उनके पास पहुंची और उन्हें घर लेकर आई और उनके पाँव धोकर बैठाया। अपने तोड़े हुए मीठे बेर राम को दिए राम ने बड़े प्रेम से वे बेर खाए और लक्ष्मण को भी खाने को कहा।
धान का कटोरांं कहलाने वाला छत्तीसगढ़ का सम्पूर्ण भूभाग मां अन्नपूर्णा की कृपा से प्रतिफलित है। छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि.मी., बिलासपुर से 64 कि.मी. और रायपुर से 120 कि.मी. व्हाया बलौदाबाजार की दूरी पर पवित्र महानदी के पावन तट पर स्थित शिवरीनारायण की पिश्चम छोर मेंं रामघाट से लगा लक्ष्मीनारायण मंदिर परिसर मेंं दक्षिण मुखी मां अन्नपूर्णा विराजित हैं। काले ग्रेनाइट पत्थर की 12 वीं शताब्दी की अन्यान्य मूर्तियों से सुसज्जित इस मंदिर का जीर्णोधार महंत हजारगिरि की प्रेरणा से बिलाईगढ़ के जमींदार ने 17वीं शताब्दी मेंं कराया था। मंदिर परिसर मेंं भगवान लक्ष्मीनारायण के द्वारपाल जय-विजय और सामने गरूण जी के अलावा दाहिनी ओर चतुर्भुजी गणेश जी जप करने की मुद्रा मेंं स्थित हैं। दक्षिण द्वार से लगे चतुर्भुजी दुर्गा जी अपने वाहन से सटकर खड़ी हैं। मंदिर की बायीं ओर आदिशक्ति महागौरी मां अन्नपूर्णा विराजित हैं। इस मंदिर का पृथक अस्तित्व है। मंदिर के जीर्णोद्धार के समय घेराबंदी होने के कारण मां अन्नपूर्णा और लक्ष्मीनारायण मंदिर एक मंदिर जैसा प्रतीत होता है और लोगों को इस मंदिर के पृथक अस्तित्व का अहसास नहीं होता। अन्नपूर्णा जी की बायीं ओर दक्षिणाभिमुख पवनसुत हनुमान जी विराजमान हैं। पूर्वी प्रवेश द्वार पर एक ओर कालभैरव और दूसरी ओर शीतला माता स्थित है।
टेम्पल सिटी शिवरीनारायण के केशव नारायण मंदिर के आसपासकी खुदाई के दौरान भूगर्भ से छठी शताब्दी का एक प्राचीन मंदिर निकला है। खुदाई मेंं कई उत्कीर्ण शिल्प व प्राचीन ईंटें भी मिली है। खुदाई पिछले कुछ दिनों से रोक दी गई है। अधूरी खुदाई के कारण अभी भी जमीन मेंं कई उत्कीर्ण शिल्प दबे हुए हैं, जिसका ऊपरी हिस्सा स्पष्ट दिखाईं दे रहा है। चित्रोत्पल्ला त्रिवेणी संगम के तट पर लाल बलुआ पत्थरों से निर्मितप्राचीन शबरी नारायण मंदिर संपूर्ण भारत मेंं विख्यात है। प्राचीनकला कृति व उत्कीर्ण शिल्प से निर्मित होने के कारण शबरीनारायण मंदिर तथा पूरे परिसर को भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित किया गया है। यहां के केशव नारायण मंदिर के चारों ओर प्राचीन कला कृति के कई अवशेष पड़े हुए हैं, जिसे संरक्षित करने केलिए दो वर्ष पूर्व पुरातत्व विभाग द्वारा काम प्रारंभ किया गया। शुरूवात मेंं आस-पास बिखरी प्राचीन कालीन मूर्तियों को एकत्रित कर संग्रहित किया गया। इस दौरान केशव नारायण मंदिर का निचला हिस्सा भूगर्भ मेंं धसा हुआ दिखा, जिसकी खुदाई शुरू कराई गई, तब भूगर्भ के निचले हिस्से मेंं उत्कीर्ण शिल्प के होने का पता चला। साथ ही छठी शताब्दी की प्राचीन ईंटे भी मिली। खुदाई से केशव नारायण मंदिर के निचले हिस्से की उत्कीर्ण शिल्पकला भी दिखाई देने लगी। प्रारंभिक खुदाई के बाद लगभग डेढ़ वर्षों तक काम रोक दिया गया था। कुछ माह पूर्व खुदाई दोबारा शुरू कराई गई, जिससे केशव नारायण मंदिर के नीचले हिस्से मेंं उत्कीर्ण शिल्प स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं।
इसके अलावा भूगर्भ की खुदाई से केशव नारायण मंदिर के समीप छठी व सातवीं शताब्दी के मध्य निर्मित मंदिर, प्राचीन शिलालेख, प्राचीनकालीन ईंटे और कई मूर्तियां बाहर निकली हैं। मंदिर परिसर की गहरी खुदाई से कई प्राचीन कालीन मूर्तियां व मंदिर से संबंधित शिलालेख निकलने की संभावना है। कई प्राचीन शिल्प व कलाकृतियां अभी भी भूगर्भ मेंं समाई हुई है। वहीं केशवनारायण मंदिर के एक ओर खुदाई से जमीन गहरा होने व दूसरी ओर भूगर्भ से निकले प्राचीन ईंट तथा उत्कीर्ण शिल्प साथ ही कई मंदिर तथा उत्कीर्ण शिल्प के उपरी हिस्से स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं, जो आठ से दस फीट खुदाई होने पर निकलेंगे। शिवरीनारायण धाम मेंं पुरातात्विक कलाकृतियों का भंडार हैं। भगवान नरनारायण मंदिर के गर्भ गृह के प्रवेश द्वार मेंं उत्कीर्ण शिल्प कला देखने को मिलती है, उस तरह की कलाकृति देश के किसी अन्य मंदिर मेंं नहीं दिखती।इस मंदिर की उचाईं 172 फीट व परिधी 136फीट बताई जाती है। साथ ही मंदिर मेंं 10 फीट ऊंचा स्वर्ण कलश व गर्भ गृह मेंं चांदी का दरवाजा है।
नर नारायण मंदिर लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित है, जिसमेंं उकेरी गई मूर्तियां प्राचीन शिल्पकला का अनूठा उदाहरण हैं। मंदिर की शिल्पकला लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित इस अद्भुत मंदिर की छटा देती है।

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क्यों होती हैं आकस्मिक घटनाएं? जानें अंक ज्योतिष से


अ क ज्योतिष के द्वारा जीवन मेंं होने वाली घटनाएं जानी जा सकती हैं, ज्योतिष के अनुसार किसी भी व्यक्ति के जीवन का संबंध अंकों व शब्दों से उतना ही है जितना की उसके रक्त, मांस व मज्जा से होता है। धनात्मक व ऋणात्मक अंको के प्रभाव से व्यक्ति के मन पर भी असर पडता है और वह व्यक्ति इसी असर के वशीभूत होकर जीवन मेंं सभी कर्मों को कर अपने लिये शुभ या अशुभ फल प्राप्त करता है।
जिस तरह से कैलोरी के माध्यम से यह बता देते हैं कि कोई विशेष भोजन व्यक्ति के लिये शक्ति वर्धक है या नहीं। इसी प्रकार से हमारे ऋषि मुनियों ने भी अपनी खोजों से यह बता दिया था कि कौन सा अंक किसी व्यक्ति के लिये कैलोरी की भांति उसके जीवन के लिये शक्तिशाली है या नहीं। शुभ अंक से संबंधित नाम, कारोबार आदि अपना कर व्यक्ति अपने जीवन को सुखी व समृद्ध बना सकता है तथा यदि वह अशुभ अंकों का साथ रखता है तो दुर्घटनाओं को आमंत्रित कर सकता है।
भाग्यांक:
प्रत्येक व्यक्ति का एक शुभ अंक होता है जो उसके जीवन के लिये सुखदायी होता है, इसे भाग्यांक कहते हैं। इसी भाग्यांक को अगर व्यक्ति अपने जीवन मेंं पहचान कर उससे जुडी वस्तुओं को अपने जीवन मेंं स्थान देता है तो फिर उस व्यक्ति को प्रगति के पथ पर चलने से कोई नहीं रोक सकता।
जिस तरह से दाना डाल देने से कबूतर आते हैं, चीनी डाल देने से चींटियां आ जाती हैं, उसी तरह से किसी विशेष व्यक्ति के भाग्यांक से संबंधित वस्तुओं के प्रयोग से भाग्यशाली फल अपने आप ही उसे मिलने शुरू हो जाते हैं।
किसी भी व्यक्ति का भाग्यांक ज्ञात करने के लिये निम्न उदाहरण देखा जा सकता है - व्यक्ति की जन्म तिथि = 7/8/1966सभी अंको का जोड = 7+8+1+9+6+6= 37 पुन: जोड = 3+7 = 10 पुन: जोड = 1+0 = 1 अत: व्यक्ति का भाग्यांक 1 कहलायेगा।
निम्न तालिका से देखा जा सकता है कि 1 अंक के शत्रु अंक 4, 7 व 8हैं। यदि व्यक्ति 1 अंक से संबंधित वस्तुओं को अपनायेगा तो सुख व समृद्धि प्राप्त करेगा और यदि 4,7 या 8अंकों की वस्तुओं को अपनायेगा तो दुख व दुर्घटनाओं को प्राप्त कर सकता है। अंक शास्त्र के अनुसार कोई व्यक्ति अपने शत्रु अंकों के कारण ही आकस्मिक दुर्धटनाओं का शिकार होता है। ऐसी आकस्मिक दुर्घटनायें पांच प्रकार की हो सकती हैं जिनका विवरण उपरोक्त सारणी मेंं दिया जा रहा है। अत: अपने-अपने भाग्यांक को पहचान कर निम्नलिखित संभावित आकस्मिक दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है -
1- भू-दुर्घटना:
इसमेंं सडक दुर्घटना, रेल दुर्घटना, सीढियों से गिरना व भू-स्खलन आदि को लिया जाता है। इस दुर्घटना का कारक अंक 5 है। अत: यदि किसी व्यक्ति के भाग्यांक की शत्रुता 5 अंक से है तो उसे भू- दुर्घटना के प्रति सावधान रहना चाहिये। 9 भाग्यांक वाले अक्सर इसी दुर्घटना से प्रभावित रहते हैं।
2- जल दुर्घटना:
इसमेंं पानी मेंं डूबना, बरसात मेंं अधिक भीग जाने पर न्यूमोनिया होना, डायरिया होना आदि को लिया जाता है। इस दुर्घटना के कारक अंक 2 व 6हैं। अत: 3,4,5,7 भाग्यांक वाले व्यक्तियों को जल दुर्घटना के प्रति सावधान रहना चाहिये।
3- अग्नि दुर्घटना:
इसमेंं अग्नि से जलकर मरना, प्रचण्ड गर्मी से मरना, लू लगना आदि दुर्घटनाओं को लिया जाता है। इस दुर्घटना के कारक अंक केवल 1 व 9 है। अत: 4, 6, 7, 8भाग्यांक वाले व्यक्तियों को अग्नि से होने वाली दुर्घटनाओं के प्रति सावधान रहना चाहिये।
4- वायु दुर्घटना:
इसमेंं वायु मेंं होनी वाली दुर्घटना, किसी ऊंचाई से गिरना, वात रोग से पीडित होना आदि को लिया जाता है। इस दुर्घटना के कारक अंक 3 व 8हैं। अत: 1, 2, 6, 9 भाग्यांक वाले व्यक्तियों को वायु दुर्घटना के प्रति सावधान रहना चाहिये।
5- अन्य दुर्घटनायें:
इसमेंं बिजली से होने वाली दुर्घटनायें, शोक व दुख से होने वाले निधन, प्राणाघात आदि को लिया जाता है। इसके कारक अंक 4 व 7 हैं। अत: 1, 2, 3, 9 भाग्यांक वाले व्यक्तियों को इस प्रकार की दुर्घटनाओं के प्रति सावधान रहना चाहिये।
अत: भाग्यांक से संबंधित ऊपरलिखित वस्तुओं को जीवन मेंं अपना कर तथा शत्रु अंक से संबंधित वस्तुओं का दानादि कर आकस्मिक दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है। जैसे कि ऊपर र्वणित उदाहरण के व्यक्ति को भाग्यांक 1 से संबंधित वस्तुओं जैसे कि सुनहरी रंग के वस्त्र पहनने चाहिये या पिता की सेवा करनी चाहिये या माणिक रत्न धारण करना चाहिये और शत्रु अंक 4, 7 व 8की वस्तुओं जैसे कि तिल, तेल व कंबल आदि का दान करना चाहिये और होने वाली आकस्मिक दुर्घटनाओं से बचाव करना चाहिये

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हनुमान जी को सिंदूर क्यों?


अद्भुत रामायण में एक कथा का उल्लेख मिलता है, जिसमें श्री रामचंद्र का राज्याभिषेक होने के पश्चात एक मंगलवार की सुबह जब हनुमानजी को भूख लगी, तो वे माता जानकी के पास कुछ कलेवा पाने के लिए पहुंचे। सीता माता की मांग में लगा सिंदूर देखकर हनुमानजी ने उनसे आश्चर्यपूर्वक पूछा- माता! मांग में आपने यह कौन-सा द्रव्य लगाया है?
इस पर सीता माता ने प्रसन्नतापूर्वक कहा- पुत्र! यह सिंदूर है, जो सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक, मंगलसूचक, सौभाग्यवर्धक है, जो स्वामी के दीर्घायु के लिए जीवनपर्यंत मांग में लगाया जाता है। इससे श्रीराम मुझ पर प्रसन्न रहते हैं।
हनुमानजी ने यह जानकर विचार किया कि जब अंगुली भर सिंदूर लगाने से स्वामी की आयु में वृद्धि होती है, तो फिर क्यों न सारे शरीर पर इसे लगाकर स्वामी भगवान श्रीराम को अजर-अमर कर दूं। उन्होंने जैसा सोचा, वैसा ही कर दिखाया। अपने शरीर पर सिंदूर पोतकर भगवान् श्रीराम की सभा में पहुंच गए। उन्हें इस प्रकार सिंदूरी रंग में रंगा देखकर सभा में उपस्थित सभी लोग हंसे, यहां तक कि भगवान श्रीराम भी उन्हें देखकर मुस्काराए और बहुत प्रसन्न हुए। उनके सरल भाव पर मुग्ध होकर उन्होंने यह घोषणा की कि जो भक्त मंगलवार के दिन मेरे अनन्य प्रिय हनुमान को तेल-सिंदूर चढ़ाएंगे, उन्हें मेरी प्रसन्नता प्राप्त होगी और उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होगी। इससे माता जानकी के वचनों पर हनुमानजी को और भी अधिक दृढ़ विश्वास हो गया।
कहा जाता है कि उसी समय से भगवान श्रीराम के प्रति हनुमानजी की अनुपम स्वामी भक्ति को याद करने के लिए उनके सारे शरीर पर चमेली के तेल में सिंदूर घोलकर लगाया जाता है। इसे अन्य स्थानों पर चोला चढ़ाना भी कहते हैं।

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बीता हुआ कल


बु द्ध भगवान एक गाँव मेंं उपदेश दे रहे थे. उन्होंने कहा कि हर किसी को धरती माता की तरह सहनशील तथा क्षमाशील होना चाहिए. क्रोध ऐसी आग है जिसमेंं क्रोध करनेवाला दूसरोँ को जलाएगा तथा खुद भी जल जाएगा. सभा मेंं सभी शान्ति से बुद्ध की वाणी सून रहे थे, लेकिन वहाँ स्वभाव से ही अतिक्रोधी एक ऐसा व्यक्ति भी बैठा हुआ था जिसे ये सारी बातें बेतुकी लग रही थी. वह कुछ देर ये सब सुनता रहा फिर अचानक ही आग- बबूला होकर बोलने लगा, तुम पाखंडी हो. बड़ी-बड़ी बाते करना यही तुम्हारा काम है। तुम लोगों को भ्रमित कर रहे हो. तुम्हारी ये बातें आज के समय मेंं कोई मायने नहीं रखतीं।
ऐसे कई कटु वचनों सुनकर भी बुद्ध शांत रहे. अपनी बातोँ से ना तो वह दुखी हुए, ना ही कोई प्रतिक्रिया की; यह देखकर वह व्यक्ति और भी क्रोधित हो गया और उसने बुद्ध के मुंह पर थूक कर वहाँ से चला गया। अगले दिन जब उस व्यक्ति का क्रोध शांत हुआ तो उसे अपने बुरे व्यवहार के कारण पछतावे की आग मेंं जलने लगा और वह उन्हें ढूंढते हुए उसी स्थान पर पहुंचा, पर बुद्ध कहाँ मिलते वह तो अपने शिष्यों के साथ पास वाले एक अन्य गाँव निकल चुके थे.
व्यक्ति ने बुद्ध के बारे मेंं लोगों से पुछा और ढूंढते- ढूंढते जहांँ बुद्ध प्रवचन दे रहे थे वहाँ पहुँच गया। उन्हें देखते ही वह उनके चरणो मेंं गिर पड़ा और बोला, मुझे क्षमा कीजिए प्रभु!
बुद्ध ने पूछा -कौन हो भाई? तुम्हे क्या हुआ है? क्यों क्षमा मांग रहे हो?
उसने कहा -क्या आप भूल गए। मै वही हूँ जिसने कल आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया था. मै शर्मिन्दा हूँ. मै मेंरे दुष्ट आचरण की क्षमायाचना करने आया हूँ.
भगवान बुद्ध ने प्रेमपूर्वक कहा -बीता हुआ कल तो मैं वहीँ छोड़कर आया गया और तुम अभी भी वहीँ अटके हुए हो. तुम्हे अपनी गलती का आभास हो गया, तुमने पश्चाताप कर लिया; तुम निर्मल हो चुके हो; अब तुम आज मेंं प्रवेश करो. बुरी बाते तथा बुरी घटनाएँ याद करते रहने से वर्तमान और भविष्य दोनों बिगड़ते जाते है. बीते हुए कल के कारण आज को मत बिगाड़ो.
उस व्यक्ति का सारा बोझ उतर गया. उसने भगवान बुद्ध के चरणों मेंं पड़कर क्रोध त्याग का तथा क्षमाशीलता का संकल्प लिया; बुद्ध ने उसके मस्तिष्क पर आशीष का हाथ रखा. उस दिन से उसमेंं परिवर्तन आ गया, और उसके जीवन मेंं सत्य, प्रेम व करुणा की धारा बहने लगी.
मित्रों , बहुत बार हम भूत मेंं की गयी किसी गलती के बारे मेंं सोच कर बार-बार दुखी होते और खुद को कोसते हैं। हमेंं ऐसा कभी नहीं करना चाहिए, गलती का बोध हो जाने पर हमें उसे कभी ना दोहराने का संकल्प लेना चाहिए और एक नयी ऊर्जा के साथ वर्तमान को सुदृढ़ बनाना चाहिए।

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