Tuesday, 14 April 2015

मनुष्यता का तीसरा पुरुषार्थ काम का दमन करना



काम का दमन ना करें: यह मनुष्यता का तीसरा पुरुषार्थ है..........'हमने काम को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने में भयभीत होते हैं। हमने तो काम को इस भांति छिपा कर रख दिया है जैसे वह है ही नहीं, जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब कि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में और कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है, उसको दबाया है। दबाने और छिपाने से मनुष्यकाम से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि मनुष्य और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाया है...।'याद रहे आहार निद्रा भय मैथुनं च सर्वेषाम प्राणीनाह समाः.....यह एक अनिवार्य क्रिया है...इसका ..सहजता से निर्वाह जीवन को सफल और असहजता जटिल बना देती है......आज शायद जितनी असहज घटनाए हो रही वे सारी इसी वजह से होरही है.........
काम को समझों : युवकों से मैं कहना चाहता हूँ कि तुम्हारे माँ-बाप तुम्हारे पुरखे, तुम्हारी हजारों साल की पीढ़ियाँ काम से भयभीत रही हैं। तुम भयभीत मत रहना। तुम समझने की कोशिश करना उसे। तुम पहचानने की कोशिश करना। तुम बात करना। तुम काम के संबंध में आधुनिक जो नई खोजें हुई हैं उसको पढ़ना, चर्चा करना और समझने की कोशिश करना कि क्या है सेक्स?
काम विरोध ना करें : काम थकान लाता है। इसीलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि इसकी अवहेलना मत करो, जब तक तुम इसके पागलपन को नहीं जान लेते, तुम इससे छुटकारा नहीं पा सकते। जब तक तुम इसकी व्यर्थता को नहीं पहचान लेते तब तक बदलाव असंभव है।
मैं बिलकुल भी काम विरोधी नहीं हूँ। क्योंकि जो लोग काम का विरोध करेंगे वे काम वासना में फँसे रहेंगे। मैं काम पक्ष में हूँ क्योंकि यदि तुम काम में गहरे चले गए तो तुम शीघ्र ही इससे मुक्त हो सकते हो। जितनी सजगता से तुम काम में उतरोगे उतनी ही शीघ्रता से तुम इससे मुक्ति भी पा जाओगे। और वह दिन भाग्यशाली होगा जिस दिन तुम वासना से पूरी तरह मुक्त हो जाओगे।
धन और काम : धन में शक्ति है, इसलिए धन का प्रयोग कई तरह से किया जा सकता है। धन से काम खरीदा जा सकता है और सदियों से यह होता आ रहा है। राजाओं के पास हजारों पत्नियाँ हुआ करती थीं। बीसवीं सदी में ही केवल तीस-चालीस साल पहले हैदराबाद के निजाम की पाँच सौ पत्नियाँ थीं।
मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके पास तीन सौ पैंसठ कारें थीं और एक कार तो सोने की थी। धन में शक्ति है क्योंकि धन से कुछ भी खरीदा जा सकता है। धन और सेक्स में अवश्य संबंध है।
एक बात और समझने जैसी है, जो सेक्स का दमन करता है वह अपनी ऊर्जा धन कमाने में खर्च करने लग जाता है क्योंकि धन सेक्स की जगह ले लेता है। धन ही उसका प्रेम बन जाता है, धन के लोभी को गौर से देखना- सौ रुपए के नोट को ऐसे छूता है जैसे उसकी प्रेमिका हो और जब सोने की तरफ देखता है तो उसकी आँखें कितनी रोमांटिक हो जाती हैं... बड़े-बड़े कवि भी उसके सामने फीके पड़ जाते हैं। धन ही उसकी प्रेमिका होती है। वह धन की पूजा करता है, धन यानी देवी। भारत में धन की पूजा होती है, दीवाली के दिन थाली में रुपए रखकर पूजते हैं। बुद्धिमान लोग भी यह मूर्खता करते देखे गए हैं।
दुख और सेक्स : जहाँ से हमारे सुख दु:खों में रूपांतरित होते हैं, वह सीमा रेखा है जहाँ नीचे दु:ख है, ऊपर सुख है इसलिए दु:खी आदमी सेक्सुअली हो जाता है। बहुत सुखी आदमी नॉन-सेक्सुअल हो जाता है क्योंकि उसके लिए एक ही सुख है। जैसे दरिद्र समाज है, दीन समाज है, दु:खी समाज है, तो वह एकदम बच्चे पैदा करेगा। गरीब आदमी जितने बच्चे पैदा करता है, अमीर आदमी नहीं करता। अमीर आदमी को अकसर बच्चे गोद लेने पड़ते हैं!
उसका कारण है। गरीब आदमी एकदम बच्चे पैदा करता है। उसके पास एक ही सुख है, बाकी सब दु:ख ही ‍दु:ख हैं। इस दु:ख से बचने के लिए एक ही मौका है उसके पास कि वह सेक्स में चला जाए। वह ही उसके लिए एकमात्र सुख का अनुभव है, जो उसे हो सकता है। वह वही है।
सेक्स से बचने का सूत्र : जब भी तुम्हारे मन में कामवासना उठे तो उसमें उतरो। धीरे- धीरे तुम्हारी राह साफ हो जाएगी। जब भी तुम्हें लगे कि कामवासना तुम्हें पकड़ रही है, तब डरो मत शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको- उच्छवास। भीतर मत लो श्वास को क्योंकि जैसे ही तुम भीतर गहरी श्वास को लोगे, भीतर जाती श्वास काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ धकाती है।
जब तुम्हें कामवासना पकड़े, तब बाहर फेंको श्वास को। नाभि को भीतर खींचो, पेट को भीतर लो और श्वास को फेंको...जितनी फेंक सको फेंको। धीरे-धीरे अभ्यास होने पर तुम संपूर्ण रूप से श्वास को बाहर फेंकने में सफल हो जाओगे।
कामऔर प्रेम : वास्तविक प्रेमी अंत तक प्रेम करते हैं। अंतिम दिन वे इतनी गहराई से प्रेम करते हैं जितना उन्होंने प्रथम दिन किया होता है; उनका प्रेम कोई उत्तेजना नहीं होता। उत्तेजना तो वासना होती है। तुम सदैव ज्वरग्रस्त नहीं रह सकते। तुम्हें स्थिर और सामान्य होना होता है। वास्तविक प्रेम किसी बुखार की तरह नहीं होता यह तो श्वास जैसा है जो निरंतर चलता रहता है।
प्रेम ही हो जाओ। जब आलिंगन में हो तो आलिंगन हो जाओ, चुंबन हो जाओ। अपने को इस पूरी तरह भूल जाओ कि तुम कह सको कि मैं अब नहीं हूँ, केवल प्रेम है। तब हृदय नहीं धड़कता है, प्रेम ही धड़कता है। तब खून नहीं दौड़ता है, प्रेम ही दौड़ता है। तब आँखें नहीं देखती हैं, प्रेम ही देखता है। तब हाथ छूने को नहीं बढ़ते, प्रेम ही छूने को बढ़ता है। प्रेम बन जाओ और शाश्वत जीवन में प्रवेश करो।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

क्यों समझते हैं बच्चें अपने पिता को दुष्मन जाने क्या है इसका ज्योतिषीय कारण और निदान करें

क्यों समझते हैं बच्चें अपने पिता को दुष्मन जाने क्या है इसका ज्योतिषीय कारण और निदान करें-

वाल्मिकी ने कहा है कि
न तो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिपा॥
(पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करने से बढकर कोई धर्माचरण नहीं है।)
किंतु आज एक पिता अपने ही बच्चों का दुष्मन समझा जाता है इसका ज्योतिषीय कारण क्या है??? कालपुरूष की कुंडली में दसम स्थान को पिता का स्थान माना जाता है जिसका स्वामी शनि है, जोकि न्यायकर्ता, पालनकर्ता होता है वहीं संतान को पंचम भाव से देखा जाता है जोकि सूर्य होता है सूर्य अर्थात् राजा मतलब उसे सभी सुख-साधन चाहिए। अतः यदि किसी भी कुंडली में सूर्य-षनि की युति बने या किसी भी प्रकार से पंचम एवं दसम स्थान के ग्रहों के आपमें संबंध विपरीतकारक हो जाएं या राहु मंगल, शनि तथा सूर्य जैसे ग्रहों से दृष्ट हों तो ऐसे पिता अपने बच्चों के जीवन सुधारने के लिए अपना सब कुछ करने के बाद भी बच्चों का भला नहीं कर पाते और बुरे ही बने रहते हैं। इसी प्रकार यदि किसी की कुंडली में पंचमेष या पंचम भाव छठवे, आठवे या बारहरवे स्थान पर हो तो ऐसे जातक अपने संतान को लेकर जीवनभर परेषान होते रहते हैं।
एक पिता अपने सुख-दुख, अपनी खुषी को निछावर कर अपने बच्चों को सुविधा संपन्न बनाने, एक अच्छा कैरियर देने के लिए प्रयास रत रहता है। अपनी संतान को योग्य बनाने के लिए जी-जान से कोषिष करने और अनुषाासन के लिए प्रेरित करने के कारण बच्चे पिता की अनुशासनप्रियता व सख्ती के चलते पिता को क्रूर समझते हैं किंतु उनके प्रयास को नजरअंदाज कर देते हैं। किशोर बच्चों को सँभालना माता-पिता के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। माता के प्यार तथा पिता से छिपाकर बहुत सहयोग करने के कारण बच्चे माता के तो करीब रहते हैं किंतु एक पिता के योगदान को भुला देते हैं। जब बच्चे युवा उम्र की कठिनाईयों से जुझते हैं जिसमें अपने राह से भटक जाते हैं। वे नियमों का पालन करने में असमर्थ हैं। उन्हें मेहनत करने की भी आदत नहीं होती है, सब कुछ आसानी से चाहिए। उनमें यह प्रवृत्ति माता-पिताओं की अतिशय उदारता (बल्कि दरियादिली) से आती है, जहाॅ अपनी सन्तान को अधिकाधिक सुविधाएँ सुलभ कराने की कोषिष करते हैं जिससे बच्चे अपने जीवन में सफल हो सकें वहीं बच्चों के जीवन में अनुशासन का घोर अभाव देखा जा रहा है। बात-बात में उत्तेजित होना, अपषब्द का प्रयोग करना, कई बार मादक पदार्थों का सेवन करना, फ्लर्ट करना, कई बार चोरी की आदत होना, आर्थिक समृध्दि के झूठे प्रदर्शन के लिए चोरियां करना और शिक्षकों से दुर्व्यवहार करना आदि आज के बच्चों में पाये जाने वाले आम दुर्गुण हैं। पिता जब बच्चों की इन आदतों से वाकिफ होकर सुधारने का प्रयास करता है तो बच्चें अपने पिता को ही अपना दुष्मन समझने लगते हैं। उपाय हेतु शनि की शांति, मंत्रजाप तथा बच्चों को प्रारंभ से ही अनुषासन एवं आवष्यक सुविधा संपन्न बनाना तथा समय रहते दंडाधिकारी की तरह नियमों का पालन कराना चाहिए।

Monday, 13 April 2015

जैन दर्शन..


जैन दर्शन.... जैन दर्शन
महावीर स्वामी के उपदेशों से लेकर जैन धर्म की परंपरा आज तक चल रही है। महावीर स्वामी के उपदेश 41 सूत्रों में संकलित हैं, जो जैनागमों में मिलते हैं। उमास्वाति का "तत्वार्थाधिगम सूत्र" (300 ई.) जैन दर्शन का प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्र है। सिद्धसेन दिवाकर (500 ई.), हरिभद्र (900 ई.), मेरुतुंग (14वीं शताब्दी), आदि जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। सिद्धांत की दृष्टि से जैन दर्शन एक ओर अध्यात्मवादी तथा दसरी ओर भौतिकवादी है। वह आत्मा और पुद्गल (भौतिक तत्व) दोनों को मानता है। जैन मत में आत्मा प्रकाश के समान व्यापक और विस्तारशील है। पुनर्जन्म में नवीन शरीर के अनुसार आत्मा का संकोच और विस्तार होता है। स्वरूप से वह चैतन्य स्वरूप और आनंदमय है। वह मन और इंद्रियों के माध्यम के बिना परोक्ष विषयों के ज्ञान में समर्थ है। इस अलौकिक ज्ञान के तीन रूप हैं - अवधिज्ञान, मन:पर्याय और केवलज्ञान। पूर्ण ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह निर्वाण की अवस्था में प्राप्त हाता है। यह सब प्रकार से वस्तुओं के समस्त धर्मों का ज्ञान है। यही ज्ञान "प्रमाण" है। किसी अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म का ज्ञान "नय" कहलाता है। "नय" कई प्रकार के होते हैं। ज्ञान की सापेक्षता जैन दर्शन का सिद्धांत है। यह सापेक्षता मानवीय विचारों में उदारता और सहिष्णुता को संभव बनाती है। सभी विचार और विश्वास आंशिक सत्य के अधिकारी बन जाते हैं। पूर्ण सत्य का आग्रह अनुचित है। वह निर्वाण में ही प्राप्त हो सकता है। निर्वाण अत्मा का कैवल्य है। कर्म के प्रभाव से पुद्गल की गति आत्मा के प्रकाश को आच्छादित करती है। यह "आस्रव" कहलाता है। यही आत्मा का बंधन है। तप, त्याग, और सदाचार से इस गति का अवरोध "संवर" तथा संचित कर्मपुद्गल का क्षय "निर्जरा" कहलाता है। इसका अंत "निर्वाण" में होता है। निर्वाण में आत्मा का अनंत ज्ञान और अनंत आनंद प्रकाशित होता है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in



बौद्ध दर्शन:..........


बौद्ध दर्शन:...................
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है। उपनिषदों का ब्रह्म अचल और अपरिवर्तनशील है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है। बाह्य पदार्थ "स्वलक्षणों" के संघात हैं। आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है। इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके "अनात्मवाद" की स्थापना की गई है। फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं। आत्मा का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं। दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने सन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ। इस विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा। किंतु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए। जैन संप्रदाय वेदांत के समान ध्यानवादी है। इसका चीन में प्रचार है।
सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है। योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है। पश्चिमी दर्शनों की भाँति ये दर्शन पूर्वापर क्रम में उदित नहीं हुए हैं।
वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा "सर्वास्तित्ववाद" कहते हैं। सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है। माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

भारतीय तर्कशास्त्र का इतिहास


भारतीय तर्कशास्त्र का इतिहास २३ शताब्दियों में पसरा हुआ है। भारतीय न्यायिकों की प्रकाशित एवं अप्रकाशित (प्राप्य या अप्राप्य) कृतियों की संख्या भी विशाल है। पश्चिमी भाषाओं में या अच्छे हालत में पार्त रचनाओं की संख्या कुल रचनाओं की संख्या का एक छोटा भाग ही है।
भारतीय तर्कशास्त्र के इतिहास के लिये जिसे पाँच भागों में बांट सकते हैं -
१) व्याकरण - पाणिनि आदि के द्वारा विकसित ; इस व्याकरण के अत्यन्त परिष्कृत तर्कपूर्ण नियमों ने बाद के अधिकांश विद्वतापूर्ण कार्यों पर अपनी छाप छोड़ी।
२) मीमांसा
३) वैशेषिक एवं पुराना न्याय
४) बौद्ध न्याय
५) नव्यन्याय

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

तंत्रयुक्ति

तंत्रयुक्ति......तंत्रयुक्ति (६०० ईसा पूर्व) रचित एक भारतीय ग्रन्थ है जिसमें परिषदों एवं सभाओं में शास्त्रार्थ (debate) करने की विधि वर्णित है। वस्तुतः तंत्रयुक्ति हेतुविद्या (logic) का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। इसका उल्लेख चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, अर्थशास्त्र ग्रन्थ आदि में भी मिलता है। किन्तु इसका सर्वाधिक उपयोग न्यायसूत्र एवं उसके भाष्यों में हुआ है। सुश्रुतसंहिता के उत्तरतंत्र में कहा गया है कि युक्तितंत्र की सहायता से कोई अपनी बात मनवा सकता है और विरोधी के तर्क को गलत सिद्ध कर सकता है।
३२ युक्तियाँ
(१) अधिकरण (२) विधान (३) योग (४) पदार्थ
(५) हेत्वार्थ (६) उद्देश (७) निर्देश (८) उपदेश
(९) अपदेश (१०) अतिदेश (११) प्रदेश (१२) उपमान
(१३) अर्थापत्ति (१४) संशय (१५) प्रसंग (१६) विपर्यय
(१७) वाक्य-शेष (१८) अनुमत (१९) व्याख्यान (२०) निर्वचन
(२१) निदर्शन (२२) अपवर्ग (२३) स्वसंज्ञा (२४) पूर्वपक्ष
(२५) उत्तरपक्ष (२६) एकान्त (२७) अनागतावेक्षण (२८) अतिक्रान्तावेक्षण
(२९) नियोग (३०) विकल्प (३१) समुच्चय (३२) ऊह्य
चरकसंहिता में ३४ तंत्रयुक्तियों की गणना है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

मध्य युगीन संतों का निर्गुण-भक्ति-काव्य


मध्य युगीन संतों का निर्गुण-भक्ति-काव्य : कुछ प्रश्न[मध्‍य युग ने मोक्ष का अतिक्रमण कर, भक्‍ति की स्‍थापना की। हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास में भक्‍तिकाल का विवेचन करते समय विद्वानों ने निर्गुण भक्‍ति एवं सगुण भक्‍ति में भेद किया है तथा संतों एवं सूफियों के काव्‍य की परम्‍परा को निर्गुण भक्‍ति के अन्‍तर्गत रखा है। सभी संतों ने अपने काव्‍य में निर्गुण एवं निराकार उपास्‍य के प्रति अपना भक्‍ति-भाव अभिव्‍यंजित किया है। जब हम संतों के निर्गुण-भक्‍ति काव्‍य पर विचार करते हैं तो हमारी अध्‍ययन-सीमा के अन्‍तर्गत (1) नामदेव (2) कबीर (3) रैदास (4) नानक (5) जसनाथ (6) धर्मदास (7) सिंगा जी (8) दादू दयाल (9) सुन्‍दरदास (11 )षाह ष्‍बुल्‍ला (12) गुलाल साहब (13) पलटू साहब (14) मलूकदास (15) बाबा लाल(16) प्राणनाथ (17) जगजीवन साहब (18) धरनीदास (19) दरिया साहब (20) शिवनारायण (21) किनाराम (22) चरणदास (23) तुलसी साहब आदि संतों के द्वारा रचित साहित्‍य आता है। जब हम इन संतों के काव्‍य के सैद्धान्‍तिक पक्षों पर विचार करते हैं तो पंथों के रूप में (1) कबीर पंथ (2) नानक पंथ (3) दादू पंथ (4) बाबरी पंथ (5) मलूक पंथ (6) धरतीश्‍वरी पंथ (7) प्रणामी पंथ (8) सतनामी पंथ (9) शिवनारायणी पंथ (10) साहिब पंथ आदि आते हैं। इन पंथों में सैद्धान्‍तिक मत-वैभिन्‍नय भी मिलता है। प्रत्‍येक रचनाकार के साहित्‍य की अपनी विशिष्‍ट छटा भी दृष्‍टिगत होती है। सम्‍प्रति, इनके सामान्‍य पक्ष के कुछ बिन्‍दुओं पर विचार करना ही अभीष्‍ट है।]
भक्‍ति या उपासना के लिए गुणों की सत्‍ता आवश्‍यक है। ब्रह्म के सगुण स्‍वरूप को आधार बनाकर तो भक्‍ति / उपासना की जा सकती है किन्‍तु जो निर्गुण एवं निराकार है उसकी भक्‍ति किस प्रकार सम्‍भव है ? निर्गुण के गुणों का आख्‍यान किस प्रकार किया जा सकता है ? गुणातीत में गुणों का प्रवाह किस प्रकार माना जा सकता है ? जो निरालम्‍ब है, उसको आलम्‍बन किस प्रकार बनाया जा सकता है। जो अरूप है, उसके रूप की कल्‍पना किस प्रकार सम्‍भव है। जो रागातीत है, उसके प्रति रागों का अर्पण किस प्रकार किया जा सकता है ? रूपातीत से मिलने की उत्‍कंठा का क्‍या औचित्‍य हो सकता है। जो नाम से भी अतीत है, उसके नाम का जप किस प्रकार किया जा सकता है।.......

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

भारतीय दर्शन का स्रोत


भारतीय दर्शन का स्रोत...........भारतीय दर्शन का आरंभ वेदों से होता है। "वेद" भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्रोत हैं। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर वेद-मंत्रों का गायन होता है। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। आधुनिक अर्थ में वेदों को हम दर्शन के ग्रंथ नहीं कह सकते। वे प्राचीन भारतवासियों के संगीतमय काव्य के संकलन है। उनमें उस समय के भारतीय जीवन के अनेक विषयों का समावेश है। वेदों के इन गीतों में अनेक प्रकार के दार्शनिक विचार भी मिलते हैं। चिंतन के इन्हीं बीजों से उत्तरकालीन दर्शनों की वनराजियाँ विकसित हुई हैं। अधिकांश भारतीय दर्शन वेदों को अपना आदिस्त्रोत मानते हैं। ये "आस्तिक दर्शन" कहलाते हैं। प्रसिद्ध षड्दर्शन इन्हीं के अंतर्गत हैं। जो दर्शनसंप्रदाय अपने को वैदिक परंपरा से स्वतंत्र मानते हैं वे भी कुछ सीमा तक वैदिक विचारधाराओं से प्रभावित हैं।
वेदों का रचनाकाल बहुत विवादग्रस्त है। प्राय: पश्चिमी विद्वानों ने ऋग्वेद का रचनाकाल 1500 ई.पू. से लेकर 2500 ई.पू. तक माना है। इसके विपरीत भारतीय विद्वान् ज्योतिष आदि के प्रमाणों द्वारा ऋग्वेद का समय 3000 ई.पू. से लेकर 75000 वर्ष ई.पू. तक मानते हैं। इतिहास की विदित गतियों के आधार पर इन प्राचीन रचनाओं के समय का अनुमान करना कठिन है। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के विकास में हजारों वर्ष लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक छोटा सा अंश है। प्राचीन युग में रचित समस्त साहित्य संकलित भी नहीं हो सका होगा और संकलित साहित्य का बहुत सा भाग आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया होगा। वास्तविक वैदिक साहित्य का विस्तार इतना अधिक था कि उसके रचनाकाल की कल्पना करना कठिन है। निस्संदेह वह बहुत प्राचीन रहा होगा। वेदों के संबंध में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कुरान और बाइबिल की भाँति "वेद" किसी एक ग्रंथ का नाम नहीं है और न वे किसी एक मनुष्य की रचनाएँ हैं। "वेद" एक संपूर्ण साहित्य है जिसकी विशाल परंपरा है और जिसमें अनेक ग्रंथ सम्मिलित हैं। धार्मिक परंपरा में वेदों को नित्य, अपौरुषेय और ईश्वरीय माना जाता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हम उन्हें ऋषियों की रचना मान सकते हैं। वेदमंत्रों के रचनेवाले ऋषि अनेक हैं।
वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् कहलाते हैं। मंत्रों और स्तुतियों के संग्रह को "संहिता" कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मंत्रों की संहिताएँ ही हैं। इनकी भी अनेक शाखाएँ हैं। इन संहिताओं के मंत्र यज्ञ के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते थे। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर इनका गायन होता है। इन वेदमंत्रों में इंद्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, सोम, उषा आदि देवताओं की संगीतमय स्तुतियाँ सुरक्षित हैं। यज्ञ और देवोपासना ही वैदिक धर्म का मूल रूप था। वेदों की भावना उत्तरकालीन दर्शनों के समान सन्यासप्रधन नहीं है। वेदमंत्रों में जीवन के प्रति आस्था तथा जीवन का उल्लास ओतप्रोत है। जगत् की असत्यता का वेदमंत्रों में आभास नहीं है। ऋग्वेद में लौकिक मूल्यों का पर्याप्त मान है। वैदिक ऋषि देवताओं से अन्न, धन, संतान, स्वास्थ्य, दीर्घायु, विजय आदि की अभ्यर्थना करते हैं।
वेदों के मंत्र प्राचीन भारतीयों के संगीतमय लोककाव्य के उत्तम उदाहरण हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् ग्रंथों में गद्य की प्रधानता है, यद्यपि उनका यह गद्य भी लययुक्त है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों की विधि, उनके प्रयोजन, फल आदि का विवेचन है। आरण्यकग्रंथों में आध्यात्मिकता की ओर झुकाव दिखाई देता है। जैसा कि इस नाम से ही विदित होता है, ये वानप्रस्थों के उपयोग के ग्रंथ हैं। उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता है। चारों वेदों की मंत्रसंहिताओं के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् अलग अलग मिलते हैं। शतपथ, तांडय आदि ब्राह्मण प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हैं। ऐतरेय, तैत्तिरीय आदि के नाम से आरण्यक और उपनिषद् दोनों मिलते हैं। इनके अतिरिक्त ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य आदि प्राचीन उपनिषद् भारतीय चिंतन के आदिस्त्रोत हैं।
उपनिषदों का दर्शन आध्यात्मिक है। ब्रह्म की साधना ही उपनिषदों का मुख्य लक्ष्य है। ब्रह्म को आत्मा भी कहते हैं। "आत्मा" विषयजगत्, शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि आदि सभी अवगम्य तत्वों स परे एक अनिर्वचनीय और अतींद्रिय तत्व है, जो चित्स्वरूप, अनंत और आनंदमय है। सभी परिच्छेदों से परे होने के कारण वह अनंत है। अपरिच्छन्न और एक होने के कारण आत्मा भेदमूलक जगत् में मनुष्यों के बीच आंतरिक अभेद और अद्वैत का आधार बन सकता है। आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उसका साक्षात्कार करके मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। अद्वैतभाव की पूर्णता के लिए आत्मा अथवा ब्रह्म से जड़ जगत् की उत्पत्ति कैसे होती है, इसकी व्याख्या के लिए माया की अनिर्वचनीय शक्ति की कल्पना की गई है। किंतु सृष्टिवाद की अपेक्षा आत्मिक अद्वैतभाव उपनिषदों के वेदांत का अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। यही अद्वैतभाव भारतीय संस्कृति में ओतप्रोत है। दर्शन के क्षेत्र में उपनिषदों का यह ब्रह्मवाद आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि के उत्तरकालीन वेदांत मतों का आधार बना। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को "वेदांत" भी कहते हैं। उपनिषदों का अभिमत ही आगे चलकर वेदांत का सिद्धांत और संप्रदायों का आधार बन गया। उपनिषदों की शैली सरल और गंभीर है। अनुभव के गंभीर तत्व अत्यंत सरल भाषा में उपनिषदों में व्यक्त हुए हैं। उनको समझने के लिए अनुभव का प्रकाश अपेक्षित है। ब्रह्म का अनुभव ही उपनिषदों का लक्ष्य है। वह अपनी साधना से ही प्राप्त होता है। गुरु का संपर्क उसमें अधिक सहायक होता है। तप, आचार आदि साधना की भूमिका बनाते हैं। कर्म आत्मिक अनुभव का साधक नहीं है। कर्म प्रधान वैदिक धर्म से उपनिषदों का यह मतभेद है। सन्यास, वैराग्य, योग, तप, त्याग आदि को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है। इनमें श्रमण परंपरा के कठोर सन्यासवाद की प्रेरणा का स्रोत दिखाई देता है। तपोवादी जैन और बौद्ध मत तथा गीता का कर्मयोग उपनिषदों की आध्यात्मिक भूमि में ही अंकुरित हुए हैं


Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

छह दर्शन

छह दर्शन.....१..न्याय दर्शन....महर्षि गौतम रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। इसके अलावा इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

.वैशेषिक दर्शन....

.वैशेषिक दर्शन.....महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है। अत: मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष और समवाय इन छ: पदाथों के साधम्र्य तथा वैधम्र्य के तत्वाधान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधम्र्य तथा वैधम्र्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है, जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना संभव नहीं है। इसके अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों ही चेतन हैं। किंतु इस साधम्र्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।


Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

सांख्य दर्शन....

३...सांख्य दर्शन.....इस दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इसमें सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है। सत कारणों से ही सत कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित ख्ब् कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष ख्भ् वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदाथो का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं भोक्ती नहीं है।


Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

योग दर्शन........

...योग दर्शन........
इस दर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक हमारी इंद्रियां बहिर्गामी हैं, तब तक ध्यान कदापि संभव नहीं है। इसके अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम ओ३म् का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in


मीमांसा दर्शन...........

५.....मीमांसा दर्शन...........
इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। इस दर्शन के रचयिता महर्षि जैमिनि हैं। यदि योग दर्शन अंत: करण शुçद्ध का उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कत्तव्यों और अकत्तव्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति हो सके। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी मंत्रों के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

वेदांत दर्शन.........

६.......वेदांत दर्शन.........
वेदांत का अर्थ है वेदों का अंतिम सिद्धांत। महर्षि व्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है। इस दर्शन को उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म जगत का कर्ता-धर्ता व संहार कर्ता होने से जगत का निमित्त कारण है। उपादान अथवा अभिन्न कारण नहीं। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार भी है। इस दर्शन के प्रथम सूत्र `अथातो ब्रह्म जिज्ञासा´ से ही स्पष्ट होता है कि जिसे जानने की इच्छा है, वह ब्रह्म से भिन्न है, अन्यथा स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। और यह सर्वविदित है कि जीवात्मा हमेशा से ही अपने दुखों से मुक्ति का उपाय करती रही है। परंतु ब्रह्म का गुण इससे भिन्न है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

भारतीय दर्शन की ..यात्रा


भारतीय दर्शन की ..यात्रा.......वेदों में जो आधार तत्त्व बीज रूप में बिखरे दिखाई पड़ते थे, वे ब्राह्मणों में आकर कुछ उभरे; परन्तु वहाँ कर्मकाण्ड की लताओं के प्रतानों में फँसकर बहुत अधिक नहीं बढ़ पाये। आरण्यकों में ये अंकुरित होकर उपनिषदों में खूब पल्लवित हुए। दर्शनों का विकास जो हमें उपनिषदों में हमें दृष्टिगोचर होता है, आलोचकों ने उसका श्रीगणेश लगभग दौ सौ वर्ष ईसा पूर्व स्थिर किया है। महात्मा बुद्ध से यह प्राचीन हैं। इतना ही नहीं विद्वानों ने सांख्य, योग और मीमांसा को भी बुद्ध से प्राचीन माना है। संभव है कि ये दर्शन वर्तमान रूप में उस समय न हों, तथापि वे किसी रूप में अवश्य विद्यमान थे। वैशेषिकदर्शन भी शायद बुद्ध से प्राचीन ही है; क्योंकि जैसा आज के युग में न्याय और वैशेषिक समान तन्त्र समझे जाते हैं, उसी प्रकार पहले पूर्व मीमांस और वैशेषिक समझे जाते थे। बौद्धदर्शन पद्धति का आविर्भाव ईसा से पूर्व दो सौ वर्ष माना जाता है, परन्तु जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन से भी प्राचीन ठहरता है। इसकी पुष्टि में यह प्रमाण दिया जाता है कि प्राचीन जैन दर्शनों में न तो बुद्ध दर्शन और न किसी हिन्दू दर्शन का ही खण्डन उपलब्ध होता है। महावीर स्वामी, जो जैन सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं, वे भी बुद्ध से प्राचीन थे। अतएव जैन दर्शन का बुद्ध दर्शन से प्राचीन होना युक्तियुक्त अनुमान है।
भारतीय दर्शनों का ऐतिहासिक क्रम निश्चित करना कठिन है। इन सब भिन्न-भिन्न दर्शनों का लगभग साथ ही साथ समान रूप से प्रादुर्भाव एवं विकास हुआ है। इधर-उधर तथा बीच में भी कई कड़ियाँ छिन्न-भिन्न हो गई हैं। अत: जो कुछ शेष है, उसी का आधार लेकर चलना है। इस क्रम में शुद्ध ऐतिहासिकता न होने पर भी क्रमिक विकास की श्रृंखला आदि से अन्त तक चलती रही है। इसलिए प्राय: विद्वानों ने इसी क्रम का अनुसरण किया है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

चार्वाक दर्शन.



चार्वाक दर्शन.......... लोकायत
वेदविरोधी होने के कारण नास्तिक संप्रदायों में चार्वाक मत का भी नाम लिया जाता है। भौतिकवादी होने के कारण यह आदर न पा सका। इसका इतिहास और साहित्य भी उपलब्ध नहीं है। "बृहस्पति सूत्र" के नाम से एक चार्वाक ग्रंथ के उद्धरण अन्य दर्शन ग्रंथों में मिलते हैं। चार्वाक मत एक प्रकार का यथार्थवाद और भौतिकवाद है। इसके अनुसार केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। अनुमान और आगम संदिग्ध होते हैं। प्रत्यक्ष पर आश्रित भौतिक जगत् ही सत्य है। आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग आदि सब कल्पित हैं। भूतों के संयोग से देह में चेतना उत्पन्न होती है। देह के साथ मरण में उसका अंत हो जाता है। आत्मा नित्य नहीं है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जीवनकाल में यथासंभव सुख की साधना करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

आई मुशिकिलों को टाल पाएंगें अमर अग्रवाल



पि छले दिनों बिलासपुर एंव प्रदेश के अलग-अलग जगहों में जो नसबंदी से मौत की खबरें आईं, उसने समूचे देश को हिला कर रख दिया। न सिर्फ देश, इस बात की गूंज तो विदेशी मीडिया गलियारों में भी खूब सुमार हुई। मीडिया ने तो छत्तीसगढ़ प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल के घटनास्थल पर हंस देने को इस तरह प्रचारित किया कि जैसे अमर अग्रवाल कोई मौत पर हंसने वाला यमदूत हो।
यहां रमन सिंह की खासी मुशीबत इस काण्ड के कारण शुरु हो गई है। केन्द्र जवाब मांग रही है, पूछती है कि आखिर ऐसी दवा कंपनी को सरकारी दवाओं का ठेका कैसे दे दिया गया, जिनकी गुणवत्ता की मापदण्ड इतनी ख़्ास्ताहाल हो कि एंटीबायोटिक में चूहे मारने की दवा की मिलावट हो जाए। आखिर ऐसी दवा कंपनी का लाइसेंस क्यों रद्द नहीं किया गया। किन पहुंच वाले लोगों का इन दवा कंपनी के साथ निजी या व्यवसायिक संबंध थे? केंद्र को इसका जवाब चाहिए।
जवाब में कहा गया है कि जाँच कमेटी बिठा दी गई है, किंतु जांच कमेटी ही संदेह के दायरे में है। बहरहाल राज्य सरकार के सामने अब बड़ा सवाल है जनस्वास्थ्य के मामले में जनता का विश्वास कैसे अर्जित किया जाए। सरकारी अस्पतालों में तमाम दुव्र्यवस्थाओं और लूट खसोट के बावजूद राज्य की गरीब जनता उन्हीं पर आश्रित है। इस सहारे को चुस्त-दुरुस्त बनाना राज्य सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है। यह तभी संभव है जब स्वास्थ्य विभाग का प्रशासन जनोन्मुखी और ईमानदार हो। प्रदेश की सरकार क्या कुछ ऐसे नियम बनाने जा रही है जिससे इस तरह की गल्तियां ना दोहराई जा सके जिससे सरकार अपना विश्वास और प्रतिष्ठा को फिर से प्राप्त कर सके। आईये जानते हैं हमारे संपादक डेस्क से, क्या कहते हैं हमारे ज्योतिष एक्सपर्ट अमर अग्रवाल के आगामी राजनैतिक जीवन के बारे में। क्या अमर हाले दिनों की मुश्किलातों से निजात पा सकेंगें या सत्तासीन पार्टी को मुसीबत में डाल देंगे।
अमर अगवाल का जन्म लग्र है मीन और राशि है तुला....अमर अग्रवाल (जन्म 22 सितंबर 1963) वर्तमान में छत्तीसगढ शासन में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा, वाणिज्यिक कर एवं श्रम मंत्री के पद पर सुशोभित हैं। बुध की महादशा में मंगल की अंतरदशा से यानि 1998से अविरत रूप से बिलासपुर विधानसभा का प्रतिनिधित्व करते हुये 2013 यानि की शुक्र की महादशा के प्रारंभ तक विधानसभा चुनाव में श्री अग्रवाल ने रिकार्ड मतों (लगभग 18,000) से जीत दर्ज की है। इस विजय के पश्चात छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री के रूप में जनता के प्रति अपनी जवाबदेही का निर्वहन लगातार तीसरी बार कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य सूचकांक में सुधार एवं तकनीक का उपयोग जनता के हित के लिए जन-तकनीक के रूप में करना, उदाहरणार्थ 108संजीवनी एक्सप्रेस, 102 महतारी एक्सप्रेस, 104 चिकित्सकीय परामर्श एवं ऑन-लाईन जनशिकायत केंद्र श्री अग्रवाल की स्वास्थ्य मंत्री के रूप में विशेष उपलब्धि है जो कि छत्तीसगढ़ की दुर्गम भौगोलिक संरचना को देखते हुये अति आवश्यक भी है। इस पूरे कार्यकाल में जबरदस्त प्रसिद्धि तथा जनसमर्थन हासिल किया। मगर शुक्र की दशा के प्रारंभ से ही समय विपरीत होना शुरू हो गया। कुछ अपने पराये हुए तो कुछ को हमने पराया कर दिया। आबकारी नीति में परिवर्तन के कारण वे इस कार्यकाल के शुरूआत से ही ताकतवार लॉबी के निशाने पर रहे। और अब मित्रो की सिफारिश ने उन्हें विवादों में डाल दिया। असल में सप्तम स्थान का नीचस्थ शुक्र ही उनकी तबाही की मूल वजह है। शायद मुख्यमंत्रीजी भी यह समझते हैं कि इस पूरे घटनाक्रम में दोष किनका है? मगर बतौर मंत्री वे अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते और हो भी क्यों ना, ये घटना है ही इतनी जबरदस्त कि पूरे विश्व में जिसकी धमक सुनाई पड़ रही हो, भ्रष्टाचार, असावधानी और गैर जिम्मेदारी की सारी हदें पार हो गई हों, ऐसे प्रकरण में जो कि नीचस्थ शुक्र की महादशा में ही संभव हो सका। ये बड़े संयोग की बात है कि इस तरह की हर एक बड़ी घटना के पीछे मित्रो की सिफारिशी कृपा का हाथ रहा। मगर सज्जनता कभी भी किसी अपराध का न्यायसंगत तर्क नहीं हो सकता। व्यवसायिक सावधानी फिर भी जरूरी थी, जो किसी कारण वश आप के द्वारा नहीं ली जा सकी। और ये भयंकर परिणाम पेश आया। पूरे प्रकरण को देखने के लिए धनु लग्र में जन्में छत्तीसगढ़ की गोचर स्थिति पर भी नजर डालनी होगी। इस समय लग्रेश और चतुर्थेश बृहस्पति अष्टम स्थान में तथा दसम स्थान में पड़े हुए राहु राजा तथा राजतंत्र को हर तरह से परेशान किए हुए है। ज्यादा विस्तार से जानने के लिए राजा की कुंडली पर भी नजर डालनी जरूरी है। कर्क लग्र में जन्में राजाजी की इस समय बुध में मंगल की अंतरदशा चल रही है, जो उन्हें सभी तरफ से हैरान किए हुए है। चाहें वह राज्य की आर्थिक स्थिति हो, या राजाजी की घरेलू परिस्थितियॉ हर तरफ परेशानी का ही आलम है। बड़ा सवाल जो आपके जेहन में है शायद सभी के जेहन में है आखिर आगे क्या होगा? क्या सरकार इन सभी परिस्थितियों से निपट पायेगी? क्या अमर अग्रवाल जी इस विपत्ति से बच पायेंगे? और क्या प्रदेश में नेतृत्व का कोई परिवर्तन संभव है या प्रदेश की बेकाबू प्रशासनिक अव्यवस्था पर कोई अंकुश लगेगा? या परिस्थितियॉ और भी बद से बदतर होंगी? इन सभी बातों का विस्तार से ज्योतिषीय विश£ेषण आपके समक्ष है यहॉ ध्यान रहे हमारा मकसद किसी की निन्दा करना नहीं साथ ही यह लेखक की व्यक्तिगत मति और अन्वेषण है जो उपलब्ध अपरिक्षित तथ्यों पर आश्रित है।
अमर अग्रवाल लगातार विवादों में रहें और अभी छत्तीसगढ़ का स्वास्थ्य मंत्रालय एक बार फिर विवाद और सुर्खियों में आ गया है। बिलासपुर के नसबंदी कांड के घटनाक्रम को लेकर प्रदेश व देश ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में सरकारी तंत्र की जानलेवा आपराधिक लापरवाही की चर्चा चल रही है। इस पूरे मामले को लेकर राज्य सरकार के साथ-साथ स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल भी आलोचना के निशाने पर हैं और पूरे मंत्रालय की कार्यप्रणाली पर उंगलियां उठ रही हैं और कई सवाल खड़े हो गए हैं। ऐसे बहुत से सवालों पर स्वास्थ्य मंत्री, स्वास्थ्य महकमे की हैं, जिनके जवाब आने अभी बाकी हैं।
स्वास्थ्य विभाग इस कदर बदनाम क्यों है? गर्भाशय कांड, दवा खरीदी, मशीन खरीदी की सीबीआई जांच का आरोप लगा है। आंखफोडवा में 87 जानें, सैकड़ों महिला का गर्भाशय निकाला गया, लेकिन डॉक्टर्स पर कार्रवाई नहीं हुई। अपने विवादित बयानों के लिए जाने जाने वाले प्रदेश के मंत्री अमर अग्रवाल ने ने शराब पर दिया था, जिसमें प्रमुख रूप से शराब छत्तीसगढ़ की संस्कृति है। उनका कहना है, छत्तीसगढ़ी आदिवासी परंपरा में तीज-त्योहारों पर शराब सेवन छत्तीसगढ़ी संस्कृति है। मंत्री जी के इस बयान से जहां लोगों में भारी आक्रोश फैला, वहीं उन्होने अपने बयान से नये विवाद को जन्म दे दिया है। अब उनका बयान आया जब नसबंदी कांड हुआ। मैं इस्तीफा क्यों दूं। पार्टी ने मंत्री बनाया है, इस्तीफा तो क्या उसका ऑफर तक नहीं दूंगा। नसबंदी काण्ड में राजनैतिक प्रतिष्ठïा दांव पर लग गई है। महिलाओं की मौत मामले की आंच दिल्ली तक पहुंच जाने के कारण मामला अब स्वास्थ्य मंत्री के हाथों से निकल चुका है।
बिलासपुर की राजनीति में बेताज बादशाह हो चुके स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल के खिलाफ ऐसा माहौल न तो भदौरा जमीन घोटले के दौरान और न ही गर्भाशय काण्ड व नेत्र आपरेशन में लापरवाही के दौरान था। इन सारी खामियों से श्री अग्रवाल बेदाग बाहर निकल जाने में सफल रहे। नसबंदी शिविर को स्वास्थ्य विभाग वाले ने जिस तरह डेथ शिविर बना डाला है, उससे स्वास्थ्य मंत्री जिम्मेदार से नहीं बच सकते हालांकि काफी दबाव के बाद उन्होंने हादसे की नैतिक जिम्मेदारी तो ले ली है मगर यह भी कह दिया है कि उनके इस्तीफे को लेकर राजनीति नहीं करनी चाहिए। सीवरेज खुदाई के मामले में तो उन्होंने हार ही मान ली थी लेकिन राजनैतिक दावपेंच में उन्होंने अपनी सफलता का झंडा गाड़ दिया। विरोधियों का मुंह कैसे बंद किया जाए वे अच्छी तरह जानते हैं। विरोधी भी तो आखिर अपने ही हैं और चुनाव के वक्त काम आते हैं लेकिन नसबंदी कांड ने सारे किए कराए पर पानी फेर दिया है। सरकार को विलुप्त होती जनजाति बैगा समुदाय की दो महिलाओं की नसबंदी एवं उनकी मौत का भी जवाब देना है। केंद्र ने वर्ष 1998से परिवार नियोजन कार्यक्रम के तहत बैगा, कमार, अबुझमाडिय़ा और बिरहीर जनजातियों के सदस्यों की नसबंदी पर प्रतिबंध लगा रखा है और ये जनजातियां संरक्षित घोषित है। ऐसी स्थिति में दो बैगा महिलाओं की नसबंदी और उनकी मृत्यु सवालों के घेरे में है और आपराधिक मामला बनता है।
इस प्रकार लगातार विवादों में घिरे रहने वाले अमर अगवाल का जन्म लग्र है मीन और राशि है तुला। उनकी अभी शुक्र की महादशा में शुक्र की ही अंतरदशा चल रही है जिसमें सितंबर, 2014 से मार्च 2015 तक राहु की प्रत्यंतर दशा चलेगी जो उनके बयानों पर विवाद पैदा कर रही है। वैसे भी उनका तृतीयेश शुक्र सूर्य से आक्रांत होकर सप्तम स्थान पर है जो उन्हें लगातार बयानो के कारण विवाद देता है और एकादश स्थान पर शनि स्वभाव से जिद्दी बनाता है। मार्च तक उनकी स्थिति खराब रहने वाली है क्योंकि शुक्र में राहु की दशा चल रही है जो उन्हें लगातार स्वास्थ्य और व्यवहार जन्य दोष देता रहेगा। विशेषकर शनि के वृश्चिक राशि में प्रवेश करते ही अमर अग्रवाल की विवादों से मुसीबत का समय शुरू हुआ। शनि और गुरू के गोचर की स्थिति अब सभी राजनेताओं और सामाजिक स्तर पर न्यायकारी हो रहा है अत: इस समय अमर अग्रवाल की राहु की दशा और नीच का शुक्र सूर्य से आक्रांत होकर बैठने के कारण उन्हें विवाद को तूल देने के स्थान पर शांति से इन विवादों से मुक्ति का रास्ता सोचना चाहिए। नहीं तो जिस तरह से देश और दुनिया में न्याय की बयार बहीं है वह कहीं अमर के ध्वज को भी ना उड़ा ले जाये। उन्हें अपनी साख बचाये रखने के लिए अपने स्तर पर नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए स्थिति को सुधारने का प्रयास करना चाहिए और साथ ही अपनी राहु और शुक्र की शांति कराते हुए अपनी साख को बचाने की कोशिश करनी चाहिए। जिससे ना सिर्फ उनकी या भाजपा की साथ ही छत्तीसगढ़ सरकार की साख भी दांव पर लग सकती है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

बढ़ते सामाजिक अपराध ज्योतिष कारण!!!


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज का एक सदस्य है और समाज के अन्य सदस्यों के प्रति प्रतिक्रिया करता है, जिसके फलस्वरूप समाज के सदस्य उसके प्रति प्रक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया उस समय प्रकट होती है जब समूह के सदस्यों के जीवन मूल्य तथा आदर्ष ऊंचे हों, उनमें आत्मबोध तथा मानसिक परिपक्वता पाई जाए साथ ही वे दोषमुक्त जीवन व्यतीत करते हों। परिणाम स्वरूप एक स्वस्थ समाज का निमार्ण होगा तथा समाज में नागरिकों का योगदान भी साकारात्मक होगा। सामाजिक विकास में सहभागी होने के लिए ज्योतिष विषलेषण से व्यक्ति की स्थिति का आकलन कर उचित उपाय अपनाने से जीवन मूल्य में सुधार लाया जा सकता है साथ ही लगातार होने वाले अपराध, हिंसा से समाज को मुक्त कराने में भी उपयोगी कदम उठाया जा सकता है। समाज और संस्कृति व्यक्ति के व्यवहार का प्रतिमान होता है, जिसमें आवष्यक नियंत्रण किया जाना संभव हो सकता है। सामाजिक तौर पर व्यवहार को नियंत्रण करने के लिए प्राथमिक स्तर पर विद्यालय जिसमें स्कूल में बच्चों के आदर्ष उनके षिक्षक होते हैं। षिक्षकों के आचरण व व्यवहार, रहन-सहन का बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, उनके सौहार्दपूण व्यवहार से साकारात्मक और विपरीत व्यवहार से असुरक्षा, हीनता की भावना उत्पन्न होती है, जिसको देखने के लिए ज्योतिषीय दृष्टि है कि किसी बच्चे की कुंडली में गुरू की स्थिति के साथ उसका द्वितीय तथा पंचम भाव या भावेष की स्थिति उसके गुरू तथा स्कूल षिक्षा से संबंधित क्षेत्र को दर्षाता है ये सभी अनुकूल होने पर सामाजिक विकास में सहायक होते हैं किंतु प्रतिकूल होने पर शिक्षा तथा शिक्षकों के प्रति असंतोष व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार तथा उसके प्रतिक्रिया स्वरूप सामाजिक विकास में सहायक या बाधक हो सकता है। उसके उपरांत बच्चों के विकास में आसपडोस का बहुत प्रभाव पड़ता है, अक्सर अभिभावक अपने बच्चों को आसपड़ोस में खेलने से मना करते हैं कि पड़ोस के बच्चों का व्यवहार प्रतिकूल होने से उनके बच्चों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, जिसके ज्योतिष दृष्टि है कि पड़ोस को जातक की कुंडली में तीसरे स्थान से देखा जाता है अगर तीसरा स्थान अनुकूल हो तो पड़ोस का वातावरण अनुकूल होगा, जिससे जातक का व्यवहार भी बेहतर होगा क्योंकि तीसरा स्थान मनोबल का भी होगा अत: मनोबल उच्च होगा। उसी प्रकार समुदाय और संस्कृति का प्रभाव देखने के लिए चूॅकि सकुदाय या जाति, रीतिरिवाज, नगरीय या ग्रामीण वातावरण का प्रभाव भी विकास में सहायक होता है, जिसे ज्योतिष गणना में पंचम तथा द्वितीय स्थान से देखा जाता है। पंचम स्थान उच्च या अनुकूल होने से जातक का सामाजिक परिवेश अच्छा होगा जिससे उसके सामाजिक विकास की स्थिति बेहतर होने से उस जातक के सामाजिक विकास में सहायक बनने की संभवना बेहतर होगी। इस प्रकार उक्त स्थिति को ज्योतिषीय उपाय से अनुकूल या प्रतिकूल बनाया जाकर समाज और राष्ट्र उत्थान में योगदान दिया जा सकता है।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

शुक्र व्यवसाय और कार्यक्षेत्र

शुक्र के व्यवसाय और कार्यक्षेत्र: शुक्र आजीविका भाव मेंं बली अवस्था मेंं हो, दशमेंश हो, या फिर दशमेंश के साथ उच्च राशि का स्थित हो, तो व्यक्ति मेंं कलाकार बनने के गुण होते है। वह नाटककार और संगीतज्ञ होता है, उसकी रुचि सिनेमा के क्षेत्र मेंं काम करने की हो सकती है. शुक्र से प्रभावित व्यक्ति कवि, चित्रकार, वस्त्र विक्रेता, वस्त्र उद्योग, कपड़े बनाने वाला, इत्र, वाहन विक्रेता, वाहन बनाने वाले, व्यापारिक संस्थान, आभूषण विक्रेता, भवन बनाने वाले इंजिनियर, दुग्धशाला, नौसेना, रेलवे, आबकारी, यातायात, बुनकर, आयकर, सम्पति कर आदि का कार्य करता है।
शुक्र से संबंधित रोग: शुक्र शरीर मेंं वायु, कफ, आंखें, जननागं, पेशाब, वीर्य का प्रतिनिधित्व करता है। शुक्र के कमजोर होने पर व्यक्ति को यौन संबंधित रोग, मधुमेंह, पेशाब की थैली, गुरदे मेंं पथरी, मोतियाबिन्द, बेहोशी, के दौरे, जननांग संबंधित परेशानियां, सूजन, शरीर मेंं यंत्रणात्मक दर्द, श्वेत प्रदर, मूत्र सम्बन्धित रोग, चेहरे, आंखों और गुप्तागों से संबंधित रोग, खसरा, स्त्रियों मेंं माहवारी और उससे संबंधित रोग परेशान कर सकते हैं।
शुक्र को शुभ करने के उपाय: शुक्र की अशुभता दूर करने के लिए सामथ्र्य अनुसार रुई और दही को मंदिर मेंं दान करना चाहिए। स्त्रीजाति का कभी भी अपमान या निरादर नहीं करना चाहिए उन्हें सदैव आदर और सम्मान देने का प्रयास करना चाहिए। शुक्र की शुभता के लिए शुक्रवार का व्रत करना चाहिए तथा नियमित रुप से माता के मंदिर मेंं दर्शन करना चाहिए। मन और हृदय पर काबू रखना चाहिए और भटकाव की ओर जाने से रोकना चाहिए. शुक्र के सम्बन्ध मेंं मन और इन्द्रियों को नियंत्रित रखने पर विशेष बल देता है। गाय को हरी चारा खिलानी चाहिए इससे शुक्र की अशुभता मेंं कमी आएगी। गाय का दूध या घी, चावल या शक्कर मंदिर मेंं दान करने से भी शुक्र को बल मिलता है।
शुक्र के लिए वस्तुओं का दान: शुक्र के लिए घी, कपूर, दही, चांदी, चावल, चीनी, सफेद वस्त्र और फूल या गाय, इन वस्तुओं का दान शुक्रवार को सूर्यास्त के समय करना चाहिए।
शुभ की निशानी: सुंदर शरीर वाले पुरुष या स्त्री मेंं आत्मविश्वास भरपूर रहता है फिल्म या साहित्य मेंं उसकी रुचि रहती है। व्यक्ति धनवान और साधन-सम्पन्न होता है।
अशुभ की निशानी: अगर शनि मंद अर्थात नीच का हो तब भी शुक्र का बुरा असर होता है इसके अलावा भी ऐसी कई स्थितियां हैं जिससे शुक्र को मंद माना गया है अंगूठे मेंं दर्द का रहना या बिना रोग के ही अंगूठा बेकार हो जाता है। त्वचा मेंं विकार, गुप्त रोग, पत्नी से अनावश्यक कलह अशुभ शुक्र की निशानी है। शुक्र के साथ राहु का होना अर्थात स्त्री तथा दौलत का असर खत्म।
उपाय: लक्ष्मी की उपासना करें जिसमेंं महालक्ष्म्यै नम: का जाप करें. सफेद वस्त्र दान करें, भोजन का कुछ हिस्सा गाय, कौवे, और कुत्ते को दें। शुक्रवार का व्रत रखें खटाई न खाएं, दो मोती लें, एक को पानी मेंं बहा दें और दूसरे को जिंदगीभर अपने पास रखें। स्वयं को और घर को साफ-सुथरा रखें और हमेंशा साफ कपड़े पहनें।
शुक्र का जाप मंत्र: ऊँ शुं शुक्राय नम:,
बीच मंत्र: ऊँ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राये नम:
वैदिक मंत्र : हमकुन्द मृ्णालाभं दैत्यानां परमं गुरुम। सर्व शास्त्र प्रवक्तारं भर्गव प्रणामाम्यहम।।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

शुक्र से जीवन हो सुखमय


सौरमंडल से आने वाली किरणें खास कर शुक्र से आने वाली किरणें मनुष्य के व्यक्तित्व व दांपत्य जीवन में गाहे-वगाहे अनेक प्रभाव डालती हैं। व्यक्ति को वैवाहिक जीवन का सुख न मिल पाए, पति-पत्नी के संबंधों मेंं मधुरता न रहे या दोनों मेंं से किसी की कमी उनकी इच्छा की पूर्ति करने मेंं सक्षम न हो रही हो तब शुक्र का ही अशुभ प्रभाव हो सकता है। स्त्री को गर्भाश्य से संबंधित रोग परेशान करें या संतति संबंधी परेशानि हो तो यह भी शुक्र की अशुभता का संकेत देते हैं।
सौरमंडल के 9 ग्रहों मेंं शुक्र आकाश मेंं सबसे चमकदार तारा है, इसका महत्व नवग्रहों मेंं धन संपत्ति, सुख-साधन से है। वैज्ञानिकों का मानना है कि शुक्र की किरणों का हमारे शरीर और जीवन पर अकाट्य प्रभाव पड़ता है। शुक्र का व्यास 126000 किलोमीटर है और गुरुत्व शक्ति पृथ्वी के ही समान। इसे सूर्य की परिक्रमा पूरी करने मेंं 225 दिन लगते हैं। शुक्र एवं सूर्य के बीच की दूरी वैज्ञानिकों ने लगभग 108000000 किलोमीटर मानी है, इसे आकाश मेंं आसानी से देखा जा सकता है। इसे संध्या और भोर का तारा भी कहते हैं, क्योंकि इस ग्रह का उदय आकाश मेंं या तो सूर्योदय के पूर्व या संध्या को सूर्यास्त के पश्चात होता है। पुराणों के अनुसार शुक्र को सुंदरता का प्रतीक माना गया है। ये दानवों के गुरु हैं, इनके पिता का नाम कवि और इनकी पत्नी का नाम शतप्रभा है। दैत्य गुरु शुक्र दैत्यों की रक्षा करने हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। ये बृहस्पति की तरह ही शास्त्रों के ज्ञाता, तपस्वी और कवि हैं। शुक्र ग्रह को सुन्दर शरीर वाला, बड़ी आंखे दिखने मेंं आकर्षक, घुंघराले बाल, काव्यात्मक, कफमय, कम खाने वाला, छोटी कद-काठी, दिखने मेंं युवा बताया गया है। शुक्र के अस्त दिनों मेंं शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं इसका कारण यह कि उक्त वक्त पृथ्वी का पर्यावरण शुक्र प्रभा से दूषित माना गया है। यह ग्रह पूर्व मेंं अस्त होने के बाद 75 दिनों पश्चात पुन: उदित होता है उदय के 240 दिन वक्री चलता है, इसके 23 दिन पश्चात अस्त हो जाता है। पश्चिम मेंं अस्त होकर 9 दिन के पश्चात यह पुन: पूर्व दिशा मेंं उगता है। शनि व बुध शुक्र के मित्र ग्रहों मेंं आते है। शुक्र ग्रह के शत्रुओं मेंं सूर्य व चन्द्रमा है। शुक्र के साथ गुरु व मंगल सम सम्बन्ध रखते हैं। शुक्र वृषभ व तुला राशि के स्वामी हैं। शुक्र तुला राशि मेंं 0 अंश से 15 अंश के मध्य होने पर मूलत्रिकोण राशिस्थ होता है। शुक्र मीन राशि मेंं 27 अंश पर होने पर उच्च राशि अंशों पर होता है। शुक्र कन्या राशि मेंं 27 अंश पर होने पर नीच राशि मेंं होता है। शुक्र ग्रह की दक्षिण-पूर्व दिशा है। शुक्र का भाग्य रत्न हीरा है और उपरत्न जरकन होता है।
वैदिक ज्योतिष मेंं शुक्र को मुख्य रूप से पत्नी का कारक माना गया है। यह विवाह का कारक ग्रह है, ज्योतिष मेंं शुक्र से काम सुख, आभूषण, भौतिक सुख सुविधाओं का कारक ग्रह है। शुक्र से आराम पसन्द होने की प्रकृति, प्रेम संबन्ध, इत्र, सुगन्ध, अच्छे वस्त्र, सुन्दरता, सजावट, नृत्य, संगीत, गाना बजाना, काले बाल, विलासिता, व्यभिचार, शराब, नशीले पदारथ, कलात्मक गुण, आदि गुण देखे जाते है। पति- पत्नी का सुख देखने के लिए कुंडली मेंं शुक्र की स्थिति को विशेष रुप से देखा जाता है। शुक्र को सुंदरता, ऐश्वर्य तथा कला के साथ जुड़े क्षेत्रों का अधिपति माना जाता है।
रंगमंच, चित्रकार, नृत्य कला, फैशन, भोग-विलास से संबंधित वस्तुओं को शुक्र से जोड़ा जाता है। कुंडली मेंं शुक्र की प्रबल स्थिति जातक को शारीरिक रूप से सुंदर और आकर्षक बनाती है। शुक्र के प्रबल प्रभाव से महिलाएं अति आकर्षक होती हैं शुक्र के जातक आम तौर पर फैशन जगत, सिनेमा जगत तथा ऐसे ही अन्य क्षेत्रों मेंं सफल होते हैं। शुक्र शारीरिक सुखों का भी कारक है प्रेम संबंधों मेंं शुक्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
ज्योतिष के अनुसार कुण्डली मेंं शुक्र ग्रह की शुभ स्थिति जीवन को सुखमय और प्रेममय बनाती है तो अशुभ स्थिति चारित्रिक दोष एवं पीड़ा दायक होती है। शुक्र के अशुभ होने पर व्यक्ति मेंं चारित्रिक दोष उत्पन्न होने लगते हैं। व्यक्ति बुरी आदतों का शिकार होने लगता है। शुक्र के अशुभ होने पर वैवाहिक जीवन मेंं कलह की स्थिति उत्पन्न होने लगती है और इस कलह से अलगाव या तलाक की नौबत भी आ सकती है। जीवन मेंं धन संपत्ति, सुख-साधन सभी वस्तुओं के होने पर भी आप इन सभी के उपभोग का सुख न ले पाए तो यह भी शुक्र के खराब होने के लक्षण हो सकते हैं।
व्यक्ति को वैवाहिक जीवन का सुख न मिल पाए, पति-पत्नी के संबंधों मेंं मधुरता न रहे या दोनों मेंं से किसी की कमी उनकी इच्छा की पूर्ति करने मेंं सक्षम न हो रही हो तब शुक्र का ही अशुभ प्रभाव हो सकता है। स्त्री को गर्भाशय से संबंधित रोग परेशान करें या संतति संबंधी परेशानि हो तो यह भी शुक्र की अशुभता का संकेत देते हैं। शुक्र के बुरे प्रभाव के कारण व्यक्ति के जीवन मेंं भी बदलाव देखा जा सकता है। उसके व्यवहार मेंं चालबाजी, धोखेबाजी जैसे अवगुण उभरने लगते हैं तथा वह उसकी कथनी और करनी मेंं अंतर आ सकता है। शुक्र के पीडि़त होने के कारण व्यक्ति गुप्त रोगों से पीडि़त होने लगता है, उसकी अपनी गलतियां या अनैतिक कार्यों द्वारा वह अपनी सेहत खराब भी कर सकता है। शुक्र के अशुभ होने के कारण व्यक्ति कम उम्र मेंं ही नशे की लत या रोगों का शिकार होने लगता है उसके अंदर नशाखोरी एवं गलत कार्यों द्वारा होने वाले रोग उत्पन्न होने लगते हैं। जब कोई व्यक्ति अपना दोहरा व्यक्तित्व अपना लेता है अर्थात दोहरी जिंदगी जीने लगता है तब यह शुक्र के अशुभ होने के लक्षण होते हैं।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in