Tuesday, 14 April 2015

अभिनय चोरी है या कला


अभिनय चोरी है या कला?एक अमेरिकन अभिनेता का जीवन मैं पढ़ता था। कई बार संन्यासियों के जीवन थोथे होते हैं, उनमें कुछ भी नहीं होता। जिन्हें हम तथाकथित अच्छे आदमी कहते हैं, अक्सर उनके पास कोई जिंदगी नहीं होती। इसलिए अच्छे आदमी के आसपास कहानी लिखना बहुत मुश्किल है। उसके पास कोई जिंदगी नहीं होती। वह थोथा, समतल भूमि पर चलने वाला आदमी होता है, कोई उतार-चढ़ाव नहीं होते।
बुरे आदमी के पास जिंदगी के गहरे अनुभव : अकसर जिसको हम बुरा आदमी कहते हैं, उसमें एक जिंदगी होती है, और उसमें उतार-चढ़ाव होते हैं और अक्सर बुरे आदमी के पास जिंदगी के गहरे अनुभव होते हैं। अगर वह उनका उपयोग कर ले तो संत बन जाए। अच्छा आदमी कभी संत नहीं बन पाता। अच्छा आदमी बस अच्छा आदमी ही रह जाता है- सज्जन। सज्जन यानी मिडियॉकर। जिसने कभी बुरे होने की भी हिम्मत नहीं की, वह कभी संत होने की भी सामर्थ्य नहीं जुटा सकता।
इस अभिनेता की मैं जिंदगी पढ़ रहा था। उसकी जिंदगी बड़े उतार-चढ़ाव की जिंदगी है। अंधेरे की, प्रकाशों की, पापों की, पुण्यों की- लेकिन उसका अंतिम निष्कर्ष देखकर मैं दंग रह गया। अंतिम उसने जो निष्कर्ष दिया है, पूरी जिंदगी में जिस बात ने उसे सबसे ज्याद बेचैन किया है, वह आपको भी बेचैन कर सके।
अब मैं तय नहीं कर पाता हूं कि मैं कौन हूं? : आखिरी बात उसने यह कही है कि मेरी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मैंने इतने प्रकार के अभिनय किए, जिंदगी में मैंने इतनी एक्टिंग की, मैं इतने व्यक्ति बना कि अब मैं तय नहीं कर पाता हूं कि मैं कौन हूं? कभी वह शेक्सपियर के नाटक का कोई पात्र था, कभी वह किसी और कथा का कोई और पात्र था। कभी किसी कहानी में वह संत था, और कभी किसी कहानी में वह पापी था। जिंदगी में इतने पात्र बना वह कि आखिर में कहता है कि मुझे अब समझ नहीं पड़ता कि असली में मैं कौन हूं? इतने अभिनय करने पड़े, इतने चेहरे ओढ़ने पड़े कि मेरा खुद का चेहरा क्या है, वह मुझे कुछ पक्का नहीं रहा।
दूसरी बड़ी गहरी बात उसने कही है कि जब भी मैं किसी पात्र का अभिनय करने मंच पर जाता हूं, तब एट-ईज होता हूं। क्योंकि वहां स्वयं होने की जरूरत नहीं होती, एक अभिनय निभाना पड़ता है, तो मैं एकदम सुविधा में होता हूं, मैं निभा देता हूं। 'टु स्टेप इन ए रोल इज ईजीयर।' उसने लिखा है कि एक अभिनय में कदम रखना आसान है। 'बट टु स्टेप आउट ऑफ इट बिकम्स कांप्लेक्स।' जैसे ही मैं मंच से उतरता हूं, उस अभिनय को छोड़कर, वैसे ही मेरी दिक्कत शुरू हो जाती है कि अब मैं कौन हूं? तब तक तो तय होता है कि मैं कौन था, अब मैं कौन हूं?
धर्म का जन्म हो जाता है : हजार अभिनय करके यह तय करना उसे मुश्किल हो गया है कि मैं कौन हूं? कहना चाहिए कि उसकी जिंदभी में अचौर्य का क्षण निकट आ गया है, लेकिन हमारी जिंदगी में हमें पता नहीं चलता। सच बात तो यह है कि कोई अभिनेता इतना अभिनय नहीं करता, जितना अभिनय हम सब करते हैं। मंच पर नहीं करते हैं, इससे खयाल पैदा नहीं होता है। बचपन से लेकर मरने तक अभिनय की लंबी कहानी है। ऐसा एक भी आदमी नहीं है जो अभिनेता नहीं है। कुशल-अकुशल का फर्क हो सकता है, लेकिन अभिनेता नहीं है, कोई ऐसा आदमी नहीं है। और अगर कोई आदमी अभिनेता न रह जाए तो उसके भीतर धर्म का जन्म हो जाता है।
चेहरों की चोरी : हम चेहरे चुराकर जीते हैं। हम शरीर को अपना मानते हैं, वह भी अपना नहीं है, और हम जिस व्यक्तित्व को अपना मानते हैं, वह भी हमारा नहीं है। वह सब उधार है। और जिन चेहरों को हम अपने ऊपर लगाते हैं; जो मास्क, जो परसोना, जो मुखौटे लगाकर हम जीते हैं, वह भी हमारा चेहरा नहीं है। बड़ी से बड़ी जो आध्यात्मिक चोरी है, वह चेहरों की चोरी है, व्यक्तित्वों की चोरी है।
हम सब बाहर से ही साधते हैं धर्म को। अधर्म होता है भीतर, धर्म होता है बाहर। चोरी होती है भीतर, अचौर्य होता है बाहर। परिग्रह होता है भीतर, अपरिग्रह होता है बाहर। हिंसा होती है भीतर, अहिंसा होती है बाहर। फिर चेहरे सध जाते हैं। इसलिए धार्मिक आदमी जिन्हें हम कहते हैं, उनसे ज्यादा चोर व्यक्तित्व खोजना बहुत मुश्किल है।
चोर व्यक्तित्व का मतलब यह हुआ कि जो वे नहीं है, वे अपने को माने चले जाते हैं, दिखाए चले जाते हैं। आध्यात्मिक अर्थों में चोरी का अर्थ है- जो आप नहीं हैं, उसे दिखाने की कोशिश, उसका दावा। हम सब वही कर रहे हैं, सुबह से सांझ तक हम दावे किए जाते हैं।
मुस्कराहट आंसुओं को छिपाने का इंतजाम है : वह अमेरिकी अभिनेता ही अगर भूल गया हो कि मेरा ओरिजनल-फेस, मेरा अपना चेहरा क्या है, ऐसा नहीं है; हम भी भूल गए हैं। हम सब बहुत-से चेहरे तैयार रखते हैं। जब जैसी जरूरत होती है, वैसा चेहरा लगा लेते हैं। और जो हम नहीं हैं, वह दिखाई पड़ने लगते हैं। किसी आदमी की मुस्कुराहट देखकर भूल में पड़ जाने की कोई जरूरत नहीं है, जरूरी नहीं है कि भीतर आंसू न हों। अक्सर तो ऐसा होता है कि मुस्कराहट आंसुओं को छिपाने का इंतजाम ही होती है। किसी आदमी को प्रसन्न देखकर ऐसा मान लेने की कोई जरूरत नहीं है कि उसके भीतर प्रसन्नता का झरना बह रहा है, अक्सर तो वह उदासी को दबा लेने की व्यवस्था होती है। किसी आदमी को सुखी देखकर ऐसा मान लेने का कोई कारण नहीं है कि वह सुखी है, अक्सर तो दुख को भुलाने का आयोजन होता है।
आदमी जैसा भीतर है, वैसा बाहर दिखाई नहीं पड़ रहा है, यह आध्यात्मिक चोरी है। और जो आदमी इस चोरी में पड़ेगा, उसने वस्तुएं तो नहीं चुराईं, व्यक्तित्व चुरा लिए। और वस्तुओं की चोरी बहुत बड़ी चोरी नहीं है, व्यक्तित्वों की चोरी बहुत बड़ी चोरी है।
व्यक्तित्व चोर को किस जेल में बंद करें : ध्यान रहें, वस्तुओं के चोरों को तो हम जेलों में बंद कर देते हैं, व्यक्तित्वों के चोरों के साथ हम क्या करें? जिन्होंने पर्सनेलिटीज चुराई हैं, उनके साथ क्या करें? उन्हें हम सम्मान देते हैं, उन्हें हम मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में आदृत करते हैं।
ध्यान रहें, वस्तुओं के चोर ने कोई बहुत बड़ी चोरी नहीं की है, व्यक्तित्व के चोर ने बहुत बड़ी चोरी की है। और वस्तुओं की चोरी बहुत जल्दी बंद हो जाएगी, क्योंकि वस्तुएं ज्यादा हो जाएंगी, चोरी बंद हो जाएगी, लेकिन व्यक्तित्वों की चोरी जारी रहेगी। हम चुराते ही रहेंगे, दूसरे को ओढ़त ही रहेंगे।
इसे आप जरा सोचना कि आप स्वयं होने की हिम्मत जिंदगी में चुटा पाए, या नहीं जुटा पाएं? अगर नहीं जुटा पाए तो आपके व्यक्तित्व की अनिवार्य आधारशिला चोरी की होगी। आपने कोई और बनने की कोशिश तो नहीं की है? आपके चेतन-अचेतन में कहीं भी तो किसी और जैसा हो जाने का आग्रह तो नहीं है? अगर है, तो उस आग्रह को ठीक से समझ कर उससे मुक्त हो जाना जरूरी है। अन्यथा अचौर्य, नो-थेफ्ट की स्थिति नहीं पैदा हो पाएगी।
और यह चोरी ऐसी है कि इससे आपको कोई भी रोक नहीं सकता, क्योंकि व्यक्तित्व अदृश्य चोरियां हैं। धन चुराने जाएंगे, पकड़े जा सकते हैं। व्यक्तित्व चुराने जाएंगे, कौन पकड़ेगा? कैसे पकड़ेगा? कहां पकड़ेगा? और व्यक्तित्व की चोरी ऐसी है कि किसी से कुछ छीनते भी नहीं और आप चोर हो जाते हैं। व्यक्तित्व की चोरी आसान और सरल है। सुबह से उठकर देखना जरूरी है कि मैं कितनी बार दूसरा हो जाता हूं। हम व्यक्ति नहीं हो पाते व्यक्तित्वों के कारण। पर्सनेलिटीज के कारण पर्सन पैदा नहीं हो पाता।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

जीवन के बैर भाव को मिटाता हैं क्षमावाणी पर्व..


जीवन के बैर भाव को मिटाता हैं क्षमावाणी पर्व......क्षमा शब्द मानवीय जीवन की आधारशिला है। जिसके जीवन में क्षमा है, वही महानता को प्राप्त कर सकता है। क्षमावाणी हमें झुकने की प्रेरणा देती है। दसलक्षण पर्व हमें यही सिख ‍देता है कि क्षमावाणी के दिन हमें अपने जीवन से सभी तरह के बैर भाव-विरोध को मिटाकर प्रत्येक व्यक्ति से क्षमा मांगनी चाहिए। यही क्षमावाणी है।
सभी को जय जिनेंद्र का नाम लेकर झुकना सीखना चाहिए, क्योंकि क्षमा हमें झुकने की प्रेरणा देती है। चाहे छोटा हो या बड़ी क्षमा पर्व पर सभी से दिल से क्षमा मांगी जानी चाहिए।
क्षमा सिर्फ उससे नहीं मांगी जानी चाहिए, जो वास्त‍व में हमारा दुश्मन है। बल्कि हमें हर छोटे-बड़े जीवों से क्षमा मांगनी चाहिए। जब हमें क्रोध आता है तो हमारा चेहरा लाल हो जाता है और जब क्षमा मांगी जाती है तो चेहरे पर हंसी-मुस्कुराहट आ जाती है। क्षमा हमें अहंकार से दूर करके झुकने की कला सीखाती है। क्षमावाणी पर्व पर क्षमा को अपने जीवन में उतारना ही सच्ची मानवता है।हम क्षमा उससे मांग‍ते हैं, जिसे हम धोखा देते है। जिसके प्रति मन में छल-कपट रखते है। जीवन का दीपक तो क्षमा मांग कर ही जलाया जा सकता है। अत: हमें अपनी प‍त्नी, बच्चों, बड़े-बुजुर्गों सभी से क्षमा मांगना चाहिए।
क्षमा मांगते समय मन में किसी तरह का संकोच, किसी तरह का खोट नहीं होना चाहिए। हमें अपनी आत्मा से क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि मन के कषायों में फंसकर हम तरह-तरह के ढ़ोंग, स्वांग रचकर अपने द्वारा दूसरों को दुख पहुंचाते हैं। उन्हें गलत परिभाषित करने और नीचा दिखाने के चक्कर में हम दूसरों की भावनाओं का ध्यान नहीं रखते जो कि सरासर गलत है।
दसलक्षण पर्व के दिनों में किया गया त्याग और उपासना हमें जीवन की सच्ची राह दिखाते हैं। हमें तन, मन और वचन से चोरी, हिंसा, व्याभिचार, ईर्ष्या, क्रोध, मान, छल, गाली, निंदा और झूठ इन दस दोषों से दूर रहना ‍चाहिए। दसलक्षण के दस धर्मों की शिक्षा
* उत्तम क्षमा - क्षमा को धारण करने वाला समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव को दर्शाता है।
* उत्तम मार्दव - मनुष्य के मान और अहंकार का नाश करके उसकी विनयशीलता को दर्शाता है।
* उत्तम आर्जव - इस धर्म को अपनाने से मनुष्य निष्कपट एवं राग-द्वेष से दूर होकर सरल ह्रदय से जीवन व्यतीत करता है।
* उत्तम सत्य - जब जीवन में सत्य धर्म अवतरित हो जाता है, तब मनुष्य की संसार सागर से मुक्ति निश्चित है।
* उत्तम शौच - अपने मन को निर्लोभी बनाने की सीख देता है, उत्तम शौच धर्म। अपने जीवन में संतोष धारण करना ही इसका मुख्य उद्देश्य है। * उत्तम संयम - अपने जीवन में संयम धारण करके ही मनुष्य का जीवन सार्थक हो सकता है।
* उत्तम तप - जो मनुष्य कठिन तप के द्वारा अपने तन-मन को शुद्ध करता है, उसके कई जन्मों के कर्म नष्ट हो जाते हैं।
* उत्तम त्याग - जीवन के त्याग धर्म को अपना कर चलने वाले मनुष्य को मुक्ति स्वयंमेव प्राप्त हो जाती है।
* उत्तम आंकिचन - जो मनुष्य जीवन के सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करता है। उसे मोक्ष सुख की प्राप्ति अवश्य होती है।
* उत्तम ब्रह्मचर्य - जीवन में ब्रह्मचर्य धर्म के पालन करने से मोक्ष की प्राप्ति‍ अवश्य होती है।
इस प्रकार दस धर्मों को अपने जीवन में अपना कर जो व्यक्ति इसके अनुसार आचरण करता है, वह निश्चित ही निर्वाण पद को प्राप्त कर सकता है। पयुर्षण पर्व के यह दस दिन हमें इस तरह की शिक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा देते है और निरंतर क्षमा के पथ पर आगे बढ़ाते हुए मोक्ष की प्राप्ति कराते हैं।
अत: क्षमावाणी के दिन बिना किसी संकोच के तन-मन से सभी से क्षमायाचना मांगना (करना) ही जैन धर्म का उद्देश्य है।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

रहस्यमय विद्या


पेंडुलम डाउजिंग ........एक रहस्यमय विद्या........हमारे अवचेतन मन में वह शक्ति होती है कि हम एक ही पल में इस ब्रह्मांड में कहीं भी मौजूद किसी भी तरंगों से संपर्क कर सकते हैं, सारा ब्रह्मांड तरंगों के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है।
उन तरंगों के माध्यम से हम जो जानना चाहते हैं या हमारे जो भी सवाल होते हैं - जैसे जमीन के अंदर पानी खोजना या कोई खोई हुई चीजों को तलाशना उसे हम डाउजिंग कहते हैं।
डाउजिंग किसी भी छुपी हुई बात को खोजने वाली विद्या है। इसके लिए हम पेंडुलम या डाउजिंग रॉड का उपयोग करते हैं। इसमें से कोई यंत्र को हाथों से पकड़ कर जब हम कोई सवाल करते हैं तो यह पेंडुलम अपने आप गति करने लगता है।
जिसे हम निर्देश दे सकते हैं कि यदि जवाब सकारात्मक है तो सीधे हाथ की और गति करना है और जवाब यदि नकारात्मक है तो उलटे हाथ की और गति करना है।कुछ अलग तरह के प्रश्नों के लिए हम चार्ट का भी उपयोग कर सकते हैं। आप देखेंगे कि ये गति हम नहीं करते बल्कि हमारे हाथों में लगा यंत्र अपने आप अलग-अलग तरह से गति करने लगता है।
जैसे ही हम यंत्र को हाथ में लेकर कोई सवाल करते हैं तो हमारा अवचेतन मन उन तरंगों को आकर्षित कर लेता है और उन्हीं तरंगों के माध्यम से वो यंत्र हमारे हाथों में गति करने लगता है। इसे सिखने के लिए जो जरूरी बात है वह है ध्यान। ध्यान क्यों? क्योंकि जब हम यंत्र से सवाल करते हैं तो हमारा चेतन मन सवाल करता है और जवाब पाने के लिए जरूरी है कि सवाल करने के बाद चेतन मन शांत हो जाए और ऐसा करते ही हमारा अवचेतन मन सक्रिय होकर उन तरंगों को अपनी और आकर्षित करने लगेगा और पेंडुलम यंत्र किसी भी छुपी हुई बात का जवाब देने में सफल हो जाएगा।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

योग याधना की गहराइयाँ


योग से खुलते जीवन के रहस्य........... देश भर में योग याधना की गहराइयों को उजागर करने वाले शिविरों का बड़े स्तर पर आयोजन होता है। अनेक संस्था के योगाचार्यों द्वारा हर स्तर के साधकों को योगासन कराए जाते हैं। साथ ही सैद्धांतिक रूप से योगदर्शन के प्रवचनों एवं व्याख्यानों का भी श्रवण कराया जाता है।
हमारे शास्त्रों में जीवन उत्कृष्टि के तीन मार्ग बताए हैं। ज्ञान, कर्म और भक्ति। समझदारी से कर्म करेंगे तो फल अच्छे आएंगे। कर्म से उपलब्धियों के कारण अहंकार आता है। वह भक्ति से समाप्त होता है। भक्ति से जो अकर्मणयता आती है वह कर्म से ठीक होगी। ज्ञान में होश है, कर्म में उपलब्धि और भक्ति में समर्पण। अतः तीनों ही जीवन को पूर्णता की ओर ले जाते हैं। पर मानव को तो कर्म करने का अधिकार मिला है। और वास्तव में यह बहुत बड़ा अधिकार है। इसके चार भाग हैं- भाव, इच्छा, कर्म और फल। इन सभी का शोधन योग का विषय है।
हमारी भावनाएं जन्म जन्मांतर के संस्कारों तथा वर्तमान के संपर्कों पर आधारित है। साधना काल में हम बहिमुर्खता से अंतमुर्खता में जब आते हैं और स्वरूप अवस्था ग्रहण करते हैं तो भावनाएं गौण हो जाती हैं। इसी पर निर्भर करती है हमारी इच्छा। इच्छा को नियंत्रित करने का वर्णन पतांजलि योग दर्शन में किया है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः'।जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं को सीमित करना सीख जाता है तो उसके कर्म भी तदानुसार होने लगते हैं। इच्छा पर ही कर्म आधारित हैं। हम जीवन में वही करेंगे जैसा हम चाहेंगे और वैसी ही उपलब्धि हमें होगी। धन लेना, चाहें धन मिलेगा, वैभव प्राप्त करना चाहें वैभव प्राप्त होगा। कर्म से निवृत्ति चाहें, वह भी मिल जाएगी। साधारण व्यक्ति स्वार्थ पूर्ण कर्म करता है। जब दूसरे भी उससे स्वार्थ व्यवहार करते हैं तो वह सोचने पर मजबूर होता है कि यह ठीक नहीं है।
योगाभ्यास काल में उसका चिंतन और बढ़ता है और वह दूसरों के लिए सहायक बनने लगता है। साधना और आगे बढ़ने पर सभी के कल्याण में अपना कल्याण देखता है। और अंततोगत्वा कोई भी उसे पराया नजर नहीं आता। 'सीय राममय सब जग जानी,' साधक की उत्कृष्ट अवस्था मानी जाती है।
हमारे जीवन का रहस्य हमारे द्वारा किए गए कर्म से ही है। स्वार्थ से निस्वार्थ, निस्वार्थ से लोक कल्याण और लोक कल्याण के साथ-साथ निष्कामता जीवन की परम उपलब्धि है। हम जो भी कर्म करते हैं उसमें इच्छा के साथ वासना मिली रहती है। बस यही जीवन की न्यूनता है। कर्म में वासना न रहे, यह साधना है। गीता में कर्म की कुशलता का उल्लेख है।
'योगः कर्मसु कौशलम्‌' कर्म की कुशलता क्या है? एक डॉक्टर बीस ऑपरेशन कर मरीजों की जान बचाता है। निश्चय ही व्यक्ति के लिए वह बहुत बड़ा उपकार है। पर क्या यह कर्म में कुशलता है? नहीं। क्योंकि वह ऑपरेशन से उपलब्धि अपने भोग के लिए खर्च करता है। कुशलता का एक प्रमाण तो यह है कि कर्म से जो उपलब्धि हुई है क्या साधक उसे समाज में बांटने के लिए तैयार है?
दूसरे कुश एक घास जैसा पौधा है जिसके पत्ते पूजा के लिए काम आते हैं। उसके पत्ते इतने तेज होते हैं कि अगर हाथ में लग जाएं तो काट देते हैं। अतः उनको तोड़ा नहीं जाता बल्कि पौधे को जड़ से उखाड़ा जाता है। कुश से ही कुशलता बना है। ठीक इसी प्रकार हम कर्म करते हुए कर्म के मूल में जो वासना है उसे जड़ से उखाड़ दें तो कर्म में कुशलता है।
जीवन में कर्म से उपलब्धि हो पर हम उसके दास न बनें। ऐसा नहीं है कि फल आएगा नहीं। या फल के बारे में कर्म करने से पहले सोचना नहीं। पर उससे चिपकना नहीं।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

भ्रष्टाचार दूर करने के प्रभावी उपाय ....


विपश्यना के जरिए मिटाया जा सकता है भ्रष्टाचार... इसका जीता जागता उदाहरण है हमारे पड़ोसी देश म्यांमार के एक प्रधानमंत्री....जिन्होंने अपने समय देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर उससे लड़ने की ठानी...वह स्वयं बड़ा ईमानदार था और चाहता था कि उसका शासन भी ईमानदारी से ही चले, परंतु लाचार था हर तरफ फैले भ्रष्टाचार से..अनेकों प्रकार के प्रयत्न करके भी उसे सफलता नहीं मिली। तब उसने उस समय सरकार के बड़े अधिकारी एवं विपश्यनाचार्य सयाजी-उबा-खिन को याद किया और उनसे कहा की वे अपने एजी ऑफिस का कार्यभार संभाले रखें तथा अन्य तीन विभागों में भी अपनी सेवा दें। सयाजी-उबा-खिन ने इसे स्वीकार किया। अपने ऑफिस का कार्य पूरा करके वे अन्य तीन विभागों में भी अपनी सेवा देने लगे।
सत्यनिष्ठ व्यक्ति कर्मनिष्ठ भी हो जाता है। उसकी कार्यक्षमता बढ़ती है। अतः वे तीनों कार्यालयों के कार्य भी समय पर पूरा करने लगे और वहां कर्मचारियों को भी विपश्यना की ओर प्रेरित करने लगे। सरकारी विभागों के अनुसार उन्हें अपने विभाग से पूरी तथा अन्य तीन विभागों से एक-एक चौथाई वेतन मिलना था। परंतु इस सत्यनिष्ठ व्यक्ति ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस सत्यनिष्ठ व्यक्ति ने कहा- मैं नित्य आठ घंटे ही काम करता हूं। इस विभाग में करूं या उस विभाग में। अतः मैं अधिक वेतन क्यों लूं? उन दिनों म्यांमार देश में स्टेट एग्रीकल्चर मार्केटिंग बोर्ड सरकार का सबसे बड़ा सरकारी संस्थान था, जिसे देशभर का सारा चावल खरीदने और बेचने की मोनोपोली प्राप्त थी। यह विभाग जिन कीमतों पर धान्य खरीदता था उससे चौगुनी कीमत पर विदेशी सरकारों को बेचता था। अरबों के इस वार्षिक धंधे में करोड़ों का लाभ होने के बदले यह विभाग करोड़ों का घाटा दिखाता था। कार्यालय में धोखेबाजी स्पष्ट थी। इसे सुधारने के लिए प्रधानमंत्री ने सयाजी-उबा-खिन को सैम्ब का अध्यक्ष बनाने का निर्णय किया। परन्तु सत्यनिष्ठ सयाजी-उबा-खिन ने यह पद तभी स्वीकार किया जबकि उनके निर्णयों पर कोई हस्तक्षेप न करे और वे स्वतंत्र रूप से इस संस्थान का संचालन करते रहें।
प्रधानमंत्री ने उनकी यह शर्त स्वीकार कि परंतु इस निर्णय से सैम्ब के कार्यालय में तहलका मच गया। वहां के जो बड़े अधिकारी थे वे भ्रष्टाचार में सबसे आगे थे। इस निर्णय से वे घबरा उठे और उन्होंने सामूहिक रूप से हड़ताल करने की घोषणा कर दी। सयाजी -उबा-खिन निडर थे, निर्भय थे और सुदृढ़ कर्मनिष्ठ थे। उन्होंने हड़ताल को दृढ़तापूर्वक स्वीकार किया और अपने विभाग के छोटे कर्मचारियों के साथ सफलतापूर्वक काम करना शुरू किया। वे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। हड़तालियों ने तीन महीने तक प्रतीक्षा की। तदंतर उनका धैर्य टूट गया और उन्होंने सयाजी-उबा-खिन के पास जाकर क्षमा-याचना करते हुए पुनः काम पर लग जाने की इच्छा व्यक्त की। परंतु उबा-खिन नहीं माने। उन्होंने कहा- तुममें से जो व्यक्ति विपश्यना का शिविर करके आएगा उसे ही काम पर लिया जाएगा। तब तक वहां समीप ही सयाजी-उबा-खिन का एक विपश्यना का केंद्र भी प्रारंभ हो चुका था। वहां विपश्यना करने पर धीरे-धीरे घूसखोर अधिकारियों का भी कल्याण होने लगा और देश का भी। जो सैम्ब का ऑफिस हर वर्ष करोड़ों का घाटा बताता था, वह अब करोड़ों का मुनाफा बताने लगा। हमारे मन के मैल जैसे लालच, भ्रष्ट तरीकों से पैसा कमाने या चोरी के लिए उकसाता है, अत्यधिक क्रोध एवं घृणा की परिणति मनुष्य को हत्यारा बनाने की क्षमता रखती है।
इसी तरह अनेकों मन के विकार जब-जब मनुष्य के मानस पर हावी होते हैं तो वह मनुष्यत्व भूलकर पशुतुल्य हो उठता है, यही बात सम्राट अशोक ने भी बड़ी गहराइयों से जान ली थी तभी वह अपने राज्य में वास्तविक सुख-शांति स्थापित करने में अत्यधिक सफल हुआ था। अपने एक प्रसिद्घ शिलालेख में वह लिखता है - 'मनुष्यों में जो धर्म की बढ़ोतरी हुई है वह दो प्रकार से हुई है। एक धर्म के नियमों से और दूसरी विपश्यना ध्यान करने से और इनमें धर्म के नियमों से कम और विपश्यना ध्यान करने से कहीं अधिक हुई है। यही कारण है की मनुष्य समाज को सचमुच अपना कल्याण करना हो, वास्तविक अर्थों में अपना मंगल साधना हो तो उसे अपने मानस को सुधारने के प्रयत्न स्वयं ही करना होंगे। विपश्यना साधना के आज भी वैसे ही प्रभाव आते हैं जैसे पूर्व के भारत में आते थे।
सबके मंगल और सबके कल्याण के लिए आज भी सद्‍-प्रयत्नों से मन्त्र जाप और ध्यान धारणा से मानव में बुराई दूर होकर अच्छाई का समावेश होता है और इस प्रकार सद्गुणों के लगातार विकास से मानसिक इकाग्रता के साथ ही साथ संतुष्टि आती है जो की किसी भी भौतिक संसाधन से आना संभव नहीं है...इसलिए सभी जीव को अपने अपने धर्म के अनुसार ध्यान और मंत्रो से मन को शांत और संतुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए...विशेष कर जिस भी व्यक्ति की कुंडली में तीसरा स्थान कमजोर हो तो और उस स्थान में शुक्र जैसे भोग के ग्रह होने से एसा व्यक्ति अपने आप को बड़ा दिखाने की कोशिश करता है जिसके लिए वह भ्रष्टाचार का सहारा लेता है ...इन सब से ऊँचा उठ कर जीवन में सुचिता लेन के लिए मंत्र का सहारा लेना चाहिए....

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500

Feel Free to ask any questions in

मानवीय स्वाभाव (भय)


भय का त्याग जरुरी..यद्यपि यह मानवीय स्वाभाव का अंग है...आहार निद्रा भय मैथुनं च सर्वेषाम प्राणीनाह समाःयह तीन बात सभी जीवों में सामान रूप से पाई जाती है....एक बार की बात है कि ईसा मसीह अपने कुछ शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे कि रास्ते में उन्हें तीन दुबले-पतले व्यक्ति दिखाई दिए। ईसा ने उनसे प्रश्न किया, 'तुम्हारी यह शारीरिक हालत कैसे हो गई?'
उन्होंने उत्तर दिया- आग के डर से।
ईसा मसीह बोले, बड़े अचरज की बात है कि तुम प्रभु द्वारा उत्पन्न की गई वस्तु से डरते हो। उन्होंने कहा कि परमात्मा डरनेवालों को बचाता जरूर है, बशर्ते डरना छोड़ दो और बेहिचक उसकी आराधना करो। ईसा मसीह मार्ग में जब आगे बढ़े तो उन्हें तीन व्यक्ति और दिखाई दिए, जो पहले मिले तीन व्यक्तियों से भी अधिक दुबले थे और उनके चेहरे भी पीले पड़ गए थे। ईसा मसीह ने उनसे भी उनकी इस दयनीय दशा का कारण पूछा।
उन तीनों ने जवाब दिया कि स्वर्ग की कामना रखने के कारण हमारी यह दशा हुई है। ईसा बोले, भगवान का भजन-पूजन जारी रखो। वह तुम्हारी इच्छा जरूर पूरी करेगा, क्योंकि तुम उसके द्वारा निर्मित वस्तु की इच्छा कर रहे हो।
आगे चलने पर उन्हें तीन और दुर्बल व्यक्ति दिखे, लेकिन उनके चेहरे उन्हें दीप्तिमान दिखाई दिए।ईसा मसीह ने पूछा, क्यों भाई, तुम्हें किस बात का भय है, जो तुमने अपनी ऐसी हालत बना रखी है?
उन्होंने उत्तर दिया, 'प्रभु के प्रति प्रेम के कारण हमारी यह हालत हुई है।'
ईसा मसीह बोले, 'तुम लोग तो उसके निकट हो, बहुत ही निकट। तुम्हें तो ईश्वर की प्राप्ति अवश्य ही होगी।
तुम सिर्फ इतना करो कि भयभीत होना छोड़ दो, क्योंकि जो भयभीत होकर ईश्वर की भक्ति करता है, उसमें निराशा और असहायता के भाव उत्पन्न होते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की भक्ति से विमुख हो जाने की आशंका उत्पन्न होती है। इसलिए परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भय का त्याग करना ही उचित है।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in



मन्नत के नाम पर नागों की दुर्गति.


मन्नत के नाम पर नागों की दुर्गति.......हमारे देश में मन्नतें माँगने और उन्हे पूर्ण कराने के लिए जितने प्रयास और कयास लगाए जाते हैं, उतना किसी और देश में शायद ही कहीं होता होगा। इसका ताजा उदाहरण है बुरहानपुर के उतावली नदी स्‍थित नाग मंदिर पर मन्नत माँगने वालों की भीड़, जहाँ मन्नत पूरी होने पर नाग-नागिन का जोड़ा छोड़ा जाता है।शहर से लगी उतावली नदी के समीप स्थित अड़वाल परिवार के नाग मंदिर पर हर वर्ष ऋषि पंचमी के दिन बड़ी संख्या में लोग पहुँचते हैं। इनमें से कुछ मन्नत माँगने तो कुछ मन्नत पूरी होने पर नाग-नागिन का जोड़ा छोड़ने आते हैं।
लोग यहाँ नौकरी-पेशे, व्यवसाय में बढ़ोतरी, बच्चे की इच्छा से लेकर शारीरिक एवं मानसिक रोगों के ठीक होने तक हर प्रकार की मन्नत माँगते हैं। मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु आने वाले वर्ष में इसी दिन साँपों के जोड़े को छोड़ते हैं। ये साँपों के जोड़े स्थानीय सपेरों से खरीदे जाते हैं।
एक श्रद्धालु का कहना है कि पिछले 25 सालों से वे यहाँ इच्छा पूरी होने पर साँपों के जोड़े छोड़ रहे हैं। यहाँ हमारी हर इच्छा पूर्ण हुई है।यहाँ से जुड़ी एक किंवदंती है कि एक बार घोड़े पर सवार राज सैनिक जंगल से जा रहे थे, रास्ते में काँटों में फँसे एक साँप ने इंसानी रूप में आकर मदद की पुकार लगाई और राज सैनिकों ने उसे काँटों से मुक्त कर दिया। नाग देवता ने तब से वरदान दिया कि जो भी व्यक्ति अड़वाल मंदिर पर आकर मन्नत माँगेगा, उसकी हर इच्छा पूर्ण होगी। तब से यह प्रथा चली आ रही है।
पीढ़ी दर पीढ़ी अड़वाल परिवार ही अड़वाल नाग मंदिर की पूजा-पाठ करते आ रहे हैं, इसलिए इन्हें नागमंत्री कहा जाता है। अड़वाल परिवार के अनिल भावसार का कहना है कि देश में अड़वाल नाग मंदिर एकमात्र नाग मंदिर है, जहाँ दूर-दूर से लोग मन्नत माँगने के लिए आते हैं। यदि बात भगवान की पूजा आराधना तक सिमित हो तो इसमें कोई बुराई नहीं है परंतु निरीह प्राणियों की आस्था के नाम पर दुर्गति करना कहाँ तक उचित है। सपेरे ऋषि पंचमी से काफी पहले साँप पकड़कर उन्हें बहुत बुरी हालत में रखते हैं। श्रद्धा-भक्ति के नाम पर इन बेजुबाँ जीवों को यूँ परेशान करना, उनकी दुर्गति करना कहाँ तक उचित है? आप हमें अपनी राय से जरूर अवगत कराएँ।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

भक्‍तिमार्ग


अ) भक्‍तिमार्ग के आलम्‍बन सगुण ब्रह्म के स्‍थान पर ज्ञानमार्ग के आलम्‍बन निर्गुण ब्रह्म के प्रति प्रेम।
(आ) निर्गुण ब्रह्म में गुणों का आरोपण।
(इ) मुक्‍ति की अद्वैत दशा में भी द्वंद्वात्‍मक भक्‍ति की कल्‍पना।
(ई) निष्‍क्रिय, निस्‍पंद एवं निर्गुण ब्रह्म में क्रियाशीलता तथा गुणवत्‍ता की विद्यमानता।
(उ) जीवात्‍मा को अंश मानकर भी उसको ब्रह्म घोषित करने की प्रवृत्‍ति । आत्‍मा एवं परमात्‍मा की अभेदता।
(ऊ) जगत को मिथ्‍या मानकर भी उसे लीलामय की रसमयी लीला मानने की दृष्‍टि।
(ए) मिथ्‍यात्‍ववाद में विश्‍वास करते हुए भी आनन्‍दवाद एवं सर्वचिन्‍मयवाद में आस्‍था।
(ऐ) जगन्‍मिथ्‌यात्‍व का प्रतिपादन करके भी उसके सत्‍यत्‍व की पुष्‍टि।
(ओ) योग एवं भक्‍ति में समन्‍वय।
(औ) ज्ञान, भक्‍ति एवं योग तीनों की स्‍वीकृति।
अंत में इस लेख का समापन इन श्‍ाब्‍दों के साथ करना चाहूँगा कि समस्‍त प्राणियों के प्रति प्रेम भाव, मैत्री भाव तथा समभाव होना ही संतों की साधना का मार्ग है।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

ब्रह्म काल


ब्रह्म काल : किस तरह जन्मा मानव?'सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था, जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से सांस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।' 'ब्रह्म वह है, जिसमें से संपूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है।' -(ऋग्वेद, उपनिषद)
ब्रह्म से आत्मा। आत्मा से जगत की उत्पत्ति हुई। महर्षि अरविंद ने अपनी किताब 'दिव्य जीवन' में इस संबंध में बहुत अच्छे से लिखा है। उन्होंने जहां पुराणों के अनुसार धरती पर जीवन की उत्पत्ति, विकास और उत्थान के बारे में बताया है वहीं उन्होंने वेदों की पंचकोशों की धारणा को विज्ञान की कसौटी पर कसा है।
जब धरती ठंडी होने लगी तो उस पर बर्फ और जल का साम्राज्य हो गया। तब धरती पर जल ही जल हो गया। इस जल में ही जीवन की उत्पत्ति हुई। आत्मा ने ही खुद को जलरूप में व्यक्त किया। इस जलरूप ने ही करोड़ों रूप धरे। जल का यह रूप हिरण्यगर्भ में जन्मा अर्थात जल के गर्भ में जन्मा।
सर्वप्रथम : सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ से अंडे के रूप का एक मुख प्रकट हुआ। मुख से वाक् इन्द्री, वाक् इन्द्री से 'अग्नि' उत्पन्न हुई। तदुपरांत नाक के छिद्र प्रकट हुए। नाक के छिद्रों से 'प्राण' और प्राण से 'वायु' उत्पन्न हुई। फिर नेत्र उत्पन्न हुए। नेत्रों से चक्षु (देखने की शक्ति) प्रकट हुए और चक्षु से 'आदित्य' प्रकट हुआ। फिर 'त्वचा', त्वचा से 'रोम' और रोमों से वनस्पति-रूप 'औषधियां' प्रकट हुईं। उसके बाद 'हृदय', 'हृदय' से 'मन, 'मन से 'चन्द्र' उदित हुआ। तदुपरांत नाभि, नाभि से 'अपान' और अपान से 'मृत्यु' का प्रादुर्भाव हुआ। फिर 'जननेन्द्रिय, 'जननेन्द्रिय से 'वीर्य' और 'वीर्य' से 'आप:' (जल या सृजनशीलता) की उत्पत्ति हुई।
यहां वीर्य से पुन: 'आप:' की उत्पत्ति कही गई है। यह आप: ही सृष्टिकर्ता का आधारभूत प्रवाह है। वीर्य से सृष्टि का 'बीज' तैयार होता है। उसी के प्रवाह में चेतना-शक्ति पुन: आकार ग्रहण करने लगती है। सर्वप्रथम यह चेतना-शक्ति हिरण्य पुरुष के रूप में सामने आई।अति सूक्ष्म रूप में जीवन की उत्पत्ति के बाद मोटेतौर पर वनस्पत्तियों, लताओं और फिर वृक्षों की उत्पत्ति हुई। इस क्रम में आगे चलकर एककोशीय और फिर बहुकोशीय जीवों की उत्पत्ति हुई।
कुछ ऐसे जीव उत्पन्न हुए जिसमें हड्डी न होती थी तथा ये किसी पतले इमली, नीम के पत्ते की तरह होते थे। प्रारंभ में ये सभी जल के भीतर की भूमि से जुड़े रहते थे। ऐसे जीव जो एकेंद्रीय थे अर्थात वे न देख सकते थे, न सुन सकते थे, न स्वाद ले सकते थे। बस स्पर्श ही उनकी अनुभूति थी।
इसी क्रम में आगे चलकर एक पत्तेनुमा मछली की उत्पत्ति हुई। फिर मछली ने कई रूप धरे। हिन्दू धर्म में मछली को पवित्र जलचर जंतु माना जाता है। जल के अंदर मछली की उत्पत्ति सबसे बड़ी घटना थी। संभवत: यह घटना 3 अरब वर्ष पहले की है।
वराह काल और कच्छप काल : जब वराह काल में धरती के कुछ भाग को जल से ऊपर प्रकट किया गया तो प्रारंभ में कुछ आदिकालीन शैवाल और वनस्पतियों ने धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। यही धीरे-धीरे वृक्ष का आकार लेने लगी।
इन छोटी-छोटी घासों के पीछे आए उभयचर प्राणी, कीट, कीड़े और सरीसृप आदि। यही धरती पर और जल में अपनी सत्ता जमाने लगे। इनमें से कई हिंसक प्राणियों से बचने के लिए कीटों ने वृक्षों पर चढ़ना सीखा और उनमें से ही कुछ कीटों में पंख निकलने लगे और इस तरह आकाश में कीट-पतंगों की भरमार होने लगी।
इधर कई उभयचर प्राणियों में कछुआ सबसे विकसित प्राणी था और उन्हीं आदिकालीन प्रजातियों में से कुछ उड़ना सीखकर पक्षी होने लगे। कुछ धरती पर नए-नए रूप धरने लगे। सर्वप्रथम जमीन पर बसने वाले प्राणियों ने अपनी जड़ें पानी में ही जमाए रखीं, उसी तरह जिस तरह कि वनस्पत्तियों और पौधों ने। ऐसा इसलिए कि वे धरती पर ज्यादा देर तक रह नहीं सकते थे। उन्हें सांस लेने के लिए जल में लौटना ही पड़ता था।हिन्दू धर्म में सर्प को इसलिए महत्व दिया जाता है कि जहां जल में इसकी करोड़ों प्रजातियां थीं वहीं धरती पर सबसे पहले इसका ही साम्राज्य स्थापित हुआ। यह जल के बगैर भी धरती पर कई दिनों तक रहने में कामयाब रहा और इसने अन्य प्राणियों की अपेक्षा सबसे पहले जल पर अपनी निर्भरता छोड़ दी। इसकी ऐसी भी प्रजातियां थीं, जो उड़ने में सफल हो गई थीं।
वराह, कच्छप और सर्प ने धरती पर जीवन के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिस तरह सर्प की कुछ अन्य प्रजातियां उड़ने में सफल हो गई थीं उसी तरह कछुए की प्रजातियां भी कुछ इसमें सफल रहीं और इस तरह आकाश में कीट-पतंगों, मछलियों, कछुओं और सर्पों की भिन्न-भिन्न प्रजातियों ने आकाश को हरा-भरा कर दिया।जैसे-जैसे समय बीतता गया, धरा के पर्यावरण में भारी बदलाव आते गए। जो जीव इन परिवर्तनों के अनुसार अपने आपको ढाल नहीं सके, वे हमेशा के लिए विलुप्त हो गए और जिन्होंने खुद को बचाए रखा वे विजेता कहलाए। उनमें मछली, सर्प, कछु्आ, मगरमच्छ, कीट-पतंगें, चींटी, मकोड़े आदि जलचर और उभयचर प्राणी तो आज भी हैं, लेकिन अब सवाल यह उठता है कि मनुष्य कैसे और किससे बना?
इसके लिए हिन्दू धर्म में दो सिद्धांत हैं- 1. मनुष्य को ईश्वर ने बनाया, 2. क्रम विकास के तहत मनुष्य बना मछली जैसे प्राणी से।
1. मनुष्य को ईश्वर ने बनाया : ब्रह्म से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई और ब्रह्मा ने खुद को दो भागों में विभक्त कर लिया। उसका पुरुष रूप एक भाग का नाम था स्वायंभुव मनु और स्त्री रूप दूसरे का नाम शतरूपा था। सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखंड अर्थात इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई।
ऐसे जन्मा मानव...
2. मनुष्य बना मछली जैसे प्राणी से : आज का मनुष्य मछली की लाखों प्रजातियों में से एक विशेष मछली का विकसित रूप है। विकास के क्रम में उसने कई महत्वपूर्ण रूप बदले। लेकिन पूर्व काल में मनुष्य सिर्फ मछली का ही विकसित रूप नहीं रहा और ‍भी कई ऐसे जीव-जंतु थे, जो न मालूम कब वानर की भिन्न-भिन्न प्रजातियां बनते गए और अंतत: उन्हीं में से एक आज का आधुनिक मनुष्य बना। जिस तरह मछलियां हजारों प्रजातियों में पाई जाती हैं उसी तरह मानव भी आदिकाल में हजारों प्रजातियों में थे। हालांकि आज हमें अफ्रीकी, यूरोपीय, चीनी, भारतीय आदि क्षे‍त्र की मानव प्रजातियां ही नजर आती हैं।
हालांकि वेद का सिद्धांत पुराणों से बिलकुल अलग है...वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1. अन्नमय, 2. प्राणमय, 3. मनोमय, 4. विज्ञानमय और 5. आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही 5 तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञानसम्मत है।
इस विषय पर सरल और विस्तृत भाषा में जानने के लिए पढ़ें...आत्मा का अन्नमय कोष
दो गोलार्ध हैं- एक उर्ध्व और दूसरा अधो। जब आत्मा नीचे गिरती है तो जड़ हो जाती है और इस तरह वह विकास क्रम का हिस्सा बनकर अपने पुरुषार्थ से ऊपर उठना शुरू करती है और अंतत: स्वयं के आनंदस्वरूप को पुन: प्राप्त कर लेती है। लेकिन कुछ ऐसी भी आत्माएं हैं, जो कभी नीचे नहीं गिरीं और जाग्रत हो गईं, वे ही आत्माएं देवात्माएं कहलाईं। उनके कारण भी सृष्टि उत्पत्ति, विकास और विध्वंस हुआ।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

ईश्वर की प्रार्थना.....


ईश्वर की प्रार्थना......ईश्वर की प्रार्थना की शक्ति के महत्व को सभी धर्मों के अलावा विज्ञान ने भी स्वीकार किया है, लेकिन हिंदू प्रार्थना को छोड़कर सब कुछ करता है। जैसे- पूजा, आरती, भजन, कीर्तन, यज्ञ आदि। आप तर्क दे सकते हैं कि यह सभी ईश्वर प्रार्थना के रूप ही तो हैं, लेकिन सभी तर्क प्रार्थना के सच को छिपाने से ज्यादा कुछ नहीं।
हिंदू प्रार्थना खो गई है, अब सिर्फ पूजा-पाठ, आरती और यज्ञ का ही प्रचलन है। वैदिकजन पहले प्रार्थना करते थे, क्योंकि वह उसकी शक्ति को पहचानते थे। अकेले और समूह में खड़े होकर की गई प्रार्थना में बल होता है। इस प्रार्थना को संध्याकाल में किया जाता था। इसे ही संध्या वंदन कहा जाता था। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं।
क्या है संध्याकाल?
'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।'-आचार भूषण-89
वैसे संधि पांच-आठ वक्त की होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्‍याकाल- उक्त दो समय की संधि प्रमुख है। अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।
संधिकाल में ही संध्या वंदन किया जाता है। वेदज्ञ और ईश्‍वरपरायण लोग संधिकाल में प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्‍यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं।
ईश्वर की प्रार्थना करें : संधिकाल में की जाने वाली प्रार्थना को संध्या वंदन उपासना, आराधना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना करने के भी नियम हैं। वे‍दों की ऋचाएं प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएं ही तो हैं। ऋषि जानते थे प्रार्थना का रहस्य।
संध्या वंदन या प्रार्थना प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं। संधिकाल के दर्शन मात्र से ही शरीर और मन के संताप मिट जाते हैं। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है।
सावधानी : संधिकाल मौन रहने का समय है। उक्त काल में भोजन, नींद, यात्रा, वार्तालाप और संभोग आदि का त्याग कर दिया जाता है। संध्या वंदन में 'पवित्रता' का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही वेद नियम है। -

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

स्वर्ग और नर्क


स्वर्ग और नर्क:लोग कहते हैं कि धर्म में लिखा है कि मरने के बाद व्यक्ति अपने पुण्य कर्मों के अनुसार स्वर्ग में जाता है और पाप कर्मों के अनुसार नर्क में दुख भोगता है। क्या यह सच है?
दुनिया के सभी धर्म में स्वर्ग और नर्क की बातें कही गई है। स्वर्ग अर्थात वह स्थान जहां अच्छी आत्माएं रहती है और नर्क वह स्थान जहां बुरी आत्माएं रहती है। कहा जाता है कि पापी व्यक्ति को नर्क में यातनाएं देने के लिए भेज दिया जाता है और पुण्यात्माओं को स्वर्ग में सुख भोगने के लिए भेज दिया जाता है।
स्वर्ग को इस्लाम में जन्नत कहा जाता है और नर्क को दोजख या जेहन्नूम। इसी तरह हर धर्म में यह धारणा है कि ईश्वर ने स्वर्ग और नर्क की रचना की है जहां व्यक्ति को उनके कर्मों के हिसाब से रखा जाता है। पुराणों अनुसार मृत्यु का देवता यमराज आत्माओं को दंड या पुरस्कार देता है। यमराज के मंत्री चित्रगुप्त सभी आत्माओं के कर्मों का हिसाब रखते हैं फिर यम के यमदूत उन्हें स्वर्ग या नर्क में भेज देते हैं। बहुत भयानक है गरुढ़ पुराण।
धर्म के तीन आधार : धर्म को जिंदा बनाए रखने और लोगों में नैतिकता को कायम रखने के तीन आधार है- 1.ईश्वर 2.स्वर्ग-नर्क और प्रॉफेट। यह तीनों ही वेद विरुद्ध माने जा सकते हैं। जब मानव असभ्य और जंगली था तब लोगों को सभ्य और नैतिक बनाने के लिए कुछ लोगों ने भय और लालच का सहारा लिया और लोगों को एक परिवार और समाज में ढाला। डराया ईश्वर और नर्क से और लालच दिया स्वर्ग का, अप्सराओं का। जिन लोगों ने समाज को ईश्वर, स्वर्ग, नर्क से डराकर नए नियम बताए उन्हें फ्रॉफेट माना जाने लगा। फ्रॉफेटों की अपनी किताबें भी होती हैं जिनके प्रति लोग पागल हैं।
वेद इस तरह की कपोल-कल्पनाओं के खिलाफ है। वेद आध्या‍त्म का सच्चा मार्ग ही बताते हैं। वेद अनुसार निश्चित ही व्यक्ति को अपने कर्म, भाव और विचार के अनुसार सद्गति और दुर्गति का सामना करना पड़ता है। जैसे शराब पीने वाले की चेतना गिरने लगती है तो उसे अधोगति कहते हैं और ध्यान करने वाली की चेतना उठने लगती है तो उसे उर्ध्व‍गति कहते हैं। वेद गति को मानता है। यदि आप अच्छी गति और स्थिति में रह हैं तो आप स्वर्ग में हैं और बुरी गति और स्थिति में रह रहे हैं तो आप नर्क में हैं। आदमी चलता फिरता नर्क और स्वर्ग है................

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

मौत के बाद क्या.....


मौत के बाद क्या.........'न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।'- भगवान कृष्ण
जब शरीर छूटता है तो व्यक्ति के साथ क्या होता है यह सवाल सदियों पुराना है। इस संबंध में जनमानस के चित्त पर रहस्य का पर्दा आज भी कायम है जबकि इसका हल खोज लिया गया है। फिर भी यह बात विज्ञान सम्मत नहीं मानी जाती, क्योंकि यह धर्म का विषय है।
मुख्यत: तीन तरह के शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्ति जब मरता है तो स्थूल शरीर छोड़कर पूर्णत: सूक्ष्म में ही विराजमान हो जाता है। सूक्ष्म शरीर के विसरित होने के बाद व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है, लेकिन कारण शरीर बीज रूप है जो अनंत जन्मों तक हमारे साथ रहता है।
आत्मा पर छाई धुंध : व्यक्ति रोज मरता है और रोज पैदा होता है, लेकिन उसे इस बात का आभास नहीं होता। प्रतिपल व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और फिर सुषुप्ति अवस्था में जिता है। मरने के बाद क्या होता है यह जानने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति के चित्त की अवस्था जानना जरूरी है या कहना चाहिए की आत्मा के ऊपर छाई भाव, विचार, पदार्थ और इंद्रियों के अनुभव की धुंध का जानना जरूरी है।
आत्मा शरीर में रहकर चार स्तर से गुजरती है : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2)स्वप्न (3)सुषुप्ति और (4)तुरीय अवस्था।
तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है, लेकिन चौथे स्तर में वही होता है जो ‍आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होता है जहां न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सु‍षुप्ति ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं- जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।
होश का स्तर तय करता गति : प्रथम तीनों अवस्थाओं के कई स्तर है। कोई जाग्रत रहकर भी स्वप्न जैसा जीवन जिता है, जैसे खयाली राम या कल्पना में ही जीने वाला। कोई चलते-फिरते भी नींद में रहता है, जैसे कोई नशे में धुत्त, चिंताओं से घिरा या फिर जिसे कहते हैं तामसिक।
हमारे आसपास जो पशु-पक्षी हैं वे भी जाग्रत हैं, लेकिन हम उनसे कुछ ज्यादा होश में हैं तभी तो हम मानव हैं। जब होश का स्तर गिरता है तब हम पशुवत हो जाते हैं। कहते भी हैं कि व्यक्ति नशे में व्यक्ति जानवर बन जाता है।
पेड़-पौधे और भी गहरी बेहोशी में हैं। मरने के बाद व्यक्ति का जागरण, स्मृति कोष और भाव तय करता है कि इसे किस योनी में जन्म लेना चाहिए। इसीलिए वेद कहते हैं कि जागने का सतत अभ्यास करो। जागरण ही तुम्हें प्रकृति से मुक्त कर सकता है।
क्या होता है मरने के बाद : सामान्य व्यक्ति जैसे ही शरीर छोड़ता है, सर्वप्रथम तो उसकी आंखों के सामने गहरा अंधेरा छा जाता है, जहां उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। कुछ समय तक कुछ आवाजें सुनाई देती है कुछ दृश्य दिखाई देते हैं जैसा कि स्वप्न में होता है और फिर धीरे-धीरे वह गहरी सुषुप्ति में खो जाता है, जैसे कोई कोमा में चला जाता है।
गहरी सुषुप्ति में कुछ लोग अनंतकाल के लिए खो जाते हैं, तो कुछ इस अवस्था में ही किसी दूसरे गर्भ में जन्म ले लेते हैं। प्रकृ‍ति उन्हें उनके भाव, विचार और जागरण की अवस्था अनुसार गर्भ उपलब्ध करा देती है। जिसकी जैसी योग्यता वैसा गर्भ या जिसकी जैसी गति वैसी सुगति या दुर्गति। गति का संबंध मति से होता है। सुमति तो सुगति।
लेकिन यदि व्यक्ति स्मृतिवान (चाहे अच्छा हो या बुरा) है तो सु‍षुप्ति में जागकर चीजों को समझने का प्रयास करता है। फिर भी वह जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भेद नहीं कर पाता है। वह कुछ-कुछ जागा हुआ और कुछ-कुछ सोया हुआ सा रहता है, लेकिन उसे उसके मरने की खबर रहती है। ऐसा व्यक्ति तब तक जन्म नहीं ले सकता जब तक की उसकी इस जन्म की स्मृतियों का नाश नहीं हो जाता। कुछ अपवाद स्वरूप जन्म ले लेते हैं जिन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति बहुत ही ज्यादा स्मृतिवान, जाग्रत या ध्यानी है उसके लिए दूसरा जन्म लेने में कठिनाइयां खड़ी हो जाता है, क्योंकि प्राकृतिक प्रोसेस अनुसार दूसरे जन्म के लिए बेहोश और स्मृतिहीन रहना जरूरी है।
इनमें से कुछ लोग जो सिर्फ स्मृतिवान हैं वे भूत, प्रेत या पितर योनी में रहते हैं और जो जाग्रत हैं वे कुछ काल तक अच्छे गर्भ की तलाश का इंतजार करते हैं। लेकिन जो सिर्फ ध्यानी है या जिन्होंने गहरा ध्यान किया है वे अपनी इच्छा अनुसार कहीं भी और कभी भी जन्म लेने के लिए स्वतंत्र हैं। यह प्राथमिक तौर पर किए गए तीन तरह के विभाजन है। विभाजन और भी होते हैं जिनका वेदों में उल्लेख मिलता है।
जब हम गति की बात करते हैं तो तीन तरह की गति होती है। सामान्य गति, सद्गगति और दुर्गति। तामसिक प्रवृत्ति व कर्म से दुर्गति ही प्राप्त होती है, अर्थात इसकी कोई ग्यारंटी नहीं है कि व्यक्ति कब, कहां और कैसी योनी में जन्म ले। यह चेतना में डिमोशन जैसा है, लेकिन कभी-कभी व्यक्ति की किस्मत भी काम कर जाती है।
सचमुच प्रकृति में किसी भी प्रकार का कोई नियम काम नहीं करता क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति की योग्यता भी असफलता का द्वार खोल देती है और अयोग्य व्यक्ति यदि अच्छी चाहत और सकारात्म विचारों वाला है तो सद्गति को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति को चाहिए जागरण, समर्पण और संकल्प। तो संकल्प लें की आज से हम विचार और भाव के जाल को काटकर सिर्फ दृष्टा होने का अभ्यास करेंगे।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

यह संपूर्ण जगत ही अन्नमय


यह संपूर्ण जगत ही अन्नमय.....वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमय और 5.आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है, जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है।
जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रियाँ (आँख, नाक, कान, जीभ और स्पर्शानुभूति) है जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता है। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।
मानना नहीं, यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार ‍खुलता है। ऐसी आत्मा 'आनंदमय' कोश में स्थित होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है अन्नमय कोश का परिचय।
अन्नमय कोश : सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथवि, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। यह दिखाई देने वाला जड़ जगत जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है यही अन्न से बना शरीर अन्नरसमय कहलाता हैं। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है।
यह प्रथम कोश है जहाँ आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है। शरीर कहने का मतलब सिर्फ मनुष्य ही नहीं सभी वृक्ष, लताओं और प्राणियों का शरीर।‍ जो आत्मा इस शरीर को ही सब कुछ मानकर भोग-विलास में निरंतर रहती है वही तमोगुणी कहलाती है। इस शरीर से बढ़कर भी कुछ है। इस जड़-प्रकृति जगत से बढ़कर भी कुछ है।
जड़ का अस्तित्व मानव से पहिले का है। प्राणियों से पहिले का है। वृक्ष और समुद्री लताओं से पहिले का है। पहिले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। इस जड़ को ही शक्ति कहते हैं- अन्न रसमय कहते हैं। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था है। यह आत्मा की अधोगति है। फिर जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है। इस शरीर को पुष्‍ट और शुद्ध करने के लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है।
इस अन्नमय कोश को प्राणमय कोश ने, प्राणमय को मनोमय, मनोमय को विज्ञानमय और विज्ञानमय को आनंदमय कोश ने ढाँक रखा है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या सिर्फ शरीर के तल पर ही जी रहा है या कि उससे ऊपर के आवरणों में। किसी तल पर जीने का अर्थ है कि हमारी चेतना या जागरण की स्थिति क्या है। जड़बुद्धि का मतलब ही यही है वह इतना बेहोश है कि उसे अपने होने का होश नहीं जैसे पत्थर और पशु।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in


जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रियाँ (आँख, नाक, कान, जीभ और स्पर्शानुभूति) है जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता है। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।
मानना नहीं, यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार ‍खुलता है। ऐसी आत्मा 'आनंदमय' कोश में स्थित होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है अन्नमय कोश का परिचय।
अन्नमय कोश : सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथवि, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। यह दिखाई देने वाला जड़ जगत जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है यही अन्न से बना शरीर अन्नरसमय कहलाता हैं। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है।
यह प्रथम कोश है जहाँ आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है। शरीर कहने का मतलब सिर्फ मनुष्य ही नहीं सभी वृक्ष, लताओं और प्राणियों का शरीर।‍ जो आत्मा इस शरीर को ही सब कुछ मानकर भोग-विलास में निरंतर रहती है वही तमोगुणी कहलाती है। इस शरीर से बढ़कर भी कुछ है। इस जड़-प्रकृति जगत से बढ़कर भी कुछ है।
जड़ का अस्तित्व मानव से पहिले का है। प्राणियों से पहिले का है। वृक्ष और समुद्री लताओं से पहिले का है। पहिले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। इस जड़ को ही शक्ति कहते हैं- अन्न रसमय कहते हैं। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था है। यह आत्मा की अधोगति है। फिर जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है। इस शरीर को पुष्‍ट और शुद्ध करने के लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

जीवन की अनुभूति


वेदांत के अनुसार आत्मा के कुछ स्तर और उप-स्तर होते हैं। पंचकोश या पंचतत्व से बँधी हुई आत्मा स्वयं को मूलत: त्रि-स्तरों में पाती है। यहाँ वेद के इस गहन गंभीर ज्ञान को सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है. छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1) जाग्रत, (2) स्वप्न, (3) सुषुप्ति और (4) तुरीय अवस्था। जो व्यक्ति अपनी जाग्रत अवस्था में स्वप्न या सु‍षुप्ति को गहराता है वही मनुष्य योनि को छोड़कर अन्य निचले स्तर में गिरता जाता है।
यह क्रम इस प्रकार चलता है- जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जाग्रत हो जाता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्पप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं।
वेद कहते हैं कि ठीक इसी तरह जन्म एक जाग्रति है और जीवन एक स्वप्न तथा मृत्यु एक गहरी सुषुप्ति अवस्था में चले जाना है, लेकिन जिन लोगों ने जीवन में नियमित 'ध्यान' किया है उन्हें मृत्यु मार नहीं सकती। ध्यान की एक विशेष दशा में व्यक्ति तुरीय अवस्था में चला जाता है। तुरीय अवस्था को हम समझने की दृष्टि से पूर्ण जागरण की अवस्था कह सकते हैं, लेकिन यह उससे कहीं अधिक बड़ी बात है।
उक्त चारों स्तरों के उपस्तर भी होते हैं जैसे कोई व्यक्ति जागा हुआ होकर भी सोया-सोया-सा दिखाई देता है। आँखें खुली है किंतु कई लोग बेहोशी में जीते रहते हैं। जीवन कब गुजर गया उन्हें पता ही नहीं चलता तब जन्म और मृत्यु का क्या भान रखेंगे।
जब आत्मा गर्भ में प्रवेश करती है तब वह गहरी सुषुप्ति अवस्था में होती है। जन्म से पूर्व भी वह इसी अवस्था में ही रहती है। गर्भ से बाहर आकर उसकी चेतना पर से सुषुप्ति छँटने लगती है तब वह स्वप्निक अवस्था में प्रवेश कर जाता है। लगभग 7 वर्ष की आयु तक यही अवस्था रहने के बाद वह होश संभालने लगता है। कुछ बच्चे इससे पूर्व ही होश संभालने लग जाते हैं।
जैसे सुबह उठकर हम कुछ सपने भूल जाते हैं और कुछ हमें याद रहते हैं उसी तरह शैशवकाल की कुछ यादें ही शेष रह जाती है वह भी धुंधली-सी।
जिस तरह सुषुप्ति से स्वप्न और स्वप्न से हम जाग्रति में जाते हैं उसी तरह मृत्युकाल में हम जाग्रति से स्वप्न और स्वप्न से सु‍षुप्ति में चले जाते हैं फिर सुषुप्ति से गहन सुषुप्ति में।
मृत्युकाल में 'यम' नामक वायु में कुछ काल तक आत्मा स्थिर रहने के बाद पुन: गर्भधारण करती है। यह क्रम चलता रहता है। यह चक्र चलता रहता है। यह तो बात हुई जन्म और मृत्यु के चक्र की अब देंखे कि यही क्रम हमारे साथ जीवनभर दिन और रात में चलता रहता है। इस चक्र से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है ध्यान द्वारा मोक्ष को उपलब्ध हो जाना। दूसरा कोई उपाय नहीं है।
एक तो होता है यह प्राकृतिक चक्र और दूसरा यह कि हम किस तरह से जीते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम दिन में भी जाग्रत रहकर भी जाग्रत हैं कि नहीं या फिर स्वप्नवत जी रहे हैं। वेदों को छोड़कर जो अन्य बातों में रमते हैं उनका जीवन सच्चे ज्ञान के अभाव में स्वप्नवत बीत जाता है और मृत्यु दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है। के चार स्तर........वेद और वेदांत अनुसार आत्मा के होश के कुछ स्तर और उप-स्तर बताए गए हैं। पंचकोश या पंचतत्व से बँधी हुई आत्मा स्वयं को मूलत: त्रिस्तरों में पाती है। यहाँ वेद के इस गहन गंभीर ज्ञान को सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया हैछांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1) जाग्रत, (2) स्वप्न, (3) सुषुप्ति और (4) तुरीय अवस्था। जो व्यक्ति अपनी जाग्रत अवस्था में स्वप्न या सु‍षुप्ति को गहराता है वही मनुष्य योनि को छोड़कर अन्य निचले स्तर में गिरता जाता है।
यह क्रम इस प्रकार चलता है- जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जाग्रत हो जाता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्पप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं।
वेद कहते हैं कि ठीक इसी तरह जन्म एक जाग्रति है और जीवन एक स्वप्न तथा मृत्यु एक गहरी सुषुप्ति अवस्था में चले जाना है, लेकिन जिन लोगों ने जीवन में नियमित 'ध्यान' किया है उन्हें मृत्यु मार नहीं सकती। ध्यान की एक विशेष दशा में व्यक्ति तुरीय अवस्था में चला जाता है। तुरीय अवस्था को हम समझने की दृष्टि से पूर्ण जागरण की अवस्था कह सकते हैं, लेकिन यह उससे कहीं अधिक बड़ी बात है।
उक्त चारों स्तरों के उपस्तर भी होते हैं जैसे कोई व्यक्ति जागा हुआ होकर भी सोया-सोया-सा दिखाई देता है। आँखें खुली है किंतु कई लोग बेहोशी में जीते रहते हैं। जीवन कब गुजर गया उन्हें पता ही नहीं चलता तब जन्म और मृत्यु का क्या भान रखेंगे।
जब आत्मा गर्भ में प्रवेश करती है तब वह गहरी सुषुप्ति अवस्था में होती है। जन्म से पूर्व भी वह इसी अवस्था में ही रहती है। गर्भ से बाहर आकर उसकी चेतना पर से सुषुप्ति छँटने लगती है तब वह स्वप्निक अवस्था में प्रवेश कर जाता है। लगभग 7 वर्ष की आयु तक यही अवस्था रहने के बाद वह होश संभालने लगता है। कुछ बच्चे इससे पूर्व ही होश संभालने लग जाते हैं।
जैसे सुबह उठकर हम कुछ सपने भूल जाते हैं और कुछ हमें याद रहते हैं उसी तरह शैशवकाल की कुछ यादें ही शेष रह जाती है वह भी धुंधली-सी।
जिस तरह सुषुप्ति से स्वप्न और स्वप्न से हम जाग्रति में जाते हैं उसी तरह मृत्युकाल में हम जाग्रति से स्वप्न और स्वप्न से सु‍षुप्ति में चले जाते हैं फिर सुषुप्ति से गहन सुषुप्ति में।
मृत्युकाल में 'यम' नामक वायु में कुछ काल तक आत्मा स्थिर रहने के बाद पुन: गर्भधारण करती है। यह क्रम चलता रहता है। यह चक्र चलता रहता है। यह तो बात हुई जन्म और मृत्यु के चक्र की अब देंखे कि यही क्रम हमारे साथ जीवनभर दिन और रात में चलता रहता है। इस चक्र से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है ध्यान द्वारा मोक्ष को उपलब्ध हो जाना। दूसरा कोई उपाय नहीं है।
एक तो होता है यह प्राकृतिक चक्र और दूसरा यह कि हम किस तरह से जीते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम दिन में भी जाग्रत रहकर भी जाग्रत हैं कि नहीं या फिर स्वप्नवत जी रहे हैं। वेदों को छोड़कर जो अन्य बातों में रमते हैं उनका जीवन सच्चे ज्ञान के अभाव में स्वप्नवत बीत जाता है और मृत्यु दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है।

Pt.P.S.Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in