Tuesday, 14 April 2015

साबर मंत्र ....


पढ़ाई मे मन ना लगता हो तो ये प्रयोग करने से आपके बच्चे का मन पढ़ाई मे लगने लगेगा ओर उसके नॅबर भी अच्छे आएंगे...।.

विध्या प्राप्ति का दिव्य शाबर मंत्र -
ओम नमो देवी कामाख्या त्रिशूल खड्ग हस्त पाधा पाती
गरुड़ सर्व लखि तू प्रीतये
समागम तत्व चिंतामणि नरसिंह चल चल तीन कोटि
कात्यानी तालव प्रसाद के ओम ह्रीं ह्रीं क्रूं
चालिया चालिया स्वाहा.
इस मंत्र का 21 बार जाप करके 4 पत्ते तुलसी के हर रोज लेने से मन भी लगेगा और याददास्त भी बढेगी...

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आस्था और जीवन....


कहते हैं भगवान की कृपा के कारण ही सब अपनी जगह पर अडिग है। अब आप इसे शिव की कृपा मानें या जो भी हो इन सभी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। किन्तु हमारे देश में आस्था जीवन का आधार है...इस के द्वारा न केवल गाँव के अनपढ़ बल्कि उच्च शिक्षित लोग जो अपने आप को नास्तिक बताते हैं वे भी आस्था और अन्धविश्वास में भासे दीखते है....ये देखने में तो बहुत ही सामान्य बात लगती है किन्तु यदि हम इसके मूल में जाये और इसे ज्योतिषीय नजरिये से देखे तो समझ में आता है की किसी भी जातक में आस्था या विश्वास कब अन्धविश्वास में बदल जायेगा इसकी गणना उस जातक की कुंडली के नवम भाव से देखा जाता है यदि नवम भाव और तीसरा भाव कमजोर, नीच या क्रूर ग्रहों से पापाक्रांत हो तो व्यक्ति परेशानी या हताशा की स्थिति में आस्था से अंधविश्वास की राह में चला जाता है...


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बुद्धिमानी का बल


चतुर खरगोश.....एक वन में हाथियों का एक झुंड रहता था। झुंड के सरदार को गजराज कहते थे। वो विशालकाय, लम्बी सूंड तथा लम्बे मोटे दांतों वाला था। खंभे के समान उसके मोटे-मोटे पैर थे। जब वो चिंघाड़ता था तो सारा वन गूंज उठता था।
गजराज अपने झुंड के हाथियों से बड़ा प्यार करता था। स्वयं कष्ट उठा लेता था, पर झुंड के किसी भी हाथी को कष्ट में नहीं पड़ने देता था और सारे के सारे हाथी भी गजराज के प्रति बड़ी श्रद्घा रखते थे।
एक बार जलवृष्टि न होने के कारण वन में जोरों का अकाल पड़ा। नदियां, सरोवर सूख गए, वृक्ष और लताएं भी सूख गईं। पानी और भोजन के अभाव में पशु-पक्षी वन को छोड़कर भाग खड़े हुए। वन में चीख-पुकार होने लगी, हाय-हाय होने लगी। गजराज के झुंड के हाथी भी अकाल के शिकार होने लगे। वे भी भोजन और पानी न मिलने से तड़प-तड़पकर मरने लगे। झुंड के हाथियों का बुरा हाल देखकर गजराज बड़ा दुखी हुआ। वह सोचने लगा, कौन सा उपाय किया जाए, जिससे हाथियों के प्राण बचें।
एक दिन गजराज ने तमाम हाथियों को बुलाकर उनसे कहा, 'इस वन में न तो भोजन है, न पानी है! तुम सब भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाओ, भोजन और पानी की खोज करो।'
हाथियों ने गजराज की आज्ञा का पालन किया। हाथी भिन्न-भिन्न दिशाओं में छिटक गए। एक हाथी ने लौटकर गजराज को सूचना दी, 'यहां से कुछ दूर पर एक दूसरा वन है। वहां पानी की बहुत बड़ी झील है। वन के वृक्ष फूलों और फलों से लदे हुए हैं।' गजराज बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने हाथियों से कहा कि अब हमें देर न करके तुरंत उसी वन में पहुंच जाना चाहिए, क्योंकि वहां भोजन और पानी दोनों हैं। गजराज अन्य हाथियों के साथ दुसरे वन में चला गया। हाथी वहां भोजन और पानी पाकर बड़े प्रसन्न हुए।
उस वन में खरगोशों की एक बस्ती थी। बस्ती में बहुत से खरगोश रहते थे। हाथी खरगोशों की बस्ती से ही होकर झील में पानी पीने के लिए जाया करते थे। हाथी जब खरगोशों की बस्ती से निकलने लगते थे, तो छोटे-छोटे खरगोश उनके पैरों के नीचे आ जाते थे। कुछ खरगोश मर जाते थे, कुछ घायल हो जाते थे।
रोज-रोज खरगोशों के मरते और घायल होते देखकर खरगोशों की बस्ती में हलचल मच गई। खरगोश सोचने लगे, यदि हाथियों के पैरों से वे इसी तरह कुचले जाते रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब उनका खात्मा हो जाएगा।
अपनी रक्षा का उपाय सोचने के लिए खरगोशों ने एक सभा बुलाई। सभा में बहुत से खरगोश इकट्ठे हुए। खरगोशों के सरदार ने हाथियों के अत्याचारों का वर्णन करते हुए कहा, 'क्या हममें से कोई ऐसा है, जो अपनी जान पर खेलकर हाथियों का अत्याचार बंद करा सके ?'
सरदार की बात सुनकर एक खरगोश बोल उठा, 'यदि मुझे खरगोशों का दूत बनाकर गजराज के पास भेजा जाए, तो मैं हाथियों के अत्याचार को बंद करा सकता हूं। 'सरदार ने खरगोश की बात मान ली और खरगोशों का दूत बनाकर गजराज के पास भेज दिया।
खरगोश गजराज के पास जा पहुंचा। वह हाथियों के बीच में खड़ा था। खरगोश ने सोचा, वह गजराज के पास पहुंचे तो किस तरह पहुंचे। अगर वह हाथियों के बीच में घुसता है, तो हो सकता है, हाथी उसे पैरों से कुचल दे। यह सोचकर वह पास ही की एक ऊंची चट्टान पर चढ़ गया। चट्टान पर खड़ा होकर उसने गजराज को पुकारकर कहा, 'गजराज, मैं चंद्रमा का दूत हूं। चंद्रमा के पास से तुम्हारे लिए एक संदेश लाया हूं।'
चद्रमा का नाम सुनकर, गजराज खरगोश की ओर आकर्षित हुआ। उसने खरगोश की ओर देखते हुए कहा, 'क्या कहा तुमने? तुम चद्रमा के दूत हो? तुम चंद्रमा के पास से मेरे लिए क्या संदेश लाए हो?'
खरगोश बोला, 'हां गजराज, मैं चंद्रमा का दूत हूं। चंद्रमा ने तुम्हारे लिए संदेश भेजा है। सुनो, तुमने चंद्रमा की झील का पानी गंदा कर दिया है। तुम्हारे झुंड के हाथी खरगोशों को पैरों से कुचल-कुचलकर मार डालते हैं। चंद्रमा खरगोशों को बहुत प्यार करते हैं, उन्हें अपनी गोद में रखते हैं। चंद्रमा तुमसे बहुत नाराज हैं। तुम सावधान हो जाओ। नहीं तो चंद्रमा तुम्हारे सारे हाथियों को मार डालेंगे।'
खरगोश की बात सुनकर गजराज भयभीत हो उठा। उसने खरगोश को सचमुच चंद्रमा का दूत और उसकी बात को सचमुच चंद्रमा का संदेश समझ लिया उसने डर कर कहा, 'यह तो बड़ा बुरा संदेश है। तुम मुझे तुरंत चंद्रमा के पास ले चलो। मैं उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करूंगा।'
खरगोश गजराज को चंद्रमा के पास ले जाने के लिए तैयार हो गया। उसने कहा, 'मैं तुम्हें चंद्रमा के पास ले चल सकता हूं, पर शर्त यह है कि तुम अकेले ही चलोगे।' गजराज ने खरगोश की बात मान ली।
पूर्णिमा की रात थी। आकाश में चंद्रमा हंस रहा था। खरगोश गजराज को लेकर झील के किनारे गया। उसने गजराज से कहा, 'गजराज, मिलो चंद्रमा से ' खरगोश ने झील के पानी की ओर संकेत किया। पानी में पूर्णिमा के चंद्रमा की परछाईं को ही चंद्रमा मान लिया।
गजराज ने चंद्रमा से क्षमा मांगने के लिए अपनी सूंड पानी में डाल दी। पानी में लहरें पैदा हो उठीं, परछाईं अदृश्य हो गई। गजराज बोल उठा, 'दूत, चंद्रमा कहां चले गए ?'
खरगोश ने उत्तर दिया, 'चंद्रमा तुमसे नाराज हैं। तुमने झील के पानी को अपवित्र कर दिया है । तुमने खरगोशों की जान लेकर पाप किया है इसलिए चंद्रमा तुमसे मिलना नहीं चाहते।'
गजराज ने खरगोश की बात सच मान ली । उसने डर कर कहा, 'क्या ऐसा कोई उपाय है, जिससे चंद्रमा मुझसे प्रसन्ना हो सकते हैं?'
खरगोश बोला 'हां, है। तुम्हें प्रायश्चित करना होगा। तुम कल सवेरे ही अपने झुंड के हाथियों को लेकर यहां से दूर चले जाओ। चंद्रमा तुम पर प्रसन्न हो जाएंगे।' गजराज प्रायश्चित करने के लिए तैयार हो गया। वह दूसरे दिन हाथियों के झुंड सहित वहां से चला गया।
इस तरह खरगोश की चालाकी ने बलवान गजराज को धोखे में डाल दिया और उसने अपनी बुद्घिमानी के बल से ही खरगोशों को मृत्यु के मुख में जाने से बचा लिया।
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इश्वर की भक्ति से चारो पुरुषार्थ प्राप्य


इश्वर की भक्ति से चारो पुरुषार्थ प्राप्य ......एक अंधी बुढ़िया थी, जिसका एक लड़का और बहू थी। वह बहुत गरीब थी। वह अंधी बुढ़िया नित्यप्रति गणेशजी की पूजा किया करती थी। गणेशजी साक्षात्‌ सन्मुख आकर कहते थे कि बुढ़िया माई तू जो चाहे सो मांग ले। बुढ़िया कहती मुझे मांगना नहीं आता सो कैसे और क्या मांगू। तब गणेशजी बोले कि अपने बहू-बेटे से पूछ कर मांग ले।
तब बुढ़िया ने अपने पुत्र और वधू से पूछा तो बेटा बोला कि धन मांग ले और बहू ने कहा कि पोता मांग ले। तब बुढ़िया ने सोचा कि बेटा-बहू तो अपने-अपने मतलब की बातें कर रहे हैं।
अतः उस बुढ़िया ने पड़ोसियों से पूछा तो पड़ोसियों ने कहा कि बुढ़िया तेरी थोड़ी-सी जिंदगी है। क्यों मांगे धन और पोता, तू तो केवल अपने नेत्र मांग ले, जिससे तेरी शेष जिंदगी सुख से व्यतीत हो जाए। उस बुढ़िया ने बेटे, बहू तथा पड़ोसियों की बात सुनकर घर में जाकर सोचा, जिससे बेटा-बहू और मेरा सबका ही भला हो वह भी मांग लूं और अपने मतलब की चीज भी मांग लूं।
जब दूसरे दिन गणेशजी आए और बोले, बोल बुढ़िया क्या मांगती है। हमारा वचन है जो तू मांगेगी सो ही पाएगी। गणेशजी के वचन सुनकर बुढ़िया बोली हे गणराज यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे नौ करोड़ की माया दें, निरोगी काया दें, अमर सुहाग दें, आंखों में प्रकाश दें, नाती-पोता दें और समस्त परिवार को सुख दें और अंत में मोक्ष दें।
बुढ़िया की बात सुनकर गणेशजी बोले- बुढ़िया मां तूने तो मुझे ठग लिया। खैर, जो कुछ तूने मांग लिया वह सभी तुझे मिलेगा। यूं कहकर गणेशजी अंतर्ध्यान हो गए।
हे गणेशजी जैसे बुढ़िया मां को मांगे अनुसार आपने सब कुछ दिया है, वैसे ही सबको देना और हमको भी देने की कृपा करना।दरिद्रो लभते वित्तं बध्धो मुच्यते बन्धनात , भीतो भयात प्रमुच्यते सत्य मेव ना संशयः इश्वर की कृपा से धर्मं अर्थ काम और मोक्ष चारो पुरुशार्थों की प्राप्ति होती है......

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चीन के महान दार्शनिक कंफ्यूशियस


कंफ्यूशियस....चीन के महान दार्शनिक और विचारक कंफ्यूशियस (confucius) का जन्म 551 ईसा पूर्व (28 अगस्त या सितंबर) को चीन के पूर्वी प्रांत शानडोंग (शान तुंग) के क्यूफू (छ्वी फु) शहर में हुआ था। यह वर्ष उनकी 2,561वीं जयंती का वर्ष है।
भारत में उस काल में भगवान महावीर और बुद्ध के विचारों का जोर था। महावीर की तरह ही कंफ्यूशियस ने राजनीति में ज्यादा रुचि दिखाई। कंफ्यूशियस को एक राजनीतिज्ञ विचारक से ज्यादा एक धार्मिक विचारक भी माना गया।
ओशो कहते हैं कि कंफ्यूशियस के नीतिवादी विचार अधिक प्रभावी सिद्ध हुए। समय के थोड़े से अंतर में कंफ्यूशियस- लाओत्से तुंग, सुकरात, महावीर और बुद्ध के समकालीन थे।कंफ्यूशियस ने ऐसे समय जन्म लिया जबकि चीन की शक्ति बिखर गई थी और उस समय कमजोर झोऊ राजवंश का आधिपत्य था। उस दौर में कंफ्यूशियस के दार्शनिक विचारों के साथ ही उनके राजनीतिक और नैतिक विचारों ने चीन के लोगों पर अच्छा- खासा प्रभाव डाला। इसी के चलते उन्होंने कुछ वक्त राजनीति में भी गुजारा। दरअसल कंफ्यूशियस एक सुधारक थे।
कंफ्यूशियस ने स्व:अनुशासन, बेहतर जीवनचर्या और परिवार में सामंजस्य पर जोर दिया था। उनकी शिक्षाओं का आज भी चीन के कुछ लोग पालन करते हैं। इस दार्शनिक के नाम से चीन की सरकार एक शांति पुरस्कार भी प्रदान करती है।
कंफ्यूशियस के शहर में आज भी उनका स्मारक, मंदिर और भवन समेत कई प्राचीन इमारते हैं। यह चीन की सांस्कृतिक धरोहर है, जिसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर की लिस्ट में शामिल किया है।

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निष्कलंकेश्वर महादेव...


देवास से करीब 25 किमी दूर ग्राम नकलन में निष्कलंक महादेव विराजित हैं। यहां महाशिवरात्रि का मेला लगा हुआ है, जहां घरेलू जरूरतों तथा श्रृंगार प्रसाधन के साथ ही खेती-गृहस्थी से संबंधित दुकानें भी सजी हैं। मनोरंजन के लिए झूले भी लगे हैं। लोगों का कहना है कि यहां स्थित कुंड में नहाने से कुष्ठ की बीमारी से मुक्ति मिलती है।पहचान है। किंवदंती है कि किसी जमाने में इस गांव के आसमान से होकर एक मंदिर उड़ता हुआ जा रहा था, जिसे नकलन में तपस्या करने वाले एक महात्मा ने देख लिया और अपनी साधना की शक्तियों से उसे गांव में उतार लिया। बाद में यह मंदिर निष्कलंकेश्वर महादेव के नाम से जाना गया।
इस मंदिर में भगवान शिव की पंचमुखी प्रतिमा है। शुरू में यह एक मामूली सा मंदिर था। उस समय प्रजा के लिए भी मंदिर में प्रवेश प्रतिबंधित था। बाद में किसी नेपाली राजा ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जिसके बाद आम लोग भी मंदिर में आने-जाने लगे।
इस बात का कोई स्पष्ट उल्लेख यहां नहीं है कि मंदिर किस नेपाली राजा ने बनवाया था।
हर साल महाशिवरात्रि पर यहां शिव के भक्तों की भीड़ उमड़ती है और पांच दिनों तक मेला लगता है।
इस गांव और यहां आने वाले लोगों का विश्वास है कि मंदिर निर्माण के समय से ही बने इस कुंड में नहाने से सफेद दाग और कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है। शायद इसीलिए यहां के शिव का नाम निष्कलंकेश्वर महादेव पड़ गया।नकलन में स्थित कुंड में नहाकर श्रद्धालु अपने कलंक मिटाते हैं और फिर निष्कलंकेश्वर महादेव के दर्शन कर घर लौट जाते हैं। लौटते वक्त मेले से अपनी जरूरतों का सामान भी खरीदते जाते हैं।
निष्कलंकेश्वर महादेव का मंदिर ही नकलन गांव की इकलौती और एक बड़ी संपत्ति है.

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ब्रज.


ब्रज.......भगवान्‌ श्रीकृष्ण धन्य हैं, उनकी लीलाएं धन्य हैं और इसी प्रकार वह भूमि भी धन्य है, जहां वह त्रिभुवनपति मानस रूप में अवतरित हुए और ब्रजभूमि जहां उन्होंने वे परम पुनीत अनुपम अलौकिक लीलाएं कीं।
हिंदुस्थान में अनेक तीर्थ स्थान हैं, सबका महात्म्य है, भगवान्‌ के और-और भी जन्मस्थान हैं पर यहां की बात ही कुछ निराली है। यहां के नगर-ग्राम, मठ-मंदिर, वन-उपवन, लता-कुंज आदि की अनुपम शोभा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिन्न प्रकार से देखने को मिलती है।
अपनी जन्मभूमि से सभी को प्रेम होता है फिर वह चाहे खुला खंडहर हो और चाह सुरम्य स्थान, वह जन्मस्थान है, यह विचार ही उसके प्रति होने के लिए पर्याप्त है।
इसी से सब प्रकार से सुंदर द्वारका में वास करते हुए भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब ब्रज का स्मरण करते थे, तब उनकी कुछ विचित्र ही दशा हो जाती थी।जब ब्रज भूमि के वियोग से स्वयं ब्रज के अधीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण का ही यह हाल हो जाता है, तब फिर उस पुण्यभूमि की रही-सही नैसर्गिक छटा के दर्शन के लिए, उस छटा के लिए जिसकी एक झांकी उस पुनीत युग का, उस जगद् गुरु का, उसकी लौकिक रूप में की गई अलौकिक लीलाओं का अद्भुत प्रकार से स्मरण कराती, अनुभव का आनंद देती और मलिन मन-मंदिर को सर्वथा स्वच्छ करने में सहायता प्रदान करती है, भावुक भक्त तरसा करते हैं।
इसमें आश्चर्य ही क्या है? नैसर्गिक शोभा न भी होती, प्राचीन लीलाचिह्न भी न मिलते होते तो भी केवल साक्षात्‌ परब्रह्म का यहां विग्रह होने के नाते ही यह स्थान आज हमारे लिए तीर्थ था, यह भूमि हमारे लिए तीर्थ थी, जहां की पावन रज को ब्रह्मज्ञ उद्धव ने अपने मस्तक पर धारण किया था।वह ब्रजवासी भी दर्शनीय थे, जिनके पूर्वजों के भाग्य की साराहना करते-करते भक्त सूरदास के शब्दों में बड़े-बड़े देवता आकर उनकी जूठन खाते थे, क्योंकि उनके बीच में भगवान अवतरित हुए थे।
व्रज-वासी-पटतर कोउ नाहिं।
ब्रह्म सनक सिव ध्यान न पावत, इनकी जूठनि लै लै खाहिं॥
हलधर कह्यौ, छाक जेंवत संग, मीठो लगत सराहत जाहिं।
'सूरदास' प्रभु जो विश्वम्भर, सो ग्वालनके कौर अघाहिं॥
तब फिर यहां तो अनन्त दर्शनीय स्थान हैं, अनन्त सुंदर मठ-मंदिर, वन-उपवन, सर-सरोवर हैं, जो अपनी शोभा के लिए दर्शनीय हैं और पावनता के लिए भी दर्शनीय हैं। सबके साथ अपना-अपना इतिहास है।
यद्यपि मुसलमानों के आक्रमण पर आक्रमण होने से ब्रज की सम्पदा नष्टप्राय हो गई है। कई प्रसिद्ध स्थानों का चिह्न तक मिट गया है, मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी हैं, तथापि धर्मप्राण जनों की चेष्टा से कुछ स्थानों की रक्षा तथा जीर्णोद्धार होने से वहां की जो आज शोभा है, वह भी दर्शनीय ही है।

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हिन्दू धर्म के प्रमुख सात तीर्थ .


हिन्दू धर्म के प्रमुख सात तीर्थ .......यूं तो हिन्दू धर्म के सैकड़ों तीर्थ स्थल है, लेकिन हम आपको बताना चाहते हैं कि उनमें से भी कुछ ऐसे तीर्थ स्थल हैं जो उन सैंकड़ों में शीर्ष पर है। यहां जाना सचमुच ही तीर्थ स्थल पर जाना माना जाता है। यह पुण्य स्थल है। आओ, जानते हैं कि कौंन-कौंन से तीर्थ स्थल है।1.ब्रह्मा की नगरी पुष्कर : राजस्थान के अजमेर से उत्तर-पश्चिम में करीब 11 किलोमीटर दूर ब्रह्मा की यज्ञस्थली और ऋषियों की तपस्यास्थली तीर्थराज पुष्कर नाग पहाड़ के बीच बसा हुआ है। यहां ब्रह्माजी का विश्व का एक मात्र मंदिर है। मंदिर के पीछे रत्नागिरि पहाड़ पर ब्रह्माजी की प्रथम पत्नी सावित्री का मंदिर है। यज्ञ में शामिल नहीं किए जाने से कुपित होकर सावित्री ने केवल पुष्कर में ब्रह्माजी की पूजा किए जाने का शाप दिया था।
2.विष्णु की नगरी बद्रीनाथ : हिन्दुओं के चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम भगवान विष्णु का निवास स्थल है। यह भारत के उत्तरांचल राज्य में अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। गंगा नदी की मुख्य धारा के किनारे बसा यह तीर्थस्थल हिमालय में समुद्र तल से 3,050 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
3.कैलाश मानसरोवर : मानसरोवर वह पवित्र जगह है, जिसे शिव का धाम माना जाता है। मानसरोवर के पास स्थित कैलाश पर्वत पर भगवान शिव साक्षात विराजमान हैं। यह धरती का केंद्र है। यह हिन्दुओं के लिए मक्का की तरह है।
4. काशी विश्वनाथ : उत्तरप्रदेश में गंगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित वाराणसी नगर विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक माना जाता है। इस नगर के हृदय में बसा है भगवान काशी विश्वनाथ का मंदिर जो शिव के प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि जब पृथ्वी का निर्माण हुआ था तब प्रकाश की पहली किरण काशी की धरती पर पड़ी थी। तभी से काशी ज्ञान तथा आध्यात्म का केंद्र माना जाता है
5. श्रीराम की अयोध्या : भगवान राम की नगरी अयोध्या हजारों महापुरुषों की कर्मभूमि रही है। यह पवित्रभूमि हिन्दुओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहां पर भगवान राम का जन्म हुआ था। यह राम जन्मभूमि है।
6. कृष्ण की नगरी : हिन्दुओं के लिए मदीना की तरह है मथुरा। श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ था। मथुरा यमुना नदी के तट पर बसा एक सुंदर शहर है। मथुरा जिला उत्तरप्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। मथुरा जिले में चार तहसीलें हैं- मांट, छाता, महावन और मथुरा तथा 10 विकास खण्ड हैं- नन्दगांव, छाता, चौमुहां, गोवर्धन, मथुरा, फरह, नौहझील, मांट, राया और बल्देव हैं।
7. बुद्ध की नगरी : वैशाख माह की पूर्णिमा के दिन बुद्ध का जन्म नेपाल के लुम्बिनी में ईसा पूर्व 563 को हुआ। इसी दिन 528 ईसा पूर्व उन्होंने भारत के बोधगया में सत्य को जाना और इसी दिन वे 483 ईसा पूर्व को 80 वर्ष की उम्र में भारत के कुशीनगर में निर्वाण (मृत्यु) को उपलब्ध हुए। यह तीनों ही स्थान हिन्दू और बौद्ध के लिए महत्वपूर्ण तीर्थ है।

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उत्तरप्रदेश की पावन नगरी वाराणसी


वाराणसी....उत्तरप्रदेश की नगरी वाराणसी का प्राचीन नाम काशी है, जो गंगा नदी के किनारे बसी हई है। कुछ लोग इसे बनारस के नाम से भी पुकारते हैं।
वाराणसी कई शताब्दियों से हिन्दू मोक्ष तीर्थस्थल माना जाता है। यहां का बनारसी पान, बनारसी सिल्क साड़ी और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय संपूर्ण भारत में ही नहीं, विदेश में भी अपनी प्रसिद्धि के लिए ‍चर्चित है।
पुराण कथाओं के अनुसार वाराणसी शहर की खोज भगवान शंकर जी ने की थी। इसीलिए इसे शिव नगरी भी कहा जाता है।
शास्त्र मतानुसार जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो मोक्ष हेतु मृतक की अस्थियां यहीं पर गंगा में विसर्जित की जाती हैं। यह शहर सप्तमोक्षदायिनी नगरी में एक है। यहां भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक विश्वनाथ मंदिर विद्यमान है। यहां मां दुर्गाजी की एक शक्तिपीठ भी है। स्कंद पुराण एवं ऋग्वेद के अनुसार महाभारत काल में भी वाराणसी का उल्लेख पढ़ने को मिलता है। गौतम बुद्ध के काल में वाराणसी राजधानी का रूप लिए थी।
ऐसा भी कहते हैं कि वाराणसी विश्व की सबसे प्राचीन और न्यारी नगरी है। यहां पर गंगा नदी में डुबकी लगाने से प्राणी मात्र के सारे पाप धुल जाते हैं। यहां पर किया गया कोई भी पवित्र कार्य जैसे दान-पुण्य, मंत्र-जाप विशेष फल देने वाला होता है, क्योंकि यहां की महिमा अपरंपार है। यहां प्रदोष व्रत रखना पुण्य प्राप्ति का सरल साधन है।
काशी अथवावाराणसी शहर मुख्यतया मंदिर और घाटों के लिए प्रसिद्ध है। यहां देवाधिदेव शंकरजी को समर्पित अनेकानेक मंदिर हैं। यहां पर अनेक ऐसे भी मंदिर हैं, जहां पर शिवजी की निरंतर पूजा-अर्चना होती रहती है। महाशिवरात्रि के समय तो वाराणसी देखने लायक होता है। यह शहर व्यापारिक स्थल भी माना जाता है। वाराणसी से मात्र 14 किमी दूरी पर रामनगर किला भी है, जिसे जरूर देखना। इसे महाराज बलवंत सिंह ने 14वीं शताब्दी में बनवाया था। कहते हैं कि वेदव्यास जी यहां पर काफी समय तक रुके भी थे और उन्हीं को समर्पित यहां पर एक अच्‍छा मंदिर भी बना हुआ है।
वाराणसी सिर्फ हिन्दुओं का ही नहीं, अपितु सभी धर्मों के लोगों के लिए महत्वपूर्ण शहर है। इसीलिए देश-विदेश के पर्यटक यहां खिंचे चले आते हैं। वाराणसी से जुड़ा एक स्थान सारनाथ है। जहां पर गौतम बुद्ध ने तपस्या की थी और जनता को धर्म का उपदेश दिया था। वाराणसी में गंगा तट पर लगभग एक सौ घाट हैं। ये सभी मराठा शासनकाल में बने थे। यहां के आभूषण, लकड़ी, हिन्दू व बौद्ध देवताओं के मुघौटे बड़े ही प्रसिद्ध हैं।
कैसे पहुंचे : वाराणसी जाने हेतु सभी स्थानों से बस अथवा रेल द्वारा जाया जा सकता है। यह संपूर्ण देश के बड़े-बड़े शहरों से रेलमार्ग द्वारा सीधा जुड़ा हुआ है।

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पवित्र संदेश......

पवित्र संदेश......
* भलाई से बुराई को जीतो।
* बुराई को अपने ऊपर हावी मत होने दो।
* जो कोई दया करे, वह हंसी-खुशी के साथ दया करें।
* प्रेम में कोई कष्ट नहीं होना चाहिए।
* बुराई से घृणा करनी चाहिए।
* भलाई में लगे रहना चाहिए।
* एक-दूसरे के साथ भाईचारे का प्रेम करना चाहिए।
* एक-दूसरे का आदर करने में होड़ करनी चाहिए।
* प्रयत्न करने में आलस नहीं करना चाहिए।
* आशा में प्रसन्न रहो। दुःख में स्थिर रहो।
* सज्जनों की सहायता करो। अतिथियों की सेवा करो।* सताने वालों को आशीर्वाद दो।
* हंसने वालों के साथ हंसो। रोने वालों के साथ रोओ।
* बुराई के बदले बुराई न करो।
* भले काम करो। सबसे मेल रखो।
* किसी से बदला मत लो।
* तुम्हारा शत्रु भूखा हो, तो उसे खाना खिलाओ।
* प्यासा हो, तो पानी पिलाओ।
* जो कोई दान दे, वह सिधाई के सात दान दें।

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हिम्मत मत हारो .......


हिम्मत मत हारो ....अगर तुम कोशिश करते हो और फिर भी सफलता नहीं मिलती तो निराश म‍त होओ, बल्कि उस व्यक्ति को याद करो जिसने 21वें वर्ष में वार्ड मेंबर का चुनाव लड़ा और हार गया। 22वें वर्ष में व्यवसाय करना चाहा तो नाकामयाब रहा।
फिर 27वें वर्ष में पत्नी ने तलाक दे दिया। 32वें वर्ष में सांसद पद के लिए खड़ा हुआ पर मात खा गया। 37वें वर्ष में कांग्रेस की सीनेट के लिए खड़ा हुआ, किंतु हार गया। 42वें वर्ष में पुन: सांसद पद के लिए खड़ा हुआ, फिर हार गया।
47वें वर्ष में उप-राष्ट्रपति पद के लिए खड़ा हुआ, पर परास्त हो गया। लेकिन वही व्यक्ति 51 वर्ष की उम्र में अमेरिका राष्ट्रपति बना। नाम था- अब्राहम लिंकन।
इसीलिए कहा गया है- हिम्मत मत हारो, नए सिरे से फिर यात्रा शुरू करो, सफलता अवश्य मिलेगी............
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अपने संकल्प, साधना व लक्ष्य से कभी भी मत गिरो


कडवी बात ....अपना लक्ष्य कभी मत भूलो .........* नेता व महिलाओं में एक समानता है प्रसव की। महिला के लिए नौ माह व नेताओं के लिए पांच साल का प्रसव वर्ष होता है। कोई गर्भवती महिला आठ माह अपने परिवार का ख्याल रखती है और नौवें महीने परिवार महिला का ख्याल रखता है।
नेता ठीक इसके विपरीत होते हैं। जनता चार साल तक नेताओं का ख्याल रखती है और नेता चुनाव आते समय एक साल जनता का ख्याल रखता है। महिला जिसे जनती है, उसे अपने गोद में बिठाती है। इसके विपरीत नेता कुर्सी में बैठकर बड़ा बनता है।
* मुझे तुम्हारे जीवन के पांच खोट चाहिए। ऐसी बुरी आदत मुझे दे दीजिए, जिससे पत्नी को शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। बच्चों को स्कूल में दूसरों के सामने नीचे देखना पड़ता है। आप पांच खोट मुझे दे देंगे, तो मेरा और आपका कथा में साथ बैठना सार्थक हो जाएगा।
मैं आपकी गलत धारणाओं पर बुलडोजर चलाऊंगा। आज का आदमी बच्चों को कम, गलत धारणाओं को ज्यादा पालता है। इसलिए वह खुश नहीं है। इसलिए मुझे आपके नोट नहीं, आपके खोट चाहिए।
* इस मतलबी दुनिया को ध्यान से नहीं, धन से मतलब है। भजन से नहीं, भोजन से व सत्संग से नहीं, राग-रंग से मतलब है। सभी पूछते हैं कि घर, परिवार व व्यापार कितना है। कोई नहीं पूछता कि भगवान से कितना प्यार है।
* जीवन में अपने संकल्प, साधना व लक्ष्य से कभी भी मत गिरो। गिरना ही है, तो प्रभु के चरणों में गिरो। जहां उठाने वाला हो, वहां गिरना चाहिए। जो स्वयं गिरे हुए हो, वहां गिरना अंधों की बस्ती में ऐनक बेचने के समान है। उठने के लिए गिरना आवश्यक है। उसी तरह सोने के लिए बिछौना व पाने के लिए खोना जरूरी है।

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तामसिक विचार


कडवी बात ....वैचारिक परिमार्जन जरुरी है ....खुद की समक्ष करो * समाज में फैल रहीं विभिन्न विकृतियों के संबंध में राष्ट्रीय संत कहते हैं कि पथ भ्रमित हो चुके समाज को आज संस्कार, चरित्र से ज्यादा नीति शिक्षा की जरूरत है। दरअसल व्यक्ति का भोजन ही नहीं विचार भी तामसिक हो चुके हैं, जिससे उसके दिलो-दिमाग में सिर्फ अपना स्वार्थ्य छाया रहता है। लिहाजा आज मंदिर नहीं बल्कि विचारों के जीर्णोद्धार की जरूरत है।
* पूरा देश ध्वनि प्रदूषण व वायु प्रदूषण से बचने के उपाय खोजने में लगा है। जबकि इससे बड़ी समस्या मनोप्रदूषण की है। हंसते हुए मुनिश्री कहते हैं- गांधी जी ने तीन बंदर बनाए थे। उनको एक बंदर और बनाना था जो अपने हृदय पर हाथ रखे होता और संदेश देता कि बुरा मत सोचो। * आज मनुष्य के विचारों में आ रहे बदलाव में सुधार की आवश्यकता है। हमारा भोजन ही नहीं विचार भी तामसिक हो गए हैं। हमारी प्रार्थना भी तामसिक हो चुकी है। हम भगवान से केवल अपने और परिजनों का ही सुख चाहते हैं। दुनिया के बारे में कभी भला नहीं मांगते। ऐसी प्रार्थना ही तामसिक होती है।
* लोगों में करुणा का भाव कम होता जा रहा है। मानवीय संवेदनाएं कम हो चुकी हैं। बड़े से बड़े हादसे की खबर लोग चाय की चुस्की के साथ पढ़ या सुन लेते हैं। इन हादसों की खबरों से उनके हाथ की प्याली नहीं गिरती। दिल की संवेदनाएं मरना देश व समाज के लिए अच्छा नहीं है। जब हम एक-दूसरे के दुख-दर्द को समझेंगे तभी अमन-चैन की परिकल्पना को साकार किया जा सकता है।

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ईश्वर का स्वरूप क्या है?


ईश्वर का स्वरूप क्या है?......क्या तुम रोज़ आइना देखते हो अगर हाँ तो रोज जो तुम्हे आईने में दीखता है...वही इश्वर है...
एक महात्मा से किसी ने पूछा- 'ईश्वर का स्वरूप क्या है?'
महात्मा ने उसी से पूछ दिया-'तुम अपना स्वरूप जानते हो?'
वह बोला- 'नहीं जानता।'
तब महात्मा ने कहा- 'अपने स्वरूप को जानते नहीं जो साढ़े तीन हाथ के शरीर में 'मैं-मैं कर रहा है और संपूर्ण विश्व के अधिष्ठान परमात्मा को जानने चले हो। पहले अपने को जान लो, तब परमात्मा को तुरंत जान जाओगे।
एक व्यक्ति एक वस्तु को दूरबीन से देख रहा है। यदि उसे यह नहीं ज्ञान है कि वह यंत्र वस्तु का आकार कितना बड़ा करके दिखलाता है, तो उसे वस्तु का आकार कितना बड़ा करके दिखलाता है, तो उसे वस्तु के सही स्वरूप का ज्ञान कैसे होगा?
अतः अपने यंत्र के विषय में पहले जानना आवश्यक है। हमारा ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा संसार दिखलाता है। हम यह नहीं जानते कि वह दिखाने वाला हमें यह संसार यथावत्‌ ही दिखलाता है या घटा-बढ़ाकर या विकृत करके दिखलाता है।
गुलाब को नेत्र कहते हैं- 'यह गुलाबी है।' नासिका कहती है- 'यह इसमें एक प्रिय सुगंध है।' त्वचा कहती है- 'यह कोमल और शीतल है।' चखने पर मालूम पड़ेगा कि इसका स्वाद कैसा है। पूरी बात कोई इंद्री नहीं बतलाती। सब इन्द्रियां मिलकर भी वस्तु के पूरे स्वभाव को नहीं बतला पातीं।

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'माया'.....


'माया'.....स्व अश्रितम रक्षनम करोति यह माया .........संत-महात्मा सब कहते हैं ये सब माया का बंधन है। सारा संसार माया के वशीभूत है। आखिर ये माया है क्या। हिन्दू धर्म के ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु को मायाधिपति कहा गया है। अर्थात वे माया के स्वामी माने जाते हैं।
जब द्वापर युग में भगवान विष्णु ने कंस के संहार और पापियों का नाश करने के लिए पृथ्वी पर कृष्ण के रूप में अवतार लिया तब उन्होंने अपने अनन्य भक्त नारद को माया की महिमा बताई जो इस प्रकार है-
नारदजी और भगवान कृष्ण में वार्तालाप चल रही थी। नारदजी ने पूछा- भगवन आप मायाधिपति कहलाते हैं। बताइए आखिर ये माया है क्या?भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- नारद आज मैं तुम्हारे सामने माया के रहस्य का वर्णन करूंगा। चलो महल से बाहर निकलकर तुम्हें बताता हूं।
भगवान कृष्ण और नारदजी महल से आगे चलने लगे, तभी भगवान ने नारदजी से कहा- मुनि नारद, मुझे बहुत तीव्र प्यास लगी है, क्या आप सामने वाले कुएं से जल भरकर ले आएंगे।
नारदजी ने कहा- अवश्य प्रभु। नारदजी जल लेने के लिए कुएं के समीप गए। तभी उनकी दृष्टि वहां जल भर रही एक सुंदर स्त्री पर पड़ी। नारद उसके रूप को देखकर उस पर मोहित हो गए। जब वह स्त्री जल भरकर जाने लगी तब नारदजी भी उनके पीछे चल दिए।
वह स्त्री गांव के एक घर में गई। नारदजी घर में जाने लगे, तभी एक वृद्ध ने उन्हें रोका और पूछा- आप कौन हैं।
नारदजी ने कहा- मैं भगवान विष्णु का परम भक्त नारद हूं।
नारदजी ने उस वृद्ध से पूछा- आप कौन हैं और स्त्री आपकी क्या लगती है?
वृद्ध ने कहा- मैं इस गांव का सरपंच हूं और यह मेरी इकलौती पुत्री है।
नारदजी ने कहा- क्या आप अपनी पुत्री का विवाह मुझसे करेंगे?
वृद्ध ने कहा- ठीक है, लेकिन मेरी एक शर्त है।
नारदजी ने पूछा- कौनसी शर्त?
वृद्ध ने कहा- मेरी लड़की से विवाह करने के बाद तुम्हें मेरे पास रहना पड़ेगा और गांव का सरपंच बनना पड़ेगा।
नारदजी ने कहा- ठीक है।
विवाह हो गया। नारदजी गांव के सरपंच बन गए। नारदजी खुशी से अपना जीवन व्यतीत करने लगे। उनके यहां पुत्र का जन्म हुआ। फिर एक पुत्री का जन्म हुआ। नारदजी सोचने लगे कितना खुशहाल जीवन है।
एक दिन अचानक गांव में भयंकर बाढ़ आई। सारा गांव जलमग्न हो गया। नारदजी ने सोचा कि इस गांव से बाहर निकलना ‍चाहिए। उन्होंने एक युक्ति निकाली। लकड़ी के दरवाजे पर अपने पूरे परिवार को बिठा लिया और पानी पर तैरने लगे। अचानक उनकी पुत्री बाढ़ के पानी में गिर गई, उसे बचाने की कोशिश करते इतने में पुत्र गिर गया। पुत्र का विलाप कर ही रहे थे कि पत्नी भी पानी में गिर गई।
नारदजी दुखी हो गए और रोने लगे... तभी भगवान कृष्ण ने उन्हें जगाया- नारद उठो, तुम्हें मैंने कुएं से पानी लेने के लिए भेजा था ना।
नारदजी ने कहा- प्रभु, मैं समझ गया क्या होती है माया!........

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सफल प्रेम


सफल प्रेम भी हो जाते हैं क्यों असफल-जॉर्ज बर्नाड शॉ ने कहा है, दुनिया में दो ही दुख हैं- एक तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा तुम जो चाहो वह मिल जाए। और दूसरा दुख मैं कहता हूं कि पहले से बड़ा है।
क्योंकि मजनू को लैला न मिले तो भी विचार में तो सोचता ही रहता है कि काश, मिल जाती! काश मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में, कि करता सवारी बादलों की, चांद-तारों से बातें, खिलता कमल के फूलों की भांति। नहीं मिल पाया इसलिए दुखी हूं।
मजनू को मैं कहूंगा, जरा उनसे पूछो जिनको लैला मिल गई है। वे छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे है कि मजनू धन्यभागी था, बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।
जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है और पहुंचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा ‍कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया।
बाहर जिसे हम तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिलकुल न हार जाएं, समग्ररूपेण न हार जाएं तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। तुम्हारी बात मैं समझा।
किस-दर्जा दिलशिकन थे
मुहब्बत के हादिसे
हम जिंदगी में फिर कोई
अरमां न कर सके।
एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता।
दिल की वीरानी का क्या मजकूर है,
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया।
और इतनी दफे लुट चुका है यह दिल! इतनी बार तुमने प्रेम किया और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे हो। मैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लुटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे।
तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अद्‍भुत कौम है। उसने परमात्मा को एक नाम दिया हरि। हरि का अर्थ होता है- लुटेरा, जो लूट ले, जो हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। जो हरण कर ले।
लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-छोटी बातों में लुट गए! चुल्लू-चुल्लू पानी में डूबकर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ, कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब मैं तुमसे कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जंचती क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर भी है।
मेरी मायूस मुहब्बत की
हकीकत मत पूछ
दर्द की लहर है
अहसास के पैमाने में।
तुम्हारा प्रेम सिर्फ एक दर्द की प्रतीति रही। रोना ही रोना हाथ लगा, हंसना न आया। आंसू ही आंसू हाथ लगे। आनंद, उत्सव की कोई घड़ी न आई।
इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।
लेकिन संसार के दुख का हासिल यही है कि दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।
इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम।
दुख और दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।
यहां से कोशिश करो, वहां से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम में पड़े, सब तरफ से हासिल यही होगा। अंतत: तुम पाओगे कि हाथ में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। राख के सिवा कुछ हाथ में नहीं रह गया है। धुआं ही धुआं!
लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूं जहां धुआं होता ही नहीं। मैं तुमसे उस जगत की बात कर रहा हूं जहां आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूं। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं, जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने अपने अर्थ दे रखे हैं।
जैसे ही तुमने सुना 'प्रेम', कि तुमने जितनी फिल्में देखी हैं, उनका सबका सार आ गया। सबका निचोड़, इत्र। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह कुछ और। मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया, जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मोंवाला प्रेम नहीं, नाटक नहीं। और जिन्होंने यह प्रेम किया उन सबने यहीं कहा कि वहां हार नहीं है, वहां जीत ही जीत है। वहां दुख नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है। और अगर तुम इस प्रेम को न जान पाए तो जानना, जिंदगी व्यर्थ गई।
दूर से आए थे साकी,
सुनकर मैखाने को हम।
पर तरसते ही चले,
अफसोस पैमाने को हम।
मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आए थे। दूर से आए थे साकी सुनकर मैखाने को हम- मधुशाला की खबर सुनकर कहां से तुम्हारा आना हुआ जारा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आए हो। पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम- यहां एक घूंट भी न मिला।
मरते वक्त अधिक लोगों की आंखों में यही भाव होता है। तरसते हुए जाते हैं। हां, कभी-कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई प्रेमी परमात्मा का तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब जाता है।
मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख खोलकर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम होता है, व अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।
तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित करना चाहता है, स्त्री पुरुष को शोषित करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री-पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति-पत्नी लड़ते रहते हैं। उनके बीच एक कलह का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाए इसकी चेष्टा है। यह संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है।
मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जहां तुम परमात्मा से कुछ मांगते नहीं, कुछ भी नहीं। सिर्फ कहते हो, मुझे अंगीकार कर लो। मुझे स्वीकार कर लो। मुझे चरणों में पड़ा रहने दो। यह मेरा हृदय किसी कीमत का नहीं है, किसी काम का नहीं है, मगर चढ़ाता हूं तुम्हारे चरणों में। और कुछ मेरे पास है भी नहीं। और चढ़ा रहा हूं तो भी इसी भाव से चढ़ा रहा हूं-
-'त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पयेत्।' तेरी ही चीज है। तुझी को वापस लौटा रहा हूं। मेरा इसमें कुछ है भी नहीं। देने का सवाल भी नहीं है, देने की अकड़ भी नहीं है। मगर तुझे और तेरे चरणों में रखते ही इस हृदय को शांति मिलती है, आनंद मिलता है, रस मिलता है। जो खंड टूट गया था अपने मूल से, फिर जुड़ जाता है। जो वृक्ष उखड़ गया था जमीन से, उसको फिर जड़ें मिल जाती हैं; फिर हरा हो जाता है, फिर रसधार बहती है, फिर फूल खिलते हैं, फिर पक्षी गीत गाते है, फिर चांद-तारों से मिलन होता हैं।
परमात्मा से प्रेम का अर्थ है कि इस समग्र अस्तित्व के साथ मैं अपने को जोड़ता हूं। मैं इससे अलग-अलग नहीं जिऊंगा, अपने को भिन्न नहीं मानूंगा। अपने को पृथक मानकर नहीं अपनी जीवन-व्यवस्था बनाऊंगा। मैं इसके साथ एक हूं। इसकी जो नियति है वही मेरी नियति है। मैं इस धारा के साथ बहूंगा, तैरूंगा नहीं। यह जहां ले जाए! यह डुबा दे तो डूब जाऊंगा। ऐसा समर्पण परमात्म प्रेम का सूत्र है। खाली मत जाना।
मैकशों ने पीके तोड़े जाम-ए-मै
हाये वो सागर जो रक्खे रह गए।
ऐसे ही रक्खे मत रह जाना। पी लो जीवन का रस। तोड़ चलो ये प्यालियां। और उसकी नजर एक बार तुम पर पड़ जाए और तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जाएगा।
लाखों में
इंतिखाब के काबिल बना दिया।
जिस दिल को
तुमने देख लिया दिल बना दिया।।
जरा रखो उसके चरणों में। जरा झुको। एक नजर उसकी पड़ जाए, एक किरण उसकी पड़ जाए, और तुम रूपांतरित हुए। लोहा सोना हुआ। मिट्टी में अमृत के फूल खिल जाते हैं।
आखिरी जाम में क्या बात थी
ऐसी साकी।
हो गया पी के जो खामोश
वो खामोश रहा।
यहां तुमने बहुत तरह के जाम पीए। आखिरी जाम - उसकी मैं बात कर रहा हूं।
आखिरी जाम में क्या बात थी
ऐसी साकी।
हो गया पी के जो खामोश
वो खामोश रहा।
उसको पी लोगे तो एक गहन सन्नाटा हो जाएगा। सब शांत, सब शून्य, सब मौन। भीतर कोई विचार की तरंग भी नहीं उठेगी। उसी निस्तरंग चित्त को समाधि कहा है। उसी निस्तरंग चित्त को बोध होता है, मैं कौन हूं।
मैं किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं, तुम किसी और ही प्रेम की बात सुन रहे हो। मैं कुछ बोलता हूं, तुम कुछ सुनते हो। यह स्वाभाविक है शूरू-शुरू में। धीरे-धीरे बैठते-बैठते मेरे शब्द मेरे अर्थों में तुम्हें समझ में आने लगेंगे। सत्संग का यही प्रायोजन है। आज नहीं समझ में आया, कल समझ में आएगा, कल नहीं तो परसों।
सुनते-सुनते...। कब तक तुम जिद करोगे अपने ही अर्थ की? धीरे-धीरे एक नए अर्थ का आविर्भाव होने लगेगा।
मेरे पास बैठकर तुम्हें एक नई भाषा सीखनी है। एक नई अर्थव्यवस्था सीखनी है। एक नई भाव-भंगिमा, जीवन की एक नई मुद्रा! तुम्हारे ही शब्दों का उपयोग करूंगा, लेकिन उन पर अर्थों की नई कलम लगाऊंगा। इसलिए जब भी तुम्हें मेरे किसी शब्द से अड़चन हो तो खयाल रखना, अड़चन का कारण तुम्हारा अर्थ होगा, मेरा शब्द नहीं। तुम भी कोशिश करना कि मेरा अर्थ क्या है। तुम अपने अर्थों को एक तरफ सरकाकर रख दो। तुम तत्परता दिखाओ मेरे अर्थ को पकड़ने की। और तत्परता दिखाई तो घटना निश्चित घटने वाली है।

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