Wednesday, 16 December 2015

कर्मचारी चयन का महत्त्व


औद्योगिक संगठनों में कर्मचारी चयन अथवा व्यावसायिक चयन मौलिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि औद्योगिक मनोविज्ञान के उद्देश्य की प्राप्ति एक बडी सीमा तक सही कर्मचारी चयन पर निर्भर करती हे। इसी बात को ध्यान में रखकर वाड़टलै ने कहा है कि, कर्मचारी को उपर्युक्त कार्य पर लगाना उद्योग में वैयक्तिक कुशलता एव समायोजन को बढाने से प्रथम तथा संभवत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है | कर्मचारी चयन अथवा व्यावसायिक वयन का महत्त्व उपयुक्त उक्ति से स्पष्ट हो जाता है
 वैयक्तिक कुशलता के लिए -कर्मचारी चयन वस्तुत्त: किसी कर्मचारी की व्यक्तिगत कुशलता के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है। सही कर्मचारी चयन के होने पर व्यक्ति की अपनी योंग्यताएँ समुचित रूप से विकसित होती है जिससे उसकी कार्यकुशलता में भी वृद्धि होती है। इसके विपरीत व्यवसाय से व्यक्ति के गलत नियोजन की स्थिति में उसकी योग्यताएँ समुचित रूप से विकसित नहीं हो पाती न ही उसकी कार्यकुशलता समुचित बन जाती है। अत: वैयक्तिक कुशलता को समुचित बनाने के लिए यह आवश्यक है कि कर्मचारी का नियोजन सही हो।
 वैयक्तिक समायोजन के लिए-कर्मचारी चयन का सही होना न केवल व्यक्ति की कार्य कुशलता के दृष्टिकोणा से महत्त्वपूर्ण है बल्कि उसके वैयक्तिक समायोजन के  दृष्टिकोण से भी है। जब सही कार्यं के लिए किसी सही व्यक्ति का चयन किया जाता है तो वह अपने उद्योग में समायोजित होता है। यह बात उल्लेखनीय है कि उद्योग एक सामाजिक संगठन है जिसमेँ अन्य सामाजिक-मकानो की तरह सामाजिक पारस्परिक क्रिया होती है। जो कर्मचारी किसी कार्य में सही रूप से नियोजित होते है वे उद्योग में पारस्परिक संबंधो को समुचित रूप से निभाने में सफल होते है। किन्तु गलत कार्य में नियोजित होने पर कर्मचारी में अन्तवैक्तिक संबंध दोषपूर्ण हो जाता है| जिसके कारण वह नाना प्रकार के कुशोमायोजन के लक्षणों से पीडित हो जाता है। इस दृष्टिकोण से भी यह आवश्यक है कि व्यावसायिक चयन को यथासम्भव सफल बनाने का प्रयास किया जाए।
 उत्पादन के लिए- कर्मचारी चयन तथा उत्पादन के बीच घनिष्ट संबंध होता है। अध्ययनों से पता चलता है कि जब कर्मचारियों का कार्यनियोजन सही तौर पर होता है तब उत्पादन संतोषप्रद होता है क्योंकि कर्मचारी में कार्यं के प्रति संतुष्टि तथा अनुकूल मनोवृति होती है जिससे कार्य करने में रुचि मिलती है और आनंद का अनुभव होता है। दूसरी ओर गलत कार्य नियोजन की स्थिति में कर्मचारी अपने कार्य से असंतुष्ट होता है, कार्यं में रुचि नहीं मिलती, अत: कार्यं के प्रति उदासीनता बद जाती है और कार्यं कुशलता घट जाती है। अत संतोषजनक उत्पादन के लिए यह अनावश्यक है कि कार्य में व्यक्ति का सही नियोजन हो।
बेहतर आय के लिए- कर्मचारी की आय के दृष्टिकोण से भी व्यवसायिक चयन की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। सही कार्य के लिए सही व्यक्ति के चयन होने पर उसे अपने कार्यं से संतुष्टि का अनुभव होता है इसलिए वह अधिक मेहनत के साथ काम करता है जिससे उत्पादकता बढ़ जाती है और उसके बदले उसे प्रबंधन की ओर से अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाता है। ऐसे कर्मचारियों को प्रबंधन की ओर से अधिक समय की भी व्यवस्था होती है, उजरती-विधि की स्थिति में बढ़ते हुए उत्पादन के साथ उसकी आय बढती है। लेकिन गलत कार्य नियोजन की स्थिति मेँ जाय घट जाती है क्योंकि अपने कार्य से असंतुष्ट कर्मचारी नीरसता का अनुभव करता है और उत्पादन घट जाता है जिसके करण उसे उजरती विधि में भी कम आय होती है और अधिसमय की संभावना भी नगण्य बन जाती है। अत: आय के दृष्टिकोण से भी कर्मचारी चयन का सही होना अनावश्यक है। नियोजित नहीँ हो पाता तो वह अपने कार्य से असंतुष्ट रहा करता है, कार्यं के प्रति उदासीन बन जाता है, नीरसता एवं प्रतिक्रियात्मक अवरोध की मात्रा बढ़ जाती है तथा ध्यान भंग अधिक होता है जिससे दुर्घटना करने की प्रवृति बढ़ जाती है। दुर्घटना से कर्मचारी तथा उद्योग दोनों को हानि होती है। अत दुर्घटना प्रवृत्ति को घटाने के लिए भी यह आवश्यक है कि कार्यं में कर्मचारी का नियोजन सही हो।
 प्रोन्नति के लिए -कर्मचारी चयन का महत्त्व कर्मचारी की प्रोन्नति केक दृष्टिकोण से भी कम नहीं है। जब सही कार्य के लिए सही व्यक्ति का चयन किया जाता है तो ऐसी स्थिति में उसे कार्य संतुष्टि प्राप्त होती है जिससे उसकी वैयक्तिक कुशलता बढ़ जाती है और उत्पादकता काफी संतोषप्रद होती है। वह अपने कार्य से पूरी तरह समायोजित होता है। ऐसे कर्मचारियों के प्रति प्रबंधन की मनोवृति अनुकूल होती है और पुरस्कार के रूप में उनकी पदोन्नति दी जाती है। इसके साथ- साथ प्रबंधन की ओर से ऐसे कर्मचारियों को प्रशंसा के रूप में पुरस्कार मिलता है तथा उसकी तृप्ति में उनका सम्मान बढ़ जाता है। दूसरी ओर जो कर्मचारी अपने कार्य से सही तौर पर नियोजित नहीँ हो पाते वे कार्य असंतुष्टि का अनुभव करते है जिससे उत्पादन घट जाता है। फलत: प्रबंधन की दृष्टि में उनका सम्मान घट जाता है, निदा के रूप में दण्ड मिलता है तथा प्रोन्नति की संभावना क्षीण हो जाती है। इससे भी यह प्रमाणित होता है कि कर्मचारी चयन का सही होना बहुत आवश्यक है।
 बेहतर पारिवारिक समायोजन के लिए- आज से बहुत पहले इस वास्तविकता की ओर संकेत किया था कि कर्मचारी अपने उद्योग के भीतर जो अनुभव करता है उसे वह परिवार तक ढोकर ले जाता हैं। उनका यह विचार आज भी संगत प्रतीत होता गलत कर्मचारी चयन की स्थिति में जब कर्मचारी अपने कार्य, अपने अपने अधिकारियो के साथ समायोजित नही हो पाता और कुसमायोज़न के लक्षणों का शिकार बन जाता है, वह अपने परिवार के अदर पति-पत्नी या बच्चों के साथ भी समायोजित नहीं हो पाता। इस प्रकार उसका परिवार ही नष्ट हो जाता है। दूसरी ओर जो कर्मचारी अपने कार्य में समायोजित होते है वह न केवल अपने सहकर्मियों अधिकारियों के साथ बेहतर समायोजन स्थापित कर पाते है बल्कि उनका जीवन भी सफल तथा सुखद होता है।
 मानसिक स्वास्थ्य के लिए-मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी व्यावसायिक चयन काफी महत्त्वपूर्ण है। सही व्यावसायिक चयन स्थिति में कर्मचारी मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है क्योंकि वह अपने कार्यं से संतुष्ट रहता है, कार्यं में रुचि रखता है तथा कार्यं करते समय आनंद का अनुभव करता है | उसका संबंध सहकर्मियों तथा मैनेजरों के साथ संतोषजनक रहता है। उसके संबंध परिवार तथा समाज के विभिन्न वर्गों के साथ भी संतोषजनक रहता है। इस तरह वह उधोग के भीतर या बाहर मानसिक द्वंदों चिन्ताओं, कुषठाओं आदि से मुक्त रहता है| मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है। ऐसे स्वस्थ कर्मचारियों से ही स्वस्थ वातावरण का निर्माण होता है। इसके विपरीत गलत कर्मचारी चयन की ' कर्मचारीगण मानसिक रूप से अस्वस्थ होते है जिसके कारणा संगठनात्मक प्रदूषित हो जाता है। यह बात उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में भी मनोवैज्ञानिकों अथवा संगठनात्मक मनोवैज्ञानिकों का सबसे कर्त्तव्य किसी संगठन के वातावरण को स्वस्थ बनता है जिसके बिना उद्योग के लक्ष्यों को प्राप्त करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
  
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions 
 






मानसिक स्वास्थ्य-विज्ञान

आधुनिक भारत की प्रगति का ऐतिहासिक सिंहावलोकन करने पर इस तथ्य पर प्रकाश
पड़ता है कि भारत ने जहाँ एक ओर वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास में प्रगति कर अपने को विकासशील देशों की वेणी में खड़ा कर दिया है, वहीं देश की भौतिक प्रगति ने मानव जीवन के समक्ष अनेक समस्याएँ एवं जटिलताएँ उत्पन्न कर दी है। भौतिकवाद के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य बदल गया है, मानव मूल्य परिवर्तित हो गये है, स्वस्थ जीवन का दर्शन का अभाव हो गया है, धन संपदा के प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण में अस्थिरता आईं है तथा जनसंख्या में अपार वृद्धि हुई है जिसके कारण उनका व्यक्तित्व विघटित हो गया है,उनमें तनाव और कुण्डा अधिक मात्रा में पायी जाने लगी है, उनका मानसिंक संतुलन भंग हो गया है। उनका सामाजिक समायोजन अप्रभावी हो गया है तथा वे मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गये है मानसिक अस्वस्थता के कारण व्यक्ति ने ना तो समाज में उपयुक्त अन्तर्किंया कर सकता है और न उपयुक्त समायोजन ही स्थापित कर सकता है। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य व्यक्तित्व विघटन को रोकता है। अस्तु व्यक्ति के लिए उत्तम मानसिक स्वास्थ्य का ज्ञान ही आवश्यक नहीं वरन उन कारणो की रोकथाम भी आवश्यक है जो मानसिक कुस्वास्थ्य के लिए उत्तरदायी है जिससे व्यक्ति समाज में प्रभावपूर्ण समायोजन स्थापित कर सके और अपना जीवनयापन सुचारु रूप से कर सके। परन्तु मानसिक स्वास्थ्य के बारे म प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से अवगत कराना होगा। जिसके द्वारा मानसिक रोगों की रोकथाम तथा उनका उपचार किया जाता हैं। स्वस्थ शरीर का तात्पर्य केवल शारीरिक दोषों से युक्त होना ही नहीँ है वरन मानसिक रोगों एवं दोषों से मुक्ति से भी है। इसीलिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में मनोंचिंकित्सा का भी समावेश किया गया है ताकि मानसिक रोग उत्पन करने वाले कारणों को ज्ञात किया जा सके और उनका उपचार किया जा सके।
मानसिक आरोग्य-विज्ञान के पक्ष मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की प्रस्तुत की गई परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि मानसिक आरोग्य विज्ञान के निम्नलिखित तीन पक्ष है-
1. निरोधात्मक उपाय
मानसिक आरोग्य विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष असामान्य परिस्थितियों को उत्पन्न करने वाले कारकों को नियंत्रित करना मानसिक स्वास्थ्य में वृद्धि करने वाले आवश्यक एवं वांछित दशाओं के उत्पन्न करना है ताकि व्यक्ति सुचारु रूप से अपना जीवन-यापन कर सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमेँ इस व्यक्ति का प्रयास करना होगा कि व्यक्ति की जैविक, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक परिस्थितियों उसके अनुकूल हो जिससे वह व्यक्ति केवल बाह्य समायोजन ही नहीं, वरन् आन्तरिक समायोजन भी स्थापित कर सके और समाज में एक रचनात्मक व्यक्ति की भूमिका निर्वाह कर एक योग्य नागरिक बन सके। मानसिक रोगों की रोकथाम के लिए जैविक, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक उपायों का प्रयोग किया जा सकता है जिनका वर्णन अधोलिखित है-
(1)जैवकीय निरोधात्मक उपाय- अगर शारीरिक स्वास्थ्य उत्तम तथा संतोषजनक होगा तो मस्तिष्क का विकास भी पूर्णरूप से होगा, और मानसिक विकृतियों का आभाव पाया जायेगा और व्यक्ति कठिनाइयों तथा अपनी जटिल परिस्थितियों का सामना ठीक से कर सकेगा। अध्ययनों में यह परिणाम प्राप्त किया गया है कि कुछ शारीरिक रोगो तथा सिफलिस और ब्रेन दूँयूमर में मानसिक लक्षण अधिक पाये जाते हैँ। अत: ऐसे रोगो के रोकथाम के लिए प्रयास करना चाहिए। इन शारीरिक रोगों के अतिरिक्त कुछ जैविका कारण भी होते है|
जो मानसिक रोगों के जनक होते है यथा गर्भ या जन्य के समय अनुपयुक्त जैविक परिस्थिति का होना माता-पिता की अस्वस्थता आदि। अत: इस प्रकार गर्भवती माता को उपयुक्त देखभाल समय-समय पर परीक्षण संवेगात्मक परिस्थिति से बचाव करना चाहिए। साथ-ही-साथ प्रतिकूल आनुवांशिक संरचना वाले माता-पिता का कानूनी तौर पर वनध्याकरण होना चाहिये ताकि मानसिक रोगी बच्चों का जन्म न हो सके। अस्तु इस दिशा म मनोवैज्ञानिकों एवं मनोचिकित्सकों को यह प्रयास करना चाहिए कि मानसिक रोगों पर जैविक प्रभावों के रोकथाम के लिए प्रयास करें
2) मनोवैज्ञानिक निरोधात्मक उपाय -व्यक्तियों में मानसिक आरोग्यता लाने का उत्तरदात्वि केवल माता-पिता पर ही नहीं, वरन शिक्षकों तथा समाज के लोगों का भी है, इस दिशा में माता-पिता तथा शिक्षकों को इस बात का प्रयास करना चाहिए कि वे बालकों में ऐसी योग्यता विकसित करे , जिससे वे भावी जीवन में आने वाली कठिनाइयों एवं समस्याओँ का निराकरण कर सके और सामाजिक वातावरण में उपयुक्त समायोजन स्थापित कर सके। उन्हें चाहिए कि वे बच्चों में ऐसे जीवन मूल्यों को विकसित करें जिससे बच्चे बड़े होकर समाज को एक रचनात्मक दिशा प्रदान कर सके। बालको में ऐसी अभिवृतियों का निर्माण करना चाहिए जिससे वे पर्यावरण सबंधी दबावपूर्ण, परिस्थितियों का सामना कर सके। व्यक्ति का जीवनदर्शन दोषपूर्ण होने पर उनमें अपनी कठिनाइयों से निपटने के क्षमता का हास पाया जायेगा इन उपायों का प्रयोग करके मानसिक अस्वास्थ्य की जटिल समस्या का समाधान किया जा सकता है। मानसिक रोगों की रोकथाम के लिए मनोवैज्ञानिक निरोध के रूप म उचित जीवन दर्शन विकसित करने का प्रयास, सामाजिक योग्यताओं को विकसित करने का प्रयास, संवेगात्मक नियन्त्रण का प्रयास एवं उपयुक्त शिक्षा आदि का व्यवस्था करनी चाहिये।
मानसिक रोगो की रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपायों प्रयोग किया जा सकता है :-
( अ ) स्वस्थ व्यक्तित्व के विकास के लिए प्रवास करना चाहिये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि माता-पिता एवं बच्चों के बीच सहानुभूतिपूर्ण संबंध हो। सामाजिक जीवन के निर्वाह के लिए उपयुक्त प्रशिक्षण दिया जाये, उनकी स्वतन्त्रता पर अनावश्यक प्रतिबन्ध न लगाये जाय. जीवन की यथार्थताओं का अनुभव उन्हें निकट से करने दिया जाय तथा उसे समूह अथवा परिवार का एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति समझा जाये।
(ब ) मूलभूत यौग्यत्ताओं के विकसित करने में सहायक होना चाहिए: इस दिशा में इस बात का प्रयास करना चाहिये कि बच्चों को सवेगात्मक नियन्त्रण स्थापित करने में कठिनाई न हो, व्यक्ति में अत्यधिक भावुकता न पाई जाय, ऋणात्मक संवेगों यथा क्रोध है भय,चिंता आदि का सामना करने की योग्यता विकसित करनी चाहिये, समस्यापूर्ण संवेगों का सामना करने की क्षमता विकसित होनी चाहिये तथा धनात्मक संवेगों यथा प्रेम एवं विनोद को प्रोत्साहित करना चाहिये।
( स) सामाजिक क्षमताओं को विकसित करना चाहिये, इसके लिए पारम्परिक अधिकारों आवश्यकताओं एवं उत्तर्दयित्यों का बोध कराना चाहिये तथा व्यक्ति में अपने को और दूसरों को समझने की योग्यता होनी चाहिये,
( द ) अखण्ड व्यक्तित्व को विकसित करने में सहायक होना चाहिए।
( ई ) सफल वैवाहिक समायोजन होना चाहिये ताकि पति-पत्नी एकदूसरे के प्रति ही नहीं वरन् परिवार के सदस्यों के प्रति अपने उत्तरदायित्व के प्रति सचेत रह सके।
मानसिक रूथ से स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण
1. नियमितता-ऐसे व्यक्तियों की दिनचर्या उसका लिबास,उसका जीवन आदि नियमित होता है और वह सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानकों के अनुकूल होता है। ऐसे व्यक्ति केवल अपने व्यावसायिक कार्यों में ही नियमितता नहीँ प्रदर्शित करते है वरन जीवन के हर क्षेत्र में इनके व्यवहार में नियमितता पाई जाती है।
2. परिपक्वता -मानसिक रूप से स्वस्थ्य व्यक्तियों में सामाजिक परिपक्वता पाई जाती है। उनके कार्यों एवं व्यवहार पर उनके सामाजिक तथा पारिवारिक पृष्ठभूमि का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। ऐसे व्यक्ति समाजोयुवत व्यवहार एवं आचरण प्रदर्शित करते हैं।
3. जीवन लक्ष्य -सभी व्यक्तियों के अपने जीवन लक्ष्य तथा जीवन में उनकी अपनी कुछ आकाक्षाएँ होती है, जो व्यक्ति अपने परिवार एवं समाज की आवश्यकताओं के प्रतिकूल जीवन लक्ष्य निर्धारित कर लेते है, वह अपने जीवन लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रहते है परन्तु मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने परिवार, संस्कृति एवं समाज की मान्यताओं एवं आदर्शी को ध्यान में रखकर जीवन लक्ष्य निर्धारित करते है और उन्हें पूरा करके आदर्श नागरिक बनाते हैं।
4. उपयुक्त समायोजन -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति में उपयुक्त समायोजन के गुण पाये जाते है, ऐसे व्यक्ति साधारण एवं जटिल परिस्थितियों में भलीभांति समायोजन स्थापित कर लेते है और परिस्थितियों की जटिलताओं से हतोत्साहित नहीँ होते हैँ।
5. आत्म मूल्यांकन -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने गुण,अवगुणों का सहीं मूल्याकन करते है वह अपनी वास्तविकताओं को समझते है, तथा वे न तो अपना मूल्यांकन ही करते है और न अतिमूल्याकन ही।
6. आत्म विश्वास-मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी नहीं पाई जाती है ऐसे व्यक्ति जिन कार्यों को करते है आत्म विशवास से करते हैँ। इनमें अधीरता नहीं पाई जाती है तथा जटिल परिस्थितियों में सामना करते समय आत्मविश्वास बनाये रखते हैँ।
7. संवेगात्पक स्थिरता -समी व्यक्ति संवेगात्मक परिस्थितियों में संतुलित व्यवहार नहीं कर पाते हैं। परिणामस्वरूप उनकी संवेगात्मक अभिव्यक्तियों अनिश्चित रहंती है जबकि मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने संवेगों को नियंत्रित रखते है । सामाजिक परिस्थितियों में न तो वह अत्यधिक प्रेम प्रदर्शित करते है और न अत्यधिक क्रोध ।
8. सन्तोष -मानसिंक रूप से स्वस्थ व्यवित्तर्या के पास जो कुछ होता है उसी में यह संर्ताष करते है जिस व्यवसाय में रहते है, उसमें संतोष अनुभव करते है और जो कुछ उसे उपलब्ध है, उसे ही ईश्वर का प्रसाद मानते है।
9. अतिशयता का आभाव -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने व्यवहार,आकांक्षा, संभाव, संवेग आदि के सन्दर्भ में अतिशयता पूर्ण व्यवहार नहीं करते है। इनका व्यवहार सर्वदा संतुलित रहता है न तो उनकी आकाक्षा बहुत उच्च होनी है और न वह अत्यधिक सम्मान प्राप्त करने की ही इच्छा करते हैं।
10. सामाजिक संपर्क -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति सामाजिक परिस्थितियों में धैर्य नहीँ खाते है तथा परिचित एवं अपरिचित व्यक्तियों से बातचीत में अपना विवेक-आत्मविश्वास एवं संतुलन बनाये रखते हैँ।
11. संवेदनशीलता -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों में अत्यधिक संवेदनशीलता नहीँ पाई जाती है। जबकि मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति अत्यधिक संवेदनशील होते है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति जीवन की छोटी-छोटी बातों के प्रति अत्यधिक गंभीर दृष्टिकोण नहीं अपनाते है। उनमें हास्याबोध पाया जाता है इसलिये वह इस तरह की घटनाओं को अधिक महत्व नहीं देते हैं।
12. आत्म सम्मान -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति जहाँ अपने आत्म संम्मान की रक्षा का प्रयास करता है वहीं वह किसी ऐसे व्यवहार को भी नहीं करता है जिससे दूसरों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचे। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति स्वयं भी संतुष्ट रहते है और अपने सदव्यवहार से दूसरों को भी संतुष्ट रखते हैँ।
13. उपयुक्त सामाजिक व्यवहार -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति परिवार तथा समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ उपयुक्त अन्तर्किंया करते है और सामाजिक नियमों का पालन करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज विरोधी कार्य न तो करते है और न दूसरा को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करते है।
14) पारिवारिक अंतक्रिया-मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति परिवार के सदस्यों के साथ उपयुक्त व्यवहार करने है वे ऐसा व्यवहार नहीं करते है जिससे परिवार के सदस्यों का या उनका जीवन कष्टमय या कलापूर्ण हो।
15.संतुलित व्यक्तित्व-मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों का व्यक्ति संतुलित होता है उनका स्वभाव व चरित्र, विवेक तथा अर्जित विन्यास इस प्रकार होते है कि वह वातावरण के साथ अपूर्व अनुकूल स्थापित कर लेते हैं।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

बाल अपराध के कारण

1. जैविक कारक
बाल अपराध की उत्पत्ति में वंशानुक्रम तथा शारीरिक दोनों ही प्रकार के जैविक कारकों
का योगदान होता है।सीजर लोम्बोसो तथा सिरिल बर्ट नै बाल अपराध की उत्पत्ति में वंशानुक्रम  को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है। लोम्ब्रोसो के अनुसार अपराधी जन्मजात होते है और उनकी कुछ निश्चित शारीरिक व मानसिक विशेषताएँ होती हैँ। बर्ट के विचार भी इसी प्रकार के है। शारीरिक कारकों का बालक के व्यक्तित्व एवं व्यवहार पर गहरा प्रभाव पडता है। यदि शारीरिक विकास असामान्य हो तो बालक के व्यवहार में भी असामान्यता उत्पन्न हो सकती है। शरीर का असन्तुलित विकास, शारीरिक दोष, टी बी, दृष्टिदोष, आदि कारक अपराध को बढावा देते हैँ।
2. सामाजिक कारक-बाल अपराध को बढावा देने वाले सामाजिक कारकों में सर्व प्रमुख है परिवार की दशाएँ। इसके अतिरिक्त विद्यालय तथा समाज की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण से अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
है। यदि परिवार का वातावरणा स्वस्थ न हो तो बालक के व्यक्तित्व पर इसका बुरा असर पड़ता है। परिवार में संरक्षक की मृत्यु, माता-पिता के बीच तलाक, धन अर्जित करने वाले व्यक्ति का शराबी हो जाना आदि ऐसी भग्न परिवार की स्थितियों है , जिनमें नियन्त्रण के अभाव के कारण बालक स्वतंत्र और उच्छखल हो जाते है और उनके अन्दर अपराध प्रवृत्ति बढती है। माता-पिता के अशिक्षित होने से बालको को समुचित मार्ग दर्शन नहीँ मिल पाता। परिवार में यदि माँ-पिता, भाई-बहन या किसी अन्य सदस्य का अनैतिक चरित्र होता है तो उसका भी कुप्रभाव बालकों पर पड़ता है और उनमें आपराधिक प्रवृतियाँ बढती है। माता-पिता द्वारा अपने बालकों के बीच पक्षपात करने से तिरस्कृत बालक के अन्दर विद्रोह की भावना जन्म लेती है जिससे वह आक्रामक हो सकता है। जिन निम्न सामाजिक आर्थिक स्थिति के कारण जब परिवार में बालको की आवश्यकताएँ सामान्य रूप से पूरो नहीं हो पाती तो बालक चोरो आदि की प्रदृत्ति विकसित कर लेते है। विद्यालय में बालक अपने दिन का अधिकांश समय व्यतीत करता है अत: वहीं के वातावरण का प्रभाव बालक के ऊपर विस्तृत रूप से पडता है। विद्यालय का दूषित भौतिक वातावरण, दूषित, पाठ्यक्रम. शिक्षकों का दुर्व्यवहार, मनोरंजनो के साधनों का अभाव आदि ऐसे अस्वस्थ कारक है जो बालको के अन्दर अपराध प्रवृति उत्पन्न करती है| समाज का दूषित वातावरण भी बालकों को अपराधी बनाने में सहायक होता है। शराब, वेशयावृत्तिद, जुआ, बेमेल विवाह आदि दूषित वातावरण एवं कुप्रथाओं के प्रभाव से भी बालको में अपराध प्रवृत विकसित होती है। समाज का गिरा चरित्र, दूषित वातावरण, दूषित साहित्य, दूषित राजनीति, खराब प्रभाव डालनेवाले चलचित्र, पास पडोस का दूषित वातावरण, मनोरंजन के अत्यधिक साधन होना अथवा अत्यन्त सीमित साधन होना, बुरे साथी, सामाजिक क्रुप्रथाएँ आदि ऐसे सामाजिक कारक है जो बालकों में अपराध के बढावा देते है।
3. मनोवैज्ञानिक कारक-बहुत से ऐसे मनौवैज्ञानिक कारक है जो बालक की अपराध प्रवृति को उत्पन्न करने और विकसित करने मे सहायक होते है। लगभग एक प्रतिशत बाल अपराधियों में अपराध का कारणा मस्तिष्क क्षति पाई गई है। पाच प्रतिशत बाल अपराध का कारण निम्न बुद्धि स्तर पाया गया है। निम्न बुद्धि के कारण बालक अपने व्यवहार के परिणाम को जान सकने में असमर्थ होता है और अपने अज्ञान के कारण ही अपराधी गैंग का शिकार हो जाता है जो उस पर प्रभुत्व जमाते है, उसका शोषण करते है और निरन्तर उसे अपराध कार्यों में लगाये रखते है।
मनस्ताप एवं मनोविक्षिष्टि भी बाल अपराध व्यवहार के साथ सम्बद्ध पाई गई हैं। लगभग तीन से पॉच प्रतिशत बालअपराधी मनस्तापीय विकारों से ग्रस्त होते है। लगभग इतना ही प्रतिशत मनोंविक्षिप्ति से ग्रस्त बाल अपराधियों का है। बाल अपराधियों का व्यक्तित्व मनोविकारी होता है। ये आवेगी अनियत्रित तथा शर्म एवं अपराध भावना से युक्त होते है। चूंकि इनमें नियन्त्रण का अभाव होता है। ये बिना किसी योजना के, मात्र क्षणिक आवेश में कोई आपराधिक कृत्य कर डालते है जैसे बिना आवश्यकता के कुछ धन चुरा लेना या वे केई कार चुरा लेते है और थोडी दूर तक ले जाकर उसे छोड़ देते है। इनके आवेगी कृत्य कभी-कभी हिसक भी हो जाते है और व्यक्ति अथवा सम्पत्ति को हानि पहुँचाते है। इस प्रकार अनेक जैविक,सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक कारण अपराध की उत्पत्ति एवं उसके विकास में सहायक होते है |



Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions 

व्यक्तित्व में सुधार कैसे

मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त करने के अनेक पहलुओं पर विचार करके उनमें सुधार लाने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है । जिन में से व्यक्तित्व का सुधार अत्यंत महत्वपूर्ण है जैसा कि हम जानते है व्यक्तित्व के दो महत्वपूर्ण पहलू है ।
1बाहरी स्वरूप
2 आन्तरिक स्वरूप या मानसिक व्यक्तित्व
1बाहरी स्वरूप : बाहरी व्यक्तित्व व्यक्ति के शारीरिक ढाचे उसके रूप रंग उसके अंगों के आकार व प्रकार से बना होता है और वह सभी का जैसा होता है वैसा ही दिखाई देता है बाहरी स्वरूप में सामान्य व्यक्तियो की भांति अधिकतर लोग दिखाई देते है लेकिन कुछ व्यक्तियों में शारीरिक विकास होता है जो की या तो जन्मजात होता है या किसी घटना या दुर्घटना के कारण हो जाता है शारीरिक विकास मनुष्य की कार्य क्षमता पर प्रभाव डालता है ।
2 आन्तरिक स्वरूप या मानसिक व्यक्तित्व : मानसिक व्यक्तित्व किसी भी व्यक्ति की मस्तिष्क की कार्य प्रणाली पक्ष आधारित होता है अर्थात किसी व्यक्ति का मस्तिष्क किस प्रकार कार्य करता है उसके विचार, उसकी भावनाएं, उसकी सोच, उसकी समझने की शक्ति सब कुछ मस्तिष्क की कार्यप्रणाली पर निर्भर होता है अत: व्यक्तित्व में सुधार के लिए हमें दो प्रकार से सचेत होना पड़ता है ।
1भौतिक या शारीरिक
2मानसिक या मनोवैज्ञानिक
उपरोक्त दोनों प्रकार के पहलूओं में सुधार लाने के लिए अनेकानेक प्रक्रियाएं की जाती है जिनका वर्णन निम्न प्रकार है ।
1.भौतिक या शारीरिक सुधार : शरीर माध्यम अर्थात शरीर निश्चय रूप से सभी धर्मो का मुख्य साधन है शारीरिक प्रक्रिया में निम्न प्रकार से सुधार लाये जा सकते हैं ।
1.शरीर की देखभाल या रखरखाव -इसके अन्तर्गत शरीर कं अंगों के निरन्तर देखभाल से हमारा शरीर और उसकी दिखावट ठीक रहती है । सारा दिन कार्य करने के उपरान्त शरीर में थकावट भी होती है और अगले दिन काम लिए शारीरिक क्षमता को बनाये रखना होता है इसके लिए बालों की देखभाल कटिंग, तेल या क्रीम लगाना कंघी करना शामिल है उसके अतिरिक्त आखों को स्वच्छ रखना गुलाब जल सुरमा अथवा काजल आदि का प्रयोग किया जाता है हाथों और पैरों के नाखुन समय-समय पर काटते रहना चाहिए चेहरे की चमक बनाये रखने के लिए क्रीम आदि का प्रयोग कते रहना चाहिए इसी प्रकार शरीर के बाहय अंगों को ठीक प्रकार देखभाल से शारीरिक सुधार होता है । शारीरिक व बाहरी सुधार के लिए निम्न क्रियाएं करनी चाहिए
(क)चिकित्सा : यदि किसी व्यक्ति को किसी प्रकार का रोग या विकार है तो इसे अपने को ठीक रखने के लिए जल्द से जल्द चिकित्सा करानी चाहिए क्योंकि कोई भी रोग या विकार यदि समय रहते नियंत्रित नहीं जिया जाए तो भयंकर रूप ले लेता है ।अपनी शरीर की आवश्यकताओं को समयनुसार समझना भी कार्य के अनुसार समय-समय पर शारीरिक निरीक्षण करवाते रहना । शरीर के सभी अगो को अपेक्षित प्रकार से संचालित रखना क्योकि कुछ कार्यों में केवल कुछ ही अंगों पर अधिक दबाव रहता है और बाकी अंग निष्क्रिय रहते है अत: निष्क्रिय अंगों का संचालित कर व कार्यशील अंगो को आराम देकर शारीरिक स्वरूप बढाया जा राकता है । कार्य के वातावरण से हानिकारक तत्वों को सीमित करना । कार्य में होने वाले प्रदूषण व् कार्य से उत्पन्न जोखिमों से निपटने के लिए सुरक्षात्मक उपकरण रखना । कार्य के जोखिम के अनुसार उचित प्रशिक्षण प्राप्त करना । शारीरिक योग्यता को बताने के लिए योग्य प्रशिक्षकों से शिक्षण प्राप्त करना । उपकरणों के प्रयोग से पहले उनकी अपेक्षित जाच जिनसे की प्रयोग करते समय दुर्घटना का कारण न बने । अभिभावकों, प्रशिक्षकों की आज्ञा का पालन करना ।  आपातकालीन सहायता के लिए (फर्स्ट एड) प्राथमिक चिकित्सा का प्रबंध रखना।रहना चाहिए विशेषकर आधुनिक युग में जो जि प्रतिस्पर्धा से ओत-प्रोत है । यदि हम कार्य करने में पीछे रह जाते है तो तेजी से भागते हुए समय को पकड़ना कठिन है ।
(ख).खेल खिलाडी की भावना : जिस प्रकार खेल में हार व जीत दोनो ही दशाओं में खिलाडियों का मनोबल बना रहता है कि उसकी आज की हार कल की जीत है ठीक उसी प्रकार मनुष्य को कार्य अपनी पूर्ण क्षमता से करना चाहिए । यदि आज असफल हुए तो कल सफलता भी प्राप्त होगी । सन्देश है कि जिदगी में असफलता के उपरान्त भी मायुसी नही जानी चाहिए और सफलता की स्थिति में अत्याधिक प्रफुल्लता भी हानिकारक हो सकती है ।
(ग) चिंता छोड़ो सुख से जियो- सुप्रसिद्ध लेखक खेल कारनेगी ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट रूप से कहा है जि हमें व्यर्थ की चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि कल की रोटी सुखी है और जो आगे आने वाला कल है वह बिल्कुल अनिश्चित है कुछ भी किसी पल हो सकता है इसलिए हमें आज के दिन सब कूछ ठीकठाक करना चाहिए बिना वजह से चिंता करने से व्यक्ति जलता है क्योकि चिंता चिंता समान है । व्यर्थ की चिंता न करने से हमारी शारीरिक क्षमता बनी रहती है ।
(घ) सामान्य ज्ञान- मानसिक सुधार हेतु सामान्य ज्ञान अर्थात् हमारे आस पास क्या हो रहा है चाहे वह राजनैतिक क्षेत्र हो अथवा आर्थिक या वैज्ञानिक इन सभी के ज्ञान से हम जिदगी में मात नहीं खा राकते एक अच्छे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति सामान्य ज्ञान के कारण अंधेरे में नहीं रहता ।
(ड़) व्यावसायिक ज्ञान : व्यक्ति को जीने के लिए कुछ ना कुछ कार्य करना पड़ता है चाहे नौकरी या व्यवसाय । अपने व्यवसाय का पूर्ण ज्ञान आवश्यक है इससे किसी भी प्रकार की चिंता अथवा नुकसान से बचा जा सकता है व्यावसायिक ज्ञान से व्यक्ति के अन्दर आत्मविश्वास जगता है और उसे व्यवसाय करने में भी किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती है ।
छ. शिक्षण तथा प्रशिक्षण : मानसिक सुधारो में शिक्षा अथवा प्रशिक्षण का होना अनिवार्य है कोई भी व्यक्ति जब शिक्षण प्राप्त करता है तो वह अपना भला बुरा सोच लेता है, दुनिया के सारे समाचार पढ़ कर ज्ञान लेता है । शिक्षित व्यक्ति के व्यवहार में तुलनात्मक दृष्टि से बहुत अन्तर पाया जाता है यही कारण है की आधुनिक युग में शिक्षण तथा प्रशिक्षण की सुविधाओ का बहुत विस्तार हुआ है और अनेक व्यक्ति उसका लाभ जता सकते है ।
क्रोध पर काबू रखें : अग्रेजी का एक शब्द है डेनजर, जिसमें से यदि पहले शब्द डे को हटा दे तो वह एंगर, अर्थात क्रोध बन जाता है इसका तात्पर्य है की क्रोध बहुत बडा खतरा है यह पाप का मूल है । क्रोधित व्यक्ति सब कुछ भूलकर विनाश की और अग्रसर होता है । एक अच्छे व्यक्ति के लिए यह आवश्यक कि आने वाले क्रोध पर नियन्त्रण रखा जाये ताकि हानि से बचा जा सकें और दूसरे व्यक्तियों को भी परेशानी न हो इसलिए व्यक्ति को सदा शान्त भाव रखना चाहिए क्रोध हमेशा अपने आप को नुकसान देता है दूसरों को नहीं इसलिए हमें चाहिए कि हम क्रोध ना करें अन्यथा क्रोध आने पर उसे नियन्त्रण में रखा जा सके | इसके लिए विषय परिवर्तन, स्थान परिवर्तन, ध्यान परिवर्तन, ठण्डे पानी का प्रयोग अथवा ज्ञान सम्बन्धी पुस्तकों या अध्ययन योगाभ्यास तथा चित्तन आवश्यक है |
इर्षा तथा घृणा को टाले : दूसरों को देखकर जलना अथवा उसके प्रति इर्षा करना व्यक्ति के भौतिक सिद्धांतों के विपरीत है । यह सच है की दूसरे कीं थाली में घी अधिक लगता है किसी की उन्नति या प्रगति से दूसरा व्यक्ति अधिकतर चिंता ओर उससे ईष्यों करने लगता है इंष्यएँ एक मानसिक भावना और इसक दो भिन्न-भिन्न पहलु है । एक तो यदि ईष्यर्र उन्नति अथवा किसी शुभ कार्य के लिए की जाये तो उससे व्यक्ति को शाक्ति मिलती है और यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अग्रसर होता है । दूसरे यदि कोई व्यक्ति दूसरे की उन्नति को देखकर जलता है अथवा वह मन ही मन है कुंढता है तो उससे खून जलता है और शक्ति का हास होता है घृणा ईष्यपै का अन्तिम चरण है यह अत्यन्त घातक है घृणा के भयानक परिणामों में शामिल है युद्ध तथा आतंकवाद जिसके कारण मानवता की बहुत क्षति हुई है ।
ट. आत्म विश्वास जगाएं : आत्मविश्वास का प्रत्यक्ष सम्बन्ध व्यक्ति के मानसिक स्थिति से है आत्मविश्वास से तात्पर्य ऐसी मनोस्थिति से है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति अपने ऊपर पूर्ण विश्वास रखकर किसी भी कार्यं को करता है बिना आत्म विश्वास के व्यक्ति या तो कोई कार्य नहीं कर पाता और यदि करने लगता है तो वापस हो जाता है आत्मविश्वास जगाने के लिए यह आवश्कता है की व्यक्ति ओरो के सन्मुख वार्तालाप करें अपने साथियो अथबा सहयोगियों के साथ विचार विमर्श करें, महापुरुषों के उपदेश सुने और सुनाये तथा ऐसे ही अनेक नाम है जिनके अन्तर्गत ज्ञान प्राप्त करना भी शामिल है । आत्म विश्वास उत्पन्न होने पर व्यक्ति किसी भी स्थिति में घबराता नहीं है तथा अटूट विश्वास के साथ कार्य करता है ।
वैश्वीकरण : यह एक नवीनतम अवधारणा है जिसके अन्तर्गत हम अपने घर पर बैठकर समूचे विश्व की यात्रा कर सकते है और सभी प्रकार की सूचनायें संकलित कर सकते है आज दिन हम केवल भारतवर्ष ही नहीं बल्कि विश्व के विकसित और विकासशील देशो से सम्बन्ध स्थापित कर सकते है । उनसे व्यवसाय कर सकते है रोजगार प्राप्त कर सकते है और विपरण भी कर सकते |आधुनिक युग ने व्यक्तित्व का विकास और सुधार वैश्वीकरण के बिना अधुरा है |


Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

आधुनिक उद्योग संस्थानों तथा व्यवसाय में मनोवैज्ञानिकों की भूमिका

विज्ञान की प्रगति के साथ तकनीकी एवं प्राविधिकी विकास तथा परिवर्तनों ने उद्योग संस्थानों को प्रभावित किया है। श्रम-विभाजन तथा अति परित्कृत मशीनो के कारण हुए कार्यों का स्वचलन तथा बदलती हुई कार्य-प्रणाली ने उद्योगों के वातावरण में यांत्रिकता तथा एकरसता को बढावा दिया है । इसका प्रभाव कर्मचारी तथा मशीन एंव कर्मचारी एव प्रबंधन के बीच विरोध के रूप में पडा है तथा कर्मचारियों के बौद्धिक तथा संवेगात्मक्त पक्षों पर भी इसका नाकारात्मक प्रभाव पडा है । जिस कार्य को करने में मनुष्य की इच्छा, बुद्धि एवं प्रयास नहीं लगे हो वह कार्यं उसे सन्तुष्टि नहीं दे सकता और आज के अति उन्नत उद्योग संस्यानों में मनुष्य एक बटन दबने वाला साधन मात्र बन कर रह गया है । किसी भी कार्य को करने में उसकी बुद्धि तथा कौष्टाल का प्रयोग नहीं होता जिसका फल यह होता है कि न तो मनुष्य को उस कार्य में रुचि त्तथा अनुरक्ति विकसित हो पाती है न ही वह कार्य उसे कोई चुनौती दे पाता है जो उस व्यक्ति में कार्यं को संपादित करने की तत्परता एवं प्रेरणा जगा सके। इन स्थितियों मेँ औद्योगिक संस्यानों में विभिन्न प्रकार की जटिलताएँ उत्पन्न हो जाती है जिनके समाधान के लिए मनोवैज्ञानिकों की सहायता आवश्यक हो जाती है, न मात्र उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में मनोवैज्ञानिकों की भूमिका है वरन हर उन संस्थानों में उनकी उपयोगिता है जहाँ कर्मचारियो के चयन एवं प्रशिक्षण की समस्या होती है, यथा-विभिन्न सेवा आयोग, सेना के संस्थान, आरक्षी प्रशिक्षण केन्द्र, ग्राम्य एवं सामुदायिक विकास योजनाएँ आदि। विभिन्न निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में भी मनोवैज्ञानिकों की भूमिका को लोग अब पहचानने लगे हैं।
आधुनिक औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों ने उद्योग संस्थानों में अपनी भूमिका तथा कार्य- कलापों में आमूल परिवर्तन बताया है। द्वितीय महायुद्ध के बाद तक के दिनो में मनोवैज्ञानिकों का कार्यक्षेत्र औद्योगिक वातावरण के भौतिक पक्षी तक ही सीमित था। किन्तु क्रमश: उनका ध्यान उद्योगो में कार्यरत् मनुष्यों के वैयक्तिक कारकों यर जाने लगा तथा उनके व्यक्तित्व का नैदानिक तथा वैज्ञानिक अध्ययन का उन्हें उद्योग के लिए अधिक उपयोगी बना देने का प्रयास मनोवैज्ञानिकों का अभीष्ट हो गया। आज के मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन क्षेत्र में मनुष्य के प्रेरण, इच्छाएँ, आवश्यकताएँ, आकाक्षाएँ, आदि तो है ही, उनके क्षेत्र का विस्तार निरीक्षण, नेतृत्व प्रकार, नियोक्ताकर्मी संबंध, कार्यं के प्रति कर्मचारियों की मनोवृति, मनोबल, आदि के अध्ययन के दिशा में भी हुआ है। उनकी मान्यता है कि व्यक्ति के ये वैयक्तिक कारक उद्योग संस्थानों के अन्तर्गत उनकी कार्य प्रणाली तथा कार्यक्षमता को प्रभावित करते है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उत्पादन पर पता है।
1.कर्मचारियों की उधोग में सहभागिता बढाने की भूमिका-मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रयोगशाला तथा क्षेत्र-प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि उद्योग संस्थानों में कर्मचारियों की सहभागिता तथा प्रबंधकों की ओर से लोकतात्रिक एव सहकारी वातावरण का उन्नयन नियोक्ता एवं कर्मिंर्या के पारस्परिक संबंर्धा को न सिर्फ बढाता है वरन् उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पाता है। मनोवैज्ञानिकों की भूमिका कर्मचारियों की स्थितियों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं है। उनका अभीष्ट उद्योगपतियों तथा प्रबंधकों की लक्ष्य-प्राप्ति के संसाधनों का अध्ययन करना भी है। अत: उद्योग संसाधनों की संरचना की योजना को कार्यान्वित करना मनोवैज्ञानिक अध्ययन क्षेत्र में आ जाता है।
2. उद्योग क्षेत्रों में श्रम-कल्याण-विभाग की स्थापना कराने की भूमिका-विभिन्न देशों की सरकारों ने भी उद्योगपतियों तथा कामगारों के प्रति अपना दायित्व स्वीकारा है। उद्योगों की सफलता मात्र के लिए हो कामगारों की सुख-सुविधा तथा संतुष्टि के लिए प्रयास हो यह उनका दर्शन नहीं रहा है। उनकी मान्यता रही है कि राष्ट्र के एक नागरिक के नाते हर कामगार को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन साधनो को प्राप्त करने का अधिकार है जो उससे ऊपर के वर्गों के नागरिको को प्राप्त हैं। अत: उद्योगों में कार्यरत कामगारों की सुबिधा तथा सुरक्षा के लिए श्रम अधिनियमों को पारित किया गया और उनके आलोक में सरकारी नीतियों के आघार पर उद्योगपतियों और उद्योग मनोवैज्ञानिकों के सम्मिलित प्रयास से उद्योगो में श्रम कल्याण विभाग के स्थापना हुईं। इस विभाग के अधिकारी को कार्मिक पदाधिकारी का पद दिया गया। इस पदाधिकारी के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत् कामगारों की कार्य-प्रणाली, कार्यस्थल पर उचित व्यवहार, निरीक्षकों के साथ उचित पारस्परिक सम्बन्ध आदि के अतिरिक्त उनके भविष्य की सुरक्षा के हर संभव प्रवासी का करना भी है-प्राविडेंट फण्ड, ग्रेच्युटी आदि की योजनाओं को पारित करना, दुर्घटना तथा बीमारी आदि की अवस्था में उनकी आर्थिक सुरक्षा की देखभाल आदि। ये सारे कार्यं सुचारु रूप से पारित हो सके। इसका दायित्व भी उद्योग मनोविज्ञानी की भूमिकाओं में शामिल है ।
3. औद्योगिक अभियंताओं के कार्य में सहयोग की भूमिका-उधोग संस्थानों में विभिन्न स्तरों पर कार्यंरत् अभियंताओं के समक्ष जब विभिन्न प्रवर की समस्याएँ आ जाती है तब वहाँ भी उन्हें मनोवैज्ञानिकों की सहायता की आवश्यकता पड़ जाती है। मशीनों के निर्माण की योजना बनाते समय अभियन्ता मनोवैज्ञानिकों के सुझाव मांगते है ताकि ऐसी मशीनो का निर्माण हो सकै जो मनुष्यों की क्षमताओं तथा सीमाओं के अनुरूप हो। ऐसी मशीनो पर काम करना मनुष्य के लिए भार-स्वरूप नहीं होता तथा उन्हें उन पर कार्य करने में आनन्द मिलता है। स्पष्ट है कि इसका प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर तथा उत्पादन, शक्ति पर साकारात्मक रूप से पडेगा।
4. कर्मचारी का व्यक्तित्व विश्लेषण कर उन्हें सही सुझाव देने को भूमिका -आज के युग के बदलते हुए स्वरूप ने मनुष्य की प्रकृति में अनेकानेक परिवर्तन तथा विकृति को उत्पन्न कर दिया है। धैर्य, सहनशिनलता, त्याग, सहयोग, समर्पण आदि मानवीय मूल्यों के लगभग लोभ होने की स्थिति उत्पन्न हो गयी है और इसके स्थान पर स्वार्थ तथा व्यक्तिगत आकांक्षाओं को प्रधानता मिलने लगी है। इन बातों का प्रभाव औद्योगिक वातावरण पर भी पड़। है। आज के उद्योग संस्थान इस सदी के पूर्वार्द्ध के उद्योगों के समान नहीं रह गये है जब औद्योगिक जीवन एक बंधी बंधायी लीक पर चलता था और नियोक्ता तथा कर्मचारी अपनी प्राप्ति से लगभग संतुष्ट रहा करते थे। आज के मनुष्य उनका समाधान कर सके यह देखना मनोवैज्ञानिक का कार्यं है।
5. उद्योग के कार्मिंक विभाग को सुझाव तथा सहयोग देने की भूमिका-आज़ के उद्योग मनोविज्ञानी ने पहले की तरह मनौवैज्ञानिक परिक्षण रचना मात्र में अपने कार्य क्षेत्र को सीमित नहीं कर रखा है। उद्योग में उसकी भूमिका का क्षेत्र व्यापक तथा विस्तृत हो गया है और उस विस्तृत क्षेत्र का अंग है उद्योग के कार्मिक विभाग को उपयुक्त सुझाव तथा सहयोग देना: कार्मिक विभाग का उत्तरदायित्व औद्योगिक परिवेश से सबसे अधिक
है। प्रबंधन की नीतियों को कर्मचारियों तक सही रूप में पहुँचाना तथा कर्मचारियो की कार्य प्रणाली का निर्धारण,निरीक्षकों को समुचित निर्देश तथा कर्मचारियों के विचारों को प्रबंधन तक सही रूप से आने देना आदि कार्मिक विभाग के कार्य-कलापों के अंतर्ग्रत विभाग में आता है |अत: कार्मिक विभाग अपना कार्य समुचित रूप से करता रहे इसी पर उधोग की प्रगति निर्भर है |
6. प्रबंधन तथा कर्मचारी संघ के बीच मध्यस्थता की भूमिका-औद्योगिक प्रगति के लिए एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्व है प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच सामंजस्य, सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध तथा एकदूसरे से विचारों के स्तर पर त्तादात्स्य। इन स्थितियों की अनुपस्थिति में औद्योगिक लक्ष्य की प्राप्ति नही हो सकती, और ये स्थितियों उत्पन्न होती है प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच वार्ता के अभाव में। अत: उद्योग मनोवेज्ञानिको की एक अहम् भूमिका बन जाती है प्रबंधन तथा कर्मचारी संघ के बीच वार्ता की स्थिति को उत्पन्न करने की। यों देखा जाए तो यह कार्यं श्रम कल्याण विभाग के पदाधिकारियों का है क्योंकि वे ही प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच सेतु का कार्यं करते है। किन्तु आज कल दिन-व-दिन मूल्य रहित होते हुए समाज में हर पदाधिकारी अपनी भूमिका निस्वार्थ रह कर तथा ईमानदारी से निभाह दे यह अमूमन देखने में नहीं आता। श्रम पदाधिकारियों को रिश्वत देकर तथा अन्य भौतिक प्रलोभन देकर उद्योगपतियों का उनको अपनी और मिला लेने और फलस्वरूप गरीब कर्मचारियों की उचित मानो को अनदेखा का कर देने की घटनाएँ आज आम हो गयी हैं। इस स्थिति में कर्मचारियों का आक्रोश बढ़ता है और एक हतोत्साह कर्मचारी उद्योग के लिए कितना अनुपयोगी और हानिकारक हो सकता है यह समझना बडा ही सहज है। हड़ताल, तालानंदी तथा श्रम-परिवर्तन आदि अवांछनीय घटनाएँ ऐसे ही कर्मचारियों की हताशा की देन हैँ। अत उद्योग मनोविज्ञानी की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका यहाँ यह हो जाती है कि वह प्रबंधन तथा कर्मचारियों के सम्मुख एकदूसरे के विचारों को स्पष्ट रूप से रखे और समझाएं, उन विचारों के औवित्य तथा उद्योग के लिए प्रभावकारिता का स्पष्टीकरण करें तथा दोनो को यह समझ लेने की स्थिति में ले आएँ कि एकदूसरे की अनुपस्थिति में वे अस्तित्वहीन है। उनका अस्तित्व पारस्परिक सहयोग तथा सामंजस्य पर ही निर्भर है।
7. विज्ञापन के क्षेत्र में सहयोगी की भूमिका-आज का युग विज्ञापन-युग है। आज विज्ञापन न सिर्फ उत्पादन के विपणन का एक साधन मात्र रह गया है वरन् स्वय एक उद्योग बन गया है। विश्व के हर उन्नत तथा विकासशील देश में विज्ञापन तेजी से उद्योग का रूप लेता जा रहा है जिसके सहारे अन्य उद्योग तथा व्यवसाय विकसित हो रहे हैं। अत: विज्ञापन के स्वरूप तथा उसके विभिन्न पक्षों का वैज्ञानिक तथा विश्लेषणात्मक अध्ययन करना भी आधुनिक मनोविज्ञान की कार्यं-सीमा मेँ आ गया है।
अत: हम कह सकते है किं औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों की व्यापक भूमिका आधुनिक उद्योग संस्यानों तथा व्यवसाय गृहों में है, और यही कारण है कि आज हर छोटे-बड़े उद्योग संस्थानों में मनोवैज्ञानिको को स्थायी रूप से नियोजित किया जा रहा है । कर्मचारियों के चयन से लेकर प्रशिक्षण तक, निरीक्षण से लेकर कार्य-मुल्यांकनं तक तथा जीविका आयोजन से लेकर श्रम संबंधो तक औद्योगिक मनोविज्ञानी एक विस्तृत तथा सतत् परिवर्ती घटनास्थल में घूमता हैं।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

सामाजिक मूल्यों के अनुसार मानव व्यवहार का परिवर्तन एवं परिमार्जन

सामाजिक मूल्यों के अनुसार मानव व्यवहार का परिवर्तन एवं परिमार्जन भी होता है। व्यक्ति अपने व्यवहारों की अभिव्यक्ति सामाजिक सीमाओं में ही करता है और वह सामाजिक सीमाओं के उल्लंघन का प्रयास नहीँ करता है। ऐसा करने से वह समाज का सम्मानित सदस्य ही नहीं माना जाता है वरन् व्यक्ति अपने को सुरक्षित भी अनुभव करता है। व्यक्ति सभी सामाजिक परिस्थितियों से एक समान व्यवहार नहीं करता है, वह सभी परिस्थितियों के सामाजिक मांगो पर विचार करना है और सामजिक मांगों के अनुसार अपने व्यवहार में परिवर्तन एवं परिमार्जन करके परिष्कृत व्यवहार को अभिव्यक्ति करता है। व्यक्ति का यह व्यवहार एक समाज से दूसरे समाज, एक समूह से दूसरे समूह, एक स्थान से दूसरे स्थान तथा एक समय से दूसरे समय पर सामजिक मागी एवं परिस्थितिजन्य कारणों से परिवर्तित होता रहता है। व्यक्ति के द्वारा प्रकट किया गया एक ही व्यवहार कभी समाजविरोधी और कभी सामान्य हो सकता है, परन्तु यह सामाजिक नियमों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जब व्यक्ति अपने व्यवहार प्रदर्शन में सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता, उसके व्यवहार सामाजिक माँगों तथा परिस्थितियों के अनुकूल एवं उपयुक्त नहीँ होते है, तथा उसका व्यवहार समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार के अनुरूप नाते होता हैं तो उसके व्यवहार को समाज विरोधी व्यवहार या मनोविकारों व्यवहार कहते है। जो व्यक्ति इस प्रकार के व्यवहारों का प्रदर्शन करता है, उसका व्यक्तित्व समाज विरोधी व्यक्तित्व या मनोविकारों व्यक्तित्व कहलाता है। समाज विरोधी व्यक्तित्व के लिए अनेक पर्यायवाची ज्ञाब्दों यथा गठन संबंर्धा मनोविकारों हीनता नैतिक मूढ़ता समाजविकारी आदि का प्रयोग किया जाता है।
समाज विरोधी व्यक्तिव के मनोथिवारी व्यक्तित्व ज्ञाब्द को पर्यायवाची के रूप में इसलिए प्रयोग किया गया वचोंकिं व्यक्तित्व संबंधी मनोविकारों के कास्या ही असामाजिक व्यक्तित्व का अम्युदय होता है। फ्रायड, एडलर एल चुग आदि मनोवेज्ञानिको ने व्यक्तित्व संबंधी मनोविकारों के उपचार का प्रयास किया। समाजविरोधी व्यक्तित्व को ज्वाठन संबंधी मनोविकारों हीँनत्ता कहा गया है। इसका कारण यह है कि शारीरिक गठन संबंधी हीनता के काश्या भी व्यक्ति में असामाजिक व्यवहार उत्पन्न हो सकते है। जैसे कृष्टाकाय प्रकार के व्यक्ति चिड़चिड़े, झगड़ालु तथा  होते है। इसके अतिरिक्त इसकी व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है कि जब व्यक्ति के शारीरिक गठन में किसी प्रकार की अपूर्णता पाई जाती है तब उसमें हीनता की ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो जाती है। समाज विरोधी व्यक्तित्व को नैतिक भूलता इसलिए कहते है वर्थाकि नैतिक मूढ़ व्यक्तियों में बौद्धिक योग्यता की कमी पाई जाती है। जिससे व्यक्ति असामाजिक व्यवहार करने लगता है। लेकिन कभी ऐसा भी देखा जाना है कि असामाजिक बनाये गये है, वे सामाजिक नियमों की अवेहेलना करते है और नियमो को तोड़ते रहते हैँ। वह संघटित प्राधिकार को स्वीकार नहीं करते है और ऐसा करते समय वे आदेशो, आक्रामक औरे आपराधिक कयों को करते हैं। शैक्षिक एवं कानून लागू करनेवाले प्राधिकार व्यक्तियों के प्रति इनका विरोधी व्यवहार होता है। ऐसे व्यक्ति अक्सर अश्यथजन्य कार्यो को करते हैं। यद्यपि यह पेशेवर अपराधी नहीं होते हैं। समाज-विरोधी कार्यों के लिए मिलनेवाले कष्ट एवं दण्ड के बारे में दान रहने के बावजूद भी वह अपने कार्यों के परिणामों से चिन्तित नहीं होते हैं।
अच्छा अन्तवैश्यक्तिक संबंध बनाये रखने की अयोग्यता -यद्यपि समाज-विरोधी व्यक्ति दूसरों को मित्र बनाने में योग्य होते है, परन्तु इनके घनिष्ट मित्रों का अभाव होता है। यह मित्र तो बना लेते है पर मित्रता का निर्वाह नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्ति अपने व्यवहार में गैर जिम्मेदार, आत्मकेन्द्रित. निन्दक, बेदर्द एवं कृतघ्न होते है तथा अपने समाज-विरोधी कार्यों पर इन्हें पश्चताप नहीं होता है। यह न तो दूसरों के प्रेमपूर्ण व्यवहार कर समझ पाते है और उनके प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित ही कर पाते है। ऐसे व्यक्ति अपने परिचितों से भय ही नहीं उत्पन्न करते है, वरन् उन्हें अधिक दुखी भी कर देते है, |
विस्फोटक व्यक्तित्व -इस व्यवहार प्रतिरूप की प्रमुख विशेषता यह है कि ऐसे व्यवहार प्रतिरूप वाले व्यक्ति अधिक उत्साहपूर्ण तथा शारीरिक आक्रमक व्यवहार करते है यही नहीं यह लोग बरबस अपना क्रोध प्रकट करने लगते हैँ। ऐसे क्रोध का प्रदर्शन उनके सामान्यतया प्रकट होने वाले व्यवहार से भिन्न होता है, ऐसे व्यक्तित्व के व्यक्ति अपने बरबस क्रोध के लिए खेद भी प्रकट करते है और पश्चताप भी करते है। ऐसे व्यक्तित्व वातावरणीय दबावों के प्रति सामान्यतया उतेजित एवं अति प्रतिंक्रियाशील भी होते है। बरबस क्रोध तथा क्रोध को नियंत्रित्त करने की अयोग्यता के कारण ऐसे व्यक्ति दूसरे लोगों से भिन्न समझे जाते हैं।
मनोगाग्रस्त-बाध्यता व्यक्तित्व- इस व्यवहार प्रतिरूप की प्रमुख विशेषता यह है कि व्यक्ति के मन में निरन्तर उठनेवाले अस्वागत योग्य विचार पाए जाते है , जिनके प्रति उनमें वाध्यताएँ पाई जाती है। व्यक्ति स्वय जानता है कि यह विचार निरर्थक ताश अविवेकपूर्ण है फिर भी वह इन विचारों से छुटकारा नहीँ प्राप्त का पाता है और सब कुछ जानते हुए भी उसी व्यवहार को करने के लिए बाध्य रहता है।मनोग्रस्त्ता बाध्यता व्यक्तित्व के लोग अपने व्यवहारों में अपने कर्तव्यों एवं अन्तरात्मा के आदर्शो के प्रति अत्यधिक दक्षता प्रदर्शित करते है। यह व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति इतने अधिक अति अवरोधित होते है कि इन्हें विश्राम करने का अवसर नहीं मिलता है। यह विकृति इनमे प्रारंभ में साधारणा रूप में ही पाई जाती है लेकिन आगे चलकर इसका रूप उग्र हो जाता है और व्यक्तित्व समाज-विरोधी हो जाता है।
 उन्मादी व्यक्तित्व -ऐसे व्यक्तित्व के लोगो से अपरपिवदता, उतेज़नशीलता, सावेगिक अस्थिरता एवं स्व-नाटकीयता की विशेषता पाई जाती है। व्यक्ति को अपने अभिप्रेरकों के बारे में ज्ञान हो या न हो, परन्तु व्यक्ति रकंनाटकीक्ररषा के द्वारा दूसरों के ध्यान को आकर्षित करते है। यही नहीं ऐसे व्यक्ति सम्पोहक भी होते हैँ। जो व्यक्ति उन्मादी व्यक्तित्व वर्गीकरण के अन्तर्गत आते है, वे आत्मकेद्रित होते है तथा अपने व्यवहारों का अनुमोदन समाज के दूसरे व्यक्तियों द्वारा चाहते है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions 

मद्यपान एवं औषधि व्यसन

आधुनिक युग में विकास की गति में वृद्धि के साथ-साथ समाज में असामाजिक कृत्यों में भी उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है। विभिन्न प्रकार के अपराध, मधपान तथा औषधि व्यसन समाज में दिनो-दिन बढ़ते जा रहे है और एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रहे है। भारत में मादक द्रव्यो के उपयोग का पहला संदर्भ ऋग्वेद में मिलता है। लगभग 2000 ईसा पूर्व व्यक्ति विभिन्न उत्सवों पर 'सोम' रस का पान किया करते थे। प्राचीन ग्रंथो में काल नामक मादक द्रव्य के उल्लेख मिलता है जिसका पान आज भी प्रचलित है। रामायण तथा महाभारत काल में 'मधु' नामक मादक रस का उल्लेख मिलता है। इसके पश्चात भारत में मादक द्रव्यों के उपयोग का संदर्भ मुस्लिम शासनकाल में प्राप्त होता है। उस काल में लोग अफीम का इस्तेमाल करते थे। यह मादक द्रव्य फारस और अफगानिस्तान से भारत लाया जाता था। इसके अतिरिक्त व्यक्ति कोकीन का उपयोग करते थे। उनकी मान्यता थी कि कोकीन के उपयोग से जीवनकाल में वृद्धि होती है, ध्यान करने में में सहायता मिलती है तथा भूख, प्यास पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इनका उपयोग बिहार तथा बंगाल में प्रमुख रूप से होता था लेकिन अत्यन्त कठोर नियमों और बाधाओं के बावजूद इसका विस्तार धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश से पंजाब में हो गया। धतूरा एवं भांग भी भयोत्पादक मादक औषधियों हैं। धतुरे का उपयोग प्राय: ठगों द्वारा अपनै शिकार को बेहोश करने के लिए किया जाता था। प्राचीन काल से लेकर छठे दशक तक इन मादक द्रव्यों का उपयोग मुख्यत: निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर के लोगों में पाया पाया है। ऐसा प्रतीत होता कि पुराने समय में मादक द्रव्यों का उपयोग कई सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं थी। आधुनिक काल में मादक द्रव्य व्यसन एक असामाजिक कृत्य माना जाता है और अनेको प्राकार की शारीरिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक समस्याएँ उत्पन्न करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने औषधि एवं औषधि निर्भरता की परिभाषा इस प्रकार को है।
"औषधि वह कोई भी पदार्थ है जो जीवित प्राणी के अन्दर ग्रहणा किये जाने पर उसेके एक अथवा अधिक प्रकार्यों में परिवर्तन ला सके।"
''औपधि-निर्भरता का तात्पर्य मानसिक और कभी-कभी शारीरिक दशा से है जो जीवित प्राणी और औषधि की अन्तर्किया के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। इसमें औषधि के मानसिक प्रभावों को अनुभव करने तथा कभी-कभी इसकी अनुपस्थिति से उत्पन्न बेचैनी को दूर करने के लिए निरन्तर अथवा समय-समय पर औषधि को ग्रहण करने की बाध्यता का व्यवहार तथा अन्य प्रतिक्रियाएँ निहित होती हैं।"
मद्यपान का कारण
मद्यपान के कारणों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जैविक, मनौवैज्ञानिक तथा सामाजिक सांस्कृतिक कारक1. जैविक कारक मद्यपान की प्रवृति आनुवंशिक कारकों पर निर्भर करती है। इसकी पुष्टि कईं अध्ययनों में हुई है। विनोकर एवं अन्य ने प्रदर्शित किया कि अस्पताल में भर्ती मद्यपान के 259 रोगियों म 40% से अधिक रोगियों के माता-पिता, विशेषकर पिता मद्य-व्यसनी थे। इरविन ने भी कुछ इसी प्रकार के परिणति प्राप्त किये हैँ। उसने पाया कि 50% से भी अधिक मद्य व्यसनी व्यक्तियों के माता-पिता मद्य व्यसनी थे। यह बात अभी तक पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं हो पाई है कि ऐसा आनुवंशिकत्ता के कारण होता है या पारिवारिक वातावरण के प्रभाव के कारणा
2. मनोवैज्ञानिक कारक
मद्यव्यसनी व्यक्ति न केवल शारीरिक रूप से मद्य पर निर्भर हो जाता है बल्कि वह अत्यंत प्रबल मनोवैज्ञानिक निर्भरता भी विकसित कर लेता है । अत्यधिक मद्यपान से व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का समायोजन नष्ट हो जाता है। इसलिए यह जानना आवश्यक है कि व्यक्ति क्यों मनोवैज्ञानिक रूप से इस पर निर्भर हो जाता है। इस सम्बन्ध में अनेको मनोवैज्ञानिक तथा अन्तवैयक्तिक कारक का उल्लेख हुआ है, जो इस प्रकार है मनोवैज्ञानिक भेद्यता -कुछ व्यक्तियों का व्यक्तित्व विशेष ढंग का होता है जिसमें पहले से ही कुछ ऐसी विशेषताएं विद्यमान रहती है जो उसे शराबी बना देती है और वह तनाव की स्थिति से समायोजित होने के लिए कोई दूसरी सुरक्षात्मक प्रक्रिया का उपयोग नहीँ कर पाता। इसे अल्कोहोलिक व्यक्तित्व कहा जाता है। व्यक्ति अपने शराब पीने पर नियंत्रण नहीं रख पाते, इसका करण मनोवैज्ञानिक भेद्यता है। इस दिशा में किये गये अनुसन्धानों से ज्ञात होता है कि पूर्व-मद्यव्यस्रनी व्यक्तित्व संवेगात्मक रूप से अपरिपक्व, दूसरों से अधिक प्रत्यारुग़एँ रखनेवाला,प्रशंसा का इच्छुक तथा कुंठा के प्रति कम सहनशील होता है। इन्हें अपनी खियोचित अथवा पुरुषोचित भूमिका का निवहि करने की क्षमता के सम्बन्ध मेँ अनुपयुक्ता तथा अनिश्चितता का अनुभव होता है । विनोकर एवं अन्य तथा मैक्लीलैड एवं अन्य ने पाया कि कुछ युवा पुरुष अपने पौरुष को सिद्ध करने तथा क्षमता एवं उपयुक्तता का अनुभव करने के लिए मापन करते है। बिल्सनैक ने पाया कि शराबी महिलाएँ परम्परागत महिला भूमिका को अत्यधिक मृत्य देती है जब कि उनकी स्वयं उनकी महिला भूमिका की उपयुक्तता अत्यन्त कमजोर होती है।
असामाजिक व्यक्तित्व तथा अवसाद ये दो ऐसे चिकित्सकीय संलक्षण है जो अत्यधिक मद्यपान करनेवाले व्यक्तियों में पाये जाते है। मद्यव्यसनी व्यक्तियों की एक सामान्य विशेषता यह है कि उन सभी की पृष्ठभूमि में वैयक्तिक कुसमानोजन होताहै। मधपान की पूर्वावस्था में व्यक्तित्व में अनेक शिल्गुनों का समूह दिखाई देता है जैसे प्रतिबल के प्रति निम्न सहनशीलता, निषेधात्मक आत्मप्रतिमा, अनुपयुक्तता की भावना, एकाकीपन, अवसाद आदि। मद्यपान की गम्भीर अवस्था में व्यक्ति सुरक्षात्मक मनोरचनाओँ, विशेषकर अस्वीकृति, युक्तिकरण तथा प्रक्षेपण का अत्यधिक मात्रा में उपयोग करने लगता है। इसके अतिरिक्त वे अल्प नियंत्रित आवेगी तथा उद्यत स्वभाव के होती है। उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक दोष तथा व्यक्तिगत कुसमायोजन व्यक्तियों में मद्यपान के महत्त्वपूर्ण कारण बनते है।
2) प्रतिबल, तनाव में कमी तथा प्रवलन -अनेक अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि कुछ विशेष प्रकार के मद्यव्यसनी व्यक्ति अपने जीवन की स्थितियों से सदैव असन्तुष्ट रहते है और किसी भी प्रकार के प्रतिबल तथा तनाव को सहन कर सकने में असमर्थ होते हैँ। शेफर के अनुसार मद्यपान चिंता के प्रति अनुबंधित अनुक्रिया है। जब व्यक्ति चिंता, तनाव अवसाद अथवा जीवन के प्रतिबलों से उत्पन्न असुखद अनुभवों की स्थिति में होता है, वह मद्यपान प्रारंभ कर देता है क्योंकि ऐसा करने से उसके तनावों में कमी आती है जो उसके प्रबलन का कार्यं करती है । इस प्रकार उसे मद्यपान करके तनाव के साथ समायोजन स्थापित करने की आदत पड़ जाती है।
3) पारिवारिक प्रतिमान -मद्यपान का व्यवहार परिवारों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। इसमें वंशानुगत कारकों का कहाँ तक हाथ है, कहा नहीँ जा सकता लेकिन इतना अवश्य है कि ऐसे परिवारों में बालक अपने माता अथवा पिता को एक निषेधात्मक अथवा अवांछित मॉडल के रूप में प्राप्त करते है और फिर उन्ही के व्यवहार का अनुकरण करके मद्यपान प्रारंभ कर देते है। वैवाहिक सम्बन्ध अथवा अन्य घनिष्ट पारिवारिक सम्बन्धी के भंग होने पर भी व्यक्ति मद्यपान प्रारंभ कर देता है।
3. सामाजिक सांस्कृतिक कारक-मद्यव्यसनी व्यक्तियों तथा सामान्य व्यक्तियों की सामाजिक सास्कृतिक पृष्ठभूमि में अन्तर पाया जाता है। मक्कोर्ड, मैवकार्ड एवं स्यूडमैन ने मद्यव्यसनी पुरुषों के पिछले इतिहास का अध्ययन करके यह पाया कि युवावस्था में शराबी बन गये युवकों तथा शराबी न को युवकों की सास्कृतिक पृष्ठभूमि में अंतर था अर्थात् उनमें शारीरिक तथा मनौवैज्ञानिक अन्तर न होकर केवल सांस्कृतिक अन्तर प्रमुख था। उनका मद्यपान घार्मिंक तथा सामाजिक वर्ग की पृष्ठभूमि से संबन्धित पाया गया। ग्रामीणों के तुलना में नगरों के निवासी अधिक मात्रा में मद्यपान करते है। यह भी पाया गया है कि गाँव के लोग शहर आने पर वहाँ के परिवेश का अनुकरण करते है और उनमें भी मद्यपान की प्रवृति बढ़ जाती है । मद्यपान की मात्रा उस संस्कृति में प्रतिबल की मात्रा पर भी निर्भर करतीहै। हॉर्टन, ने छप्पन अष्टम संस्कृतियों का अध्ययन करके पाया कि जिंस संस्कृति में असुरक्षा जितनी अधिक थी, मद्यपान की मात्रा भी उतनी ही अधिक थी। बेल्स के अनुसार मद्यपान को निर्धारित करनेवाले तीन सांस्कृतिक प्रमुख है-( 1 )संस्कृति द्वारा उत्पन्न तनाव की मात्रा 2 ) संस्कृति द्वारा मद्यपान की अभिवृत्ति को समर्थन, तथा तनाव एवं चिंता से समायोजन हेतु संस्कृति द्वारा प्रदान की जानेवाली संतुष्टि और अन्य समायोज़नात्मक साधन |
सांस्कृतिक कारकों के प्रभाव के कारण ही मुस्लिम धर्म में शराब पीना वर्जित है, यहुदियों में केवल धार्मिक उत्सवों पर ही इसका सीमित प्रयोग होता है, जबकि फ्रेंच तथा आइरिश संस्कृति में मद्यपान अधिक मात्रा में पाया जाता है। इस प्रकार मद्यपान घार्मिक संस्तुतियों, सामाजिक प्रथाओं तथा समाज द्वारा उत्पन्न प्रतिबल पर निर्भर करता है।
उपचार - पहले यह विशवास किया जाता था कि मद्यव्यसनी का इलाज केवल अस्पताल में ही संभव है क्योंकि वहां वह अपने जीवन की दुखद परिस्थितियों से दूर रहता है और उसके मद्यपान के व्यवहार को वहाँ नियंत्रित किया जा सकता है किन्तु आधुनिक समय में अस्पतालों के बजाय सामुदायिक निदान केन्दी में ही उपचार किया जाता है। इसका एक कारण तो है शराबियों की बढ़ती हुई संख्या और कारण है, अस्पताल से छूटने के बाद सामाजिक परिवेश में इन व्यक्तियों के समायोजन समस्या को हल करना।
चिकित्सा का प्रमुख उद्देश्य होता है मद्यव्यसनी व्यक्ति में सुधार लाना, उसका-पुनस्थार्पन या पुनर्वास करना, मधपान की उसकी इच्छा पर नियन्त्रण करना, उसका मद्यपान त्याग करना तथा यह भावना जागृत करना कि वह जीवन की समस्याओं का सामना बिना शराब के कर सकता है और एक और भी अच्छा सुखद जीवन बिता सकता है।


Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions 

भावात्मक (संवेगात्मक) प्रक्रिया की असामान्यताएँ

व्यक्ति अपने जीवन में विध्या-न-किसी संवेग का अनुभव करता है। प्रेम, क्रोध, भय, हर्ष आदि भावनात्मक अनुभव संवेग के ही उदाहरण है। सवेरा और अथिप्रेश्या। में घनिष्ट संम्बन्ध है। जिस प्रकार अभिप्रेरणा व्यक्ति के व्यवहार को सक्रिय करता है उसी प्रकार संवेग भी व्यवहार को ऊर्जा प्रदान करते है। क्रोध, भय, प्रसन्नता दुख आदि को संवेग कहते है किन्तु ,भूख, प्यास , थकान आदि अवस्थाओं को प्रेरक कहते है। संवेग और प्रेरक के मध्य अतर इस आधार पर किया जा सकता है कि संवेग बाह्य उधिपकों से उत्पन्न होते है तथा संवेगात्मक व्यवहार आत्मगत तथा भावात्मक होते है जबकि प्रेरक प्राय: आंतरिक उद्धिप्कों से उत्पन्न होते है तथा परिवेश के कुछ निश्चित वस्तु की ओंर निर्देशित होते है जैसे भोजन, पानी आदि तीव्र संवेगात्मक व्यवस्था में व्यक्ति उत्तेजित हो जाता है जिससे उसके अनुभव व्यवहार तथा शारीरिक क्रियाएँ सामान्य से भिन्न प्रकार की हो जाती है। यहीं नहीं संवेगावस्था में व्यक्ति के शारीरिक प्रकमों की गति तथा तीव्रता में भी परिवर्तन हो जाता है और व्यक्ति भिन्न तथा विशेष प्रकार का व्यवहार प्रकट करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि संवेगावस्था एक विशेष प्रकार की जटिल अवस्था है जो प्राणी के सम्पूर्ण शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं को प्रभावित करती है।
मानसिक विकारों के कारकों के रूप में पहले संवेगों को कोई स्थान नहीं प्राप्त था, लेकिन आधुनिक मनोविकृत विज्ञान में असामान्य व्यवहारों का कारण दोषपूर्ण संवेगात्मक (भावात्मक ) विकास माना जाने लगता है क्योकि, व्यक्ति के संज्ञान से महत्त्वपूर्ण उससे उत्पन्न संवेग है जो प्राणी में तीव्र उपद्रव उत्पन्न करते है तथा जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा इसमें व्यवहार, चेतन, अनुभव तथा आतरावयव क्रियाएँ सम्मिलित है इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि संवेग अनियंत्रित और असुखद होता है, जो प्राणी में होने वाले समान्यीकृत बाधाएँ व झकझोर की स्थिति की ओर संकेत करता है, इसीलिये ब्लुलर ने अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है कि सभी मनोविकृत रोगी सर्वाग विकृत रोगी ही होते है |इनके मतानुसार व्यक्ति के मनोविकुत होने में मानसिक कारकों की भूमिका नहीं होती हैं , वरन सवेगात्मक कारकों के ही कारण मनोंविकृत पाई जाती है। अत: संवेगात्मक कारकों पर नियन्त्रण आवश्यक है क्योंकि निषेधात्मक संवेगों यथा भय हैं क्रोध, आदि के कारण प्राणी के क्रुसमायेत्कान पाया जा सकता है। अत इस बात का प्रयास करना चाहिये कि निषेधात्मक संवेगों के स्थान पर सुखद संवेगों का जाम हो जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व में विघटन न पाया जाय और उसके व्यक्तित्व का समुचित विकास हो सके | व्यक्ति के समुचित विकास के लिये संवेगात्मक संतुलन का होना आवश्यक है।
संवेगात्मक प्रक्रमों से संबंधित असामान्यताओं का वर्णन निम्नलिखित है
1. उदासीनता -व्यक्ति में कभी-कभी इस प्रकार की प्रवृत्ति दिखाई पडती है कि परिवार, व्यवसाय तथा संसार के प्रति उदासीन दृष्टिकोण अपना लेता है। यही नहीं सुख-सुविधाओं के प्रति भी उनमें उदासीनता दिखाई पडती है। इस अवसाद एवं उदासीनता के कारण व्यक्ति का शारीरिक स्वभाव संतोषजनक हो जाता है व्यक्ति न तो उसका पाचन तन्त्र ठीक से कार्य करता है और न उसके अन्य शारीरिक अंग शारीरिक असंतुलन के कारण व्यक्ति में उदासीनता पाई जाने लगती है।
2. अतिसंवेदिता-जब व्यक्ति किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति समान्य अनुक्रिया प्रकट करने में उदासीनता प्रकट करे तो व्यक्ति का व्यवहार उदासीन माना जाता है लेकिन जब व्यक्ति में भौतिक तथा सामाजिक घटनाओं के प्रति तीव्र उन्माद अथवा अवसाद पाया जाय तो उसे अतिसंवेदित की संज्ञा दी जाती है। ऐसे व्यक्तियों में तीव्र विचारों की उडान पाई जाती है तथा शारीरिक क्रियाओं में उत्तेजना एवं शीघ्रता भी पाई जाती है। इन लोगों में प्रचण्ड संवेदनशीलता स्पष्टत: दिखाई पडती है। ऐसे व्यक्ति सामान्यतया अप्रसन्नत्ता अनुभव करते है। अव्यवस्थित तथा उद्वेलित होते है लेकिन अवसाद की यह स्थिति तब तक ही बनी रहती है जब तक घटनाएँ इन्हें याद रहती है। भूल जाने पर अवसाद का प्रभाव भी समाप्त हो जाता है लेकिन कभी-कभी विषाद की स्थिति इतनी तीव्र हो जाती है कि व्यक्ति को अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है, तथा ऐसे व्यक्ति आत्महत्या तक कर लेते है।
3. दुर्भिती -व्यक्ति में अतिसंवेदशीलता के कारण ही दुर्भिती की स्थिति परिलक्षित होती है जिससे व्यक्ति में असामान्य व्यवहार दिखाई पड़ते है जो उनके समायोजन में अवशेष उत्पन्न करते है।दुर्भिती के कारण व्यक्ति में असामान्य मानरिस्क स्थिति पाई जाती है तथा उसे अपने भय का कारण नहीं ज्ञात होता है। उसका भय काल्पनिक होता है। इस स्नायुविकार का कोई अर्थ नहीं होता है। दुभीति के विकास के कारण व्यक्तित्व में विघटन पाया जाता है। ऐसा रोगी शारीरिक दुर्बलत्ता, कमर दर्द तथा पेट की गडबडी अनुभव करता है। ऐसे व्यक्तियो की स्वभाविक दिनचर्या गड़बड़ हो जाती है उनमें आत्महीनता विकसित हो जाती है। जब परिवार के लोग उसके अकारण भय के बारे में उसे बताते है, तो वह इस बात को स्वीकार नहीं करता है कि वह अकारण भय से ग्रस्त है।
4 अतिशय साहस -कभी-कभी व्यक्ति के व्यवहार में अभूतपूर्व साहस का लक्षण दिखाई देता है। वह व्यक्ति जोखिम पूर्ण कार्यों को मुस्कराकर करना चाहता है। परन्तु यह व्यवहार सामान्य व्यवहार की श्रेणी में नहीँ आता है। क्योंकि सामान्य जोखिम पूर्ण कार्य करने से पहले उसके लाभ व हानि के विषय में विचार करता है। परन्तु अभूतपूर्व साहस पूर्ण कार्य आवेग की स्थिति में करना एक प्रकार का असामान्य व्यवहार है ऐसे व्यवहारों का कारण व्यक्ति में अपने कर्तव्यों के प्रति तीव्र बोध है।
5. दुश्चिन्ता-दुयिचन्ता का स्वरूप विषयनिष्ठ रहना है, दुश्चिन्ता की स्थिति में व्यक्ति अपने भावी संकट वे, प्रति अत्यधिक चिंतित रहता है त्तथा इसके कारण ही वह भावी संकटों के प्रति अत्यधिक निन्दित रहता है ऐसे व्यक्ति में अनेक प्रकार की आशंकाएं पाई जाती हैं ऐसे व्यक्ति की दुश्चिन्ता केवल एक विषय पर ही न केन्दित रहकर अनेक वस्तुओं एवं विषयों पर बदलती रहती है जिससे व्यक्ति में मुक्त दुश्चिन्ता पाई जाती है। व्यक्ति की दुश्चिन्ता उसके भविष्य, सम्पति, सुरक्षा, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित होती है। ऐसे व्यक्ति पर सदविचारों एवं उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जब तक भय समाप्त नहीं होता है तब तक व्यक्ति के दुश्चिन्ता रहने की संभावना पाई जाती है। परिणामस्वरूप उसके अमामान्य व्यवहार पाये जाने लगते हैँ।
6. चिड़चिड़ापन -जब व्यक्ति के उपयुक्त पारिवारिक प्रशिक्षण नहीं प्राप्त होता हैं तो व्यक्ति में असामान्य व्यवहार पाया जाता है। उसे विभिन्न व्यक्तियों के प्रति उपयुक्त सामाजिक अनुक्रिया का ढंग नहीं मालूम होता है। परिणामस्वरूप उसमें थोड़ी-सी अप्रिय बात सहन करने की क्षमता का अभाव पाया जाता है । वह नापसंद आने वाली बात पर सरलता में कुछ हो जाती है | चिड़चिड़े व्यक्ति कब क्रोधित हो जायेगे, यह नहीं कहा जा सकता है | मिरगी का रोगी भी छोटी-छोटी बातों पर क्रुद्ध हो जाता है। चिड़चिड़े व्यक्तियों पर जब कोई प्रतिबंध है हैं तो प्रतिबन्धों को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। फलस्वरूप उनमें उतेजना अधिक पाई जाती है और वे अपने व्यवहार में क्रोध और चिढ़चिढ़ापन दिखाते हैं।
7) स्वाभाव उग्रता -कुछ माता-पिता बाल्यावस्था में अपनी संतान की सभी इच्छाओं को पूरा करते है चाहे उनके प्रयास करने है चाहे उनको पूरा करने के लिये उसे भले ही कठिनाई उठानी पड़े। ऐसो अवस्था में बालक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये माता-पिता पर दबाव डालता है और उनसे जिद करता है और अपनी मागों को पूरा कराता है लेकिन जब उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती हैं तब उनका स्वाभाव उग्र हो जाता है। जब बालक प्रौढ़ होता है तो उस समय भी वह अपनी बात मनवाने का प्रयास करता है ऐसा न होने पर वह अपनी प्रतिष्ठा पर आघात अनुभव करता है और उसका स्वाभाव उग्र हो जाता है।
8. प्रेम -बच्चे अपने माता-पिता से प्रेम भी प्राप्त करते है और दण्ड भी, जो उनके विकास प्रक्रिया क्रो महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है, बच्चा उन्हीं कार्यों को ही करना चाहता है जिससे उसे सुखद अनुभूति हो, वह उन कार्यों को त्याग देता है जो उनके दुखद अनुभूति के करण होते है। बच्चा सदैव अपने व्यवहार अभिव्यक्ति में इस बात का प्रवास करता है कि उसे संतोष और आनन्द प्राप्त होता रहे। जब व्यक्ति अपने स्वाभाविक गतियों को बनाये रखता है तो अन्य शारीरिक क्रियाएँ भी संतुलित प्रवर से घटित होती है। जो व्यक्ति के सामान्य व्यव्हार को व्युत्पन्न करती है परन्तु जब व्यक्ति को अपने वातावरण से असंतोष होता है, तो शारीरिक क्रियाओं में असंतुलन पाया जाता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति में असामान्य व्यवहारों की उत्पत्ति होती है जो उसे असमायोजित बनाती है। अस्तु बच्चे में प्रेमभाव विकसित करने का सक्रिय प्रयास मातापिता को करना चाहिये जिससे वह एक सभ्य नागरिक बन सके और राष्ट्र का कर्णधार बन सके।
10. घृणा -जब व्यक्ति को किसी अनुक्रिया (व्यवहार) के परिणामस्वरूप दुखद अनुभूति होती है तब घृणा की अनुभूति होती है। घृणा में प्रेम के विपरीत अनुभूति होती है जो व्यक्ति एल उधिपक के प्रति आकर्षण नहीं वरन् विकर्षण का भाव विकसित करता है। प्रेम का भाव व्यक्ति में सदगुणों का विकास करता है जबकि घृणा दुर्गुणों को विकसित करता है जो बाद में व्यक्ति में असमान्य व्यवहार के रूप में पाये जाते है।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

future for you astrological news mithe bol se paye sfalta 16 12 2015

future for you astrological news swal jwab 2 16 12 2015

future for you astrological news swal jwab 1 16 12 2015

future for you astrological news swal jwab 16 12 2015

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 16 12 2015

future for you astrological news rashifal singh to vrishchik 16 12 2015

future for you astrological news rashifal mesh to kark 16 12 2015

future for you astrological news panchang 16 12 2015

Tuesday, 8 December 2015

future for you astrological news swal jwab 2 08 12 2015

future for you astrological news swal jwab 1 08 12 2015

future for you astrological news swal jwab 08 12 2015

future for you astrological news rashifal singh to vrishchik 08 12 2015

future for you astrological news rashifal mesh to kark 08 12 2015

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 08 12 2015

future for you astrological news panchang 08 12 2015

future for you astrological news asfal partnership jyotishiy nidan 08 1...

Monday, 7 December 2015

future for you astrological news swal jwab 2 07 12 2015

future for you astrological news swal jwab 1 07 12 2015

future for you astrological news swal jwab 07 12 2015

future for you astrological news rashifal singh to vrishchik 07 12 2015

future for you astrological news rashifal mesh to kark 07 12 2015

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 07 12 2015

future for you astrological news panchang 07 12 2015

future for you astrological news charitrawan banaye kundli se 07 12 2015

Sunday, 6 December 2015

future for you astrological news bhrigu kalendra puja se anushasan 06 1...

future for you astrological news swal jwab 1 06 12 2015

future for you astrological news swal jwab 1 06 12 2015

future for you astrological news swal jwal 06 12 2015

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 06 12 2015

future for you astrological news rashifal singh to vrishchik 06 12 2015

future for you astrological news rashifal mesh to kark 06 12 2015

future for you astrological news panchang 06 12 2015

Saturday, 5 December 2015

अज्ञात पितृदोष शांति


भृगुकालेंद्र पूजन से लायें बच्चों में अनुशासन एवं आज्ञापालन-


Means of livelihood from planet saturn

 An individual experiences these good and bad results in the Dasa Bhukti of the planets posited in different houses of the horoscope. Saturn depicts that particular category of past actions which were undesirable, and for which the individual has to undergo corresponding suffering in this life. Saturn reminds us that one has to pay for his wrong deeds. Through suffering and tribulations Saturn cautions us to avoid recurrence of past mistakes and follow the right path in present life. Saturn is described as a natural malefi c and evil planet that produces misery and suffering. But a strong, unaffl icted and well aspected Saturn helps the native attain high position, authority and prosperity as reward for his past good deeds. Benefi c aspect of Jupiter, Venus and unaffl icted Mercury augments the result. Saturn protects the house where posited and harms those receiving his 7th, 3rd and 10th aspect. He also infl uences the 2nd and 12th houses from his location in the horoscope. Saturn gives good result for those born in Capricorn and Aquarius Lagna ruled by him, in Sagittarius and Pisces Lagna ruled by Jupiter and the best result as Yogakaraka (by owning Kendra and Trikona houses) for Libra and Taurus Lagna ruled by Venus. For these Lagnas the evil effect of Sadhesati is also moderate. Saturn's highest exaltation is in Libra at 200 and deepest debilitation at 200 Aries. When occupying his own or exaltation sign in Kendra, Saturn forms 'Sasa' Mahapurusha yoga which confers high status, good wealth, name and fame on the individual. Saturn controls human life for better or worse from 36th year onwards. Saturn when posited in Capricorn, Aquarius, Taurus, Libra, Sagittarius and Pisces Lagna gives good personality, wealth, status and prosperity. In other Lagna it gives disease of old age in youth and the native looks older than his or her age. His location is considered good in Upachaya (3rd, 6th, 10th and 11th) houses. Among these his location is considered better in the 6th house from where he aspects the 8th, 12th, and 3rd house and curtails evil effect of these houses. As an exception to the maxim 'karako Bhava Nashaya', Saturn's location in 8th house bestows long life with some impediments. The infl uence of Saturn on 10th house makes the native hard worker. Retrograde Saturn in 6th, 8th and 12th house causes much suffering to the native. Strong Saturn gives success and elevates the native in life, while weak Saturn causes misery and suffering. when Saturn is strong and well placed in the horoscope, it indicates that the individual has well disciplined approach to creative activity and he fi nds life most rewarding. A weak and ill placed Saturn causes failure, miseries and low status in life. A large majority of people are born with weak or affl icted Saturn. Such individuals resist changes in life without trying to understand these. Instead of hard work they try shortcuts for success and stumble upon failure. Through these failures and losses Saturn teaches the real meaning of life. Astrological treatises have eulogised strong Saturn as signifi cator of 10th house which relates to one's profession. According to Saravali (Ch.30.83) "If Saturn joins the 10th house one will be rich and learned .... He will be courageous and leader of a group, village or city." phaladeepika (Ch.8.22) states: "The person having Saturn in the 10th house will be a King or Minister. He will be brave, wealthy and famous." Similarly, Jatak Parijat (Ch.8.92) states;" If Saturn is posited in the 10th house, one is a punishing offi cer, wealthy, courageous and important in his family." The placement of Saturn in the horoscope at birth, and its interaction with other planets gives a fair idea about that individual's profession and means of livelihood. For example, Aries sign represents machinery, tools, factory, fi re, undeveloped land, etc. when Saturn is placed in Aries, the profession is connected with one or the other attributes of this sign. The planets placed with Saturn, in the 2nd, 12th and 7th house from his location have a direct bearing on the activities connected with one's occupation. Saturn as a signifi cator for means of livelihood interacts fi rst with the planet placed in the house next to his own location. Planets aspecting Saturn and those aspected by Saturn also shape an individual's profession. More the number of planets interacting with Saturn, more complex would be the the professional career. The result of Saturn in different signs is as under : Saturn in Aries : Saturn is debilitated here. In keeping with the traits of aries, the native is engaged in factory, machinery, metal and engineering work involving physical labour and less return. Saturn in Taurus : This indicates enough earning through soft work, such as fi nance, banking or trading in luxury goods. Saturn in Gemini : The individual earns through intellectual pursuits like journalism, accountancy, auditing, business, trade and communication work. He gets cooperation from friends. Saturn in Cancer : It indicates work connected with art, writting, travel, water, milk, liquids and sea-borne items. Saturn in Leo : It indicates government employment or some administrative work. As ruler of Leo sign Sun is inimical to Saturn, the individual has to struggle initially in his profession, unless Saturn is associated with or aspected by Jupiter, Venus or unaffl icted Mercury. Saturn in Virgo : One earns through intellectual pursuits, commerce, accountancy, real estate and brokerage. He is very practical in business. Saturn in Libra : Exalted Saturn gives good profession, fame, status and wealth, when not conjoined with or aspected by Mars or Ketu. Lawyers and judges have Saturn in Libra. The person may earn through banking, luxury items, any soft work or as cinema or T.V. artist. Saturn in Scorpio : Saturn is uncomfortable here. The native may work in concerns in mines, minerals, engineering and agriculture involving physical energy and manual work. Saturn in Sagittarius : The native is engaged in prestigeous profession related to law, administration or religion. He may earn through forest service and spiritual activities. Saturn in Capricorn : The native earns through service, travelling, sales, liaison work or food realted business. Saturn in Aquarius : The native may work as manager, teacher, researcher, astrologer, advisor or guide in independent capacity. Saturn in Pisces : The native is successful in the fi eld of law, medicine or religion and works as administrator, doctor, lawyer or teacher in respctable position. The above tendencies prevail when Saturn is associated with these sign lords by conjuction, placement in adjoining (2/12) houses, and in the 7th house from his location. A powerful Venus placed in 2nd to Saturn indicates that prosperity in profession would follow after marriage. Jupiter in 2nd house to Saturn indicates that the career would begin at a higher level, and when there is no planet between Saturn and Jupiter, then the road to success is smooth and clear. Rahu in 2nd to Saturn indicates that the person will have to start his career at lower level and struggle in the initial stages. Ketu in 2nd to Saturn causes a pull back in position, but this lacation is good for spiritual achievement. Saturn's association with Mercury or Saturn in 2nd to Mercury is an indication of initial impediments in career. When Saturn is associated with Mars or Rahu (either by conjuction or in 2nd or 7th house) then that individual faces diffi culties in the early stages of profession. He works hard without job satisfaction, irrespective of the grade he makes in his career. When the adjoining houses to Saturn are unoccupied and Mars is placed in 7th house to Saturn, the individual has to struggle in initial stages and work hard for progress. Saturn-Rahu combination, especially in 9th house, produces severe setbacks in the life of the native and his father. Their combination in 6th, 8th or 12th house produces many scandals in the life of the native. Saturn-Mars conjuction in 5th, 8th and 12th produces very bad result. When Saturn is in direct opposition to the Sun and devoid of Jupiter's aspect, the native makes his living by coming in contact with low people and using clandestine means. Their opposition is very bad. It causes differences with father and those in authority causing fall in status. Saturn-Sun conjunction ruins paternal affection and success in life. For political success it is essential that Saturn favourably infl uences 10th house and gets the support of the Sun, Mars and Jupiter. When Jupiter, Venus or unaffl icted Mercury is posited in 2nd, 7th or in trine or 10th to Saturn, the individual enjoys regular fl ow of money through comfortable profession. The result of Saturn's connection with other planets is as under : Saturn and Sun : It indicates government connection, trade in metals or politics. Success comes after much effort and struggle. Aspect of Jupiter, Venus and unaffl ictd Mercury makes life easy. Saturn and Moon : This involves travelling, writing and liquids. There is diffi cult childhood, problem to mother, fl uctuation of mind and repeated changes in career. Saturn and Mars : As these are inimical to each other, the individual has problem in career connected with metal, machinery or engineering. Aspect of jupiter and other benefi cs increases gains, and gives land and property. Saturn and Mercury : It gives profession related to trade, writing and law, involving intelligence and tact. The aspect of benefi cs makes earning easy. Saturn and Jupiter : It gives independent career and good status. The person enjoys lot of respect in the society. Successful persons are born with Saturn and Jupiter conjunction in Trines. Saturn and Venus : The native has success after marriage. He enjoys good fortune in the fi eld of banking and business. The Transit of Saturn, Jupiter and Venus over the combination or in trine or in 7th therefrom gives increase in income and prosperity. Saturn and Rahu : It indicates profession connected with vehicle, printing press and fi lms with low grade beginning and dissatisfaction from the job. Saturn and Ketu : Ketu is inimical to Saturn. It indicates maximum work and minimum salary. The native works in small concern. Experience in life turns him to spiritualism. The result of more than one planet with Saturn can be assessed on the basis of above indications. Besides the loacation, strength and interaction of Saturn with other planets in the horoscope, we should also look up the strength of and benefi c infl uence on, the 10th house and its lord for successful career. When the 10th lord is weak and affl icted, there will be obstacles and the profession will begin at ordinary level. In addition, presence of Raj Yoga formed by the lords of a Kendra (angle) and Trikona (Trine), Panchmahapurusha Yoga, exalted and Vargottam Planets in the horoscope are positive indications. The absense of good Yogas and presence of bad ones, such as Kemadruma and Dainya Yoga make the native struggle for professional success. The transit of the Sun, Mars, Rahu and Ketu over natal Saturn, Sadhesati, Kantak and Ashtam Shani is the period of struggle and suffering when it occurs during Saturn Dasa or Bhukti. Remedial Measures : For reducing hardship in life caused by unfavourable Saturn, the following measures have been found effi cacious: 1- Worship Lord Shiva through Abhishek on Saturdays with water, mixed with little Ganges water, mustard oil and sesame seeds. 2- Japa of Shani Mantra 3- Distribute Urad daal and rice Khichri to beggars on Saturdays. 4- Light mustard oil lamp below Pipal tree after Sunset on Saturdays. 5- Show sympathetic and helpful attitude towards servants and sweepers of the family and at work plac

Your Rashi and Your dressing sense

Every Rashi has its special and unique attribute of idiosyncratic type of inclination towards fashion. Our dress is a transparent mirror of our personality which reveals very clearly that we are made of what type of stuff and have which aspirations in life. Some foreign author has rightly affirmed that "dress is the visiting card of our personality" with which we present ourselves to the outer world.
In our horoscope Lagna is termed as the gateway to our personality and whenever we interact or come in contact with somebody then the reflection of our personality becomes visible through this gate only.
Aries:
Aries being the first sign of Zodiac tempts you to remain number one in the world of fashion as a result of which you adopt the new styles quickly to set new trends. You are fond of bright colors and select the dress and color of your dress minutely. Color is most important for you and all shades of pink, red and reddish brown attract you.
Taurus:
In clothes you value more about the quality and comfort level. Instead of latest fashion you prefer those types of dresses which are evergreen and never lag behind in fashion world. You are a definition of a persona with a unique style and sophistication and thus a mirror of refined choice processed in a longer time. You love to wear soft type of dresses and after purchasing prefer to use the dress for a longer time. Pink and blue are your favorite.
Gemini:
You are fond of collecting lot of dresses. You have a big wardrobe with big collection of all colors and dresses for various moods and situations. You do not think much while purchasing dresses rather pay needed attention to comfort level certainly. Colors impress you deeply and therefore you love to wear dresses of various colors. The idea of various styles and various ideas about clothes is also your contribution only. If you are getting impressed with the clothes before the personality of a person then it is you only.
Cancer:
You are sensitive and emotional and that is why you are attached to your dresses as deeply as to your relations. You have also chosen few dresses from the present day trend for yourself. You love creational dresses, embroidery, craftsmanship & laces etc in dress. You shall take proper care of your dresses. Your dresses remain with you for a long time. Your favorite colors are green, khaki, off white and cream.
Leo:
You have the splendor of sun in your personality which tempts you to wear the best dress. You choose the dress on the basis of best color and quality. You give the priority to your own style in-spite of getting impressed with the fashion. You are having strong persona with this belief that only the dress worn by you is fashionable. Your strong inclination towards the branded and designer wear designates your ambition of getting a high post of responsibility in society. You are fond of bright colors orange, golden, white and violet.
Virgo:
The hallmark of your personality is intelligence and therefore you prefer to choose those dresses which are practically suitable for all occasions and thus can be used frequently. You are expert in making several new combinations. You look after your dresses carefully and wear good dresses which are properly ironed. Your clothes are comfort fit which suit you as they properly get fitted on your body. All colors of rainbow are your favorite.
Libra:
You have the royal personality of prince/princess and love to match your dress from top to toe. Your footwear and dress and ornaments all match perfectly and there lies your expertise as you are a mine of love and romance. You are crazy about expensive designer wear which are slightly tight near waist. You are always ready and up to the date. You are fond of style and color both. You like light and black color.
Scorpio:
The chief objective of your dressing sense is to attract people. You love to wear clothes with tight fitting. Your main quality is to wear old things and fabric in new style for example indo western style, complicated style etc. Your desire of looking different creates the temptation of wearing new dresses of various styles. But you believe in this concept that more important than dress is the attraction of personality. Red, copper and light yellow are your favorite.
Sagittarius:
Fashion is a social process. Therefore, the dresses should be as per the limits of society. You believe in this dictum and therefore your dress is always acceptable in society. You prefer to wear dresses in accordance to your image and post in society which are generally of average quality but perfectly tuned with the latest fashion and that makes you look special, attractive and unique. Brocade, velvet and light dresses attract you. Your favorite colors are yellow and deep violet.
Capricorn:
You like to wear those dresses which are in vogue from a long time. In other words your approach is conservative because of your being under the influence of Saturn and that is why there won't be much difference in most of your dresses. Your style might change slightly after a long time. You do not like bright colors rather prefer reserve styled dresses of light weight and average quality which are generally straight and long till knee. You like stripes and dark colors like dark grey, black, blue and white.
Aquarius:
The world of your mind is inspired with imagination and beauty therefore, in this situation you shall like to wear those latest fashionable dresses which match your modern image. The language of your mind is clearly visible in your dress. You only are capable of modernizing the traditional dresses into style statement. In office wear also you have the efficiency of adding style and your office wear are soft & delicate.
Pisces:
You shall be fond of wearing dresses of double shade in blue, pink & light colors. You only are very fond of adopting all styles with capability of adopting all perfectly. You do not stay in one single style for longer duration. It is your special image to carry different styles even in daily routine life with the ability to incorporating all types of trends.