Friday, 15 January 2016

स्वतंत्र व्यवसाय के ग्रह योगों की विवेचना

स्वतंत्र व्यवसाय के ग्रह योगों की विवेचना सप्तम भाव, दशम भाव व्यवसाय से संबंधित होते हैं। भाव 10-11 धन से संबंधित होते हैं और व्यवसाय से संबंधित मुखय ग्रह बुध को माना गया है। लग्न, चंद्र लग्न, सूर्य लग्न में से जो बली हो उसके 10वें भाव से व्यवसाय से विचार किया जाता है। दशमेश जिस नवांश में हो उसके नवांशेद्गा को व्यवसाय चयन में प्रमुखता दी जाती है। व्यवसाय में सफलता के कुुछ ग्र्रह योग लग्न, चंद्र लग्न, सूर्य लग्न से जो भी अत्यधिक बलशाली हो, उस लग्न के दशम भाव में यदि बुध हो तो जातक सफल व्यापारी होता है। यदि 10 वें भाव में किसी शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो भी जातक व्यापारी होगा। यदि कुंडली में लग्नेश एवं दशमेश एक साथ हों तो व्यापार का योग बनता है। यदि भाव 10 का स्वामी भाव 1, 4, 7, 10 केंद्रों या भाव 5, 9 या भाव 11 में शुभ ग्रहों से दृष्ट होकर बैठा हो, तो सफल व्यापारी बनाता है। यदि दशम में बैठा ग्रह उच्च का है तो जातक को अधिक प्रगति कराता है। यदि नीच का होकर बैठा है तो कम उन्नति और व्यापार में उतार-चढ़ाव का द्योतक है। चंद्रमा से बुध, शुक्र, गुरु तीनों या कोई एक भी ग्रह यदि भाव 1, 4, 7, 10 में से किसी में हो तो व्यापारी बनने का योग बनता है। बुध, शुक्र, चंद्र यदि एक दूसरे से द्वितीयस्थ या द्वादशस्थ हो तो भी व्यापारी बनने का योग होता है। चंद्रमा से यदि गुरु, शुक्र तीसरे या ग्यारहवें बैठे हो तो भी व्यापारी बनने का योग बनता है। यदि भाव 02 का स्वामी भाव 11 में एवं 11 भाव का स्वामी भाव 02 में हो तो भी जातक सफल व्यापारी होता है। यदि केंद्र में पाप ग्रह हों और उन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो तो जातक मांस, मछली से संबंधित व्यवसाय करता है। यदि भाव 09 में शनि बुध, शुक्र हो तो जातक कृषि द्वारा धनवान होता है। यदि मंगल और चतुर्थ भाव का स्वामी किसी एक केंद्र में हो या किसी एक त्रिकोण में हो या फिर भाव 11 में हो तथा भाव 10 का स्वामी चंद्र, शुक्र से युति करे या दृष्ट हो तो जातक कृषि एवं पशु पालन का व्यवसाय करता है। भाव 10 का स्वामी यदि सूर्य के नवांश में हो तो जातक दवा, ऊन, अन्न, सोना, मोती आदि का व्यापार कर लाभ उठाता है। यदि भाव 10 का स्वामी चंद्र के नवांश में हो तो जातक मोती, कृषि, बच्चों के खिलौने, रेडीमेट वस्त्र, फैन्सी स्टोर आदि का व्ववसाय करता है। यदि भाव 10 का स्वामी मंगल के नवांश में हो, तो तांबा व पीतल के बर्तन की दुकान व कोयला आदि का व्यपार करता है। यदि दशम भाव का स्वामी बुध के नवांश में हो तो जातक लकड़ी का कारखाना, फर्नीचर, ज्योतिष शास्त्र या वैद्य का काम करता है। यदि दशम भाव का स्वामी गुरु के नवांश में हो तो जातक, अध्यापक वृत्ति तथा स्टेशनरी, धार्मिक पुस्तकों आदि का व्यापार करता है। यदि दशम भाव का स्वामी शुक्र के नवांश में हो तो जातक जानवरों का क्रय, विक्रय, चावल, किराना अथवा फेन्सी स्टोर, सौन्दर्य प्रसाधन स्टोर का व्यापार करता है। यदि दशम भाव का स्वामी शनि के नवांश में हो तो जातक लोहे, तिल, तेल, ऊन, चमड़ा आदि का व्यापार करता है। यदि व्यापार कारक ग्रह बुध भाव2, 3, 7 या 11 वें में उच्च या स्वग्रही हों और क्रूर ग्रहों से न देखा जाता हो, तो जातक एक सफल व्यापारी होता है। बुध ग्रह की राशि मिथुन या कन्या उक्त भावों में पड़ी हो, और किसी शुभ ग्रह के साथ हो या शुभ योग बना रहा हो तो भी कुशल व्यापारी होता है। यदि भाव 10 में वायु तत्व राशि मिथुन, तुला, कुंभ में से एक हो तो इलेक्ट्रानिक्स के कार्य/ वैज्ञानिक का कार्य करने की संभावना होती है। यदि 10वें भाव में अग्नि तत्व राशि मेष, सिंह, धनु हो तो जातक इंजीनियर या लोह या धातु से संबंधित कार्य करता है। यदि पृथ्वी तत्व राशि वृष, कन्या, मकर दशम भाव में हो तो जातक प्रशासनिक कार्य, आर्थिक कार्य, सिविल कार्य, धातु से संबंधित कार्य या खेती बाड़ी या एजेंसी का कार्य करता है। यदि भाव 10 में जल तत्व राशि कर्क, वृश्चिक, मीन में से कोई हो तो तरल पदार्थ, रसायन, डेयरी व्यापार, सामुद्रिक जहाज रानी या ठंडे पेय पदार्थों से संबंधित कार्य करने की संभावना रहती है। यदि दशमेश चंद्र पराक्रम भाव में धनु राशि में हो और इस पर धनेश मंगल व लग्नेश शुक्र की नवम भाव से दृष्टि हो, लाभेश सूर्य भाग्येश बुध के साथ लाभ भाव में होकर पंचमेश शनि से दृष्ट हो तो ऐसा जातक अपना स्वतंत्र व्यवसाय/सौंदर्य प्रसाधन से संबंधित कार्य करता है। यदि कर्मेश शुक्र पर शनि की दृष्टि हो, भाग्येश मंगल लग्नेश सूर्य, पंचमेश गुरु-राहु के साथ युति कर केंद्र में हो और लाभेश बुध की स्वग्रही चंद्रमा पर दृष्टि हो तो ऐसा जातक विल्डिंग डिजाइन का स्वतंत्र व्यवसाय करता है। यदि दशमेश मंगल स्वग्रही होकर धनेश सूर्य के साथ दशम में हो, भाग्येश गुरु चंद्र के साथ गज-केसरी योग बनता हो, लाभ भाव में राहु वृषभ राशि का हो, शुक्र कुंडली में उच्चाभिलाषी हो साथ ही पराक्रम भाव का स्वामी, बुध दशम भाव से दशम अर्थात सप्तम भाव के स्वामी शनि के साथ भाग्य भाव में युति करता हो, तो ऐसा जातक कपड़े के व्यापार के क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के ग्रहयोग भी स्वतंत्र व्यवसाय या व्यापार के होते हैं।

ज्योतिष अनुसार केसर का प्रयोग

हमारी प्रकृति ने हमें कई ऐसे मसाले और जड़ी-बूटियां दी हैं जो हमारे लिए कम फायदेमंद नहीं है। केसर का मसालों में विशिष्ट स्थान है। केसर सबसे कीमती मसाला है जिसे अंग्रेजी में सैफ्रोन कहते हैं। साधारणतः इसे उर्दू और अरबी में जाफरान कहते हैं। केसर भारतीय रसोई घर का प्रमुख मसाला है। इसे मसालों का राजा कहें तो ज्यादा बेहतर होगा। इसमें करिश्माई गुण समाए हैं। इसका वैज्ञानिक नाम क्रोकस सैटिबस है। केसर के फूल में चमकता हुआ स्टिग्मा पाया जाता है। स्टिग्मा को जब अच्छी तरह सुखाया जाता है तब जाकर केसर प्राप्त होता है। ये फूल जाड़े में हाथ से तोड़े जाते हैं। स्टिग्मा एक केप्सूल की तरह होता है। जैसा कि केसर के बारे में कहा जाता है कि यह सातवीं सदी में चीन पहुंचा और मध्यकाल में यूरोप में इसका प्रचार हुआ। यह मोरक्को और तुर्की में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। ज्योतिष के अनुसार केसर का उपयोग करने से सात्विक गुणों और सदाचार की भावना बढ़ती है। केसर पाउडर और थ्रेड के रूपों में उपयोग में लाया जाता है। केसर का सुगंध पाने के लिए इसे पानी में भिगोना पड़ता है। केसर का सबसे ज्यादा आयात ईरान और स्पेन से होता है क्योंकि यहां के केसर की क्वालिटी काफी अच्छी होती है। भारत में कश्मीर में इसकी खेती होती है। जिस प्रकार बृहस्पति ग्रह का रत्न पुखराज है उसी प्रकार केसर का प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति है। बृहस्पति जो ग्रहों में सबसे महान् हैं अपनी स्थिति से आकाश में उच्च स्तर पर है। बृहस्पति का मार्गी होना, वक्री होना, उच्च राशि अथवा नीच राशिगत होना यह सब जीवन पर प्रभाव डालते हैं। अगर बृहस्पति मार्गी हो तो बुद्धि सुचारू रूप से सही दिशा मिलती है। किंतु वक्री होने पर मन-मस्तिष्क में भ्रम और विवाद पैदा करते हैं। बृहस्पति ग्रह ज्ञान, विद्या का ग्रह है। अध्ययन में रुचि बढ़ाने के लिए बृहस्पति का बलवान होना जरूरी है। बृहस्पति या गुरु शरीर में चर्बी, लीवर, दिमाग से संबंधित रोगों का कारक होता है। धर्म के अधिष्ठाता बृहस्पति को मांगलिक कार्यों का कारक ग्रह माना गया है। घर से किसी मांगलिक कार्य के लिए निकलें तो इसका तिलक कर सकते हैं। विवाह में रुकावट के लिए बृहस्पति का कमजोर होना माना गया है। केसर का इस्तेमाल हम किसी और तरह से कर सकते हैं। केसर का इस्तेमाल, केसर दूध, केसर वाले चावल, ठंडई से लेकर मसाले तक में केसर का विभिन्न रूपों में प्रयोग किया जाता है। केसर वाली खिरनी, गुरुवार को खुद खायें और किसी गुरु को खिलाएं तो बृहस्पति सकारात्मक फल देता है। इसकी थोड़ी सी मात्रा किसी भी दिश को खुशबूदार बना देती है। ध्यान रहे ज्यादा मात्रा में लेने पर दिमाग, भारी हो जाता है और नींद आने लगती है। केसर का उपयोग धार्मिक कार्यों में भी किया जाता है। बृहस्पतिवार के दिन केसर का तिलक करें। केसर दूध या केसर वाली खिरनी, छोटे चावल वाली खीर, दान करें। यदि किसी गुरु को सेवन करने को दें तो इससे बृहस्पति सकारात्मक फल देता है। वैवाहिक जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए बृहस्पति का अच्छा होना बहुत जरूरी है। ज्योतिष विद्या विश्वास नहीं विज्ञान है। सत्य को परखने के लिए हम प्रयोग करके देख सकते हैं।

भोग कारक शुक्र और बारहवां भाव

द्वादश भाव को प्रान्त्य, अन्त्य और निपु ये तीन संज्ञायें दी जाती हैं और द्वादश स्थान (बारहवां) को त्रिक भावों में से एक माना जाता है, अक्सर यह माना जाता है कि जो भी ग्रह बारहवें भाव में स्थित होता है वह ग्रह इस भाव की हानि करता है और स्थित ग्रह अपना फल कम देता है। बलाबल में भी वह ग्रह कमजोर माना जाता है, लेकिन शुक्र ग्रह बारहवें भाव में धनदायक योग बनाता है और यदि मीन राशि में बारहवें भाव में शुक्र हो तो फिर कहना ही क्या? कारण यह है कि शुक्र बारहवें भाव में काफी प्रसन्न रहता है क्योंकि बारहवां भाव भोग स्थान है और शुक्र भोगकारक ग्रह, इसी कारण इस भाव में शुक्र होने से भोग योग का निर्माण करता है, चंद्र कला नाड़ी की मानें तो- व्यये स्थान गते कात्ये नीचांशक वर्जिते। भाग्याधिपेन सदृष्टे निधि प्राप्तिने संशयः।। यानि- शुक्र द्वादश स्थान में स्थित हो और नवमेश द्वारा दृष्ट हो तो ऐसा मनुष्य निधि की प्राप्ति करता है। अर्थात शुक्र की द्वादश स्थान में स्थिति अच्छी मानी गई है। भावार्थ रत्नाकार में कहा गया है- शुक्रस्य षष्ठं संस्थानं योगहं भवति ध्रुवम्। व्यय स्थितस्य शुक्रस्य यथा योगम् वदन्ति हि।। अर्थात - शुक्र छठे स्थान में स्थित होकर उतना ही योगप्रद है जितना की वह द्वादश भाव में स्थित होकर योगप्रद है। उत्तरकालामृत में कहा गया है कि - ‘षष्टस्थो शुभ कृत्कविः यानि छठे स्थान में शुक्र की स्थिति इसलिये अच्छी मानी जाती है, क्योंकि बारहवें भाव में उसकी पूर्ण दृष्टि रहती है, जिस कारण वह भोगकारी योग बनाता है। इस तरह शुक्र की बारहवें भाव में स्थिति भोग योग बनाती है और भोग बिना धन के संभव नहीं है अतः यही भोग योग धन योग भी बन जाता है। जिन व्यक्तियों के बारहवें भाव में शुक्र स्थित होता है, वे बहुधा योग सामग्री द्वारा अपना जीवन सुविधा से चला लेते हैं। यदि अधिक धनी न हों तो दरिद्री को भी प्राप्त नहीं होता। परंतु जब यह ग्रह शुक्र लग्न के साथ सूर्य लग्न से व चंद्र लग्न से भी द्वादश हो या किन्हीं दो लग्नों में द्वादश स्थान में स्थित हो तो दो लग्नों से द्वादश स्थान में होने के कारण शुक्र दुगुना योगप्रद हो जाता है और तीनों लग्नों से द्वादश हो तो सोने पर सुहागा वाली बात होगी, ऐसी स्थिति में शुक्र अतीव शुभ योग देने वाला, महाधनी बनाने वाला बन जाता है- भावार्थ रत्नाकर के अनुसार - यह भाव कारको लग्नाद् व्यये तिष्ठति चेद्यदि। तस्य भावस्थ सर्वस्य भाग्य योग उदीरितः।। यानि - इस भाव से जातक को विषयक बातों का लाभ होगा, जिस भाव का कारक लग्न से द्वादश भाव में स्थित हो शुक्र जाया (पत्नी) भाव का कारक ग्रह है, अतः जिन जातकों के बारहवें भाव में शुक्र रहता है, उन्हें स्त्री सुख में कभी कमी नहीं होगी, प्रायः ऐसे व्यक्तियों की पत्नी दीर्घजीवी हुआ करती है।

विभिन्न भावों में मंगल का फल

प्रथम भाव जन्मकुंडली के प्रथम भाव में मंगल जातक को साहसी, निर्भीक, क्रोधी, किसी हद तक क्रूर बनाता है, पित्त रोग का कारक होता है तथा चिड़चिड़ा स्वभाव वाला बनाता है। उसमें तत्काल निर्णय लेने की क्षमता होती है तथा वह लोगों को प्रभावित करने तथा अपना काम करवाने की योग्यता रखता है। वह अचल संपत्ति उत्तराधिकार से प्राप्त करता है। साथ ही साथ स्वयं के प्रयास से भी निर्माण करता है। परन्तु यदि इस भाव में मंगल नीच का हुआ तो जातक दरिद्र, आलसी, असंतोषी, उग्र स्वभाव का, सुख में कमी, कठोर, दुव्र्यसनी तथा पतित चरित्र वाला बना सकता है। जातक को नेत्रों के कष्ट तथा पांचवें वर्ष में जीवन पर संकट का भय होता है। द्वितीय भाव जन्मकुंडली के दूसरे भाव का मंगल जातक को कृषि से आजीविका प्रदान करता है। चरित्रहीन लोगों से कष्ट पा सकता है। अनावश्यक विश्वास के कारण धन हानि तथा दांतों में कष्ट का भी भय रहता है। परिवार के अन्य सदस्यों का रूखा स्वभाव दुखों का कारण हो सकता है तथा उसके बिजली तथा आग से सावधान रहने की आवश्यकता है। वह तीखे भोजन का शौकीन, चिड़चिड़ा तथा औषधियों और पशुओं से लाभ प्राप्त करता है। जीवन के नवें वर्ष में स्वास्थ्य का तथा 12वें वर्ष में धन की हानि का भय रहता है। तृतीय भाव तृतीय भाव का मंगल जातक को पराक्रमी, शत्रु पर विजय पाने वाला, यु़द्ध कला में निपुण, परिवार जनों से सुख पाने वाला, छोटे भाई के लिए कष्ट का कारण तथा यात्रा का प्रेमी बनाता है। वह राजा अथवा शासन द्वारा सम्मान का अधिकारी होता है, परंतु पीड़ित मंगल मानसिक कष्ट, धन अभाव तथा जीवन के 13वें वर्ष में माता के लिए कष्ट का कारण हो सकता है। चतुर्थ भाव चतुर्थ भाव के मंगल का जातक पत्नी के प्रभाव में रहता है। माता से अप्रसन्न तथा विभिन्न रोगों से पीड़ा प्रदान करता है। जातक व्याकुल, चोर व अग्नि का भय तथा जीवन साथी (पति या पत्नी) से असंतोष का अनुभव करता है। इस भाव में उच्च का मंगल जातक को अचल संपत्ति तथा वैभवशाली वाहन का सुख प्रदान करता है किंतु नीच का मंगल आठ वर्ष की आयु में परिवार में दुर्घटना का कारण होता है। पंचम भाव पंचम भाव का मंगल जातक को शारीरिक रोगों से कष्ट, संतान से चिंता, अग्नि से भय तथा कम अक्ल लोगों से प्रभावित होने वाला बनाता है। जातक परिवार के साथ तीर्थ यात्रा करने वाला, क्रूर, चंचल, पत्नी का गर्भपात से कष्ट की संभावनाओं वाला होता है। जोखिम उठाने वाला, वैभवशाली, शिक्षा में बाधा, अनैतिक कार्य करने वाला तथा जीवन के छठे वर्ष में बिजली अथवा आग से कष्ट पाने वाला होता है। षष्ठम भाव छठे भाव का मंगल जातक को प्रसिद्धि, विद्वानों से मैत्री तथा उपक्रमों में सफलता प्रदान करता है। उनमें विरोधी और प्रतिद्वंद्वियों से सीधे सामना करने की योग्यता होती है। यदि छटे भाव में मंगल नीच का हो या कमजोर हो तो जातक अधीनस्थों व ठगों से छला जाने वाला, माता से सुख में कमी, निर्भीक किन्तु रोगों से कष्ट पाने वाला बनाता है। आयु का 34वां वर्ष लाभकारी होता है। सप्तम भाव सप्तम् भाव में मंगल जातक को साझेदारी से कष्ट, वैवाहिक जीवन में असंतोष अथवा परिवार से दूर आवास दे सकता है। यदि मंगल पीड़ित हो तो विभिन्न प्रकार से कष्ट देता है। जातक अनैतिक कार्यों में लिप्त हो सकता है। नशे आदि व्यसन का आदि हो सकता है। उसे विभिन्न मामलों में अदालत में खींचा जा सकता है। जीवन में समय-समय पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आयु के 27वें वर्ष में परिवार में किसी सदस्य के स्वास्थ्य के प्रति कष्टदायक होता है। अष्टम भाव अष्टम् भाव का मंगल जातक को धनवान और नेता बनाता है। उसमें व्यय की उत्कृष्ट ईच्छा होती है तथा वह नेत्र विकार से पीड़ित होता है। उसे अग्नि व अस्त्र से भय रहता है। इस भाव में उच्च का मंगल जातक को पैतृक संपत्ति पाने में सहायक होता है किंतु नीच का मंगल समस्याओं को जन्म देता है। ऐसा जातक बवासीर से पीड़ित तथा सदा आर्थिक समस्याओं से घिरा रहता है। आयु का 25वां वर्ष दुर्भाग्य देने वाला हो सकता है। नवम भाव नवम् भाव में मंगल जातक को झूठा, हठी, क्रूर, संदेही, ईष्र्यालु तथा पिता के प्यार से वंचित रखता है। उच्च का मंगल जातक को प्रसिद्धि, धार्मिक, धनी, दानी, शासन से सम्मानित, बुद्धिमान तथा अपने प्रयास द्वारा कार्यक्षेत्र में उन्नति के शिखर को पाने वाला बनाता है। नीच का मंगल उसे विभिन्न रोगों से पीड़ित, पापमय तथा दुर्भाग्यवान करता है। आयु के 28वें वर्ष में भाग्य लक्ष्मी जी की उस पर विशेष कृपा होती है। दशम भाव दशम् भाव का मंगल जातक को तेजस्वी, विजयी, उदारमना, बलिष्ठ, शक्तिमान तथा विपरीत लिंग वालों को सहज ही प्रभावित करने वाला बनाता है। वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने वाला कोई भी कार्य अधूरा न छोड़ने वाला तथा अपने गुरु व बड़ों का आदर करने वाला होता है। वह धैर्यवान, दूसरों की सहायता करने वाला, दानी तथा अपने पराक्रम द्वारा विद्रोहियों को परास्त करने की क्षमता रखने वाला होता है। वह चुनौतियों को स्वीकार करने वाला तथा अधिकतर अवसरों पर अपनी योग्यता को सिद्ध कर दिखाले वाला होता है। यदि मंगल कमजोर है तो जातक को नशे की लत, व्यापार में नुकसान तथा आयु के 26वें वर्ष में स्वयं पर संकट देता है। एकादश भाव ग्यारवें भाव का मंगल व्यक्ति को धनवान तथा अपनी अधिकांश इच्छाओं व अकांक्षाओं को पूरा करने वाला बनाता है। जातक उदार हृदय, शासन से लाभ पाने वाला, मुख्यतः अपने द्वारा किए गये प्रयासों से लाभान्वित होने वाला तथा प्रभावशाली लोगों से मैत्री रखने वाला होता है, किंतु नीच का मंगल समय-समय पर बाधाएं उत्पन्न करता है। उसे नीतिहीन, दुश्चरित्र मित्रों व संतान द्वारा धनहानि का भय रहता है। जीवन के 24वें वर्ष में वह विशेष लाभ अर्जित करता है। द्वादश भाव बारहवें भाव का मंगल जातक को सम्मान से वंचित तथा दूसरे के धन पर कुदृष्टि रखने वाला बनाता है। ऐसे व्यक्ति में नशे की लत व विवाह से अतिरिक्त संबंध होने की संभावना रहती है। यद्यपि वह परिश्रमी तथा धनसंग्रह की ईच्छा रखने वाला परंतु परिवार, विशेष रूप से पत्नी उसके जीवन की एक बड़ी बाधा होती है। नीच का मंगल होने पर जातक उच्च पद से पतित होता है एवं जेल का कष्ट भी भोगना पड़ सकता है। आयु के 45वें वर्ष में उसे समस्याओं से जूझना पड़ सकता है। विभिन्न राशियों में मंगल का परिण् ााम व प्रभावः मेष मंगल मेष राशि में व्यक्ति को साहसी, यु़द्ध क्षेत्र में विजयी तथा अधिकारियों व शासन से लाभ पाने वाला बनाता है। राजा व शासन से सम्मान, अधिकाधिक धन कमाने वाला तथा जीवन में संपत्ति और समृद्धिवान करता है। मेष राशि का व्यक्ति सदा सदाचारी रहता है किंतु कभी-कभी शारीरिक रोग का भागी होता है। वृष वृष राशि में मंगल व्यक्ति को ज्ञानी, व्यक्तियों का सम्मान करने वाला बनाता है। उसके उद्देश्य सदा सकारात्मक होते हैं। वह सत्य कर्मों में अपने धन को लगाने में रुचि रखता है। वह चिन्तनशील तथा जहां तक हो सके व्यवहारी होने का प्रयास करता है। उसमें वृद्धावस्था के लिए बहुत-सा धन संचय करने की एक महत्वपूर्ण ईच्छा रहती है तथा पत्नी के लिए वह अस्वस्थता का कारक होता है। मिथुन यदि मंगल मिथुन राशि में विराजमान हो तो यह व्यक्ति को भ्रमण प्रिय बनाता है। अतः वह विभिन्न स्थानों से अच्छी तरह परिचित हो जाता है। इस जातक का अपने पिता से हमेशा मतभेद रहता है किंतु अपने उच्चाधिकारियों पर वह अच्छा प्रभाव छोड़ता है। परिजनों से समरूपता का अभाव रहता है। वह बातूनी तथा विभिन्न कलाओं में दक्ष होता है। मंगल की इस राशि में उपस्थिति इसे अतिव्ययी बनाती है। कर्क कर्क राशि में मंगल जातक को वाहन, घर, नौकर, चाकर तथा अचल सम्पत्ति का सुख प्रदान करता है। उसमें अनावश्यक विवादों में पड़ने तथा उसके कारण मानसिक कष्ट भोगने की वृत्ति रहती है। कभी-कभी उसके अवैचारिक कार्य उसके लिए कष्ट का कारण होते हैं तथा पत्नी व संतान से असंतोष भी स्पष्ट दिखाई देता है। सिंह सिंह राशि में मंगल जातक को उच्चाधिकारी तथा दूसरों को सदा ही प्रभावित करने वाला होता है। वह व्यक्ति साहसी, विश्वसनीय, दृढ़ निश्चय वाला तथा नेतृत्व के गुणांे वाला होता है। वह राजा व अधिकारियों का प्रिय, संयमी, भाग्यवान तथा अपने अधिकारों के लिए सदा लड़ने को तैयार रहने वाला होता है। पत्नी या पति द्वारा भाग्य में वृद्धि, किंतु पुत्र से असंतोष, बिजली व आग से कष्ट का भय रहता है। कन्या कन्या राशि का मंगल जातक को चरित्रवान, नैतिक, समर्थ तथा अति धनी बनाता है। वह हंसमुख, प्रसन्नचित्त, हास-परिहास में रुचि वाला तथा दूसरों को सहज ही अपनी ओर कर लेने वाला होता है। विपरीत लिंग वालों से बहुत-सी आशाएं लगाने वाला होता है। जटिल परिस्थितियों के निर्णय में समर्थ किंतु धन का आना कुछ बाधित रहता है। तुला तुला राशि में मंगल जातक को कार्योन्मुख, स्पष्ट व्यवहार वाला, ईमानदार तथा उन्मुक्त स्वभाव वाला बनाता है। उसमें विद्युत गति से निर्णय लेने की शक्ति होती है। वह यात्राओं का प्रेमी तथा नए लोगों से मिलने को सदा आतुर रहता है। इन जातकों में व्यावसायिक समझ सदा सही होती है तथा विपरीत लिंग वालों से संबंधों में भाग्यवान होते हैं। वृश्चिक भाव वृश्चिक राशि में मंगल जातक को अचल संपत्ति से आय प्रदान करता है। वह साहसी, निर्भीक, खतरे उठाने वाला तथा बिना किसी देर के येन केन प्रकारेण सफलता के मार्ग पर बढ़ने वाला होता है। वह अपने इर्द-गिर्द बहुत से शत्रु बना लेता है। किंतु कोई भी उसके सम्मुख होकर उसकी आलोचना नहीं कर पाता। इनकी रुचि व अरुचि अति हद तक बढ़ी होती है। इन्हें जो रुचिकर होता है उस पर वह प्यार व ममता की बौछार कर देते हैं किंतु अरुचि होने पर उनके द्वेष व घृणा की कोई सीमा नहीं रहती तथा तब वह अपने वृश्चिक स्वभाव में आ जाते हैं। धनु भाव धनु राशि का मंगल जातक को सदा सत्य कार्यों में लिप्त तथा अपनी स्पष्ट छवि के प्रति सदा सचेत बनाता है। वह मेहनती व कर्मठ होते हैं तथा एक बार लक्ष्य के प्रति एकाग्र होने पर वह उसे पाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। अनावश्यक विवादों से दूर रहने वाले तथा संबंधों में खुलेपन से व्यवहार करने वाले होते हैं। ये धार्मिक प्रवृत्ति तथा पौराणिक ग्रंथों में रुचि लेने वाले होते हैं। मकर मकर राशि में मंगल जातक को विजयी तथा युद्ध भूमि में सम्मान पाने वाला बनाता है। वाद-विवाद में बहुत कुशल तथा कभी भी प्रतिवादी से न हारने वाला होता है। वह उच्च पद प्राप्त करता है। समृद्ध वातावरण में जीवनयापन करता है। अच्छी आय तथा उच्च अधिकारी पद प्राप्त करने में समर्थ होता है। नेतृत्व की योग्यता होती है तथा अपने कार्यों के कारण समाज में ख्याति प्राप्त करता है। कुंभ कुंभ राशि में मंगल जातक को अर्थहीन, वाद-विवादों में लिप्त तथा अलाभकारी उपक्रमों में समय अपव्यय करने वाला बनाता है। यद्यपि सावधान रहते हैं किंतु अपने से संबंध न रखने वाले विषयों में उलझने वाले होते हैं। इनमें धार्मिक कर्मकांडों के विरोध की वृत्ति होती है। परंतु अधार्मिक होने का दिखावा करते हैं जो कि वे वास्तव में नहीं होते। संतान के साथ तालमेल में कमी तथा उन्हें न समझ पाना चिंता का कारण होता है। वह अतिव्ययी व क्रोधी हो सकता है। मीन मीन राशि में मंगल जातक को मानसिक द्वंद्व प्रदान करता है। इनमें दूसरों की सहायता व सत्यकर्म की अटूट ईच्छा होती है। किंतु इनका चित्त विभिन्न विचारों से इतना चिंताग्रस्त रहता है कि वह अपना संयम खोकर कठोर वृत्ति वाला हो जाता है। अव्यावहारिक निवेश उसके दुखों को बढ़ा देते हैं तथा उन्हीं के चलते वह कर्ज के बोझ में भी दब सकते हैं। संतान के लिए चिंता व बिना ईच्छा के परदेश में वास करना पड़ सकता है।

सफल ज्योतिषी बनने के योग

इस विद्या में पारंगत व्यक्ति 'ज्योतिषी' कहलाता है। एक सफल ज्योतिषी केवल वही बन सकता है जो सच्ची निष्ठा एवं लगन से ईश्वरोपासना की ओर उन्मुख होकर उस परमब्रह्म का आशीर्वाद एवं ईश्वरीय कृपा प्राप्त कर ले। एक सफल ज्योतिषी बनने के लिये जन्म पत्रिका में शुभ ग्रहों का बली होना अति आवश्यक है। कुंडली में लग्न, पंचम, नवम भाव तथा बुध, गुरु, शुक्र, शनि एवं केतु ग्रह की उत्तम स्थिति जातक को ज्योतिष विद्या के अध्ययन की ओर अग्रसर करती है। फलदीपिका ग्रंथ के अनुसार- दशमेश यदि बुध के नवांश में हो तो काव्यागम, लेखनवृत्ति, लिपिविद्या, ज्योतिष, ग्रह नक्षत्र से संबंधित व्यवसाय, गणित, पूजा पाठ, पुरोहित आदि के कार्य द्वारा वृत्ति होती है। नवम भावस्थ, मिथुन, कर्क राशिगत सूर्य, कर्क राशिस्थ चंद्र, लग्नस्थ तथा एकादशस्थ बुध, लग्नस्थ या स्वराशिगत शुक्र, मीन राशिगत शनि एवं पंचमस्थ केतु जातक को ज्योतिषी बनाने में अहम् भूमिका निभाते हैं। -लग्न भाव या लग्नेश से बुध या गुरु ग्रह का संबंध हो अथवा बुध केंद्रस्थ हो तथा शुक्र लग्नस्थ होकर स्वराशि में हो तो जातक अच्छा ज्योतिषी बन सकता है। कुंडली नं. 1 में बुध लग्नेश शुक्र के साथ लग्न भाव में ही युति बना रहा है। शुक्र स्वराशिगत है तथा गुरु भी लाभ भाव में मीन राशि में स्थित है। बुध, गुरु, शुक्र शुभ स्थिति में है। जातक एक सफल, लोकमान्य ज्योतिषी है। कुंडली में यदि चंद्र गुरु की युति पंचम या नवम भावों में है अथवा चंद्र गुरु का दृष्टि संबंध इन भावों में बन रहा हो तो जातक मुखयतः हस्त रेखा विज्ञान में सफलता प्राप्त करता है। कुंडली नं. 2 में गुरु पंचम भाव में, तथा मित्र राशिस्थ चंद्र सप्तम में और शुक्र अपनी ही राशि नवम भाव में स्थित है, सूर्य मिथुन राशिगत तथा बुध एकादश भावस्थ है। यह कुंडली एक ज्योतिषी की है, जो अत्यंत कुशाग्र बुद्धि एवं प्रभावशाली, ओजस्वी वाणी का स्वामी है। जातक ज्योतिषीय गणनायें करने में भी पूर्णतया समर्थ है। मात्र 25-26 वर्ष की आयु में ही जातक ने एक लोकप्रिय कथावाचक, कुशल हस्तरेखाविद् एवं सटीक फलादेश करने में पारंगत ज्योतिषी के रूप में खयाति अर्जित कर ली है। कुंडली में नवम भावस्थ शुक्र पर पंचम भावस्थ गुरु की पंचम दृष्टि इस बात का स्पष्ट संकेत दे रही है कि भविष्य में भी जातक के ज्योतिष के क्षेत्र में चरम शिखर तक पहुंचने की पूरी संभावना है। शनि ग्रह को भी ज्योतिष एवं ज्ञान का आधार ग्रह माना गया है। जन्मकुंडली में शनि यदि मीन राशि में हो तो भी जातक अच्छा ज्योतिषी बनता है। साथ ही गोचर में शनि यदि जन्मस्थ शनि से सप्तम स्थान में भ्रमण करे तथा उच्चस्थ ग्रह की दशा-अंतर्दशा चल रही है उस विशेष समय में जातक ज्योतिष संबंधी अलौकिक ज्ञान प्राप्त करके खयाति, प्रसिद्धि, कीर्ति, धन, सम्मान, यश सभी कुछ प्राप्त करता है। कुंडली नं. 3 एक ज्योतिषी की है। पत्रिका में बुध व केतु लग्न भाव में स्थित है। शनि मीन राशिस्थ है तथा चंद्र गुरु की युति लाभ भाव में गजकेसरी योग का निर्माण कर रही है। जातक ज्योतिष विद्या का अध्ययन काफी समय से कर रहा है। किंतु एक प्रतिष्ठित एवं सम्मानित ज्योतिषी के रूप में सफलता उसे अब मिली है। वर्तमान समय में शनि का गोचर कन्या उच्चराशिस्थ मंगल की महादशा चल रही है जिसने ज्योतिष के कारक ग्रह बुध की अंतर्दशा एवं गोचरस्थ शनि के शुभ प्रभाव में जातक को वर्तमान समय में एक सफल ज्योतिषी बनने में पूर्ण सहायता प्रदान की है। केतु ग्रह को गणितीय योग्यता, गुप्त ज्ञान एवं अद्वितीय प्रतिभा का कारक ग्रह माना गया है तथा पंचम भाव से पूर्व जन्मों के संचित कर्म, मान-पुण्य, मंत्र, आत्मा आदि का विचार करते हैं। इस प्रकार केतु ग्रह तथा पंचम भाव दोनों ही गुप्त ज्ञान से संबंधित हैं। यही कारण है कि यदि केतु पंचम भाव में स्थित हो तो जातक अद्वितीय गुप्त ज्ञान, गणितीय योग्यता एवं बौद्धिक प्रतिभा के बल पर एक सफल ज्योतिषी बन सकता है। कुंडली नं. 4 मिथुन लग्न एवं सिंह राशि की है। शनि तथा मंगल अपनी उच्च राशि में हैं। इन सब के साथ ही पंचम भाव में उच्च का शनि विशिष्ट स्थिति में है। बुध तथा केतु दोनों ही ज्योतिष के आधार ग्रह हैं। उन पर उच्चस्थ शनि की तृतीय दृष्टि भी है। बुध व केतु की इस विशेष स्थिति के कारण जातक प्रकांड विद्वान, सफल ज्योतिषी एवं उच्च बौद्धिक प्रतिभा का धनी है। जन्मपत्रिका में उक्त ग्रहयोग जितनी अधिक प्रबल एवं शुभ स्थिति में होंगे, जातक ज्योतिष विद्या में उतना ही पारंगत होगा एवं अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का उचित मार्ग दर्शन करके उसे उसके आने वाले पलों के लिए तैयार कर सकेगा।

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Thursday, 14 January 2016

सितारे हमारे

देखे सितारे हमारे प्रख्यात पं.पी एस त्रिपाठी के साथ जाने दैनिक अपनी राशिफल के बारे में, पूछें अपने सवाल रोज सुबह 08:30am IBC24 पर

ज्योतिषानुसार जाने की मन से परीक्षा का भय कैसे भगाएं

विद्यार्थियों के लिए परीक्षा का समय पास आ रहा है और परीक्षा पास आते ही विद्यार्थियों को उसका भय सताने लगता है। पढ़ाई में मन नहीं लगना, पाठ याद न होना, पुस्तक खुली होने पर भी मन का पढ़ाई में एकाग्रचित्त न होना, रात को देर तक नींद न आना या मध्य रात्रि में नींद उचट जाना आदि परीक्षा के भय के लक्षण है।
परीक्षा पढ़ाई का केवल एक मापक है, यह विद्यार्थी के ज्ञान का आकलन मात्र है। व्यक्ति के जीवन में उतार चढ़ाव या लाभ-हानि इसके द्वारा निर्धारित नहीं होते। किसी भी परीक्षा में सफल होने के लिए कुछ सूत्र होते हैं। इन सूत्रों को जान लेने, समझ लेने और उनके उपयोग करने से अच्छी सफलता सहजता से प्राप्त हो सकती है। परीक्षा के भय से मुक्ति के लिए निम्नलिखित सूत्र लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं-
ज्योतिषानुसार षनि की साढ़ेसाती और ढैया भी पढ़ने में अरुचि पैदा कर देती हंै। अतः किसी ज्ञानी पंडित द्वारा विद्यार्थी की पत्री को पढ़वाकर उसके उपाय करना उचित रहता है। इसके लिए सरसों के तेल का छाया दान या षनि की वस्तुओं का दान लाभदायक होता है। षनि के मंत्रों का जप व षनि मंदिर के दर्षन मन को एकाग्रचित्त करते हैं।
मन को एकाग्रचित्त करने के लिए प्राणायाम अत्यंत प्रभावशाली पाया गया है। इससे शरीर के अंदर की अशुद्ध वायु बाहर निकल जाती है और स्वच्छ वायु शरीर के स्नायुओं को पुनः क्रियान्वित व ऊर्जित कर देती है। इससे शरीर में शक्ति व स्फूर्ति पैदा होती है और मन एकाग्र हो जाता है। इसके लिए एक समय में केवल 5 से 10 बार सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया को पूरी करें। परीक्षाओं के समय 5 से 10 बार तक अपने पढ़ने के स्थान पर ही प्राणायाम कर लेना लाभदायक होता है।
सरस्वती यंत्र की स्थापना और सरस्वती मंत्र का जप भी परीक्षा में उत्तम अंक प्राप्त करने के लिए लाभप्रद है।
।। ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं सरस्वत्यै नमः ।।
निम्न देवी के मंत्र का जप विद्या प्राप्ति के लिए अत्यंत उत्तम है।
या देवि सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।
गायत्री मंत्र का जप रुद्राक्ष व स्फटिक मिश्रित माला पर करना श्रेयस्कर है।
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम ।
भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
सरस्वती मंत्र सहित सरस्वती लाॅकेट बुधवार को धारण करें।
चार मुखी और छः मुखी रुद्राक्ष युक्त पन्ने का त्रिषक्ति कवच पढ़ाई में ध्यान केंद्रित करने में अत्यंत लाभदायक लाभप्रद है।
बुधवार को गणेष जी को लड्डुओं का भोग लगाएं।
पढ़ाई के कमरे में मां सरस्वती का चित्र लगाकर रखें।
पढ़ते समय अपना मुख पूर्व या ईशान की ओर रखें। इससे मन एकाग्र रहेगा।
सोते समय अपने पैर उत्तर व सिर दक्षिण दिशा में रखें। इससे नींद गहरी आएगी और प्रातः काल ताजा व ऊर्जावान महसूस करेंगे।
परीक्षा के समय परीक्षा की तैयारी तो अवश्य करें लेकिन कितने अंक प्राप्त होंगे इस पर विचार नहीं करना चाहिए क्योंकि फल की आसक्ति ही मनुष्य को कमजोर बनाती है। दूसरे, हम यदि आने वाले अंकों पर विचार भी करेंगे तो इससे अंकों में बढ़ोतरी तो होगी नहीं, बल्कि सोच के कारण मन न लगने से अंक कम अवश्य हो सकते हैं। अतः सदा याद रखें:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।– गीता

लग्नानुसार कुंडली से विदेश यात्रा के प्रमुख योग

जन्मकुंडली के द्वादश भावों में से प्रमुखतया, अष्टम भाव, नवम, सप्तम, बारहवां भाव विदेश यात्रा से संबंधित है। तृतीय भाव से भी लघु यात्राओं की जानकारी ली जाती है। अष्टम भाव समुद्री यात्रा का प्रतीक है। सप्तम तथा नवम भाव लंबी विदेश यात्राएं, विदेशों में व्यापार, व्यवसाय एवं प्रवास के द्योतक हैं। इसके अतिरिक्त लग्न तथा लग्नेश की शुभाशुभ स्थिति भी विदेश यात्रा संबंधी योगों को प्रभावित करती है। मेष लग्न 1- मेष लग्न हो तथा लग्नेश तथा सप्तमेश जन्म कुंडली के किसी भी भाव में एक साथ हों या उनमें परस्पर दृष्टि संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 2- मेष लग्न में शनि अष्टम भाव में स्थित हो तथा द्वादशेश बलवान हो तो जातक कई बार विदेश यात्राएं करता है। 3- मेष लग्न हो व लग्नेश तथा भाग्येश अपने-अपने स्थानों में हों या उनमें स्थान परिवर्तन योग बन रहा हो तो विदेश यात्रा होती है। 4- मेष लग्न हो तथा छठे, अष्टम या द्वादश स्थान में कहीं भी शनि हो या शनि की दृष्टि इन भावों पर हो तो विदेश यात्रा का योग होता है। 5- मेष लग्न में अष्टम भाव में बैठा शनि जातक को स्थान से दूर ले जाता है तथा बार-बार विदेश यात्राएं करवाता है। उदाहरण कुंडलियों में सैफ अली खान व अभिषेक बच्चन की कुंडलियों में यही स्थिति है। वृष लग्न 1- वृष लग्न में सूर्य तथा चंद्रमा द्वादश भाव में हो तो जातक विदेश यात्रा करता है तथा विदेश में ही काम-धंधा करता है। 2- वृष लग्न हो तथा शुक्र केंद्र में हो और नवमेश नवम भाव में हो तो विदेश यात्रा का योग होता है। 3- वृष लग्न हो तथा शनि अष्टम भाव में स्थित हो तो जातक बार-बार विदेश जाता है और विदेश यात्राएं होती रहती हैं। 4- वृष लग्न हो व लग्नेश तथा नवम भाव का स्वामी, मेष, कर्क, तुला या मकर राशि में हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 5- वृष लग्न में भाग्य स्थान या तृतीय स्थान में मंगल राहु के साथ स्थित हो तो जातक सैनिक के रूप में विदेश यात्राएं करता है। उदाहरण कुंडली में लता मंगेशकर की यही स्थिति है- 6- वृष लग्न में राहु लग्न, दशम या द्वादश में हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। लता मंगेशकर की कुंडली में राहु द्वादश भाव में स्थित है। गायन के सिलसिले में इन्होंने कई विदेश यात्राएं की हैं। मिथुन लग्न 1- मिथुन लग्न हो, मंगल व लग्नेश दसवें भाव में स्थित हो, चंद्रमा व लग्नेश शनि द्वारा दृष्ट न हांे तो ऐसे योग वाला जातक विदेश यात्रा करता है। 2- मिथुन लग्न हो और लग्नेश तथा नवमेश का स्थान परिवर्तन योग हो तो विदेश यात्रा योग बनता है। 3- मिथुन लग्न हो, शनि वक्री होकर लग्न में बैठा हो तो कई बार विदेश यात्राएं होती हैं। 4- मिथुन लग्न हो तथा लग्नेश व द्वादशेश में परस्पर स्थान परिवर्तन हो व अष्टम व नवम भाव बलवान हो तो विदेश यात्रा होती है। यदि लग्न में राहु अथवा केतु अनुकूल स्थिति में हों और नवम भाव तथा द्वादश स्थान पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। कर्क लग्न 1- कर्क लग्न हो और लग्नेश व चतुर्थेश बारहवें भाव में स्थित हो तो जातक विदेश यात्रा करता है। 2- कर्क लग्न में चंद्रमा नवम भाव में हो और नवमेश लग्न में स्थित हो तो विदेश यात्रा होती है। 3- यदि लग्नेश, भाग्येश और द्वादशेश कर्क, वृश्चिक व मीन राशियों में स्थित हो, तो विदेश यात्रा का योग होता है। 4- यदि लग्नेश नवम भाव में स्थित हो और चतुर्थेश छठे, आठवें या द्वादश भाव में हो तो विदेश यात्राएं होती हैं। 5- यदि लग्नेश बारहवें स्थान में हो या द्वादशेश लग्न में हो तो काफी संघर्ष के बाद विदेश यात्रा होती है। 6- कर्क लग्न में लग्नेश व द्वादशेश की किसी भी भाव में युति हो तो विदेश यात्राएं होती हैं। सिंह लग्न 1- सिंह लग्न में गुरु, चंद्र 3, 6, 8 या 12वें भाव में हो तो विदेश यात्रा के योग हैं। 2- लग्नेश जहां बैठा हो उससे द्वादश भाव में स्थित ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- सिंह लग्न में द्वादश भाव में कर्क का चंद्रमा स्थित हो तो विदेश यात्रा होती है। 4- सिंह लग्न हो तथा मंगल और चंद्रमा की युति द्वादश भाव में हो तो विदेश यात्रा होती है। 5- यदि सिंह लग्न में लग्न स्थान में सूर्य बैठा हो व नवम व द्वादश भाव शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। कन्या लग्न 1- यदि कन्या लग्न में सूर्य स्थित हो व नवम व द्वादश भाव शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो विदेश यात्रा योग बनता है। 2- यदि सूर्य अष्टम स्थान में स्थित हो तो जातक दूसरे देशों की यात्राएं करता है। 3- यदि लग्नेश, भाग्येश और द्वादशेश का परस्पर संबंध बने तो जातक को जीवन में विदेश यात्रा के कई अवसर मिलते हैं। 4- कन्या लग्न में बुध और शुक्र का स्थान परिवर्तन विदेश यात्रा का योग बनाता है। 5- द्वितीय भाव में शनि अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। तुला लग्न 1- तुला लग्न में नवमेश बुध उच्च का होकर बारहवें भाव में स्वराशि में स्थित हो, राहु से प्रभावित हो तो राहु की दशा अंतर्दशा में विदेश यात्रा होती है। 2- यदि चतुर्थेश व नवमेश का परस्पर संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- यदि नवमेश या दशमेश का परस्पर संबंध या युति या परस्पर दृष्टि संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 4- चतुर्थ स्थान में मंगल व दशम स्थान में गुरु उच्च का होकर स्थित हो। 5- यदि लग्न में शुक्र व सप्तम में चंद्रमा हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है।

कुंडली में धन योग

भारतीय सनातन ज्योतिष में प्राकृतिक कुण्डली की अवधारणा वास्तविक ग्रहों, पिण्डों पर नहीं वरन् उनके द्वारा चराचर जगत पर डाले जाने वाले विभिन्न प्रभावों के मानव जीवन पर आकलन के लिए कल्पित की गई है। ज्योतिष शास्त्र में धन की दृष्टि से शुभ तथा अशुभ भावों एवं ग्रहों के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को विस्तार से बताया गया है।
जन्म कुंडली के बारह भावों को मुखय रूप से दो भागों में विभक्त किया गया है- एक शुभ भाव, दूसरा अशुभ भाव। शुभ भावों में लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम, दशम एवं एकादश का समावेश है जबकि अशुभ भावों में तृतीय, षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश को सम्मिलित किया गया है। यह वर्गीकरण केवल आर्थिक दृष्टिकोण से है अपितु सुख, भाग्य आदि को भी दर्शाता है।
अतः लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम आदि भावों के स्वामी जब केंद्र अथवा त्रिकोण आदि शुभ स्थानों में स्थित होकर शुभ युक्त अथवा शुभ दृष्ट होंगे। तो जातक को धन, सुख, भाग्य आदि की प्राप्ति होगी अथवा इसका समर्थन होगा और इसके विपरीत जब तृतीय, षष्ठ, अष्ठम आदि भावों के स्वामी केंद्रादि में बलवान होंगे तो अभाव, दरिद्रता, रोग आदि की प्राप्ति अथवा वृद्धि होगी। इस प्रकार जब द्वितीय चतुर्थ, पंचम, नवम आदि भावों के स्वामी निर्बल होंगे। तो धन आदि का नाश होगा। यद्यपि एकादशेश को महर्षि पाराशर ने पापी माना है परंतु जहां तक लाभ (आय) आदि की प्राप्ति का प्रश्न हो, यह धन दायक ही सिद्ध होगा।
जन्मकुंडली/चंद्र कुंडली में धन लाभ आदि हेतु लग्न द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम एवं एकादश भावों की प्रधानता है।
विशेष धन योग-
जन्म व चंद्र कुंडली में यदि द्वितीय भाव का स्वामी एकादश भाव में और एकादशेश धन भाव में स्थित हो अथवा द्वितीयेश एवं एकादशेश एकत्र हों और भाग्येश (नवमेश) द्वारा दृष्ट हो तो जातक धनवान होगा।
शुक्र यदि द्वितीय भाव में तुला/वृष राशि में स्थित हो और एकादशेश अथवा धनेश द्वारा दृष्ट हो तो जातक धनवान होता है। शुक्र की द्वितीय भाव में स्थिति को बहुत महत्व दिया गया है। एक फारसी ज्योतिषी ने कहा कि-
''चश्मखोरा मालखाने, यदा मुस्तरी कर्कटे कमाने तदा ज्योतिषि क्या पढ़ेगा, क्या देखेगा, वो बालक बादशाह होगा''
''मालखाने चश्म खोरा, हरम खाने मुस्छरी जमीं खाने जमीं फर्जन, हिल हिलावे में मैधानी।
कहने का तात्पर्य यह है कि चश्मखोरा (शुक्र) द्वितीय (मालखाने) भाव में हो और बृहस्पति सप्तम भाव, चतुर्थेश चतुर्थ भाव में स्थित हो तो जातक राजा के समान सम्मान पाने वाला होता है।
पंचमेश एकादश भाव में एवं एकादशेश पंचम भाव में स्थित हो और नवमेश द्वारा दृष्ट हो तो जातक अत्यधिक धनवान एवं संपत्तिवान होता है।
यदि नवमेश शुक्र हो और लाभेश, धनेश बृहस्पति द्वारा दृष्ट हो तो जातक धनी होता है।
चंद्रमा एवं मंगल की केंद्र/त्रिकोण में युति हो तो लक्ष्मी योग होता है। लाभेश, नवमेश तथा द्वितीयेश (धनेश) इनमें से कोई एक भी ग्रह लग्न अथवा केंद्र में स्थित हो और बृहस्पति द्वितीय, पंचम अथवा एकादश भाव का स्वामी होकर उसी प्रकार केंद्र में हो तो जातक धनी एवं स्थायी साम्राजय का स्वामी होता है।
लग्न से नवमेश तथा दशमेश युति, दृष्टि अथवा व्यत्यय द्वारा परस्पर संबंधित हों और बलवान होकर एक दूसरे से केंद्र में हों तो जातक उत्तम दर्जे का धनी होता है।
जब हम भाग्येश पर विचार करते हैं तो ऐसे सर्वोत्तम शुभ ग्रह पर विचार करते हैं जो भाग्य का प्रतिनिधि होने से राज्य धन आदि की खान है। अतः ऐसे भाग्याधिपति का संबंध द्वितीयेश जो स्वयं धन भाव का स्वामी है एवं लग्नेश जो लाभ दिलवाता ही है, ऐसे ग्रह से होने से यदि प्रचुर मात्रा में धन/लाभ मिले तो अतिश्योक्ति नहीं। इस प्रकार पंचमेश भी भाग्येश की भांति फलदायक है क्योंकि उत्तर कालामृत के प्रसिद्ध भावात्-भावम के सिद्धांत के अनुसार पंचम भाव, नवम भाव से नवम होने के कारण भाग्येश का भी प्रतिनिधित्व करता है।
नवमेश तथा दशमेश ग्रह परस्पर युति दृष्टि अथवा व्यत्यय द्वारा संबंधित हों ओर बलवान होकर एक दूसरे से केंद्र में (1-4-7-10) स्थित हों और ये ग्रह यदि शुक्र और बृहस्पति हों तो जातक उत्तम दर्जे का धनी एवं राज्यधिकरी होता है। ऐसे योग में साधारण परिवार में जन्म लेकर भी जातक अत्यधिक संपति का मालिक होता है।

राहु-केतु इतने प्रभावी क्यूँ

राहु-केतु छाया ग्रह हैं। इनका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, इसीलिए ये जिस ग्रह के साथ बैठते हैं उसी के अनुसार अपना प्रभाव देने लगते हैं। लेकिन राहु-केतु की दशा-महादशा काफी प्रभावशाली मानी जाती है। यदि कुंडली में उनकी स्थिति ठीक हो तो जातक को अप्रत्याशित लाभ मिलता है और यदि ठीक न हो तो प्रतिकूल प्रभाव भी उतना ही तीव्र होता है। पढ़िए इस आलेख में राहु-केतु के स्वरूप एवं प्रभाव का विशद् वर्णन...
सार मंडल में सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर अपने-अपने अंडाकार पथ पर निरंतर परि क्रमा करते रहते हैं। सूर्य से बढ़ती दूरी के क्रम में ग्रह हैं- बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, गुरु और शनि। चूंकि हम पृथ्वी पर निवास करते हैं इसलिए पृथ्वी पर ग्रहों के प्रभावों के आकलन के लिए पृथ्वी के स्थान पर सूर्य को ज्योतिष शास्त्र में ग्रह माना गया है।
राहु-केतु के संबंध में पुराणों में कथा आती है कि दैत्यों और देवताओं के संयुक्त प्रयास से हुए सागर मंथन से निकले अमृत के वितरण के समय एक दैत्य अपना स्वरूप बदलकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया और उसने अमृत पान कर लिया। उसकी यह चालाकी जब सूर्य और चंद्र देव को पता चली तो वे बोल उठे कि यह दैत्य है और तब भगवान विष्णु ने चक्र से दैत्य का मस्तक काट दिया। अमृत पान कर लेने के कारण उस दैत्य के शरीर के दोनों खंड जीवित रहे और ऊपरी भाग सिर राहु तथा नीचे का भाग धड़ केतु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ये दोनों सूर्य और चंद्र से प्रबल शत्रुता रखने के कारण उन्हें समय-समय पर ग्रहण के रूप में ग्रसित करते रहते हैं।
राहु-केतु का सौर मंडल में अपना कोई भौतिक अस्तित्व और स्वरूप न होने से ये दोनों वस्तुतः छाया ग्रह हंै और इसलिए इनकी अपनी कोई राशि नहीं है। दैत्य कुल के होने के कारण इनका रंग काला, स्वभाव क्रूर, वर्ण म्लेच्छ एवं प्रवृत्ति तमोगुणी (पापी) मानी गई है। राहु-केतु की तुलना सांप से भी की गई है। राहु सांप का मुंह है और केतु उसकी पूंछ। यह सांप गहन अंधकार और धुएं का भी प्रतीक है।
राहु-केतु सदैव वक्री गति से भ्रमण करते हैं और सदैव एक दूसरे से 1800 पर रहते हैं। इनका एक राशि का भ्रमण लगभग 18 माह का तथा संपूणर्् ा राशि चक्र का 18 वर्षों का माना गया है। अगर कोई ग्रह राहु-केतु से अंशों में कम हो तो भ्रमण के दौरान उसे इन दोनों का सामना करना पड़ेगा जिसके फलस्वरूप उस ग्रह की शक्ति क्षीण हो जाएगी। राहु-केतु के अंशों से अधिक अंशों वाले किसी ग्रह को इन दोनों के बीच से होकर नहीं गुजरना पड़ेगा, और ये दोनों उत्प्रेरक के रूप में उस ग्रह के प्रभाव पर असर डालेंगे।
चूँकि राहु-केतु की अपनी कोई राशि नहीं है इसलिए ये जिस भाव और राशि में स्थित होते हैं तथा जिस भावेश के साथ बैठते हैं या संबंध रखते हैं, उसी से संबंधित फल देते हैं। राहु-केतु संबंधित ग्रह के प्रभाव में उत्प्रेरक का कार्य करते हैं अथर्¬ात यदि ये योगकारक ग्रह के साथ हों तो योगकारक और यदि मारक ग्रह के साथ हों तो मारक हो जाते हैं। चूंकि इन ग्रहों (राहु केतु) का स्वभाव अनिश्चयात्मक है इसलिए ये अप्रत्याशित रूप से संबंधित ग्रह के फल में वृद्धि करते हैं किंतु बाद में उसे छीन भी लेते हैं।
राहु में शनि तथा केतु में मंगल के समान गुण पाए जाते हैं। गुरु के समान राहु-केतु की उनकी स्थिति से पंचम, सप्तम और नवम भावों पर पूर्ण दृष्टि मानी गई है। पापी स्वभाव के होने के कारण ये जन्मकुंडली के केंद्र स्थान ( 1, 4, 7, 10) में उदासीन रहते हैं। लग्न तथा त्रिकोण (5, 9 ) स्थान में शुभ, द्वितीय और द्वादश में उदासीन (न शुभ न अशुभ) त्रिषडाय ( 3, 6, 11) में पापी और अष्टम भाव में महापापी होते हैं। ये यदि केंद्र (4, 7, 10) में स्थित होकर त्रिकोण (5, 9) के स्वामी से संबंध स्थापित करें या त्रिकोण (5, 9) में स्थित होकर केंद्र (4, 7, 10) के स्वामी से संबंध स्थापित करें या लग्न में स्थित होकर लग्न, त्रिकोण् ोश या केन्द्रेश से संबंध स्थापित करें तो राहु-केतु बहुत शुभ फल देते हैं। सूर्य और चंद्र राहु-केतु के प्रबल शत्रु हैं। इसलिए इनसे युक्त होने या संबंध स्थापित होने पर ये दोनों की शक्ति को क्षीण कर देते हैं। अष्टम भाव में यदि अष्टमेश या अन्य किसी पापी ग्रह के साथ राहु-केतु हांे तो परम अशुभ होकर मृत्यु या उसके जैसा कष्ट देते हैं।

वैवाहिक जीवन व दोष एवं निवारण

आजकल लोग अनुभव सिद्ध एवं व्यवहारिक उपाय चाहते हैं ताकि आम व्यक्ति, जन सामान्य एवं पीड़ित व्यक्ति लाभ उठा सके। ग्रहों की शांति के लिए सरल एवं अचूक उपाय प्रस्तुत हैं-
संसार में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी ग्रह से पीड़ित है। हर व्यक्ति धन-धान्य संपन्न भी नहीं है। ग्रह-पीड़ा के निवारण के लिए निर्धन एवं मध्यम वर्ग का व्यक्ति दुविधा में पड़ जाता है। यह वर्ग न तो लंबे-चौड़े यज्ञ, हवन या अनुष्ठान करवा सकता है, न ही हीरा, पन्ना, पुखराज जैसे महंगे रत्न धारण कर सकता है। ज्योतिष विद्या देव विद्या है। यदि ज्योतिषियों के पास जाएं तो वे प्रायः पुरातन ग्रंथों में से लिए गए उपाय एवं रत्न धारण करने की सलाह दे देते हैं। परंतु आजकल लोग अनुभव सिद्ध एवं व्यवहारिक उपाय चाहते हैं ताकि आम व्यक्ति, जन सामान्य एवं पीड़ित व्यक्ति लाभ उठा सकें।
ग्रहों की शांति के लिए सरल एवं अचूक उपाय प्रस्तुत हैं-
पाराशर एस्ट्रोलॉजी के अनुसार :
1. सूर्य ग्रहों का राजा है। इसलिए देवाधिदेव भगवान् विष्णु की अराधना से सूर्य देव प्रसन्न होते हैं। सूर्य को जल देना, गायत्री मंत्र का जप करना, रविवार का व्रत करना तथा रविवार को केवल मीठा भोजन करने से सूर्य देव प्रसन्न होते हैं। सूर्य का रत्न 'माणिक्य' धारण करना चाहिए परंतु यदि क्षमता न हो तो तांबे की अंगूठी में सूर्य देव का चिह्न बनवाकर दाहिने हाथ की अनामिका में धारण करें (रविवार के दिन) तथा साथ ही सूर्य के मंत्र का 108 बार जप करें।
ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः
2. ग्रहों में चंद्रमा को स्त्री स्वरूप माना है। भगवान शिव ने चंद्रमा को मस्तक पर धारण किया है। चंद्रमा के देवता भगवान शिव हैं। सोमवार के दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाएं व शिव चालीसा का पाठ करें। 16 सोमवार का व्रत करें तो चंद्रमा ग्रह द्वारा प्रदत्त कष्ट दूर होते हैं। रत्नों में मोती चांदी की अंगूठी में धारण कर सकते हैं। चंद्रमा के दान में दूध, चीनी, चावल, सफेद पुष्प, दही (सफेद वस्तुओं) का दान दिया जाता है तथा मंत्र जप भी कर सकते हैं।
ऊँ सों सोमाय नमः
3. जन्मकुंडली में मंगल यदि अशुभ हो तो मंगलवार का व्रत करें, हनुमान चालीसा, सुंदरकांड का पाठ करें। मूंगा रत्न धारण करें या तांबे की अंगूठी बनवाकर उसमें हनुमान जी का चित्र अंकितकर मंगलवार को धारण कर सकते हैं। स्त्रियों को हनुमान जी की पूजा करना वर्जित बताया गया है। मंगल के दान में गुड़, तांबा, लाल चंदन, लाल फूल, फल एवं लाल वस्त्र का दान दें।
ऊँ अं अंगारकाय नमः
4. ग्रहों में बुध युवराज है। बुध यदि अशुभ स्थिति में हो तो हरा वस्त्र न पहनें तथा भूलकर भी तोता न पालें। अन्यथा स्वास्थ्य खराब रह सकता है। बुध संबंधी दान में हरी मूंग, हरे फल, हरी सब्जी, हरा कपड़ा दान-दक्षिणा सहित दें व बीज मंत्र का जप करें।
ऊँ बुं बुधाय नमः
5. गुरु : गुरु का अर्थ ही महान है- सर्वाधिक अनुशासन, ईमानदार एवं कर्त्तव्यनिष्ठ। गुरु तो देव गुरु हैं। जिस जातक का गुरु निर्बल, वक्री, अस्त या पापी ग्रहों के साथ हो तो वह ब्रह्माजी की पूजा करें। केले के वृक्ष की पूजा एवं पीपल की पूजा करें। पीली वस्तुओं (बूंदी के लडडू, पीले वस्त्र, हल्दी, चने की दाल, पीले फल) आदि का दान दें। रत्नों में पुखराज सोने की अंगूठी में धारण कर सकते हैं व बृहस्पति के मंत्र का जप करते रहें।
ऊँ बृं बृहस्पतये नमः
6. शुक्र असुरों का गुरु, भोग-विलास, गृहस्थ एवं सुख का स्वामी है। शुक्र स्त्री जातक है तथा जन समाज का प्रतिनिधित्व करता है। जिन जातकों का शुक्र पीड़ित करता हो, उन्हें गाय को चारा, ज्वार खिलाना चाहिए एवं समाज सेवा करनी चाहिए। रत्नों में हीरा धारण करना चाहिए या बीज मंत्र का जप करें।
ऊँ शुं शुक्राय नमः
7. सूर्य पुत्र शनि, ग्रहों में न्यायाधीश है तथा न्याय सदैव कठोर ही होता है जिससे लोग शनि से भयभीत रहते हैं। शनि चाहे तो राजा को रंक तथा रंक को राजा बना देता है। शनि पीड़ा निवृत्ति हेतु महामृत्युंजय का जप, शिव आराधना करनी चाहिए। शनि के क्रोध से बचने के लिए काले उड़द, काले तिल, तेल एवं काले वस्त्र का दान दें। शनि के रत्न (नीलम) को धारण कर सकते हैं।
ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः
8. राहु की राक्षसी प्रवृत्ति है। इसे ड्रेगन्स हैड भी कहते हैं। राहु के दान में कंबल, लोहा, काले फूल, नारियल, कोयला एवं खोटे सिक्के आते हैं। नारियल को बहते जल में बहा देने से राहु शांत हो जाता है। राहु की महादशा या अंतर्दशा में राहु के मंत्र का जप करते रहें। गोमेद रत्न धारण करें।
ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः।
9. केतु राक्षसी मनोवृत्ति वाले राहु का निम्न भाग है। राहु शनि के साथ समानता रखता है एवं केतु मंगल के साथ। इसके आराध्य देव गणपति जी हैं। केतु के उपाय के लिए काले कुत्ते को शनिवार के दिन खाना खिलाना चाहिए। किसी मंदिर या धार्मिक स्थान में कंबल दान दें। रत्नों में लहसुनिया धारण करें।
ऊँ स्त्रां स्त्रीं स्त्रौं सः केतवे नमः
दान मुहूर्त
1. सूर्य का दान : ज्ञानी पंडित को रविवार दोपहर के समय।
2. चंद्र का दान : सोमवार के दिन, पूर्णमासी या एकादशी को नवयौवना स्त्री को देना चाहिए।
3. मंगल का दान : क्षत्रिय नवयुवक को दोपहर के समय।
4. बुध का दान : किसी कन्या को बुधवार शाम के समय।
5. गुरु का दान : ब्राह्मण, ज्योतिषी को प्रातः काल।
6. शुक्र का दान : सायंकाल के समय नवयुवती को।
7. शनि का दान : शनिवार को गरीब, अपाहिज को शाम के समय।
8. राहु का दान : कोढ़ी को शाम के समय।
9. केतु का दान : साधु को देना चाहिए।
नवग्रह शांति के अनुभवसिद्ध सरल उपाय : सूर्य ग्रह को प्रसन्न करने के लिए रविवार को प्रातः सूर्य को अर्घ्य दें तथा जल में लाल चंदन घिसा हुआ, गुड़ एवं सफेद पुष्प भी डाल लें तथा साथ ही सूर्य मंत्र का जप करते हुए 7 बार परिक्रमा भी कर लें।
चंद्र ग्रह के लिए हमेशा बुजुर्ग औरतों का सम्मान करें व उनके पैर छूकर आशीर्वाद लें। चंद्रमा पानी का कारक है। इसलिए कुएं, तालाब, नदी में या उसके आसपास गंदगी को न फैलाएं। सोमवार के दिन चावल व दूध का दान करते रहें।
मंगल के लिए हनुमान जी को लाल चोला चढ़ाएं, मंगलवार के दिन सिंदूर एवं चमेली का तेल हनुमान जी को अर्पण करें। इससे हनुमान जी प्रसन्न होते हैं। यह प्रयोग केवल पुरुष ही करें।
बुध ग्रह के लिए तांबे का एक सिक्का लेकर उसमें छेद करके बहते पानी में बहा दें। बुध को अपने अनुकूल करने के लिए बहन, बेटी व बुआ को इज्जत दें व उनका आशीर्वाद लेते रहें। शुभ कार्य (मकान मुर्हूत) (शादी-विवाह) के समय बहन व बेटी को कुछ न कुछ अवश्य दें व उनका आशीर्वाद लें। कभी-कभी (नपुंसक) का आशीर्वाद भी लेना चाहिए।
बृहस्पति ग्रह के लिए बड़ों का दोनों पांव छूकर आशीर्वाद लें। पीपल के वृक्ष के पास कभी गंदगी न फैलाएं व जब भी कभी किसी मंदिर, धर्म स्थान के सामने से गुजरें तो सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर जाएं। बृहस्पति के बीज मंत्र का जप करते रहें।
शुक्र ग्रह यदि अच्छा नहीं है तो पत्नी व पति को आपसी सहमति से ही कार्य करना चाहिए। व जब घर बनाएं तो वहां कच्ची जमीन अवश्य रखें तथा पौधे लगाकर रखें। कच्ची जगह शुक्र का प्रतीक है। जिस घर में कच्ची जगह नहीं होती वहां घर में स्त्रियां खुश नहीं रह सकतीं। यदि कच्ची जगह न हो तो घर में गमले अवश्य रखें जिसमें फूलों वाले पौधे हों या हरे पौधे हों। दूध वाले पौधे या कांटेदार पौधे घर में न रखें। इससे घर की महिलाओं को सेहत संबंधी परेशानी हो सकती है।
शनि ग्रह से पीड़ित व्यक्ति को लंगड़े व्यक्ति की सेवा करनी चाहिए। चूंकि शनि देव लंगड़े हैं तो लंगड़े, अपाहिज भिखारी को खाना खिलाने से वे अति प्रसन्न होते हैं।
राहु ग्रह से पीड़ित को कौड़ियां दान करें। रात को सिरहाने कुछ मूलियां रखकर सुबह उनका दान कर दें। कभी-कभी सफाई कर्मचारी को भी चाय के लिए पैसे देते रहें। केतु ग्रह की शांति के लिए गणेश चतुर्थी की पूजा करनी चाहिए। कुत्ता पालना या कुत्ते की सेवा करनी चाहिए (रोटी खिलाना)।
केतु ग्रह के लिए काले-सफेद कंबल का दान करना भी फायदेमंद है। केतु-ग्रह के लिए पत्नी के भाई (साले), बेटी के पुत्र (दोहते) व बेटी के पति (दामाद) की सेवा अवश्य करें। यहां सेवा का मतलब है जब भी ये घर आएं तो इन्हें इज्जत दें।

भाग्य को प्रबल करने के उपाय

भाग्य को मजबूत करने के उपाय
यदि बुध भाग्येश होकर अच्छा फल देने में असमर्थ हो तो निम्न उपाय करने चाहिए।
1. तांबे का कड़ा हाथ में धारण करें।
2. गणेश जी की उपासना करें।
3. गाय को हरा चारा खिलाएं।
यदि शुक्र भाग्येश होकर फलदायक न हो तो निम्न उपाय करने चाहिए।
1. स्फटिक की माला से क्क शुं शुक्राय नमः की एक माला का जप करें।
2. शुक्रवार को चावल का दान करें।
3. लक्ष्मी जी की उपासना करें।
भाग्येश चंद्र को अनुकूल करने के लिए निम्नलिखित उपाय करें।
1.ऊँ श्रां: श्रीं: श्रौं: सः चंद्रमसे नमः का जप करें।
2. चांदी के गिलास में जल पिएं।
3. शिव जी की उपासना करें।
यदि गुरु के कारण भाग्य साथ न दे रहा हो तो निम्नलिखित उपाय करें।
1. विष्णु जी की आराधना करें।
2. गाय को आलू में हल्दी लगा कर खिलाएं।
3. गुरुवार को पीली वस्तुओं का दान करें।
भाग्येश शनि को मजबूत करने के लिए निम्न उपाय करें।
1. काले वस्त्रों तथा नीले वस्त्रों को यथा संभव न पहनें।
2. शनिवार को पीपल के वृक्ष के नीचे दिया जलाएं।
3. शनिवार को हनुमान चालीसा का पाठ करें।
भाग्येश मंगल को अनुकूल करने के लिए निम्न उपाय करें।
1. मजदूरों को मंगलवार को मिठाई खिलाएं।
2. लाल मसूर का दान करें।
3. मंगलवार को सुंदर कांड का पाठ करें।
भाग्येश सूर्य को प्रबल करने के लिए निम्न उपाय करें।
1. गायत्री मंत्र का जप करें।
2. सूर्य को नियमित जल दें।
3. ''ऊँ खोल्काय नमः'' मंत्र का जप करें।

राहू कि महादशा में नवग्रहों कि अंतर्दशाओं का फल एवं उपाय

राहु मूलतः छाया ग्रह है, फिर भी उसे एक पूर्ण ग्रह के समान ही माना जाता है। यह आद्र्रा, स्वाति एवं शतभिषा नक्षत्र का स्वामी है।
राहु की दृष्टि कुंडली के पंचम, सप्तम और नवम भाव पर पड़ती है। जिन भावों पर राहु की दृष्टि का प्रभाव पड़ता है, वे राहु की महादशा में अवश्य प्रभावित होते हैं।
राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है। राहु में राहु की अंतर्दशा का काल 2 वर्ष 8 माह और 12 दिन का होता है। इस अवधि में राहु से प्रभावित जातक को अपमान और बदनामी का सामना करना पड़ सकता है। विष और जल के कारण पीड़ा हो सकती है। विषाक्त भोजन, से स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। इसके अतिरिक्त अपच, सर्पदंश, परस्त्री या पर पुरुष गमन की आशंका भी इस अवधि में बनी रहती है। अशुभ राहु की इस अवधि में जातक के किसी प्रिय से वियोग, समाज में अपयश, निंदा आदि की संभावना भी रहती है। किसी दुष्ट व्यक्ति के कारण उस परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है।
उपाय:
भगवान शिव के रौद्र अवतार भगवान भैरव के मंदिर में रविवार को शराब चढ़ाएं और तेल का दीपक जलाएं।
शराब का सेवन कतई न करें।
लावारिस शव के दाह-संस्कार के लिए शमशान में लकड़िया दान करें।
अप्रिय वचनों का प्रयोग न करें।
राहु में बृहस्पति:
राहु की महादशा में गुरु की अंतर्दशा की यह अवधि दो वर्ष चार माह और 24 दिन की होती है।
राक्षस प्रवृत्ति के ग्रह राहु और देवताओं के गुरु बृहस्पति का यह संयोग सुखदायी होता है। जातक के मन में श्रेष्ठ विचारों का संचार होता है और उसका शरीर स्वस्थ रहता है। धार्मिक कार्यों में उसका मन लगता है। यदि कुंडली में गुरु अशुभ प्रभाव में हो, राहु के साथ या उसकी दृष्टि में हो तो उक्त फल का अभाव रहता है। ऐसी स्थिति में निम्नांकित उपाय करने चाहिए।
किसी अपंग छात्र की पढ़ाई या इलाज में सहायता करें।
शैक्षणिक संस्था के शौचालयों की सफाई की व्यवस्था कराएं।
शिव मंदिर में नित्य झाड़ू लगाएं।
पीले रंग के फूलों से शिव पूजन करें।
राहु में शनि:
राहु में शनि की अंतदर्शा का काल 2 वर्ष 10 माह और 6 दिन का होता है। इस अवधि में परिवार में कलह की स्थिति बनती है। तलाक भाई, बहन और संतान से अनबन, नौकरी में या अधीनस्थ नौकर से संकट की संभावना रहती है। शरीर में अचानक चोट या दुर्घटना के दुर्योग, कुसंगति आदि की संभावना भी रहती है। साथ ही वात और पित्त जनित रोग भी हो सकता है।
दो अशुभ ग्रहों की दशा-अंतर्दशा कष्ट कारक हो सकती है। इससे बचने के लिए निम्न उपाय अवश्य करने चाहिए।
भगवान शिव की शमी के पत्रों से पूजा और शिव सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए।
महामृत्युंजय मंत्र के जप स्वयं, अथवा किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण से कराएं। जप के पश्चात् दशांश हवन कराएं जिसमें जायफल की आहुतियां अवश्य दें।
नवचंडी का पूर्ण अनुष्ठान करते हुए पाठ एवं हवन कराएं।
काले तिल से शिव का पूजन करें।
राहु में बुध:
राहु की महादशा में बुध की अंतर्दशा की अवधि 2 वर्ष 3 माह और 6 दिन की होती है। इस समय धन और पुत्र की प्राप्ति के योग बनते हैं। राहु और बुध की मित्रता के कारण मित्रों का सहयोग प्राप्त होता है। साथ ही कार्य कौशल और चतुराई में वृद्धि होती है। व्यापार का विस्तार होता है और मान, सम्मान यश और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
उपाय:
भगवान गणेश को शतनाम सहित दूर्वाकुंर चढ़ाते रहें।
हाथी को हरे पत्ते, नारियल गोले या गुड़ खिलाएं।
कोढ़ी, रोगी और अपंग को खाना खिलाएं।
पक्षी को हरी मूंग खिलाएं।
राहु में केतु:
राहु की महादशा में केतु की यह अवधि शुभ फल नहीं देती है। एक वर्ष और 18 दिन की इस अवधि के दौरान जातक को सिर में रोग, ज्वर, शत्रुओं से परेशानी, शस्त्रों से घात, अग्नि से हानि, शारीरिक पीड़ा आदि का सामना करना पड़ता है। रिश्तेदारों और मित्रों से परेशानियां व परिवार में क्लेश भी हो सकता है।
उपाय:
भैरवजी के मंदिर में ध्वजा चढ़ाएं। कुत्तों को रोटी, ब्रेड या बिस्कुट खिलाएं।
कौओं को खीर-पूरी खिलाएं।
घर या मंदिर में गुग्गुल का धूप करें।
राहु में शुक्र:
राहु की महादशा में शुक्र की प्रत्यंतर दशा पूरे तीन वर्ष चलती है। इस अवधि में शुभ स्थिति में दाम्पत्य जीवन में सुख मिलता है। वाहन और भूमि की प्राप्ति तथा भोग-विलास के योग बनते हैं। यदि शुक्र और राहु शुभ नहीं हों तो शीत संबंधित रोग, बदनामी और विरोध का सामना करना पड़ सकता है। इस अवधि में अनुकूलता और शुभत्व की प्राप्ति के लिए निम्न उपाय करें-
शिव मंदिर में स्थित नंदी की पूजा करें और वस्त्र आदि दें।
एकाक्षी श्रीफल की स्थापना कर पूजा करें।
स्फटिक की माला धारण करें।
राहु में सूर्य:
राहु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा की अवधि 10 माह और 24 दिन की होती है, जो अन्य ग्रहों की तुलना में सर्वाधिक कम है। इस अवधि में शत्रुओं से संकट, शस्त्र से घात, अग्नि और विष से हानि, आंखों में रोग, राज्य या शासन से भय, परिवार में कलह आदि हो सकते हैं। सामान्यतः यह समय अशुभ प्रभाव देने वाला ही होता है।
उपाय:
इस अवधि में सूर्य को अघ्र्य दें। उनका पूजन एवं उनके मंत्र का नित्य जप करें।
हरिवंश पुराण का पाठ या श्रवण करते रहें।
चाक्षुषोपनिषद् का पाठ करें।
राहु में चंद्र:
एक वर्ष 6 माह की इस अवधि में जातक को असीम मानसिक कष्ट होता है। इस अवधि में जीवन साथी से अनबन, तलाक या मृत्यु भी हो सकती है। लोगों से मतांतर, आकस्मिक संकट एवं जल जनित पीड़ा की संभावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त पशु या कृषि की हानि, धन का नाश, संतान को कष्ट और मृत्युतुल्य पीड़ा भी हो सकती है।
उपाय:
राहु और चंद्र की दशा में उत्पन्न होने वाली विषम परिस्थितियों से बचने के लिए माता की सेवा करें।
माता की उम्र वाली महिलाओं का सम्मान और सेवा करें।
प्रत्येक सोमवार को भगवान शिव का शुद्ध दूध से अभिषेक करें।
चांदी की प्रतिमा या कोई अन्य वस्तु मौसी, बुआ या बड़ी बहन को भेंट करें।
राहु में मंगल:
राहु की महादशा में मंगल की अंतर्दशा का यह समय एक वर्ष 18 दिन का होता है। इस काल में शासन व अग्नि से भय, चोरी, अस्त्र शस्त्र से चोट, शारीरिक पीड़ा, गंभीर रोग, नेत्रों को पीड़ा आदि हो सकते है। इस अवधि में पद एवं स्थान परिवर्तन तथा भाई को या भाई से पीड़ा की संभावना भी रहती है।

शनि दोष शांति निवारण

यदि आपको किसी भी कारण शनि के शुभ फल प्राप्त नहीं हो रहे हैं। फिर वह चाहे जन्मकुंडली में शनि ग्रह के अशुभ होने, शनि साढ़ेसाती या शनि ढैय्या के कारण है तो प्रस्तुख लेख में दिये गये सरल उपाय आपके लिए लाभकारी सिद्ध होंगे।
भारतीय समाज में आमतौर ऐसा माना जाता है कि शनि अनिष्टकारक, अशुभ और दुःख प्रदाता है, पर वास्तव मंे ऐसा नहीं है। मानव जीवन में शनि के सकारात्मक प्रभाव भी बहुत है। शनि संतुलन एवं न्याय के ग्रह हैं। यह सूर्य के पुत्र माने गये हैं। यह नीले रंग के ग्रह हैं, जिससे नीले रंग की किरणें पृथ्वी पर निरंतर पड़ती रहती हैं। यह सबसे धीमी गति से चलने वाला ग्रह है। यह बड़ा है, इसलिए यह एक राशि का भ्रमण करने में अढाई वर्ष तथा 12 राशियों का भ्रमण करने पर लगभग 30 वर्ष का समय लगाता है।
सूर्य पुत्र शनि अपने पिता सूर्य से अत्यधिक दूरी के कारण प्रकाशहीन है। इसलिए इसे अंधकारमयी, विद्याहीन, भावहीन, उत्साह हीन, नीच, निर्दयी, अभावग्रस्त माना जाता है। फिर भी विशेष परिस्थितियों में यह अर्थ, धर्म, कर्म और न्याय का प्रतीक है। इसके अलावा शनि ही सुख-संपत्ति, वैभव और मोक्ष भी देते हैं। प्रायः शनि पापी व्यक्तियों के लिए दुख और कष्टकारक होता है। मगर ईमानदारों के लिए यह यश, धन, पद और सम्मान का ग्रह है। शनि की दशा आने पर जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते हैं। शनि प्रायः किसी को क्षति नहीं पहुंचाता, लेकिन अति की स्थिति में अनेक ऐसे सरल टोटके हैं, जिनका प्रयोग कर हम लाभ उठा सकते हैं। साथ ही इस आलेख में लाल किताब विशेषज्ञ अंकुर नागौरी द्वारा शनि के 12 भावों का फलादेश व नियम, परहेज व उपाय भी दिये गये हैं, जिनका प्रयोग कर हम शनि शांति कर सकते हैं और जीवन में दुख दूर कर कामयाबी की ओर बढ़ सकते हैं।
शनिवार को काले रंग की चिड़िया खरीदकर उसे दोनों हाथों से आसमान में उड़ा दें। आपकी दुख-तकलीफें दूर हो जायेंगी।
शनिवार के दिन लोहे का त्रिशूल महाकाल शिव, महाकाल भैरव या महाकाली मंदिर में अर्पित करें।
शनि दोष के कारण विवाह में विलंब हो रहा हो, तो शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार को 250 ग्राम काली राई, नये काले कपड़े में बांधकर पीपल के पेड़ की जड़ में रख आयें और शीघ्र विवाह की प्रार्थना करें।
--आर्थिक वृद्धि के लिए आप सदैव शनिवार के दिन गेंहू पिसवाएं और गेहूं में कुछ काले चने भी मिला दें।
--किसी भी शुक्ल पक्ष के पहले शनि को 10 बादाम लेकर हनुमान मंदिर में जायें। 5 बादाम वहां रख दें और 5 बादाम घर लाकर किसी लाल वस्त्र में बांधकर धन स्थान पर रख दें।
--शनिवार के दिन बंदरों को काले चने, गुड़, केला खिलाएं।
--सरसों के तेल का छाया पत्र दान करें।
--बहते पानी में नारियल विसर्जित करें।
--शनिवार को काले उड़द पीसकर उसके आटे की गोलियां बनाकर मछलियों को खिलाएं।
--प्रत्येक शनिवार को आक के पौधे पर 7 लोहे की कीलें चढ़ाएं।
--काले घोड़े की नाल या नाव की कील से बनी लोहे की अंगूठी मध्यमा उंगली में शनिवार को सूर्यस्त के समय पहनें।
--लगातार पांच शनिवार शमशान घाट में लकड़ी का दान करें।
--काले कुत्ते को दूध पिलाएं।
--शनिवार की रात को सरसों का तेल हाथ और पैरों के नाखूनों पर लगाएं।
--चीटिंयों को 7 शनिवार काले तिल, आटा, शक्कर मिलाकर खिलाएं।
--शनिवार की शाम पीपल के पेड़ के नीचे तिल या सरसों के तेल का दीपक जलाएं।
--शनि की ढैया से ग्रस्ति व्यक्ति को हनुमान चालीसा का सुबह-शाम जप करना चाहिए।
--शनि पीड़ा से ग्रस्त व्यक्ति को रात्रि के समय दूध का सेवन नहीं करना चाहिए।
--काला हकीक सुनशान जगह में शनिवार के दिन दबाएं।
--शनिवार के कारण कर्ज से मुक्ति ना हो रही हो, तो काले गुलाब जामुन अंधों को खिलाएं।
--शनिवार की संध्या को काले कुत्ते को चुपड़ी हुई रोटी खिलाएं। यदि काला कुत्ते रोटी खा ले तो अवश्य शनि ग्रह द्वारा मिल रही पीड़ा शांति होती है।
--काले कुत्ते को द्वार पर नहीं लाना चाहिए। अपितु पास जाकर सड़क पर ही रोटी खिलानी चाहिए।
--शनि शांति के लिए ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः या ऊँ शनैश्चराय नमः का जप करें।
--शनि शांति के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप करें।
--सात मुखी रुद्राक्ष भी शनि शांति के लिए धारण कर सकते हैं।
--नीलम रत्न धारण करें अथवा नीली या लाजवर्त, पंच धातु में धारण करें।

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Wednesday, 13 January 2016

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Tuesday, 12 January 2016

Makarsankranti in 2016



Makar Sankranthi, or Sankranti is a popular Indian festival. It is celebrated in many parts of the country and also in some other parts of the world with great zeal and enthusiasm. It is a harvest festival which is basically celebrated in the Hindu communities. In Indian, the states of Bihar, Bengal, Punjab, Maharashtra, Gujarat, Rajasthan and Tamil Nadu celebrate the festival with great fervor and gusto.In Tamil Nadu the festival is known as Pongal, in Assam as Bhogali Bihu, in Punjab, as Lohiri, in Gujarat and Rajasthan, as Uttararayan. Outside India, the festival is given due importance in the countries like Nepal where it is celebrated as Maghe Sakrati or Maghi, in Thailand where it is named as Songkran and in Myanmar where it is called Thingyan. The festival of Makar Sankranti marks the day when the sun begins its northward journey and enters the sign of Makar (the Capricorn) from the Tropic of Cancer. It is like the movement of sun from Dakshinayana (south) to Uttarayana (north) hemisphere. It is the one of the few chosen Indian Hindu festivals which has a fixed date. This day falls on the 14th of January every year according to the Hindu Solar Calendar. The festival is considered to be a day from where onwards all the auspicious ritualistic ceremonies can be solemnized in any Hindu family. This is thus considered as the holy phase of transition. Shankranti means transmigration of Sun from one zodiac in Indian astrology to the other. As per Hindu customary beliefs, there are 12 such Sankrantis in all. But the festival is celebrated only on the occasion of Makara Sankaranti i.e. the transition of the Sun from Sagittarius ('Dhanu' Rashi ) to Capricorn('Makara' Rasi). In this case, the zodiacs are measured sidereally, and not tropically, in order to account the Earth's precession. That is why the festival falls about 21 days after the tropical winter solstice which lies between December 20 and 23rd. Here the sun marks the starting of Uttarayana, which means northern progress of Sun. Makar Sankranti holds special significance as on this day the solar calendar measures the day and night to be of equal durations on this day. From this day onwards, the days become longer and warmer. It is the day when people of northern hemisphere, the northward path of the sun marks the period when the sun is getting closer to them. The importance of the day was signified by the Aryans who started celebrating this day as an auspicious day for festivities. The reason behind this may be the fact that it marked the onset of harvest season. Even in the epic of Mahabharata, an episode mentions how people in that era also considered the day as auspicious. Bhishma Pitamah even after being wounded in the Mahabharata war lingered on till Uttarayan set in, so that he can attain heavenly abode in auspiciuous times. It is said that death on this day to brings Moksha or salvation.

Meteorological Observations

Investigations into atmosphere is a special item of public interest in the branch of Samhita. The results that obtained helps m forecast various rains, hurricanes etc., The nature and fluctuations of the atmosphere are being notified by the meteorological centres to the general public. It is an established fact that sufficient research orientation has not been done on this phenomena. Research over weather and climate for the betterment of human life lies with the noble and divine science of Astrology only. The Brihat Samhita is a clear reference to know about Rainfall, Instant rain fall, Moons conjunction with Swathi, and with Aashada etc., According to Brihat Samhita “Annam jagatah praanaah praavrutkaalasya chaannamaayattam, yasmaadataha Pareeksityaha praavrutkaalaha pratyatnena” It means that as food forms the very life of living being and as food is dependent on the monsoon, it should be investigated carefully. Some authorities like Siddhasena , and Garga states that the Symptoms of pregnancy are to be detected when the moon passes through the asterism Poorvashadha beginning from the first day of the bright fortnight of Maargasisha month. “ Yannakshatra Mupagatee Garbhaschandre bhavetsa Chandra Vasaat, Panchanavate Dinasate Tatraiva Prasavaamaataati.” That is to say the foetus formed during the moon’s stay in a particular constellation will be released 195 days thereafter, when the moon passes through the same constellation in accordance with the laws of her revolution. The fetus formed in the bright fortnight will be released in the dark fortnight and vice versa and those that are formed at dawn in the evening and vice versa. In regard to the pregnancy the sastras says that “Maajema Sraavanam VindhyaannabhasyamPhalguneenatu Chitreenaasvayujam Paahurvairaishaakheen Tu Kaartikam Sukiapakshena Krushantu Knsshnapakshena Chetaram Raatrahnoscha Viparyaasam Kaaryam Kaale Vinishayam”. That means the foetus of clouds formed in the bright fortnight of the maargasirsha and pausha months are of like consequence. Those formed in the dark helm of pausha would be delivered in the bright half of Sravana. Similarly those that are formed in the light half of Magha would yield rain the dark half of Sravana. For clouds formed in the dark half of Magha, the period of delivery is the light half of Bhadrapada. So likewise those formed in the light half of Phalguna would have their delivery in the dark half of Bhadrapada. Those formed in the dark half of phalguna would come out in the bright fortnight of Aasvina. The clouds formed in the light and dark halves of Chaitra would be delivered in the dark half of Asvini and the bright half of Kaartika respectively. Clouds formed in the East will pour down rain in the west and vice versa. The same rule holds good in the case of the other pairs of quarters also. Likewise m the same manner the winds too, are reverse at the two periods. Clouds formed in the north win pour down m the south and vice versa. Similarly the other quarters i.e., north-east, south-west, north-west and south-east. As such if the wind flows towards the east at the time of formation of the foetus, then it will flow towards the west at the time of delivery.