Monday, 15 February 2016

षट्कर्म साधन

एक मित्र को विदेष में सरकार से कुछ समस्या हो गई। वहां का सरकारी कर्मचारी उनके पक्ष में हो जाए उनके लिए दिल्ली में बगुलामुखी अनुश्ठान करवाया। जैसे ही अनुश्ठान पूर्ण हुआ, वह कर्मचारी मित्र के पक्ष में बोलने लगा और कुछ ही दिनों में समस्या पूर्ण रूप से हल हो गई। एक और मित्र के रिष्तेदार को गंभीर स्वास्थ्य समस्या हो गई, उनके लिए महामृत्युंजय अनुश्ठान कराया और उनका असाध्य रोग छूमंतर हो गया। इस प्रकार की अनेक घटनाएं हैं जबकि अनुश्ठान का फल आश्चर्यजनक रूप में प्राप्त हुआ है। भारतीय वेद शास्त्रों में अनेक प्रकार के अनुष्ठान आदि बताए गए हैं, किसी को अपनी ओर आकर्शित करने से लेकर उसे स्तंभित करने या उसे अपने पक्ष में कर लेने तक। सभी मंत्र-तंत्र-यंत्र में षट्कर्मों की साधना बताई गई है।
यथा-
1.शांति कर्म- मंगल प्रदायक, कल्याणकारी कोई भी कार्य जैसे - शरीर व मन के रोगों की शांति, क्लेश की शांति, उपद्रवों की समाप्ति, ग्रह-बाधा के कुप्रभावों की समाप्ति, आपत्ति व कष्ट निवारण, पाप विमोचन, ऋद्धि, सिद्धि या सुख-शांति के उपाय व दरिद्रता निवारण इत्यादि की साधना को शांति कर्म कहते हैं।
2.मोहन,आकर्षण,वाशिकर्ण- किसी को अपनी तरफ मोहित कर लेना मोहन कर्म है। किसी को आकृष्ट कर अनुकूल बनाकर अपना काम करवा लेना आकर्षण कहा गया है। किसी को शुभ या अशुभ कार्य करने के लिए प्रयोजन पूर्वक वशीभूत कर देना वशीकरण है।
3.स्तंभन कर्म-किसी की चाल-ढाल को बंद कर देना। सजीव या निर्जीव को जहां का तहां रोक देना, बंधन में डाल देना, निष्क्रिय या स्थिर कर देना, शत्रु के अस्त्र-शस्त्र को रोक देना, अग्नि के तेज को रोक देना, विरोधी की जीभ, मुख आदि को रोक देना इत्यादि स्तम्भन कर्म कहलाता है।
4.उच्चाटन कर्म- किसी के मन में शंका पैदा कर भयभीत या भ्रमित बनाकर भगा देना या स्थानांतरित कर देना उच्चाटन होता है। साध्य व्यक्ति मारा-मारा फिरता है। पागल की तरह हो जाता है। घर-स्थान छोड़कर भाग जाता है।
5.विद्वेषण कर्म-किसी व्यक्ति को किसी व्यक्ति से अलग करना, किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच कलह-क्लेश उत्पन्न करवाकर एक दूसरे का शत्रु बना देना विद्वेषण कर्म कहलाता है।
6.मारण कर्म- किसी का प्राण हरण कर उसका जीवन समाप्त कर देना या करवा देना। मरण तुल्य कष्ट देना मारण कर्म कहलाता है।
प्रथम तिन कर्म समान्यत: अपने कष्ट निवारण हेतु किए जाते हैं। इनमें दूसरे के प्रति कोई विद्वेषण की भावना नहीं होती। लेकिन आखिरी तीन कर्म विद्वेषण की भावना से ही किए जाते हैं अतः उनका प्रयोग सर्वदा वर्जित ही है। उपरोक्त सभी साधनाएं अनुष्ठान रूप में किसी ब्राह्मण द्वारा कराई जानी चाहिए। इन प्रयोगों में आवष्यक है कि अनुश्ठान करने वाला ब्राह्मण सदाचारी रहे। जातक के प्रति उसकी सद्भावना हो। सभी साधनाएं निश्चित मात्रा में (प्रायः सवा लाख) मंत्र जप द्वारा उनके यंत्रों को प्रतिष्ठित कर की जाती है। तदुपरांत हवन, मार्जन व तर्पण कर अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है। प्रतिष्ठित यंत्र को कार्य पूर्ण होने तक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है। कार्य सिद्ध होने के बाद यंत्र को विसर्जित कर दिया जाता है।
विभिन्न कार्यों के लिए कौन सा मन्त्र एवं यंत्र उपयोग में लाना चाहिए
कार्य का आरम्भ करने हेतु- ऊँ गं गणपतये नमः।। यंत्र - गणेश यंत्र
सम्पूर्ण विद्याओं की प्राप्ति हेतु- विद्याः समस्तास्तव देवि ! भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु। त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः।। यंत्र - सरस्वती यंत्र
रोग नाश के लिए महामृत्युंजय मन्त्र: सर्वबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः।। यंत्र - बाधामुक्ति यंत्र ऊँ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।। यंत्र - महामृत्युंजय यंत्र ऊँ
आराध्य रोग नाश हेतु -हौं जूं सः ऊँ भूर्भुवः स्वः ऊँ तत्सवितुर्वरेण्यं त्रयम्बकं यजामहे भर्गो देवस्य धीमहि सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। धियो यो नः प्रचोदयात् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।। ऊँ स्वः भुवः भूः ऊँ सः जूं हौं ऊँ।। यंत्र - महामृत्युंजय यंत्र
पाप नाश/पितरों की शांति हेतु गायत्री मन्त्र - ऊँ भूर्भवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।। यंत्र - गायत्री यंत्र
बंगलामुखी मन्त्र- ऊँ हिम् बगुलामुखी सर्वदुष्टानां वाचम् मुखं पदम् स्तम्भय जीह्नाम् कीलय बुद्धिम् विनाशय हिम् ऊँ स्वाहा। यंत्र - बगलामुखी यंत्र
विशेष कष्ट निवारण हेतु दुर्गा मंत्र- ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं दुं उत्तिष्ठ पुरुषि किं स्वपिशि भयं मे समुपस्थितम्। यदि शक्यं अशक्यं वा तन्ये भगवति शमय स्वाहा।। यंत्र - वन दुर्गा यंत्र
रक्षा पाने के लिए: शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टा स्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च।। यंत्र - राम रक्षा यंत्र
समस्या निदान हेतु- शरणागतदीनार्तंपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि, नारायणि नमोस्तु ते।। यंत्र - दुर्गा बीसा यंत्र
भय निवारण हेतु -सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि ! दुर्गे देवि नमोस्तु ते।। यंत्र - काली यंत्र
बटुक भैरव मन्त्र: ऊँ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं। यंत्र - बटुक भैरव यंत्र
आकर्षण के लिए- ऊँ क्लीं ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।। यंत्र - आकर्षण यंत्र
वशीकरण के लिए- महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत्। ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।। यंत्र - वशीकरण यंत्र
कालसर्प शांति हेतु- ऊँ क्रौं नमो अस्तु सर्पेभ्यो कालसर्प शांति कुरु-कुरु स्वाहा। यंत्र - कालसर्प यंत्र
शनि दोष निवारण हेतु- नीला जन समाभासं रविपुत्रां यमाग्रजम्। छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।। यंत्र - शनि यंत्र
धन प्राप्ति के लिए- श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ऊँ महालक्ष्म्यै नमः।। यंत्र - श्रीयंत्र:
वर प्राप्ति के लिए- कात्यायनि महाभाये महायोगिन्य धीश्वरि! नन्दगोपसुतं देवं पतिं मे कुरु ते नमः।। यंत्र - कात्यायनि यंत्र
मनोवांछित पत्नी प्राप्ति हेतु- पत्नीं मनोरमां देहि, मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्।। यंत्र - मातंगी यंत्र
पुत्र प्राप्ति हेतु- ऊँ देवकीसुतगोविंद वासुदेवजगत्पते। देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः।। यंत्र - संतान गोपाल यंत्र
हनुमान यंत्र- ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः। आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा।। यंत्र - हनुमान यंत्र, काली यंत्र विद्वान का परामर्श लेकर मंत्र चयन कर विधिवत रूप से अनुष्ठान करवाना चाहिए। निष्ठापूर्वक कर्म करने पर फल अवश्य प्राप्त होगा।

future for you astrological news nadi dosh ki vyakhya 15 02 2016

future for you astrological news swal jwab 1 15 02 2016

future for you astrological news swal jwab 15 02 2016

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 15 02 2016

future for you astrological news rashifal mesh to kark 15 02 2016

future for you astrological news panchang 15 02 2016

Sunday, 14 February 2016

तंत्र क्या है ?????

समस्त वर्ण, अक्षर, मातृका को ‘मंत्र’ एवं इसके संयोग-वियोग तथा साधना की क्रिया को ‘तंत्र’ कहते हैं। संस्कृत शब्दकोष के अनुसार, अति मानव शक्ति प्राप्त करने के लिए, शीघ्र ही फलीभूत होने वाली क्रिया ‘तंत्र’ कहलाती है।  तंत्र शास्त्र की उत्पत्ति कब हुई, यह कहना कठिन है। प्राचीन स्मृतियों में 14 विद्याओं का उल्लेख मिलता है, किंतु उसमें तंत्र का उल्लेख नहीं पाया गया है। इस कारण तंत्र शास्त्र को प्राचीन काल में विकसित शास्त्र नहीं माना जा सकता। पहली बार ‘नृसिंहतायनीयोपनिषद’ में तंत्र  संबंधी बातों का उल्लेख मिलता है।
तंत्र अनेक संप्रदायों में, भिन्न-भिन्न रूपों में, प्रचलित रहा। वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य, बौद्ध, जैन एवं मुस्लिम तंत्र प्रमुख हैं। 10 शैवागम, 28 रुद्रागम एवं 64 भैरवागम प्रसिद्ध हैं। तंत्र में मंत्र साधना प्रमुख है। मंत्रों के द्वारा साधना प्रक्रिया का पूर्ण रूप से दिव्य प्रतिपादन किया जाता है तथा मानव जाति को सभी प्रकार के भयों से छुटकारा दिलाने के लिए तंत्र का उपयोग किया जाता है। यंत्रों का प्रयोग भी अनेक रूपों में किया जाता है, जैसे बगलामुखी, वशीकरण, महामृत्युंजय, भैरव आदि विभिन्न प्रकार के यंत्र तंत्र सिद्धियों के लिए प्रायः उपयोग में लाये जाते हैं।
तंत्र, मंत्र एवं यंत्र तीनों ही, एक प्रकार से, एक दूसरे के पूरक हैं। तंत्र के द्वारा जो कार्य किया जाता है, वह मंत्र द्वारा, यंत्र का आधार ले कर, किया जाता है। यंत्र को प्रत्यक्ष रूप में सिद्ध कर के दूसरे को दिया जा सकता है, जबकि तंत्र, या मंत्र को प्रत्यक्ष रूप में नहीं दिया जा सकता। तंत्र में अनेक मंत्र विधाएं स्वयंसिद्ध मानी गयी हैं। तंत्र शास्त्र में मंत्रों की कई जातियां पायी जाती हैं। ‘शारदातिलक’ में इसकी परिपूर्ण विवेचना पद्धति प्रस्तुत की गयी है। इसी क्रम में यह भी बताया गया है कि शाबर जैसी कुछ तंत्र सिद्धियां कलि युग में सिद्ध मानी गयी हैं तथा वे सभी के लिए उपयोगी भी हैं।
तंत्र क्रिया पूर्व काल में जादू-टोना, काम-क्रीड़ा, दुआ-ताबीज, औषधि निर्माण आदि से संबंधित थी। वर्तमान परिवेश में संकट, अड़चन, दुखों आदि से मुक्ति और प्रेम तथा धन आदि के लिए तंत्र का अधिक उपयोग किया जा रहा है।  तंत्र के आगम शास्त्र में उद्धृत लक्षणों से जो गुरु हों, उनसे विधानपूर्वक दीक्षा ग्रहण करने का प्रस्ताव भी दिया गया है। एक ओर जहां मंत्रों के खंड में नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म एवं काम्य कर्म की विवेचना है, वहीं दूसरी ओर तंत्र में मात्र नैमित्तिक एवं काम्य कर्मों की ही अधिक विवेचना प्रतिपादित है। तंत्र शास्त्र में षट्कर्मों (शांति, वश्य, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण)
की व्याख्या एवं प्रयोग की भी अधिक विवेचना दी गयी है।
तंत्र शास्त्र को मुख्यतः शिवप्रणीत माना जाता है, जो 3 भागों में विभक्त है- प्रथम आगम तंत्र, द्वितीय यामल तंत्र एवं तृतीय वाराही तंत्र। इनके अंतर्गत क्रमशः सृष्टि, प्रलय एवं देवोपासना का प्रावधान है। आगम में षट्कर्म एवं 4 प्रकार के ध्यान-योगों का वर्णन पाया जाता है।  यामल तंत्र में सृष्टि तत्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम सूत्र, वर्ण भेद एवं युग धर्म का वर्णन दिया गया है। इसी के अंतर्गत व्यवहार तथा अध्यात्म नियम भी प्रतिपादित हंै। वाराही तंत्र में सृष्टि, लय, मंत्र निर्णय, तीर्थ, व्यवहार, तथा आध्यात्मिक नियमों का वर्णन है। इसी क्रम में तांत्रिकों को 7 कोटियों में विभक्त किया गया है, जो इस प्रकार हंै - देवाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धांताचार एवं कौलाचार। धर्म 4 हैं, जिनमें से 1 है शाक्त धर्म। इसी शाक्त धर्म से संबंधित बातों का प्रतिपादन तंत्र शास्त्र में अधिक पाया जाता है। धर्म गं्रथों के अनुसार शिव ने वैदिक क्रियाओं को कीलित कर रखा है। भगवती उमा के आग्रह से शिव ने कलि युग के लिए तंत्र का निर्माण किया।
जब कोई तंत्र साधक किसी अन्य जातक के लिए कोई अभिचारादि कर्म करता है, तो वह तंत्रकत्र्ता के आसपास एक विशेष प्रकार के पर्यावरण को निर्मित करता है। कुछ समय पश्चात् यह पर्यावरण शक्ति, आकाशीय ऊर्जा के माध्यम से, ऊपर की ओर उठती हुई, अपने निश्चित मार्ग में गमन करती हुई, अपने लक्ष्य तक की यात्रा तय करती है। जब यह पर्यावरण उस जातक के पास पहुंचता है, तो जातक को प्रभावित करने लगता है, जिसे सामान्य लोग टोने, टोटके, एवं चमत्कार के नाम से जानते हैं। तंत्र के अनुसार इस शास्त्र के सिद्धांत बहुत ही गुप्त रखे जाते हैं। यदि वर्तमान स्थिति को देखा जाए, तो हिंदू धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म में तंत्र साधक कहीं अधिक पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस्लामी मत में भी इस विद्या का अधिक प्रचार-प्रसार देखा जा सकता है। तंत्र विस्तार का पर्यायवाची है। तंत्र एक क्रिया की विद्या है। यह शक्ति नहीं है। तंत्र की क्रियाएं ही मानव की शक्ति में वृद्धि लाने का कार्य करती हैं।
भौतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से जिन्हें सिद्धियां कहते हैं, या मानते हैं, वे साधना में प्रकट होने वाली विभूतियां हैं। जब कोई साधक तंत्र साधना करता है और उसी पर अपना ध्यान केंद्रित करता है, तो कालांतर में यह क्रिया साधक में ध्यानाकर्षण की वृद्धि करती है। यही आगे चल कर अनेक घटनाओं की सूचनादि प्राप्त करने में साधक की मदद करती है। तंत्र में अभिचार एवं वशीकरण, मारणादि का उपयोग अशुभ माना गया है। यदि स्वार्थवश  तंत्र का दुरुपयोग किया जाता है, तो साधक का विनाश होता है। अतः तंत्र संबंधी साधनाएं गुरु के मार्गदर्शन से करने की सलाह दी जाती है। इसका दुरुपयोग करना सदा ही वर्जित कहा गया है।

दस महाविद्या: शक्ति एवं साधन

आदि ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख किया गया है जो विभिन्न शक्तियों की दाता हैं। व्यक्ति आवष्यकतानुसार शक्ति प्राप्त करने हेतु उस महाविद्या के मूल मंत्र द्वारा महाविद्या की साधना कर सकता है और अभीष्ट फल प्राप्त कर सकता है। विभिन्न महाविद्याओं की शक्तियां एवं मूल मंत्र निम्नलिखित हैं-
देवी महाकाली महाविद्या- देवी काली काम रुपिणी है। महाकाली साधना के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता है, चाहे वह शत्रु आंतरिक हों या बाहरी। इस साधना के द्वारा साधक उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, क्योंकि महाकाली ही मात्र वह शक्ति स्वरूप है, जो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती है। इनकी साधना को बीमारी नाश, दुष्ट आत्मा व दुष्ट ग्रह से बचने के लिए, अकाल मृत्यु के भय से बचने के लिए, वाक सिद्धि के लिए तथा कवित्व के लिए किया जाता है। मंत्र-ऊँ क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं स्वाहाः
देवी तारा महाविद्या- तारा को तारिणी भी कहा गया है। भगवती तारा नित्य अपने साधक को स्वर्णाभूषणों का उपहार देती है। तारा महाविद्या दस महाविद्याओं में एक श्रेष्ठ महाविद्या है। तारा साधना को प्राप्त करने के बाद साधक को जहां आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनने लगते हैं, वहीं उसके अंदर ज्ञान के बीज का भी प्रस्फुटन होने लगता है। इनकी साधना से वाक सिद्धि तो अतिशीघ्र प्राप्त होती है साथ ही साथ तीव्र बुद्धि रचनात्मकता, डाॅक्टर, इंजीनियर, काव्य संबंधीं गुणों का उन्मेष होता है। तारा शत्रु को जड़ से खत्म कर देती है। मंत्र-ऊँ ह्रीं स्रीं हुं फट
षोडशी त्रिपुर सुंदरी महाविद्या- जिस काम में देवता का चयन करने में कोई दिक्कत हो तो देवी त्रिपुर सुंदरी की उपासना कर सकते हैं। यह भोग और मोक्ष दोनों ही साथ-साथ प्रदान करती है। त्रिपुर सुंदरी साधना मन, बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती है, जिससे वह शक्ति जाग्रत होती है। भू, भुवः, स्वः ये तीनों लोक इसी महाशक्ति से उद्भूत हुए हैं, इसीलिए इसे त्रिपुर सुंदरी कहा जाता है। गृहस्थ सुख, अनुकूल विवाह एवं पौरुष प्राप्ति हेतु इस साधना का विशेष महत्व है। मनोवांछित कार्य-सिद्धि के लिए भी यह साधना उपयुक्त है। मंत्र-ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमःः
देवी भुवनेश्वरी महाविद्या-भुवन अर्थात् इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरी, जो ‘ह्रीं’ बीज मंत्र धारिणी हैं। वे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी अधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती है। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता है, उस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्ति, चेतना-शक्ति, स्मरण-शक्ति अत्यंत विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतद्वात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाश, कुबेर सिद्धि, रतिप्रीति प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उŸाम मानी गयी है। इस महाविद्या की आराधना एवं साधना करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। मंत्र-ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं नमः
देवी छिनमस्ता महाविद्या- यह देवी शत्रु का तुरंत नाश करने वाली, वाक सिद्धि देने वाली, रोजगार में सफलता, नौकरी में पदोन्नति के लिए कोर्ट के केस से मुक्ति दिलाने में सक्षम, सरकार को आपके पक्ष में करने वाली, कुंडली-जागरण में सहायक, पति-पत्नी को तुरंत वश में करने वाली चमत्कारी देवी है। शत्रु हावी हांे, बने हुए कार्य बिगड़ जाते हों या किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग हो, तो यह साधना अत्यंत प्रभावी है। इस साधना द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती है, आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं, साथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारंभ हो जाता है। मंत्र-श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहाः
देवी भैरवी महाविद्या-जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ वशीकरण, आरोग्य सिद्धि के लिए इस देवी की आराधना की जाती है। सुंदर पति या पत्नी की प्राप्ति के लिए, प्रेम विवाह, शीघ्र विवाह, प्रेम में सफलता के लिए भैरवी देवी साधना करनी चाहिए।माता भैरवी साधना से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्ति होती है, वही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती है, असाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्य भी पूर्ण हो जाते है। मंत्र-ऊँ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहाः
देवी धुमावती महाविद्या- हर प्रकार की दरिद्रता के नाश के लिए, तंत्र-मंत्र के लिए, जादू-टोना, बुरी नजर और भूत-प्रेत आदि समस्त भयों से मुक्ति के लिए, सभी रोगों के लिए, अभय प्राप्ति के लिए, साधना में रक्षा के लिए, जीवन में आने वाले हर प्रकार के दुःखों का निदान करने वाली देवी है। आये दिन और नित्य प्रति ही यदि कोई रोग लगा रहता हो या शारीरिक अस्वस्थता निरंतर बनी ही रहती हो, तो वह भी दूर होने लग जाती है। उसकी आखों में प्रबल तेज व्याप्त हो जाता है, जिससे शत्रु अपने आप में ही भयभीत रहते हैं। यदि किसी प्रकार की तंत्र-बाधा या प्रेत बाधा आदि हो, तो तंत्र-मंत्र-यंत्र इस साधना के प्रभाव से वह भी क्षीण हो जाती है। मंत्र-ऊँ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहाः
देवी बंगलामुखी महाविद्या- बगलामुखी महाविद्या भगवान विष्णु की संहारक शक्ति है। प्रबल से प्रबल शत्रु को निस्तेज करने एवं सर्व कष्ट बाधा निवारण के लिए इससे अधिक उपयुक्त कोई साधना नहीं है। इसके प्रभाव से रुका धन पुनः प्राप्त हो जाता है। भगवती अपने साधकों को एक सुरक्षा चक्र प्रदान करती हैं, जो साधक को आजीवन हर खतरे से बचाता रहता है। वाक-्शक्ति से तुरंत परिपूर्ण करने वाली, शत्रु का नाश, कोर्ट कचहरी में विजय, हर प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता के लिए, सरकारी कृपा के लिए मां बगलामुखी की साधना करें। इस विद्या का उपयोग तभी किया जाता है जब और कोई रास्ता न बचा हो। मंत्र-ऊँ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ऊँ नमः दूसरा मंत्र-ऊँ ह्रीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचंमुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय हुं फट् स्वाहा।
देवी मातंगी महाविद्या- घर गृहस्थी में आने वाले सभी विघ्नों को हरने वाली है। जिसकी शादी न हो रही हो, संतान प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति के लिए या किसी भी प्रकार की गृहस्थ जीवन की समस्या के दुख हरने के लिए देवी मातंगी की साधना उत्तम है। इनकी कृपा से स्त्रियों का सहयोग सहज ही मिलने लगता है चाहे वह स्त्री किसी भी वर्ग की क्यों न हो। जीवन में सरसता, आनंद, भोग-विलास, प्रेम, सुयोग्य पति-पत्नी प्राप्ति के लिए मातंगी साधना अत्यंत उपयुक्त मानी जाती है। मंत्र-ऊँ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहाः
देवी कमला महाविद्या-इस संसार में जितनी भी सुदंर लड़किया हैं, सुंदर वस्तु, पुष्प आदि हैं, ये सब कमला महाविद्या का ही सौंदर्य है। हर प्रकार की साधना में रिद्धि-सिद्धि दिलाने वाली, अखंड धन धान्य प्राप्ति, ऋण का नाश और महालक्ष्मी जी की कृपा के लिए कमल पर विराजमान देवी कमला की साधना करें। प्रत्येक महाविद्या साधना अपने आप में ही अद्वितीय है। साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी साधना कर सकते हैं। एक महाविद्या की साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का द्वार खुल जाता है और वह एक-एक करके सभी साधनाओं में सफल होता हुआ पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है। मंत्र-ऊँ ह्रीं अष्ट महालक्ष्म्यै नमः। नवरात्रों में महाविद्या की उपासना शीघ्र फलदायी है। अतः इन दिनों में इच्छित महाविद्या का सवा लाख मंत्र जप व दशांश का हवन करने से इच्छित फल प्राप्त होता है।

शंख और उसकी उपयोगिता



शंख का पूजा में महत्व
शंखों का हिंदू धर्म संस्कृति में प्राचीनकाल से ही विशेष महत्व रहा है। अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्वपूर्ण स्थान है। श्री विष्णु के चार आयुधों में शंख को भी स्थान प्राप्त है। शंख पूजन से दरिद्रता निवारण, आर्थिक उन्नति, व्यापारिक वृद्धि और भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। पूजा, यज्ञ एवं अन्य विशिष्ट अवसरों पर शंखनाद हमारी परंपरा में है। शंख-ध्वनि के बिना कोई पूजा संपन्न नहीं मानी जाती। मंदिरों में नियमित रूप से और घरों में पूजा-पाठ, धार्मिक अनुष्ठान, व्रत, कथाओं, जन्मोत्सव के अवसरों पर शंख बजाया जाता है। शंख से निकलने वाली वाली ध्वनितरंगों में हानिकारक वायरस को नष्ट करने की क्षमता होती है। शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इससे आशा, आत्मबल, शक्ति व दृढ़ता बढ़ती है व भय दूर होता है।
दक्षिणावर्ती शंख की उपयोगिता
दक्षिणावर्ती शंख से लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है- इसके बिना लक्ष्मी जी की पूजा-आराधना सफल नहीं मानी जाती। दक्षिणावर्ती शंख में जल भरकर गर्भवती स्त्री को सेवन कराने से संतान स्वस्थ व रोग मुक्त होती है। दक्षिणावर्ती शंख से पितृ तर्पण करने पर पितरो की शांति होती है। दक्षिणावर्ती शंख से शालिग्राम व स्फटिक श्रीयंत्र को स्नान कराने से व्यवहायिक जीवन सुखमय और लक्ष्मी का चिरस्थायी वास होता है। चंद्र ग्रह की प्रतिकूलता से होने वाले श्वास व हृदय रोगो की शांति के लिए इसकी नित्य पूजा करे | दक्षिणावर्ती शंख की स्थापना से वास्तु दोषों का निवारण होता है।
पूजा में शंख क्यूँ बजाया जाता है
समुद्र मंथन के समय मिले 14 रत्नों में से एक रत्न शंख भी है। शंख में ओम की ध्वनि प्रतिध्वनित होती है, इसलिए ओम् से ही वेद बने और वेद से ज्ञान का प्रसार हुआ। शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देव स्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा व सरस्वती का निवास है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। शंख की ध्वनि से भक्तों को पूजा-अर्चना के समय की सूचना मिलती है। आरती के समापन के बाद इसकी ध्वनि से मन को शांति मिलती है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मांड एवं शंख की आकृति समान है शंख के अंदर का घेरा ब्रह्मांड की कुंडली की तरह होता है। शंख में गूंजने वाला स्वर ब्रह्मांड की गूंज के समान है। ऊँ शब्द की गूंज भी शंख के द्वारा गूंजायमान ध्वनि जैसी ही होती है।
शंखों की आयुर्वेद में उपयोगिता
वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके प्रभाव से सूर्य की हानिकारक किरणें बाधित होती हैं। शंख नाद करने पर जहां तक इसकी ध्वनि जाती है, वहां तक व्याप्त बीमारियों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे मौजूद जल सुवासित और रोगाणुरहित हो जाता है। इसी लिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है। बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बांधने व उन्हें शंख-जल पिलाने से वाणी-दोष दूर होते हैं। मूक व श्वास रोगी हमेशा शंख बजाए, तो वे बोलने की शक्ति पा सकते हैं आयुर्वेद के अनुसार हकलाने वाले व्यक्ति यदि नित्य शंख-जल पिएं तो वे ठीक हो जाएंगे। शंख जल स्वास्थ्य, हड्डियों व दांतों के लिए लाभदायक है।
क्या शंख जैविक पदार्थ नहीं हैं ?
शंख समुद्र मे पायें जाने वाले एक प्रकार के घोघें का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। घोघें से इसका निर्माण होने के कारण यह एक समुद्री जैविक पदार्थ है। जैसे- नाखून और बाल मानव शरीर से ही जीवन पाते है। परंतु जैसे ही इन्हे काटकर अलग किया जाता हैं तो ये निर्जीव हो जाते है इसी प्रंकार मूगा रत्न भी एक जैंविक उत्पाद है। यह भी शंख की तरह सामुद्रिक पदार्थ है औंर जब इसे इसकी श्रृखला ं से अलग कर दिया जाता है तब यह बढ़ना बंद कर देता है। शंख भी घोघें से अलग होने पर आकार-वृद्धि करना बंद कर देते है। अतः शंख एक जैविक पदार्थ होते हुए भी अजैविक पदार्थ है।
शंख की मौलिकता की पहचान किस प्रकार की जाती है ?
शंख की मौलिकता की पहचान एक्स-रे द्वारा की जाती है। कभी-कभी शंख के दोषों को दूर करने के लिए कृत्रिम रूप से उसकी पाउडर द्वारा फिलिंग कर दी जाती है या कोने आदि बना दिये जाते हैं। शंख समुद्र की मिट्टी में दबे होते हैं इनकी मिट्टी हटाकर, इन्हें तेजाब से साफ किया जाता है जिससे इनकी वास्तविक चमक प्राप्त होती है। इसके पश्चात् इन्हें गंगाजल से शुद्ध किया जाता है। दु
दुर्लभ शंख ?
दुर्लभ शंख सामान्यतः मालदीव, अंडमान-निकोबार द्व ीपसमूह, हिंद महासागर और प्रशांत महासागर से प्राप्त होते है। इनका आकार एक मिली मीटर सें लेकर 5 फीट हो सकता है व शंख एक ग्राम से कई लेकर कई किलो तक वजन मे पायें जाते है।
दुर्लभ शंखों के नाम व उपयोगिता
गणेश शंख सर्वाधिक शक्तिशाली शंख है। इस शंख को विद्या-प्राप्ति और सौभाग्य तथा पारिवारिक उन्नति के लिए श्रेष्ठ माना जाता है।्र शंख शनि दोष का निवारण करता है। यह काले रंग का बहुत ही प्रभावशाली शंख है। शनि देव का प्रकोप शांत करके उनकी कृपा-दृष्टि प्राप्त करने के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण शंख है। जिन पर शनि साढ़ेसाती, शनि ढैया व शनि महादशा चल रही हो या शुरु होने वाली हो उनको यह शंख अपने साथ रखने चाहिए या इसे सरसों के तेल में डुबोकर घर के मंदिर में रखना चाहिए।: दक्षिणावर्ती शंख धन के देवता कुबेर का शंख है। इस शंख के पूजन से धन, संपत्ति व ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। मोती जैसी आभा वाला मोती शंख दुर्लभ शंख है। यह सौभाग्यवर्द्धक शंखों की श्रेणी में आता है। मोती शंख का पूजन मानसिक अशांति दूर करता है। कौड़ी शंख को संतान, संपत्ति मान-सम्मान, वैवाहिक सुख व ऐश्वर्य का प्रतीक माना जाता है। गौमुखी शंख सफेद रंग और पीतवर्ण के विशेष रूप से पाये जाते हैं। गौमुखी शंख की उपासना से सुख, सौभाग्य, सौंदर्य व समृद्धि प्राप्ति होती है। अन्नपूर्णा शंख अपने ज्ञान के अनुरूप फल देता है। यह दिव्य व चमत्कारी शंख है। जिस घर में अन्नपूर्णा शंख स्थापित होता है वह घर अन्न-धन से परिपूर्ण और चंहुमुखी विकास की ओर अग्रसर होता है।

दक्षिणावर्ती शंख और उसके उपयोग

भारतीय संस्कृति में शंख की अपार महिमा एवं उपयोगिता बताई गई है। शंख समृद्धिदायक, दरिद्रता नाशक, आयुवर्द्धक के साथ-साथ देवी-देवताओं के पूजन के लिए, ज्योतिष और तांत्रिक साधनाओं में एवं शुभ कार्य के प्रारंभ में इसकी विशेष उपयोगिता बताई गई है। ये समुद्र में लगभग सभी जगह मुख्य रूप से पाए जाते हैं। मालदीव, श्री लंका, अंडमान निकोबार, हिंद महासागर, अरब सागर व प्रशांत महासागर में मुख्य रूप से पाए जाते हैं। मुख्यतः शंख वामवर्ती होते हैं एवं दक्षिणावर्ती शंख दस प्रतिशत से भी कम पाए जाते हैं। इसको जानने के लिए कि यह दक्षिणावर्ती है या वामवर्ती शंख के मस्तक को अपनी और व धारा मुख को बाहर की तरफ रखे और दायां भाग खुला हो तो वह दक्षिण् ाावर्ती शंख होता है तथा जिसका बायां भाग खुला हो वह वामवर्ती शंख होता है। सामन्यतः दक्षिण् ाावर्ती शंख बाएं हाथ से पकड़ने में सुविधापूर्वक आता है एवं वामवर्ती शंख को दाएं हाथ से पकड़ने में सुविधा होती है। यदि शंख को बजाना हो तो वामवर्ती शंख को दाएं हाथ में पकड़ कर ही बजा पाएंगे। दक्षिणावर्ती शंख को दांए हाथ में पकड़कर बजाने में असुविधा होती है। इसलिए बजाने वाले शंख वामवर्ती ही होते हैं। प्रकृति में पचास हजार से भी अधिक प्रकार के शंख पाए जाते हैं। कुछ खारे पानी में तो कुछ मीठे पानी में इनके आकर भी एक मिली मीटर से लेकर चालीस इंच तक होते हैं।
ये अनेकों रंगों में एवं एक ग्राम से कई किलो तक के वजन में पाएं जाते हैं। शंख भगवान विष्णु के चतुर्भज स्वरूप में हस्त का एक आभूषण हैं, महाभारत में भी भगवान कृष्ण ने पांचजन्य शंख बजाकर युद्ध की शुरुआत की थी। आयुर्वेद में शंख भस्म अनेकों प्रकार के रोगों को दूर करने के लिए प्रयोग में लाई जाती है। बौद्ध धर्म में शंख को अष्ट मंगल (शंख, श्रीवत्स, मत्स्य, पद्म छत्र कलश चक्र ध्वज) पदार्थों में से एक है। दक्षिणावर्ती शंख एक बड़े समुद्री जीव का बाहरी हिस्सा है जो कि भारत के दक्षिण में हिंद महासागर में पाया जाता है इसका जीव विज्ञान में टर्बिनेला पायरम नाम हैं शंख को बजाने से बातावरण की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। इससे आशा, आत्मबल, शक्ति व दृढ़ता बढ़ती है, तथा भय नष्ट होता है। श्रद्धा व विश्वास जागृत होता है। भाग्य और सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मांड एवं शंख की आकृति समान है। शंख के अंदर का घेरा ब्रह्मांड की कुंडली (स्पाइरल) की तरह होता है। शंख में गूंजने वाला स्वर ब्रह्मांड की गूंज के समान है, शब्द की गूंज भी शंख के द्वारा गुंजायमान ध्वनि जैसी ही होती है।
योग मंे शंख मुद्रा का भी वर्णन है शंख नांद से अनेकों प्रकार के कीटाणुओं का नाश होता है रुद्राभिषेक करते समय या किसी देवता के जलाभिषेक करते समय शंख में जल या दूध डाला जाए तो पाप नष्ट होते हें व सुख समृद्धि बढ़ती है। पुराण में शंख की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुए थी, इसके धारा मुख पर गंगा, सरस्वती, मध्य में प्रजापति एवं सिर पर सूर्य, चंद्र, वरुण का स्थान माना गया है। वराह पुराण में कहा गया है कि मंदिर के दरवाजे खुलने से पहले शंख अवश्य बजाना चाहिए शंख के बजाने से सात्विक स्पंदन (बाइवे्रशन) आती है और तामसिक व राजसिक स्पंदन (वाइवे्रशन) समाप्त हो जाती है।
शंख की मौलिकता की पहचान के लिए एक्स-रे द्वारा जांचा जाता है कभी-कभी शंख के दोषों को दूर करने के लिए शंख पाउडर द्वारा फिलिंग कर दी जाती है या कोने आदि बना दिए जाते हैं लेकिन केवल महंगे शंख ही दक्षिणावर्ती शंख होते हैं ऐसा सत्य नहीं है अनेकों किस्मों में दक्षिणावर्ती शंख पाए जाते हैं। किसी में रेखाएं होती है किसी में नहीं, बिना रेखाओं वाले शंख भी नकली नहीं होते बल्कि अन्य जाति के होते है और इनको भी दक्षिणावर्ती शंख की तरह माना व पूजा गया है।
दक्षिणावर्ती शंख और उसके उपयोग
दक्षिणवर्ती शंख से लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है इसके बिना लक्ष्मी जी की आराधना पूजा सफल नहीं मानी जाती।
दक्षिणावर्ती शंख से पितृ-तर्पण करने पर पितरों की शांति होती है।
दक्षिणावर्ती शंख में जलभर कर गर्भवती स्त्री को सेवन कराने से संतान स्वस्थ व रोग मुक्त होती है।
दक्षिणावर्ती शंख से शालिग्राम व स्फटिक श्री यंत्र को स्नान कराने से वैवाहिक जीवन सुखद व लक्ष्मी का चिर स्थायी वास होता है।
चंद्रमा ग्रह की प्रतिकूलता से होने वाले श्वास संबंधी व हृदय रोगों की शांति के लिए दक्षिणावर्ती शंख की नित्य पूजा करें।
दक्षिणावर्ती शंख की स्थापना से वास्तु दोषों का निराकरण होता है।

नजर दोष और उसके उपाय

कहते हैं कि कृष्ण जी इतने सुंदर थे कि उन्हें अक्सर उनकी माता यशोदा जी की नजर लग जाती थी। इसलिए मां यशोदा उनके माथे पर काला टीका लगा देती थीं ताकि उन्हें नजर न लगे। नजर दोष से बचाव के लिए अक्सर घरों के बाहर एक डरावना मुखौटा लगा दिया जाता है। गाडि़यों के पीछे काले कपड़े की चोटी या जूता भी नजर से बचाव के लिए ही लटकाया जाता है। हर ट्रक के पीछे ‘बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला’ का वाक्य लिखा होना एक आम बात है। अक्सर सुनने में आता है कि किसी ने किसी दूसरे पर टोना कर दिया है, जिससे उसका कोई भी काम ठीक नहीं होता और दुर्भाग्य बार-बार आड़े आ जाता है। इसी प्रकार कभी हम महसूस करते हैं कि पूरी मेहनत के पश्चात भी हमें कार्य में सफलता नहीं मिल रही - कारण कि किसी ने हमारे व्यवसाय को बांध दिया है। बंधन के फलस्वरूप या तो व्यवसाय नहीं होता या फिर व्यवसाय होते हुए भी अंततः हानि ही हाथ आती है। यहां तक कि इस प्रकार का माहौल बन जाता है कि हमें वह व्यवसाय छोड़ना ही पड़ जाता है। कभी किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य ऐसे बिगड़ जाता है कि सभी दवाइयां निष्प्रभावी हो जाती हैं। ऐसा अक्सर किसी भूत-प्रेत या चुड़ैल की बाधा साथ लग जाने से होता है। यह बाधा किसी के द्वारा कराई गई होती है या अंजाने में राह में या हमारे किसी कर्म के कारण लग जाती है। मनुष्य को पूर्व जन्म के ऋणानुबंध या श्राप आदि भी अनेक प्रकार से कष्टदायी होते हैं जिनका उपाय करने से उनसे मुक्ति मिल सकती है। हमारे साथ कुछ अच्छा होने वाला है या बुरा इसका पूर्वानुमान स्वप्न या शकुन द्वारा लगाया जा सकता है। सीता से विवाह के लिए जब श्री राम जी की बरात प्रस्थान करती है, तो सारे शकुन स्वतः होने लगते हंै जो एक शुभ कार्य का पूर्व संदेश देते हैं।
क्षेमकरी (सफेद सिर वाली चील) विशेष रूप से क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बायीं ओर सुंदर पेड़ पर दिखाई पड़ी। दही, मछली और हाथ में पुस्तक लिए हुए दो विद्वान् ब्राह्मण सामने आए। सभी मंगलमय, कल्याणमय और मनोवांछित फल देने वाले शकुन मानो सच्चे होने के लिए एक ही साथ हो गए। इसी प्रकार रावण के युद्ध हेतु प्रस्थान के समय सारे अपशकुन होने लगते हैं।
अत्यंत गर्व के कारण रावण शकुन-अशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा रथ से गिर पड़ते हैं। घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिंघाड़ते हुए भाग जाते हैं। स्यार, गिद्ध, कौए और गधे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यंत भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो मृत्यु का संदेशा सुना रहे हों। प्रकृति में कुछ भी अचानक घटित नहीं होता, किसी बड़ी घटना से पूर्व शकुन-अपशकुन के रूप में अनेक घटनाएं क्रमबद्ध ढंग से घटित होती हैं। यदि इन पर गंभीरता से ध्यान कर लिया जाए, तो किसी बड़ी दुर्घटना से बचाव किया जा सकता है। कहते हैं कि नजरदोष या अन्य कोई व्याधा लग जाने पर आंख की निचली पलक भारी हो जाती है मानो वह सूज गई हो। प्रभावित व्यक्ति का कोई भी काम करने का मन नहीं करता। इससे मुक्ति के लिए अनेक प्रकार के उपाय सुझाए गए हैं, जिन्हें अपनाने से वर्णित कष्टों का निवारण हो सकता है। नजर दोष निवारक लाॅकेट धारण करें। रुद्राक्ष माला, और खासकर तेरहमुखी रुद्राक्ष माला, नजर दोष व ऊपरी बाधाओं से बचाव के लिए विशेष प्रभाशाली है। बच्चों को मोती चांद का लाॅकेट एवं नजरबंद (काले-सफेद मोती) का ब्रेसलेट या करधनी धारण कराएं। पारद लाॅकेट सभी बाधाओं को दूर करने में सक्षम है। नजर दोष निवारक यंत्र एवं नवदुर्गा यंत्र साथ रखें। पंचमुखी हनुमान का लाॅकेट धारण करें या घर में अथवा व्यवसाय स्थल पर स्थापित करें। काले हकीक की माला पर ऊँ हं हनुमते नमः मंत्र का नियमित रूप से जप करें। मोर पंख से या सरसों के तेल की बत्ती से उतारा करें। नीबू को सिर से उतारकर चार टुकड़ों में काटकर चैराहे पर चारों दिशाओं में फेंक दें। यदि कोई
नजर लगी हो या टोटका किया गया हो तो दोष दूर हो जाता है। नजर दोष से प्रभावित व्यक्ति के ऊपर चारों ओर से फिटकरी का टुकड़ा घुमाकर चूल्हे में डालने से नजर दोष समाप्त होता है। प्रवेश द्वार पर घोड़े का नाल लगाने से आगंतुकों की नजर नहीं लगती। नमक, राई और लाल मिर्च अंगारे पर डालकर रोगी के ऊपर ग्यारह बार घुमाने से नजर दोष मिटता है। सोते समय सिर के नीचे चाकू रखने से डरावने स्वप्न नहीं आते। हनुमान चालीसा का पाठ करने से भूत-प्रेत आदि व्याधाएं भाग जाती हैं। यदि ऐसा महसूस होता हो कि किसी ने आपका घर या व्यवसाय बांध दिया है, तो चार कीलें घर के अंदर चारों दिशाओं में ठोंक दें, बंधन से मुक्ति मिलेगी। वाहन दुर्घटनाग्रस्त न हो इसके लिए लाल कपड़े की थैली में आठ छुहारे बांधकर वाहन के अंदर रखें। पुष्य नक्षत्र में सहदेवी की जड़ लाकर साथ रखने से बीमारी से मुक्ति मिलती है। प्रतिदिन या फिर प्रति मंगलवार को सात साबुत हरी मिर्च और एक नीबू को धागे में बांधकर व्यवसाय स्थल पर बांध देने से कारोबार में उन्नति होती है। जब कोई ग्राहक दुकान पर आए, तो कोई एक धागा तोड़कर अपनी सीट के नीचे दबाकर रखें, ग्राहक निश्चित रूप से खरीददारी करेगा। ग्राहक चला जाए, तो धागा निकालकर फेंक दें। घर या व्यवसाय स्थल के प्रवेश द्वार पर मयूर का चित्र लगाने से नजर नहीं लगती। ‘ऊँ ऐं ह्लीं क्लीं चामुंडाय विच्चैः’ मंत्र का जप करने से सभी बाधाएं दूर होती हैं। ऊपर वर्णित सभी दोषों का प्रभाव मानसिक रूप से कमजोर व्यक्तियों पर अधिक पड़ता है। कुंडली में नीचस्थ चंद्र या राहु व शनि से ग्रस्त चंद्र होने पर व्यक्ति मानसिक रूप से कमजोर होता है और उस पर उक्त दोषों का प्रभाव अधिक पड़ता है। शिव व हनुमत आराधना और चंद्रमणि धारण करने से मानसिक बल प्राप्त होता है और दोषों से मुक्ति मिलती है।

एक्युप्रेशर: चिकित्सा की एक प्रभावशाली पद्दति

मानव का मस्तिष्क कम्प्यूटर के सी.पी.यू. की तरह कार्य करता है जिसे शरीर के सभी अंग अपने-अपने संदेश भेजते रहते हैं और मस्तिष्क उन्हें कार्य के निर्देश देता रहता है। जब भी शरीर के किसी भाग में दर्द होता है, तो हाथ अपने आप उस अंग को दबाने लगते हैं। यही एक्युप्रेशर है। एक्युप्रेशर की यह चिकित्सा पद्धति संसार की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति है। भारत में लगभग 6 हजार वर्ष पूर्व इसका उद्भव हुआ, आयुर्वेद में इसके उल्लेख मिलते हंै। इसे मर्म चिकित्सा के नाम से भी जाना जाता है। चीन में एक्युप्रेशर तथा एक्युपंक्चर पद्धति पांच हजार वर्ष पुरानी मानी जाती है। भारत में कान, नाक आदि का छेदन एक्युपंक्चर का ही उदाहरण है। हमारे पूर्वजों ने इसे धर्म से जोड़कर आम मनुष्य के जीवन में उतार दिया। कान छेदन अनिद्रा एवं याददाश्त को ठीक रखता है। चूडि़यां पहनने से मूत्राशय और प्रोस्टेट की बीमारी नहीं होती। पायजेब पहनने से कमर और गर्दन के दर्द से आराम मिलता है बिछुए से नाक तथा गले के रोग दूर होते हैं। सिर पर बोर पहनने से मासिक धर्म के विकार दूर होते हैं। पुरुषों में जनेऊ मूत्र संबंधी रोगों को दूर करता है। कमर में धागे से हरनिया से बचा जा सकता है। कलाई में धागा या कड़ा पहनने से रक्तचाप सामान्य होता है। एक्युप्रेशर कैसे काम करता है, इसे समझने के लिए पानी के पाइप का एक उदाहरण लेते हैं, जिसमें कुछ अवरोध हो। पाइप को यदि दबा दिया जाए, तो पानी जोर से चलने लगेगा। पाइप को छोड़ देने पर उसमें फंसा हुआ अवरोध झटके से बाहर निकल जाएगा और पानी का प्रवाह ठीक हो जाएगा। इसी प्रकार मनुष्य के शरीर में रक्त वाहिकाओं व नसों के अवरोध एक्युप्रेशर प्रक्रिया से खुल जाते हैं और रोगी के कष्ट दूर हो जाते हैं। शरीर के विभिन्न अंगों के प्रतिबिंब केंद्र शरीर के कई भागों पर
होते हैं। उपचार के लिए पहले यह मालूम करना होता है कि शरीर के किस हिस्से व अंग में रोग है। जिस अंग में रोग हो उससे संबंधित प्रतिबिंब केंद्र पर दबाव देकर रोग दूर किया जा सकता है। इसमें मुख्य रूप से पैर और हाथ की रिफ्लेक्सोलोजी अधिक प्रभावशाली व सुविधाजनक है। रक्त वाहिकाओं तथा स्नायु-संस्थानों के आखिरी छोर हाथों व पैरों में होते हैं। शरीर के विभिन्न अंगों से संबंधित नाडि़यां हाथों व पैरों में स्थित हैं। यहां अंकित चित्र से यह सहज ही पता चल जाएगा कि कौन सा अंग हाथ व पांव में कहां स्थित है। एक्युप्रेशर के लिए आवश्यकतानुसार अनेक उपकरण उपलब्ध हैं जैसे पैरों के लिए मैट, बैठने के लिए सीट, गर्दन व कमर के लिए रोलर या मसाजर, उंगलियों के लिए रिंग आदि। लेकिन इन सभी उपकरणों से हम बिना किसी नियंत्रण के पूरे क्षेत्र पर दबाव डालते हैं। इनका विशेष लाभ प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि जहां जरूरी हो वहीं दबाव डाला जाए। इसके लिए जिम्मी का उपयोग बेहतरीन माना गया है। इस पत्रिका के साथ भी एक जिम्मी संलग्न है। जिम्मी द्वारा तलवों व हथेलियों पर उक्त दबाव डाला जा सकता है। इसके आगे के नुकीले पाॅइंट से बिंदु विशेष पर दबाव डालकर उससे संबद्ध रोग से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हथेलियों में चलाकर उनके सभी बिंदुओं पर दबाव डालने से विभिन्न रोगों से मुक्ति मिल सकती है।

रत्न और उसके धारण संबंधित जानकारी

हर मनुष्य की जन्मपत्री मे कोंई न कोई ग्रह कमजोर और कुछ ग्रह बली होते है औंर इनके अनुसार ही जातक के भाग्य में परिवर्तन आता रहता है। अशुभ ग्रहों को शुभ बनाना या शुभ ग्रहों को और अधिक शुभ बनाने की मनुष्य की सर्वदा चेष्टा रही है। इसके लिए मनुष्य अनेक उपाय करते हैं, जैसे मंत्र जाप, दान, औषधि स्नान, रत्न धारण, धातु एवं यंत्र धारण, देव दर्शन आदि। रत्न धारण एक महत्वपूर्ण एवं असरदार उपाय है। कब कौन सा रत्न कैसे धारण करें, इस विषय की चर्चा इस अंक में विस्तृत रूप से की जा रही है। सार में, किसी रत्न धारण करने के लिए निम्न सूत्रों का ध्यान रखना चाहिएः-
रत्न कौन से हैं और कैसे काम करते है- सूर्य से ले कर केतु तक नव ग्रहों के लिए नौ मूल रत्न हैं - सूर्य के लिए माणिक, चंद्र का मोती, मंगल का मूंगा, बुध का पन्ना, गुरु का पुखराज, शुक्र का हीरा, शनि का नीलम, राहु का गोमेद एवं केतु का लहसुनिया। ये रत्न इन ग्रहों से आ रही किरणों को आत्मसात करनें में सक्षम हैं एवं ग्रहों से आ रही किरणों के साथ अनुनाद ;तमेवदंदबमद्ध स्थापित कर हमारे शरीर में किरणों के प्रवाह को बढ़ाते हैं। उपरत्न सस्ते होते है एवं उनका अनुनाद रत्नों के अनुनाद के नजदीक ही होता है, लेकिन उसी बारंबारता ;तिमुनमदबलद्ध पर नहीं। अतः उपरत्न भी कुछ हद तक वही काम करते हैं, जो रत्न करते हैं। लेकिन अनुनाद ठीक से न होने के कारण इनका असर दस प्रतिशत से अधिक नहीं होता। अतः मूल रत्न ही धारण करने चाहिएं।
रत्न को कैसे परखे-रत्न को आंखों से देख कर ही जाना जा सकता है कि उसमें कोई दरार तो नहीं है। रत्न का पारदर्शी होना एवं उसमें चमक होना उसकी किस्म को दर्शाते हैं। उसका कटाव एक कोण में होना भी आवश्यक है। यदि कटाव ठीक नहीं होगा, तो रत्न रश्मियों को एकत्रित करने में सक्षम नहीं रहेगा।
क्या रत्न प्रभावशाली होगा-ग्रह कैसी राशि में स्थित है, यह निर्धारित करता है कि कौन सा उपाय फल देगा। जैसे यदि ग्रह वायु राशि में स्थित हो, तो मंत्रोच्चारण, कथा, पूजा आदि सिद्ध होंगे। ग्रह अग्नि राशि में हो, तो यज्ञ, व्रत आदि, जल राशि में दान, पानी में बहाना, औषधि स्नान आदि एवं पृथ्वी तत्व में रत्न, यंत्र, धातु धारण एवं देव दर्शन आदि। यदि जन्मपत्री में योगकारक ग्रह निर्बल हो, तो रत्न धारण, यंत्र धारण एवं मंत्र द्वारा उपचार करना चाहिए। यदि मारक ग्रह बली हो, तो उसे वस्तु बहा कर या दान से निर्बल बनाना चाहिए, अन्यथा मंत्रोच्चारण एवं देव दर्शन द्वारा कारक में परिवर्तित करना चाहिए। ऐसे में रत्न धारण करने से ग्रह का मारक तत्व और उभरेगा। यदि योगकारक ग्रह बली हो, या मारक ग्रह निर्बल हो, तो किसी उपाय की आवश्यकता नहीं है।
कौन से ग्रह का रत्न धारण करें- रत्न ग्रह को बली करने के लिए पहनाया जाता है। किसी ग्रह से संबंधित पीड़ा हरने के लिए, अन्यथा जिस ग्रह की दशा या अंर्तदशा चल रही हो, उस ग्रह का रत्न धारण करना चाहिए। लेकिन यह आवश्यक है कि वह ग्रह जातक की कुंडली में योगकारक हो, मारक न हो। अष्टमेश यदि लग्नेश न हो, तो सर्वदा त्याज्य ही है। योगकारक ग्रह यदि निर्बल हो, तो रत्न अवश्य धारण करना चाहिए।
क्या रत्न हमारे लिए शुभ है- यह जान लेना परम आवश्यक है कि रत्न हमें शुभ फल देगा, या दे रहा है। विशेष रूप से नीलम को आप परख कर ही पहनें। कई बार नग विशेष में कुछ त्रुटि होने के कारण कष्ट झेलने पड़ते हैं। नीलम में यदि कुछ लालपन हो, तो वह खूनी नीलम कहलाता है और दुर्घटना करवा सकता है। अतः रत्न को परखने के लिए अपने हाथ पर बांध लें। यदि आप स्फूर्ति महसूस करते हैं, तो रत्न ठीक है, अन्यथा दूसरा नग देख लें। यदि दो-तीन नग देखने पर भी ठीक नहीं लगता, तो वह रत्न आपको ठीक फल नहीं देगा।
कितने वजन का नाग पहने- नग का वजन शरीर के वजन एवं ग्रह की निर्बलता के अनुपात में होना चाहिए। यदि ग्रह अति क्षीण है, तो अधिक वजन का नग पहनना चाहिए। प्रायः सवाया वजन ही शुभ माना जाता है एवं पौन अशुभ। महिलाओं को सवा तीन रत्ती से सवा पांच रत्ती तक एवं पुरुषों को सवा पांच रत्ती से सवा आठ रत्ती तक के नग पहनने चाहिएं। हीरा एक अपवाद है। यह कम वजन एवं कई टुकड़ों में भी हो सकता है।
रत्न का शरीर से छूना अति आवश्यक है, से काम करता है, न कि अपवर्तन से। रत्न का कोण भी सम होना चाहिए, जो अंगुली को छूए। लाॅकट आदि में भी रत्न इसी प्रकार छूते हुए जड़वाने चाहिएं। लेकिन अंगुली रश्मियों को आत्मसात करने में अधिक सक्षम होती है। लाॅकेट में कम से कम दुगुने वजन का रत्न होने से उतना असर होगा, जितना अंगूठी में। अतः रत्न को अंगूठी में पहनना ही श्रेष्ठ है।
केवल हीरे को छोड़ कर, जो प्रतिबिंब
किस धातु में रत्न जड़वाएं-स्वर्ण रत्न के लिए उत्तम धातु है। सभी नौ ग्रहो कें लिए स्वर्ण का उपयोग शुभ है। हीरे के लिए प्लेटिनम अत्युत्तम है। नीलम तथा गोमेद के लिए अन्य धातु मिश्रित चैदह कैरट का सोना उत्तम है। मोती के लिए चांदी इस्तेमाल की जा सकती है। मूगें के लिए तांबे की बजाय तांबा मिश्रित स्वर्ण अत्युत्तम है। माणिक, पन्ना, पुखराज तथा लहसुनिया बाईस कैरट सोने मे पहनें।
रत्न किस ऊँगली में पहने- पुरुष को रत्न दाहिने हाथ में एवं स्त्री को बायें हाथ में धारण करना चाहिए। यदि व्यक्ति विशेष बायें हाथ से काम करता है, या कोई स्त्री पुरुष की भांति काम-काज करती है, तो भी स्त्री को बायें एवं पुरुष को दायंे हाथ में ही रत्न धारण करना चाहिए। छोटी अंगुली में हीरा एवं पन्ना, अनामिका में माणिक, मोती, मूंगा तथा लहसुनिया, बीच की अंगुली में नीलम तथा गोमेद एवं तर्जनी में पुखराज पहनना उत्तम है। हीरा अनामिका एवं बीच की अंगुली में पहना जा सकता है। पन्ना अनामिका में तथा लहसुनिया छोटी अंगुली में भी पहने जा सकते हैं।
रत्न कब तथा कैसे धारण करें- रत्न को धारण करने के लिए आवश्यक है कि पहली बार पहनते समय शुभ मुर्हूत हो एवं चंद्र बली हो, समय, वार एवं नक्षत्र रत्न के अनुकूल हों। ऐसे समय में रत्न को गंगा जल एवं पंचामृत में धो कर धूप, दीप दिखा कर, ग्रह के मंत्रोच्चारण सहित धारण करना चाहिए। इस प्रकार रत्न का शुभ फल अधिक होता है एवं अशुभ फल में न्यूनता आती है। माणिक रविवार, मोती सोमवार, मूंगा मंगलवार, पन्ना तथा लहसुनिया बुधवार, पुखराज गुरुवार, हीरा शुक्रवार, नीलम और गोमेद शनिवार को धारण करने चाहिएं। सभी रत्न प्रातः, नीलम सूर्यास्त से पहले एवं गोमेद सूर्यास्त के बाद धारण करना श्रेष्ठ है।
रत्न कब तक पहने- कोई भी रत्न तीन साल तक ही पूर्णतया फल देने में सक्षम है। केवल हीरा पूर्ण काल तक पूरे फल देता है। अतः आवश्यक है कि तीन वर्ष बाद हम रत्न बदल लें, या उस रत्न को उतार कर रख दें एवं कुछ साल बाद दोबारा पहनें, या रत्न किसी और को दे दें। यदि आपका वांछित कार्य हो गया हो, या दशा बदल गयी हो, तो भी रत्न उतार देना चाहिए।
माणिक, मोती, मूंगा, पुखराज के साथ नीलम तथा गोमेद नहीं पहनना चाहिए। हीरा, पन्ना और लहसुनिया के साथ अन्य कोई भी रत्न धारण करने में दोष नहीं है। लेकिन हीरे के साथ माणिक्य, मोती एवं पुखराज को परख कर ही पहनना चाहिए। आम तौर पर लोग रत्न को उतारने के लिए समय आदि पर ध्यान नहीं देते हैं। ऐसा नहंीं करना चाहिए। रत्न को उसके वार के दिन ही उतार कर रखना चाहिए। उतार कर उसे गंगा जल में धो कर सुरक्षित स्थान पर रखें एवं उसके बाद उस ग्रह की वस्तुओं का दान करें।यदि रत्न खो जाए, या चोरी हो जाए, तो समझें कि ग्रह के दोष खत्म हुए। यदि रत्न में दरार पड़ जाए, तो समझें कि ग्रह बहुत प्रभावशाली है। उसकी शांति भी करवाएं। यदि रत्न का रंग फीका पड़े, तो ग्रह का असर शांत हुआ समझें।

future for you astrological news garbhpat aur pitradosh 14 02 2016

future for you astrological news swal jwab 2 14 02 2016

future for you astrological news swal jwab 1 14 02 2016

future for you astrological news swal jwab 14 02 2016

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 14 02 2016

future for you astrological news rashifal leo to scorpio 14 02 2016

future for you astrological news rashifal mesh to kark 14 02 2016

future for you astrological news panchang 14 02 2016

Friday, 12 February 2016

future for you astrological news rahu aur electronics connection 12 02 2016

future for you astrological news swal jwab 2 12 02 2016

future for you astrological news swal jwab 12 02 2016

future for you astrological news swal jwab 12 02 2016

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 12 02 2016

future for you astrological news rashifal singh to vrishchik 12 02 2016

future for you astrological news rashifal mesh to kark 12 02 2016

future for you astrological news panchang 12 02 2016

Thursday, 11 February 2016

future for you astrological news sukh me simran kare to dukh kahe ko hoy...

future for you astrological news swal jwab 2 11 02 2016

future for you astrological news swal jwab 1 11 02 2016

future for you astrological news swal jwab 11 02 2016

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 11 02 2016

future for you astrological news rashifal leo to scorpio 11 02 2016

future for you astrological news rashifal leo to scorpio 11 02 2016

future for you astrological news rashifal mesh to kark 11 02 2016

future for you astrological news panchang 11 02 2016

Wednesday, 10 February 2016

रुद्राक्ष आम के पेड़ जैसे एक पेड़ का फल है। ये पेड़ दक्षिण एशिया में मुख्यतः जावा, मलयेशिया, ताइवान, भारत एवं नेपाल में पाए जाते हैं। भारत में ये मुख्यतः असम, अरुणांचल प्रदेश एवं देहरादून में पाए जाते हंै।
रुद्राक्ष के फल से छिलका उतारकर उसके बीज को पानी मे गलाकर साफ किया जाता है। इसके बीज ही रुद्राक्ष रूप में माला आदि बनाने में उपयोग में लाए जाते हंै। इसके अंदर प्राकृतिक छिद्र होते हंै एवं संतरे की तरह फांकें बनी होती हंै जो मुख कहलाती हैं।
रुद्राक्ष की जाति के ही दूसरे फल हैं भद्रास एवं इंद्राक्ष। भद्राक्ष में मुख जनित धारियां नहीं होती हंै। इंद्राक्ष अब लुप्त हो चुका है और देखने में नहीं आता।कहा जाता है कि सती की मृत्यु पर शिवजी को बहुत दुख हुआ और उनके आंसू अनेक स्थानों पर गिरे जिससे रुद्राक्ष (रुद्र$अक्ष अर्थात शिव के आंसू) की उत्पत्ति हुई। इसीलिए जो व्यक्ति रुद्राक्ष धारण करता है उसे सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है। चंद्रमा शिवजी के भाल पर सदा विराजमान रहता है अतः चंद्र ग्रह जनित कोई भी कष्ट हो तो रुद्राक्ष धारण से बिल्कुल दूर हो जाता है। किसी भी प्रकार की मानसिक उद्विग्नता, रोग एवं शनि के द्वारा पीडि़त चंद्र अर्थात साढ़े साती से मुक्ति में रुद्राक्ष अत्यंत उपयोगी है। शिव सर्पों को गले में माला बनाकर धारण करते हैं। अतः काल सर्प जनित कष्टों के निवारण में भी रुद्राक्ष विशेष उपयोगी होता है।
रुद्राक्ष सामान्यतया पांचमुखी पाए जाते है, लेकिन एक से चैदहमुखी रुद्राक्ष का उल्लेख शिव पुराण, पद्म पुराण आदि में मिलता है। रुद्राक्ष के मुख की पहचान उसे बीच से दो टुकड़ों में काट कर की जा सकती है। जितने मुख होते हैं उतनी ही फांकंे नजर आती हैं। हर रुद्राक्ष किसी न किसी ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है। इनका विभिन्न रोगो कें उपचार मे भी विशेंष उपयोग होता है।
रुद्राक्षों में एकमुखी अति दुर्लभ है। शुद्ध एकमुखी रुद्राक्ष तो देखने में मिलता ही नहीं है। नेपाल का गोल एकमुखी रुद्राक्ष अत्यंत ही दुर्लभ है। इसके स्थान पर दक्षिण भारत में पाया जाने वाला एकमुखी काजूदाना अत्यंत ही प्रचलित है। असम में पाया जाने वाला गोल दाने का एकमुखी रुद्राक्ष भी बहुत प्रचलित है। इक्कीस मुखी से ऊपर के रुद्राक्ष अति दुर्लभ हैं। इसके अतिरिक्त अट्ठाइस मुखी तक के रुद्राक्ष भी पाए जाते हैं। मालाएं अधिकांशतः इंडोनेशिया से उपलब्ध रुद्राक्षों की बनाई जाती हैं। बड़े दानों की मालाएं छोटे दानों की मालाओं की अपेक्षा सस्ती होती हैं। साफ, स्वच्छ, सख्त, चिकने व साफ मुख दिखाई देने वाले दानों की माला काफी महंगी होती है।
रुद्राक्ष के अन्य रूपों में गौरी शंकर, गौरी गणेश, गणेश एवं त्रिजुटी आदि हैं। गौरी शंकर रुद्राक्ष में दो रुद्राक्ष प्राकृतिक रूप से जुड़े होते हैं। ये दोनों रुद्राक्ष गौरी एवं शंकर के प्रतीक हैं। इसे धारण करने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता बनी रहती है। इसी प्रकार गौरी गणेश में भी दो रुद्राक्ष जुड़े होते हैं एक बड़ा एक छोटा, मानो पार्वती की गोद में गणेश विराजमान हों। इस रुद्राक्ष को धारण करने से पुत्र संतान की प्राप्ति होती है एवं संतान के सभी प्रकार के कष्टों का निवारण होता है। गणेश रुद्राक्ष में प्राकृतिक रूप से हाथी की सूंड जैसी आकृति बनी होती है। इसे धारण करने से सभी प्रकार के अवरोध दूर होते हैं एवं दुर्घटना से बचाव होता है। त्रिजुटी रुद्राक्ष में तीन रुद्राक्ष प्राकृतिक रूप से जुड़े होते हैं। यह अति दुर्लभ रुद्राक्ष है और इसे धारण करने से सभी प्रकार के कष्टों का निवारण होता है।
रुद्राक्ष के बारे में कुछ भ्रम भी प्रचलित हैं। जैसे कि पहचान के लिए कहा जाता है कि तांबे के दो सिक्कों के बीच में यदि रुद्राक्ष को रखा जाए और वह असली हो तो धीमी गति से घूमता हुआ नजर आएगा। वास्तव में रुद्राक्ष जैसी किसी भी गोल कांटेदार वस्तु को यदि इस तरह पकड़ा जाएगा तो वह असंतुलन के कारण घूमेगी। दूसरा भ्रम यह है कि असली रुद्राक्ष पानी में डूबता है, नकली नहीं। यह बात इस तथ्य तक तो सही है कि लकड़ी का बना कृत्रिम रुद्राक्ष नहीं डूबेगा। रुद्राक्ष का बीज भारी होने के कारण डूब जाता है लेकिन यदि असली रुद्राक्ष पूरा पका नहीं हो या छिद्र में हवा भरी रह गई हो तो वह भी पानी से हल्का ही रहता है, डूबता नहीं।
अधिक मुख वाले रुद्राक्ष एवं एकमुखी रुद्राक्ष महंगे होने के कारण नकली भी बना लिए जाते हैं। प्रायः कम मुखी रुद्राक्ष में अतिरिक्त मुख की धारियां बना दी जाती हैं जिससे कम मूल्य का रुद्राक्ष अधिक मूल्य का हो जाता है। इस तथ्य की जांच करने के लिए रुद्राक्ष को बीच से काटकर फांकों की गिनती की जा सकती है। दूसरे, अनुभव द्वारा इन कृत्रिम धारियों और प्राकृतिक धारियों में अंतर किया जा सकता है। कभी-कभी दो रुद्राक्षों को जोड़कर भी एक महंगा रुद्राक्ष बना लिया जाता है। गौरी शंकर, गौरी गणेश या त्रिजुटी रुद्राक्ष अक्सर इस प्रकार बना लिए जाते हैं। इसकी जांच के लिए यदि रुद्राक्ष को पानी में उबाल दिया जाए तो नकली रुद्राक्ष के टुकड़े हो जाएंगे जबकि असली रुद्राक्ष ज्यों का त्यों रह जाएगा। कई बार नकली रुद्राक्ष को भारी करने के लिए छिद्रों में पारा या सीसा भर दिया जाता है। उबालने से यह पारा या सीसा बाहर आ जाता है और रुद्राक्ष तैरने लगता है। कई बार देखने में आता है कि रुद्राक्ष पर सर्प, गणेश, त्रिशूल आदि बने होते हैं। ये सभी आकृतियां प्राकृतिक नहीं होती हैं, इस प्रकार के रुद्राक्ष केवल नकली ही होते हैं। अतः महंगे रुद्राक्ष किसी विश्वसनीय प्रतिष्ठान से ही खरीदना उचित है।

परीक्षा की तैयारी कैसे करें

विद्यार्थियों के लिए परीक्षा का समय पास आ रहा है और परीक्षा पास आते ही विद्यार्थियों को उसका  भय सताने लगता है। पढ़ाई में मन नहीं लगना, पाठ याद न होना, पुस्तक खुली होने पर भी मन का पढ़ाई में एकाग्रचित्त न होना, रात को देर तक नींद न आना या मध्य रात्रि में नींद उचट जाना आदि परीक्षा के भय के लक्षण हंै।
परीक्षा पढ़ाई का केवल एक मापक है, यह विद्यार्थी के ज्ञान का आकलन मात्र है। व्यक्ति के जीवन में उतार चढ़ाव या लाभ-हानि इसके द्वारा निर्धारित नहीं होते। किसी भी परीक्षा में सफल होने के लिए कुछ सूत्र होते हैं। इन सूत्रों को जान लेने, समझ लेने और उनके उपयोग करने से अच्छी सफलता सहजता से प्राप्त हो सकती है। परीक्षा के भय से मुक्ति के लिए निम्नलिखित सूत्र लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं-
1.पाठ्यक्रम की तैयारी परीक्षा में संभावित प्रष्नों के अनुसार ही करनी चाहिए। अतः पिछले वर्षों के परीक्षा पत्रों का अभ्यास भी उपरोक्त सूत्रों में से एक सूत्र है।
2.पाठ्यक्रम बृहत् होने के कारण यह संभव नहीं होता कि परीक्षा के समय पूरे पाठ्यक्रम को दोहराया जा सके या उसका अभ्यास किया जा सके। अतः महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम के लघुपत्रक बना लेने चाहिए। परीक्षा के समय उनका उपयोग समय की बचत करा सकता है।
3.सबसे पहले क्रमसे अधिक महत्वपूर्ण भागों को निर्धारित कर लें। केवल महत्वपूर्ण अंशों का अध्ययन करें और समय बचने पर ही अन्य अंशों की प़ढ़ाई करें।
4.जब परीक्षा के भय के कारण परीक्षा में मन लगना बिल्कुल बंद हो जाए, तो उस समय केवल एक महत्वपूर्ण पाठ या प्रष्न पर अपना ध्यान केंद्रित करें। उसे पूरी तरह से समझ कर याद कर लें। एक प्रष्न तैयार होने के बाद मन स्वतः ही दूसरे प्रष्न में लगने लगेगा।
5.पढ़ाई में मन नहीं लगने का एक कारण होता है समय का अभाव और पाठ्यक्रम का विस्तृत होना। ऐसे में यदि पाठ्यक्रम का विभाजन कर मुख्य भाग की तैयार कर लें तो 80 प्रतिशत तक की तैयारी 50 प्रतिशत समय में हो जाती है। यदि इस मुख्य भाग पर कोशिश कर अच्छी तैयारी कर ली जाए तो अधिक अंक प्राप्त किए जा सकते हैं।
6.ज्योतिषानुसार षनि की साढ़ेसाती और ढैया भी पढ़ने में अरुचि पैदा कर देती हंै। अतः किसी ज्ञानी पंडित द्वारा विद्यार्थी की पत्री को पढ़वाकर उसके उपाय करना उचित रहता है। इसके लिए सरसों के तेल का छाया दान या षनि की वस्तुओं का दान लाभदायक होता है। षनि के मंत्रों का जप व षनि मंदिर के दर्षन मन को एकाग्रचित्त करते हैं।
7.मन को एकाग्रचित्त करने के लिए प्राणायाम अत्यंत प्रभावशाली पाया गया है। इससे शरीर के अंदर की अशुद्ध वायु बाहर निकल जाती है और स्वच्छ वायु शरीर के स्नायुओं को पुनः क्रियान्वित व ऊर्जित कर देती है। इससे शरीर में शक्ति व स्फूर्ति पैदा होती है और मन एकाग्र हो जाता है। इसके लिए एक समय में केवल 5 से 10 बार सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया को पूरी करें। परीक्षाओं के समय 5 से 10 बार तक अपने पढ़ने के स्थान पर ही प्राणायाम कर लेना लाभदायक होता है।
8.सरस्वती यंत्र की स्थापना और सरस्वती मंत्र का जप भी परीक्षा में उत्तम अंक प्राप्त करने के लिए लाभप्रद है।
9.निम्न देवी के मंत्र का जप विद्या प्राप्ति के लिए अत्यंत उत्तम है।
10.गायत्री मंत्र का जप रुद्राक्ष व स्फटिक मिश्रित माला पर करना श्रेयस्कर है।
11.सरस्वती मंत्र सहित सरस्वती लाॅकेट बुधवार को धारण करें।
12.चार मुखी और छः मुखी रुद्राक्ष युक्त पन्ने का त्रिषक्ति कवच पढ़ाई में ध्यान केंद्रित करने में अत्यंत लाभदायक लाभप्रद है।
13.बुधवार को गणेष जी को लड्डुओं का भोग लगाएं।
14.पढ़ाई के कमरे में मां सरस्वती का चित्र लगाकर रखें।
15.पढ़ते समय अपना मुख पूर्व या ईशान की ओर रखें। इससे मन एकाग्र रहेगा।
16सोते समय अपने पैर उत्तर व सिर दक्षिण दिशा में रखें। इससे नींद गहरी आएगी और प्रातः काल ताजा व ऊर्जावान महसूस करेंगे।
परीक्षा के समय परीक्षा की तैयारी तो अवश्य करें लेकिन कितनेे अंक प्राप्त होंगे इस पर विचार नहीं करना चाहिए क्योंकि फल की आसक्ति ही मनुष्य को कमजोर बनाती है। दूसरे, हम यदि आने वाले अंकों पर विचार भी करेंगे तो इससे अंकों में बढ़ोतरी तो होगी नहीं, बल्कि सोच के कारण मन न लगने से अंक कम अवश्य हो सकते हैं।


  -

कौन सा उपाय कब करें!!!!!

अपने भाग्य से किंचित ही कोई संतुष्ट होगा। जिसके पास जो है उससे अधिक पाने की चेष्टा सदैव रहती है। कष्टों का निवारण व भविष्य में आने वाले दुःखों से छुटकारा सभी प्राप्त करना चाहते हैं। ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों की स्थिति व बलाबल के अनुसार अनेक प्रकार के उपाय बताए गए हैं जैसे:- रत्न धारण, रुद्राक्ष धारण, देव दर्शन, मंत्रोच्चारण, यंत्र व वास्तु स्थापना, दान, जड़ी बूटी उपयोग, स्नान, विसर्जन, हवन, जमीन में गाड़ना आदि। प्रत्येक उपाय का विशेष उपयोग है।
1.रत्न धारण-रत्न ग्रह से आ रही रश्मियों को सोखकर शरीर को प्रदान करता है। इसलिए शुभ ग्रहों की रश्मियों को अधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए उन ग्रहों के रत्नों को धारण किया जाता है। यदि ग्रह कमजोर हो तो रत्न धारण से तुरंत लाभ प्राप्त होता है।
2.रुद्राक्ष धारण शिवजी के आंसुओं से रुद्राक्ष की उत्पत्ति मानी गई है। अतः इसक¨ धारण करने से शिवजी की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है। दुर्लभ एक मुखी रुद्राक्ष तो पूर्ण रूप से शिवजी का ही प्रतीक है। रुद्राक्ष 1 से 21 मुखी तक पाए जाते हैं। इनमें 4, 5 व 6 मुखी रुद्राक्ष आम तौर पर पाए जाते हैं। इनमे भी 5 मुखी ही सबसे अधिक प्राप्त होता है। जो ग्रह अशुभ स्थान पर बैठा हो, उसकी अशुभता कम करने के लिए व शुभता बढ़ाने के लिए रुद्राक्ष धारण करते हैं। अतः जिन ग्रहों के रत्न धारण नहीं कर सकते उनके रुद्राक्ष धारण करना श्रेयस्कर होता है।
1 मुखी-सूर्य, 2 मुखी-चंद्र, 3 मुखी-मंगल, 4 मुखी-बुध, 5 मुखी-गुरु, 6 मुखी-शुक्र, 7 मुखी-शनि, 8 मुखी-राहु, 9 मुखी-केतु, 10 मुखी-व्यवसाय, 11 मुखी-लाभ, 12 मुखी-विदेश यात्रा, 13 मुखी- आकर्षण व नजर दोष, 14 मुखी-शनि का विशेष प्रभाव, 15 मुखी-अर्थ, 16 मुखी-राहु दोष मुक्ति, 17 मुखी-सर्वार्थसिद्धि, 18 मुखी- सर्व दोष मुक्ति, 19-सर्वकार्य सिद्धि, 20-धनार्जन व व्यावसायिक उन्नति, 21 मुखी-सर्वदोष निवारण व शनि दोष हनन हेतु पहनना चाहिए।
इसके साथ ही कुछ विशेष प्रकार के रुद्राक्ष प्राप्त होते हैं। जैसे- गणेश रुद्राक्ष - विघ्न नाशक, गौरी शंकर रुद्राक्ष- वैवाहिक सुख, गौरी गणेश रुद्राक्ष - संतान सुख व त्रिजुटी रुद्राक्ष - सर्वमंगल प्राप्ति हेतु धारण किए जाते हैं।
3.देव दर्शन- किसी भी ग्रह की अशुभता को न्यून करने में उस ग्रह के प्रतिष्ठित देव दर्शन से लाभ प्राप्त होता है। जैसे मंगल व शनि के लिए हनुमान जी की, गुरु के लिए विष्णु जी, बुध के लिए गणेश जी, शुक्र के लिए दुर्गा जी, चंद्र के लिए शिव जी या कृष्ण जी, सूर्य के लिए श्री रामजी आदि।
4.मंत्रोच्चारण- यदि ग्रह वायु तत्व राशि में बैठा हो, तो उसके मंत्रोच्चारण से शीघ्र लाभ प्राप्त होता है। ग्रह के तांत्रिक मंत्र विशेष लाभदायी हैं। पूर्ण कष्ट निवारण के लिए सवा लाख मंत्रों का जप, तदुपरांत हवन इत्यादि करना चाहिए।
5.यंत्र स्थापना-ग्रह या देव मंत्र जप के साथ यदि उसका यंत्र भी स्थापित कर लिया जाए तो जप का असर अनेक गुणा व अधिक समय तक प्राप्त होता है। कहते हैं यंत्र में देव मूर्ति से सौ गुणा ऊर्जा होती है। यंत्र भी मंत्र द्वारा जाग्रत होने के पश्चात ही फल दायक होते हैं
6.वास्तु स्थापना-अनेक दोषों को दूर करने के लिए विशेष चित्र, घंटिया, पिरामिड, आदि की स्थापना की जाती है जो कि वातावरण की अशुद्ध ऊर्जा को समाप्त कर शुद्ध ऊर्जा को बढ़ाते हैं।
7.दान-जो ग्रह अशुभ व बलवान हो, उनकी वस्तुओं के दान से उनकी अशुभता का हनन होता है जैसे सूर्य के लिए लाल मसूर दाल का दान, चंद्रमा के लिए जल का दान, मंगल के लिए गुड़ का दान, बुध के लिए हरे चारे का दान, गुरु के लिए पीली दाल का दान, शुक्र के लिए चावल, शनि के लिए सरसांे के तेल, राहू के लिए काले कंबल व केतु के लिए सप्त धान्य का दान।
8.जड़ी-बूटी उपयोग-प्रत्येक ग्रह की कुछ जड़ी बूटियां हैं। ग्रहों को बलवान करने के लिए उनकी जड़ी बूटियों का सेवन करना चाहिए या पानी में भिगोकर उनसे स्नान करना चाहिए।
9.विसर्जन-किसी भी जल तत्व राशि स्थित ग्रह की अशुुभता को दूर करने के लिए उस ग्रह की वस्तुओं का विसर्जन करना उत्तम उपाय है।
जैसे सूर्य के लिए लाल कपड़े में बांधकर मलका, मसूर की दाल का विसर्जन, चंद्रमा के लिए गंगाजी में दूध विसर्जन, मंगल के लिए गुड़ विसर्जन, बुध के लिए साबुत मूंग विसर्जन, गुरु के लिए हल्दी की गांठ, शुक्र के लिए दही व खीर विसर्जन, शनि के लिए काले चने, राहु के लिए कोयले व केतु के लिए नारियल विसर्जन।
10.हवन-अशुभ ग्रहों को शुभ बनाने के लिए हवन करना चाहिए। यदि ग्रह अग्नि तत्व राशि में बैठा है तो फल शीघ्र प्राप्त होते हैं।
11जमीन में गाढ्ना- यदि ग्रह भूमि तत्व राशि में हो तो ग्रह के पदार्थ भूमि में गाड़ने से उसकी अशुभता समाप्त होती है। कई बार अनजाने में हम शुभ ग्रह की वस्तुओं का विसर्जन या दान आदि कर देते हैं जिससे उसके बल में क्षीणता आती है व शुभता में न्यूनता आती है। अतः ग्रह किस राशि में किस भाव में स्थित है उसके अनुसार उसकी शुभता अशुभता का ज्ञान कर उपाय चयन करना चाहिए जिससे उस ग्रह के पूर्ण लाभ प्राप्त हो सकें।

कालसर्प योग का खगोलीय विश्लेषण



काल सर्प योग राहु से केतु के मध्य अन्य सभी ग्रहों के आ जाने से बनता है। जब राहु से केतु के मध्य अन्य ग्रह होते हैं, तो उदित और जब केतु से राहु के मध्य होते हैं, तो अनुदित काल सर्प योग की रचना होती है। राहु जिस भाव में स्थित होता है उसी के अनुसार 12 प्रकार के काल सर्प योग बनते हैं। उनका फल भी उन्हीं भावों के अनुसार कहा गया है, जिसका विवेचन इस पत्रिका में विस्तार से किया गया है।
काल सर्प योग को समझने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है राहु और केतु को समझना। राहु और केतु क्या हैं यह निम्नलिखित तथ्यों से समझा जा सकता है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा एक समतल में करती है। चंद्रमा भी पृथ्वी की परिक्रमा एक समतल में करता है।
लेकिन यह पृथ्वी के समतल से एक कोण पर रहता है। दोनों समतल एक दूसरे को एक रेखा पर काटते हैं। एक बिंदु से चंद्रमा ऊपर और दूसरे से नीचे जाता है। इन्हीं बिंदुओं को राहु और केतु की संज्ञा दी गई है।
सूर्य, चंद्र, राहु एवं केतु जब एक रेखा में आ जाते हैं, तो चंद्र और सूर्य ग्रहण लगते हैं। जब राहु और केतु की धुरी के एक ओर सभी ग्रह आ जाते हैं, तो काल सर्प योग की उत्पत्ति होती है।
यह योग तभी बनता है जब सभी ग्रहों के साथ गुरु और शनि भी एक ओर आ जाएं। क्योंकि राहु और केतु के अतिरिक्त केवल शनि और गुरु ही धीमी गति से चलते हैं, अतः शनि व गुरु का एक ओर आ जाना ही काल सर्प योग की उत्पत्ति का एक प्रमुख कारण होता है। सूर्य, बुध व शुक्र तो प्रायः साथ ही रहते हैं और चंद्रमा शीघ्रगामी है, अतः गुरु व शनि के अतिरिक्त मंगल की स्थिति काल सर्प योग के होने अथवा न होन
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
कालसर्प योग से संबंधित कुछ मुख्य तथ्य
सूर्य की गति के कारण काल सर्प योग कभी भी 6 महीने से अधिक अवधि के लिए नहीं आता।
इन 6 महीनो में भी चंद्रमा की गति के कारण 2 सप्ताह यह योग रहता है और 2 सप्ताह नहीं रहता। जब कभी चंद्रमा धुरी से बाहर हो जाता है, तब यह आंशिक काल सर्प योग कहलाता है।
प्रति वर्ष काल सर्प योग की उत्पत्ति नहीं होती, बीच में कई वर्षों तक यह योग नहीं बनता है।
यह योग 2-3 बार उदित रूप से बनने के पश्चात 2-3 बार अनुदित रूप से और पुनः उदित रूप से बनता है।
राहु को गुरु को पुनः स्पर्श करने में 7 वर्ष 2 माह लगते हैं। अतः उदित अनुदित भी लगभग 7 वर्ष के चक्र में बनते हैं।
काल सर्प योग की सटीक गणना करने के लिए राहु व केतु के अंशों से अन्य ग्रहों के अंशों को देखना चाहिए। उदित काल सर्प योग में अन्य ग्रहों के अंश राहु से कम व केतु से अधिक होने चाहिए जबकि अनुदित में इसके विपरीत।
खगोल सिद्धांत के अनुसार उदित व अनुदित रूप में काल सर्प योग में केवल राहु से अन्य ग्रहों की स्थिति में अंतर है। अतः फलादेश में अनुदित का फल भी उदित के समरूप ही समझना चाहिए।
काल सर्प योग के समय सभी ग्रहों के एक ओर हो जाने से पृथ्वी के ऊपर उनका आकर्षण एक ओर अधिक हो जाता है। इस असंतुलन के कारण भूकंप आदि आते हैं। ऐसी स्थिति में जनमानस में उद्विग्नता व्याप्त हो जाती है और युद्ध आदि के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
काल सर्प योग में सभी दृश्य ग्रह पृथ्वी के एक ओर आ जाते हैं जिसके कारण पृथ्वी पर एक ओर खिंचाव पड़ता है और समुद्र में ज्वार भाटा अधिक तीव्रता से आते हैं।
एक सर्वेक्षण के अनुसार काल सर्प योग के समय सामान्य प्रसव की संख्या कम हो जाती है।
इस योग को किसी भी प्रकार से राहु काल के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। यह योग ग्रहों की आकाश
मंडल में विशेष स्थिति है जबकि राहु काल दिन के आठवें भाग अर्थात लगभग 1) घंटे की अवधि को कहते हैं, जिसका स्वामी राहु होता है। राहु काल में किसी शुभ कार्य का प्रारंभ वर्जित बताया गया है और यह मुहूर्त का एक अंग है। इसका जातक की कुंडली से कोई संबंध नहीं है जबकि काल सर्प योग का मुख्य फल जातक को मिलता है। इसका प्रभाव पृथ्वी पर एवं मनुष्य के जीवन पर विशेष रूप से देखा गया है।
काल सर्प योग के बारे में अनेक चर्चाएं सुनने को मिलती हैं कि इस योग का वर्णन कहीं नहीं है। केवल सर्प योग का ही शास्त्रों में वर्णन है। इस बारे में यह कहना चाहूंगा कि बहुत से योगों का वर्णन नहीं होता। नए योग हम अपने अनुभव व शोध के द्वारा उपयोग में लाते हैं। शोध जीवन का एक प्रमुख अंग है। यदि किसी नए योग का फल देखने में आता है, तो इसे उपयोग में अवश्य ही लाना चाहिए।
निष्कर्षतः, काल सर्प योग पृथ्वी पर जितना उथल पुथल मचाता है, शायद जातक को उतना ही प्रभावशाली बनाता है, लेकिन उससे परिश्रम करवा कर। उपाय केवल परिश्रम के कष्ट को कम करने के लिए होते हैं। जातक के लिए इस योग के फल तो शुभ ही होते हैं।

कुंडली मिलान के घटक

संभाव्य वर एवं वधू के स्वभाव, मानसिक स्तर, पसन्द एवं नापसंद की परख जन्मकुण्डली में ग्रहों की स्थिति के विष्लेषण एवं दोनों की कुण्डलियों में मौजूद ग्रहों के आधार पर किया जाता है। यदि दोनों साथियों के गुणों में अधिकतम समानता है तो उनके बीच प्रेम, सौहार्द तथा एक-दूसरे के प्रति एवं परिवार के प्रति आकर्षण निश्चित है। यदि स्थिति इसके विपरीत है तो दोनों का दाम्पत्य संबंध तनावपूर्ण, दुःखी एवं समस्याग्रस्त होगा तथा ऐसी स्थिति में कालान्तर में सम्बन्धों में दरार पड़ना भी अवश्यंभावी हो जाता है। अतः हमेशा यह सलाह दी जाती है कि पति-पत्नी के बीच चिर स्थायी सम्बन्धों की स्थापना, प्रेम तथा सामंजस्य को सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य रूप से कुण्डली मिलान को प्राथमिकता दी जाय। यदि कुण्डली मिलान में दोनों के अधिकतम गुण मिलते हैं तो यह संभावित है कि दोनों के बीच गहरा प्रेम एवं एक-दूसरे तथा परिवार के लिए त्याग की भावना होगी। कुण्डली मिलान में खासतौर पर इन तथ्यों को दृष्टिगत रखना आवश्यक है:
1 2 आगे के अध्यायों में हम हरेक सिद्धान्त की विवेचना विस्तृत रूप से करेंगे जिन्हें कुण्डली मिलान के लिए आवश्यक समझा जाता है तथा जो विवाहोपरान्त पारस्परिक समझ, विश्वास, शान्ति, सौहार्द, खुशी तथा समृद्धि को सुनिश्चित करने में सहायक होते हैं। हम इसका श्री गणेश अष्टकूट मिलान के साथ कर रहे हैं तथा अलग-अलग अध्याय में हम एक-एक कर इन आठों घटकों के हर पहलू की विस्तृत विवेचना करेंगे।
अष्टकूट मिलान मंगल दोष एवं इसका परिहार
कुण्डली मिलान के कुल आठ घटक होते हैं जिन्हें अष्टकूट के नाम से जाना जाता है। इन आठ कूटों को कुल 36 गुण आवंटित किए गए हैं किन्तु हर कूट के गुणों की संख्या अलग-अलग 1 से लेकर 8 तक है। छात्रों के हित को ध्यान में रखते हुए नीचे गुणों की सारणी प्रस्तुत की जा रही है। हर कूट को निश्चित संख्या में गुण आवंटित किए गए हैं जो निम्नलिखित हैं:
वर्ण को क्यों सिर्फ 1 ही गुण आवंटित किया गया है जबकि नाड़ी को 8 गुण ? इस प्रश्न का कोई भी स्पष्ट एवं संतोषजनक उत्तर नहीं है क्योंकि किसी भी ज्योतिषीय ग्रन्थ अथवा पुस्तक मंे इस बात की चर्चा या व्याख्या नहीं है। लेकिन इतना तो निश्चित है तथा धर्मग्रन्थों में वर्णित है कि अष्टकूट के हर घटक को गुण आवंटित किया गया है तथा गुणों की कुल संख्या 36 है। ज्योतिर्विदों का ऐसा मानना है कि यदि कुण्डली मिलान में न्यूनतम 18 गुण मिल रहे हों तो विवाह किया जाने योग्य है। कुण्डली मिलान में गुणों की संख्या जितनी अधिक होगी आपसी सामंजस्य तथा मेल उतना ही उत्तम होगा। यदि दोनों के बीच मिलान में गण, भकूट एवं नाड़ी दोष मौजूद हों तो 36 में से कम से कम 21 गुण का मिलना आवश्यक है। नाड़ी स्वास्थ्य एवं संतान को इंगित करता है। स्वास्थ्य वैवाहिक जीवन एवं दाम्पत्य सुख के लिए सबसे महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य घटक है। सत्य ही कहा गया है- ‘यदि स्वास्थ्य नहीं तो कुछ भी नहीं।’ यही कारण है कि नाड़ी को सर्वाधिक 8 गुण आवंटित किए गए हैं जो अष्टकूट मिलान में किसी भी घटक का सर्वाधिक गुण है। भकूट संभावित पति-पत्नी का स्वभाव, उनके पसन्द-नापसंद, एक-दूसरे के प्रति आकर्षण आदि को निर्देशित करता है। दो अलग परिवारों के दो अलग-अलग एवं विपरीत लिंग के व्यक्तित्व के लोगों के बीच जिन्हें जीवन भर साथ निभाना है, उनके बीच सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध रहेगा कि नहीं यह जाँचना आवश्यक है। इन्हीं कारणों से भकूट को दूसरा महत्वपूर्ण घटक माना गया है तथा अष्टकूट में इसे 7 गुण आवंटित किए गए हैं। योनि तीन प्रकार के प्राकृतिक गुणों- सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण को निर्दिष्ट करता है। योनि वर तथा कन्या के स्वभाव को प्रकट करता है। यह स्पष्ट करता है कि दोनों किस समूह से संबंध रखते हैं तथा यह भी निर्दिष्ट करता है कि क्या दोनों एक-दूसरे के इतने योग्य हैं कि आजीवन सुखपूर्वक साथ जीवन व्यतीत कर सकें या दोनों हमेशा कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते रहेंगे और एक-दूसरे का तथा परिवार का जीवन दयनीय तथा नारकीय बना देंगे ? अष्टकूट के सभी घटकों का मिलान आवश्यक है। आगे के अध्यायों में इन सभी घटकों का विश्लेषण एवं विवेचन किया जाएगा।
विवाह हेतु कुण्डली मिलान की कुछ अन्य पद्धतियाँ भी विद्यमान हैं किन्तु अष्टकूट मिलान पद्धति सर्वमान्य है तथा दो परिवारों के बीच सामंजस्य एवं समानता की जाँच के लिए, पति-पत्नी के आपसी संबंधों, प्रेम, मानसिक स्तर, दोष साम्य एवं दशा साम्य, दशा सन्धि, आयु तथा सुखी गार्हस्थ्य जीवनके लिए आवश्यक दूसरे तत्वों की जाँच एवं परख के लिए बिल्कुल पर्याप्त है।

यात्रा में शुभाशुभ विचार

गणेश जी के मंत्र का स्मरण कर के यात्रा प्रारंभ करने से यात्रा निर्विघ्न एवं लाभप्रद होती है। शकुन विचार करना भी सफल यात्रा का रहस्य माना गया है। जब हम किसी भी यात्रा को प्रारंभ करते हैं, तो जो भी व्यक्ति, वस्तु, जीव हमारे सम्मुख होते हैं, वे शकुन कहलाते हैं, जैसे किसी स्त्री का दिखना, किसी का छींकना, जानवर दिखना आदि कई शुभाशुभ शकुन होते हैं। यात्रा में हाथी, घोड़ा, ब्राह्मण, जल से भरा हुआ बर्तन, दही, नेवला, पुत्रवती स्त्री, श्रृंगार किये हुए स्त्री, कन्या, सरसांे आदि शुभ शकुन माने गये हैं। बिड़ाल (बिल्ली) युद्ध, अथवा झगड़ा, विधवा स्त्री, बंध्या स्त्री, चमड़ा, सन्ंयासी, लकडि़यां, छींक, बुरे शब्द आदि यात्रा के समय अशुभ शकुन माने गये हैं। यात्रा में पहला अपशकुन हो, तो 11 श्वास ले कर, दूसरा अपशकुन हो, तो 16 श्वास ले कर जाएं और तीसरा अपशकुन हो, तो कभी न जाएं। एक कोस दूर जाने पर शुभ-अशुभ शकुनों का फल नहीं होता है।
यात्राओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है: लघु यात्रा और दीर्घ यात्रा। लघु यात्राएं उन्हें कहते हैं, जो यात्राएं सौ योजन (1200 किमी.) से कम हों तथा दीर्घ यात्रा इससे अधिक दूरी की यात्रा मानी गयी है। लघु यात्रा मात्र होरा एवं राहु काल का विचार कर के आरंभ की जा सकती है।
सूर्योदय से सूर्यास्त तक के दिनमान को 8 भागों में विभाजित कर राहु द्वारा प्रतिनिधित्च किये गये लगभग डेढ़ घंटे के समय को राहु काल कहते हैं। राहु काल में किसी शुभ कार्य के लिए निकलना वर्जित है। जिस दिशा में यात्रा करनी हो, उस दिशा के स्वामी ग्रह की होरा में यात्रा करना शुभ माना गया है। होरा निकालने की विधि इस प्रकार है: सूर्योदय से एक घंटा पर्यंत उसी दिन की होरा होती है। तत्पश्चात एक घंटे तक उस वार से वार की होरा होती है। इसी क्रम में सूर्योदय से ले कर अगले दिन के सूर्योदय तक चैबीस होरा मानी गयी हैं।
दीर्घ यात्रा में योगिनी, काल राहु, गोचर, दिक्शूल, चंद्रमा, भद्रा एवं समय शूल का विचार किया जाता है। यात्रा के समय योगिनी का सम्मुख, अथवा दाहिने भाग में होना अशुभ माना गया है। काल राहु का भी सम्मुख एवं दाहिने होना अशुभ माना गया है।  चंद्रमा का निवास मेष, सिंह एवं धनु राशियों की पूर्व दिशा में होता है। वृष, कन्या और मकर के चंद्रमा का निवास दक्षिण दिशा में होता है। मिथुन, तुला और कुंभ के चंद्रमा का निवास पश्चिम दिशा में होता है। कर्क, वृश्चिक, मीन राशि के चंद्र का निवास उत्तर दिशा में होता है। यात्रा के समय चंद्रमा सम्मुख, अथवा दाहिने भाग में अच्छा फल देता है।
सम्मुखे अर्थ लाभाय दक्षिणे सुख संपदा | पृष्ठतो मरणं चैव वामे चन्द्रे धनक्षय:
अर्थात, चंद्रमा सम्मुख हो, तो धन लाभ, दायें सुख-संपत्ति, पीछे हो, तो मरण एवं बायंे धन हानि देता है। गोचर में चंद्रमा यात्री की राशि से चतुर्थ, अष्टम एवं द्वादश होने से खराब फल देता है तथा अष्टम चंद्रमा में यात्रा वर्जित है। यात्रा में तीनो पूर्वा नक्षत्रों की प्रथम 16 घडि़यां, कृतिका की प्रथम 21 घडि़यां, मघा की 11 घडियां़, भरणी की 7 घडि़यां, स्वाती, विशाखा, ज्येष्ठा, अश्लेषा, इन नक्षत्रों की 14 घडि़यां निषिद्ध मानी गयी हैं। दिक्शूल में यात्रा करने से हानि होती है तथा दुर्घटना का भय बना रहता है। अतः लंबी यात्रा दिक्शूल में नहीं की जाती है। भद्रा में भी यात्रा अशुभ फल देती है। यात्रा में समय शूल पर भी विचार किया जाता है। पूर्व दिशा की यात्रा प्रातः काल नहीं करनी चाहिए। दक्षिण दिशा की यात्रा मध्याह्न में, पश्चिम  दिशा की यात्रा संध्या काल में, उत्तर दिशा की यात्रा मध्य रात्रि में करने से  विपरीत परिणाम मिलते हंै। अतः समय शूल में यात्रा करना वर्जित है। यात्रा प्रारंभ करने से पूर्व रविवार को घृतयुक्त पदार्थ खाना चाहिएं। सोमवार को चंदन का लेप लगा कर यात्रा करनी चाहिए। मंगलवार को गुड़ खा कर यात्रा करनी चाहिए। बुधवार को काला तिल, गुरुवार को दही, अथवा दही से बना पदार्थ, शुक्रवार को घी अथवा घी से निर्मित पदार्थ, शनिवार को तिल से निर्मित पदार्थ खा कर यात्रा करने से यात्रा के अनेक दोष नष्ट होते हैं और यात्रा सफल होती है।