काल सर्प योग राहु से केतु के मध्य अन्य सभी ग्रहों के आ जाने से बनता है। जब राहु से केतु के मध्य अन्य ग्रह होते हैं, तो उदित और जब केतु से राहु के मध्य होते हैं, तो अनुदित काल सर्प योग की रचना होती है। राहु जिस भाव में स्थित होता है उसी के अनुसार 12 प्रकार के काल सर्प योग बनते हैं। उनका फल भी उन्हीं भावों के अनुसार कहा गया है, जिसका विवेचन इस पत्रिका में विस्तार से किया गया है।
काल सर्प योग को समझने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है राहु और केतु को समझना। राहु और केतु क्या हैं यह निम्नलिखित तथ्यों से समझा जा सकता है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा एक समतल में करती है। चंद्रमा भी पृथ्वी की परिक्रमा एक समतल में करता है।
लेकिन यह पृथ्वी के समतल से एक कोण पर रहता है। दोनों समतल एक दूसरे को एक रेखा पर काटते हैं। एक बिंदु से चंद्रमा ऊपर और दूसरे से नीचे जाता है। इन्हीं बिंदुओं को राहु और केतु की संज्ञा दी गई है।
सूर्य, चंद्र, राहु एवं केतु जब एक रेखा में आ जाते हैं, तो चंद्र और सूर्य ग्रहण लगते हैं। जब राहु और केतु की धुरी के एक ओर सभी ग्रह आ जाते हैं, तो काल सर्प योग की उत्पत्ति होती है।
यह योग तभी बनता है जब सभी ग्रहों के साथ गुरु और शनि भी एक ओर आ जाएं। क्योंकि राहु और केतु के अतिरिक्त केवल शनि और गुरु ही धीमी गति से चलते हैं, अतः शनि व गुरु का एक ओर आ जाना ही काल सर्प योग की उत्पत्ति का एक प्रमुख कारण होता है। सूर्य, बुध व शुक्र तो प्रायः साथ ही रहते हैं और चंद्रमा शीघ्रगामी है, अतः गुरु व शनि के अतिरिक्त मंगल की स्थिति काल सर्प योग के होने अथवा न होन
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
कालसर्प योग से संबंधित कुछ मुख्य तथ्य
सूर्य की गति के कारण काल सर्प योग कभी भी 6 महीने से अधिक अवधि के लिए नहीं आता।
इन 6 महीनो में भी चंद्रमा की गति के कारण 2 सप्ताह यह योग रहता है और 2 सप्ताह नहीं रहता। जब कभी चंद्रमा धुरी से बाहर हो जाता है, तब यह आंशिक काल सर्प योग कहलाता है।
प्रति वर्ष काल सर्प योग की उत्पत्ति नहीं होती, बीच में कई वर्षों तक यह योग नहीं बनता है।
यह योग 2-3 बार उदित रूप से बनने के पश्चात 2-3 बार अनुदित रूप से और पुनः उदित रूप से बनता है।
राहु को गुरु को पुनः स्पर्श करने में 7 वर्ष 2 माह लगते हैं। अतः उदित अनुदित भी लगभग 7 वर्ष के चक्र में बनते हैं।
काल सर्प योग की सटीक गणना करने के लिए राहु व केतु के अंशों से अन्य ग्रहों के अंशों को देखना चाहिए। उदित काल सर्प योग में अन्य ग्रहों के अंश राहु से कम व केतु से अधिक होने चाहिए जबकि अनुदित में इसके विपरीत।
खगोल सिद्धांत के अनुसार उदित व अनुदित रूप में काल सर्प योग में केवल राहु से अन्य ग्रहों की स्थिति में अंतर है। अतः फलादेश में अनुदित का फल भी उदित के समरूप ही समझना चाहिए।
काल सर्प योग के समय सभी ग्रहों के एक ओर हो जाने से पृथ्वी के ऊपर उनका आकर्षण एक ओर अधिक हो जाता है। इस असंतुलन के कारण भूकंप आदि आते हैं। ऐसी स्थिति में जनमानस में उद्विग्नता व्याप्त हो जाती है और युद्ध आदि के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
काल सर्प योग में सभी दृश्य ग्रह पृथ्वी के एक ओर आ जाते हैं जिसके कारण पृथ्वी पर एक ओर खिंचाव पड़ता है और समुद्र में ज्वार भाटा अधिक तीव्रता से आते हैं।
एक सर्वेक्षण के अनुसार काल सर्प योग के समय सामान्य प्रसव की संख्या कम हो जाती है।
इस योग को किसी भी प्रकार से राहु काल के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। यह योग ग्रहों की आकाश
मंडल में विशेष स्थिति है जबकि राहु काल दिन के आठवें भाग अर्थात लगभग 1) घंटे की अवधि को कहते हैं, जिसका स्वामी राहु होता है। राहु काल में किसी शुभ कार्य का प्रारंभ वर्जित बताया गया है और यह मुहूर्त का एक अंग है। इसका जातक की कुंडली से कोई संबंध नहीं है जबकि काल सर्प योग का मुख्य फल जातक को मिलता है। इसका प्रभाव पृथ्वी पर एवं मनुष्य के जीवन पर विशेष रूप से देखा गया है।
काल सर्प योग के बारे में अनेक चर्चाएं सुनने को मिलती हैं कि इस योग का वर्णन कहीं नहीं है। केवल सर्प योग का ही शास्त्रों में वर्णन है। इस बारे में यह कहना चाहूंगा कि बहुत से योगों का वर्णन नहीं होता। नए योग हम अपने अनुभव व शोध के द्वारा उपयोग में लाते हैं। शोध जीवन का एक प्रमुख अंग है। यदि किसी नए योग का फल देखने में आता है, तो इसे उपयोग में अवश्य ही लाना चाहिए।
निष्कर्षतः, काल सर्प योग पृथ्वी पर जितना उथल पुथल मचाता है, शायद जातक को उतना ही प्रभावशाली बनाता है, लेकिन उससे परिश्रम करवा कर। उपाय केवल परिश्रम के कष्ट को कम करने के लिए होते हैं। जातक के लिए इस योग के फल तो शुभ ही होते हैं।
काल सर्प योग को समझने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है राहु और केतु को समझना। राहु और केतु क्या हैं यह निम्नलिखित तथ्यों से समझा जा सकता है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा एक समतल में करती है। चंद्रमा भी पृथ्वी की परिक्रमा एक समतल में करता है।
लेकिन यह पृथ्वी के समतल से एक कोण पर रहता है। दोनों समतल एक दूसरे को एक रेखा पर काटते हैं। एक बिंदु से चंद्रमा ऊपर और दूसरे से नीचे जाता है। इन्हीं बिंदुओं को राहु और केतु की संज्ञा दी गई है।
सूर्य, चंद्र, राहु एवं केतु जब एक रेखा में आ जाते हैं, तो चंद्र और सूर्य ग्रहण लगते हैं। जब राहु और केतु की धुरी के एक ओर सभी ग्रह आ जाते हैं, तो काल सर्प योग की उत्पत्ति होती है।
यह योग तभी बनता है जब सभी ग्रहों के साथ गुरु और शनि भी एक ओर आ जाएं। क्योंकि राहु और केतु के अतिरिक्त केवल शनि और गुरु ही धीमी गति से चलते हैं, अतः शनि व गुरु का एक ओर आ जाना ही काल सर्प योग की उत्पत्ति का एक प्रमुख कारण होता है। सूर्य, बुध व शुक्र तो प्रायः साथ ही रहते हैं और चंद्रमा शीघ्रगामी है, अतः गुरु व शनि के अतिरिक्त मंगल की स्थिति काल सर्प योग के होने अथवा न होन
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
कालसर्प योग से संबंधित कुछ मुख्य तथ्य
सूर्य की गति के कारण काल सर्प योग कभी भी 6 महीने से अधिक अवधि के लिए नहीं आता।
इन 6 महीनो में भी चंद्रमा की गति के कारण 2 सप्ताह यह योग रहता है और 2 सप्ताह नहीं रहता। जब कभी चंद्रमा धुरी से बाहर हो जाता है, तब यह आंशिक काल सर्प योग कहलाता है।
प्रति वर्ष काल सर्प योग की उत्पत्ति नहीं होती, बीच में कई वर्षों तक यह योग नहीं बनता है।
यह योग 2-3 बार उदित रूप से बनने के पश्चात 2-3 बार अनुदित रूप से और पुनः उदित रूप से बनता है।
राहु को गुरु को पुनः स्पर्श करने में 7 वर्ष 2 माह लगते हैं। अतः उदित अनुदित भी लगभग 7 वर्ष के चक्र में बनते हैं।
काल सर्प योग की सटीक गणना करने के लिए राहु व केतु के अंशों से अन्य ग्रहों के अंशों को देखना चाहिए। उदित काल सर्प योग में अन्य ग्रहों के अंश राहु से कम व केतु से अधिक होने चाहिए जबकि अनुदित में इसके विपरीत।
खगोल सिद्धांत के अनुसार उदित व अनुदित रूप में काल सर्प योग में केवल राहु से अन्य ग्रहों की स्थिति में अंतर है। अतः फलादेश में अनुदित का फल भी उदित के समरूप ही समझना चाहिए।
काल सर्प योग के समय सभी ग्रहों के एक ओर हो जाने से पृथ्वी के ऊपर उनका आकर्षण एक ओर अधिक हो जाता है। इस असंतुलन के कारण भूकंप आदि आते हैं। ऐसी स्थिति में जनमानस में उद्विग्नता व्याप्त हो जाती है और युद्ध आदि के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
काल सर्प योग में सभी दृश्य ग्रह पृथ्वी के एक ओर आ जाते हैं जिसके कारण पृथ्वी पर एक ओर खिंचाव पड़ता है और समुद्र में ज्वार भाटा अधिक तीव्रता से आते हैं।
एक सर्वेक्षण के अनुसार काल सर्प योग के समय सामान्य प्रसव की संख्या कम हो जाती है।
इस योग को किसी भी प्रकार से राहु काल के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। यह योग ग्रहों की आकाश
मंडल में विशेष स्थिति है जबकि राहु काल दिन के आठवें भाग अर्थात लगभग 1) घंटे की अवधि को कहते हैं, जिसका स्वामी राहु होता है। राहु काल में किसी शुभ कार्य का प्रारंभ वर्जित बताया गया है और यह मुहूर्त का एक अंग है। इसका जातक की कुंडली से कोई संबंध नहीं है जबकि काल सर्प योग का मुख्य फल जातक को मिलता है। इसका प्रभाव पृथ्वी पर एवं मनुष्य के जीवन पर विशेष रूप से देखा गया है।
काल सर्प योग के बारे में अनेक चर्चाएं सुनने को मिलती हैं कि इस योग का वर्णन कहीं नहीं है। केवल सर्प योग का ही शास्त्रों में वर्णन है। इस बारे में यह कहना चाहूंगा कि बहुत से योगों का वर्णन नहीं होता। नए योग हम अपने अनुभव व शोध के द्वारा उपयोग में लाते हैं। शोध जीवन का एक प्रमुख अंग है। यदि किसी नए योग का फल देखने में आता है, तो इसे उपयोग में अवश्य ही लाना चाहिए।
निष्कर्षतः, काल सर्प योग पृथ्वी पर जितना उथल पुथल मचाता है, शायद जातक को उतना ही प्रभावशाली बनाता है, लेकिन उससे परिश्रम करवा कर। उपाय केवल परिश्रम के कष्ट को कम करने के लिए होते हैं। जातक के लिए इस योग के फल तो शुभ ही होते हैं।
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