Wednesday, 17 February 2016

प्रतिस्पर्धात्त्मक परीक्षा में सफलता कैसे ?



मानव के समस्त कार्य और व्यवसाय को संचालित करने में नेत्रों की भूमिका जिस प्रकार अग्रगण्य मानी गई है ठीक उसी प्रकार ज्ञान, विज्ञान विद्या के क्षेत्र में ज्योतिष विज्ञान दृष्टि का कार्य करता है। वेदचक्षुः क्लेदम् स्मृतं ज्योतिषम्। ज्योतिष को वेद की आंख कहा गया है। जिस प्रकार वट वृक्ष का समावेष उसके बीज में होता है ठीक उसी प्रकार जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का बीज रूप होता है जातक की जन्मपत्री। जन्मपत्री के पंचम भाव से विद्या का विचार उत्तर भारत में किया जाता है। दक्षिण भारत में चतुर्थ भाव व द्वितीय भाव से विद्या बुद्वि का विचार किया जाता है। द्वितीय भाव धन व वाणी का स्थान है और विद्या को मनीषियों ने धन ही कहा है जिसका कोई हरण नहीं कर सकता है। विद्या एक ऐसा धन है जिसे न कोई छीन सकता है न चोरी कर सकता है। विद्या धन देने से बढ़ती है। विद्या ज्ञान की जननी है। जीवन को सफल बनाने की दिशा में शिक्षा ही एक उच्च सोपान है जो अज्ञानता के अंधकार से बंधन मुक्त करती है। शिक्षा के बल से ही मानव ने गूढ़ से गूढ़तम (अंधकार) रहस्य से पर्दा उठाया है। आदिकाल से ही मानव को अपना शुभाशुभ भविष्य जानने की उत्कंठा रही है। ज्योतिष विज्ञान इस जिज्ञासा वृत्ति का सहज उत्कर्ष है। जन्मकुंडली का चतुर्थ भाव बुद्वि, पंचम भाव ज्ञान, नवम भाव उच्च शिक्षा की स्थिति को दर्शाता है तो द्वादश भाव की स्थिति जातक को उच्च शिक्षा हेतु विदेश गमन कराती है। ज्ञात हो कि अष्टम भावस्थ क्रूर ग्रह भी शिक्षा हेतु विदेश वास कराता है। किसी भी परीक्षा में सफलता की कुंजी है छात्र की योग्यता और कठिन परीश्रम। यदि इसके साथ-साथ जन्मकुंडली के ग्रहों की अनुकूलता प्राप्त हो तो सफलता मिलती ही है। अपने देश में यह आम धारणा बनी है कि सर्विस पाने के लिए ही शिक्षा ग्रहण की जाती है, यह विचार बहुत ही संकीर्ण है। विद्या व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारती व संवारती है। वेद पुराण सभी में वर्णित है कि जातक को प्रथम विद्या अध्ययन करना चाहिए तत्तपश्चात् कार्य क्षेत्र में उतरे। शिक्षित व्यक्ति को ही विद्याबल से यश, मान, प्रतिष्ठा स्वतः मिलती चली जाती है। शिक्षा हो अथवा सर्विस सभी जगह व्यक्ति को प्रतियोगिता का सामना करना ही पड़ता है। परीक्षा में सफलता हेतु आवश्यक है लगन, कड़ी मेहनत व संबंधित विषयों का विशद् गहन अध्ययन। किंतु सारी तैयारियां हो जाने के पश्चात् भी कभी-कभी असफलता ही हाथ लगती है। जैसे (1) अचानक बीमार पड़ जाना। (2) परीक्षा भवन में सब कुछ भूल जाना। (3) परीक्षा से भयभीत होकर पूर्ण निराश होना। (4) स्वयं के साथ अनायास दुर्घटना घट जाना कि परीक्षा में बैठ ही न सके। (5) परिवार में अनायास दुःखद घटना घट जाना, जिससे पढने से मन उचाट होना आदि अनेक कारणों से परीक्षा में व्यवधान आते हैं जिससे छात्रों को असफलता का मुंह देखना पड़ता है। ग्रहों का प्रभाव (चंद्र): चंद्र मन का कारक ग्रह है और परीक्षा में सफलता हेतु मन की एकाग्रता अति आवश्यक है। ज्योतिषिय दृष्टि से यदि चंद्र शुभ, निर्मल, डिग्री आधार पर बलवान हो, किसी शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो व्यक्ति बड़ी आसानी से (लगन से) अपने विषय में महारत हासिल करेगा। चंद्र यदि पापाक्रांत हो राहु, शनि, केतु का साथ हो पंचमेश छठे, आठवें, द्वाद्वश भाव में हो तो शिक्षा अधूरी रह जाएगी। व्यक्ति सदैव चिंताग्रस्त व विकल रहेगा। बुध: बुध बुद्वि, विवेक, वाणी का कारक ग्रह है। बुध गणितिय योग्यता में दक्ष और वाणी को ओजस्वी बनाता है। बुध यदि केंद्र में भद्र योग बनाये। सूर्य के साथ बुधादित्य योग घटित करे, निज राशि में बलवान हो तो व्यक्ति उच्च शिक्षा में सफलता हासिल करता है किंतु यदि बुध नीच, निर्बल, अस्त, व क्रूर ग्रहों के लपेटे में हो तो बुध अपनी शुभता खो देगा। फलतः गणितीय क्षेत्र, व्यापार क्षेत्र, कम्प्यूटर शिक्षा में असफल हो जाता है। यदि जन्मकुंडली में बुधादित्य-योग, गजकेसरी-योग, सरस्वती-योग, शारदा-योग, हंस-योग, भारती-योग, शारदा लक्ष्मी योग हो तो जातक उच्च शिक्षा अवश्य प्राप्त कर (अच्छे अंक से) सफल होगा। द्वितीय भाव का बुध मधुरभाषी व व्यक्ति को व्यवहार कुशल बनाता है व बुद्वि बल चतुरता से सफलता की ओर अग्रसर करता है। जबकि पंचम भाव का बुध व्यक्ति को कलाप्रिय व विविध विषयों का जानकार व अपने व्यवहार से दूसरांे को वश में करने वाला होता है। गुरु: उच्च स्तरीय ज्ञान-गुरु ही दिलाते हैं। गुरु ज्ञान का विस्तार करते हैं। अतः जन्मकुंडली में गुरु की शुभ स्थिति विद्या क्षेत्र व प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता दिलाती है। गुरु $ शुक्र का समसप्तक योग यदि पंचम व एकादश भाव में बने व केंद्र में शनि, बुध, उच्च का हो तो व्यक्ति कानून की पढ़ाई में उच्च शिक्षित होगा और शनि गुरु की युति न्यायाधीश बना देगी। ज्योतिष के आधार पर परीक्षा में असफलता के योग: (1) यदि चतुर्थेश, छठे, आठवें द्वाद्वश हो तो उच्च शिक्षा में बाधा, पढ़ाई में मन नहीं लगेगा। (2) यदि चतुर्थेष निर्बल, अस्त, पाप, व क्रूर ग्रहों से आक्रांत हो तो शिक्षा प्राप्ति में बाधा। (3) यदि द्वितियेश पर चतुर्थ, पंचम भाव पर क्रूर ग्रह की दृष्टि हो या इन भावों ने अपना शुभत्व खो दिया हो तो शिक्षा प्राप्ति में बाधा। (4) ग्रहण योग बना हो। उक्त स्थानों में या ग्रहणकाल में जन्म हुआ हो तो शिक्षा अधूरी। (5) गुरु नीच, निर्बल, पापाक्रांत होने सेे उच्च शिक्षा प्राप्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा। (6) जन्मकुंडली में केंद्रुम योग हो। शिक्षा में बाधा। (7) चंद्र के साथ शनि उक्त स्थानों में विष योग बना रहा हो तो पढ़ाई अवरुद्ध। (8) कुंडली में क्षीण चंद्र हो तो शिक्षा में बाधा आती है। (9) बुध नीच, निर्बल, अशुभ हो तो शिक्षा पूर्ण नहीें होगी। (10) आत्मकारक ग्रह सूर्य यदि पीड़ित, निर्बल अशुभ प्रभाव में हो तो प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा में ही छात्र का आत्म बल घट जाने से प्रायोगिक (प्रेक्टिकल) परीक्षा में ही घबरा कर घर बैठ जाएगा। उच्च शिक्षा से वंचित हो जाएगा। (11) पंचम, द्वितीय, चतुर्थ, व अष्टम में शनि नीच का हो तो शिक्षा अधूरी रहे। त्वरित उपाय करें। ग्रहयोगों के आधार पर प्रतिस्पर्धा में सफलता: (1) लग्नेश पंचमेश चतुर्थेश का संबंध केंद्र या त्रिकोण से बनता हो या इनमें स्थान परिर्वतन हो तो सफलता मिलेगी। (2) कुंडली में कहीं पर भी बुधादित्य योग हो तो सफलता मिलेगी लेकिन बुध दस अंश के ऊपर न हो। (3) केंद्र में उच्च के गुरु, चंद्र शुक्र, शनि यदि हो तो जातक परीक्षा (प्रतियोगिता) में असफल नहीं होता। (4) पंचम के स्वामी गुरु हो और दशम भाव के स्वामी शुक्र हो तथा गुरु दशम भाव में शुक्र पंचम भाव में हो तो निश्चित सफलता मिलती है। (5) लग्नेश बलवान हो। भाग्येश उच्च का होकर केंद्र या त्रिकोण में स्थित हो तो सफलता हर क्षेत्र में मिलती है। (6) लग्नेश त्रिकोण में धनेश एकादश में तथा पंचम भाव में पंचमेश की शुभ दृष्टि हो तो जातक विद्वान होता है। प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त करता है। (7) चंद्रगुरु में स्थान परिवर्तन हो चंद्रमा पर गुरु की दृष्टि हो तो सरस्वती योग बनने से ऐसा जातक सभी क्षेत्र में सफल होगा, कहीं भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा। (8) चारों केंद्र स्थान में कहीं से भी गजकेसरी योग बनता हो तो ऐसा बालक प्रतिस्पर्धा में अवश्य सफल होता है। (9) गुरु लग्न भावस्थ हो और बुध केंद्र में नवमेश, दशमेश, एकादशेश से युति कर रहा हो या मेष लग्न में शुक्र बैठे हो सूर्य शुभ हो और शुक्र पर शुभ-ग्रह की दृष्टि हो तो ऐसा जातक उच्च स्तरीय प्रशासनिक प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होगा ही। (10) कुंडली में पदमसिंहासन योग ऊंचाई देगा। (11) पंचमस्थ गुरु जातक को बुद्धिमान बनाता है। (12) गुरु द्वितियेश हो व गुरु बली सूर्य, शुक्र से दृष्ट हों तो व्याकरण के क्षेत्र में सफलता। (13) केंद्र या त्रिकोण में गुरु हो, शुक्र व बुध उच्च के हो तो जातक साइन्स विषय में सफलता पाता है। (14) धनेश बुध उच्च का हो, गुरु लग्न में और शनि आठवें में हो तो विज्ञान क्षेत्र में सफलता मिलेगी। (15) यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम, दशम, का संबंध बुध, सूर्य, गुरु व शनि इनमें से हो तो जातक वाणिज्य संबंधी विषयों से अपनी शिक्षा पूर्ण करता है। (16) यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, दशम का संबंध सूर्य मंगल चंद्र शनि व राहु से हो तो जातक को चिकित्सा संबंधी विषयों में अपनी शिक्षा पूर्ण करनी चाहिये। (17) यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम व दशम का संबंध सूर्य, मंगल, शनि व शुक्र हो तो जातक इन्जीनियरिंग संबंधी विषयों से अपनी शिक्षा पूर्ण करता है। (18) द्वितीय भाव, चतुर्थ भाव, पंचम, नवम, दशम का संबंध सूर्य, बुध, शुक्र, गुरु, ग्रहों से हो तो जातक कला क्षेत्र में अपनी शिक्षा अवश्य पूर्ण करता है। (19) द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम, दशम, स्थान से सूर्य, मंगल, गुरु, चंद्र, शनि, व राहु का संबंध हो तो जातक विज्ञान संबंधी विषय में शिक्षा अवश्य पूर्ण करता है। समाधान: स्मरण शक्ति में वृद्धि एवं तीव्र बुद्धि के लिए गायत्री यंत्र का लाॅकेट पहनें श्री गायत्री वेदांे की माता है जो वेद वेदांत, अध्यात्मिक, भौतिक उन्नति व ज्ञान-विज्ञान की दात्री है। यह लाॅकेट तीव्र स्मरण शक्ति यश, कीर्ति, संतोष व उज्जवलता प्रदान करेगा। (1) बुद्वि के प्रदाता श्रीगणेश जी के निम्न मंत्र का जप 21 बार बालक स्वयं करें। ऊं ऐं बुद्धिं वर्द्धये चैतन्यं देहित ¬ नम:। बालक के नाम से माता पिता भी कर सकते हैं। (2) श्रीगणेश चतुर्थी को गणेश पूजन करके 21 दूर्बा श्रीस्फटिक गणेश जी पर श्रीगणेशजी के 21 नामों सहित अर्पण करें और ¬ गं गणपतये नमः कीे एक माला जप करें। ¬ एकदन्त महाबुद्विः सर्व सौभाग्यदायकः। सर्वसिद्धिकरो देवाः गौरीपुत्रो विनायकः।। उक्त मंत्र को नियमित जपे व जिस समय परीक्षा हाल में प्रश्न पत्र हल करने बैठें तब 3 बार इस मंत्र का स्मरण मन ही मन करें। (3) मंत्र ¬ ऐं सरस्वतै ऐं नमः सरस्वती की मूर्ति अथवा चित्र या सरस्वती यंत्र के समक्ष उक्त मंत्र जपते हुए अष्टगंध से अपने ललाट पर तिलक लगाएं। पीला पुष्प अर्पण करें। (4) परीक्षा देने से पूर्व मां अपने बेटे की जीभ में शहद से श्री सरस्वती देवी का बीज मंत्र ऐं लिख दें। बालक को मीठा दही खिलाएं। बालक की स्मरण शक्ति तेज होगी। वाकपटु (श्रेष्ठवक्ता) होगा। बसंत पंचमी के दिन इस प्रयोग को संपन्न करने से बालक बालिका का मन पढ़ाई में लगता है व परीक्षा में श्रेष्ठ अंक प्राप्त करते हैं। (5) ¬ सरस्वत्यै विद्महे ब्रम्हपुत्रयै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्।। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सफलता हेतु सरस्वती यंत्र का लाॅकेट बहुत उपयोगी व लाभदायक है। परीक्षा में अच्छे अंक के लिए अथवा किसी इन्टरव्यु में सफलता प्राप्त करनी हो या शिक्षा से संबंधित कोई भी क्षेत्र हो यह लाॅकेट बालक, बालिका के गले में अद्भुत रूप से लाभदायी सिद्व होगा। (6) ¬ बुद्विहीन तनु जानिके सुमिरौ पवन कुमार। बल बुद्वि विद्या देहु मोहि, हरहु क्लेश विकार ।। मंगलवार या शनिवार के दिन श्री हनुमान जी के मंदिर में दीप जलाएं व शुद्ध पवित्र मन से एक माला उक्त मंत्र का जप करें। परीक्षाफल निकलने तक यह क्रम बनाए रखें। (7) विद्या प्रदायक श्री गणपति: जिन घरों में बच्चे विद्या अध्ययन में रुचि नहीं रखते उन्हें अपने अध्ययन कक्ष में टेबल के ऊपर शुभ मुहूर्त में श्री विद्या प्रदायक श्री गणपति की मूर्ति स्थापित करनी चाहिये। (8) पढ़ने की टेबल में मां सरस्वती का फोटो रखें। क्योंकि मां सरस्वती की आराधना जीवन में हमें उच्च शिखर एवं यश प्रतिष्ठा दिलाती है। मां सरस्वती का चित्र ही हमें शिक्षित करता है कि जीवन में यदि विद्या ग्रहण करनी है तो आसन कठोर होना चाहिए। मां के चार हाथों में से दो में वीणा है जो बताती है कि विद्यार्थी जीवन वीणा की तार की तरह होना चाहिये, वीणा के तार को अधिक कसंेगे तो तार टूट जाएंगे और ढ़ीला छोडें़गे तो सरगम के सुर नहीं निकलेंगे, अतः विद्यार्थियों को अधिक भोजन नहीं करना चाहिए और न अधिक उपवास करना चाहिए। ज्यादा जागना, ज्यादा सोना आपके विद्याभ्यास को बिगाड़ सकता है। एक हाथ में वेद पुस्तक व एक हाथ में माला हमें ज्ञान की ओर प्रेरित करती है। देवी सरस्वती का वाहन मयूर है। हमें सरस्वती का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए उनका वाहन मयूर बनना है। मीठा, नम्र, विनीत, शिष्ट और आत्मीयतायुक्त संभाषण करना चाहिए। तभी मां सरस्वती हमें अपने वाहन की तरह प्रिय पात्र मानेगी। प्रकृति ने मयूर को कलात्मक व सुसज्जित बनाया है। हमें भी अपनी अभिरुचि परिस्कृत व क्रिया कलाप शालीन रखना चाहिए। सरस्वती अराधना हेतु सरस्वती स्त्रोत का पाठ भी करंे। (9) टेबल लैंप को मेज के दक्षिण कोने में रखना चाहिए। (10) अध्ययन कक्ष की दीवारों के रंग गहरे न हों। हल्के हरे सफेद व गुलाबी रंग स्मरण शक्ति को बढ़ाते हैं। (11) दरवाजे के सामने पीठ करके न बैठंे। (12) बीम के नीचे बैठ कर पढाई न करें। (13) अध्ययन कक्ष के परदे हल्के पीले रंग के हों। (14) बिस्तर या सोफे में बैठ कर पढाई न करें। (15) जिनका मन पढाई में नहीं लगता हो वे ध्यानस्थ बगुले का चित्र अध्ययन कक्ष में लगाएं। (16) उत्तर पूर्व की ओर मुख करके अध्ययन करें। (17) अध्ययन कक्ष के मध्य भाग को खाली रखें। (18) अध्ययन कक्ष में पढ़ने की मेज पर जूठे बर्तन कदापि न रखें। (19) पंचमेश यदि शुभ प्रभाव में है तो उस ग्रह का रत्न धारण करें। उदारणार्थ कुंभ लग्न में पंचमेश बुध है अतः पन्ना की अंगूठी दाएं हाथ की कनिष्ठिका में पहनें, विधि विधान से रत्न को अभिमंत्रित व प्राण प्रतिष्ठित करके ही पहनें। (20) श्री गणेश ’’अथर्व-शीर्ष’’ का पाठ करते रहें। इससे बुद्धिबल व आत्मबल बढ़ेगा तथा सफलता मिलेगी। (21) इस मंत्र का जाप सुबह शाम दोनों समय करें। (22) गुरु गृह पढ़न गये रघुराई। अल्प काल विद्या सब पाई ।। अंाखों के खुलते ही दोनांे हाथों की हथेलियों को देखते हुये निम्नलिखित श्लोक का पाठ करें। कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती । करमूले स्थितो ब्रम्हा प्रभाते करदर्शनम्।। (23) माता पिता गुरु का आदर करें: उत्थाय मातापितरौ पूर्वमेवाभिवादयेत्। आचार्यश्च ततो नित्यमभिवाद्यो विजानता।। परिवार के वृद्ध व्यक्ति वट वृक्ष की तरह होते हैं। जिनकी स्निग्ध छाया में परिवार के लोग जीवन की थकान मिटाते हैं। जिस प्रकार नदियां अपना जल नहीं पीती, पेड़ अपना फल स्वयं नहीं खाते, मेघ अपने लिए जल नहीं बरसाते। ठीक उसी प्रकार सज्जनों गुरुजनों की कृपा वर्षा, परोपकार के लिए होती है। ज्ञान व अनुभव की आभा बिखेरने वाले वृद्धजनों, गुरुजनों व माता-पिता का अनादर (उपेक्षा) न करें। अपितु मनोयोग से सेवा करें। (24) मां गायत्री की साधना निम्न मंत्र सहित करें: यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्य पूज्यं त्रिगुणात्मरूपम्। समस्त-तेजोमय-दिव्य रूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।

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