Sunday, 19 April 2015

नजदीकी रिश्तों में अलगाव की ज्योतिषीय वजह


किन्हीं दो लोगों के बीच में पारस्परिक हितों का होना, बनना और बढऩा रिश्तों को न केवल जन्म देता है बल्कि एक मजबूत नींव भी प्रदान करता है, लेकिन जैसे ही पारस्परिक हित निजी हित में तब्दील होना शुरु होते हैं रिश्तों को ग्रहण लगाना शुरु हो जाता है। पारस्परिक हित में अपने हित के साथ-साथ दूसरे के हित का भी समान रुप से ध्यान रखा जाता है, जबकि निजी हित में अपने और सिर्फ अपने हित पर ध्यान दिया जाता है।
मनुष्य जन्म लेते ही कई तरह के रिश्तों की परिभाषाओं में बंध जाता है, जिनका आधार रक्त सम्बन्ध होता है लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे कुछ नए रिश्तों की दुनिया भी आकार लेने लगती है। जिनका वह ख़ुद चयन करता है, ऐसे रिश्तों की एक अलग अहमियत होती है। क्योंकि ये विरासत में नहींं मिलते, बल्कि इनका चयन किया जाता है। ऐसे रिश्तों को प्रेम का नाम दिया जाए या दोस्ती का या कोई और नाम दिया जाये, लेकिन ये बनते तभी हैं, जब दोनोंं पक्षों को एक दूसरे से किसी न किसी तरह के सुख या संतुष्टि की अनुभूति होती है। यह सुख शारीरिक, मानसिक, आर्थिक या आत्मिक किसी भी तरह का हो सकता है। जब एक पक्ष दूसरे के बिना ख़ुद को अपूर्ण, अधूरा महसूस करता है, तो अपनत्व का भाव पनपता है और जैसे-जैसे यह अपनत्व बढ़ता जाता है, रिश्ता प्रगाढ़ होता जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किन्हीं दो लोगों के बीच में पारस्परिक हितों का होना, बनना और बढऩा रिश्तों को न केवल जन्म देता है बल्कि एक मजबूत नींव भी प्रदान करता है, लेकिन जैसे ही पारस्परिक हित निजी हित में तब्दील होना शुरु होते हैं रिश्तों को ग्रहण लगाना शुरु हो जाता है। पारस्परिक हित में अपने हित के साथ-साथ दूसरे के हित का भी समान रुप से ध्यान रखा जाता है, जबकि निजी हित में अपने और सिर्फ अपने हित पर ध्यान दिया जाता है।
निज हित को प्राथमिकता देने या स्वहित की कामना करने में उस समय तक कुछ भी ग़लत नहींं है जब तक दूसरे के हितों का भी पूरी तरह से ध्यान रखा जाये, लेकिन जब दूसरे के हितों की उपेक्षा करके अपने हित पर जोर दिया जाता है, तो रिश्ते को स्वार्थपरता की दीमक लग जाती है,जो धीरे-धीरे किसी भी रिश्ते को खोखला कर देती है। स्वार्थ की भावना रिश्तों की दुनिया का वह मीठा जहर है, जो रिश्ते को असमय ही कालकवलित कर देती है। स्वार्थ की भावना उस समय और भी खराब रुप धारण कर लेती है, जब दूसरे पक्ष के अहित की कीमत पर भी ख़ुद का स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश की जाती है। किसी भी रिश्ते में एक-दो बार ऐसे प्रयास सफल भी हो सकते हैं, लेकिन जब बार-बार किसी का अहित करके कोई अपना हित साधने की कोशिश करता है, तो रिश्ते जख्मी होने लगते हैं। ये जख्म जितने गहरे होते जाते हैं, रिश्तों की दरार उतनी ही चौड़ी होती जाती है। मन के किसी कोने में या दिल के दर्पण पर स्वार्थ की परत के जमते ही रिश्तों का संसार दरकने लगता है और धीरे-धीरे एक समय ऐसा भी आता है,जब रिश्ता पूरी तरह टूट कर बिखर जाता है। सुदीर्घ और मजबूत रिश्ते मनुष्य को न केवल भावनात्मक संबल देते हैं, बल्कि आत्मबल बढ़ाने में भी मददगार साबित होते हैं। सदाबहार रिश्तों के हरे-भरे वृक्षों की छाया में मनुष्य ख़ुद को सुरक्षित महसूस करता है, जबकि किसी भी तरह के रिश्ते का बिखरना ऐसे घाव दे जाता है, जिसकी जीवन भर भरपाई नहींं हो पाती। इसलिए जहाँ तक हो सके रिश्तों को टूटने से बचाने की कोशिश करनी चहिये। रिश्तों को बचाने के लिए सबसे जरूरी है कि स्वार्थ के बजाय त्याग और स्वहित के बजाय पारस्परिक हित को प्रधानता दी जाये। दूसरे के अहित की कीमत पर भी अपना हित साधने के बजाए जब अपना अहित होने पर भी दूसरे का हित करने की भावना जन्म लेती है, तो रिश्ते ऐसी चट्टान बन जाते हैं, जिनका टूट पाना असंभव हो जाता है। इस तरह रिश्तों का बंधन इतना मजबूत होता जाता है कि कोई भी इससे बाहर नहींं निकल सकता। रिश्तों की नाव को डूबने से बचाने के लिए यह जरूरी है कि इस नाव में स्वार्थपरता का सुराख न होने पाये, क्योंकि रिश्तों की नाव मझधार में तभी डूबती है जब पारस्परिक हित रुपी पतवार और त्याग रुपी खेवनहार लुप्त हो जाते हैं।
कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक है तो रिश्ते भी होंगे ही। वैसे तो प्रेम एक ऐसी भावना है जो मनुष्य तो मनुष्य, मूक पशुओं तक से रिश्ता जोड़ देती है। रिश्ते भी कई प्रकार के होते हैं। इनमें सबसे बड़ा रिश्ता है परिवार का जो आपको कई-कई रिश्तों में बांध देता है। एक बच्चा जब इस दुनिया में आता है तो वह किसी को मां किसी को पिता, भाई, बहन, चाचा, मामा, दादा-दादी या नाना-नानी बनाता है। कुछ रिश्ते केवल कामकाजी होते हैं, और कुछ ऐसे कि जिनका कोई नाम नहींं होता पर वे नामधारी रिश्तों से ज्यादा पक्के होते हैं। कुछ रिश्ते हमें जन्म से मिलते हैं और कुछ हम बनाते हैं, जिनमें सबसे ज्यादा अहम होता है पति-पत्नी का रिश्ता जो कहा जाता है कि सात जन्मों का होता है। कुछ रिश्ते मुंहबोले होते हैं। कुछ रिश्ते केवल विश्वास से बनते हैं, और जैसे ही विश्वास टूटा, रिश्ते भी बिखर जाते हैं। कुल मिलाकर रिश्ते एक ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं जिसमें हम में से हर एक कभी न कभी उलझता ही है। हर तरह के रिश्तों में कभी न कभी दरार आ ही जाती है। इस बात से कोई फर्क नहींं पड़ता कि आपका संबंध कितना अंतरंग और मजबूत है। आमतौर पर अलग-अलग विचार और एक दूसरे से अलग-अलग अपेक्षाओं के कारण रिश्तों में खटास पैदा हो जाती है। रिश्तों के शुरुआती दौर में ही यह पनपने लगती है और समय के साथ-साथ रिश्ते में दरारें दिखने लगती हैं। यह महत्वपूर्ण नहींं कि रिश्तों में खटास पैदा होने के बाद बातचीत की शुरुआत कौन करता है। महत्वपूर्ण यह है कि आप एक स्वस्थ बातचीत के जरिए मामले को सुलझा लें। ज्योतिष में मान्य बारह राशियों के आधार पर जन्मकुंडली में बारह भावों की रचना की गई है। प्रत्येक भाव मनुष्य जीवन के विभिन्न रिश्तों को दर्शाता है।
1. प्रथम भाव: यह लग्न भी कहलाता है। इस स्थान से व्यक्ति के स्वयं का शरीर, यश-अपयश, पूर्वज, सुख-दुख, आत्मविश्वास, अहंकार, मानसिकता आदि को जाना जाता है। इस भाव से व्यक्ति का अपने रिश्तों के प्रति समर्पण तथा जुडाव देखा जाता है।
2. द्वितीय भाव: इसे धन भाव भी कहते हैं। इससे व्यक्ति के परिवार के सभी लोगों से रिश्ता तथा उस रिश्ते का सुख के बारे में जाना जाता है।
3. तृतीय भाव: इसे पराक्रम का सहज भाव भी कहते हैं। इससे जातक के छोटे भाई-बहन, नौकर-चाकर, पडोसियों आदि से रिश्तों का विचार किया जाता है।
4. चतुर्थ स्थान: इसे मातृ स्थान भी कहते हैं। इससे मातृसुख, मित्र आदि का विचार किया जाता है।
5. पंचम भाव: इसे सुत भाव भी कहते हैं। इससे संतति, बच्चों से मिलने वाला सुख, प्रेम संबंध का विचार किया जाता है।
6. छठा भाव: इसे शत्रु या रोग स्थान भी कहते हैं। इससे जातक के शत्रु, मामा-मौसी का सुख, नौकर-चाकर आदि का विचार किया जाता है।
7.सातवाँ भाव: विवाह सौख्य, जीवनसाथी का स्वभाव, पार्टनर से रिश्ता आदि का ज्ञान इस भाव से होता है।
8.आठवाँ भाव: इस भाव को मृत्यु स्थान कहते हैं। इससे आयु निर्धारण, दुख का पता चलता है।
9.नवाँ भाव: इसे भाग्य स्थान कहते हैं। यह भाव गुरु, भाई की पत्नी, दूसरा विवाह आदि के बारे में बताता है।
10.दसवाँ भाव: इसे कर्म स्थान कहते हैं। इससे बॉस, सामाजिक सम्मान, पितृ सुख, सासू माँ आदि के बारे में पता चलता है।
11.ग्यारहवाँ भाव: इसे लाभ भाव कहते हैं। इससे मित्र, बहू-जँवाई के बारे में जाना जाता है।
12.बारहवाँ भाव: इसे व्यय स्थान भी कहते हैं। इससे चाचा, पिता के रिश्ते, गुप्त शत्रु, का विचार किया जाता है।
रिश्तों का लाभ प्राप्त करने के लिए सूर्य का लग्न, चौथे, साँतवे या दसवें घर में होना जरूरी है। यदि वह मेष अथवा मकर राशि का भी हो तो सोने पे सुहागे का काम करता है। सिंह राशि का पाँचवें घर होना जरूरी है। चन्द्रमा धरती व सूर्य की राशि का व धनु राशि का हो तो अधिक तमन्यता से सफर के किसी भी मुकाम पर छोटी से छोटी मुलाकात आत्मिक रिश्ते के तहत वो सब दिला सकती है जिसकी कल्पना भी साधारण रूप में नहींं कर सकते हैं।
किंतु अगर किसी रिश्ते में कटुता आ गई हो या रिश्ता टूटने की कगार पर आ गया है तब सामान्य प्रयास करने के साथ ज्योतिषीय विश£ेषण भी किया जाना आवश्यक है जिसमें बैठकर शांत मन से सोचें कि आपके बीच ऐसा क्या हुआ था जो ऐसी स्थिति पैदा हो गई है। अपने आपसी मतभेदों को प्यार और समझदारी से सुलझाने की कोशिश करें। और इरादा करें कि उन्हेंं फिर नहींं दोहराएंगे। आपकी अपने उस रिश्तें से आपको क्या अपेक्षाएं हैं और यह भी जानने का प्रयास करें कि आपसे सामने वाले को क्या परेशानी आ रही है। बहस में ना उलझें और विवाद को सुलझाने का प्रयास करते हुए अपनी गलतियों पर माफी मांगने में ना हिचकें।
अपने रिश्तों को अगर बचाना है तो दोनोंं का खुल कर बात करना बहुत जरूरी है। इस तरह दोनोंं को बेहतर तरीके से सोचने का मौका मिलेगा। इस बातचीत के दौरान अपने अतीत को ना कुरेदें और ना ही उसे दोहराएं। अगर आप उसे दोहराएंगे तो इससे आप दोनोंं ही आहत होंगे। पहले किसने क्या किया, इस बहस में ना उलझें। याद रखें, आप बात बनाने के लिए बैठे हैं बिगाडऩे के लिए नहींं। आपको अपने रिश्तों को नीचा नहींं दिखाना है। आपको उन बातों का पता लगाना है जिनसे आपके संबंधों में दरार आई है। इस बात पर आरोप-प्रत्यारोप ना करने लग जाएं। जब संबंधों में दरार आ जाती है तो उस रिश्ते के लिए भावनाएं या तो खतम हो जाती है या फिर बुरी भावनाएं आती है। ऐसे में अगर आप रिश्ता संभालने में असमर्थ हैं तो बेवजह रिश्ते को ना ढोएं। रिश्ते बड़े नाजुक होते हैं इन्हें प्यार, सामंजस्य और समझदारी से निभाने की जरुरत होती है। किंतु कई बार रिश्तों में आप कितना भी प्यार या सामंजस्य रखने के बाद भी रिश्तों में कटुता दिखाई देती है वहीं कई रिश्ते औपचारिक होकर भी सुख देते हैं, इसका ज्योतिषीय कारक है कि जब किसी भी रिश्तें का भाव या भावेश अपने उच्च स्थान या मित्र राशि अथवा शुभ हो तो वह रिश्ता आपके लिए लाभकारी तथा सुखदायी होता है वहीं पर कुछ रिश्तें अगर विपरीत कारक बैठें हों या नीच अथवा शत्रु भाव में हो जायें तो वे रिश्तें दुख तथा हानि का कारण बनते हैं। अत: अगर आपके लाख कोशिशें के बाद भी कोई रिश्ता अगर आपके लिए शुभ ना हो रहा हो तो ज्योतिषीय विश£ेशण कर उन रिश्तो के लिए उचित ज्योतिषीय निदान करने के उपरांत अपने रिश्तो को नया रूप देना चाहिए जैसे कि कभी पडोसियों से रिश्ता बिना कारण खराब हो रहा हो तो अपनी कुडली में देखें कि तृतीयेश की स्थिति कैसी है और उसकी दशा अथवा अंतरदशा तो नहीं चल रही है। अगर उस भाव या भावेश की स्थिति खराब हो अथवा छठे, आठवे या बारहवे बैठा हो तथा गोचर में ग्रहों की दशा या अंतरदशा चल रही हो तो उन ग्रहों की शांति कराने से उस रिश्तें में मजबूती लाई जा सकती है। इस प्रकार कुंडली के बारह भावों में से जिस भाव की स्थिति खराब हो उसे ग्रहों की शांति, ग्रह मंत्रों का जाप अथवा ग्रहों के वस्तुओं के दान से उस स्थान से जुड़े रिश्तों को बेहतर किया जा सकता है।

Pt.P.S Tripathi
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