Tuesday, 20 October 2015

द्वादश भावों में शुक्र का फल

प्रथम भाव में शुक्र- जातक के जन्म के समय लगन में विराजमान शुक्र को पहले भाव में शुक्र की उपाधि दी गयी है। पहले भाव में शुक्र के होने से जातक सुन्दर होता है,और शुक्र जो कि भौतिक सुखों का दाता है,जातक को सुखी रखता है,शुक्र दैत्यों का राजा है इसलिये जातक को भौतिक वस्तुओं को प्रदान करता है,और जातक को शराब कबाब आदि से कोई परहेज नही होता है,जातक की रुचि कलात्मक अभिव्यक्तियों में अधिक होती है,वह सजाने और संवरने वाले कामों में दक्ष होता है,जातक को राज कार्यों के करने और राजकार्यों के अन्दर किसी न किसी प्रकार से शामिल होने में आनन्द आता है,वह अपना हुकुम चलाने की कला को जानता है,नाटक सिनेमा और टीवी मीडिया के द्वारा अपनी ही बात को रखने के उपाय करता है,अपनी उपभोग की क्षमता के कारण और रोगों पर जल्दी से विजय पाने के कारण अधिक उम्र का होता है,अपनी तरफ़ विरोधी आकर्षण होने के कारण अधिक कामी होता है,और काम सुख के लिये उसे कोई विशेष प्रयत्न नही करने पडते हैं।
द्वितीय भाव में शुक्र- दूसरा भाव कालपुरुष का मुख कहा गया है,मुख से जातक कलात्मक बात करता है,अपनी आंखों से वह कलात्मक अभिव्यक्ति करने के अन्दर माहिर होता है,अपने चेहरे को सजा कर रखना उसकी नीयत होती है,सुन्दर भोजन और पेय पदार्थों की तरफ़ उसका रुझान होता है,अपनी वाकपटुता के कारण वह समाज और जान पहिचान वाले क्षेत्र में प्रिय होता है,संसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति अपनी समझने की कला से पूर्ण होने के कारण वह विद्वान भी माना जाता है,अपनी जानपहिचान का फ़ायदा लेने के कारण वह साहसी भी होता है,लेकिन अकेला फ़ंसने के समय वह अपने को नि:सहाय भी पाता है,खाने पीने में साफ़सफ़ाई रखने के कारण वह अधिक उम्र का भी होता है।
तीसरे भाव में शुक्र- तीसरे भाव में शुक्र के होने पर जातक को अपने को प्रदर्शित करने का चाव बचपन से ही होता है,कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार तीसरा भाव दूसरों को अपनी कला या शरीर के द्वारा कहानी नाटक और सिनेमा टीवी मीडिया के द्वारा प्रदर्शित करना भी होता है,तीसरे भाव के शुक्र वाले जातक अधिकतर नाटकबाज होते है,और किसी भी प्रकार के संप्रेषण को आसानी से व्यक्त कर सकते है,वे फ़टाफ़ट बिना किसी कारण के रोकर दिखा सकते है,बिना किसी कारण के हंस कर दिखा सकते है,बिना किसी कारण के गुस्सा भी कर सकते है,यह उनकी जन्म जात सिफ़्त का उदाहरण माना जा सकता है। अधिकतर महिला जातकों में तीसरे भाव का शुक्र बडे भाई की पत्नी के रूप में देखा जाता है,तीसरे भाव के शुक्र वाला जातक खूबशूरत जीवन साथी का पति या पत्नी होता है,तीसरे भाव के शुक्र वाले जातक को जीवन साथी बदलने में देर नही लगती है,चित्रकारी करने के साथ वह अपने को भावुकता के जाल में गूंथता चला जाता है,और उसी भावुकता के चलते वह अपने को अन्दर ही अन्दर जीवन साथी के प्रति बुरी भावना पैदा कर लेता है,अक्सर जीवन की अभिव्यक्तियों को प्रसारित करते करते वह थक सा जाता है,और इस शुक्र के धारक जातक आलस्य की तरफ़ जाकर अपना कीमती समय बरबाद कर लेते है,तीसरे शुक्र के कारण जातक के अन्दर चतुराई की मात्रा का प्रभाव अधिक हो जाता है,आलस्य के कारण जब वह किसी गंभीर समस्या को सुलझाने में असमर्थ होता है,तो वह अपनी चतुराई से उस समस्या को दूर करने की कोशिश करता है।
चौथे भाव में शुक्र- चौथे भाव का शुक्र कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार चन्द्रमा की कर्क राशि में होता है,जातक के अन्दर मानसिक रूप से कामवासना की अधिकता होती है,उसे ख्यालों में केवल पुरुष को नारी और नारी को पुरुष का ही क्याल रहता है,जातक आस्तिक भी होता है,परोपकारी भी होता है,लेकिन परोपकार के अन्दर स्त्री को पुरुष के प्रति और पुरुष को स्त्री के प्रति आकर्षण का भाव देखा जाता है,जातक व्यवहार कुशल भी होता है,और व्यवहार के अन्दर भी शुक्र का आकर्षण मुख्य होता है,जातक का स्वभाव और भावनायें अधिक मात्रा में होती है,वह अपने को समाज में वाहनो से युक्त सजे हुये घर से युक्त और आभूषणों से युक्त दिखाना चाहता है,अधिकतर चौथे शुक्र वाले जातकों की रहने की व्यवस्था बहुत ही सजावटी देखी जाती है,चौथे भाव के शुक्र के व्यक्ति को फ़ल और सजावटी खानों का काम करने से अच्छा फ़ायदा होता देखा गया है,पानी वाली जमीन में या रहने वाले स्थानों के अन्दर पानी की सजावटी क्रियायें पानी वाले जहाजों के काम आदि भी देखे जाते है,धनु या वृश्चिक का शुक्र अगर चौथे भाव में विराजमान होता है,तो जातक को हवाई जहाजों के अन्दर और अंतरिक्ष के अन्दर भी सफ़ल होता देखा गया है।
पंचम भाव में शुक्र- पंचम भाव का शुक्र कविता करने के लिये अधिक प्रयुक्त माना जाता है,चन्द्रमा की राशि कर्क से दूसरा होने के कारण जातक भावना को बहुत ही सजा संवार कर कहता है,उसके शब्दों के अन्दर शैरो शायरी की पुटता का महत्व अधिक रूप से देखा जाता है,अपनी भावना के चलते जातक पूजा पाठ से अधिकतर दूर ही रहता है,उसे शिक्षा से लेकर अपने जीवन के हर पहलू में केवल भौतिकता का महत्व ही समझ में आता है,व्ह जो सामने है,उसी पर विश्वास करना आता है,आगे क्या होगा उसे इस बात का ख्याल नही आता है,वह किसी भी तरह पराशक्ति को एक ढकोसला समझता है,और अक्सर इस प्रकार के लोग अपने को कम्प्यूटर वाले खेलों और सजावटी सामानों के द्वारा धन कमाने की फ़िराक में रहते है,उनको भगवान से अधिक अपने कलाकार दिमाग पर अधिक भरोशा होता है,अधिकतर इस प्रकार के जातक अपनी उम्र की आखिरी मंजिल पर किसी न किसी कारण अपना सब कुछ गंवाकर भिखारी की तरह का जीवन निकालते देखे गये है,उनकी औलाद अधिक भौतिकता के कारण मानसिकता और रिस्तों को केवल संतुष्टि का कारण ही समझते है,और समय के रहते ही वे अपना मुंह स्वाभाविकता से फ़ेर लेते हैं।
छठे भाव में शुक्र- छठा भाव कालपुरुष के अनुसार बुध का घर माना जाता है,और कन्या राशि का प्रभाव होने के कारण शुक्र इस स्थान में नीच का माना जाता है,अधिकतर छठे शुक्र वाले जातकों के जीवन साथी मोटे होते है,और आराम तलब होने के कारण छठे शुक्र वालों को अपने जीवन साथी के सभी काम करने पडते है,इस भाव के जातकों के जीवन साथी किसी न किसी प्रकार से दूसरे लोगों से अपनी शारीरिक काम संतुष्टि को पूरा करने के चक्कर में केवल इसी लिये रहते है,क्योंकि छठे शुक्र वाले जातकों के शरीर में जननांग सम्बन्धी कोई न कोई बीमारी हमेशा बनी रहती है,चिढचिढापन और झल्लाहट के प्रभाव से वे घर या परिवार के अन्दर एक प्रकार से क्लेश का कारण भी बन जाते है,शरीर में शक्ति का विकास नही होने से वे पतले दुबले शरीर के मालिक होते है,यह सब उनकी माता के कारण भी माना जाता है,अधिकतर छठे शुक्र के जातकों की माता सजने संवरने और अपने को प्रदर्शित करने के चक्कर में अपने जीवन के अंतिम समय तक प्रयासरत रहतीं है। पिता के पास अनाप सनाप धन की आवक भी रहती है,और छठे शुक्र के जातकों के एक मौसी की भी जीवनी उसके लिये महत्वपूर्ण होती है,माता के खानदान से कोई न कोई कलाकार होता है, या मीडिया आदि में अपना काम कर रहा होता है।
सप्तम भाव में शुक्र- सप्तम भाव में शुक्र कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार अपनी ही राशि तुला में होता है,इस भाव में शुक्र जीवन साथी के रूप में अधिकतर मामलों में तीन तीन प्रेम सम्बन्ध देने का कारक होता है,इस प्रकार के प्रेम सम्बन्ध उम्र की उन्नीसवीं साल में,पच्चीसवीं साल में और इकत्तीसवीं साल में शुक्र के द्वारा प्रदान किये जाते है,इस शुक्र का प्रभाव माता की तरफ़ से उपहार में मिलता है,माता के अन्दर अति कामुकता और भौतिक सुखों की तरफ़ झुकाव का परिणाम माना जाता है,पिता की भी अधिकतर मामलों में या तो शुक्र वाले काम होते है,अथवा पिता की भी एक शादी या तो होकर छूट गयी होती है,या फ़िर दो सम्बन्ध लगातार आजीवन चला करते है,सप्तम भाव का शुक्र अपने भाव में होने के कारण महिला मित्रों को ही अपने कार्य के अन्दर भागीदारी का प्रभाव देता है। पुरुषों को सुन्दर पत्नी का प्रदायक शुक्र पत्नी को अपने से नीचे वाले प्रभावों में रखने के लिये भी उत्तरदायी माना जाता है,इस भाव का शुक्र उदारता वाली प्रकृति भी रखता है,अपने को लोकप्रिय भी बनाता है,लेकिन लोक प्रिय होने में नाम सही रूप में लिया जाये यह आवश्यक नही है,कारण यह शुक्र कामवासना की अधिकता से व्यभिचारी भी बना देता है,और दिमागी रूप से चंचल भी बनाता है,विलासिता के कारण जातक अधिकतर मामलों में कर्म हीन होकर अपने को उल्टे सीधे कामों मे लगा लेते है।
आठवें भाव में शुक्र- आठवें भाव का शुक्र जातक को विदेश यात्रायें जरूर करवाता है,और अक्सर पहले से माता या पिता के द्वारा सम्पन्न किये गये जीवन साथी वाले रिस्ते दर किनार कर दिये जाते है,और अपनी मर्जी से अन्य रिस्ते बनाकर माता पिता के लिये एक नई मुसीबत हमेशा के लिये खडी कर दी जाती है। जातक का स्वभाव तुनक मिजाज होने के कारण माता के द्वारा जो शिक्षा दी जाती है वह समाज विरोधी ही मानी जाती है,माता के पंचम भाव में यह शुक्र होने के कारण माता को सूर्य का प्रभाव देता है,और सूर्य शुक्र की युति होने के कारण वह या तो राजनीति में चली जाती है,और राजनीति में भी सबसे नीचे वाले काम करने को मिलते है,जैसे साफ़ सफ़ाई करना आदि,माता की माता यानी जातक की नानी के लिये भी यह शुक्र अपनी गाथा के अनुसार वैध्वय प्रदान करता है,और उसे किसी न किसी प्रकार से शिक्षिका या अन्य पब्लिक वाले कार्य भी प्रदान करता है,जातक को नानी की सम्पत्ति बचपन में जरूर भोगने को मिलती है,लेकिन बडे होने के बाद जातक मंगल के घर में शुक्र के होने के बाद या तो मिलट्री में जाता है,या फ़िर किसी प्रकार की सजावटी टेकनोलोजी यानी कम्प्यूटर और अन्य आई टी वाली टेकनोलोजी में अपना नाम कमाता है। लगातार पुरुष वर्ग कामुकता की तरफ़ मन लगाने के कारण अक्सर उसके अन्दर जीवन रक्षक तत्वों की कमी हो जाती है,और वह रोगी बन जाता है,लेकिन रोग के चलते यह शुक्र जवानी के अन्दर किये गये कामों का फ़ल जरूर भुगतने के लिये जिन्दा रखता है,और किसी न किसी प्रकार के असाध्य रोग जैसे तपेदिक या सांस की बीमारी देता है,और शक्तिहीन बनाकर बिस्तर पर पडा रखता है। इस प्रकार के पुरुष वर्ग स्त्रियों पर अपना धन बरबाद करते है,और स्त्री वर्ग आभूषणो और मनोरंजन के साधनों तथा महंगे आवासों में अपना धन व्यय करती है।
नवें भाव का शुक्र- नवें भाव का मालिक कालपुरुष के अनुसार गुरु होता है,और गुरु के घर में शुक्र के बैठ जाने से जातक के लिये शुक्र धन लक्ष्मी का कारक बन जाता है,उसके पास बाप दादा के जमाने की सम्पत्ति उपभोग करने के लिये होती है,और शादी के बाद उसके पास और धन बढने लगता है,जातक की माता को जननांग सम्बन्धी कोई न कोई बीमारी होती है,और पिता को मोटापा यह शुक्र उपहार में प्रदान करता है,बाप आराम पसंद भी होता है,बाप के रहते जातक के लिये किसी प्रकार की धन वाली कमी नही रहती है,वह मनचाहे तरीके से धन का उपभोग करता है,इस प्रकार के जातकों का ध्यान शुक्र के कारण बडे रूप में बैंकिंग या धन को धन से कमाने के साधन प्रयोग करने की दक्षता ईश्वर की तरफ़ से मिलती है,वह लगातार किसी न किसी कारण से अपने को धनवान बनाने के लिये कोई कसर नही छोडता है। उसके बडे भाई की पत्नी या तो बहुत कंजूस होती है,या फ़िर धन को समेटने के कारण वह अपने परिवार से बिलग होकर जातक का साथ छोड देती है,छोटे भाई की पत्नी भी जातक के कहे अनुसार चलती है,और वह हमेशा जातक के लिये भाग्य बन कर रहती है,नवां भाव भाग्य और धर्म का माना जाता है,जातक के लिये लक्ष्मी ही भगवान होती है,और योग्यता के कारण धन ही भाग्य होता है। जातक का ध्यान धन के कारण उसकी रक्षा करने के लिये भगवान से लगा रहता है,और वह केवल पूजा पाठ केवल धन को कमाने के लिये ही करता है। सुखी जीवन जीने वाले जातक नवें शुक्र वाले ही देखे गये है,छोटे भाई की पत्नी का साथ होने के कारण छोटा भाई हमेशा साथ रहने और समय समय पर अपनी सहायता देने के लिये तत्पर रहता है।
दशम भाव का शुक्र- दसम भाव का शुक्र कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार शनि के घर में विराजमान होता है,पिता के लिये यह शुक्र माता से शासित बताया जाता है,और माता के लिये पिता सही रूप से किसी भी काम के अन्दर हां में हां मिलाने वाला माना जाता है।छोटा भी कुकर्मी बन जाता है,और बडा भाई आरामतलब बन जाता है। जातक के पास कितने ही काम करने को मिलते है,और बहुत सी आजीविकायें उसके आसपास होती है। अक्सर दसवें भाव का शुक्र दो शादियां करवाता है,या तो एक जीवन साथी को भगवान के पास भेज देता है,अथवा किसी न किसी कारण से अलगाव करवा देता है। जातक के लिये एक ही काम अक्सर परेशान करने वाला होता है,कि कमाये हुये धन को वह शनि वाले नीचे कामों के अन्दर ही व्यय करता है,इस प्रकार के जातक दूसरों के लिये कार्य करने के लिये साधन जुटाने का काम करते है,दसवें भाव के शुक्र वाले जातक महिलाओं के लिये ही काम करने वाले माने जाते है,और किसी न किसी प्रकार से घर को सजाने वाले कलाकारी के काम,कढाई कशीदाकारी,पत्थरों को तरासने के काम आदि दसवें भाव के शुक्र के जातक के पास करने को मिलते है।
ग्यारहवें भाव का शुक्र - ग्यारहवां भाव संचार के देवता यूरेनस का माना जाता है,आज के युग में संचार का बोलबाला भी है,मीडिया और इन्टरनेट का कार्य इसी शुक्र की बदौलत फ़लीभूत माना जाता है,इस भाव का शुक्र जातक को विजुअल साधनों को देने में अपनी महारता को दिखाता है,जातक फ़िल्म एनीमेशन कार्टून बनाना कार्टून फ़िल्म बनाना टीवी के लिये काम करना,आदि के लिये हमेशा उत्साहित देखा जा सकता है। जातक के पिता की जुबान में धन होता है,वह किसी न किसी प्रकार से जुबान से धन कमाने का काम करता है,जातक का छोटा भाई धन कमाने के अन्दर प्रसिद्ध होता है,जातक की पत्नी अपने परिवार की तरफ़ देखने वाली होती है,और जातक की कमाई के द्वारा अपने मायके का परिवार संभालने के काम करती है। जातक का बडा भाई स्त्री से शासित होता है,जातक के बडी बहिन होती है,और वह भी अपने पति को शासित करने में अपना गौरव समझती है। जातक को जमीनी काम करने का शौक होता है,वह खेती वाली जमीनों को सम्भालने और दूध के काम करने के अन्दर अपने को उत्साहित पाता है,जातक की माता का स्वभाव भी एक प्रकार से हठीला माना जाता है,वह धन की कीमत को नही समझती है,और माया नगरी को राख के ढेर में बदलने के लिये हमेशा उत्सुक रहती है,लेकिन पिता के भाग्य से वह जितना खर्च करती है,उतना ही अधिक धन बढता चला जाता है।
बारहवें भाव में शुक्र -बारहवें भाव के शुक्र का स्थान कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार राहु के घर में माना जाता है,राहु और शुक्र दोनो मिलकर या तो जातक को आजीवन हवा में उडाकर हवाई यात्रायें करवाया करते है,या आराम देने के बाद सोचने की क्रिया करवाने के बाद शरीर को फ़ुलाते रहते है,जातक का मोटा होना इस भाव के शुक्र की देन है,जातक का जीवन साथी सभी जातक की जिम्मेदारियां संभालने का कार्य करता है,और अपने को लगातार किसी न किसी प्रकार की बीमारियों का ग्रास बनाता चला जाता है,जातक का पिता या तो परिवार में बडा भाई होता है,और वह जातक की माता के भाग्य से धनवान होता है,पिता का धन जातक को मुफ़्त में भोगने को मिलता है,उम्र की बयालीसवीं साल तक जातक को मानसिक संतुष्टि नही मिलती है,चाहे उसके पास कितने ही साधन हों,वह किसी न किसी प्रकार से अपने को अभावग्रस्त ही मानता रहता है,और नई नई स्कीमें लगाकर बयालीस साल की उम्र तक जितना भी प्रयास कमाने के करता है,उतना ही वह पिता का धन बरबाद करता है,लेकिन माता के भाग्य से वह धन किसी न किसी कारण से बढता चला जाता है। उम्र की तीसरी सीढी पर वह धन कमाना चालू करता है,और फ़िर लगातार मरते दम तक कमाने से हार नही मानता है। जातक का बडा भाई अपने जुबान से धन कमाने का मालिक होता है,लेकिन भाभी का प्रभाव परिवार की मर्यादा को तोडने में ही रहता है,वह अपने को धन का दुश्मन समझती है,और किसी न किसी प्रकार से पारिवारिक महिलाओं से अपनी तू तू में में करती ही मिलती है,उसे बाहर जाने और विदेश की यात्रायें करने का शौक होता है,भाभी का जीवन अपनी कमजोरियों के कारण या तो अस्पताल में बीतता है,या फ़िर उसके संबन्ध किसी न किसी प्रकार से यौन सम्बन्धी बीमारियों के प्रति समाज में कार्य करने के प्रति मिलते है,वह अपने डाक्टर या महिलाओं को प्रजनन के समय सहायता देने वाली होती है।

नवरात्र का नौवां दिन: माँ सिद्धिदात्री का पूजन

दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र-पूजन के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है । इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ।
सिद्धिदात्री : मां दुर्गा का नौवां रूप
नवरात्रि में दुर्गा पूजा के अवसर पर बहुत ही विधि-विधान से माता दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-उपासना की जाती है। आइए जानते हैं नौवीं देवी सिद्धिदात्री के बारे में :-
भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। इस देवी की पूजा नौंवे दिन की जाती है। यह देवी सर्व सिद्धियां प्रदान करने वाली देवी हैं। उपासक या भक्त पर इनकी कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी चुटकी में संभव हो जाते हैं। हिमाचल के नंदापर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियां होती हैं। इसलिए इस देवी की सच्चे मन से विधि विधान से उपासना-आराधना करने से यह सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है। इनका वाहन सिंह है और यह कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। विधि-विधान से नौंवे दिन इस देवी की उपासना करने से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। यह अंतिम देवी हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। मां के चरणों में शरणागत होकर हमें निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उपासना करना चाहिए। इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हैं और अमृत पद की ओर ले जाते हैं।

शनि की साढ़ेसाती का विश्लेषण....

यदि किसी व्यक्ति को यह कह दिया जाये कि तुम पर शनिदेव की साढ़ेसाती चल रही है तो न जाने उस व्यक्ति के दिमाग में क्या-क्या भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
साढ़ेसाती का विशलेषण
शनिदेव के कुपित होने का अर्थ यह है कि संबंधित जातक अन्याय एवं अनावश्यक विषमताओं का साथ दे रहा है। ऐसे मनुष्यों को शनिदेव दंडित कर उनका शुध्दिकरण करते हैं। साथ ही उन्हें सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित भी करते हैं। ऐसी स्थिति में यह कहना कि शनिदेव की साढ़ेसाती की पूरी अवधि खराब है, एकदम गलत है। क्योंकि यदि एक बच्चा स्कूल से एक पेंसिल चुरा कर घर ले आये और मां उसे दंड देने के बजाय उसे प्रोत्साहन दे तो वह भविष्य में एक दिन बहुत बड़ा चोर बन जायेगा। यदि उसे पहले दिन ही पेंसिल चोरी के लिए दंडित कर दिया जाये तो वह दंड उसे हमेशा सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करेगा। या यूं कह दीजिए कि सुनार सोने को गर्म आग में रखकर ही सुन्दर आभूषणों के लिए ढालता है, ठीक उसी प्रकार शनिदेव न्याय अधिकारी बनकर जातक-जातिकाओं के पापों की सजा देकर उन्हें पवित्र कर सुख-सम्पत्ति एवं धन देते हैं।
शनिदेव का एक विशेष गुण यह भी है कि वह दूध का दूध एवं पानी का पानी कर देते हैं। यानी वह सच्चे और झूठे का भेद भलीभांति समझते हैं। शनिदेव बहुत बड़े उपदेशक, शिक्षक एवं गुरु भी कहे जाते हैं, जो जातक को विपत्ति और कष्ट, अभाव व निर्धनता रूपी तापों से तपाकर मलहीन बनाते हुए उसे उन्नति के सोपान पर लाकर खड़ा कर देते हैं। यानी इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि साढ़ेसाती में यदि शनिदेव प्रतिकूल परिस्थितियों का संकेत देने वाले भाव में बैठे हैं तो हमारे प्रारब्ध या यिमाण कर्म में कहीं न कहीं त्रुटि जरूर रही है और उसका फल हमें साढ़ेसाती में अवश्य भुगतना होगा।यदि हमें यह ज्ञात हो जाए कि साढ़े सात वर्ष में से कौन सा समय अच्छा जायेगा, या कौन सा समय बुरा जायेगा, तो संबंधित व्यक्ति तदनुसार कदम उठाकर हर हालत में अपने को खुशहाल रखने की युक्ति निकाल सकता है। उसे यह मालूम हो जाये कि आज मेरा समय खराब है, अत: मैं अच्छा कार्य करूं, कल शुभ समय भी आने वाला है तो वह दु:ख एवं मुसीबतों को सहते हुए भी उनको भुलाकर सुख व सुनहरे पल का इन्तजार करेगा। सुख के इंतजार में बड़ा से बड़ा दुख भी आसानी से कट जाता है। वैसे भी यह परंपरा है कि अंधेरी रात के बाद सदैव सुबह होती है। आज दुख है तो कभी सुख भी अवश्य आयेगा।अत: शनिदेव की साढ़ेसाती को हौवा समझ उससे डरने के बजाय हम अपने यिमाण कर्म को सुधारें तो अच्छा रहेगा। याद रहे, शनिदेव की साढ़ेसाती का प्रभाव तीन चरणों में होता है और तीनों चरण एक समान नहीं होते, तीनों चरणों में संबंधित व्यक्ति को सुख-दुख के अलग अलग स्वाद चखने को मिलते हैं।
शनिदेव पूरे भच का 30 वर्ष में एक चक्कर लगा पाते हैं। अर्थात एक राशि में ढाई वर्ष रहते हैं। मनुष्य अपने स्वार्थवश अच्छा-बुरा कार्य करता रहता है। जब शनिदेव उसकी राशि में प्रवेश करता है तो पिछले 30 वर्षों में जो जातक ने अच्छे-बुरे कार्य किये हैं, उनका ऑडिट करते हैं। ऑडिट करने पर वह देखते हैं कि इस जातक का पिछले 30 वर्षों का कैसा व्यवहार रहा। यदि अच्छा रहा, मानवता के प्रति प्रेम भरा रहा तो साढ़ेसाती में सुख प्राप्त होता है और यदि मानवता के प्रति दर्ुव्यवहार रहा तो जितना दर्ुव्यवहार रहा उसके अनुसार उसे सजा देते हैं। इसलिए व्यक्ति का मानवता के प्रति अच्छा व्यवहार रहे। नेक कमाई करे तो उसे साढ़ेसाती ढैय्या में किसी भी प्रकार का कष्ट प्राप्त नहीं होता है। अनेक राजनीतिज्ञों को शनिदेव की साढ़ेसाती में ऊँचाइयों पर चढ़ते देखा गया है।
शनिदेव का नाम सुनकर अक्सर लोगों में भय का आतंक व्याप्त हो जाता है। शनिदेव की साढ़ेसाती का हौवा जनमानस में अति प्राचीनकाल से चला आ रहा है। जिससे जातकों के मन में भीषण भय एवं सघन संत्रास उत्पन्न करने वाली स्थिति पैदा हो जाती है। इस संबंध में लोगों के मन में अनेक भ्रांतियां बैठी हैं। लौकिक कथाओं में इसकी विनाशकारी स्थितियों को प्रस्तुत किया गया है। अत: इस दशा में व्यवस्थित विवेचन की अनिवार्यता स्वत: सिध्द है।
वैसे ज्योतिष शास्त्रो के अनुसार शनिदेव यदि जन्मराशि से द्वादश, लग्न व धन भाव में स्थित हों तो उसकी साढ़ेसाती शुरू हो जाती है और ढाई वर्ष तक शनि की दृष्टि प्रथम चरण में पड़ती है और संकेत देती है कि पूर्व कर्मों के फलस्वरूप जातक को आर्थिक कठिनाइयों, शारीरिक कष्ट, स्थान परिवर्तन, अधिकाधिक व्यय और आमदनी कम होने से मानसिक तनाव, वैवाहिक मामले में व्यवधान आदि फल प्राप्त होने वाले हैं। यदि शनि जन्म राशि में स्थित हो तो भी ढाई वर्ष तक भोग काल कहा जाता है। दूसरे चरण में पूर्वकृत निजकर्मों के फलस्वरूप जातकों को व्यावसायिक हानि, सम्बंधियों को कष्ट, यात्रा, मित्रों का अभाव, शत्रु, पीड़ा व कार्यों में अवरोध आदि फल मिलते हैं। तीसरे चरण में पूर्वकृत निजकर्मों के फलस्वरूप जातको को सुख का अभाव अधिकाधिक व्यय से मानसिक व्यग्रता, गलत आचरण रखने वालों से संबंध, विरोध, विवाद व संबंधियों से मतभेद तथा असहयोग का वातावरण बना रहता है। यह अक्सर नेत्रों, उदर और पैर में निवास करता है। वैसे इसे अच्छा भी मानते हैं। ढैया और अल्प-कल्याणकारी में ढाई वर्ष तक रहने वाली अन्य शनि दशा भी है।
कल्याणी प्रददाति वै रविसुता राशेश्चतुर्थाष्टमे।
वैसे शनिदेव मेषादि राशियों का चक्कर 30 वर्ष में पूरा कर लेते हैं। ज्योतिष गणना के अनुसार ये एक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक रहते हैं। साढ़ेसाती का आरंभ तब होता है जब शनिदेव चन्द्र राशि से द्वादश भाव में संचार करते हैं। लग्न या द्वितीय भाव तक साढ़ेसाती का प्रभाव मवार चलता है। इन्हीं साढ़े सात वर्षों को साढ़ेसाती के नाम से जानते हैं।
शनिदेव की साढ़ेसाती क्या है ?????
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनिदेव की साढ़ेसाती तब प्रारम्भ होती है जब शनिदेव जातक की जन्म राशि अर्थात् (वह राशि जिसमें चन्द्रमा बैठता है, उससे पहले वाली राशि चन्द्र कुण्डली से द्वादश भाव में प्रवेश करते हैं तो यहां ये ढाई वर्ष रहते हैं। उसके बाद शनिदेव प्रथम भाव जन्म राशि में प्रवेश करते हैं, फिर ढाई वर्ष का समय लेते हैं, इसके बाद वह अगली राशि द्वितीय भाव में प्रवेश कर फिर वहां ढाई वर्ष का समय लेते हैं। यानी शनिदेव जन्मराशि की पहली राशि में प्रवेश करते हैं तो शनिदेव की साढ़ेसाती प्रारम्भ होती है, पूरे साढ़े सात वर्ष के बाद शनिदेव जब जन्म से अगली राशि को पार कर जाते हैं तो शनिदेव की साढ़ेसाती समाप्त हो जाती है। अब मैं आपको जानकारी दे रहा हूं कि शनिदेव जब किसी राशि में होता है तो किस राशि के जातक को शनिदेव की साढ़ेसाती होती है।
1. जब शनिदेव गोचर में भ्रमण करते हुए मीन, मेष और वृष राशियों पर भ्रमण करते हैं तो मेष राशि के व्यक्तियों को शनिदेव की साढ़ेसाती प्रारम्भ होती है।
2.मेष, वृष और मिथुन राशि के भ्रमण काल में वृष राशि पर शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
3.शनिदेव जब वृष, मिथुन और कर्क राशि में स्थित हों, तब मिथुन राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
4.शनिदेव जब मिथुन, कर्क और सिंह राशि पर भ्रमण करते हैं तो कर्क राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
5.शनिदेव जब कर्क, सिंह और कन्या राशि में स्थित हो तो सिंह राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
6.शनिदेव गोचर भ्रमण काल में सिंह, कन्या एवं तुला राशि में हों तो कन्या राशि के जातकों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
7.शनिदेव कन्या, तुला व वृश्चिक राशि में भ्रमण करते हैं तो तुला राशि पर साढ़ेसाती रहती है।
8.शनिदेव जब तुला, वृश्चिक एवं धनु राशि में स्थित हों तो वृश्चिक राशि वाले जातकों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
9.जब गोचर में शनिदेव वृश्चिक, धनु व मकर राशि पर हों तो धनु राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहेगी।
10.जब शनिदेव धनु, मकर एवं कुंभ राशि में हो तो मकर राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
11.शनिदेव जब गोचर में मकर, कुंभ व मीन राशि में प्रवेश करते हैं तो कुंभ राशि के लोगों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
12.शनिदेव जब कुंभ, मीन एवं मेष में आते हैं तो मीन राशि वाले जातक-जातिकाओं के लिए शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
जो व्यक्ति प्रथम बार साढ़ेसाती से गुजर जाता है, उसे पुन: 30 वर्ष पश्चात शनिदेव की साढ़ेसाती से प्रभावित होना पड़ता है। अगर अपवाद को छोड़ दिया जाये तो जातक को अपने जीवन में तीन बार साढ़ेसाती का सामना करना पड़ता है। साढ़ेसाती से अक्सर लोग भयाांत हो जाते हैं। लेकिन सब साढ़ेसाती अनिष्टकारक नहीं होती।

द्वादश राशियों में शनि का फल

मेष से मीन तक कुल बारह राशियाँ है। इन बारह राशियों में स्थिर होकर शनि पृथक-पृथक परिणाम प्रदान करता है । शनि कौन-सी राशि में स्थित होकर क्या फल प्रदान करता है, यह निम्नवत रूप से जाना जा सकता है।
मेष राशिस्थ शनि
मेष राशि में शनि की उपस्थिति से जातक अत्यंत क्रोधी स्वभाव का और कुत्सित कर्मों में रुचि लेने वाला होता है । वह विवादों का अवसर खोजता है एवं व्यर्थ के परिश्रम से पराभूत तथा प्रकृति से अनियमित होता है । वह आत्म बलहीन और निर्बल होता है । किसी का एहसान जल्दी भुला देता है, गलत कामों में समय बर्बाद करता है एवं निरंतर अशांति का अनुभव करता है ।
वृष राशिस्थ शनि 
यदि शनि वृष राशि में हो तो जातक स्पष्टवादी, दुराचारी, मुर्ख, झूठा एवं विभिन्न कार्यों को करने में अग्रसर रहता है । उसमें दासवृत्ति को प्रमुखता होती है । ये स्त्रियों से उसकी विशेष आसक्ति रहती है । स्त्रियाँ भी उस पर सर्वस्व न्योछावर करने को उत्सुक रहती हैं । किन्तु ऐसे व्यक्ति पर यकीन करना मुश्किल होता है । '
मिथुन राशिस्थ शनि
यदि कुँडली में मिथुन राशि का शनि हो तो जातक यात्राबहुल जीवन व्यतीत करता है । निरंतर प्रवास एवं विदेशवास उसकी नियति होती है । जातक कपटी,दुराचारी और पाखंडी होता है तथा अपव्यय के कारण आर्थिक संबंधों से दुखी रहता है। वह उधोगी होता है। अपनी रसपूर्ण-अलंकऱयुक्त वाणी से जनप्रियता अर्जित करता है, राजकार्यों में दक्ष होता है, आडंबर में निपुणा होता है और जीवनचर्या में नितांत गोपनीयता रखता है । वह अत्यधिक कामातुर भी होता भी होता है |
कर्क राशिस्थ शनि
यदि शनि कर्क राशि में हो तो जातक बाल्यावस्था में अत्यंत दुखी रहता रहता है |माता का स्नेह उसे न के बराबर मिलता है। उसका स्वभाव चंचल और अस्थिर होता है । वह दूसरे व्यक्तियों के कार्यों में निरंतर अवरोध उत्पन्न करने वाला, अपनेकार्यों से ख्याति अर्जित करने वाला, आत्मीय-निकटस्थ जनों के प्रति किंचित असहिष्णु व्यवहार करने वाला, अंतर्विरोधी आचरण से आक्रांत, जीवन के मध्य भाग में पर्याप्त समृद्धि-सुयश संपन्न एवं स्पर्द्धायुक्त होता है । वह सुदर्शन और सौभाग्ययुक्त होने के बावजूद संघर्ष भरा बाल्यकाल व्यतीत करता है। इस समय व्याधियां उसे दुखी करती है। मातृ-सुख में क्षीणता होती है। पुर्वायु में आर्थिक विकलता रहती है । रुग्ण रहना नियति होती है । उदात कार्यो को वह तत्परता से पूर्ण करता है । यदि सप्तम भाव का प्रभाव हो तो द्वि-विवाह भी संभव है ।
सिंह राशिस्थ शनि
सिंह राशिस्थ शनि के प्रभाव से जातक अध्ययन, अनुसंधान एवं लेखन के विशिष्ट क्षेत्रों में निष्ठापूर्वक प्रवृत्त होता है । बहुज्ञ होने के बाबजूद वह कुचर्चा के वृत्त में रहता है । परिणाम स्वरूप उसमें रुक्षता अथवा उद्दंडता का अभ्युदय होता है । पत्नी-सुख क्षीण रहता है । बहदास सदृशा कार्यों से आजीविका का भीग करता है । निकटस्थ व्यक्तियों से रुष्ट रहता है एवं उनसे उपेक्षित होता है । संतति अल्प होती है । प्राय: विरोचीजनों से सुखोपभोग के साधन उपलब्ध करता है । उसे पत्नी पक्ष से समृद्धि और सम्मान प्राप्त हो सकता है।
कन्या राशिस्थ शनि
यदि शनि कन्या राशि में हो तो जातक अधम कोटि का जनहितकारी, नारी वर्ग के गाते भोगवादी दृष्टिकोण रखने वाला, मितभाषी, पवित्र स्थलों की यात्रा करने वाला और धन-संपन्न होता है। यदि शनि अशुभ प्रभाव में हो तो जातक नपुंसक जैसा रूपाकार धारण करने वाला, व्यभिचारी, शिल्पी एवं पान्नजीवी होता है । उसके स्वभाव में कुटिलता एवं जीवन में विशिष्ट महत्वाकांक्षा होती है । ऐसा जातक कृशकाय, मिव-विरोधी एवं संतोष से विरहित रहता है ।
तुला रांशिस्थ शनि
यदि शनि तुला राशि में हो तो जातक नेतृत्व वहन करने में सक्षम होता है ।वह सदैव अपनी उन्नति की ओर अग्रसर रहता है तथा अपने भुजबल से यश अजित करता है। ज्योतिविर्दों के अनुसार ऐसा जातक समृद्ध, नृपतुल्य जीवन का व्यतीत्तकर्ता एवं संपति संग्राहक होता है।
वृश्चिक राशिस्थ शनि
वृश्चिक राशि का शनि होने से जातक शुभ-पवित्र कृत्यों के संपादन में अरुचि प्रदर्शित करता है । वह कुटिल बुद्धि का होता है । उसे विष अथवा शस्त्र से भय होता है । उसकी प्रवृति प्रचंड, रोषयुक्त, लोभयुक्त, परधनापहारी एवं अहंयुफ्त होती है। वह अनेक अधम कृत्य करता है तथा क्षति, अति व्यय एवं व्याधि से आक्रांत रहता है । उसका जीवन अवरोधों से परिपूर्ण रहता है । पुत्र का आनंद बाधित होता है । उसके मन में दृढ़त्ता निवास करती है । वह शत्रुओँ को दुरभिसंधि से उद्विग्न रहता है । उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दंड पीडित करते हैं ।
धनु राशिस्थ शनि
यदि जातक को जन्मकाल में धनु राशि का शनि हो तो वह अध्ययन, मनन, वाद-विवाद, शास्त्र ज्ञान एवं लौकिक ज्ञान आदि में निष्णात होता है । वह अपने उत्तम आचार-व्यवहार तथा प्रकृष्ट प्रवृत्तिवों से सुयश अर्जित करता है । उसका आत्मज इस क्रीर्तिध्वजा का सक्षम संवाहक होता है। वह मृदु और अल्प वार्तालाप करता है । आयु के उत्तरार्द्ध में अपार वैभव, प्रतिष्ठा एवं आदर अर्जित करता है । स्त्री और संतान का सूख भोगता है तथा सत्ताधीशों का प्रिय एवं विश्वस्त होता है। उसमें नेतृत्व करने की अपार क्षमता होती है ।
मकर राशिस्थ शनि
यदि कुंडली में मकर राशि का 'शनि हो तो जातक पर-स्त्रिगामी, दूसरों की संपत्ति यहाँ भूमि का उपभोग करने में समर्थ तथा दर्शनीय स्थलों और आभूषणों का अनुरागी होता है । वह बहुमुखी कलाओं का व्यवहारिक ज्ञान रखता है तथा दृढ़ उद्यमी होता है । विद्वानों का कहना है कि ऐसा जातक अपने वैदिक पांडित्य तथा शेल्पिक अभिज्ञान के लिए उत्तमोत्तम लोगों द्वारा अभिनंदित किया जाता है ।
कुंभ राशिस्थ शनि
यदि शनि कुंभ राशि में हो तो जातक व्यसनी, देबी-देवताओं पर श्रद्धा न रखने वाला, परिश्रमी तथा उन्मादी स्वभाव का होता है । विचारकों ने एक मत से कुंभ राशिस्थ शनि को अधिकतर गर्हित सिद्ध किया है । उनके मतानुसार ऐसा जातक मिथ्या भाषण में पटु, कुटिल, धूर्ताचारी और आलसी होता है । पर-स्त्रियों का भोग उसे आनंद देता है।
मीन राशिस्थ शनि
यदि कुंडली में मीन राशि का शनि हो तो जातक यज्ञादि शुभ कर्मों को संपादित करने में विशेष रुचि लेता है तथा शैल्पिक सामर्थ से युक्त होता है । यह नीति के गहन त्तत्वों का विवेचक, संपत्तिवान तथा कुल एवं आत्मीयजनों में शीर्षस्थ होता है । बहुमूल्य रत्नों का पारखी होता है । ऐसा व्यक्ति व्यावहारिकता में सक्षम, नृपतुल्य, तेजोगुणयुक्त, सर्वहित चिंतक, पुत्र कलत्र से सुखी, शासक का विश्वसनीय एवं सकारात्मक क्षमताओं की प्रशंसा करने वाला होता है ।

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Monday, 19 October 2015

ज्योतिष्य दृष्टिकोण से देखें की नाक का रक्तस्राव (नकसीर) क्यों???????



नकसीर : नाक का रक्तस्राव जब नाक से खून बहने लगता है, तो इसी अवस्था को नकसीर कहते हैं। नकसीर विशेष कर गर्मियों के मौसम में होती है। गर्मियों के दिनों में गर्मी के कारण धमनियों पर अधिक दबाव पड़ने से नाक से खून बहने लगता है। कई बार बहने वाले रक्त की मात्रा से आम आदमी घबरा जाता है और सोचता है कि ऐसे में क्या करें? नकसीर फूटने के कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख है बहुत से लोगों की नाक के भीतर अंगुली से कुरेदने की आदत। वे नाक में जमे स्राव को अंगुली घुमा कर निकालना चाहते हैं। ऐसे में नाखून से नाक की भीतरी कोमल परत पर चोट लग कर खून बहने लगता है। उच्च रक्तचाप के रोगियों में भी नकसीर फूटने का भय होता है। नाक के भीतर संक्रमण हो जाने की दशा में ज्वर, नाक से पानी बहना और मुंह से बदबू आने के साथ-साथ खून भी निकल सकता है। नाक की त्वचा में किसी प्रकार की एलर्जी हो जाए, तो उसका स्राव सूख जाता है और वहां पपड़ी जम जाती है, जो अलग होते समय रक्तस्राव कर सकती है। नाक में किसी प्रकार का ट्यूमर, या गांठ भी रक्तस्राव कर सकते हैं। ऐसे में सांस लेने में तकलीफ, नाक से पानी आना और नाक दर्द जैसे लक्षण प्रायः रहते हैं। नाक में किसी तरह की चोट लग जाए, तो भी रक्तस्राव हो सकता है। समुद्री सतह से बहुत ऊंचाई वाले स्थान पर जाने से भी नकसीर फूट सकती है। ऐसा धमनियों पर अधिक दबाव पड़ने से होता है। रियूमैटिक फीवर, जिसमें बुखार के साथ-साथ जोड़ों में दर्द और शरीर पर लाल दाने उभर आते हैं, उसमें भी नाक से रक्तस्राव हो सकता है। कुछ व्यक्तियों में रक्त कोशिका विकृत होने पर खून जमने की क्रिया देरी से होती है, या बिल्कुल नहीं होती। उन्हें भी कई बार, इस बीमारी से दो-चार होना पड़ सकता है। विटामिन की कमी, मासिक धर्म की अनियमितता, अत्यधिक शारीरिक श्रम, धूप में ज्यादा देर रहना जैसे काराण भी रक्तस्राव को जन्म दे सकते हैं।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण : ज्योतिषीय दृष्टि से काल पुरुष की कुंडली का तृतीय भाव नाक की आंतरिक प्रक्रिया का नेतृत्व करता है। नाक के आंतरिक रोगों का कारक बुध होता है। मंगल हृदय भाव और रक्त का कारक है। चंद्र रक्तचाप का कारक है। इसी लिए 'नकसीर' का संबंध तृतीय भाव, बुध, चंद्र और मंगल से हुआ। किसी भी जन्मकुंडली में लग्नेश, लग्न, तृतीयेश, तृतीय भाव, बुध, चंद्र और मंगल दुष्प्रभावों में रहें, तो नकसीर जैसा रोग होता है। विभिन्न लग्नों में नकसीर रोग : मेष लग्न : लग्नेश मंगल षष्ठ भाव में, षष्ठेश तृतीय भाव में चंद्र से युक्त, या दृष्ट हो और तृतीय भाव पर राह,ु या केतु की दृष्टि हो, तो जातक को नकसीर होती है। वृष लग्न : लग्नेश त्रिक भावों में मंगल से युक्त, या दृष्ट हो, तृतीयेश चंद्र राहु, या केतु से दृष्ट हो, तृतीय भाव में गुरु अपने उच्च अंशों पर बुध से युक्त हो, तो नकसीर होती है। मिथुन लग्न : लग्नेश और तृतीयेश षष्ठ, या अष्टम भावों में हों, मंगल तृतीय भाव में, या तृतीय भाव पर दृष्टि रखे, चंद्र तृतीय भाव में राहु से दृष्ट हो और गुरु-केतु दृष्ट, या युक्त हो कर लग्न पर दृष्टि रखें, तो नकसीर होती है। कर्क लग्न : लग्नेश और तृतीयेश तृतीय भाव में युक्त हो कर मंगल से दृष्ट हों और मंगल राहु से दृष्ट हो, लग्न पर शनि की दृष्टि हो, तो नकसीर होती है। सिंह लग्न : लग्नेश सूर्य षष्ठ भाव में हो और षष्ठेश शनि तृतीय भाव में हो तथा मंगल से दृष्ट, या युक्त हो, तृतीयेश बुध से युक्त हो कर राहु से दृष्ट हो, चंद्र लग्न, या चतुर्थ भाव में हो, तो नकसीर होती है। कन्या लग्न : लग्नेश त्रिक भावों में हो, चंद्र तृतीय भाव में मंगल से युक्त, या दृष्ट हो, गुरु तृतीय भाव में हो, या तृतीयेश पर दृष्टि रखे और राहु, केतु तृतीय भाव पर, या लग्न पर दृष्टि रखे, तो नकसीर होती है। तुला लग्न : लग्नेश अष्टम भाव में, मंगल तृतीय भाव में गुरु से युक्त, या दृष्ट हो, बुध षष्ठ में चंद्र से युक्त हो और राहु-केतु से दृष्ट हो, तो नकसीर होती है। वृश्चिक लग्न : लग्नेश और षष्ठेश मंगल-शनि से दृष्ट हो कर षष्ठ भाव में हों, तृतीय भाव में चंद्र और बुध राहु से दष्ृ ट हां े तो नकसीर हाते है |धनु लग्न : शुक्र और बुध तृतीय भाव में, सूर्य द्वितीय भाव में राहु से युक्त, या दृष्ट हो, चंद्र तृतीयेश शनि से युक्त हो और लग्नेश त्रिक भावों में हो, तो नकसीर होती है। मकर लग्न : गुरु तृतीय भाव में हो और लग्नेश त्रिक भावों में हो, तृतीय भाव पर मंगल की दृष्टि हो, चंद्र मंगल से युक्त हो, बुध सूर्य से अस्त हो, तो नकसीर होती है। कुंभ लग्न : लग्नेश षष्ठ भाव में, या अष्टम भाव में हो, मंगल तृतीय भाव में बुध से युक्त हो और गुरु से दृष्ट हो, चंद्र राहु के दुष्प्रभाव में हो, तो नकसीर होती है। उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारित हैं। रोग की उत्पत्ति संबंधित ग्रह की दशांतर्दशा और गोचर के प्रतिकूल रहने से होती है। जब तक दशांतर्दशा और गोचर प्रतिकूल रहेंगे, शरीर में रोग रहेगा। उसके पश्चात रोग से भुक्ति प्राप्त होगी।

शिक्षा से सम्बन्धी समस्याओं का निवारण या हल



कुंडली में ग्रहों की स्थिति और सितारों की नजर बताती है। आपके करियर का राज:- हर विद्यार्थी अपनी पढ़ाई में कठिन परिश्रम कर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है। अपने भाग्य और कड़ी मेहनत के बल पर ही कोई, विद्यार्थी परीक्षा में श्रेष्ठ अंकों को प्राप्त कर सकता है। किसी भी तरह की परीक्षा में इंटरव्यू में जाने के पूर्व बड़ों का अशीर्वाद लेना चाहिए। मीठे दही में तुलसी का पत्ता मिलाकर सेवन करना चाहिए इस तरह के उपायों से सफलता प्राप्त करने में सहायता मिलती है। इन्हीं में कुछ मंत्रों यंत्रों एवं सरल टोटकों के प्रभाव से अच्छी सफलता प्राप्त की जा सकती है। मंत्र: ।। ¬ नमो भगवती सरस्वती बाग्वादिनी ब्रह्माणी।। ।। ब्रह्मरुपिणी बुद्धिवर्द्धिनी मम विद्या देहि-देहि स्वाहा।। अपनी जिह्ना को तालु में लगाकर माॅ सरस्वती के बीज मंत्रों का उच्चारण करने से माॅ सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ऐसे किसी भी सफलता की प्राप्ति के लिए इस मंत्र का 11 बार या 21 बार इस मंत्र का जप करने से सफलता की प्राप्ति होती है और इस मंत्र का नित्य सुबह जप करें। ।। जेहि पर कृपा करहि जनु जानी।। ।। कबि उर अजिर नचकहि बानी।। गुरुवार के दिन केसर की स्याही से भोजपत्र पर इस यंत्र का निर्माण करें। इस यंत्र में सब तरह से योग करने पर जोड़ 20 आएगा। इस ताबीज को गले धारण करें। इससे परीक्षा में सफलता की प्राप्ति होगी। विद्यार्थियों को चाहिए कि वह अध्ययन करते समय उनका मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए। जिन विद्यार्थियों को परीक्षा देेने से पहले उत्तर भूलने की आदत हो। उन्हें परीक्षा के समय जाने से पहले अपने पास कपूर व फिटकरी पास रखकर जाना चाहिए। यह नकारात्मक ऊर्जा को हटाते हैं। परीक्षा के समय जब कठिन विषय की परीक्षा हो तो पास में गुरुवार के दिन मोर पंख रखें। विद्यार्थियों को चाहिए कि वह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर अपनी पढ़ाई का अध्ययन करना चाहिए, जिससे लंबे समय तक विष का विद्यार्थी के ज़हन में ताजा बना रहता है। परीक्षा में जाने से पहले मीठे दही का सेवन करना चाहिए। दिन शुभ व्यतीत होता है। भगवान गणेश जी को हर बुधवार के दिन दूर्बा चढ़ाने से बच्चों की बुद्धि कुशाग्र होती है। इसलिए गणेश जी का सदैव स्मरण करें। जब आपका सूर्य स्वर (दायां स्वर) नासिका का चल रहा है। तब अपने कठिन विषयों का अध्ययन करें। तो वह शीघ्र याद हो जाएगा। इसी प्रकार कक्ष में प्रवेश करते समय भी चल रहे स्वर का ध्यान रखकर प्रवेश करें। ‘परीक्षा में सफलता प्राप्त करने हेतु’ परीक्षा भवन में प्रवेश करते समय भगवान राम का ध्यान करें और निम्नलिखित मंत्र का ग्यारह बार जप करें। ।। प्रबसि नगर कीजे सब काजा।। ।। हृदय राखि कौशलपुर राजा।। गुरु व अंत में चैपाई के संपुट अवश्य लगाएं। यह बहुत प्रभावी टोटके हैं। ‘शिक्षा दीक्षा में रुकावट दूर करने के लिए’’ क्रिस्टल के बने कछुए का उपयोग प्रमुख होता है। क्रिस्टल के कछुए को विद्यार्थी के मेज पर रखना चाहिए। एकाग्रता बनी रहती है। साथ ही सफेद चंदन की बनी मूर्ति टेबल पर रखनी चाहिए रुकावटें धीरे-धीरे दूर होने लगती है। परीक्षा में सफलता के लिए परीक्षा में जाते समय विद्यार्थी को केसर का तिलक लगाएं और थोड़ा सा उसकी जीभ पर भी रखें उसे सारा सबक याद रहेगा और सफलता मिलेगी। चांदी की दो अलग-अलग कटोरी में दही पेड़ा रखकर माॅ सरस्वती के चित्र के आगे ढककर रखें और बच्चे की सफलता के लिए कामना करें। मां सरस्वती का स्मरण कर बच्चे को परीक्षा के लिए निकलने से तीन घंटा पूर्व एक कटोरी खिलाना है और परीक्षा के लिए जाते भक्त दूसरी कटोरी का प्रसाद खिलएं सफलता मिलेगी। ‘विद्या में आने वाले विघ्न को दूर करेने हेतु’ मंदिर में सफेद काले कंबल तथा धार्मिक पुस्तकों का दान करें। 40 दिन तक प्रतिदिन एक केला गणेश जी के मंदिर में उनके आगे रखें। वारों के अनुसार परीक्षा देने के समय किए जाने वाले उपायः सोमवार ः सोमवार के दिन पेपर देने जा रहे हों तो दर्पण में अपना प्रतिबिंव देखकर जाएं। शिवलिंग पर पान का पत्ता चढ़ाकर जाएं। मंगलवार: हनुमानजी को गुड़, चने का भोज लगाकर प्रसाद खाकर जाएं। बुधवार: गणेजजी को दूर्वा चढ़ाकर, धनिया चबाकर जाएं। बृहस्पतिवार: केसर का तिलक लगाकर परीक्षा देने जाएं और अपने साथ पीली सरसों रखें। शुक्रवार: श्वेत वस्त्र धारण करके, मीठे दूध में चावल देवी को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करें। शनिवार: अपनी जेब में राई के दाने रखकर परीक्षा देने जाएं। रविवार: दही व गुड़ अपने मुख में रखकर परीक्षा देने जाएं। इनमें किसी एक मंत्र का प्रयोग अवश्य करें।

वृक्षों का ज्योतिष्य या वैदिक महत्व



पश्चिम के लोग तथा नये पढ़े-लिखे भारतीय भारत देश में प्रचलित वृक्ष पूजा का बड़ा मजाक उड़ाते हैं, जबकि स्वयं पूरे विश्व को क्रिसमस के दिन क्रिसमस ट्री की आराधना करने के लिए प्रेरित करते है| भारतीयों को पेड़-पत्ते का पुजारी कहा जाता है। परंतु वृक्ष की पूजा हंसी की चीज नहीं है। तुलसी पूजन हर हिंदू घर में होता है। इस पौधे का स्वास्थ्य एवं मन पर कितना प्रभाव पड़ता है, इस संबंध में अभी तक नयी-नयी बातें मालूम हो रही है। लोक पालक विष्णु हैं। आयुर्वेद के आचार्य विष्णु हैं। धन्वंतरि को विष्णु का अवतार कहते हैं। सैकड़ों रोगों की दवा तथा घर की गंदगी भरी हवा को दूर करने वाला पौधा तुलसी है। तुलसी का विष्णु से विवाह एक प्रतीक मात्र है। इसी तरह से पीपल के पेड़ में वासुदेव का पूजन करते हैं। वासुदेव अजर एवं अमर हैं। संसार में पीपल ही एक मात्र ऐसा वृक्ष है, जिसमें कोई रोग नहीं लग सकता। कीड़े प्रत्येक पेड़ तथा पत्तों में लग सकते हैं, परंतु पीपल में नहीं। वट वृक्ष की दार्शनिक महिमा है। यह ऊध्र्व मूल है, यानी, इसकी जड़ ऊपर, शाखा नीचे को आती है। ब्रह्म ऊपर बैठा है। यह सृष्टि उसकी शाखा है, वट वृक्ष का प्रतीक है। उसके पूजन का बड़ा महत्व है। ज्येष्ठ के महीने में ”वट सावित्री“ का बड़ा पर्व होता है, जिसे ”बरगदाई“ भी कहते हैं। आंवले के सेवन से शरीर का कायाकल्प हो जाता है। इसके वृक्ष के नीचे बैठने से फेफड़े का रोग नहीं होता है, चर्म रोग नहीं होता है। कार्तिक के महीने में कच्चे आंवले तथा आंवले के वृक्ष का स्वास्थ्य के लिए विशेष महत्व है। इसलिए कार्तिक में आंवले के वृक्ष का पूजन, आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन करने की बड़ी पुरानी प्रथा इस देश में है। कार्तिक शुक्ल पक्ष में ”धात्री पूजन“ का विधान है। इस पूजन में आंवले के वृक्ष के नीचे विष्णु का पूजन होता है।
शंकर भगवान को बिल्व पत्र चढ़ाते हैं। शंकर ने हलाहल विष का पान समुद्र मंथन के समय किया था। अतएव उसकी गर्मी से वह तृप्त हैं। हर एक नशा विष होता है। किसी के लिए संखिया विष का काम करता है, किसी के लिये नशे का काम करता है। बहुत गहरा नशा करने वाले जन कुचला, संखिया सब कुछ हजम कर जाते हैं, तो वे नागिन पालते हैं और अपनी जीभ पर उससे रोज कटवा/डसवा लेते हैं। तब कुछ नशा जमता है। नशे को उतारने के लिए सबसे अच्छी दवा बिल्व (बेल) का पत्ता है। कितनी भी भांग चढ़ी हो, जरा सा बिल्व पत्र कुचल कर, उसका अर्क पिला देने से नशा खत्म हो जाता है। हलाहल विष का पान करने वाले शंकर के मस्तक पर, या शिव लिंग पर बिल्व पत्र चढ़ाने का नियम है। जो लोग बिल्व पत्र का गुण नहीं जानते हैं, वे उसका महत्व नहीं समझते हैं।बिल्व पत्र तथा बिल्व वृक्ष का और भी महत्व है। नव रात्र में सप्तमी के दिन बिल्व पत्र से देवी को अभिमंत्रित करना चाहिए। रावण के वध तथा राम की सहायता के लिए ब्रह्मा ने बिल्व वृक्ष में देवी का आवाहन किया था। बिल्व वृक्ष भगवती का प्रतीक माना जाता है।
विजया दशमी की शाम को शमी वृक्ष के पूजन का विधान है। शास्त्र का वचन है कि ”शमी पाप की शामक है।“ अर्जुन को महाभारत में अस्त्र-शस्त्र शमी ने धारण कराये थे। राम को प्रिय बात शमी ने सुनायी थी। यात्रा को निर्विघ्न बनाने वाली शमी है, अतः पूज्य है। यात्रा के समय यात्री के हाथ में शमी की पत्ती देने की पुरानी प्रथा इस देश में है। गणेश पूजन में गणेश जी को दूर्वा (दूब) के साथ शमी भी चढ़ाते हैं। कुश भी पूजा के काम आता है। विधान है कि भाद्रपद माह के महीने की अमावस की काली रात्रि में कुश उखाड़ना चाहिए। शास्त्र का वचन है कि दर्भ ताजे होने के कारण श्राद्ध के योग्य होते हैं। चैत्र मास, शुक्ल पक्ष, अष्टमी को पुनर्वसु नक्षत्र में जो लोग अशोक वृक्ष की 8 कली को (उसके अर्क को) पीते हैं, उनको कोई शोक नहीं होता। अवश्य ही इस अशोक कली का कोई आयुर्वेदिक महत्व होगा, जिससे रोग दोष नष्ट होता होगा।
दौना (दमनक) की पत्तियां मीठी सुगंध देती हैं। चैत्र मास में अपने इष्ट देवता को दौने की पत्ती चढ़ायी जाती है। दौने की महक से बल-वीर्य भी बढ़ता है। इसी लिए यह ऋषि, गंधर्व आदि को मोहित करने वाला तथा कामदेव की पत्नी रति के मुख से निकले हुए भाप की सुगंधि से युक्त कहा जाता है। कहते हैं कि इसमें कामदेव का वास है |आम के वृक्ष तथा आम के फूल, जिसे मंजरी कहते हैं, के पूजन की अनेक विधियां है। वसंत पंचमी के दिन इसका पूजन होता है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा धुरड्डी के दिन मंजरी पान का विधान है। यदि मकान में कोई दोष हो, या आदमी की तीसरी शादी हो, या कन्या को विधवा होने का दोष (भय) हो, तो मदार (अर्क) के साथ विवाह करने का विधान है।

मूलांक 6 वालों का जीवन

जन्म तारीख 6 1 5 2 4
परिचय-यदि किसी स्त्री पुरूष का किसी भी अंग्रेजी महीने की 6-15-24 तारीख को जन्म हुआ है, तो उनका जन्म तारीख मूलांक 6 होता है । जब किसी को अपनी जन्म तारीख ज्ञात न हो, तो यदि नाम अक्षरों का मूल्यांकन करने के उपरान्त मूलांक 6 आता है, तो उनका मूलांक भी 6 होता है । अंत: ये 6 अंक के प्रभावाधीन आते हैं। मूलांक 6 वालों को अंक तंग 6 प्रभावित करती है । मूलांक 6 स्वामी ग्रह शुक्र हो जो प्रेम एवं शक्ति का प्रतीक माना गया है । 1-2-3 अंक प्रारमिभक अंक माने गये है । 1+2+3=6 अथवा 1-2-3 अंक के जोड़ से 6 अंक बनता है । इस लिए अंक 6 की अपनी अलग अलग ही विशेषता है। इस अंक में अंक 1,2 और 3 की विशेषताएं भी समाई हुई है । मूलांक 6 के स्वामी ग्रह शुक्र को दैत्य गुरू को पदवी भी मिली है। अंक 6 मुख्यत: भोग का कारक है। मूलांक 6 वाले व्यक्ति बहुत लोकप्रिय देखे गए है ।
स्वभाव एवं व्यक्तित्व- मूलांक 6 वाले व्यक्तियों से मिलनसारिता तथा आकर्षण शक्ति प्रचुर मात्रा में होती से | ये बहुत लोकप्रिय होते है । मूलांक 6 वाले व्यक्ति कोमल, प्यारे तथा शान्तिप्रिय होते है। प्रेम-प्यार तो इनके प्राण होते है। ये विश्वसनीय होते है तथा कम ही विश्वासघात करते हैं । इनके मस्तिक में विचारों को बहुत उपज होती है, तरह-तरह की स्कीमें और विचार बनते रहते हैं, परन्तु इन विचारों, स्कीमों अथवा योजनाओं को कार्यरूप दे पाना, कई बार इनके वश की बात नहीं होती। इनकी स्मरण शक्ति तो उत्तम होती है परन्तु इनकी आत्मिक शक्ति कुछ कम ही होती है। इसी लिए वे अपने विचारों, स्कीमों आदि को कार्यरूप देने में असमर्थ होते हैँ। ये सुरक्षा की कामना करते है क्योकि ये सुरक्षा की सदैव कमी अनुभव करते रहते है। मूलांक 6 वाली स्त्रियाँ में तो यह भावना प्रबल होती है । इनके शब्द सुन्दर एवं वाणी मधुर होती है। इनका ह्रदय कोमल तथा सदैव प्रेम के गीत अलापता रहता है । ये प्रेम प्यार को पूरा भोगने को कामना करते हैं । ये व्यक्ति दूसरों का पूर्ण मान-सम्मान एवं सत्कार करते है । जिधर भी जाते है, इसी की प्रफुल्लता बिखेर देते है । ये व्यक्ति अनजान व्यक्तियों के बीच कुछ समय तक अलग सा अनुभव करते हैं, परन्तु शीघ्र ही उनके साथ घुल-मिल भी जाते है । मूलांक 6 वाले व्यक्ति मिलनसार होते है और इसी कारण ये बड़े लीकिप्रिय हो जाते है । इन व्यक्तियों के साथ रहने वाले इन्हें बहुत पसन्द करते हैं ।अन्य व्यक्ति इनमें भरपूर स्नेह एवं सत्कार भी करते है । इनकी अधिक रूचि अन्य सुन्दर व्यक्तियों एवं वस्तुओं में अधिक होती है। मूलांक 6 वाले चित्रकला, संगीत और साहित्य में बहुत रूचि रखते है। मूलांक 6 वाले व्यक्ति अतिथियों का बहुत मान-सम्मान अथवा सत्कार करते है । प्रत्येक वस्तु को सुचारू रूप से सजाना इनका नित्यकर्म होता है । यहाँ तक कि वे स्वयं को बनाने संवारने पर भी घंटो लगा देते हैँ। मूलांक 6 वाली स्त्रियाँ तो स्वयं को सजाने, श्रृंगार करने में कई-कई घंटे लगा देती है। ये व्यक्ति अपने घर में सोफे तथा अन्य फर्नीचर भी पूरा सजा कर रखते है । वस्त्र रखने वाली अलमारियों मेँ सुन्दर एवं महंगे वस्त्रों को एक प्रकार से प्रदर्शनी सी लगा देते है। मूलांक 6 वाले स्वभाव के कुछ हठी भी होते है। अपनी बात को सही और ठीक ठहराना इनका स्वभाव होता है। मूलांक 6 वाली स्त्रियों में यह भावना प्रबल होती है । ये व्यक्ति अपनी बात पर भी अड़े रहते है और हर तरह से अपनी बात अथवा मांग मनवाकर ही दम लेते है । यह भावना तो मूलांक 6 वालीं आत्यधिक मात्रा मेँ पायी जाती है ।
मूलांक 6 वालों में इर्षा की भावना अन्यो को अपेक्षा अधिक होती है। इन्हें सचमुच ईंष्यालु कहा जा सकता है । ये किसी प्रकार का विरोध भी सहन नहीँ करते और न ही विरोधयों को ये सहन करते हैं । मूलांक 6 वाले व्यक्ति तो बस शान्ति एवं, प्रेम से रहना पसन्द करते है । ये बडे परिश्रमी भी होते हैं तथा लम्बे समय तक कार्यरत रहते है, परन्तु अधिक बिलासिता की ओर रूचि इनको हानि पहुँचाती है। जैसे पहले बताया जा चुका है कि मूलांक 6 का प्रतिनधि ग्रह शुक होता है। ये ग्रह सुन्दरता, भोग तथा विलास का परिचारक है। अत: मूल अंक 6 वाले व्यक्ति सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व के होते है । विपरीत लिग अथवा स्त्री को प्रभावित करने में इनमें विशेष शक्ति होती है। ये मूलांक 6 वालों का प्रधान गुणा होता है । अत: जीवन में कई सुन्दर स्त्रियों से इनका सम्पर्क रहता है। मूलांक 6 वालों को नाचने-गाने तथा संगीत में इनको रूचि विशेष होती है। अपने आपको सुन्दर रूप में ढालने लगे रहते हैं। सुन्दरता से सम्बन्धित वस्तुओं अथवा प्रसाधनों पर अधिक व्यय करते है |जिस स्थान पर रहते भी है, उसे भी सुन्दर स्वच्छ बनाने में प्रयासरत रहते हैं ।
विद्या- उद्यम एवं प्रेरणा से ये उत्तम विद्या प्राप्त कर लेते हैं । चूँकि इनकी आत्मिक शक्ति कुछ कम होती है तथा विचारों को कार्यरूप भी दे आना इनके वश की बात नहीँ होती, अत: विद्या प्राप्ति हेतु बडे प्रयत्न करने पड़ते हैं, ये काफी समय आराम, अन्याय एवं गप्पबाजी में व्यय करते है तथा विद्या की ओर लापरवाह हो जाते से । इस लिए ये असफल अथवा फेल भी हो जाते है और कई बार तो विद्या अधूरी भी छोड़ देते है । यदि वे आराम एवं आलस्य का त्याग कर दे तो अच्छी विद्या प्राप्त कर सकते है । संगीत एवं चित्रकला में ये अधिक रूचि लेते है ।
प्रेम विवाह एवं सन्तानं-मुलान्तक 6 वाले व्यक्ति सत्य अथवा सहीं अर्थों में प्रेम-प्यार करते है । जीवन में इनके प्रेम सम्बन्ध तो होते हीँ है ओर वे होते भी है बिना किसी कपट के । ये प्रेम को गम्भीरता से लेते है । कभी-कभी ये प्रेम में आदर्श भी दूँढने लग जाते है । ये प्रेमभाव में जीवन को नीरस ही समझते है। इनके जीवन में ऐसे पल भी आते हैं । जब ये बिरह की चक्की में भी खूब पिसते हैं परन्तु फिर भी आशा का दामन नहीं छोड़ते । मूलांक 6 वालों का मूलांक 3-6-9-2 की और विशेष झुकाव होता है ।
यात्रा- मूलांक 6 वाले कम ही यात्राएं करते हैं । ये तो एक जगह रहकर जीवन का आनंद लेना चाहते है यहाँ का वातावरण आनन्दमय एवं सुखद हो। लम्बी यात्राएं कम ही होती है । छोटी-छोटी यात्राएं तो प्राय होती ही रहती हैं । यात्रायों में इन्हें लाभ कम होता है | विदेश जाते-जाते कई बार ये रह जाते है । फिर भी अच्छा साथी न मित्र इन्हें यात्रा, पिकनिक पार्टी तथा विदेश में ही मिलता है । विदेश यात्रा एवं विदेश रहने से इन्हें कोई विशेष लाभ नहीँ होता तथा धन-दौलत-सम्पत्ति एवं सन्तान से सम्बरिधत परेशानी झेलनी पड़ती है ।
स्वास्थ्य-मूलांक 6 वालों की शरीरिक शक्ति तो उत्तम होती है, परन्तु आत्मिक शक्ति कुछ कम ही होती है । प्राय: ये स्वस्थ ही रहते है । फिर भी मानसिक चिन्तस्ना इनको बनी रहती है। मूलांक 6 वालों को गला, नाक, फेफड़े एवं मूत्र विकारों की सम्भावना रहती है। पथरी, गुर्दे के रोग, शुगर तथा शुक्रग्रणु रोग भी इन्हें प्रभावित कर सकते हैं । अनियमित रक्त-संसार, दिल का धड़कना, मूलांक 6 वालों के लिए कई बार आम समस्या बन जाती है। धूम्रपान करना एवं शराब का सेवन इनके लिए बहुत हानिपृद है । यह भी देखा गया है। कि प्राय: मूनांक 6 वालों का मन इनकी ओर आकर्षित होता रहता है। इनको घातक रोग एडस तथा चर्मरोग व गुप्त रोगों की आशंका बनी रहती है। अधिक भोग और विलासता स्वास्थ्य हानि का कारण बनते है। ये सर्दी-जुकाम आदि से भी पीडित रहते है। रोगी अथवा स्वास्थ्य क्षीण होने को सम्भावना होती है|
आर्थिक स्थिति-मूलांक 6 वालों का व्यवसाय का क्षेत्र बडा विशाल होता है । ये कार्य करने के सचमुच समर्थ होते है । मजदूरी करते हुए मूलांक 6 वाले कम ही मिलते है । अत: इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी ही होती है । यह देखा गया है कि इनकी आर्थिक स्थिति में एकरूपता नहीं होती। आय से व्यय अधिक होता रहता है । मूलांक 6 वालों का रहन-सहन का तौर-तरीका, सुन्दर वस्तुओं का संग्रह कीमती पोशाक आदि का शौक अदि इनको व्ययशील बनाता है । इस लिए व्यय अधिक होता ही रहता है तथा आर्थिक स्थिति प्रभावित होती रहती है ।
व्यवसाय एवं कार्य रूचि-मूलांक 6 वाले व्यक्ति सौदर्य को विशेष महत्व देते है, ये संगीत एवं चित्रकला में भी अधिक रूचि लेते है । ये प्रत्येक कार्य सुरूचि पूर्ण ढंग से करना पसन्द करते हैं । मूलांक 6 वाले व्यक्ति पेटिंग, संगीत, चित्रकला, नाटक, ड्रामा मण्डली, रेडियों व टी.वी, ऐक्टर, एक्ट्रेस में नेता-अभिनेता, लेखक,केमिस्ट, मेर्टनिटी य, रेडिमेड गज्जारमेँटूस, स्वास्थ्य विभाग, डाक्टर, नर्स, मैटर्न, नर्सिंग सुपरहैंट, रवागती क्लर्क, बार्डन, क्लर्क,पत्रकार, अबुर्कीटैकट, डेजाइनर, संगीतकार, गीतकार, फोटोग्राफर एवं कहानीकार अदि में सफल होते है। ये जन-सम्प्रर्क अधिकारी भी बना जाते है।विंलासता सम्बन्धी वस्तुएं खरीदने-बेचने,ऐसी वस्तुओं के व्यापारी, लोहे के कार्य है सोने के कार्य, उधार, दुकानेदार, शराब, पान, एवं दर्जी की दुकान भी वे करते है। मूलांक 6 वाले सेल्समैन, एजेन्ट, दलाल, बोली देने वाले सफल होते है। ये दूसरों की नौकरी करने वाले,घूम-घूम कर वस्तुएं बेचने वाले भी होते है । ' ये इंजीनियर, प्रजैक्ट अधिकारी भी बन जाते है । मशीनरी तथा मशीनरी से सम्बन्धित वस्तुए, उपकरता भी बेचते हैं और लाभ प्राप्त करते हैं । मनियारी की दुकान और खान-पान की वस्तुएं, होटल, रेस्टोरेंट से लाभ पाते हैं । इनकी विज्ञान एवं कला में अधिक रूचि होती है। ये मंत्री व्यापारी तथा कुशल मैनेजर होते है। .

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Sunday, 18 October 2015

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Saturday, 17 October 2015

भारतीय संस्कृति में दीपदान व्रत का महत्व

भारतीय संस्कृति में दीपदान व्रत की विशेष महिमा बताई गई है। जिस प्रकार घर में दीपक जलाने पर घर का अंधकार दूर हो जाता है उसी प्रकार भगवान के मंदिर में दीपदान करने वाले को भी अनंत पुण्यफल प्राप्त होते हैं। दीपदान व्रत कभी भी किसी भी दिन से आरंभ किया जा सकता है। अग्निदेव ने एक बार दीपदान के संबंध में महर्षि वशिष्ठ जी से कहा कि दीपदान व्रत योग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। जो मनुष्य देवमंदिर अथवा ब्राह्मण के घर में एक वर्ष तक दीपदान करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। चातुर्मास्य में दीपदान करने वाला विष्णुभगवान के धाम, कार्तिक मास में दीपदान करने वाला स्वर्गलोक तथा श्रावण मास में दीपदान करने वाला भगवान शिव के लोक को प्राप्त कर लेता है। चैत्र मास में मां भगवती के मंदिर में दीप जलाने से निश्चय ही मां जगदंबा के नित्य धाम को प्राप्त कर वहां अनंत भोगों को भोगता है। दीपदान से दीर्घ आयु और नेत्र ज्योति की प्राप्ति होती है। दीपदान से धन और पुत्रादि की भी प्राप्ति होती है। दीपदान करने वाला सौभाग्य युक्त होकर स्वर्ग लोक में देवताओं द्वारा पूजित होता है। दीपदान करते समय निम्न मंत्र का उच्चारण अवश्य करें। ‘‘¬ अग्निज्योतिज्र्र्याेितरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिज्र्याेतिः सूर्यः स्वाहा। अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ¬ चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।। साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया। दीपं गृहाण देवेश त्रौलोक्यतिमिरापहम्।। भक्त्या दीपं प्रयच्छामि देवाय परमात्मने। त्राहि मां निरयाद् घोराद् दीप ज्योतिर्नमो{स्तुते।। ¬ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । ¬ श्रीमन्नारायणाय नमः। दीपं दर्शयामि। या पिफर जिस देवता का मंदिर हो उस देवता का नाम उच्चारण करके ही दीप समर्पित करें। विदर्भ राजकुमारी ललिता दीपदान के ही पुण्य से राजा चारु धर्मा की पत्नी हुई और उसकी सौ रानियों में प्रमुख हुई। उस साध्वी ने एक बार विष्णु मंदिर में सहस्र दीपों का दान किया। इस पर उसकी सपत्नियों ने उससे दीपदान का माहात्म्य पूछा। उनके पूछने पर उसने इस प्रकार कहा- बहुत पहले की बात है, सौवीरराज के यहां मैलेय नामक पुरोहित थे। उन्होंने देविका नदी के तट पर भगवान श्रीविष्णु का मंदिर बनवाया। कार्तिक मास में उन्होंने दीपदान किया। बिलाव के डर से भागती हुई एक चुहिया ने अकस्मात अपने मुख के अग्रभाग से उस दीपक की बत्ती को बढ़ा दिया। बत्ती के बढ़ने से वह बुझता हुआ दीपक प्रज्वलित हो उठा। मृत्यु के पश्चात वही चुहिया राजकुमारी हुई और राजा चारुधर्मा की सौ रानियों में पटरानी हुई। इस प्रकार मेरे द्वारा बिना सोचे-समझे जो विष्णु मंदिर के दीपक की बाती बढ़ा दी गई; उसी पुण्य का मैं फल भोग रही हूं। इसी से मुझे अपने पूर्व जन्म की स्मृति भी है। इसलिए मैं हमेशा दीपदान किया करती हूं। एकादशी को दीपदान करने वाला स्वर्गलोक में विमान पर आरूढ़ होकर प्रमुदित होता है। मंदिर का दीपक हरण करने वाला गूंगा अथवा मूर्ख हो जाता है। वह निश्चय ही ‘अंधतामिस्त्र’ नाम के नरक में गिरता है जिसे पार करना दुष्कर है। अग्निदेव कहते हैं- ‘ललिता की सौतें उसके द्वारा कहे हुए इस उपाख्यान को सुनकर दीपदान व्रत के प्रभाव से स्वर्ग को प्राप्त हो गईं। इसलिए दीपदान सभी व्रतों से विशेष फलदायक है। धनतेरस के दिन यमुनास्नान करके यमराज और धन्वन्तरि का पूजन-दर्शन कर दीपदान करने से मनुष्य की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती और मनुष्य स्वस्थ जीवन को प्राप्त होता है। नरक चतुर्दशी के दिन प्रदोष काल में चार बत्तियों वाला दीपक जलाने से पापों की निवृत्ति होती है तथा नरक नहीं जाना पड़ता। दीपावली के दिन महालक्ष्मी के निमित्त किए गए दीपदान से महालक्ष्मी प्रसन्न होती हैं एवं घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है, जो प्रत्येक पूर्णमासी को अखंड दीपक घर में जलाता है, भगवान सत्यनारायण की कृपा से संपूर्ण भोगों को प्राप्त कर लेता है।

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग

मात्र जल चढ़ाने से प्रसन्न हो जाने वाले भगवान शंकर का एक प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग सौराष्ट्र स्थित सोमनाथ में अवस्थित है। श्रावण माह में आशुतोष शिव की पूजा तुरंत फलदायी मानी जाती है। शिव भक्त कांवरिये विशेष रूप से हरिद्वार से जल लाकर शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। इतिहास साक्षी है सोमनाथ मंदिर कई बार बना और कई बार उसका विध्वंस हुआ लेकिन त्रिकालदर्शी शिव वहां किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान रहे। यह सोमनाथ पाटण, प्रभास, प्रभासपाटण व वेरावल के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां कार्तिक पूर्णिमा एवं महा शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला लगता है। सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शनों का विशेष महत्व है। यह शिव का प्रथम ज्योतिर्लिंग भी माना जाता है। कहते हैं इसके दर्शन मात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त होता है और अभीष्ट फल प्राप्त करता है। सोमनाथ की परिक्रमा करने से पृथ्वी की परिक्रमा करने के तुल्य पुण्य मिलता है। यह स्थान पाशुपत मत के शैवों का केंद्र स्थल भी है। इसके पास ही भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर भी है, यहां पर श्रीकृष्ण के चरण में जरा नामक व्याध का बाण लगा था। यह स्थान प्राकृतिक सौंदर्य से भी भरपूर है। यहां आने वाले यात्री मंदिर के प्रांगण में बैठकर इस सौंदर्य को अपनी आंखों से भरपूर निहारते हैं और अपने कैमरे में समेटने का अथक प्रयास करते हैं। सोमनाथ मंदिर का महत्व अनादि काल से है। इस संदर्भ में एक कथा का वर्णन पुराणों में इस प्रकार मिलता है- दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा से हुआ लेकिन चंद्रमा केवल रोहिणी से ही प्रेम करते थे। इस कारण अन्य 26 दक्ष कन्याएं बहुत उदास रहती थीं। उनके शिकायत करने पर दक्षराज ने चंद्रमा को बहुत समझाया लेकिन उनका व्यवहार नहीं बदला। अंत में दक्ष ने चंद्रमा को ‘क्षयी’ होने का शाप दे दिया। इस तरह चंद्रमा क्षयग्रस्त होकर धीरे-धीरे क्षीण होने लगे। उनका सुधावर्षण का कार्य रुक गया। चारों और त्राहि मच गई। चंद्रमा के आग्रह पर सभी देवताओं ने ब्रह्मा जी से सलाह ली। ब्रह्मा जी ने चंद्रमा को समस्त देवमंडली के साथ सोमनाथ क्षेत्र में जाकर महामृत्युंजय मंत्र से भगवान शिव की आराधना करने की सलाह दी। चंद्रमा ने यहां लगातार 6 महीने तक शिव की घोर तपस्या की। आशुतोष भगवान शिव ने प्रसन्न होकर मरणासन्न चंद्रमा का समस्त रोग हर लिया और उन्हें अमर होने का वरदान दिया। भगवान शिव ने उन्हें आश्वस्त किया कि शाप के फलस्वरूप कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होती जाएगी लेकिन शुक्ल पक्ष में उसी क्रम से एक-एक कला बढ़ती जाएगी और प्रत्येक पूर्णिमा को तुम पूर्णचंद्र हो जाओगे। चंद्रमा शिव के वचनों से गदगद हो गए और शिव से हमेशा के लिए वहीं बसने का आग्रह किया। चंद्र देव एवं अन्य देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान शंकर भवानी सहित यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में निवास करने लगे। सोमनाथ के आसपास का संपूर्ण प्रभास क्षेत्र पावन है। यहां बहने वाली पूतसलिला सरस्वती के दर्शन मात्र से संपूर्ण पाप व कष्ट दूर हो जाते हैं। सोमनाथ मंदिर रत्न जड़ित था। इसे आततायियों ने कई बार तोड़ा। महमूद गजनवी ने जब मंदिर का विध्वंस किया तो उससे शिवलिंग नहीं टूटा। तब उसके पास भीषण अग्नि प्रज्ज्वलित की गई। मंदिर के अमूल्य हीरे जवाहरात लूट लिए गए। उसके बाद राजा भीमदेव ने सिद्धराज जय सिंह की मदद से मंदिर का निर्माण किया। उसके बाद पुनः अलाउद्दीन खिलजी, औरंगजेब ने मंदिर को तहस नहस कर डाला। अब जो नवीन मंदिर बना है वह पुराने मंदिर के भग्नावशेष को हटाकर बनाया गया है। यह मंदिर समुद्र के किनारे है। भारत के स्वाधीन होने पर सरदार पटेल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर में देश के प्रथम राष्ट्रपति डाॅराजेंद्र प्रसाद ने ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। वर्तमान मंदिर चालुक्य वास्तु शैली में बना है जिसमें गुजरात के राजमिस्त्री की कड़ी मेहनत व शिल्प कौशल स्पष्ट दिखाई देता है। मंदिर के अलग-अलग भाग हैं। शिखर, गर्भगृह, सभा मंडप एवं नृत्य मंडप। मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था को ध्यान में रखकर इसका निर्माण इस प्रकार किया गया है कि इसके व अंटार्टिका के बीच में कोई भूमि नहीं है। अहल्याबाई मंदिर: सोमनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर अहल्याबाई होलकर का बनवाया सोमनाथ मंदिर है। यहां भूमि के नीचे सोमनाथ लिंग है। नगर के अन्य मंदिर: अहल्याबाई मंदिर के पास ही महाकाली का मंदिर है। इसके अलावा गणेश मंदिर, भद्रकाली तथा भगवान दैत्यसूदन (विष्णु) के मंदिर भी हैं। नगर-द्वार के पास गौरीकुंड नामक सरोवर के समीप प्राचीन शिवलिंग है। ्राची त्रिवेणी: यह स्थान नगर से लगभग एक मील की दूरी पर है। यहां जाते समय राह में ब्रह्मकुंड नामक बावली मिलती है। उसके पास ब्रह्म कमंडलु नामक कूप और ब्रह्मेश्वर शिव मंदिर है। यहां पर आदि प्रभास और जल प्रभास दो कुंड हैं। नगर के पूर्व में हिरण्या, सरस्वती और कपिला नदियां मिलती हैं और प्राची त्रिवेणी बनाती हैं। प्राची त्रिवेणी संगम से कुछ ही दूरी पर सूर्य मंदिर स्थित है। उससे आगे एक गुफा में हिंगलाज भवानी तथा सिद्धनाथ महादेव के मंदिर हैं। उसके पास ही एक वृक्ष के नीचे बलदेव जी का मंदिर है। कहा जाता है कि बलदेव जी यहां से शेष रूप धारण कर पाताल गए थे। यहां महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य की बैठक भी है। यहीं त्रिवेणी माता, महाकालेश्वर, श्रीराम, श्रीकृष्ण तथा भीमेश्वर के मंदिर भी हैं। इसे देहोत्सर्ग तीर्थ भी कहा जाता है। यादव स्थली: देहोत्सर्ग तीर्थ से आगे हिरण्या नदी के किनारे यादव स्थली है। यहीं परस्पर युद्ध करके यादवगण नष्ट हुए थे। बाण तीर्थ: यह स्थान वेरावल स्टेशन से सोमनाथ आते समय समुद्र के किनारे स्थित है। बाण तीर्थ से पश्चिम समुद्र के किनारे चंद्रभागा तीर्थ है। यहां बालू में कपिलेश्वर महादेव का स्थान है। भालक तीर्थ: कुछ लोग बाण तीर्थ को ही भालक तीर्थ कहते हैं लेकिन बाण तीर्थ से डेढ़ मील पश्चिम भालुपुर ग्राम में भालक तीर्थ है। यहां एक भालकुंड सरोवर है। उसके पास पद्मकुंड है। एक पीपल के वृक्ष के नीचे भालेश्वर शिव का स्थान है। इसे मोक्ष-पीपल कहते हैं। बताया जाता है कि यहीं पीपल के नीचे बैठे श्रीकृष्ण के चरण में जरा नामक व्याध ने बाण मारा था। चरण में लगा बाण निकालकर भालकुंड में फेंका गया। कैसे जाएं: सोमनाथ का निकटतम हवाई अड्डा केशोड़ है। यहां से सोमनाथ के लिए लगातार टैक्सियां और बसें चलती रहती हैं। पश्चिमी रेलवे की राजकोट-वेरावल और खिजड़िया-वेरावल रेलवे लाइनों से वेरावल जाया जा सकता है। वेरावल समुद्र तट पर बंदरगाह है। यहां सप्ताह में एक बार जहाज आता है। सोमनाथ सड़क मार्ग से भी वेरावल, मुंबई, अहमदाबाद, भाव नगर, जूनागढ़, पोरबंदर आदि सभी शहरों से जुड़ा हुआ है। कहां ठहरें: सोमनाथ के आसपास बड़े होटल नहीं हैं। विश्राम गृह एवं यात्री निवास सस्ती दर पर उपलब्ध हो जाते हैं।

ग्रहों की दशा अंतर्दशा का फल

ग्रहों की अपनी दशा एवं अंतर्दशा में स्वाभाविक फल नहीं मिलता: लघुपाराशरी के श्लोक 29 में एक सामान्य नियम का निर्देश दिया गया है कि सभी ग्रह अपनी दशा एवं अपनी ही अंतर्दशा के समय में अपना आत्मभावानुरूपी या स्वाभाविक फल नहीं देते।1 तात्पर्य यह है कि किसी ग्रह की दशा में उसकी अंतर्दशा के समय में उस ग्रह का स्वाभाविक फल नहीं मिलता। कारण यह है कि फल यौगिक होता है। जैसे हाइड्रोजन एवं आॅक्सीजन के मिलने से जल बनता है, उसी प्रकार संबंधी या सधर्मी के मिलने से फल बनता है। इसलिए एक ही ग्रह की दशा में उसी की अंतर्दशा में उस ग्रह के स्वाभाविक फल का निषेध किया गया है। महर्षि पराशर ने अपने बृहत्पाराशर होराशास्त्र में इस ओर संकेत देते हुए कहा है- ”स्वदशायां स्वभुक्तौ च नराण्यं मरणं न हि।“ अर्थात अपनी दशा एवं अपनी ही भुक्ति में मारक ग्रह व्यक्ति को नहीं मारता। अनुच्छेद 51 में ग्रहों के आत्मभावानुरूप या स्वाभाविक फल का निर्णय करने के मुख्य आधारों एवं परिणामों की विस्तार से चर्चा की गई है, जिनके आधार पर ग्रह के आत्मभावानुरूप या स्वाभाविक फल का निर्धारण या निर्णय किया जा सकता है। इस प्रसंग में एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि ग्रह की दशा में उसी अंतर्दशा के समय में उसका स्वाभाविक फल नहीं मिलता तो उस समय में कैसा या क्या फल मिलता है? इस प्रश्न का उत्तर होरा ग्रंथों में दिया गया है-”सर्वैषा फलं चैवस्पाके“ अर्थात सभी ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में उनका साधारण एवं योगफल मिलता है। ग्रहों के सामान्य फल की जानकारी उनके 40 आधारों पर तथा योगफल की जानकारी उनके 22 आधारों पर अनुच्छेद 50 के अनुसार प्राप्त की जा सकती है। लघुपाराशरी की विषय-वस्तु में दशाफल उसका मुख्य प्रतिपाद्य है और लघुपाराशरीकार ने दशाफल का प्रतिपादन नियम एवं उपनियमों के आधार पर इस प्रकार से किया है कि उसमें सर्वत्र नियमितता एवं तर्कसंगति दिखलाई देती है क्योंकि सामान्य होरा ग्रंथों में सामान्य एवं योगफल के आधार पर दशाफल बतलाया गया है जो भिन्न-भिन्न आधारों पर भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रकार का होने के कारण अनेक प्रकार की कठिनाइयां पैदा करता है। वैसी कठिनाई इस ग्रंथ के दशाफल में नहीं है। हां ग्रह का स्वाभाविक फल निर्धारित करने की प्रक्रिया अवश्य लंबी है और इसीलिए इस ग्रंथ के प्रारंभिक तीन अध्यायों में ग्रहों के स्वाभाविक फल के निर्णयार्थ आधारभूत सिद्धांतों की विवेचना की गई है। कौन-सा ग्रह शुभ, पापी, सम या मिश्रित होगा इसकी विवेचना संज्ञाध्याय में और कौन-सा ग्रह कारक या मारक होगा इसकी विवेचना योगाध्याय एवं आयुर्दायाध्याय में की गई है। इस प्रकार इन तीनों अध्यायों में प्रतिपादित आधारभूत सिद्धांतों के अनुसार ग्रह का स्वाभाविक फल निश्चित हो जाने पर वह फल मनुष्य को उसके जीवनकाल में कब-कब मिलेगा इस प्रश्न पर यहां प्रकाश डाला जा रहा है। ग्रहों की दशा में उनके संबंधी या सधर्मी की अंतर्दशा में स्वाभाविक फल मिलता है। दशाधीश ग्रह का जो आत्मभावानुरूप (स्वाभाविक) शुभ या अशुभ फल है वह मनुष्य को उसके जीवन काल में कब मिलेगा इस प्रश्न का समाधान करते हुए लघुपाराशरीकार ने बतलाया है कि सभी ग्रह अपनी दशा में अपने संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा के समय में अपना आत्मभावानुरूपी फल देते हैं।2 कुछ टीकाकारों ने आत्म संबंधी पद का अर्थ अपनी कल्पनानुसार इस प्रकार किया है -”आत्म संबंधी ग्रह वे होते हैं जो परस्पर मित्र होते हैं अथवा दोनों उच्चस्थ या नीचस्थ होते हैं। यथा सूर्य-चंद्र, सूर्य-गुरु, सूर्य-मंगल, मुगल-गुरु, बुध-शुक्र तथा शुक्र-शनि परस्पर मित्र हैं। क्योंकि वे आत्म संबंधी हैं। इनमें से शनि और शुक्र अभिन्न मित्र हैं। इसलिए कुंडलियों में जहां-जहां शनि केंद्रेश होता है, वहां-वहां शुक्र भी केंद्रेश होता है और शनि यदि त्रिकोणेश हो तो शुक्र भी त्रिकोणेश होता है।3 किंतु लघुपाराशरी में मित्र ग्रहों, उच्चस्थ या नीचस्थ गहों को संबंधी नहीं माना गया है। यहां संबंध या आत्म संबंध का अभिप्राय स्थान, दृष्टि, एकांतर एवं युति संबंधों से है।4 यदि इस ग्रंथ के किसी भी प्रसंग में इस ग्रंथ की विशेष संज्ञाओं को छोड़कर अन्य होरा ग्रंथों की संज्ञाओं के आधार पर उनका विचार एवं निर्णय किया जाएगा तो ग्रहों के शुभत्व, पापत्व, समत्व, मिश्रित, कारकत्व एवं मारकत्व के निरूपण एवं निर्णय में अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हो जाएंगी। अतः आत्म संबंधी का अर्थ मित्र ग्रह, उच्चस्थ ग्रह या नीचस्थ ग्रह मानना तर्कहीन कल्पना मात्र है क्योंकि इस विषय में लघु पाराशरीकार ने योगाध्याय में नियम एवं उदाहरणों द्वारा बतलाया है कि उक्त चार प्रकार के संबंधों में से आपस में किसी भी प्रकार का संबंध रखने वाले ग्रह परस्पर आत्म संबंधी होते हैं।5 इस विषय में यही मत महर्षि पराशर का भी है।6 इसलिए किसी भी ग्रह की दशा में उसके संबंधी ग्रह की अंतर्दशा के समय में उस ग्रह का स्वाभाविक फल मिलता है। यदि दशाधीश ग्रह का किसी भी ग्रह से संबंध न हो तो उसके सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा के समय में उसका स्वाभाविक फल मिलता है। सधर्मी ग्रह का अभिप्राय है समान गुण-धर्म वाला ग्रह। अर्थात जिन ग्रहों का गुण-धर्म समान हो वे सधर्मी कहलाते हैं यथा-केंद्रेश-केंद्रेश, त्रिकोणेश-त्रिकोणेश, त्रिषडायाधीश -त्रिषडायाधीश, द्विद्र्वादशेश-द्विद्र्वादशेश आपस में सधर्मी होते हैं। इसी प्रकार मारक एवं कारक ग्रह भी आपस में सधर्मी होते हैं। यहां धर्म का अर्थ है धारणाद्धर्म इत्याहु अर्थात जिसे धारण किया जाए उस गुण को धर्म कहते हैं यथा त्रिकोणेश होने के कारण शुभता एवं त्रिषडायाधीश होने के कारण अशुभता आदि। भावाधीश होने से ग्रहों के गुणधर्मों में अंतर आता है क्योंकि एक ही ग्रह भिन्न-भिन्न भावों का स्वामी होकर शुभत्व, पापत्व, समत्व, कारकत्व या मारकत्व धर्म धारण कर लेता है। इसलिए समान गुण-धर्म को धारण करने वाले ग्रह परस्पर सधर्मी होते हैं और दशाधीश ग्रह का आत्मभावानुरूपी (स्वाभाविक) फल उसके सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में मिलता है। जैसा कि कहा गया है ”प्राप्ते सम्बन्धिवर्गे ना सधर्मीणि समागते। स्वाधिकारफलं केऽपि दर्शयन्ति दिशान्ति च।। इति संदृश्यते लोके तथा ग्रहगणा अपि। सम्बन्ध्यन्तर्दशास्वेव दिशन्ति स्वदशाफलम्।।“ अंतर्दशाफल: अनुच्छेद 14 में बतलाया गया है कि ग्रह आपसी संबंध के आधार पर मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है।ं संबंधी तथा असंबंधी। ये दोनों गुण-धर्मों के आधार पर चार-चार प्रकार के होते हैं-संबंधी-सधर्मी, संबंधी-विरुद्धधर्मी, संबंधी-उभयधर्मी तथा संबंधी अनुभयधर्मी और असंबंधी-सधर्मी, असंबंधी - विरुद्धधर्मी, असंबंधी-उभयधर्मी एवं असंबंधी-अनुभयधर्मी। जो ग्रह चतुर्विध संबंधों में किसी प्रकार के संबंध से परस्पर संबंधित हों, वे संबंधी तथा जो परस्पर संबंधित न हों, वे असंबंधी कहलाते हैं। समान गुण-धर्मों वाले ग्रह सधर्मी होते हैं। शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के गुण धर्मों वाले ग्रह उभयधर्मी और न तो शुभ और न ही अशुभ गुण-धर्मों वाले ग्रह अनुभयधर्मी होते हैं। सधर्मी ग्रह: केंद्रेशों का केंद्रेश, त्रिकोणेशों का त्रिकोणेश, त्रिषडायाधीशों का त्रिषडायाधीश या अष्टमेश, कारकों का कारक तथा मारकों का मारक या द्विद्र्वादशेश सधर्मी होता है। विरुद्धधर्मी ग्रह: त्रिकोणेश का त्रिषडायाधीश, योगकारक का मारक, अष्टमेश या लाभेश विरुद्धधर्मी होता है। उभयधर्मी ग्रह: चतुर्थेश, सप्तमेश एवं दशमेश उभयधर्मी होते हैं। अनुभयधर्मी ग्रह: द्वितीय या द्वादश में स्वराशि में स्थित सूर्य एवं चंद्रमा तथा अकेले राहु या केतु अनुभयधर्मी होते हैं। इन आठ प्रकार के ग्रहों में से संबंधी- सधर्मी, संबंधी-विरुद्धधर्मी, संबंधी -उभयधर्मी, संबंधी-अनुभयधर्मी एवं असंबंधी-सधर्मी इन पांचों की अंतर्दशा में दशाधीश का आत्मभावानुरूपी फल मिलता है। इन पांचों में अंतर्दशाधीश या तो संबंधी है अथवा सधर्मी और श्लोक संख्या 30 के अनुसार दशाधीश अपने संबंधी या सधर्मी की अंतर्दशा में अपना आत्मभावानुरूप फल देता है।7 उदाहरण: संबंधी -सधर्मी  प्रायः योगकारक ग्रहों की दशा एवं अंतर्दशा में उनसे संबंध न रखने वाले त्रिकोणेश की प्रत्यंतर दशा में राजयोग घटित होता है।8 योगकारक ग्रह के संबंधी त्रिकोणेश की दशा और योगकारक की भुक्ति में कभी-कभी योगजफल मिलता है।9 संबंधी-विरुद्धधर्मी  स्वभाव से पापी ग्रह भी योगकारक ग्रह से संबंध होने के कारण योगकारक की दशा और अपनी अंतर्दशा में योगजफल देते हैं। 10 यदि योगकारक ग्रह की दशा में मारक ग्रह की अंतर्दशा में राजयोग का प्रारंभ हो तो मारक ग्रह की अंतर्दशा उसका प्रारंभ कर उसे क्रमशः बढ़ाती है।11 संबंधी-उभयधर्मी केंद्रेश अपनी दशा एवं अपने संबंधी त्रिकोणेश की भुक्ति में शुभफल देता है। संबंधी-अनुभयधर्मी: यदि राहु एवं केतु केंद्र या त्रिकोण में स्थित हों तो अन्यतर के स्वामी से संबंध होने पर योगकारक होते हैं।13 असंबंधी-सधर्मी: योगकारक ग्रह की दशा और उनके असंबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में योगकारी ग्रहों का फल समान होता है।14 असंबंधी-अनुभयधर्मी: नवम या दशम भाव में स्थित राहु या केतु संबंध न होने पर योगकारक ग्रह की भुक्ति में योगकारक होता है।15 असंबंधी-विरुद्धधर्मी यदि दशाधीश पाप ग्रह हो तो उसके असंबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा पाप फलदायक होती है। 16 यदि दशाधीश पाप ग्रह हो तो उसके असंबंधी योगकारक ग्रहों की अंतर्दशाएं अत्यधिक पाप फलदायक होती हैं।17 असंबंधी-उभयधर्मी: दशाधीश के विरुद्ध फलदायी अन्य ग्रहों की भुक्तियों में उनके गुणधर्मों के आधार पर दशाफल निर्धारित करना चाहिए।18 अपवाद: जिस प्रकार कोई भी सिद्धांत या वाद, चाहे वह दर्शन का हो या विज्ञान का, अपवाद से अछूता नहीं रहता, उसी प्रकार लघुपाराशरी के दशा-सिद्धांत में कुछ अपवादों का समावेश है। शास्त्र का स्वभाव है कि वह सिद्धांतों के साथ-साथ उसके अपवादों का भी प्रतिपादन करता है। शास्त्र एक अनुशासन है और इस अनुशासन की दो प्रमुख विशेषताएं होती हैं- पहली यह कि यह अनुशासन नियमों एवं आधारभूत सिद्धांतों को समन्वय के सूत्र में बांधता है तथा दूसरी यह कि यह किसी भी नियम या सिद्धांत को व्यर्थ नहीं होने देता। इसलिए सभी शास्त्रों में नियम, वाद एवं सिद्धांतों के साथ-साथ अपवाद अवश्य मिलते हैं। लघुपाराशरी के 42 श्लोकों में पहला श्लोक मंगलाचरण और दूसरा प्रस्तावना का है। 37 श्लोकों में नियम एवं सिद्धांत तथा 3 श्लोकों में अपवादों का वर्णन और विवेचन किया गया है। अपवाद उन नियमों को कहा जाता है जो किसी वाद या सिद्धांतों की सीमा में न आते हों और जो वाद या सिद्धांतों के समान तथ्यपूर्ण एवं उपयोगी हों। इसलिए अपवाद के नियम सदैव सिद्धांतों की सीमा से परे होते हैं। लघुपाराशरी में निम्नलिखित 3 अपवाद मिलते हैं, जिनका दशाफल के विचार प्रसंग में सदैव ध्यान रखना चाहिए।  मारक ग्रह स्वयं से संबंध होने पर भी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में नहीं मारता। किंतु संबंध न होने पर भी पाप ग्रह की दशा में मारता है। 19 शनि एवं शुक्र एक दूसरे की दशा में और अपनी भुक्ति में व्यत्यय से एक-दूसरे का शुभ एवं अशुभ फल विशेष रूप से देते हैं। 20  दशमेश एवं लग्नेश एक-दूसरे के भाव में स्थित हों तो राजयोग होता है और इसमें उत्पन्न व्यक्ति विख्यात एवं विजयी होता है।

वास्तुशास्त्र में जल स्थान

वास्तु शास्त्र में जिस पद पर जल के देव का या जल के सहयोगी अन्य देवों का स्थान होता है उसी स्थान पर जल का स्थान शुभ माना गया है। जल के सहयोगी देव हैं - पर्जन्य, आपः, आपवत्स, वरुण, दिति, अदिति, इंद्र, सोम, भल्लाट इत्यादि। इनके पदों पर निर्मित जलाशय शुभ फलदायक होता है। इन पदों का निर्धारण 81 या 64 पदानुसार करना चाहिए। टोडरमल ने अपने वास्तु सौख्यम नामक ग्रंथ में पूर्व में जल स्थान के निर्माण को पुत्रहानिकारक बताया है। उनके अनुसार पूर्व में इंद्र के पद पर जल का स्थान श्रेयस्कर है। पूर्व आग्नेय के मध्य में शुभ नहीं है। अग्नि कोण में यदि जल की स्थापना की जाए तो वह अग्नि भय को देने वाला होगा। दक्षिण में यदि जलाशय हो तो शत्रु भय कारक होता है। नैर्ऋत्य में स्त्री विवाद को उत्पन्न करता है। पश्चिम में स्त्रियों में क्रूरता बढ़ाता है। वायव्य में जलाशय गृहस्वामी को निर्धन बनाता है। उत्तर में जलाशय हो तो धन वृद्धिकारक तथा ईशान में हो तो संतानवृद्धि कारक होता है। ‘‘प्राच्यादिस्थे सलिले सुतहानिः शिरवीभयं रिपुभयं च। स्त्रीकलहः स्त्रीदैष्ट्यं नैस्वयं वित्तात्मजविवृद्धिः ।।’’ (वास्तुसौख्यम) हमारे पूर्व मुनियों ने भी जलाशय के निर्माण के लिए पूर्व और उत्तर की दिशा को शुभ माना है। टोडरमल लिखते हैं- ‘‘गृहात्प्रवासः पयसः पूर्वोत्तर गतिः शुभः। कथितो मुनिभिः पूर्वेरशुभस्त्वन्य दिग्गतः।।‘’ -वास्तु सौख्य राजा भोज के समरांगण सूत्रधार में जल की स्थापना का वर्णन इस प्रकार है। ‘‘पर्जन्य नामा यश्चायं वृष्टिमानम्बुदाधिपः’’ पर्जन्य के स्थान पर कूप का निर्माण उत्तम होता है क्योंकि पर्जन्य भी जल का ही स्वामी है। समरांगण सूत्रधार भल्लाट के पद पर भी जल का निर्माण शुभ होता है। भल्लाट से तात्पर्य यहां चंद्र से है। वेदों में चंद्र को रसाधिपति कहा गया है। रस का दूसरा नाम ही जल है। अदिति के पद पर भी स्थापना श्रेष्ठ है। यह अदिति वस्तुतः समुद्र की कन्या एवं क्षीर सागर में शयन करने वाले विष्णु की पत्नी हंै जिन्हें लक्ष्मी कहते हैं। लक्ष्मी का वर्णन कमलासना के रूप में भी मिलता है। लक्ष्मी का संबंध पूर्णरूप से जल के साथ होने से इन्हें जलप्रिया भी कहा जाता है। दिति कस्थान पर भी कूप निर्माण स्वास्थ्य लाभदायक कहा गया है क्योंकि दिति जल स्वरूप शिव का निवास स्थान है। यही कारण है कि शिव को जल अत्यधिक प्रिय है- ‘‘जलधारा प्रियः शिवः’’ दिति का वर्णन वास्तु शास्त्र में शिव के रूप में किया गया है। ‘‘दितिरत्रोच्यते शर्वः शूलभद्र वृषभध्वजः’’ आपः व आपवत्स के स्थान पर भी जलाशय की स्थापना शुभफलदायी है क्योंकि आपः हिमालय है और आपवत्स उसकी पुत्री उमा/पार्वती है। इन दोनों का ही जल के साथ प्राकृतिक संबंध है। यही कारण है कि समरांगण सूत्रधार के रचनाकार इन स्थानों पर जलाशय के निर्माण का निर्देश देते हुए कहते हैं। ‘‘आपवत्स पदे हंसक्रौंच सारसनादिताः। स्युः फुल्लाब्जवनाः स्वच्छ इंग रूम भवन का वह स्थान है जहां पारिवारिक, सामाजिक, व्यापारिक, आर्थिक क्षेत्र से जुड़े लोग आकर बैठते हैं, आपस में बातचीत करते हैं। वास्तुशास्त्र में भवन का उत्तर का क्षेत्र ड्राॅइंग रूम बनाने के लिए प्रशस्त माना गया है। उत्तर दिशा का स्वामी ग्रह बुध तथा देवता कुबेर है। बुध बाणी से संबंधित ग्रह है तथा कुबेर धन का देवता है। वाणी को प्रिय को प्रिय, मधुर एवं संतुलित बनाने में बुध हमारी सहायता करता है। वाणी यदि मीठी और संतुलित हो तो वह व्यक्ति पर प्रभाव डालती है और दो व्यक्तियों में जुड़ाव पैदा करती है। यह जुड़ाव व्यक्तियों से विचारों के आदान-प्रदान को बढ़ाता है। विचारों के आदान-प्रदान से ज्ञान का क्षेत्र बढ़ता है। ज्ञान का क्षेत्र बढ़ने से जानकारी ज्यादा होती है और कर्म क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। यदि व्यक्ति अपने कर्म क्षेत्र में सफल होता है तो उसे संतुष्टि मिलती है। वाणी का काम कम्यूनिकेशन का है। इसी कम्यूनिकेशन से संपर्क सूत्र बनते हैं और इन संकर्प सूत्रों से व्यक्ति अपने काम आसानी से कर सकता है। अतः उत्तर दिशा में ड्राॅइंग रूम बनाने से सलिलासलिलाशयाः।।’’ वरुण तो स्वयं जल के अधिपति हैं एवं उनका निवास वास्तु शास्त्र में पश्चिम में माना गया है। इसलिए इस स्थान पर भी जलाशय के निर्माण को सुखद कहा गया है। ‘‘वरुणस्य पदे कुर्याद् वापीपान गृहाणि च ।’’ -समरांगण सूत्रधार आचार्य वराहमिहिर ने अपनी वृहत्संहिता में वास्तुशास्त्र के वर्णन प्रसंग में अपने मत को रखते हुए दिशाओं के अनुसार फलों का उल्लेख किया है। अग्निकोण में जलाशय भयकारक और पुत्रनाशक होता है, नैर्ऋत्य कोण में हो तो धन का नाश होता है तथा वायव्य कोण में हो तो स्त्री की हानि होती है। इन तीनों दिशाओं को छोड़कर शेष में जलाशय शुभ है। इस प्रसंग में मुहूर्त चिंतामणिकार श्रीराम दैवज्ञ अपने ग्रंथ में नौ दिशाओं का वर्णन करते हुए लिखते हैं: कूपे वास्तोर्मघ्ये देशे अर्थनाशः स्त्वैशान्यादौ पुष्टि रैश्वर्य वृद्धि। सूनोर्नाशः स्त्री विनाशके मृतिश्च सम्पत्पीड़ा शत्रुतः स्याच्च सौख्यम्।। - -मुहूर्त चिंतामणि अर्थात वास्तु के बीचोबीच कूप बनाने से धन नाश, ईशान कोण में पुष्टि, पूर्व में ऐश्वर्य की वृद्धि, अग्निकोण में पुत्रनाश, दक्षिण दिशा में स्त्री का विनाश, नैर्ऋत्य कोण में मृत्यु, पश्चिम दिशा में संपत्ति लाभ, वायव्य कोण में शत्रु से पीड़ा, और उत्तर दिशा में कूप बनाने से सौख्य होता है। विश्वकर्मा कहते हैं कि नैऋ्र्रत्य, दक्षिण, अग्नि और वायव्य दिशा को त्यागकर शेष सभी दिशाओं में जलाशय बनाना चाहिए।

मूलांक 5 वालों का जीवन

परिचय- यदि किसी स्त्री पुरुष का किसी भी अंग्रेजी महीने की 5-14-23 तारीख को जन्म हुआ है, तो उनका जन्म तारीख मूलांक 5 होता है । जब किसी व्यक्ति को अपनी जन्म तारीख ज्ञात न हो, तो यदि नाम अक्षरों का मूल्यांकन करने के उपरन्त मूलांक 5 आता है, तो उनका मूलांक भी 5 होता है । इस अंक का अधिपति बुध ग्रह होता है तथा इन व्यक्तियों पर बुध ग्रह अथवा अंक 5 तरंग का विशेष प्रभाव होता है ।
मूलांक 5 का स्वामी ग्रह बुध है जो बुद्धि एवं ज्ञान का सूचक है । अंक 5, पाँच-ज्ञानेद्रियों का भी प्रतीक है। प्रत्येंक मनुष्य पांच तत्वों से ही निर्मित है । अत: संसार के प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि एवं ज्ञान का इस पांच अंक अथवा संख्या तक ही सीमित होना माना गया है। इससे उपर ज्ञान अथवा बुद्धि प्राप्त कर सकना मनुष्य के वश की बात नहीँ है । बुध ग्रह शीघ्र गति ग्रह है । ज्योतिर्विदों ने इसे युवराज की संज्ञा भी दी है । इसको बालग्रह बुध भी कहा जाता है। ये प्रत्येक ग्रह के साथ समय अनुसार मिल जाता है। जैसे कहा है कि ये प्रत्येक के साथ उचित समय पर संबंध बना लेता है । कारोबार तो ये अपने गोल दायरे मेँ सभी को बान्ध लेता है । इसकी फांस लेने की शक्ति अथाह है । यदि चाहे तो शुभ ग्रह के साथ मिलकर व्यक्ति को तरक्की के शिखर पर खडा कर देता है, परन्तु यदि उलटी गिनती प्रारम्भ कर दे तो मिट्टी में मिला देता है । बुध ग्रह के सूचक अंक 5 का भी यही प्रभाव होता है । पांच का अंक 9 मूल अंकों के मध्य में आता है।
स्वभाव एव व्यवितत्व-मूलांक 5 वाले व्यक्तियों की दृष्टि व्यापारियों जैसी होती है तथा वे बातें भी व्यापारियों जैसी ही करते है । ये बैठे हुए भी अपने किसी न किसी अंग को काम में लगाए रहते है तथा ये छोटे-छोटे डग भरते हैं । परन्तु चलते जल्दी-जल्दी है । अत: ये तुरन्त पहचाने जा सकते है । मूलांक 5 वाले व्यक्ति फुर्तीले,जल्दबाज,मिलनसार, बुद्धिमान, अधिक मित्रों वाले तथा स्वभाव के होते हैं । ये बड़े ज्ञानी एवं चतुर होते है। ये बचपन से बुढापे तक चतुर एवं होशियार रहते हैं: इनकी दिमागी शचिंत अति उत्तम होती है परन्तु इनके विचार परिवर्तनशील होते है । यहाँ तक कि घर में पडी व जो तथा सेवा, नौकरी एवं व्यापार में भी परिवर्तन करते रहते है। अपने विचार शीघ्र बदल लेते है तथा इनकी विचारधारा अधिक धनोपार्जन पर केन्द्रित रहती है । अत: आदर्श उनके लिए द्वितीया स्तर का होता है । मूलांक पांच वाले कई भाषाओं के ज्ञात एव बुद्धिजीवी होते है । ये धन बहुत कमाते हैं तथा धार्मिक कार्यों पर ही व्यय करते है। इनकी अपने गुरू एवं धर्म में घ्रगाढ़ आस्था होती है। इनमें विवेचना करने और जांच पड़ताल करने की उत्तम शक्ति होती है । ये निपुण गणितज्ञ होते है तथा मिनटों में सारा हिसाब-किताब लगा देते है अथवा ठीक कर देते है ।इनका बाहरी और भीतरी व्यक्तित्व इतना अलग सा होता है कि लोग आमतौर पर धोखा खा जाते है। ऐसे व्यक्तित्व के कारण लोग इनसे सम्बन्ध बनाने को बडे आतुर रहते हैं । परन्तु इनका सही अनुमान लगाने में प्राय: धोखा खा जाते है । इनकी सूझ-बूंझ उत्तम होती है तथा ये तथा ये तर्क-बुद्धि के स्वामी होते है।शारीरिक श्रम की अपेक्षा, मुलांक 5 वाले व्यक्ति मानसिक श्रम अधिक करते है। ये बिलकुल -तर्क बुद्धि नवीन विचार और उत्तम सूझ-बूझ के स्वामी होते हैं । ये साहसी तथा आत्म विश्वासी होते हैं । वे स्वयं कम ही झुकते हैं, परन्तु सामने वाले को झुकाने की पूर्ण शक्ति रखते हैं । यदि कोई इनको ललकारे अथवा चुनौती दे तो ये सहन नहीँ करते तथा तुरन्त उचित उत्तर देते हैं । इनका स्वभाव चिन्तनसील होता है । तथा ये हर समय क्रुछ-न-कुछ सोचते रहते हैं । किसी बात अथवा समस्या पर तुरन्त निर्णाय लेना इनकी विशेषता होती है।मूलांक पांच वाले व्यक्ति जल्दबाज, तथा प्रत्येक कार्य को फुर्ती से निपटाने के इच्छुक होते हैं । ये अधिकतर किसी बात अथवा पर देर तक शंका या चिंता अथवा पश्चाताप नहीं करते एवं शीघ्र ही भूल जाते है । 5 मूलांक वाले व्यक्ति किसी व्यक्ति की बुराई अथवा किसी व्यक्ति द्धारा दी गई किसी प्रकार की चोट को भी भूल जाते से तथा क्षमा भी कर देते है। क्योंकि ये सुक्ष्म बुद्धि के स्वामी होते है । अथ: ये जल्दी बिगड़ भी जाते हैं,परन्तु यदि धन या इनके लाभ की बात प्रारंभ हो जाए, ये तुरन्त शांत हो जाते है तथा उस व्यक्ति के साथ बड़ा भद्र व्यवहार करते हैं अत: मूलांक 5 वालों का भौतिक इच्छाओं के प्रति विशेष झुकाव होता है । .
विद्या-जिन व्यक्तियों का मूलांक 5 होता है व कई भाषाओं के ज्ञाता होते है। वे बुद्धिमान होते है अत: अचछी विद्या प्राप्त करते हैँ। यदि किसी कारण इनकी विद्या कम भी हो तो फिर भी ये बुद्धिमान एवं चतुर ही कहलाते है। विज्ञान, गणित, मनोविज्ञान तथा फिलासफी मुख्य विषय होते है। मूलांक 5 वाले धार्मिक ग्रंथों तथा गुप्त विद्या का अध्ययन भी करते है। ये तर्क बुद्धि बिलक्षता सूझ-बूझ के धनी होते है।
यात्रा- मूलांक 5 वाले यात्राएं बहुत करते हैं । अधिकांश यात्राएं व्यवसाय से संबंधित होती हैं देश-विदेश में ये बहुत घूमते से । विदेश की भी इन्हें यात्रा करनी पड़ती है । यात्रा करने पर इन्हें अत्यन्त अधिक लाभ होता है। जितनी अधिक यात्राएं करेगे उतना ही अधिक लाभ पाएंगे । घूमना-फिरना इनको सफलता प्रदान करता है ।
स्वास्थ्य-मूलांक पांच वाले व्यक्ति दिमागी शक्ति का अधिक प्रयोग करते हैँ। अत: इसी कारण ही इन्हें समस्त रोग लगते है। रोग कोई भी हो उसका कारण दिमागी शक्ति का अधिक उपयोग भी होता है । अधिकतर तंतु प्रणाली और त्वचा प्रभावित होती है। मूलांक 5 वालों को मिरगी, दिमाग-बुझ रोग, चितभ्रम, वाणी दोष, सिर चकराना, सिरदर्द, स्मरण शवित्त नष्ट होना, छोटी-छोटी बातें भूल जाना, स्पर्शशक्ति का हीन होना, घाव व नजला जुकाम जुकाम हो जाना, आँखों की दृष्टि कमजोर हो जाना आदि विकार हो जाते है । अनिद्र लकवा, कन्धों, हाथों तथा भुजाओं में दर्द अथवा पीडा की समस्या भी हो जाती है । मानसिक तनाव तथा बदहजमी तो आम हो जाती है।
आर्थक स्थिति- मूलांक 5 वालों का उद्देश्य सांसारिक सुखों की प्राप्ति तथा भोग साधन जुटाने का होता है । अत: इनके लिए धन अति महत्वपूर्ण होता है। इनके आय के साधन भी प्राय: अधिक होते है। ये अपनी बुद्धि से धनी बनते हैं और धनवान कहलाते है । इनकी आर्थिक स्थिति उतम होती है । ये कईं बार शीघ्र लाभ देने, व्यापार, सदृटा, लाटरी की ओर आकर्षित होकर अपनी उत्तम आर्थिक स्थिति को खराब भी कर लेते है । सामान्य इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी ही रहती है|
व्यवसाय एवं कार्य रूचि-मूलांक 5 वाले बुद्धि जीवी होते है तथा ये दिमागी कार्यों को करके आसानी से आजिविका कमा लेते है शरीरिक श्रम की अपेक्षा ये मानसिक श्रम अधिक करते हैं । एक के बाद एक आजीविका का साधन बदलते रहतें हैं, बुध ग्रह व्यापार का कारक है । अत: मूलांक 5 वाले व्यक्ति इसी प्रभाव के कारण मिट्टी से भी धन अजित कर लेते है। जहाँ भी बुद्धि' एवं गणित का साथ सो, वहाँ ये अवश्य सफल होते हैं । मूलांक 5 वाले व्यक्ति जज, क्लर्क निरीक्षक, स्टैनों, एकाउटैंट, आडिटर, लेखक, वहभाषी तथा पोस्टल विभाग में सफल रहते है । रेल अधिकारी, पब्लिक रिलेशन अधिकारी, जन सम्पर्क विभाग, गिक्षाविद,स्पोर्टस, एजेन्ट, टूरिजम, अध्यापक, सम्पादक, प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता, पत्रकारिता, वर्कशाप, चालक, आटोमोबाइल पार्टसृ, वकील, मैनेजर, प्रबन्धक, डाक्टर, मनोवैज्ञानिक आदि सफल रहते हैं।
Pt.P.S.Tripathi
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श्री शनि अर्चना

प्रतिदिन मंदिर जाना तथा देव विग्रहों का दर्शन करना धर्म में प्रवेश का सबसे सुगम और बहुप्रचलित मार्ग है । जो लोग प्रतिदिन मंदिर जाते हैं, उनकी रुचि दिन-प्रतिदिन धार्मिक कार्यों में बढती जाती है । इस प्रकार के अधिकांश भक्त कुछ समय बाद घर में ही देव विग्रह स्थापित करके उसकी पूजा-आराधना करने लगते हैं । प्रारंभ में वे सामान्य रूप से पूजा करते हैं । फिर शनै:-शनै: पूजा-आराधना में लगने वाला उनका समय बढ़ता जाता है । अब भक्त पूजा करते समय देव विग्रह अथवा चित्र को विभिन्न वस्तुएं अर्पित करते हैं और उन सेवाओं से संबंधित मंत्रों का स्तवन भी करते हैं । उनकी यह पूजा षोडशोपचार आराधना कहलाती है । अधिकांश व्यक्ति जीवन भर इसी प्रकार आराधना करते रहते हैं । परंतु सच्चे ह्रदय से पूजा-आराधना करने वाले व्यक्तियों के जब ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं तो । उन्हें संसार की प्रत्येक वस्तु में अपने आराध्यदेव के अंश रूप में दर्शन होने लगते हैं। वे हर समय न केवल अपने आराध्यदेव को अपने निकट महसूस करते हैं, अपितु भावलोक में उनके दर्शन भी करने लगते हैं । ,ऐसे में भक्त को पूजा करते समय न तो किसी वस्तु की आवश्यकता रहती है और न ही अपने आराध्यदेव के विग्रह की । इस प्रकार की आराधना को मानसिक उपासना कहा जाता है । वास्तव में यहीं है- भक्ति का चरम रूप । वैदिक काल में लगभग सभी व्यक्ति मानसिक उपासना करते थे और आप भी यह मानसिक उपासना करेंगे । परंतु जिस प्रकार विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के पूर्व परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी पड़ती हैं, ठीक उसी प्रकार मानसिक उपासना की मंजिल पर पहुंचने के लिए प्रारंभ सामान्य (पंचोपचार) पूजा से ही करना होगा ।
पंचोपचार पूजा
प्रत्येक शनिवार को शनिदेव के निमित्त सरसों के तेल और कुछ पैसों का दान लगभग सभी व्यक्ति करते हैं तथा ग्रह-पीड़ा निवारण हेतु शनिवार का व्रत भी अधिकांश पीडित व्यक्तियों ट्ठारा किया जाता है । परंतु इस प्रकार का दान और व्रत करते समय अधिकांश व्यक्तियों के हदय में शनिदेव के प्रति भय का भाव होता है । वे शनिदेव को अपने निकट बुलाने के स्थान पर उनसे दूर रहने की प्रार्थना करते हैं ।यहीं करण है कि लौकिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण, ज्योतिष के दृष्टिकोण से अत्यंत प्रभावशाली और ज्यादातर व्यक्तियों द्वारा किए जाने के बावजूद ये दोनों कार्य वास्तव में शनिदेव की पूजा नहीं, बल्कि उनकी क्रूर दृष्टि से बचने के लिए किए जाने वाले प्रयास मात्र हैं । यहीं एक अंतर और भी है । अन्य देवों की आराधना में व्यक्ति मंदिर में जाकर देव दर्शन करते हैं, परंतु शनिदेव के मंदिर अधिक नहीं हैं । इसलिए शनिदेव की आराधना का प्रथम चरण घर में उनका विग्रह अथवा चित्र रखकर उनको पूजा करना ।इसके अलावा शनिभक्त पीपल के पेड़ की जड़ के निकट चबूतरे पर शनिदेव की पूर्ति रखकर पूजा- आराधना प्रारंभ कर देते है | वे घर में शनिदेव का चित्र, लोहे की छोटी मूर्ति अथवा टिन की चादर को कटवाकर शनिदेव को पुरुषाकार आकृति बनवाकर भी उनकी पुजा आराधना करते हैं । शनिदेव की टिन अथवा लोहे की "मूर्ति के संपूर्ण शरीर पर सरसों के तेल में काजल घोलकर चढाया जाता है । जिस प्रकार हनुमानजी के संपूर्ण शरीर पर चोला चढाया जाता है, ठीक उसी प्रकार शनिदेव के संपूर्ण शरीर पर यह काला चोला चढाया जाता है ।
यहीं विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि हनुमानजी पर देशी घी में सिंदूर घोलकर चोले के रूप में चढ़ाया जाता है, जबकि शनिदेव के विग्रह पर सरसों के तेल में काजल घोलकर चढाएं । कुछ व्यक्ति टिन की चादर को पुरुषाकार रूप में कटवाने के बाद किसी पेंटर से काले रंग में पेंट कराकर और सफेद रंग से उस पर " मुंह, आँख, नाक एवं कान आदि बनवा लेते हैं । आप शनिदेव का कागज पर छपा चित्र तस्वीर के रूप में मढ़वाकर पूजा कों अथवा कोई पूर्ति रखकर-उसके आकार व सजावट से कोई अंतर नहीं पड़ता । परम कृपालु शनिदेव तो भक्त के भावों को देखते हैं । मूर्ति और उपादानों की भव्यता, मात्रा तथा मूल्य से पूजा आराधना द्वारा प्राप्त होने वाले फलों पर कोई अंतर नहीं पड़ता ।घर में शनिदेव का चित्र अथवा विग्रह रखकर की जाने वाली सामान्य पूजा को पंचोपचार पूजा कहा जाता है । इस पूजा में विग्रह अथवा चित्र को मात्र पांच वस्तुएं अर्पित की जाती हैं । शनिदेव की मूर्ति अथवा चित्र के निकट भूमि पर स्नान समर्पण के रूप में कुछ बूंदें जल चढ़ाने के बाद चंदन अथवा सिंदूर का तिलक लगाते हैं । इसके पश्चात शनिदेव को पुष्प माला और पुष्प अर्पित किए जाते हैं तथा धूप-दीप जलाकर आरती उतारते हैं | आरती से पहले नैवेद्य भी अर्पित किया जाता है। आरती के बाद इस नैवेद्य को प्रसाद के रूप में भक्तो में बांट दिया जाता है| शनिदेव क्रो प्राय: गुड़ और भुने हुए चनों अथवा बताशों का नैवेद्य अर्पित किया जाता है । अन्य देवों के विपरीत लोहे के दीपक में सरसों का तेल भरकर शनिदेव के सम्मुख दीप जलाया जाता है और आरती भी इसी दीप से उतारी जाती है|
दशोपचार पूजा
कुछ समय पंचोपचार पूजा करने के पश्चात अधिकांश भक्त शनिदेव की दशोपचार पूजा प्रारंभ कर देते हैं । दशोपचार पूजा करते समय स्नान के लिए जल समर्पित करने से पूर्व पर जल की कुछ बूंदें टपकाकर शनिदेव के पैर पखारने, अधर्य प्रदान करने और आचमन हेतु जल प्रदान करने के कार्य भी किए जाते हैं । इस प्रकार चार बार जल की कुछ बूंदें मूर्ति अथवा चित्र के निकट टपकाई जाती हैं । स्नान के पश्चात शनिदेव को वस्त्र के रूप में काले धागे अथवा कलावे का एक टुकडा अर्पित किया जाता है । इसके बाद पुष्पमाला अर्पण, धुप-दीप जलाने, भोग लगाने और आरती के सभी कार्य पंचोपचार पूजा के समान ही किए जाते हैं । अधिकांश भक्त दशोपचार पूजा के हस स्तर तक पहुंचकर वस्तुएं अर्पित करते समय उनसे संबंधित मंत्रों का स्तवन भी करते हैं । इन प्रक्रियाओं में भी उन्हीं मंत्रों का स्तवन किया जाता है जिनका स्तवन षोडशोपचार आराधना और मानसिक उपासना करते समय किया जाता है ।
षोडशोपचार आराधना
मंदिरों में पुजारी दोनों समय देव विग्रहों की षोडशोपचार आराधना करते हैं । घर पर मूर्ति अथवा चित्र रखकर पूजा करने वाले अधिकांश व्यक्ति भी प्राय: जीवन भर इसी प्रकार पूजा करते रहते हैं और इसी को भक्ति की अंतिम मंजिल मानते है । लेकिन मूर्ति पूजा की पराकाष्ठा होते हुए भी मानसिक उपासना का मात्र पूर्वाभ्यास है-समर्पण के मंत्रों का स्तवन करते हुए पूर्ण विधि-विधान के साथ की जाने वाली यह षोडशोपचार आराधना । इस आराधना में उपास्य देव का आह्वाहन करने के बाद आसन समर्पण से लेकर प्रदक्षिणा तक सोलह वस्तुएं अर्पित की जाती हैं । इसके अलावा आराध्यदेव के ध्यान से पहले कुछ अन्य कृत्य और गणेशजी का पूजन किया जाता है । यद्यपि पंचोपचार और दशोपचार पूजा के समान षोडशोपचार आराधना में शनिदेव की मूर्ति एवं सभी लौकिक उपादानों का उपयोग किया जाता है, सीधे ही विग्रह की पूजा प्रारंभ नहीं की जाती । सभी धार्मिक कार्यों में अनिवार्यतः किए जाने वाले स्वस्तिवाचन, भ्रूतशुद्धि, शांतिपाठ और गणेशजी के ध्यान-पूजन के बाद शनिदेव का ध्यान किया जाता है । जब भावलोक में हम उन्हें अपने निकट महसूस करने लगते हैं, तब आह्वान और आसन-समर्पण के मंत्रों का स्तवन किया जाता है ।
शनिदेव से सिंहासन पर बैठने की प्रार्थना करने के बाद पद्य समर्पण से आरती तक के सभी दस कार्य तो किए ही जाते हैं, कुछ अन्य सेवाएं भी अर्पित की जाती हैं । धुप, दीप और नैवेद्य समर्पण के पश्चात ताम्बुल एबं पुन्गिफुल के साथ दक्षिणा भी समर्पित की जाती है । आरती के बाद प्रदक्षिणा और क्षमा याचना भी की जाती है । पूजा के अंत में कुछ भक्त शनिदेव के चालीसों, भजनों, विनतियों और आरतियों का गायन करते हैं, जबकि अधिकांश आराधक शनैशचर सहस्त्रनाम अथवा शनि अष्टोतर शतनाम का पाठ और उनके किसी मंत्र का जप करते हैं । आराधना के मुख्य भाग के सोलह संस्कारों का क्रम इस प्रकार है- ध्यान एवं आह्वान, आसन, पद्य, अर्थ, आचमन, स्नान अर्थात् अभिषेक, वस्त्र, श्रृंगग्रर की वस्तुएं एवं आभूषण, गन्ध-चंदन, केशर, कुंकुंमादि एवं अक्षत, पुष्प समर्पणा, अंग पूजा एवं अर्चना, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, दक्षिणा, नीरांज़न, जल-आरती आदि, प्रदक्षिणा तथा पुष्पांजलि, नमस्कार, स्तुति, राजोपचार, जप, क्षमापन, विशेषार्व्य और समर्पण ।

Pt.P.S.Tripathi
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