Saturday, 17 October 2015

श्री शनि अर्चना

प्रतिदिन मंदिर जाना तथा देव विग्रहों का दर्शन करना धर्म में प्रवेश का सबसे सुगम और बहुप्रचलित मार्ग है । जो लोग प्रतिदिन मंदिर जाते हैं, उनकी रुचि दिन-प्रतिदिन धार्मिक कार्यों में बढती जाती है । इस प्रकार के अधिकांश भक्त कुछ समय बाद घर में ही देव विग्रह स्थापित करके उसकी पूजा-आराधना करने लगते हैं । प्रारंभ में वे सामान्य रूप से पूजा करते हैं । फिर शनै:-शनै: पूजा-आराधना में लगने वाला उनका समय बढ़ता जाता है । अब भक्त पूजा करते समय देव विग्रह अथवा चित्र को विभिन्न वस्तुएं अर्पित करते हैं और उन सेवाओं से संबंधित मंत्रों का स्तवन भी करते हैं । उनकी यह पूजा षोडशोपचार आराधना कहलाती है । अधिकांश व्यक्ति जीवन भर इसी प्रकार आराधना करते रहते हैं । परंतु सच्चे ह्रदय से पूजा-आराधना करने वाले व्यक्तियों के जब ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं तो । उन्हें संसार की प्रत्येक वस्तु में अपने आराध्यदेव के अंश रूप में दर्शन होने लगते हैं। वे हर समय न केवल अपने आराध्यदेव को अपने निकट महसूस करते हैं, अपितु भावलोक में उनके दर्शन भी करने लगते हैं । ,ऐसे में भक्त को पूजा करते समय न तो किसी वस्तु की आवश्यकता रहती है और न ही अपने आराध्यदेव के विग्रह की । इस प्रकार की आराधना को मानसिक उपासना कहा जाता है । वास्तव में यहीं है- भक्ति का चरम रूप । वैदिक काल में लगभग सभी व्यक्ति मानसिक उपासना करते थे और आप भी यह मानसिक उपासना करेंगे । परंतु जिस प्रकार विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के पूर्व परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी पड़ती हैं, ठीक उसी प्रकार मानसिक उपासना की मंजिल पर पहुंचने के लिए प्रारंभ सामान्य (पंचोपचार) पूजा से ही करना होगा ।
पंचोपचार पूजा
प्रत्येक शनिवार को शनिदेव के निमित्त सरसों के तेल और कुछ पैसों का दान लगभग सभी व्यक्ति करते हैं तथा ग्रह-पीड़ा निवारण हेतु शनिवार का व्रत भी अधिकांश पीडित व्यक्तियों ट्ठारा किया जाता है । परंतु इस प्रकार का दान और व्रत करते समय अधिकांश व्यक्तियों के हदय में शनिदेव के प्रति भय का भाव होता है । वे शनिदेव को अपने निकट बुलाने के स्थान पर उनसे दूर रहने की प्रार्थना करते हैं ।यहीं करण है कि लौकिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण, ज्योतिष के दृष्टिकोण से अत्यंत प्रभावशाली और ज्यादातर व्यक्तियों द्वारा किए जाने के बावजूद ये दोनों कार्य वास्तव में शनिदेव की पूजा नहीं, बल्कि उनकी क्रूर दृष्टि से बचने के लिए किए जाने वाले प्रयास मात्र हैं । यहीं एक अंतर और भी है । अन्य देवों की आराधना में व्यक्ति मंदिर में जाकर देव दर्शन करते हैं, परंतु शनिदेव के मंदिर अधिक नहीं हैं । इसलिए शनिदेव की आराधना का प्रथम चरण घर में उनका विग्रह अथवा चित्र रखकर उनको पूजा करना ।इसके अलावा शनिभक्त पीपल के पेड़ की जड़ के निकट चबूतरे पर शनिदेव की पूर्ति रखकर पूजा- आराधना प्रारंभ कर देते है | वे घर में शनिदेव का चित्र, लोहे की छोटी मूर्ति अथवा टिन की चादर को कटवाकर शनिदेव को पुरुषाकार आकृति बनवाकर भी उनकी पुजा आराधना करते हैं । शनिदेव की टिन अथवा लोहे की "मूर्ति के संपूर्ण शरीर पर सरसों के तेल में काजल घोलकर चढाया जाता है । जिस प्रकार हनुमानजी के संपूर्ण शरीर पर चोला चढाया जाता है, ठीक उसी प्रकार शनिदेव के संपूर्ण शरीर पर यह काला चोला चढाया जाता है ।
यहीं विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि हनुमानजी पर देशी घी में सिंदूर घोलकर चोले के रूप में चढ़ाया जाता है, जबकि शनिदेव के विग्रह पर सरसों के तेल में काजल घोलकर चढाएं । कुछ व्यक्ति टिन की चादर को पुरुषाकार रूप में कटवाने के बाद किसी पेंटर से काले रंग में पेंट कराकर और सफेद रंग से उस पर " मुंह, आँख, नाक एवं कान आदि बनवा लेते हैं । आप शनिदेव का कागज पर छपा चित्र तस्वीर के रूप में मढ़वाकर पूजा कों अथवा कोई पूर्ति रखकर-उसके आकार व सजावट से कोई अंतर नहीं पड़ता । परम कृपालु शनिदेव तो भक्त के भावों को देखते हैं । मूर्ति और उपादानों की भव्यता, मात्रा तथा मूल्य से पूजा आराधना द्वारा प्राप्त होने वाले फलों पर कोई अंतर नहीं पड़ता ।घर में शनिदेव का चित्र अथवा विग्रह रखकर की जाने वाली सामान्य पूजा को पंचोपचार पूजा कहा जाता है । इस पूजा में विग्रह अथवा चित्र को मात्र पांच वस्तुएं अर्पित की जाती हैं । शनिदेव की मूर्ति अथवा चित्र के निकट भूमि पर स्नान समर्पण के रूप में कुछ बूंदें जल चढ़ाने के बाद चंदन अथवा सिंदूर का तिलक लगाते हैं । इसके पश्चात शनिदेव को पुष्प माला और पुष्प अर्पित किए जाते हैं तथा धूप-दीप जलाकर आरती उतारते हैं | आरती से पहले नैवेद्य भी अर्पित किया जाता है। आरती के बाद इस नैवेद्य को प्रसाद के रूप में भक्तो में बांट दिया जाता है| शनिदेव क्रो प्राय: गुड़ और भुने हुए चनों अथवा बताशों का नैवेद्य अर्पित किया जाता है । अन्य देवों के विपरीत लोहे के दीपक में सरसों का तेल भरकर शनिदेव के सम्मुख दीप जलाया जाता है और आरती भी इसी दीप से उतारी जाती है|
दशोपचार पूजा
कुछ समय पंचोपचार पूजा करने के पश्चात अधिकांश भक्त शनिदेव की दशोपचार पूजा प्रारंभ कर देते हैं । दशोपचार पूजा करते समय स्नान के लिए जल समर्पित करने से पूर्व पर जल की कुछ बूंदें टपकाकर शनिदेव के पैर पखारने, अधर्य प्रदान करने और आचमन हेतु जल प्रदान करने के कार्य भी किए जाते हैं । इस प्रकार चार बार जल की कुछ बूंदें मूर्ति अथवा चित्र के निकट टपकाई जाती हैं । स्नान के पश्चात शनिदेव को वस्त्र के रूप में काले धागे अथवा कलावे का एक टुकडा अर्पित किया जाता है । इसके बाद पुष्पमाला अर्पण, धुप-दीप जलाने, भोग लगाने और आरती के सभी कार्य पंचोपचार पूजा के समान ही किए जाते हैं । अधिकांश भक्त दशोपचार पूजा के हस स्तर तक पहुंचकर वस्तुएं अर्पित करते समय उनसे संबंधित मंत्रों का स्तवन भी करते हैं । इन प्रक्रियाओं में भी उन्हीं मंत्रों का स्तवन किया जाता है जिनका स्तवन षोडशोपचार आराधना और मानसिक उपासना करते समय किया जाता है ।
षोडशोपचार आराधना
मंदिरों में पुजारी दोनों समय देव विग्रहों की षोडशोपचार आराधना करते हैं । घर पर मूर्ति अथवा चित्र रखकर पूजा करने वाले अधिकांश व्यक्ति भी प्राय: जीवन भर इसी प्रकार पूजा करते रहते हैं और इसी को भक्ति की अंतिम मंजिल मानते है । लेकिन मूर्ति पूजा की पराकाष्ठा होते हुए भी मानसिक उपासना का मात्र पूर्वाभ्यास है-समर्पण के मंत्रों का स्तवन करते हुए पूर्ण विधि-विधान के साथ की जाने वाली यह षोडशोपचार आराधना । इस आराधना में उपास्य देव का आह्वाहन करने के बाद आसन समर्पण से लेकर प्रदक्षिणा तक सोलह वस्तुएं अर्पित की जाती हैं । इसके अलावा आराध्यदेव के ध्यान से पहले कुछ अन्य कृत्य और गणेशजी का पूजन किया जाता है । यद्यपि पंचोपचार और दशोपचार पूजा के समान षोडशोपचार आराधना में शनिदेव की मूर्ति एवं सभी लौकिक उपादानों का उपयोग किया जाता है, सीधे ही विग्रह की पूजा प्रारंभ नहीं की जाती । सभी धार्मिक कार्यों में अनिवार्यतः किए जाने वाले स्वस्तिवाचन, भ्रूतशुद्धि, शांतिपाठ और गणेशजी के ध्यान-पूजन के बाद शनिदेव का ध्यान किया जाता है । जब भावलोक में हम उन्हें अपने निकट महसूस करने लगते हैं, तब आह्वान और आसन-समर्पण के मंत्रों का स्तवन किया जाता है ।
शनिदेव से सिंहासन पर बैठने की प्रार्थना करने के बाद पद्य समर्पण से आरती तक के सभी दस कार्य तो किए ही जाते हैं, कुछ अन्य सेवाएं भी अर्पित की जाती हैं । धुप, दीप और नैवेद्य समर्पण के पश्चात ताम्बुल एबं पुन्गिफुल के साथ दक्षिणा भी समर्पित की जाती है । आरती के बाद प्रदक्षिणा और क्षमा याचना भी की जाती है । पूजा के अंत में कुछ भक्त शनिदेव के चालीसों, भजनों, विनतियों और आरतियों का गायन करते हैं, जबकि अधिकांश आराधक शनैशचर सहस्त्रनाम अथवा शनि अष्टोतर शतनाम का पाठ और उनके किसी मंत्र का जप करते हैं । आराधना के मुख्य भाग के सोलह संस्कारों का क्रम इस प्रकार है- ध्यान एवं आह्वान, आसन, पद्य, अर्थ, आचमन, स्नान अर्थात् अभिषेक, वस्त्र, श्रृंगग्रर की वस्तुएं एवं आभूषण, गन्ध-चंदन, केशर, कुंकुंमादि एवं अक्षत, पुष्प समर्पणा, अंग पूजा एवं अर्चना, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, दक्षिणा, नीरांज़न, जल-आरती आदि, प्रदक्षिणा तथा पुष्पांजलि, नमस्कार, स्तुति, राजोपचार, जप, क्षमापन, विशेषार्व्य और समर्पण ।

Pt.P.S.Tripathi
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