Wednesday, 21 October 2015

विजयादशमी

हमारी संस्कृति शौर्य और पराक्रम की आराधक है । विजयादशमी का पर्व उसी परंपरा को जीवंतता प्रदान करने वाला पर्व है । अनुभवी लोगों का कहना है कि आग, शत्रु और रोग का आभास होते ही निदान करना जरूरी है । इससे पहले कि समय पाकर ये तीनों अपना विकराल रूप धारण करें और हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाए-उन पर काबू पा लिया जाना चाहिए । विजयादशमी का पर्व असल में संकल्पबद्ध और दृढ़निश्चयी होकर बाहरी और भीतरी शत्रुओं को जड़ सहित उखाड़ फेंकने का महापर्व है ।
विजयादशमी का पर्व असत यर सत की, स्वार्थ पर परमार्थ की, दानवता पर मानवता की, बुराई पर अच्छाई की और अज्ञान पर ज्ञान की विजय का प्रतीक है । सदियों पहले श्रीराम ने नौ दिन तक भगवती शक्ति ( जगदंबा ) की आराधना करके शक्ति अर्जित की और विजयादशमी के दिन आततायी रावण पर विजय प्राप्त की थी । छत्रपति शिवाजी ने भी औरंगजेब की विशाल सेना को अपने युक्तिबल से परास्त करने के लिए आज ही के दिन का चयन किया था | विजयादशमी का महापर्व साबित करता है कि अन्यायी चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, उसका एक न एक दिन नाश अवश्य होता है । अन्यायी और दुराचारी का अंत तो बुरा ही होता है, साथ ही आने वली पीढियां भी उसके निकृष्ट कर्मों को क्षमा नहीं करतीं । श्रीराम के पावन चरित्र का स्मरण और अनुकरण कराने के लिए दशहरा के दस दिनों में देश के कोने-कोने में रामलीलाओं का मंचन किया जाता है । काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के प्रतीक रावण, कुंभकरण और मेघनाद के पुतलों का दशहरे के दिन दहन किया जाता है । कुछ क्षेत्रों में इन पुतलों के जले हुए अवशेषों को घर ले जाने की भी परंपरा है । ऐसी मान्यता है कि इन अवशेषों को घरों में रखने से सभी विकार हमारे घरों में प्रवेश नहीं कर पाते, जो कभी रावण में थे तथा विजयादशमी के दिन जिनका दहन कर दिया गया है । विजयादशमी के दिन शमी वृक्ष की पूजा की जाती है । शमी का वृक्ष दृढ़ता और तेजस्विता का प्रतीक है । इसमें अग्नि तत्व की प्रचुरता होती है । यज्ञ आदि में प्रकट करने के लिए अरणी मंथन के उपकरण शमी की लकड़ी से ही बनाए जाते हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारतीय जनमानस की आस्था के प्रतीक हैं । भारतीय संस्कृति में श्रीराम का महत्व इसलिए नहीं है कि श्रीराम ईश्वर हैं, बल्कि उनकी महत्ता इसलिए है क्योंकि वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं । श्रीहरि विष्णु ने श्रीराम के रूप में एक साधारण मानव का अवतार लिया और मानव को कर्तव्यपरायणता की शिक्षा दी । श्रीराम ने अपने शील, शक्ति सौंदर्य, विवेक,धर्म, परमार्थ, क्षमा, समदृष्टि, संतोष और दया जैसे सात्विक सदगुणों द्वारा तामसी प्रवृति, मोह, अभिमान, काम, क्रोध, मद,लोभ, अनीति, हिंसा, पर
द्रोह तथा पाप आदि दुर्गुणों के प्रतीक अतुल वैभव, ऐश्वर्यशील, ज्ञान व पांडित्यपूर्ण, बलशाली रावण को पराजित किया था । श्रीराम ने 34 वर्ष के वनवास काल में, अपने प्रवास में पड़ने वाले प्रत्येक ग्राम और नगर के समस्त समुदायों व जातियों को संगठन के सूत्र से जोड़ा । श्रीराम ने मानव समुदाय को विजय और सफलता के लिए अपने कार्यों से एक मंत्र दिया-'संगठन यंत्र' इसी के बल पर उन्होंने रावण के अतुलित शक्ति-संपन्न साम्राज्य को ध्वस्त किया । महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को धर्म का साक्षात स्वरूप बताया
है- रामो विग्रहवान धर्म: अर्थात संपूर्ण जगत उन्हीं में समाहित है । श्रीराम के बिना हमारी संस्कृति निष्प्राण है । श्रीराम का चरित्र मर्यादा और कर्तव्य का स्रम्मिश्रण रहा है । वे जीवन पर्यत मर्थादामय व कर्तव्यनिष्ठ रहे हैं । उनके जीवन में ऐसा कोई प्रसंग नहीं मिलता, जब श्रीराम मर्यादा और कर्तव्य से हटते दिखाई दिए हों । इसीलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए ।
श्रीराम ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मर्यादा की स्थापना की । उन्होंने पुत्र, शिष्य,भ्राता,मित्र, पति, सेनाध्यक्ष और राजा के रूप में आदर्शों की स्थापना की । उन्होंने समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के गले लगाया । अहिल्या, निषादराज, गुह, वानरराज सुग्रीव, ऋक्षराज़ जटायु, शबरी, विभीषण, हनुमान और अंगद-ये सभी श्रीराम के चरित्र को उजला बनाने वाले नक्षत्र बन गए ।
Pt.P.S.Tripathi
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