ग्रहों की अपनी दशा एवं अंतर्दशा में स्वाभाविक फल नहीं मिलता: लघुपाराशरी के श्लोक 29 में एक सामान्य नियम का निर्देश दिया गया है कि सभी ग्रह अपनी दशा एवं अपनी ही अंतर्दशा के समय में अपना आत्मभावानुरूपी या स्वाभाविक फल नहीं देते।1 तात्पर्य यह है कि किसी ग्रह की दशा में उसकी अंतर्दशा के समय में उस ग्रह का स्वाभाविक फल नहीं मिलता। कारण यह है कि फल यौगिक होता है। जैसे हाइड्रोजन एवं आॅक्सीजन के मिलने से जल बनता है, उसी प्रकार संबंधी या सधर्मी के मिलने से फल बनता है। इसलिए एक ही ग्रह की दशा में उसी की अंतर्दशा में उस ग्रह के स्वाभाविक फल का निषेध किया गया है। महर्षि पराशर ने अपने बृहत्पाराशर होराशास्त्र में इस ओर संकेत देते हुए कहा है- ”स्वदशायां स्वभुक्तौ च नराण्यं मरणं न हि।“ अर्थात अपनी दशा एवं अपनी ही भुक्ति में मारक ग्रह व्यक्ति को नहीं मारता। अनुच्छेद 51 में ग्रहों के आत्मभावानुरूप या स्वाभाविक फल का निर्णय करने के मुख्य आधारों एवं परिणामों की विस्तार से चर्चा की गई है, जिनके आधार पर ग्रह के आत्मभावानुरूप या स्वाभाविक फल का निर्धारण या निर्णय किया जा सकता है। इस प्रसंग में एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि ग्रह की दशा में उसी अंतर्दशा के समय में उसका स्वाभाविक फल नहीं मिलता तो उस समय में कैसा या क्या फल मिलता है? इस प्रश्न का उत्तर होरा ग्रंथों में दिया गया है-”सर्वैषा फलं चैवस्पाके“ अर्थात सभी ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में उनका साधारण एवं योगफल मिलता है। ग्रहों के सामान्य फल की जानकारी उनके 40 आधारों पर तथा योगफल की जानकारी उनके 22 आधारों पर अनुच्छेद 50 के अनुसार प्राप्त की जा सकती है। लघुपाराशरी की विषय-वस्तु में दशाफल उसका मुख्य प्रतिपाद्य है और लघुपाराशरीकार ने दशाफल का प्रतिपादन नियम एवं उपनियमों के आधार पर इस प्रकार से किया है कि उसमें सर्वत्र नियमितता एवं तर्कसंगति दिखलाई देती है क्योंकि सामान्य होरा ग्रंथों में सामान्य एवं योगफल के आधार पर दशाफल बतलाया गया है जो भिन्न-भिन्न आधारों पर भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रकार का होने के कारण अनेक प्रकार की कठिनाइयां पैदा करता है। वैसी कठिनाई इस ग्रंथ के दशाफल में नहीं है। हां ग्रह का स्वाभाविक फल निर्धारित करने की प्रक्रिया अवश्य लंबी है और इसीलिए इस ग्रंथ के प्रारंभिक तीन अध्यायों में ग्रहों के स्वाभाविक फल के निर्णयार्थ आधारभूत सिद्धांतों की विवेचना की गई है। कौन-सा ग्रह शुभ, पापी, सम या मिश्रित होगा इसकी विवेचना संज्ञाध्याय में और कौन-सा ग्रह कारक या मारक होगा इसकी विवेचना योगाध्याय एवं आयुर्दायाध्याय में की गई है। इस प्रकार इन तीनों अध्यायों में प्रतिपादित आधारभूत सिद्धांतों के अनुसार ग्रह का स्वाभाविक फल निश्चित हो जाने पर वह फल मनुष्य को उसके जीवनकाल में कब-कब मिलेगा इस प्रश्न पर यहां प्रकाश डाला जा रहा है। ग्रहों की दशा में उनके संबंधी या सधर्मी की अंतर्दशा में स्वाभाविक फल मिलता है। दशाधीश ग्रह का जो आत्मभावानुरूप (स्वाभाविक) शुभ या अशुभ फल है वह मनुष्य को उसके जीवन काल में कब मिलेगा इस प्रश्न का समाधान करते हुए लघुपाराशरीकार ने बतलाया है कि सभी ग्रह अपनी दशा में अपने संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा के समय में अपना आत्मभावानुरूपी फल देते हैं।2 कुछ टीकाकारों ने आत्म संबंधी पद का अर्थ अपनी कल्पनानुसार इस प्रकार किया है -”आत्म संबंधी ग्रह वे होते हैं जो परस्पर मित्र होते हैं अथवा दोनों उच्चस्थ या नीचस्थ होते हैं। यथा सूर्य-चंद्र, सूर्य-गुरु, सूर्य-मंगल, मुगल-गुरु, बुध-शुक्र तथा शुक्र-शनि परस्पर मित्र हैं। क्योंकि वे आत्म संबंधी हैं। इनमें से शनि और शुक्र अभिन्न मित्र हैं। इसलिए कुंडलियों में जहां-जहां शनि केंद्रेश होता है, वहां-वहां शुक्र भी केंद्रेश होता है और शनि यदि त्रिकोणेश हो तो शुक्र भी त्रिकोणेश होता है।3 किंतु लघुपाराशरी में मित्र ग्रहों, उच्चस्थ या नीचस्थ गहों को संबंधी नहीं माना गया है। यहां संबंध या आत्म संबंध का अभिप्राय स्थान, दृष्टि, एकांतर एवं युति संबंधों से है।4 यदि इस ग्रंथ के किसी भी प्रसंग में इस ग्रंथ की विशेष संज्ञाओं को छोड़कर अन्य होरा ग्रंथों की संज्ञाओं के आधार पर उनका विचार एवं निर्णय किया जाएगा तो ग्रहों के शुभत्व, पापत्व, समत्व, मिश्रित, कारकत्व एवं मारकत्व के निरूपण एवं निर्णय में अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हो जाएंगी। अतः आत्म संबंधी का अर्थ मित्र ग्रह, उच्चस्थ ग्रह या नीचस्थ ग्रह मानना तर्कहीन कल्पना मात्र है क्योंकि इस विषय में लघु पाराशरीकार ने योगाध्याय में नियम एवं उदाहरणों द्वारा बतलाया है कि उक्त चार प्रकार के संबंधों में से आपस में किसी भी प्रकार का संबंध रखने वाले ग्रह परस्पर आत्म संबंधी होते हैं।5 इस विषय में यही मत महर्षि पराशर का भी है।6 इसलिए किसी भी ग्रह की दशा में उसके संबंधी ग्रह की अंतर्दशा के समय में उस ग्रह का स्वाभाविक फल मिलता है। यदि दशाधीश ग्रह का किसी भी ग्रह से संबंध न हो तो उसके सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा के समय में उसका स्वाभाविक फल मिलता है। सधर्मी ग्रह का अभिप्राय है समान गुण-धर्म वाला ग्रह। अर्थात जिन ग्रहों का गुण-धर्म समान हो वे सधर्मी कहलाते हैं यथा-केंद्रेश-केंद्रेश, त्रिकोणेश-त्रिकोणेश, त्रिषडायाधीश -त्रिषडायाधीश, द्विद्र्वादशेश-द्विद्र्वादशेश आपस में सधर्मी होते हैं। इसी प्रकार मारक एवं कारक ग्रह भी आपस में सधर्मी होते हैं। यहां धर्म का अर्थ है धारणाद्धर्म इत्याहु अर्थात जिसे धारण किया जाए उस गुण को धर्म कहते हैं यथा त्रिकोणेश होने के कारण शुभता एवं त्रिषडायाधीश होने के कारण अशुभता आदि। भावाधीश होने से ग्रहों के गुणधर्मों में अंतर आता है क्योंकि एक ही ग्रह भिन्न-भिन्न भावों का स्वामी होकर शुभत्व, पापत्व, समत्व, कारकत्व या मारकत्व धर्म धारण कर लेता है। इसलिए समान गुण-धर्म को धारण करने वाले ग्रह परस्पर सधर्मी होते हैं और दशाधीश ग्रह का आत्मभावानुरूपी (स्वाभाविक) फल उसके सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में मिलता है। जैसा कि कहा गया है ”प्राप्ते सम्बन्धिवर्गे ना सधर्मीणि समागते। स्वाधिकारफलं केऽपि दर्शयन्ति दिशान्ति च।। इति संदृश्यते लोके तथा ग्रहगणा अपि। सम्बन्ध्यन्तर्दशास्वेव दिशन्ति स्वदशाफलम्।।“ अंतर्दशाफल: अनुच्छेद 14 में बतलाया गया है कि ग्रह आपसी संबंध के आधार पर मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है।ं संबंधी तथा असंबंधी। ये दोनों गुण-धर्मों के आधार पर चार-चार प्रकार के होते हैं-संबंधी-सधर्मी, संबंधी-विरुद्धधर्मी, संबंधी-उभयधर्मी तथा संबंधी अनुभयधर्मी और असंबंधी-सधर्मी, असंबंधी - विरुद्धधर्मी, असंबंधी-उभयधर्मी एवं असंबंधी-अनुभयधर्मी। जो ग्रह चतुर्विध संबंधों में किसी प्रकार के संबंध से परस्पर संबंधित हों, वे संबंधी तथा जो परस्पर संबंधित न हों, वे असंबंधी कहलाते हैं। समान गुण-धर्मों वाले ग्रह सधर्मी होते हैं। शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के गुण धर्मों वाले ग्रह उभयधर्मी और न तो शुभ और न ही अशुभ गुण-धर्मों वाले ग्रह अनुभयधर्मी होते हैं। सधर्मी ग्रह: केंद्रेशों का केंद्रेश, त्रिकोणेशों का त्रिकोणेश, त्रिषडायाधीशों का त्रिषडायाधीश या अष्टमेश, कारकों का कारक तथा मारकों का मारक या द्विद्र्वादशेश सधर्मी होता है। विरुद्धधर्मी ग्रह: त्रिकोणेश का त्रिषडायाधीश, योगकारक का मारक, अष्टमेश या लाभेश विरुद्धधर्मी होता है। उभयधर्मी ग्रह: चतुर्थेश, सप्तमेश एवं दशमेश उभयधर्मी होते हैं। अनुभयधर्मी ग्रह: द्वितीय या द्वादश में स्वराशि में स्थित सूर्य एवं चंद्रमा तथा अकेले राहु या केतु अनुभयधर्मी होते हैं। इन आठ प्रकार के ग्रहों में से संबंधी- सधर्मी, संबंधी-विरुद्धधर्मी, संबंधी -उभयधर्मी, संबंधी-अनुभयधर्मी एवं असंबंधी-सधर्मी इन पांचों की अंतर्दशा में दशाधीश का आत्मभावानुरूपी फल मिलता है। इन पांचों में अंतर्दशाधीश या तो संबंधी है अथवा सधर्मी और श्लोक संख्या 30 के अनुसार दशाधीश अपने संबंधी या सधर्मी की अंतर्दशा में अपना आत्मभावानुरूप फल देता है।7 उदाहरण: संबंधी -सधर्मी प्रायः योगकारक ग्रहों की दशा एवं अंतर्दशा में उनसे संबंध न रखने वाले त्रिकोणेश की प्रत्यंतर दशा में राजयोग घटित होता है।8 योगकारक ग्रह के संबंधी त्रिकोणेश की दशा और योगकारक की भुक्ति में कभी-कभी योगजफल मिलता है।9 संबंधी-विरुद्धधर्मी स्वभाव से पापी ग्रह भी योगकारक ग्रह से संबंध होने के कारण योगकारक की दशा और अपनी अंतर्दशा में योगजफल देते हैं। 10 यदि योगकारक ग्रह की दशा में मारक ग्रह की अंतर्दशा में राजयोग का प्रारंभ हो तो मारक ग्रह की अंतर्दशा उसका प्रारंभ कर उसे क्रमशः बढ़ाती है।11 संबंधी-उभयधर्मी केंद्रेश अपनी दशा एवं अपने संबंधी त्रिकोणेश की भुक्ति में शुभफल देता है। संबंधी-अनुभयधर्मी: यदि राहु एवं केतु केंद्र या त्रिकोण में स्थित हों तो अन्यतर के स्वामी से संबंध होने पर योगकारक होते हैं।13 असंबंधी-सधर्मी: योगकारक ग्रह की दशा और उनके असंबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में योगकारी ग्रहों का फल समान होता है।14 असंबंधी-अनुभयधर्मी: नवम या दशम भाव में स्थित राहु या केतु संबंध न होने पर योगकारक ग्रह की भुक्ति में योगकारक होता है।15 असंबंधी-विरुद्धधर्मी यदि दशाधीश पाप ग्रह हो तो उसके असंबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा पाप फलदायक होती है। 16 यदि दशाधीश पाप ग्रह हो तो उसके असंबंधी योगकारक ग्रहों की अंतर्दशाएं अत्यधिक पाप फलदायक होती हैं।17 असंबंधी-उभयधर्मी: दशाधीश के विरुद्ध फलदायी अन्य ग्रहों की भुक्तियों में उनके गुणधर्मों के आधार पर दशाफल निर्धारित करना चाहिए।18 अपवाद: जिस प्रकार कोई भी सिद्धांत या वाद, चाहे वह दर्शन का हो या विज्ञान का, अपवाद से अछूता नहीं रहता, उसी प्रकार लघुपाराशरी के दशा-सिद्धांत में कुछ अपवादों का समावेश है। शास्त्र का स्वभाव है कि वह सिद्धांतों के साथ-साथ उसके अपवादों का भी प्रतिपादन करता है। शास्त्र एक अनुशासन है और इस अनुशासन की दो प्रमुख विशेषताएं होती हैं- पहली यह कि यह अनुशासन नियमों एवं आधारभूत सिद्धांतों को समन्वय के सूत्र में बांधता है तथा दूसरी यह कि यह किसी भी नियम या सिद्धांत को व्यर्थ नहीं होने देता। इसलिए सभी शास्त्रों में नियम, वाद एवं सिद्धांतों के साथ-साथ अपवाद अवश्य मिलते हैं। लघुपाराशरी के 42 श्लोकों में पहला श्लोक मंगलाचरण और दूसरा प्रस्तावना का है। 37 श्लोकों में नियम एवं सिद्धांत तथा 3 श्लोकों में अपवादों का वर्णन और विवेचन किया गया है। अपवाद उन नियमों को कहा जाता है जो किसी वाद या सिद्धांतों की सीमा में न आते हों और जो वाद या सिद्धांतों के समान तथ्यपूर्ण एवं उपयोगी हों। इसलिए अपवाद के नियम सदैव सिद्धांतों की सीमा से परे होते हैं। लघुपाराशरी में निम्नलिखित 3 अपवाद मिलते हैं, जिनका दशाफल के विचार प्रसंग में सदैव ध्यान रखना चाहिए। मारक ग्रह स्वयं से संबंध होने पर भी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में नहीं मारता। किंतु संबंध न होने पर भी पाप ग्रह की दशा में मारता है। 19 शनि एवं शुक्र एक दूसरे की दशा में और अपनी भुक्ति में व्यत्यय से एक-दूसरे का शुभ एवं अशुभ फल विशेष रूप से देते हैं। 20 दशमेश एवं लग्नेश एक-दूसरे के भाव में स्थित हों तो राजयोग होता है और इसमें उत्पन्न व्यक्ति विख्यात एवं विजयी होता है।
best astrologer in India, best astrologer in Chhattisgarh, best astrologer in astrocounseling, best Vedic astrologer, best astrologer for marital issues, best astrologer for career guidance, best astrologer for problems related to marriage, best astrologer for problems related to investments and financial gains, best astrologer for political and social career,best astrologer for problems related to love life,best astrologer for problems related to law and litigation,best astrologer for dispute
No comments:
Post a Comment