मात्र जल चढ़ाने से प्रसन्न हो जाने वाले भगवान शंकर का एक प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग सौराष्ट्र स्थित सोमनाथ में अवस्थित है। श्रावण माह में आशुतोष शिव की पूजा तुरंत फलदायी मानी जाती है। शिव भक्त कांवरिये विशेष रूप से हरिद्वार से जल लाकर शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। इतिहास साक्षी है सोमनाथ मंदिर कई बार बना और कई बार उसका विध्वंस हुआ लेकिन त्रिकालदर्शी शिव वहां किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान रहे। यह सोमनाथ पाटण, प्रभास, प्रभासपाटण व वेरावल के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां कार्तिक पूर्णिमा एवं महा शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला लगता है। सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शनों का विशेष महत्व है। यह शिव का प्रथम ज्योतिर्लिंग भी माना जाता है। कहते हैं इसके दर्शन मात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त होता है और अभीष्ट फल प्राप्त करता है। सोमनाथ की परिक्रमा करने से पृथ्वी की परिक्रमा करने के तुल्य पुण्य मिलता है। यह स्थान पाशुपत मत के शैवों का केंद्र स्थल भी है। इसके पास ही भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर भी है, यहां पर श्रीकृष्ण के चरण में जरा नामक व्याध का बाण लगा था। यह स्थान प्राकृतिक सौंदर्य से भी भरपूर है। यहां आने वाले यात्री मंदिर के प्रांगण में बैठकर इस सौंदर्य को अपनी आंखों से भरपूर निहारते हैं और अपने कैमरे में समेटने का अथक प्रयास करते हैं। सोमनाथ मंदिर का महत्व अनादि काल से है। इस संदर्भ में एक कथा का वर्णन पुराणों में इस प्रकार मिलता है- दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा से हुआ लेकिन चंद्रमा केवल रोहिणी से ही प्रेम करते थे। इस कारण अन्य 26 दक्ष कन्याएं बहुत उदास रहती थीं। उनके शिकायत करने पर दक्षराज ने चंद्रमा को बहुत समझाया लेकिन उनका व्यवहार नहीं बदला। अंत में दक्ष ने चंद्रमा को ‘क्षयी’ होने का शाप दे दिया। इस तरह चंद्रमा क्षयग्रस्त होकर धीरे-धीरे क्षीण होने लगे। उनका सुधावर्षण का कार्य रुक गया। चारों और त्राहि मच गई। चंद्रमा के आग्रह पर सभी देवताओं ने ब्रह्मा जी से सलाह ली। ब्रह्मा जी ने चंद्रमा को समस्त देवमंडली के साथ सोमनाथ क्षेत्र में जाकर महामृत्युंजय मंत्र से भगवान शिव की आराधना करने की सलाह दी। चंद्रमा ने यहां लगातार 6 महीने तक शिव की घोर तपस्या की। आशुतोष भगवान शिव ने प्रसन्न होकर मरणासन्न चंद्रमा का समस्त रोग हर लिया और उन्हें अमर होने का वरदान दिया। भगवान शिव ने उन्हें आश्वस्त किया कि शाप के फलस्वरूप कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होती जाएगी लेकिन शुक्ल पक्ष में उसी क्रम से एक-एक कला बढ़ती जाएगी और प्रत्येक पूर्णिमा को तुम पूर्णचंद्र हो जाओगे। चंद्रमा शिव के वचनों से गदगद हो गए और शिव से हमेशा के लिए वहीं बसने का आग्रह किया। चंद्र देव एवं अन्य देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान शंकर भवानी सहित यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में निवास करने लगे। सोमनाथ के आसपास का संपूर्ण प्रभास क्षेत्र पावन है। यहां बहने वाली पूतसलिला सरस्वती के दर्शन मात्र से संपूर्ण पाप व कष्ट दूर हो जाते हैं। सोमनाथ मंदिर रत्न जड़ित था। इसे आततायियों ने कई बार तोड़ा। महमूद गजनवी ने जब मंदिर का विध्वंस किया तो उससे शिवलिंग नहीं टूटा। तब उसके पास भीषण अग्नि प्रज्ज्वलित की गई। मंदिर के अमूल्य हीरे जवाहरात लूट लिए गए। उसके बाद राजा भीमदेव ने सिद्धराज जय सिंह की मदद से मंदिर का निर्माण किया। उसके बाद पुनः अलाउद्दीन खिलजी, औरंगजेब ने मंदिर को तहस नहस कर डाला। अब जो नवीन मंदिर बना है वह पुराने मंदिर के भग्नावशेष को हटाकर बनाया गया है। यह मंदिर समुद्र के किनारे है। भारत के स्वाधीन होने पर सरदार पटेल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर में देश के प्रथम राष्ट्रपति डाॅराजेंद्र प्रसाद ने ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। वर्तमान मंदिर चालुक्य वास्तु शैली में बना है जिसमें गुजरात के राजमिस्त्री की कड़ी मेहनत व शिल्प कौशल स्पष्ट दिखाई देता है। मंदिर के अलग-अलग भाग हैं। शिखर, गर्भगृह, सभा मंडप एवं नृत्य मंडप। मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था को ध्यान में रखकर इसका निर्माण इस प्रकार किया गया है कि इसके व अंटार्टिका के बीच में कोई भूमि नहीं है। अहल्याबाई मंदिर: सोमनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर अहल्याबाई होलकर का बनवाया सोमनाथ मंदिर है। यहां भूमि के नीचे सोमनाथ लिंग है। नगर के अन्य मंदिर: अहल्याबाई मंदिर के पास ही महाकाली का मंदिर है। इसके अलावा गणेश मंदिर, भद्रकाली तथा भगवान दैत्यसूदन (विष्णु) के मंदिर भी हैं। नगर-द्वार के पास गौरीकुंड नामक सरोवर के समीप प्राचीन शिवलिंग है। ्राची त्रिवेणी: यह स्थान नगर से लगभग एक मील की दूरी पर है। यहां जाते समय राह में ब्रह्मकुंड नामक बावली मिलती है। उसके पास ब्रह्म कमंडलु नामक कूप और ब्रह्मेश्वर शिव मंदिर है। यहां पर आदि प्रभास और जल प्रभास दो कुंड हैं। नगर के पूर्व में हिरण्या, सरस्वती और कपिला नदियां मिलती हैं और प्राची त्रिवेणी बनाती हैं। प्राची त्रिवेणी संगम से कुछ ही दूरी पर सूर्य मंदिर स्थित है। उससे आगे एक गुफा में हिंगलाज भवानी तथा सिद्धनाथ महादेव के मंदिर हैं। उसके पास ही एक वृक्ष के नीचे बलदेव जी का मंदिर है। कहा जाता है कि बलदेव जी यहां से शेष रूप धारण कर पाताल गए थे। यहां महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य की बैठक भी है। यहीं त्रिवेणी माता, महाकालेश्वर, श्रीराम, श्रीकृष्ण तथा भीमेश्वर के मंदिर भी हैं। इसे देहोत्सर्ग तीर्थ भी कहा जाता है। यादव स्थली: देहोत्सर्ग तीर्थ से आगे हिरण्या नदी के किनारे यादव स्थली है। यहीं परस्पर युद्ध करके यादवगण नष्ट हुए थे। बाण तीर्थ: यह स्थान वेरावल स्टेशन से सोमनाथ आते समय समुद्र के किनारे स्थित है। बाण तीर्थ से पश्चिम समुद्र के किनारे चंद्रभागा तीर्थ है। यहां बालू में कपिलेश्वर महादेव का स्थान है। भालक तीर्थ: कुछ लोग बाण तीर्थ को ही भालक तीर्थ कहते हैं लेकिन बाण तीर्थ से डेढ़ मील पश्चिम भालुपुर ग्राम में भालक तीर्थ है। यहां एक भालकुंड सरोवर है। उसके पास पद्मकुंड है। एक पीपल के वृक्ष के नीचे भालेश्वर शिव का स्थान है। इसे मोक्ष-पीपल कहते हैं। बताया जाता है कि यहीं पीपल के नीचे बैठे श्रीकृष्ण के चरण में जरा नामक व्याध ने बाण मारा था। चरण में लगा बाण निकालकर भालकुंड में फेंका गया। कैसे जाएं: सोमनाथ का निकटतम हवाई अड्डा केशोड़ है। यहां से सोमनाथ के लिए लगातार टैक्सियां और बसें चलती रहती हैं। पश्चिमी रेलवे की राजकोट-वेरावल और खिजड़िया-वेरावल रेलवे लाइनों से वेरावल जाया जा सकता है। वेरावल समुद्र तट पर बंदरगाह है। यहां सप्ताह में एक बार जहाज आता है। सोमनाथ सड़क मार्ग से भी वेरावल, मुंबई, अहमदाबाद, भाव नगर, जूनागढ़, पोरबंदर आदि सभी शहरों से जुड़ा हुआ है। कहां ठहरें: सोमनाथ के आसपास बड़े होटल नहीं हैं। विश्राम गृह एवं यात्री निवास सस्ती दर पर उपलब्ध हो जाते हैं।
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