Sunday, 20 December 2015

नारी के कितने स्वरुप

चहुंमुखी अर्थात सम्पूर्णता के साथ किया गया वरण (चयन) ही आवरण कहलाता है। वरण में कामना रहती है और माया का ही दूसरा नाम कामना है। अत: माया और आवरण पर्यायवाची कहलाते हैं। वरने की प्रक्रिया को वरण कहते हैं। इसमें मांगना, चुनना, छांटना आदि क्रियाएं समाहित होती हैं।
कामना-इच्छा को भी वर कहते हैं, क्योंकि उनका वरण करने के बाद ही तो कामना पूर्ति के उपाय किए जाते हैं। ब्रह्म में कामना है, किन्तु विस्तार पाने की। माया स्वयं कामना है। अत: स्त्री और उसके सभी स्वरूप, चाहे पिछली पीढिय़ों के हों, अपनी पीढ़ी के हों अथवा नई पीढ़ी के (पुत्री, पौत्री आदि) सभी का सम्बन्ध मूल में कामना से होता है। सम्बन्ध कामना का धरातल तय करता है, बुद्धि उसका स्वरूप तय करती है- भावों के अनुरूप। भाव की दिशा ही कामना को सकारात्मक या नकारात्मक रूप देती है।
चूंकि हमारा निर्माण भी आवरणों के कारण होता है अत: माया से ही हमें सीखना पड़ता है कि आवरण क्या हैं, उनका आकलन कैसे करें, उनको हटाएं कैसे? जीवन में स्त्री के सारे रूप इसी क्रम में देखे जाते हैं। हर रूप किसी न किसी मूल आवरण की व्याख्या है। माया के कारण इस जगत को मिथ्या कहा जाता है।
ब्रह्म सत्य है। जीवन के सात धरातल हैं। शरीर में सात धातुएं हैं। सृष्टि में सप्त लोक हैं। सात ही शरीर में चक्र हैं। इन्द्र धनुष के सात ही रंग हैं। संगीत में सात सुर और पृथ्वी/भूलोक में सात-सात महासागर हैं। सृष्टि के सभी तत्व इन सातों लोकों में व्याप्त रहते हैं, किन्तु स्वरूप एक सा नहींं होता। माया अथवा मां भी इन सातों लोकों में, तीनों गुणों (सत-रज-तम) में पंचकोश में भिन्न-भिन्न रूप से रहती हैं। चन्द्रमा से शरीर में बनने वाले 28सह प्रतिमास सात पीढिय़ों के अंश हमारे शरीर में लाते रहते हैं। इनके अनुपात से भी माया का कार्य प्रभावित होता रहता है।
मां पृथ्वी को भी कहते हैं। बीज को आवरित करती है। उसका पोषण करती है। पेड़-पौधों के शरीर का निर्माण करती है। बीज का निर्माण भी तो कोई मां ही करती होगी। बीज के वपन से पेड़ के जीवनपर्यत मां साथ रहती है। मां आवरण है। छुपाकर रखती है। पत्नी भी गृहस्थाश्रम में आवरण है। बाद में मित्र बनकर मां के स्वरूप में बदल जाती है। संन्यासाश्रम में पति को स्त्रैण बना चुकी होती है। दाम्पत्य रति से देवरति में पति को प्रतिष्ठित कर देती है। यहीं से मोक्ष मार्ग की शुरूआत होती है। वैराग्य में प्रवेश भी पत्नी ही करा सकती है। संसार का कोई गुरू यह कार्य नहींं कर सकता। विरक्ति को झेलती भी वही है। एैश्वर्य की साक्षी भी पत्नी-मां होती है। दैहिक पत्नी नहींं हो सकती। वह तो मोह-निद्रा के लिए आमंत्रण मात्र है। उसका लक्ष्य तो कुछ और ही होता है।
जीवन के हर मोड़ पर, बदलती हुई कामनाओं की पूर्ति करे, आवरणों के भेद खोलती जाए। पहले कामना में फंसाना, फिर मुक्त करने को प्रेरित भी करना, सहयोग करना, देखते जाना कि कौन से धरातल के आवरण नहींं हट पा रहे। सारे आवरणों को हटाकर मोक्ष तक पहुंचाना ही उसका लक्ष्य है। इसके लिए उसके पास भी सात जन्म का समय होता है। गहरी समझ रखने वाली पत्नियां समय से पूर्व पति में विरक्ति का भाव पैदा कर देती है। एैसे पति सौभाग्यशाली होते हैं। जो इस विरक्ति को अभाव मानकर पूर्ति की तलाश करते हैं।
सृष्टि की शुरूआत आवरण से- अव्यय पुरूष रूप। मन पर प्राण-वाक् के आवरण। महामाया के आवरण से अक्षर पुरूष। प्रकृति के आवरण से क्षर पुरूष। ये सारे आवरण प्रसव पूर्व के हैं। पंच महाभूतों और तन्मात्राओं से शरीर का निर्माण। प्रसव बाद जगत के भौतिक आवरण चढ़ते हैं। ज्ञान के नए आवरण चढ़ते हैं। परिवार, धर्म, समाज, देश, शिक्षा आदि के आवरण चढ़ते हैं। इनको वह व्यक्ति समझ पाता है, जो संस्कारवान है। सभी आवरण सूक्ष्म होते हैं। मां ही गुरू बनकर पेट में ही इन आवरणों से परिचय कराती है। जीव का रूपान्तरण करती है। यही व्यक्तित्व जीवन का आधार होता है।
बचपन की गतिविधियों में समानता का भाव भी लडक़े-लडक़ी के पालन-पोष्ण में अधिक बढ़ गया है। अत: आकर्षण घटता हुआ मात्र शरीर पर ठहरने लगा है। मां का मूल कार्य इस पौरूष भाव को ही स्त्रैण बनाना है। इसके बिना पुरूष के मन में (ब्रह्म) आकर्षण कैसे पैदा होगा। मन के सारे आवरण उतरने के बाद यह स्थिति भक्ति (अंग) रूप में प्रकट होती है।
बहुत लम्बी यात्रा है यह। पूरी 25 वर्ष की। इन पच्चीस वर्षो की यात्रा में पत्नी रूप मां (शक्ति) क्या करती है, कैसे आवरणों का भेद समझाती है, यह महत्वपूर्ण है। इसके लिए उसको प्रशिक्षण नहींं लेना पड़ता। अधिकांश पाशविक आवरण तो वह पेट में ही हटा देती है। उसके अलावा कोई नहींं जानता कि जीव कहां से चलकर आया है। उसके भविष्य की आवश्यकताएं क्या हैं। सम्पूर्ण छह माह का संसर्ग शिशु (गर्भस्थ) के लिए रूपान्तरण का काल होता है। जीव स्वयं भी अपने बारे में सब कुछ जानता है। अपने भावी लक्ष्य के अनुरूप ही मां-बाप का चयन करता है। ध्वनि स्पन्दनों के जरिए मां का संतान से संवाद बना रहता है।
नाभि ही ध्वनि स्पन्दनों का केन्द्र है। यहां मां का दैहिक ज्ञान काम नहींं करता। उसका अतीन्द्रिय ज्ञान, स्वप्नों में दिखाई पड़ती ईश्वरीय आस्था तथा मां के स्वरूप की नैसर्गिक शक्तियां काम करती हैं। उसकी अपनी भी मां होती है। विद्या, कला, राग, संयोग और काल का ज्ञान माया से मिलता है। मां और संतान के ह्वदयों के ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण इस अवधि में एकाकार हो जाते हैं। इसी से सन्तान के मन में उठने वाली इच्छाओं की दिशा तय हो जाती है। संस्कार का यही तो स्वरूप है। तभी मां संतान के भविष्य को जानती है।
कन्या तो भावी मां है। स्वयं पृथ्वी है। धरती मां है। उसने भी किसी जीव के उद्धार के लिए ही जन्म लिया है। जीव के शरीर और मन के आवरणों के रहस्य खोलेगी। तम को सत्व में परिवर्तित करेगी। इनकी नश्वरता को प्रमाणित करके उसका मोह भंग करेगी। विरक्ति का भाव पैदा करके आवरण हटाने में सहयोगी बनेगी। उसे स्वयं के लिए नहींं जीना है। उसके जीवन का एक ही संकल्प होता है, जिसके लिए वह स्वयं को तैयार करती है। पति के जीवन का अभिन्न अंग बनकर सृष्टि क्रम में प्रेरित करना और आगे स्त्रैण भाव देकर मोक्षगामी होने को प्रेरित करना। इसके लिए वह सारा घर-बाहर छोडक़र संन्यास लेकर पति के पास जा बसती है। शेष जीवन बस उसी के लिए।
ऐसा संकल्पवान कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और बुद्धियोगी क्या पूजनीय नहींं होता! पुरूष तो कभी जीवन लक्ष्यों के प्रति संकल्पवान होता ही नहींं। पत्नी आकर जब उसके ह्वदय कपाट खोलती है, प्रेम का मार्ग प्रशस्त करती है, तब ही उसे जीवन का अर्थ प्राप्त होता है। सृष्टि करने के लिए कन्या को अपने शरीर के पांचों तत्वों को संतुलन में रखने का अभ्यास करना पड़ता है। ऋतुचर्या का प्रकृति के साथ संतुलन सीखना पड़ता है। भाव भूमि का निर्माण करना पड़ता है। प्रसव पूर्व की स्थितियों की जानकारी, संतान की देख-रेख, प्रसव बाद का ज्ञान, लालन-पालन का ज्ञान अर्जित करके तैयार करना होता है।
माया के मोह-पाश की जादूगरी, शक्ति अर्जन, लज्जा के स्वरूप, वात्सल्य और श्रद्धा में स्नान, त्याग करने की पृष्ठभूमि पर स्वयं को तैयार करना तथा स्वयं के जीवन के प्रति मोह-त्याग जैसे बड़े-बड़े अभ्यास करती है। माया का स्वरूप कामना के रूप में ही जीवन में प्रवेश करता है। कामना सही अर्थो में भूख और अभाव का ही दूसरा नाम है। मन में कामना ही बीज रूप में पल्लवित-पुष्पित होती है। कामना के साथ ही वह स्वयं को भी पति ह्वदय में प्रतिष्ठित करती है। उसके स्थान पर पति को अपने ह्वदय में बिठाकर जीवनभर उसका ही प्रतिनिधित्व करती है। पति के लिए सदा सौम्य और दण्ड विधान में रौद्रा हो जाती है।
माया सोम अवस्था का नाम है। अग्नि में सदा सोम आहुत होकर गौण हो जाता है। शेष अग्नि ही रहता है। इसी यज्ञ से सृष्टि विस्तार चलता रहता है। घर में कन्या या पुत्री का होना भी विचारों और भावनाओं को प्रभावित करता है। मातृत्व की अनेक गतिविधियों का बोध भी कराती हैं। अपने से छोटे बच्चों के लिए तो मां स्वरूप होती है। फिर कुछ प्रारब्ध भी होता है। कर्मो के फल किसको छोड़ते हैं। आसुरी भाव जहां अभिव्यक्त हों, वहां परिजनों की हवस का शिकार भी बनना पड़ता है।
मां के तीन स्वरूप हैं- मां-शक्ति-माया। यह पहला माया भाव (तमस) है। शक्ति (राजस) और मां सात्विक भाव है। आज मातृत्व की शिक्षा तो मां भी नहींं देती। मातृत्व के प्रति आकर्षण भी घट रहा है। जहां नारी का व्यवहार मन के बजाए ज्ञान पर आधारित होगा, वहां मातृत्व, मिठास, समर्पण, त्याग और योग नहींं रहेंगे। पति के जीवन का अंग न होकर स्वतंत्र पहचान के साथ जीने की बात होगी। वहां बस टकराव या दुराव होगा। ज्ञान का अभाव एक-दूसरे के सम्मान को कम कराएगा। आज तो स्वच्छन्दता के वातावरण में हम फिर से वन-मानुष होते जा रहे हैं। बाहर भले ही चकाचौंध में जीते दिखाई पड़ते हों। क्योंकि जिस कामना के सहारे माया का जीवन में प्रवेश होता है, उसमें संकल्प नहींं रहा।
सूर्य से तीन तत्व हमें प्राप्त होते हैं- ज्योति (ज्ञान), आयु एवं गौ (विद्युत)। यह ज्योति ही बुद्धि रूप विकसित होती है। हमारी सृष्टि अर्घनारीश्वर के सिद्धान्त पर कार्य करती है। नर-नारी दोनों में स्त्री-पुरूष भाव रहते हैं। नर में पौरूष और नारी में स्त्रैण अधिक रहता है।
दोनों मिलकर समभाव में आ जाते हैं। यही मानव की पूर्णता है। माया का कार्य पुरू ष में भी स्त्रैण भाग को बढ़ाना, दाम्पत्य रति का विकास करना और आत्मा को ईश्वर की ओर मोडऩा है। जैसे-जैसे यह कार्य आगे बढ़ता है, माया के अन्य स्वरूप बाधक भी बनते हैं। माया भी अपनी पकड़ आसानी से नहींं छोडऩा चाहेगी। पत्नी रूप मां इन माया के विकल्पों को समझकर उनसे संघर्ष करने को प्रेरित करती है। सही अर्थो में संसार सागर के विषयों को और कोई इस व्यावहारिक तथा आत्मीय भाव में नहींं समझा सकता। यही कामना बनती है और यही तृप्ति भी देती है। शक्ति रूप में तृप्ति की छाया होती है। व्यक्ति को पराक्रम और एैश्वर्य प्राप्त करने के लिए उकसाती रहती है। मिलता भले ही भाग्य के अनुसार ही है। जैसे-जैसे यह विकास यात्रा बढ़ती है आसुरी भाव- सुरा, सुन्दरी या अविद्या रूप में व्यवधान पैदा करने का प्रयास करते हैं। पत्नी चेतावनी बनकर खड़ी हो जाती है। ये सब तो उसकी तपस्या के लिए चुनौतियां हैं। हारती नहींं है।
पराक्रम और एैश्वर्य को तृष्णा रूप में बदलते भी देर नहींं लगती। स्वयं के लिए परिग्रह का स्वरूप नकारात्मक भी हो सकता है। व्यक्ति दूसरे के अधिकारों का हनन भी कर सकता है। पत्नी सहनशीलता देती है। लज्जा का मार्ग प्रशस्त करती है। सुर-असुर के बीच इसी बात का भेद होता है कि एक को गलती करने में लज्जा आती है, दूसरे को नहींं आती। पुरूष के अहंकार में लज्जा नहींं होती। जिसकी पत्नी में मातृत्व है, वह लज्जा को ग्रहण कर ही लेता है। लज्जा ही वह सोपान है जिस पर चढक़र ऊध्र्व यात्रा की जाती है। यही संस्कारों का केन्द्र है।
स्त्री की विरासत है। संकल्प के बिना लज्जा विकल्पों में खो जाती है। संकल्प और समर्पण ही दो आयुध होते हैं, पत्नी-मां के। लज्जा ही श्रद्धा और शान्ति का आधार बन जाती है। आक्रामकता को रोक देती है। जहां लज्जा, श्रद्धा, शान्ति है, वहां लक्ष्मी है, यश है, श्री है, कान्ति है। पत्नी यहां भी दान-पुण्य का मार्ग प्रशस्त करती है। स्वयं से बाहर निकलकर लोक के लिए कुछ कराती है। समष्टि भाव पैदा करने में सदा सहायक होती है। यहां तक कि पति के नाम की दान की रसीदें मन्दिर-गौशाला आदि में कटाती रहती है। इसी में व्यक्ति को तृप्ति का भाव दिखाई देता है। यह तृप्ति ही शनै:-शनै: व्यक्ति को कामना मुक्त करती है। अभाव की अनुभूति को मिटाती है। कामना मुक्ति ही मोक्ष है।
पुत्री/पौत्री रूप में मां/माया चेतना के जागरण में अपनी भी आहुतियां देती हैं। आत्मीयता के नए युग का पदार्पण होता है। पुत्री को देख कन्यादान का चित्र सदा आंखों के आगे बना रहता है। यह भी वैराग्य के अध्याय खोलता रहता है। परिष्कार का मार्ग बनाए रखता है। पौत्री तो वैसे भी ब्याज रूप मानी गई है। पुत्र पेड़ होता है- पौत्र-पौत्री फल होते हैं। अधिक प्रिय होते हैं। पौत्री करूणा के भाव को प्रेरित करती है। बात-बात में व्यक्ति पौत्री के लिए द्रवित हो जाता है। मां के रूप का यह पड़ाव लगभग सभी के अहंकार को घुटने टिका देता है।
समर्पण और भक्ति का अर्थ सिखा देता है। निर्मलता का निर्झर जीवन में बहने लगता है। तमस बाहर को दौड़ता है। सत्व का साम्राज्य फैलता जाता है। भाव शुद्धि का मन्दिर साक्षात हो उठता है। पुरूष का पौरूष स्त्रैण में रूपान्तरित होता जाता है। पति-पत्नी दोनों ही स्त्रैण, कामना मुक्त और माया से बाहर। मां ने माता रूप में आवरण हटाए (पिछले जन्म के), पत्नी ने व्यावहारिक ज्ञान देकर आवरण हटाने में साथ दिया और पौत्री ने शुद्धता को स्थायित्व भाव दिया। है सभी माया के रूप। वही व्यक्ति के पास आकर रहती है, उसे वश में करती है और बिना उसकी मर्जी के भी समय आने पर उसे मुक्त करा जाती है। पहले शुद्ध माया, फिर शक्ति और अन्त में मां।
हम प्रकृति के सिद्धान्त को साथ रखकर देखें। नर-नारी की युगल सृष्टि से ही यज्ञ सम्पूर्ण होता है। नर-नारी की शरीर भिन्नता के उपरान्त भी दोनों अर्घनारीश्वर के सिद्धान्त पर कार्य करते हैं। दोनों का ही आधा-आधा भाग पुरूष और प्रकृति का, अग्नि और सोम का होता है। अग्नि की पुरूष में तथा सोम की स्त्री में प्रधानता रहती है। अग्नि विस्तार धर्मा है, ऊपर को उठती है, तोड़ती है। सोम संकोच धर्मा है, जोडऩे वाला है। नर-नारी दोनों ही माया के रूप हैं। अत: पिता, पुत्र, पौत्र आदि भी माया का ही विस्तार है। इसी को द्वैत भाव भी कहा जा सकता है।
माया द्वैत भाव को ही कहते हैं। जब नर-नारी का भेद मिट जाए और मूल में एक ही नजर आने लगे, तब समझो द्वैत गया। माया के कार्य को पुरूष न तो समझ सकता है, न ही समेट सकता है। अत: माया ही सृष्टि को चलाती है। वही सृष्टि का गतिमान तत्व (शक्ति) है। अत: मां को ही नियन्ता कहा गया, ब्रह्म को साक्षी माना। पुरूष देह में जो नारी अंश है, उसी के आधार पर तो वह बाहर नारी को देखता है। इसी प्रकार नारी की देह का पुरूष अंश बाह्य पुरूष से सामंजस्य बनाए रखने का प्रयास करता है। बिना अपने अंश को समझे हम कैसे और किस आधार पर दूसरे को समझ सकते हैं। इसी प्रकार दूसरे को देखकर भी हम अपने भीतर का आकलन कर लेते हैं। स्त्री सौम्या होने से अपनी ओर आकृष्ट करती है, घेरती है, आवरित करती है, तब हम अपना भीतर टटोल सकते हैं। कहां-कहां बच पाए, कहां-कहां आवरित हो पाए और क्यों? इसी क्रम को माया स्वयं समझाती जाती है, भिन्न-भिन्न स्वरूप लेकर। भिन्न-भिन्न जन्म लेकर। कर्मो के फल देकर। जब आप माया के सारे आवरण समझ गए, उस दिन आप द्वैत से मुक्त हो गए। मां को पुकारो और उसके अंक में बैठ जाओ!
कोई मां बच्चे को योग्यता के कारण प्यार नहींं करती। वह तो कपूत को भी करती है। न मां बदल सकती है, न ही सन्तान। जो है उसी में प्रेम को बढ़ाना है, भोगना है। मां तो यह भी समझती है कि यह जीव बाहर से मेरे पेट में आया है तथा उम्र भर यह तथ्य उसकी दृष्टि में रहता है। इसीलिए उसकी क्षमा का दायरा बहुत बड़ा है। उसकी सहनशक्ति, धैर्य, प्रतीक्षा सभी विशाल होते हैं। संतान से मार खाकर भी भीतर शान्त ही रहती है।
माया एक धारा का प्रवाह है। बहता ही जाता है। प्रवाह से पूर्व द्रवणता होना अनिवार्य है। यह मिठास से आती है। दया और करूणा से आती है। अत: माया मित्र या शुभचिन्तक बनकर घेरा डालती है। मोह लेती है। द्रवित करती है। व्यक्ति बहने लगता है। ऊपर की ओर बह नहींं सकता। धारा बनकर नीचे की ओर प्रवाहित करती है। मूल केन्द्र या उद्गम से दूर ले जाती है। जैसे ही वह गृहस्थाश्रम के कार्य से मुक्त होकर वानप्रस्थ में प्रवेश करती है, उसकी गति बदल जाती है। धारा से वह राधा हो जाती है। राधा में ऊपर की ओर बहने की शक्ति है। यह जीवन का महत्वपूर्ण चौराहा होता है। पत्नी मां ही हाथ पकडक़र सही मार्ग पर बनाए रख सकती है, क्योंकि उसके जीवन की तपस्या प्रभावित होती है। आने वाले जीवन में अनेक नई चुनौतियों का डर भी रहता है। अब तक हर चुनौती का सामना पति के साथ मिलकर करती रही है। पति यदि नई धारा में बहने की सोच ले तो उसी से संघर्ष करना होगा। वही धारा है, वही राधा भी है। वही मुक्त विचरण करते हुए जीव को आकर्षित करती है।
आज शिक्षा ने मां छीनकर औरत को शरीर तक सीमित कर दिया। समानता के भुलावे में प्रतिक्रियावादी बनती चली जा रही है। इसी कारण समलैंगिक विवाह होने लगे, पशुओं को उपकरण बनाने लगे, यांत्रिक स्त्री-पुरूष बन गए। बाजार में बिकने लगे। कहां ढूंढ़ेंगे उस मां को? बहुत पीछे काल के गर्त में खो गई। मां शरीर का नाम नहींं है। सन्तान पैदा करने वाली का नाम नहींं है। भावना का, विशिष्ट ऊर्जा का नाम है।
रूपान्तरण की क्षमता का नाम मां है, जो पहले बच्चे को टॉफी देकर वश में करती है, फिर उसके व्यक्तित्व का निर्माण करती है, मंजिल दिखाती है और उड़ान भरने को छोड़ देती है। उसके जीवन की तपस्या एवं सुन्दरता उसकी सन्तान में निहित रहती है। आज की शिक्षित मां इसके ठीक विपरीत होती है। उसके लिए स्वयं की सुन्दरता महत्वपूर्ण होती है। यही नहींं, उसकी अपनी समस्याओं एवं कुंठाओं का जाल भी छोटा नहींं होता। उसका अहंकार समर्पण भी नहींं करने देता। वह मां नहींं औरत रह जाती है। पुरूष के समान व्यवहार करती है। उसका स्थायी स्वरूप बन ही नहींं पाता। उसके परिवार का सांस्कृतिक स्वरूप बिखरा होता है। मां के साथ ऐसा कभी नहींं होता। वह तो ईश्वरीय अवतरण जैसा होता है। सबके लिए होता है। बिना भेद-भाव के।

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मन के कारक चंद्र

मन के कारक चंद्र से पूरा का पूरा व्यक्तित्व निर्मित होता है। कुण्डली में मुख्य रूप से लग्न और तृतीय भाव के स्वामी इंसानी चरित्र और व्यवहार के लिए जिम्मेदार होते हैं किंतु चंद्रमा जो कि चतुर्थ भाव का स्वामी ग्रह है, उससे मन की दृढ़ता या उसकी कमजोरी निश्चित होती है। यहां आज हम मन के स्वामी ग्रह चंद्रमा का व्यक्तित्व पर पडऩे वाले प्रभाव की चर्चा करेंगे।
चंद्रमा की मजबूती या कमजोरी उसके पक्ष बल से निर्धारित होती है। यदि किसी जातक का जन्म अमावस्या या कृष्ण पक्ष की किसी तिथि में हुआ हो तो ऐसे समय में उसका चंद्रमा प्रताडि़त होता है किंतु यदि उसका जन्म शुक्ल पक्ष की किसी तिथि या पूर्णिमा को हुआ हो तो चंद्रमा को पक्ष बल प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार से उस जातक विशेष की कुण्डली में चंद्रमा यदि भाव बली हो, केंद्राधिपत्य आदि दोषों से रहित हो, केमुद्रम आदि दुर्योग नहींं निर्मित हो रहे हों और साथ ही उसे पक्ष बल भी प्राप्त हो तो फिर सोने पर सुहागा जैसी बात हो जाएगी। ऐसा जातक मानसिक रूप से सक्षम, सुदृढ़ और विवेकपूर्ण त्वरित निर्णय लेने वाला होता है। ऐसा इंसान जनता में लोकप्रियता प्राप्त करने में समर्थ होता है क्योंकि उसके द्वारा लिए गए फैसले दूरगामी सोच वाले सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही उनकी चिंतन शक्ति भी बेहद कल्पनाशील होती है, जिसका लाभ ये मिलता है कि वे शोधपरक अनुसंधान कार्यों में सफल सिद्ध हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त मजबूत और पक्षबली चंद्रमा के कारण ऐसे लोग मानसिक रूप से सुदृढ़ होते हैं, उन पर अवसादग्रस्त करने वाली घटनाएं न्यूनतम प्रभाव डाल पाती हैं। इसी वजह से दु:ख की घड़ी भी उनके लिए नए अनुभव और नई सीख की एक महान घटना बन जाती है।
इसके ठीक विपरीत कमजोर और पक्ष बल से हीन चंद्रमा वाला जातक मानसिक तौर पर कमजोर होता है। उसकी संवेदनशीलता इतनी अधिक होती है कि बात-बात पर उसे पीड़ा का अनुभव होने लगता है। खुशियां ऐसे इंसान से कोसों दूर रहती हैं। काल्पनिकता का अतिरेक ऐसे व्यक्ति को सामान्य जीवन से विमुख कर देता है। ऐसे इंसान का चंद्रमा क्रमश: और पीडि़त होने पर उसे पागल तक बना सकता है। इसीलिए इस प्रकार के बलहीन और प्रताडि़त चंद्र के स्वामी जातक की समस्या को कम करने के लिए शास्त्रीय और ज्योतिषीय उपायों को अवश्य आजमाना चाहिए।
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कुंडली अनुसार करे बच्चों का पालन

सनातन हिंदू धर्म बहुत सारे संस्कारों पर आधारित है, जिसके द्वारा हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जीवन को पवित्र और मर्यादित बनाने का प्रयास किया था। ये संस्कार ना केवल जीवन में विशेष महत्व रखते हैं, बल्कि इन संस्कारों का वैज्ञानिक महत्व भी सर्वसिद्ध है। गौतम स्मृति में कुल चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख किया गया है, वहीं महर्षि अंगिरा ने पच्चीस महत्वपूर्ण संस्कारों का उल्लेख किया है तथा व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है जोकि आज भी मान्य है। माना जाता है कि मानव जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक प्रमुख रूप से सोलह संस्कार करने चाहिए। वैदिक काल में प्रमुख संस्कारों में एक संस्कार गर्भाधान माना जाता था, जिसमें उत्तम संतति की इच्छा तथा जीवन को आगे बनाये रखने के उद्देश्य से तन मन की पवित्रता हेतु यह संस्कार करने के उपरांत पुंसवन संस्कार गर्भाधान के दूसरे या तीसरे माह में किया जाने वाला संस्कार गर्भस्थ शिशु के स्वस्थ्य और उत्तम गुणों से परिपूर्ण करने हेतु किया जाता था, गर्भाधान के छठवे माह में गर्भस्थ शिशु तथा गर्भिणी के सौभाग्य संपन्न होने हेतु यह संस्कार किये जाने का प्रचलन है। उसके उपरांत नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व जातकर्म करने का विधान वैदिक काल से प्रचलित है जिसमें दो बूंद घी तथा छ: बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर नौ मंत्रों का विशेष उच्चारण कर शिशु को चटाने का विधान है, जिससे शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना की जाती थी। जिसके उपरांत प्रथम स्तनपान का रिवाज प्रचलित था। उसके उपरांत शिशु के जन्म के ग्यारवहें दिन नामकरण संस्कार करने का विधान है। यह माना जाता है कि ‘‘राम से बड़ा राम का नाम’’ अत: नामकरण संस्कार का महत्व जीवन में प्रमुख है। अत: यह संस्कार ग्यारहवें दिन शुभ घड़ी में किये जाने का विधान है। नामकरण के उपरांत निस्क्रमण संस्कार किया जाता है, जिसे शिशु के चतुर्थ माह के होने पर उसे सूर्य तथा चंद्रमा की ज्योति दिखाने का प्रचलन है, जिससे सूर्य का तेज और चंद्रमा की शीतलता शिशु को मिले, जिससे उसके व्यवहार में तेजस्व और विनम्रता आ सकें। उसके उपरांत अन्नप्राशन शिशु के पंाच माह के उपरांत किया जाता है जिससे शिशु के विकास हेतु उसे अन्न ग्रहण करने की शुरूआत की जाती है। चूड़ाकर्म अर्थात् मुंडन संस्कार पहले, तीसरे या पांचवे वर्ष में किया जाता है, जोकि शुचिता तथा बौद्धिक विकास हेतु किया जाता है। जिसके उपरांत विद्यारंभ संस्कार का विधान है जिसमें शुभ मुहूर्त में अक्षर ज्ञान दिया जाना होता है। उसके उपरांत कर्णेभेदन, यज्ञोपवीत तथा केशांत जिससे बालक वेदारम्भ तथा क्रिया-कर्मों के लिए अधिकारी बन सके अर्थात वेद-वेदान्तों के पढऩे तथा यज्ञादिक कार्यों में भाग ले सके। गुरु शंकराचार्य के अनुसार ‘‘संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्दोशापनयनेन वा’’ अर्थात मानव को गुणों से युक्त करने तथा उसके दोषों को दूर करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे ही संस्कार कहते हैं। इन संस्कारों के बिना एक मानव के जीवन में और किसी अन्य जीव के जीवन में विशेष अंतर नहींं है। ये संस्कार व्यक्ति के दोषों को खत्म कर उसे गुण युक्त बनाते हैं। महान विद्वान चाणक्य ने कहा था कि 5 साल की उम्र तक बच्चों को सिर्फ प्यार से समझा कर सिखाना चाहिए। उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा ज्ञान देने की कोशिश करना चाहिए। बाद में ये बात कई वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च में साबित की कि 5 साल की उम्र तक बच्चों को जो भी सिखाया जाए वो हमेशा याद रहता है। लेकिन बच्चों को सिखाने की ये बात सिर्फ किताबों तक सीमित नहींं होनी चाहिए। बच्चे अक्षर या अंकों का ज्ञान तो लेंगे ही, लेकिन इसी उम्र में उनमें संस्कार और आचरण की नींव डालना भी बेहद ज़रूरी है। बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, उन्हें जैसा रूप देना चाहें, दे सकते हैं। उनके अच्छे भविष्य और उन्हें बेहतर इंसान बनाने के लिए सही परवरिश जरूरी है। अधिकतर अभिभावक के लिए परवरिश का अर्थ केवल अपने बच्चों की खाने-पीने, पहनने-ओढऩे और रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करना है। इस तरह से वे अपने दायित्व से तो मुक्त हो जाते हैं लेकिन क्या वे अपने बच्चों को अच्छी आदतें और संस्कार दे पाते हैं, जिनसे वे आत्मनिर्भर और जिम्मेदार बन सकें।
हर बच्चा अलग होता है। उन्हें पालने का तरीका अलग होता है। बच्चों की सही परवरिश के लिए हालात के मुताबिक परवरिश की जरूरत होती है। सवाल यह है कि बच्चे के साथ कैसे पेश आएं कि वह अनुशासन में रहे और जीवन में सफलतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें, सभी का सम्मान करें, अपने जीवन में सदाचार बनाये रखें। अक्सर अभिभावक इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि हम अपने बच्चों की परवरिश किस तरह से करें तो हम आपको बताते हैं आपके बच्चे की कुंडली में क्या योग बन रहे हैं और उन योगों के अनुसार आप अपने बच्चे के कौन से गुणों को उभार सकते हैं और कौन से ऐसे दोष हैं जिन्हें सुधारने की आवश्यकता हो सकती है या उसमें बदलाव लाना होगा। कुछ ऐसे ज्योतिषीय तरीके जो आपकी मदद करेंगे आपके बच्चे को योग्य और सामथ्र्यवान बनाने के साथ सुखी और खुशहाल बनाने में सहयोगी होते हैं। आप सबसे पहले अपने बच्चे की कुंडली किसी योग्य ज्योतिषाचार्य को दिखायें और देखें कि उसके जन्मांग में कौन-कौन से योग हैं जो उन्हें भटका सकते हैं और कौन से योग हैं जिन्हें उभारने की जरूरत है। जिनमें से देखें कि कुछ योग इस प्रकार हो सकते हैं-
* कुंडली में मंगल-शुक्र की युति के कारण बच्चों राह से भटकते है। कुंडली में शुक्र चन्द्र की युति से काल्पनिक होने से पढ़ाई में बाधा आती है तथा बच्चे-बच्चियों को अपोजिट सेक्स के प्रति आकर्षित करते हैं। चंद्रमा कमजोर हो तो बच्चा बहुत भावुक होता है। ऐसे बच्चो को कुछ स्वार्थी लोग बच्चे/बच्चियां ब्लैकमेल करते हैं।
* कुंडली में चन्द्र राहु की युति हो तो बच्चे के मन में खुराफातें उपजती हैं। चन्द्र राहु की युति होने से कई प्रकार के भ्रम आते हैं और उन भ्रमों से बाहर निकलना ही नहीं हो पाता है।
* मंगल शनि की युति हो और मंगल बहुत बली हो तो बच्चा किसी को भी हानि पहुँचाने से नहींं डरेगा। गुरु खराब हो, नीच, अस्त, वक्री हो तो बच्चा अपने माता-पिता, बड़े बुजुर्ग किसी की भी इज्जत नहींं करेगा।
* पांचवें भाव, पांचवें भाव का स्वामी और चंद्रमा भावनाओं को नियंत्रित करता है, अत: ये ग्रह खराब स्थिति में हों तो आत्मनियंत्रण में कमी होती है।
लग्न, पांचवें या सातवें भाव पर उनके प्रभाव से व्यक्ति अत्यधिक भावुक होता है।
* तीसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रह और मंगल साहस का कारक हैं। यदि ये ग्रह छठे, आठवे या बारहवे स्थान में हों तो अतिवादी होने से लड़ाई होने की संभावना बहुत होती है।
* राहु तथा बारहवें और आठवें भाव के स्वामी सुख के लिए मजबूत इच्छा को दर्शाता है।
* शुक्र, चंद्रमा, आठवें भाव लग्न या सातवें भाव के साथ जुड़ कर सुख के लिए मजबूत इच्छा को दर्शाता है।
* राहु, शुक्र और भावनाओं और साहस के कारकों के साथ जुडक़र प्यार के लिए जुनून दिखाता है। बच्चा उम्र की अनदेखी, सभी सामाजिक मानदंडों की अनदेखी कर सुख की इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयास करता हैं। शुक्र और सप्तम घर की कमजोरी अतिरिक्त योगदान करता है। पंचम की स्थिति सातवें या आठवें भाव में हो तो विपरीत सुख के लिए झुकाव देता है। प्यार और लगाव के लिए जिम्मेदार ग्रह शनि, चंद्रमा, शुक्र और मंगल ग्रह और पंचम या सप्तम या द्वादश स्थान में होने से बचपन में ही स्थिति खराब हो जाती है।
* मोह, हानि, आत्महत्याओं के लिए अष्टम भाव को देखा जाता है। मन के संतुलन के हानि के लिए 12वां भाव और बुध गृह को देखना होता है। मन का भटकाव मंगल, राहु, बुध, शुक्र और चंद्रमा ग्रह की दशा और 5, 7वीं, 8वीं और 12वीं भाव के साथ संबंध हो तब होता है।
* आठवें भाव जो की वैवाहिक जीवन, विधवापन, पापों-घोटालों, यौन अंग, रहस्य मामलों तथा अश्लील हरकतों के लिए देखा जाता है।
* जब शनि और राहु की स्थिति विपरीत हो तो अनुशासन में रहना सिखाएं।
* बच्चा जब बड़ा होने लगता है तब ही से उसे नियम में रहने की आदत डालें। ‘‘अभी छोटा है बाद में सीख जाएगा यह रवैया खराब है।’’ उन्हें शुरू से अनुशासित बनाएं। कुछ पेरेंट्स बच्चों को छोटी-छोटी बातों पर निर्देश देने लगते हैं और उनके ना समझने पर डांटने लगते हैं, कुछ माता-पिता उन्हे मारते भी हैं। यह तरीका भी गलत है। वे अभी छोटे हैं, आपका यह तरीका उन्हें जिद्दी और विद्रोही बना सकता है। यदि आपके बच्चे की कुंडली में लग्र, द्वितीय, तीसरे या एकादश स्थान में शनि हो तो आपका बच्चा शुरू से ही जिद्दी होगा, अत: ऐसी स्थिति में उसे शुरू से ही अनुशासन में रहने की आदत डालें, इसके लिए उसे प्यार से समझाते हुए अनुशासित करें एवं उसकी जिद्द के उचित और अनुचित होने का भान कराते हुए भावनाओं को नियंत्रण में रखना सिखायें।
* जब तृतीयेश, छठे, आठवे या बारहवे स्थान में या क्रूर ग्रहों अथवा राहु से पापाक्रांत होकर बैठा हो तो उनके साथ दोस्ताना व्यवहार करें।
* अगर आपके बच्चे में यदि तीसरा स्थान कमजोर या नीच का होगा तो उसे कमजोर मनोबल वाला व्यक्तित्व देगा, जिससे यदि वह किसी गलत व्यक्ति के उपर भरोसा कर लें तो गलत आदतें सीख सकता है। अत: इसके लिए आप अपने बच्चे के स्वयं अच्छे दोस्त बनें और उसे साकारात्मक दिशा में प्रयास करने के लिए प्रेरित करें।
* यदि आपके बच्चे का लग्रेश और गुरू अथवा सूर्य या चंद्रमा कमजोर हो तो ऐसा जातक कमजोर आत्मविश्वास का होता है इसके लिए उसे आत्मनिर्भर बनाएं।
* बचपन से ही उन्हें अपने छोटे-छोटे फैसले खुद लेने दें। जैसे उन्हें डांस क्लास जाना है या जिम। फिर जब वे बड़े होंगे तो उन्हें सब्जेक्ट लेने में आसानी होगी। आपके इस तरीके से बच्चों में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा और वे भविष्य में चुनौतियों का सामना डट कर, कर पाएंगे। ऐसे बच्चों को उसके छोटे-छोटे निर्णय लेने में सहयोग करें किंतु निर्णय उसे स्वयं करने दें। साथ ही ये शिक्षा भी दें कि क्या गलत है और क्या उनके लिए सही। इसके लिए उन्हें ग्रहों की शांति तथा मंत्रों के जाप का सहारा लेने की आदत डालें और सही गलत का फैसला स्वयं करने दें।
* यदि आपके बच्चे के एकादश एवं द्वादश स्थान का स्वामी विपरीत या नीच को हो तो गलत बातों पर टोकें।
* बढ़ती उम्र के साथ-साथ बच्चों की बदमाशियां भी बढ़ जाती है। जैसे- मारपीट करना, गाली देना, बड़ों की बात ना मानना आदि। ऐसी गलतियों पर बचपन से ही रोक लगा देना चाहिए ताकि बाद में ना पछताना पड़े। ऐसे बच्चों की कुंडली बचपन में देखें कि क्या आपके बच्चे का तीसरा, एकादश एवं पंचम स्थान दूषित तो नहींं है, ऐसी स्थिति में इन आदतों पर बचपन से काबू करने की कोशिश करें, इसके लिए कुंडली में ग्रहों की शांति का भी उपाय अपनायें।
* यदि दूसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रह होकर कमजोर हो तो बच्चों के सामने अभद्र भाषा का प्रयोग ना करें।
* बच्चे नाजुक मन के होते हैं। उनके सामने बड़े जैसा व्यवहार करेंगे वैसा ही वे सीखेंगे। सबसे पहले खुद अपनी भाषा पर नियंत्रण रखें। सोच-समझकर शब्दों का चयन करें। आपस में एक दूसरे से आदर से बात करें। धीरे-धीरे यह चीज बच्चे की बोलचाल में आ जाएगी। कुंडली में स्थित कुछ योगों से पता चल सकता है की बच्चा किस प्रकार का है और उसी के अनुसार ही बच्चे पर ध्यान देना जरुरी है।
* इसके अलावा आप अपने बच्चे को शुरूआत से ही सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर उसकी कुंडली के दोषों को दूर करने एवं गुणों को बढ़ाने के उपाय कर सकते हैं।
* मंगल-केतु के लिए बच्चे को खेलकूद में डालें, जिससे उसकी उर्जा का सही उपयोग होगा, जिससे उसमें लडऩे-झगडऩे की नौबत नहींं आयेगी और उसकी उर्जा का सदुपयोग होगा।
* बच्चों की कुंडली में यदि लग्र के दूसरे, तीसरे या पंचम स्थान में शुक्र, चंद्रमा या राहु हो तो इस तरह के योग में उसे संगीत, डांस, पेंटिंग आदि किसी कला में डाले, जिससे भटकाव की संभावना कम होगी।
* यदि आपके बच्चे की कुंडली में गुरू विपरीत स्थान में हो तो उसे बड़ों का आदर करना सिखाएं, अपने बुजुर्गों का आदर करने से गुरु ग्रह मजबूत होगा।
जीवन में अनुशासन बनाये रखने एवं सही मार्ग पर बने रहने के लिए भगवान हनुमान और गणेश की पूजा, हनुमान चालीसा का पाठ तथा ध्यान करने की आदत डालें।
इस प्रकार बचपन से ही बच्चों की सही परवरिश में यदि जन्म कुंडली का सहारा लिया जाकर उसके ग्रहों के दोषों के अनुरूप प्रयास किया जाए तो आपका बच्चा ना केवल एक अच्छा नागरिक बनेगा अपितु सफलता की हर उचाई को भी छू लेगा। इसके साथ वयस्क होते बच्चे की कुंडली में यदि राहु-शुक्र या शनि की दशा चले तो भृगुकालेन्द्र पूजा करायें।
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कृषि उत्पादन के सहयोगी तत्व वायु,वृष्टि व भूमि की उपयोगिता

प्राचीन काल से आज तक मनुष्य अपनी क्षुधा को शांत करने के लिए प्रकृति पर अविलम्बित रहा है। प्रकृति ने भी उसे अपनी ममतामयी गोद में कृषि के माध्यम से शस्य (धान्य) से समृद्ध बनाया। किन्तु वृष्टि, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष आदि अनेक प्राकृतिक अपदाओं का भय भी अक्सर देखा ही जा रहा है और इनसे निपटने के लिए ज्योतिष की सहायता ली जा सकती है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र इस मामले में बेजोड़ है। ज्योतिष शास्त्रानुसार प्रत्येक घटना के घटित होने के पहले प्रकृति में कुछ विकार उत्पन्न देखे जाते हैं जिनकी सही-सही पहचान से व्यक्ति भावी शुभ-अशुभ घटनाओं का सरलतापूर्वक परिज्ञान कर सकता हैं जैसे उल्कापात मेघ, वात, मेघगर्भ लक्षण आदि।
ज्योतिष के माध्यम से वर्षा का
पूर्वानुमान:
यदां जनिनो मेघ: शान्तायम दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मंदगतिश्र्वापि तदा विधाज्जलं शुभम्।।
यदि अंजन के समान गहरे काले मेघ पश्चिम दिशा में दिखाई पड़े और ये चिकने तथा मंद गति वाले हों तो भारी जल वृष्टि होती है।
पीतपुष्पनिभो यस्तु यदा मेघ: समुत्थीत:।
शंतायम यदि दृश्यते स्निग्धो वर्षं तदुच्यते।।
पीले पुष्प के समान स्निग्ध मेघ पश्चिम दिशा में स्थित हों तो जल की तत्काल वृष्टि कराते हैं। ये वर्षा के कारक माने जाते हैं ।
रक्तवर्णों यदा मेघ: शान्तया दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मंदगतिश्र्वापि तदा विद्याजलं शुभम्।।
यदि लाल वर्ण के तथा स्निग्ध और मंद गति वाले मेघ पश्चिम दिशा में दिखाई दें तो अच्छी जल वृष्टि होती हैं ।
तिथौ मुहूर्तकारणे नक्षत्रे शकुन शुभे।
संभवन्ति यदा मेघा: पापदास्ते भयंकरा:।।
अशुभ तिथि, मुहूर्त कारण, नक्षत्र और शकुन में यदि मेघ आकाश में आच्छादित हों तो भयंकर पाप का फल (अनिष्ट) देने वाले होते हैं ।वराह संहिता में वराहमिहिर ने 34 अध्याय के 4-5 श्लोक में परिवेश के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है कि चांदी और तेल के समान वर्ण वाले परिवेष सुभिक्ष करने वाले होते हैं ।घाघ, भड्डरी एक जैसे ही ज्योतिषी हुए जिन्होंने आम बोलचल की भाषा में कई ज्योतिष सम्बंधित कहावते कहीं हैं, वें वर्षा के सम्बन्ध में लिखते हैं:
आगे मंगल पीछे भान।
बरसा होय ओस सामान।।
जब मंगल ग्रह आगे और सूर्य उनके पीछे हो तो वर्षा ओस के सामान अर्थात बहुत कम होती हैं।आगे मेघा पीछे भान। पानी-पानी रटे किसान।।जब मघा आगे-आगे हों और सूर्य पीछे हो तो वर्षा का योग बहुत कम हैं, किसान पानी पानी रटते रहेंगे । आगे मंगल पीठ रवि, जो आषाढ़ के मास।
चौपट नाश चहूं दिशा, विरलै जीवन आस।।
जब आषाढ़ के महीने में मंगल आगे और सूर्य उसके पीछे हो तो अनाव्रष्टि का भय रहता हैं । नारद पुराण के त्रिस्कन्ध ज्योतिष सहिंता प्रकरण में ग्रह के माध्यम से वर्षा के सम्बन्ध में कहा गया हैं-
मंगल-
जिस दिन मंगल का उदय हो और उदय के नक्षत्र से दसवे, ग्यारहवे तथा बारहवे नक्षत्र में मंगल वक्र हो तो (अश्र्वमुख) नामक वक्र होता हैं। उसमें अन्न व वर्षा का नाश होता है।
बुध-
1. यदि आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा इन नक्षत्रों में बुध दृश्य हो तो वर्षा नहींं होती हैं और अकाल होता हैं ।
2. हस्त से छ: नक्षत्रों में बुध के रहने से लोक-कल्याण, सुभिक्ष व आरोग्य प्राप्ति होती हैं ।
बृहस्पति- बृहस्पति जब नक्षत्रों के उत्तर चले तो सुभिक्ष व कल्याणकारी तथा बायें हो तो विपरीत परिणाम देता हैं ।
शुक्र-
1. शुक्र जब बुध के साथ रहता हैं तब सुवृष्टि (अच्छी वर्षा) का कारक होता हैं ।
2. कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या में यदि शुक्र का उदय हो या अस्त हो तो पृथ्वी जल से परिपूर्ण रहती हैं।
शनि-
श्रवण, स्वाति, हस्त, आद्र्रा, भरणी और पूर्वाषाढ़ इन नक्षत्रों में विचारने वाला शनि मनुष्य के लिए सुभिक्ष व खेती की उपज बढ़ाने वाला होता है।
पौस इजोडिया सप्तमी अष्टमी नवमी वाज।
डाक जल्द देखे प्रजा, पूरन सब विधि काज।।
अर्थात पौस शुल्क प्रतिपदा, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, तिथि को यदि आकाश में बादल दिखाई पड़े तो उस वर्ष वर्षा अच्छी होती है।
वायु के लक्षण:
वर्षा भय तथा क्षेम राज्ञो जय पराजयम।
मरुत: कुरुते लोके जन्तूनां पुण्य पापजाम।।
वायु सांसारिक प्राणियों के पुण्य एवं पाप से उत्पन्न होने वाले वर्षण, भय, क्षेम और राजा की जय-पराजय को सूचित करती हैं |वायु के चलने से भी प्राचीन ज्योतिषियों ने अनेक फलादेश कियें हैं जिसमे कृषि तथा वर्षा, सुभिक्ष आदि का वर्णन किया गया हैं। भद्रबाहू के निमित ग्रन्थ में उल्लेख हैं कि-
आषाढ़ी पूर्णिमायां तु पूर्व वातो यदा भवेत्।
प्रवाति दिवसं सर्व सुवृष्टि: सुषमा तदा।।
आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पूर्व दिशा की वायु यदि सारे दिन चले तो वर्षा काल में अच्छी वर्षा होती हैं और वह वर्ष अच्छा व्यतीत होता हैं ।
आषाढ़ी पूर्णिमायां तु वायु: स्यादुत्तरो यदि।
वापयेत सर्वबीजनी शस्यं ज्येष्ठ समृध्यति।।
आषाढ़ी पूर्णिमा को उत्तर दिशा की वायु चले तो सभी प्रकार के बीजों को बो देना चाहिये क्योंकि उक्त प्रकार की वायु में बोये गए बीज बहुतायत से उत्पन्न होते हैं। किसी भी दिशा का वायु यदि साड़े सात दिन तक लगातार चले तो उसे महान भय का सूचक जानना चाहिये। इस प्रकार की वायु अतिवृष्टि की सूचक होती हैं ।
सर्व लक्षण संपन्न मेघा मुख्या जलावाहा:।
मुहुर्तादुत्थितो वायुर्हान्या सर्वोआपी नैऋत:।।
सभी शुभ लक्षण से संपन्न जल को धारण करने वाले जो मुख्य मेघ हैं, उन्हें भी नैऋत्य दिशा का उठा हुआ पूर्व पवन एक मुहूर्त में नष्ट कर देता हैं ।
घाघ कवि वायु के सम्बन्ध में कहते हैं-
वायु चलेगी उत्तरा।
माढ़ पियेंगे कुत्तरा।।
जब उत्तर दशा की वायु चलेगी तब कुत्ते भी माढ़ पियेंगे अर्थात धान की फसल अच्छी होगी। इसी तरह पूरब की वायु भी धान की फसल के लिये अच्छी मानी जाती हैं-
चले वायु जब पूरवा।
माढ़ पियों भर कुरवा।।
‘डाक’ कवी लिखते हैं-
श्रावण पछवा भादों पुरिवा, आशिं बह ईशान।
कार्तिक कांता सिकियोने डोले, कहाँ तक रखवह धान।।
श्रावण पछवा बह दिन चारी, चूल्हिक पांछा उपजै सारी।।
बरिसे रिमझिम निशिदिन वारि, कहीगेल वचन ‘डाक’ परचारि।।
यदि सावन मास में पश्चिम हवा, भाद्रपद मास में पूर्वी हवा और आश्विन मास में ईशान कोण की हवा चले तो अच्छी वर्षा होती हैं तथा फसल भी उत्तम होती हैं। श्रावण में यदि चार दिनों तक पश्चिमी हवा चले तो रात-दिन पानी बरसता है। इस तरह ज्योतिष द्वारा वायु का पूर्वानुमान कर कृषि कार्य में सहायता प्राप्त की जाती थी।
खेती योग्य उचित भूमि भी उत्तम खेती के लिए आवश्यक भूमि शोधन अंग हैं। प्राचीन काल में कृषि बीज बोने से लेकर फसल काटने तथा रखने तक की प्रक्रिया ज्योतिष के वैज्ञानिक विधि द्वारा वर्णित शुभ मुहूर्तो में की जाती थी। अत: बिना रासायनिक खादों के उत्तम फसल की प्राप्ति होती रही। वर्षा का पूर्वानुमान लगाकर उस हिसाब की पूर्ववत तैयारी कर ली जाती थी। अंतत: निष्कर्ष है कि ज्योतिष शास्त्र एक सार्वभौमिक शास्त्र हैं जो कि जातक के भविष्य, भवन निर्माण से लेकर कृषि कार्य में भी अपनी उपादेयता को सदियों से सिद्ध करता रहा हैं।
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रावन कौन है

पुलत्स्य ऋषि के उत्कृष्ट कुल में जन्म लेने के बावजूद रावण का पराभव और अधोगति के अनेक कारणों में मुख्य रूप से दैविक एवं मानवीय कारणों का उल्लेख किया जाता है। दैविक एवं प्रारब्ध से संबंधित कारणों में उन शापों की चर्चा की जाती है जिनकी वजह से उन्हें राक्षस योनि में जाना पड़ा। शक्तियों के दुरुपयोग ने उनके तपस्या से अर्जित ज्ञान को नष्ट कर दिया था।
ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बावजूद अशुद्ध, राक्षसी आचरण ने उन्हें पूरी तरह सराबोर कर दिया था और हनुमानजी को अपने समक्ष पाकर भी रावण उन्हें पहचान नहींं सका था कि ये उसके आराध्य देव शिव के अवतार हैं। रावण के अहंकारी स्वरूप से यह शिक्षा मिलती है कि शक्तियों के नशे में चूर होने से विनाश का मार्ग प्रशस्त होता है। भक्त के लिए विनयशील, अहंकाररहित होना प्राथमिक आवश्यकता है।
पौराणिक संदर्भों के अनुसार पुलत्स्य ऋषि ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक माने जाते हैं। इनकी गिनती सप्तऋषियों और प्रजापतियों में की जाती है। विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने पुलत्स्य ऋषि को पुराणों का ज्ञान मनुष्यों में प्रसारित करने का आदेश दिया था। पुलत्स्य के पुत्र विश्रवा ऋषि हुए, जो हविर्भू के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। विश्रवा ऋषि की एक पत्नी इलबिड़ा से कुबेर और कैकसी के गर्भ से रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा पैदा हुए थे। सुमाली विश्रवा के श्वसुर व रावण के नाना थे। विश्रवा की एक पत्नी माया भी थी, जिससे खर, दूषण और त्रिशिरा पैदा हुए थे और जिनका उल्लेख तुलसी की रामचरितमानस में मिलता है।
दो पौराणिक संदर्भ रावण की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए जरूरी हैं। एक कथा के अनुसार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु सनक, सनंदन आदि ऋषि बैकुंठ पधारे परंतु भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें प्रवेश देने से इंकार कर दिया। ऋषिगण अप्रसन्न हो गए और क्रोध में आकर जय-विजय को शाप दे दिया कि तुम राक्षस हो जाओ। जय-विजय ने प्रार्थना की व अपराध के लिए क्षमा माँगी। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से क्षमा करने को कहा। तब ऋषियों ने अपने शाप की तीव्रता कम की और कहा कि तीन जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना पड़ेगा और उसके बाद तुम पुन: इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। इसके साथ एक और शर्त थी कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी स्वरूप के हाथों तुम्हारा मरना अनिवार्य होगा।
यह शाप राक्षसराज, लंकापति, दशानन रावण के जन्म की आदि गाथा है। भगवान विष्णु के ये द्वारपाल पहले जन्म में हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु राक्षसों के रूप में जन्मे। हिरण्याक्ष राक्षस बहुत शक्तिशाली था और उसने पृथ्वी को उठाकर पाताललोक में पहुँचा दिया था। पृथ्वी की पवित्रता बहाल करने के लिए भगवान विष्णु को वराह अवतार धारण करना पड़ा था। फिर विष्णु ने हिरण्याक्ष का वधकर पृथ्वी को मुक्त कराया था। हिरण्यकशिपु भी ताकतवर राक्षस था और उसने वरदान प्राप्तकर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया था।भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का वध करने की वजह से हिरण्यकशिपु विष्णु विरोधी था और अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद को मरवाने के लिए भी उसने कोई कसर नहींं छोड़ी थी। फिर भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण कर हिरण्यकशिपु का वध किया था। खंभे से नृसिंह भगवान का प्रकट होना ईश्वर की शाश्वत, सर्वव्यापी उपस्थिति का ही प्रमाण है।
त्रेतायुग में ये दोनों भाई रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और तीसरे जन्म में द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया, तब ये दोनों शिशुपाल व दंतवक्त्र नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए थे। इन दोनों का ही वध भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हुआ।
त्रेतायुग में रावण के अत्याचारों से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई थी। रावण का अत्यंत विकराल स्वरूप था और वह स्वभाव से क्रूर था। उसने सिद्धियों की प्राप्ति हेतु अनेक वर्षों तक तप किया और यहाँ तक कि उसने अपने सिर अग्नि में भेंट कर दिए। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर रावण को वर दिया कि दैत्य, दानव, यक्ष, कोई भी परास्त नहींं कर सकेगा, परंतु इसमें ‘नर’ और ‘वानर’ को शुमार नहींं किया गया था। इसलिए नर रूप में भगवान श्रीराम ने जन्म लिया, जिन्होंने वानरों की सहायता से लंका पर आक्रमण किया और रावण तथा उसके कुल का विनाश हुआ।
प्रकांड पंडित एवं ज्ञाता होने के नाते रावण संभवत: यह जानता था कि श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु का अवतार हुआ है। छल से वैदेही का हरण करने के बावजूद उसने सीता को महल की अपेक्षा अशोक वाटिका में रखा था क्योंकि एक अप्सरा रंभा का शाप उसे हमेशा याद रहता था कि ‘रावण, यदि कभी तुमने बलात्कार करने का प्रयास भी किया तो तुम्हारा सिर कट जाएगा।’ खर, दूषण और त्रिशिरा की मृत्यु के बाद रावण को पूर्ण रूप से अवगत हो गया था कि वे ‘‘मेरे जैसे बलशाली पुरुष थे, जिन्हें भगवान के अतिरिक्त और कोई नहींं मार सकता था।’’
कुछेकों का मत है कि रावण एक विचारक व दार्शनिक पुरुष था। वह आश्वस्त था कि यदि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भगवान हैं तो उनके हाथों मरकर उनके लोक में जाना उत्तम है और यदि वे मानव हैं तो उन्हें परास्त कर सांसारिक यश प्राप्त करना भी उचित है। अंतत: रावण का परास्त होना इस बात का शाश्वत प्रमाण है कि बुराइयों के कितने ही सिर हों, कितने ही रूप हों, सत्य की सदैव विजय होती है। विजयादशमी को सत्य की असत्य पर विजय के रूप में देखा जाता है। कहते हैं कि भगवान श्रीराम ने त्रेतायुग में नवरात्रि का व्रत करने के बाद ही रावण का वध किया था।
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गुरु ही आपके गुरु है

गुरूब्र्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:॥
गुरु का अर्थ है अंधकार या अज्ञान और रु का अर्थ है उसका निरोधक यानी जो अज्ञान के अंधकार से बाहर निकाले वही गुरु। गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व अपने आराध्य गुरु को श्रद्धा अर्पित करने का महापर्व है। योगेश्वर भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवतगीता में कहते हैं, हे अर्जुन! तू मुझमें गुरुभाव से पूरी तरह अपने मन और बुद्धि को लगा ले। ऐसा करने से तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कोई संशय नहींं। गुरु की महत्ता के बारे में संत कबीर ने गुरु को ईश्वर से ऊंचा स्थान देते हुए कहा है- ‘‘गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागहुं पायं, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय।’’ गुरु केवल ज्ञान ही नहींं देता बल्कि अपनी कृपा से शिष्य को सब पापों से मुक्त भी कर देता है। गुरु तत्व का सिद्धांत और बुद्धिमत्ता है, आपके भीतर की गुणवत्ता, यह एक शरीर या आकार तक सीमित नहींं है।
शास्त्रों में कहा गया है कि गुरु से मंत्र लेकर वेदों का पठन करने वाला शिष्य ही साधना की योग्यता पाता है। व्यावहारिक जीवन में भी देखने को मिलता है कि बिना गुरु के मार्गदर्शन या सहायता के किसी कार्य या परीक्षा में सफलता कठिन हो जाती है। लेकिन गुरु मिलते ही लक्ष्य आसान हो जाता है। गुरु ऐसी युक्ति बता देते हैं, जिससे सभी काम आसान हो जाते हैं। गुरु का मार्गदर्शन किसी ताले की चाभी की तरह है। इस प्रकार गुरु शक्ति का ही रूप है। वह किसी भी व्यक्ति के लिए एक अवधारणा और राह बन जाते हैं, जिस पर चलकर व्यक्ति मनोवांछित परिणाम पा लेता है। गुरु वह है, जिसमें आकर्षण हो, जिसके आभा मंडल में हम स्वयं को खिंचते हुए महसूस करते हैं। जितना ज्यादा हम गुरु की ओर आकर्षित होते हैं, उतनी ही ज्यादा स्वाधीनता हमें मिलती जाती है। कबीर, नानक, बुद्ध का स्मरण ऐसी ही विचित्र अनुभूति का अहसास दिलाता है। गुरु के प्रति समर्पण भाव का मतलब दासता से नहींं, बल्कि इससे मुक्ति का भाव जागृत होता है। गुरु के मध्यस्थ बनते ही हम आत्मज्ञान पाने लायक बनते हैं। गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान देने के साथ-साथ जीवन में अनुशासन से जीने की कला भी सिखाते हैं। वह व्यक्ति में सत्कर्म और सद्विचार भर देते हैं। इसलिए गुरु पूणिर्मा को अनुशासन पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। गुरु हमारे अंदर संस्कार का सृजन, गुणों का संवर्धन और वासनाओं एवं हीन ग्रंथियों का विनाश करते हैं। पुराणों में दिए प्रसंग यह संदेश भी देते हैं कि अगर मन में लगन हो तो कोई भी व्यक्ति गुरु को कहीं भी पा सकता है। किन्तु एक अच्छे गुरु को कैसे प्राप्त करें और उस गुरु की पहचान कैसे हो, इसकी जानकारी के लिए:
1. गुरु के पास चित्त की एकाग्रता होती हो, बैचेनी नहीं आती हो, उदासी, निराश के भी भाव नहीं आना चाहिए।
2. गुरु की ज़ुबान पर संतुलन हो, नियंत्रण हो, अपनी बात पर अधिकार हो और आप के बंधन को खोल दे।
3. गुरु काम, क्रोध, मद, लोभ से परे रहकर हमेशा मर्यादा में रहता हो।
4. स्वंय गुरु की खोज करने की बजाय भगवान की प्रार्थना (भगवत् प्रार्थना) से आप को गुरु प्राप्त हों। गुरु को बदला नहीं जाता परन्तु अपवाद उन का विस्तार किया जा सकता है जैसे भगवान दत्तात्रेय जी के 24 गुरु थे। गुरु बताते क्षीर-नीर में क्या फर्क है, सोना-पीतल दोनों पीली धातु हैं फिर भी उस में भेद हैं, सांप-रस्सी दोनों रात्री में समान दिखते हैं, परन्तु उस में भी भेद है और ये भेद जब बन जाते तो मन भटकाव में आ जाता है, इस प्रकार इस शरीर रूपी क्षेत्र में पृथ्वी के समान बहुत सारे बीज दबे रहते और कभी कभी बेवक्त मौसम की तरह प्रतिकूल अवस्था में अनुकूल प्रभाव पैदा हो जाता और विकार पैदा कर जाता हैं, तब गुरु की जरूरत पडती हैं।
सद्गुरु बिरला ही कोई, साधू-संत अनेक।
सर्प करोड़ो भूमि पर, मणि युक्त कोई एक।।
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दशहरा पर्व की उत्पत्ति

दशहरा उत्सव की उत्पत्ति के विषय में कई कल्पनायें की गयी हैं। भारत के कतिपय भागों में नये अन्नों की हवि देने, द्वार पर धान की हरी एवं अनपकी बालियों को टाँगने तथा गेहूँ आदि को कानों, मस्तक या पगड़ी पर रखने के कृत्य होते हैं। अत: कुछ लोगों का मत है कि यह कृषि का उत्सव है। कुछ लोगों के मत से यह रणयात्रा का द्योतक है, क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है, नदियों की बाढ़ थम जाती है, धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। सम्भवत: यह उत्सव इसी दूसरे मत से सम्बंधित है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतु निश्चित थी। शमी पूजा भी प्राचीन है। वैदिक यज्ञों के लिए शमी वृक्ष में उगे अश्वत्थ (पीपल) की दो टहनियों (अरणियों) से अग्नि उत्पन्न की जाती थी। अग्नि शक्ति एवं साहस की द्योतक है, शमी की लकड़ी के कुंदे अग्नि उत्पत्ति में सहायक होते हैं। जहाँ अग्नि एवं शमी की पवित्रता एवं उपयोगिता की ओर मंत्रसिक्त संकेत हैं। इस उत्सव का सम्बंध नवरात्र से भी है क्योंकि इसमें महिषासुर के विरोध में देवी के साहसपूर्ण कृत्यों का भी उल्लेख होता है और नवरात्र के उपरांत ही यह उत्सव होता है।
शास्त्रों के अनुसार:
आश्विन शुक्ल दशमी को विजयदशमी का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसका विशद वर्णन हेमाद्रि, सिंधुनिर्णय, पुरुषार्थचिंतामणि, व्रतराज, कालतत्त्वविवेचन, धर्मसिंधु आदि में किया गया है।
* कालनिर्णय के मत से शुक्ल पक्ष की जो तिथि सूर्योदय के समय उपस्थित रहती है, उसे कृत्यों के सम्पादन के लिए उचित समझना चाहिए और यही बात कृष्ण पक्ष की उन तिथियों के विषय में भी पायी जाती है जो सूर्यास्त के समय उपस्थित रहती हैं।
1. वह तिथि, जिसमें श्रवण नक्षत्र पाया जाए, स्वीकार्य है।
2. वह दशमी, जो नवमी से युक्त हो।
किंतु अन्य निबंधों में तिथि सम्बंधी बहुत से जटिल विवेचन उपस्थित किये हैं। यदि दशमी नवमी तथा एकादशी से संयुक्त हो तो नवमी स्वीकार्य है, यदि इस पर श्रवण नक्षत्र ना हो।
* स्कंद पुराण में आया है- जब दशमी नवमी से संयुक्त हो तो अपराजिता देवी की पूजा दशमी को उत्तर पूर्व दिशा में अपराह्न में होनी चाहिए। उस दिन कल्याण एवं विजय के लिए अपराजिता पूजा होनी चाहिए।
* यह द्रष्टव्य है कि विजयादशमी का उचित काल है, अपराह्न, प्रदोष केवल गौण काल है। यदि दशमी दो दिन तक चली गयी हो तो प्रथम (नवमी से युक्त) अवीकृत होनी चाहिए। यदि दशमी प्रदोष काल में (किंतु अपराह्न में नहींं) दो दिन तक विस्तृत हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी स्वीकृत होती है। जन्माष्टमी में जिस प्रकार रोहिणी मान्य नहींं है, उसी प्रकार यहाँ श्रवण निर्णीत नहींं है। यदि दोनों दिन अपराह्न में दशमी न अवस्थित हो तो नवमी से संयुक्त दशमी मान ली जाती है, किंतु ऐसी दशा में जब दूसरे दिन श्रवण नक्षत्र हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी मान्य होती है। ये निर्णय, निर्णय सिंधु के हैं। अन्य विवरण और मतभेद भी शास्त्रों में मिलते हैं।
शुभ तिथि:
विजयादशमी वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं - चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की दशमी और कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा। इसीलिए भारतवर्ष में बच्चे इस दिन अक्षरारम्भ करते हैं, इसी दिन लोग नया कार्य आरम्भ करते हैं, भले ही चंद्र आदि ज्योतिष के अनुसार ठीक से व्यवस्थित ना हों, इसी दिन श्रवण नक्षत्र में राजा शत्रु पर आक्रमण करते हैं, और विजय और शांति के लिए इसे शुभ मानते हैं।
प्रमुख कृत्य:
इस शुभ दिन के प्रमुख कृत्य हैं- अपराजिता पूजन, शमी पूजन, सीमोल्लंघन (अपने राज्य या ग्राम की सीमा को लाँघना), घर को पुन: लौट आना एवं घर की नारियों द्वारा अपने समक्ष दीप घुमवाना, नये वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण करना, राजाओं के द्वारा घोड़ों, हाथियों एवं सैनिकों का नीराजन तथा परिक्रमणा करना। दशहरा या विजयादशमी सभी जातियों के लोगों के लिए महत्वपूर्ण दिन है, किंतु राजाओं, सामंतों एवं क्षत्रियों के लिए यह विशेष रूप से शुभ दिन है।
धर्मसिंधु में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है, अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए, संकल्प करना चहिए - ‘‘मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्डय़र्थमपराजितापूजनं करिष्ये। इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और साथ ही क्रियाशक्ति को नमस्कार एवं उमा को नमस्कार कहना चाहिए। इसके उपरांत ‘‘अपराजितायै नम:, जयायै नम:, विजयायै नम:’’ मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16उपचारों के साथ करनी चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए। ‘‘हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को जा सकती हैं। राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है। राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए - ‘‘वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छा रखती है, मुझे विजय दे।’’ इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करना चाहिए। तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए। शमी की पूजा के पूर्व या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए। कुछ लोगों के मत से विजयादशमी के अवसर पर राम और सीता की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उसी दिन राम ने लंका पर विजय प्राप्त की थी। राजा के द्वारा की जाने वाली पूजा का विस्तार से वर्णन ‘हेमाद्रि’ एवं ‘तिथितत्व’ में वर्णित है। निर्णय सिंधु एवं धर्मसिंधु में शमी पूजन के कुछ विस्तार मिलते हैं। यदि शमी वृक्ष ना हो तो अश्मंतक वृक्ष की पूजा की जानी चाहिए।
पौराणिक मान्यताएँ:
इस अवसर पर कहीं कहीं भैंसे या बकरे की बलि दी जाती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व देशी राज्यों में, यथा बड़ोदा, मैसूर आदि रियासतों में विजयादशमी के अवसर पर दरबार लगते थे और हौदों से युक्त हाथी दौड़ते तथा उछलकूद करते हुए घोड़ों की सवारियाँ राजधानी की सडक़ों पर निकलती थीं और जुलूस निकाला जाता था।
* कालिदास ने वर्णन किया है कि जब शरद ऋतु का आगमन होता था तो रघु वाजिनीराजना नामक शांति कृत्य करते थे।
* वराह ने वृहत्संहिता में अश्वों, हाथियों एवं मानवों के शुद्धियुक्त कृत्य का वर्णन विस्तार से किया है।
* निर्णयसिंधु ने सेना के नीराजन के समय मंत्रों का उल्लेख यूँ किया है जिसका मतलब है ‘‘हे सब पर शासन करने वाली देवी, मेरी वह सेना, जो चार भागों (हस्ती, रथ, अश्व एवं पदाति) में विभाजित है, शत्रुविहीन हो जाए और आपके अनुग्रह से मुझे सभी स्थानों पर विजय प्राप्त हो।’’
* तिथितत्व में ऐसी व्यवस्था है कि राजा को अपनी सेना को शक्ति प्रदान करने के लिए नीराजन करके जल या गोशाला के समीप खंजन को देखना चाहिए और उसे निम्न मन्त्र से सम्बोधित करना चाहिए, ‘‘खंजन पक्षी, तुम इस पृथ्वी पर आये हो, तुम्हारा गला काला एवं शुभ है, तुम सभी इच्छाओं को देने वाले हो, तुम्हें नमस्कार है।’’
* तिथितत्व ने खंजन के देखे जाने आदि के बारे में प्रकाश डाला है।
* वृहत्संहिता ने खंजन के दिखाई पडऩे तथा किस दिशा में कब उसका दर्शन हुआ आदि के विषय में घटित होने वाली घटनाओं का उल्लेख किया है।
* मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति ने खंजन को उन पक्षियों में परिगणित किया है जिन्हें नहींं खाना चाहिए।
विजयादशमी के दस सूत्र:
1. दस इन्द्रियों पर विजय का पर्व है।
2. असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है।
3. बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय का पर्व है।
4. अन्याय पर न्याय की विजय का पर्व है।
5. दुराचार पर सदाचार की विजय का पर्व है।
6. तमोगुण पर दैवीगुण की विजय का पर्व है।
7. दुष्कर्मों पर सत्कर्मों की विजय का पर्व है।
8. भोग पर योग की विजय का पर्व है।
9. असुरत्व पर देवत्व की विजय का पर्व है।
10. जीवत्व पर शिवत्व की विजय का पर्व है।
वनस्पति पूजन:
विजयदशमी पर दो विशेष प्रकार की वनस्पतियों के पूजन का महत्व है। एक है शमी वृक्ष, जिसका पूजन रावण दहन के बाद करके इसकी पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को ससम्मान प्रदान किया जाता है। इस परंपरा में विजय उल्लास पर्व की कामना के साथ समृद्धि की कामना करते हैं। दूसरा है अपराजिता (विष्णु-क्रांता)। यह पौधा अपने नाम के अनुरूप ही है। यह विष्णु को प्रिय है और प्रत्येक परिस्थिति में सहायक बनकर विजय प्रदान करने वाला है। नीले रंग के पुष्प का यह पौधा भारत में सुलभता से उपलब्ध है। घरों में समृद्धि के लिए तुलसी की भाँति इसकी नियमित सेवा की जाती है।

जाने बंगाल की दुर्गा पूजा के बारे में

दुर्गा पूजा का पर्व भारतीय सांस्कृतिक पर्वों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। लगभग दशहरा, दीवाली और होली की तरह इसमें उत्सव धार्मिकता का पुट आज सबसे ज़्यादा है। बंगाल के बारे में कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, कल पूरा देश उसे स्वीकार करता है। बंगाल के नवजागरण को इसी परिप्रेक्ष्य में इतिहासकार देखते हैं। यानि उन्नीसवीं शताब्दी की भारतीय आधुनिकता के बारे में भी यही बात कही जाती है कि बंगाल से ही आधुनिकता की पहली लहर का उन्मेष हुआ। स्वतंत्रता का मूल्य बंगाल से ही विकसित हुआ। सामाजिक सुधार, स्वराज्य आंदोलन, भारतीय समाज और साहित्य में आधुनिकता और प्रगतिशील मूल्य बंगाल से ही विकसित हुए और कालांतर में पूरे देश में इसका प्रचार-प्रसार हुआ।
नवजागरण का प्रयोग दुर्गा पूजा:
संयोग से दुर्गा पूजा पर्व की ऐतिहासिकता बंगाल से ही जुड़ी है। आज पूरा देश इसे धूमधाम से मनाता है। दुर्गा पूजा की परंपरा का सूत्रपात यदि बंगाल से हुआ है तो इसका बंगाल के नवजागरण से क्या रिश्ता है? क्योंकि नवजागरण तो आधुनिक आंदोलन की चेतना है, जबकि दुर्गा पूजा ठीक उलट परंपरा का हिस्सा है। पर ग़ौर करने की बात है कि बंगाल दुर्गा पूजा को परंपरा की चीज़ मानकर उसे पिछड़ा या आधुनिकता का निषेध नहींं मानता है। बल्कि दुर्गा पूजा की लोकप्रियता को देखकर आज लगता है, यह भी बंगाल के नवजागरण का एक बहुमूल्य हिस्सा है। बंगाल के आधुनिक जीवन में दुर्गा पूजा की परंपरा का चलन दरअसल आधुनिकता में परंपरा का एक बेहतर प्रयोग है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए को परंपरा में प्रयोग की आधुनिकता है।
बंगाल में आज जो दुर्गा पूजा है वह अपने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ‘‘शक्ति पूजा’’ नाम से प्रचलित है, जैसे महाराष्ट्र के नवजागरण में लोकमान्य तिलक द्वारा प्रतिष्ठित गणेशोत्सव का पर्व और बीसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा चित्रकूट में रामायण मेला की स्थापना। देखा जाए तो तिलक और लोहिया भारतीय स्वराज्य और समाज के प्रखर प्रहरी थे। भारतीय आधुनिकता के विकास के ये दोनों प्रखर प्रवक्ता थे, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर ये दोनों कहीं गहरे स्तर पर पारंपारिक भी थे। तिलक द्वारा प्रतिष्ठापित ‘गणेशोत्सव’ और उत्तर भारत में लोहिया द्वारा ‘रामायण मेला’ का शुभारंभ परंपरा में आधुनिकता की खोज के दुर्लभ उदाहरण हैं।
दुर्गा पूजा बंगाल में आज भी शक्ति पूजा के रूप में प्रचलित है। अगर उसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करें तो आपको कई दिलचस्प परिणाम दिखाई पड़ेंगे। पहला परिणाम तो यह निकलता है कि बंगाल की सांस्कृतिक जड़ें अत्यंत गहरी और अपनी आस्थाओं के प्रति बेहद सचेत भी हैं। बंगाल एक छोर पर बेहद आधुनिक है तो दूसरे छोर पर अत्यंत पारंपारिक, अपनी सांस्कृतिक चेतना की विरासत के प्रति सचेत है। बंगाल में शक्ति पूजा का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। शक्ति पूजा की प्रतीक देवी अपने चमचमाते खड्गशस्त्र से महिषासुर का संहार कर महिषासुरमर्दिनी कहलाई। त्रिमंग देवी दुर्गा शक्ति की अधिष्ठाती है। उनके साथ पद्महस्ता लक्ष्मी, वाणी पाणि सरस्वती, मूषक वाहन गणेश और मयूर वाहक कार्तिकेय विराजमान हैं।
ये जितनी मूर्तियाँ हैं, सब हमारे जीवन में सामाजिक न्याय की प्रतीक हैं। महिषासुर यदि अन्याय, अत्याचार और पापाचार का प्रतीक है तो दुर्गा शक्ति, न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की प्रतीक है। उसकी आँखों में सिर्फकरुणा और दया के आँसू ही नहींं बहते, बल्कि क्रोध के स्फुलिंग भी छिटकते हैं। यह आकस्मिक नहींं है कि सन 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अचूक राजनीतिक बुद्धिमत्ता को देखकर अटल बिहारी वायपेयी ने उन्हें दूसरी दुर्गा कहा था। यह ‘दुर्गा’ कोई सांस्कृतिक मिथ नहींं, बल्कि हर औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का एक धधकता लावा है। भारतीय स्त्री की छवि में एक ओर देवदासी का असहाय चेहरा कौंधता है तो दूसरी तरफ़ उसकी आँखों में दुर्गा का शक्तिशाली तेवर भी चमकता है। दुर्गा जैसी महास्त्री जिसे हमारे लोक जीवन और सांस्कृतिक जीवन में ‘देवी’ कहा जाता है, दरअसल अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक हस्तक्षेप का प्रतीक है। दुर्गा के सान्निध्य में आसन ग्रहण करती हुई देवियाँ लक्ष्मी, सरस्वती, धन और विद्या की प्रतीक हैं। गणेश हमेशा से विघ्न का विनाश करनेवाले एक शुभ देवता हैं, जबकि कार्तिकेय जीवन में विनय और सृजन के प्रतीक हैं। इनकी उपस्थिति से ही सामाजिक सृजन संभव है।
स्त्री के स्वाभिमान की पूजा:
दुर्गा पूजा सिर्फ़ मिथ की पूजा नहींं, बल्कि स्त्री की ताकत, सामर्थ्य और उसके स्वाभिमान की एक सार्वजनिक ‘पूजा’ है। आज दुर्गा पूजा के निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है। नारी आज भी शक्ति है और जो उसपर अत्याचार करेगा उसका विनाश निश्चित है।
मूर्ति निर्माण का परंपरा:
दुर्गा पूजा के इतिहास पर ग़ौर करें। बंगाल में दुर्गा पूजा कब से शुरू हुई, इस पर इतिहास के विद्वानों के अनेक मत हैं, फिर भी इस तथ्य से लोकमानस और विद्वान एक मत हैं कि सन 1790 में पहली बार कलकत्ता के पास हुगली के बारह ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरुआत की। इतिहासकारों का मानना है कि बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की शुरुआत ग्यारहवीं शताब्दी में शुरू हुई थी। आज बंगाल सहित पूरे देश में सांस्कृतिक वैभव के इस पर्व को जनजीवन में प्रतिष्ठान करने का श्रेय सन 1583 ई. में ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता है। कहा जाता है कि वह दुर्गा पूजा के इतिहास की पहली विशाल पूजा थी।
पहले की दुर्गा पूजा में सिर्फ मूर्ति के रूप में दुर्गा महिषासुर का वध करती नहींं दीखती थी, बल्कि पूजा की आखिरी पेशकश पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया जाता था लेकिन बाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। आज हमारे लोक जीवन में दुर्गा की पूजा करने में लोगों का यकीन उतना नहींं रह गया है, जितना उसकी झाँकी देखने में है। दुर्गा की प्रतिमाएँ कलात्मक प्रतिमान हैं, स्त्री सौंदर्य का प्रदर्शन नहींं है।
दुर्गा पूजा मनाने का सही मतलब तो यही है कि समाज में स्त्री को लेकर किसी तरह के दिखावे, छलावे और शोषण के लिए लोक मानस में स्थान नहींं होना चाहिए।
‘‘दुर्गा-पूजा’’ पर्व हमारे सामने हर साल एक नई चुनौती के रूप में आता है। प्रश्न उससे प्रेरणा लेने का है। मात्र पूजा की झाँकी देखने का नहींं।
नवरात्री पूरे देश के लिए आनंद मनाने का समय होता है और यह भारत के सबसे बड़े त्योहारों में से एक है। माँ दुर्गा के आह्वान् करने का यह समय होता है। नौ दिनों का यह उत्सव दशहरा या विजयादशमी के साथ खत्म होता है और इसको बहुत पवित्र और मंगलदायी माना जाता है, इसलिए लोग बहुत ही श्रद्धास्वरूप इसको मनाते है। यह आश्विन महीने के अमवस्या के दूसरे दिन से नवें दिन तक चलता है। यह अंग्रेजी महीने के सितम्बर/ अक्टूबर महीने में पड़ता है।
इस पूरे नौ दिनों तक भक्तगण मंत्रों का उच्चारण करते हैं, गाना या भजन गाते हैं ताकि देवी उनके भक्ति से प्रसन्न हो। नवरात्री के समय उपवास रखना पवित्र माना जाता है। इस त्योहार को मनाने के समय, इन नौ दिनों तक बहुत सारी पूजा की जाती है। यह त्योहार भी अन्य हिन्दु त्योहारों की तरह बुराई के ऊपर अच्छाई के विजय का प्रतीक है। दंतकथाओं के अनुसार नवरात्री देवी दुर्गा को समर्पित किया जाता है, जो नारी शक्ति के दो रूपों का प्रतीक है-एक नरम और रक्षकस्वरूपा और दूसरा प्रचंड और विनाशकारी रूप। इस त्योहार के दौरान तीन दिन एक-एक देवी की पूजा की जाती है, वह है देवी दुर्गा, देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती।
इन नौ दिनों तक अलग- अलग प्रांत में देवी दुर्गा अलग- अलग रूप की पूजा की जाती है:
दुर्गा- देवी जो हमारे पहुँच से बाहर है
भद्रकाली- समय की मंगलदायी शक्ति
अम्बा या जगदम्बा- विश्वमयीमाँ
अन्नपूर्णा- पर्याप्त मात्रा की दानी
सर्वमंगला- सौभग्यशालिनी देवी
भैरवी- भयानक, मृत्युदायिनी
चंद्रिका या चंडी- रूद्ररुपधारिणी
ललिता- आनंदमयी
भवानी- अस्तित्व प्रदान करने वाली
दशहरा के दिन लोग गाड़ी और अस्त्र-शस्त्र की पूजा करते हैं। वे शारदा-पूजन का विमोचन करते हैं। दशहरा खुद के ऊपर विजय प्राप्त करने का प्रतीक माना जाता है। इस समय कोई भी काम शुरू किया जा सकता है, क्योंकि यह समय मंगलदायी माना जाता है, पंचाङ्ग देखने की ज़रूरत नहींं पड़ती है। विद्दार्थीगण, विद्दा की देवी सरस्वती की पूजा करते हैं।
यह उत्सव अपनी कई वर्णिमा में विद्दमान रहता है
भारत के हर राज्य की अपनी-अपनी संस्कृति है, यह त्योहार पूरे भारत वर्ष में अपने-अपने मनोभाव की तरह अलग-अलग तरह से मनाया जाता है।
फसल काटने का त्योहार:
अपने अच्छे फसल के लिए धन्यवादस्वरूप वे इस त्योहार को मनाते है। नवरात्री के पहले दिन, अनाज का दाना घर में मिट्टी में बोया जाता है और रोज पानी डाला जाता है। दंसवे दिन जब अंकुर निकलता है तब देवी को यह अर्पित किया जाता है, जो देवी का आर्शिवाद माना जाता है। यह अच्छे फसल का प्रतीक माना जाता है।
गुजरात का डांडियारास:
मुख्यत: महाराष्ट्र और गुजरात में नवरात्री का सबसे मनोरंजन वाला अंग है डांडिया और गरबा, जो शाम को किया जाता है। यह देवी के सम्मान में किया जाता है। शाम के वक्त लोग एक जगह एकत्र होकर दिल से इस नृत्य को करते हैं। मुम्बई और गुजरात में कई गोष्ठियाँ या दल इसका आयोजन करते है। यह पूरे देश भर में, यहाँ तक भारतीय सम्प्रदायों में यह लोकप्रिय हो गया है जिसमें यू.के. और यू.एस.ए. भी शामिल है।
पश्चिम बंगाल में त्योहार का आनंद
पश्चिम बंगाल में नवरात्री में देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। देवी दुर्गा की पूजा महाषष्ठी से शुरू होती है। देवी का आगमन एक विशेष प्रकार के ड्रम, जिसे ढाक कहते है उसे बजा कर की जाती है। दुर्गापूजा का अभिन्न अंग यह ढाक होता है। इस दिन देवी के मूर्ति का अनावरण किया जाता है। पूजा शुरू होने के पहले कल्पारंभ होता है, उसके बाद बोधन, आमंत्रण और अधिवास होता है। प्राचीन काल से ही नौ तरह के पौधें की पूजा की जाती है। देवी के प्रतीक के रूप में एक साथ इन सबकी पूजा की जाती है।
सप्तमी दुर्गापूजा का पहला दिन होता है। सुबह हजारों लोग पूजा पंडाल में पुष्पाजंली देने के लिए एकत्र होते है। आंठवे दिन (महाअष्टमी) संधिपूजा होता है, जो महाअष्टमी और महानवमी का संधिकाल होता है। इस समय विशेष प्रकार का भोजन दिया जाता है जिसमें, खिचड़ी, मैदे का पूरी, मिक्सड वेजिटेबल का व्यंजन, फ्राई किया हुआ बैंगन, और पायेश दिया जाता है।
संधिपूजा के बाद मूल नवमी पूजा आरंभ होता है। नवमी का भोग भगवान को दिया जाता है। जो बाद में भक्तगण में बाँटा जाता है। दंसवे दिन (दशमी) आंसू के साथ देवी को विदा किया जाता है। सफेद और लाल किनारा वाला साड़ी विवाहित महिलायें पहनकर माँ दुर्गा को सिंदूर पहनाती है, संदेश खिलाती है। प्रतिमा को स्थानीय जगहों में जुलूस में घुमाकर नदी में विसर्जित किया जाता है। विजयादशमी पूरे देश भर में मनाया जाता है।
रामलीला की परम्परा:
दंतकथा के अनुसार, भगवान राम ने देवी दुर्गा की पूजा नौ दिनों तक की थी और दंसवे दिन रावण को मारा था, जो विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। उत्तरी भारत में रामलीला, नौ दिनों तक मनाया जाता है, इन नौ दिनों तक पूरे रामायण को अभिनेताओं द्वारा उस तरह का वेशभूषा पहनकर नाटकीय रूप में चरितार्थ किया जाता है। दशमी के दिन उत्सव का आखिरी दिन होता है। भगवान राम के हाथों राक्षसराज रावण का वध होता है, इसके प्रतीकस्वरूप ड्रम बजाकर पटाखों से बने पुतलाओं को जलाया जाता है।
दक्षिण भारत की दुर्गा पूजा:
दक्षिण भारत के निचले क्षेत्र, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक में वे देवी की मूर्ति बनाते हैं, देवी को वे बोमाई कालु के नाम से पुकारते हैं। नौ या सात स्तरों तक सजाते हैं। किसी भी चीज़ से मूर्ति बना सकते है मगर लकड़ी का बना मूर्ति ज़्यादा पवित्र और मांगलिक (मारबाची) माना जाता है।
नवें दिन विवाहित महिलायें और कुँवारी महिलायें कुमकुम-हल्दी के लिए बुलाती है। हर दिन अलग अनाज का अंकुर जिसे नैवेद्य कहा जाता है, भगवान को दिया जाता है, फिर औरतों में बाँटा जाता है। हर दिन अलग-अलग दाल से मिठाई बनाकर भगवान को दी जाती है। नवें दिन महानवमी को पुस्तक को रेशम के कपड़े में बाँध करके भगवान के सामने रखा जाता है, देवी सरस्वती की पूजा करने के लिए। दशहरा के दिन उस पुस्तक में एक पन्ना लिखकर या पढक़र देवी सरस्वती को श्रद्धाज्ञापन दिया जाता है। मिठाई देवी सरस्वती को प्रदान किया जाता है, उसमें दूध का बना विभिन्न तरह पुडिंग होता है जिसे पायसम कहते हैं।
रंग की संस्कृति:
नवरात्री के नौ दिनों तक विभिन्न रंग का कपड़ा पहनने का रिवाज है। नव अवतार नौ रंगों का प्रतीक है, देवी दुर्गा के नौ रूपों का प्रकटीकरण है। नौ दिनों तक देवी दुर्गा यह नौ रंग पहनेंगी। हर रंग का अपना एक महत्व है। परम्परागत रूप से हर साल रंग बदलता रहता है। लाल रंग सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यह देवी को द्दौतित करता है। विभिन्न योग के ऊर्जा के चक्र के रूप में हर एक अपना महत्व है।
महाभोज और उपवास का समय:
नवरात्री उपवास का समय होता है। कुछ लोग नव दिनों तक उपवास रहते हैं मगर कुछ लोग सांतवें और आठंवें दिन ही उपवास करते हैं। नवें दिन देवी को दिए भोग को खाकर उपवास तोड़ते हैं। नवरात्री के दौरान देवी को विभिन्न तरह का भोग दिया जाता है, हर दिन अलग-अलग तरह का भोग होता है।
* पहले दिन उपवास शुरू होता है, माँ शैलपुत्री के चरण में घी दिया जाता है। भक्त को व्याधि रहित जीवन का आर्शिवाद प्राप्त होता है।
* दूसरे दिन देवी ब्रह्मचारिणी को चीनी भोगस्वरूप दिया जाता है। परिवारजन के लंबे उम्र के लिए यह भोग दिया जाता है।
* तीसरे दिन, दूध, दूध से बनी मिठाई, खीर भोगस्वरूप माँ चंद्रघंटा को दिया जाता है। हर दुख से मुक्ति प्राप्त करने के लिए और जीवन में आनंद का आगमन करने के लिए यह भोग दिया जाता है।
* चौथे दिन नवरात्री को माँ कुशमांडा की पूजा की जाती है। देवी को भोग में मालपुआ दिया जाता है ताकि देवी भक्तगण को खुश होकर बुद्धि और ज्ञान प्रदान करें।
* माता स्कंधमाता नवरात्री के पांचवे दिन पूजी जाती है। शारीरिक स्वास्थ्य के लाभ के लिए देवी को केला भोगस्वरूप दिया जाता है।
* छठे दिन, माँ कात्यायनी को भोगस्वरूप शहद दिया जाता है। जिससे भक्त ज़्यादा आकर्षक लगे।
* सांतवे दिन, पूरे दिन उपवास के बाद माता कालरात्री को गुड़ भोग में दिया जाता है। इससे देवी भक्त के हर दर्द को हर लेंगी।
* दुर्गा अष्टमी के दिन, माता महागौरी की पूजा की जाती है। भोग में इस दिन नारियल दिया जाता है।
* नवें दिन देवी सिद्धिदात्री को तिल भोग में दिया जाता है। यह माना जाता है देवी भक्त के मृत्यु भय को दूर करती है। दुर्घटना से देवी बचाती है।
उपवास के दौरान भोज:
उपवास के दौरान लोग बहुत सारी चीजें बनाते हैं, लेकिन पूजा के नियम के अनुसार यह पहले से तय रहता है कि किस तरह का विशुद्ध खाना बनाना है और क्या नहींं। खाना बिल्कुल शाकाहारी होना चाहिए, फल, दूध, आलू और दूसरे जड़ वाले सब्जी होने चाहिए। विशेष प्रकार के सामग्रियों का इस्तेमाल नवरात्री के व्यंजन बनाने में होता है। मसालों का इस्तेमाल कम होता है, लाल मिर्च, हल्दी और जीरा का इस्तेमाल कम होता है और नमक के जगह पर सेंधा नमक का इस्तेमाल होता है। प्याज और लहसुन का इस्तेमाल बिल्कुल नहींं होता है। दूध, दही, फल और नट खा सकते हैं।
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असत्य पर सत्य की जीत विजयादशमी

हर तरफ फैले भ्रष्टाचार और अन्याय रूपी अंधकार को देखकर मन में हमेशा उस उजाले की चाह रहती है जो इस अंधकार को मिटाए। कहीं से भी कोई आस ना मिलने के बाद हमें हमारी संस्कृति के ही कुछ पन्नों से आगे बढऩे की उम्मीद मिलती है। हम सबने रामायण को किसी ना किसी रूप में सुना, देखा और पढ़ा ही होगा। रामायण हमें यह सीख देता है कि चाहे असत्य और बुरी ताकतें कितनी भी ज्यादा हो जाएं, पर अच्छाई के सामने उनका वजूद एक ना एक दिन मिट ही जाता है। अंधकार के इस मार से मानव ही नहींं भगवान भी पीडि़त होते हैं। सच और अच्छाई ने हमेशा सही व्यक्ति का साथ दिया है।
अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरे का आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है, इसीलिए इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पाप यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।
राम और रावण की कथा तो हम सब जानते ही हैं जिसमें राम को भगवान विष्णु का एक अवतार बताया गया है। राम महान राजा दशरथ के पुत्र थे और पिता के वचन के कारण उन्होंने 14 साल का वनवास सहर्ष स्वीकार किया था। लेकिन वनवास के दौरान ही रावण नामक एक राक्षस ने भगवान राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया था। अपनी पत्नी को असुर रावण से छुड़ाने और इस संसार को रावण के अत्याचार से मुक्त कराने के लिए राम ने रावण के साथ दस दिनों तक युद्ध किया था और दसवें दिन रावण के अंत के साथ इस युद्ध को समाप्त कर दिया था। वह चाहते तो अपनी शक्तियों से सीता को छुड़ा सकते थे लेकिन मानव जाति को यह पाठ पढ़ाने के लिए कि ‘‘हमेशा बुराई अच्छाई से नीचे रहती है और चाहे अंधेरा कितना भी घना क्यूं न हो एक दिन मिट ही जाता है।’’ उन्होंने मानव योनि में जन्म लिया और एक आदर्श प्रस्तुत किया।
दशहरा भारत के उन त्यौहारों में से है जिसकी धूम देखते ही बनती है। बड़े-बड़े पुतले और झांकियां इस त्यौहार को रंगा-रंग बना देती हैं। रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतलों के रूप में लोग बुरी ताकतों को जलाने का प्रण लेते हैं। आज दशहरे का मेला छोटा होता जा रहा है लेकिन दशहरा आज भी लोगों के दिलों में भक्तिभाव को ज्वलंत कर रहा है।
दुर्गा पूजा:
विजयदशमी को देश के हर हिस्से में मनाया जाता है। बंगाल में इसे नारी शक्ति की उपासना और माता दुर्गा की पूजा अर्चना के लिए श्रेष्ठ समयों में से एक माना जाता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए मशहूर बंगाल में दशहरा का मतलब है दुर्गा पूजा। बंगाली लोग पांच दिनों तक माता की पूजा-अर्चना करते हैं जिसमें चार दिनों का अलग महत्व होता है। ये चार दिन पूजा के सातवें, आठवें, नौवें और दसवें दिन होते हैं जिन्हें क्रमश: सप्तमी, अष्टमी, नौवीं और दसमी के नामों से जाना जाता है। दसवें दिन प्रतिमाओं की भव्य झांकियां निकाली जाती हैं और उनका विसर्जन पवित्र गंगा में किया जाता है। गली-गली में मां दुर्गा की बड़ी-बड़ी प्रतिमाओं को राक्षस महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है।
देश के अन्य शहरों में भी हमें दशहरे की धूम देखने को मिलती है। गुजरात में जहां गरबा की धूम रहती है तो कुल्लू का दशहरा पर्व भी देखने योग्य रहता है। बस्तर का दशहरा भी देश में खासा प्रसिद्ध है।
दशहरे के दिन हम तीन पुतलों को जलाकर बरसों से चली आ रही परपंरा को तो निभा देते हैं लेकिन हम अपने मन से झूठ, कपट और छल को नहीं निकाल पाते। हमें दशहरे के असली संदेश को अपने जीवन में भी अमल में लाना होगा तभी यह त्यौहार सार्थक बन पाएगा।
दशेंद्रियों पर विजय:
वैदिक परम्परा में जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण अज्ञान से बाहर निकल कर ज्ञान प्राप्ति अथवा मुक्ति का क्षण माना गया है। दशहरा का अर्थ है, वह पर्व जो दसों प्रकार के पापों को हर ले। इस दिन को विजय दशमी का दिन भी स्वीकार किया गया है। एक मान्यता के अनुसार आश्विन-शुक्ल-दशमी को तारा उदय होने के समय ‘विजय’ नामक काल होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। यह वह क्षण है जब दशेंद्रियों पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर मानव जीवन की सीमाओं का उल्लंघन कर ज्ञान प्राप्त करता है। इसीलिए दशहरे के पर्व को ‘सीमोल्लंघन’ के नाम से भी पुकारा जाता है। पूर्वी भारत में यह ‘बिजोया’ नव वर्ष की भाँति उल्लास से नवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। यहाँ इसे मां भगवती की महिषासुर पर विजय का प्रतीक माना जाता है।
विजयदशमी का त्योहार वर्षा ऋतु की समाप्ति तथा शरद के आगमन की सूचना देता है। ब्राह्मण इस दिन सरस्वती का पूजन करते हैं जबकि क्षत्रिय शास्त्रों की पूजा करते हैं। अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में यह त्योहार सदियों से भारत के कोने कोने में मनाया जाता है। यह अधर्म पर धर्म की विजय का द्योतक माना गया और दशमी के इस दिन को विजय दशमी के रूप में मनाया जाने लगा।
एक अन्य कथा के अनुसार परशुराम की माता रेणुका ने शापग्रस्त देवताओं के आग्रह पर उनके कुष्ठ रोग दूर करने के लिए अपने पति ‘भृगु’ की आज्ञा के बिना नौ दिन तक देवताओं की सेवा की फलत: दसवें दिन उनका कोढ़ दूर हो गया। शाप मुक्त होने के कारण देवताओं ने यह दिवस दु:ख मुक्ति अथवा विजय दिवस के रूप में मनाया। इस दिन आश्विन-शुक्ल दशमी थी अत: तभी से यह दिन विजय दशमी के रूप में मनाया जाने लगा। इसी प्रकार इस दिन को नरकासुर राक्षस के वध के साथ भी जोड़ा जाता है। कहते हैं कि नरकासुर ने अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए 1600 स्त्रियों की बलि देने का निश्चय किया। उसे वरदान प्राप्त था कि उसका वध केवल नारी द्वारा ही होगा। भगवान श्री कृष्ण ने ‘सत्यभामा’ के हाथों उसका वध करवाया। नरकासुर के हाथों बच जाने के कारण नारियों ने इसे विजय पर्व के रूप में मनाया। चाहे राम ने रावण का संहार किया हो अथवा अर्जुन द्वारा कौरवों पर विजय पाई गई हो, यह दिवस सर्वत्र निर्विवाद अधर्म पर धर्म की जीत के रूप में मनाया जाता है। स्थानीय रीति रिवाजों, वेश भूषाओं और परम्पराओं के कारण इस त्योहार का बाह्य रूप पृथक पृथक हो सकता है परन्तु इसकी भावना एक ही है और वह है ‘‘असत्य पर सत्य की जीत।’’
दशहरा एक प्रतीक पर्व है। राम-रावण के युद्ध में जिस रावण की कल्पना की गई है वह है मन का विकार है और जो विकार रहित हैं वह हैं परम पुरुष राम। सीता आत्मा है जबकि राम स्वयं परमात्मा। आत्मा का अपहरण जब रावण ने किया तो चारों ओर धर्म नष्ट होने लगा, लोग वानरों की भाँति चंचल और उच्छृंखल होने लगे, तब राम ने उनको अर्थात उनके काम-क्रोध-मोह आदि को अनुशासित किया तभी रावण का वध संभव हो पाया। राम और रावण विपरीतार्थ के बोधक हैं। रावण का अर्थ है रुलाने वाला जबकि राम का अभिप्राय है लुभाने वाला। रावण के दस सिर कहे गए हैं। उसका सिर तो एक ही है, शेष- काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर, लोभ, मन, बुद्धि और अहंकार को उसके सिरों के रूप में स्वीकार किया गया है।
राम को दशरथ का पुत्र माना गया है। उपनिषदों में शरीर को रथ कहा गया है। शरीर की दशेन्द्रियों को योगी साधना द्वारा वश में कर सकते हैं। ऐसे संयमी योगी साधक ही होते हैं दशरथ। इस प्रकार राम दशरथी हैं। रावण दशमुखी है, वह ब्राह्मण है। शास्त्र कहते हैं, ‘ब्रह्मं जानाति ब्राह्मण’ जो ब्रह्म को जानता है वही ब्राह्मण है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उच्च आचार विचार द्वारा ब्रह्म को प्राप्त न करके दशग्रन्थों को मुखाग्र कर, दशेंन्द्रियों के पराधीन होकर स्वयं को ब्राह्मण घोषित करना केवल पाखंड ही हैं। ऐसे पाखंडियों को ही रावण कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार, ‘‘रवैतीति रावण’ जो अपने कथित ज्ञान का स्वयं ढोल पीटता है, वही रावण है। यही वृत्ति राक्षसी है। जिस पर नियंत्रण करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम की आवश्यकता होती है। इसी वृत्ति पर विजय प्राप्त करने का त्योहार है विजयदशमी। महाभारत की कथा का भी आशय यही है। वेद व्यास जी ने पाण्डवों के बारह वर्ष के वनवास के बाद एक वर्ष के अज्ञातवास की बात की है। इस का अभिप्राय है कि साधक बारह वर्ष तक साधना की सफलता से इतना अहंकारी न हो जाए कि अपनी साधना का ढिंढोरा पीटने लगे इसलिए साधक को एक वर्ष के अज्ञातवास का प्रावधान किया गया। यहाँ भी दुर्योधन अर्थात् बुरी वृत्तियों वाला तथा बृहन्नला जिसने अपनी बृहत वृत्तियों को संयमित कर रखा है, में परस्पर युद्ध होता है और अच्छी वृत्तियों की विजय होती है।
महाराष्ट्र और उससे लगे भू प्रदेशों में दशहरे के दिन आपटा अथवा शमी वृक्ष की पत्तियाँ अपने परिजनों एवं मित्रों में स्वर्ण के रूप में वितरित करने की प्रथा है। आपटा वृक्ष की पत्तियाँ मध्य से दो समान भागों में विभक्त रहती हैं। यह वृक्ष गाँव की सीमा से बाहर ही होते थे। इस पत्ती को गाँव की सीमा से बाहर जा कर तोडऩा ही सीमोल्लंघन है। यह पत्ती द्वैत वृत्ति पार कर अद्वैतवृत्ति में जा कर दशेंन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का प्रतीक है। इसी प्रकार शमी की पत्तियाँ सुवर्ण मान कर वितरित की जाती हैं। शमी वृक्ष की पत्तियाँ बुद्धि के देवता गणेश जी को अर्पित की जाती हैं। शम् अर्थात् कल्याणकारक। ‘शमीं’ वह कल्याणकारी अवस्था है जो बुद्धि के देवता की शरण में जाने पर प्राप्त होती है। बुद्धि के देवता की शरण में जाने का अर्थ भी दशेन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही है। कई शताब्दीयों से मनाये जाने वाले इस त्योहार को मध्य युगीन राजाओं, महाराजाओं ने नए आयाम दिए, कुल्लू, कोटा, और कर्नाटक में आज भी 15वीं शताब्दी की कई बातों की झलक मिल जाती है। कुमाउँ का दशहरा भी उत्तर भारत में रामायण के पात्रों के पुतलों के कारण काफी चर्चित है।
कुल्लू का दशहरा:
कुल्लू में दशहरा देवताओं के मिलन का मेला मान कर मनाया जाता है। विश्वास किया जाता है कि देवता जमलू ने देवताओं को एक टोकरी में उठा कर किन्नर कैलाश की ओर से कुल्लू पहुँचाया था। तभी से कुल्लू देवताओं की भूमि मानी जाती है और यहाँ पर देवताओं का मिलन प्रति वर्ष होता है। कुल्लू घाटी के प्रत्येक गाँव का अपना ग्राम देवता होता है। प्रत्येक देवता का अपना मेला लगता है। देश के दूसरे भागों में विजय दशमी के समाप्त होते ही आश्विन शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक कुल्लू के ढाल मैदान में सभी देवता सज धज कर, गाजे बाजे के साथ लाये जाते हैं। परम्परागत वेश भूषा में सजे स्त्री पुरुष देवता की सवारी के साथ आते हैं। कुल्लू की घाटी के कण-कण में लोक नृत्य, संगीत और मस्ती भरी हुई है फलत: यह मिलन स्थली विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों के स्वरों एवं लोक नर्तकों की थापों पर थिरक उठती हंै। इन्हीं लोगों के उल्लास भरे नृत्यों एवं रंग बिरंगे परिधानों की छटा ने कुल्लु के दशहरे की महक को विदेशों तक पहुँचा दिया है। अब आधुनिकता का प्रभाव भी इस मेले में दिखाई देने लगा है जिसके फलस्वरूप इसका परम्परागत रूप बदलने लगा है। पहले इस मेले में भाग लेने के लिए तीन सौ पैंसठ देवता कुल्लू आया करते थे अब इनकी संख्या घट कर साठ सत्तर रह गई हैं।
कुल्लू के राजाओं ने इस मेले को वर्षों गरिमा प्रदान की है। देवताओं की मिलन स्थली ढालपुर का नामकरण भी 16वीं शताब्दी में राजा बहादुर सिंह ने अपने छोटे भाई ढाल सिंह के नाम पर किया था। 17वीं शताब्दी में राजा मानसिंह ने इसे व्यावसायिक रूप दिया और कुल्लू दशहरा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का संगम बन गया। हिमालय पर्वत के दुर्गम दर्रे लांघ कर रूस, चीन, लद्दाख, तिब्बत, समरकन्द, यारकन्द और लौहल स्पिति के व्यापारी यहाँ पर ऊन और घोड़ों का व्यापार करने आते थे। आज भी यहाँ दूर दूर से व्यापारी आ कर अच्छा व्यापार करते हैं। इस अवसर पर यहाँ पशु मेलों का भी आयोजन होता है। मेले का मुख्य आकर्षण रघुनाथ जी की यात्रा होती है जिसमें राजपरिवार के सदस्य राजसी वेश भूषा में सम्मिलित होते हैं। इस अवसर पर द्वापर युग की राक्षसी, भीम की पत्नी हिडिंबा की उपस्थिति को अनिवार्य माना जाता है। पांडु पुत्र भीम के संसर्ग से हिडिंबा को मानवी स्वीकार कर लिया गया था। अब मनाली स्थित हिडिंबा मन्दिर में उनकी पूजा एक देवी के रूप में की जाती है।
कुल्लू दशहरे में रघुनाथ जी की यात्रा हिडिंबा की उपस्थिति के बिना नहींं निकल सकती। इसके लिए हिडिंबा देवी को निमंत्रण भेजने का एक विशेष विधान है। मनाली से चल कर देवी कुल्लू के पास रामशिला नामक स्थान पर ठहरती है। यहीं उन्हें राजा की ओर से छड़ी भेज कर बुलावा भेजा जाता है। देवी का धूप जलाने का पात्र स्वयं राजा उठाता है। इस मेले में जहाँ हिडिंबा की उपस्थिति अनिवार्य है वही विश्व के सबसे प्राचीन लोकतंत्र ‘मलाना’ के संस्थापक देवता जमलू तथा कमाद की पराश्र भेखली देवी इसमें शामिल नहींं होते। झाड़-फूस की लंका दहन के साथ दशहरा पूर्ण होता है और रघुनाथ जी की यात्रा वापिस लौटती है। लौटते समय रघुनाथ जी के साथ सीता जी की मूर्ति भी विराजमान कर दी जाती है। यह राम द्वारा लंका से सीता को छुड़ा कर लाने का प्रतीक माना जाता है।
मैसूर का दशहरा:
दक्षिण भारत में कर्नाटक प्रान्त के मैसूर नगर का दशहरा भी अपनी भव्यता और तडक़-भडक़ के लिए विश्व प्रसिद्ध है। कन्नड़ में दशहरे को नांदहप्पा अर्थात राज्य का त्योहार कहा जाता है। 15वीं शताब्दी में मैसूर के लोकप्रिय एवं कलाप्रेमी राजा कृष्णदेव राय ने इस उत्सव को राजकीय प्राश्रय दिया, नवरात्रि उत्सव के अन्तिम दिन राजा हाथी पर सवार हो कर नागरिकों के मध्य जाते और उनके द्वारा सम्मानपूर्वक दिए गये उपहार प्रेम से स्वीकार करते। राजमहल से चल कर राजा की यात्रा नगर सीमा बाहरबली मंडप तक जाती। यहाँ पर दशहरे के साथ महाभारत काल से ही जुड़े शमी वृक्ष की पूजा की जाती और इस वृक्ष की पत्तियों को सुर्वण मान कर परिजनों में वितरित किया जाता है।
शमी वृक्ष के संबंध में विद्वानों का मत है कि पांडवों ने अपने एक वर्ष के अज्ञातवास में इसी वृक्ष पर अपने अस्त्र शस्त्र छिपा कर रखे थे। इस वृक्ष को न्याय, अच्छाई और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। कर्नाटक के निवासियों का मत है कि जिस प्रकार पांडवों ने धर्म की रक्षा की उसी प्रकार से यह वृक्ष उनकी तथा उनके परिजनों की रक्षा करेगा।
इस त्योहार को प्राश्रय देने वाला विजय नगरम राज्य अपने अपार वैभव के लिए विश्व प्रसिद्ध था फलत: राजा की सवारी बहुत ही भव्यता के साथ निकाली जाती थी। आजकल जुलूस में राजा का स्थान महिषासुरमर्दिनी चांमुडेश्वरी देवी की प्रतिमा ने ले लिया है। चामुंडेश्वरी देवी का मन्दिर मैसूर महल से थोड़ी ही दूर एक सुन्दर पहाड़ी पर बना हुआ है।
मैसूर में दशहरे के अवसर पर एक विशाल प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। इसमें देश भर से व्यापारी पहुँचते हैं। राज्य के महत्वपूर्ण कला-शिल्प यहाँ पूरी सज-धज के साथ रखे जाते हैं। चन्दन की लकड़ी से बनी कलाकृतियाँ, अगरबत्तियों और रेशमी साडिय़ों के लिए लोग इस उत्सव की वर्ष भर प्रतीक्षा करते हैं। सांस्कृतिक गतिविधियों की चहल पहल से भरे वातावरण में मैसूर का राजमहल जब विद्युत के प्रकाश से जगमगाता है तो उसकी छटा देखते ही बनती है।
राजस्थान का दशहरा:
कुल्लू और कर्नाटक की ही भाँति कोटा, राजस्थान का दशहरा भी पिछले पांच सौ वर्ष से हडौती संभाग की जनता के लिए आकर्षक का केन्द्र बना हुआ है। उत्तर भारत का यह सबसे प्राचीन दशहरा माना जाता है। कोटा के महाराजा इसे शक्ति पर्व के रूप में मनाते आये हैं। 15वीं शताब्दी में राव नारायण दास ने मालवा सुल्तान महमूद को परास्त करने के उपलक्ष में इसे प्रारम्भ किया था। कोटा में दशहरा का प्रारम्भ आश्विन मास से शक्तिपर्व मनाने से होता है और इसका समापन विजय पर्व के रूप में विजय दशमी के दिन राजाओं द्वारा प्राश्रय प्राप्त यह मेला 1995 से स्थानीय नगर परिषद् द्वारा आयोजित किया जाता है। गत पांच सौ वर्षों में इस मेले के रंग रूप में समयानुकूल परिवर्तन होते रहे हैं।
1579 में कोटा राज्य की स्थापना के साथ राव माधे सिंह ने यहाँ लंका पुरी का निर्माण कराया और पुतलों के स्थान पर मिट्टी के रावण-वध की प्रथा डाली। स्वतंत्रता प्राप्ति तक यहाँ 15.20 फुट ऊंचे रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के मिट्टी के पुतले बनाये जाते थे। उनके गले में बंधी जंजीर को खींच कर राजदरबार का शाही हाथी उनका वध करता था। 1771 मेंजब महाराव उम्मेद सिंह गद्दी पर बैठे तो उन्होंने इस उत्सव के सार्वजनिक रूप को निखारा।
नवरात्रि से पहले ही दिन दशहरा शुरू करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा डाड़ देवी, अन्नपूर्णा, काल भैरव, आशापुरा और बाला जी जैसे क्षेत्र के प्रतिष्ठित मन्दिरों में पूजा की जाती थी। कोटा नरेश सज-धज के साथ हाथी की सवारी करके रावण वध के लिए निकलते थे। लंका क्षेत्र और गढ़ की बुर्जियों पर रखीं तोपें दागी जाती थीं। कोटा नरेश स्वयं लंका पुरी में प्रवेश करके रावण वध करते थे। आज इस मेले में आकर्षण को बनाये रखने के लिए नगर पालिका अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करती है। 20 दिन तक लगने वाले इस मेले में देर रात तक रौनक रहती है। मेला स्थल पर स्थाई रूप सेपक्की दुकानें बना दी गई हैं और मेले में भाग लेने के लिए आए व्यापारियों को चुंगी कर से मुक्त रखा गया है।
मेले की अनेक पुरानी परम्पराएं समाप्त होती जा रहीं है फिर भी अभी तक भगवान बृजनाथ की शोभा यात्रा निकाली जाती है। राजा के स्थान पर अब भगवान लक्ष्मी नारायण रावण की नाभि को लक्ष्य करके तीर चलाते हैं और कागज के पुतलों में आग लगा दी जाती है। मैसूर और कुल्लू दशहरों का आकर्षण आज भी बना हुआ है जबकि कोटा दशहरा अपना आकर्षण खोता जा रहा है।
कुमाऊं का दशहरा:
कुमाऊं क्षेत्र में अल्मोड़ा के लोगों में दशहरा पुतलों के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। अल्मोड़ा के आस पास के ग्रामीण क्षेत्रों के लोग रामायण के राक्षसी पात्रों के विशाल पुतले बनाते हैं। यह सुनिश्चित किया जाता है कि एक ही पात्र के दो पुतले न बनें। सभी धर्मों के लोग मिल जुल कर पूरे उत्साह के साथ इन पुतलों का निर्माण करते हैं। इन पुतलों का जुलूस निकाला जाता है और लोग उनके विरूद्ध नारे लगाते हैं। चौधान में ला कर सभी पुतलों के कीमती वस्त्र और आभूषण उतार कर उन्हें जला दिया जाता है। इस उत्सव में स्थानीय लोगों का उत्साह देखते ही बनता है।
बस्तर का दशहरा:
बस्तर के दशहरे को ले कर आम लोगों की उत्सुकता बेवजह नहींं है। बस्तर का दशहरा वाकई खास और शेष देश के दशहरों से अलग होता है। यह पर्व एक, दो या तीन दिन नहींं, बल्कि पूरे 75 दिन मनाया जाता है। तय है कि यह दुनिया का सब से ज्यादा अवधि तक मनाया जाने वाला त्योहार है जिस की शुरुआत सावन के महीने की हरियाली अमावस से होती है। बस्तर के दशहरे की दूसरी खासीयत यह है कि बस्तर में गैर पौराणिक देवी की पूजा होती है। आदिवासी लोग शक्ति के उपासक होते हैं। सच जो भी हो, इन विरोधाभासों से परे बस्तर के आदिवासी हरियाली अमावस के दिन लकडिय़ां ढो कर लाते हैं और बस्तर में तयशुदा जगह पर इक_ा करते हैं। इसे स्थानीय लोग पाट यात्रा कहते हैं। बस्तर कभी घने जंगलों के लिए जाना जाता था, आज भी उस की यह पहचान कायम है और सागौन व टीक जैसी कीमती लकडिय़ों की यहां इतनी भरमार है कि हर एक आदिवासी को करोड़पति कहने में हर्ज नहींं। इस त्योहार पर 8पहियों वाला रथ आकर्षण का केंद्र होता है।
75 दिन रुकरुक कर दर्जनभर क्रियाकलापों के बाद दशहरे के दिन आदिवासियों की भीड़ पूरे बस्तर को गुलजार कर देती है। इस दिन आदिवासी अपने पूरे रंग में रंगे, नाचते, गाते और मस्ती करते हैं। वे तमाम वर्जनाओं से दूर रहते हैं। उन्हें देख समझ में आता है कि आदिवासियों को क्यों सरल व सहज कहा जाता है। त्योहार के अवसर पर यहां 11 बकरों की बलि देने और शराब खरीदने के लिए भी पैसा जमा होता है। मदिरा सेवन के अलावा इस दिन मांस, मछली, अंडा, मुरगा वगैरह खाया जाना आम है। दूरदराज से आए आदिवासी अपने साथ नारियल जरूर लाते हैं। दशहरे के आकर्षण के कारण इस दिन पूरे जगदलपुर में आदिवासी ही दिखते हैं और शाम होते ही वे परंपरागत तरीके से नाचगाने और मेले की खरीदारी में व्यस्त हो जाते हैं।
इसलिए हो रहा मशहूर:
आदिवासी जीवन में दिलचस्पी रखने वाले लोग यों तो सालभर बस्तर आते रहते हैं पर उन में ज्यादातर संख्या इतिहास के छात्रों और शोधार्थियों की होती है। लेकिन बीते 3-4 सालों से आमलोग पर्यटक के रूप में यहां आने लगे हैं। बस्तर के दशहरे की खासीयत को रूबरू देखने का मौका न चूकने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है तो इस का एक बड़ा श्रेय छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल को जाता है जिस ने बस्तर के दशहरे को एक ब्रैंड सा बना दिया है। बस्तर आ कर ही पता चलता है कि प्रकृति की मेहरबानी सब से ज्यादा यहीं बरसी है। चारों तरफ सीना ताने झूमते घने जंगल, तरहतरह के पशुपक्षी, जगहजगह झरते छोटेबड़े झरने और चट्टानें देख लोग भूल जाते हैं कि बाहर हर कहीं भीड़ है, इमारतें और वाहन हैं कि चलना और सांस लेना तक दूभर हो जाता है। यहां आ कर जो ताजगी मिलती है वह वाकई अनमोल व दुर्लभ है।
बस्तर जाने के लिए अब रायपुर से लग्जरी बसें भी चलने लगी हैं और टैक्सियां भी आसानी से मिल जाती हैं। उत्सव के दिनों में पर्यटकों की आवाजाही बढऩे से यहां पर्यटन एक नए रूप में विकसित हो रहा है। वैसे भी, पर्यटन का यह वह दौर है जिस में पर्यटक कुछ नया चाहते हैं, रोमांच चाहते हैं और ठहरने के लिए सुविधाजनक होटल भी, जो छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल ने यहां बना रखा है। दशहरा उत्सव के दौरान यानी अक्टूबर-नवंबर में बस्तर का मौसम अनुकूल होता है। अप्रैल-मई की भीषण गरमी तो यहां बस गए बाहरी और नौकरीपेशा लोग भी बरदाश्त नहींं कर पाते। इसलिए भी दशहरा देखने के लिए भीड़ उमड़ती है। दशहरे के बहाने पूरे छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी जनजीवन, रीतिरिवाजों, रहनसहन और संस्कृति से बखूबी परिचय भी होता है।
इस प्रकार भारत के प्रत्येक क्षेत्र में धूम धाम के साथ अधर्म पर धर्म की विजय का यह पर्व लोगों के उत्साह में वृद्धि करता है और एक विजय दशमी के सम्पूर्ण होते ही लोग अगले वर्ष की प्रतीक्षा करने लगते हैं।
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अचानक धनी बनने के योग

लोग अचानक धनी बनने का ख्वाब पाल लेते हैं। उनमें बिना अधिक श्रम किए समृद्ध होने की लालसा इतनी प्रबल होती है कि वे सट्टा, लाटरी, कमोडिटी या फिर शेयर मार्केट की ओर झुक जाते हैं। इसमें से अधिकांश के साथ हालत ये तक हो जाती है कि वे अपनी पूरी जमा-पूंजी, चल-अचल संपत्ति बेच-बाच कर सारा धन अपनी इच्छा पूर्ति के लिए लगा देते हैं। और ज्यादातर मामलों में परिणाम मनोनुकूल नहींं मिल पाता है। अधिकांश इस शौक के पीछे बर्बाद तक हो जाते हैं वहीं कुछ ऐसे भी कमजोर दिल वाले होते हैं, जिनको आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता सूझता नहींं है। कुछ उन चुनिंदा लोगों को भारी लाभ भी लेते पाया, जिन्होंने शेयर, सट्टा, लाटरी अथवा कमोडिटी आदि अनिश्चित धन लाभ संयोगों में ज्योतिषीय फलादेश के अनुसार निवेश का साहस किया। किंतु जिन्होंने पूर्णतया अपने ज्ञान, अनुभव के आधार ऐसा जोखिम उठा लिया, किस्मत उनके साथ नहींं रही परिणामत: उन्हें भारी हानि से रूबरू होना पड़ा।
हमें उन ज्योतिषीय कारणों को जरूर जानना चाहिए, जिससे एक अनाड़ी और नौसिखिया इंसान भी अगर शेयर मार्केट आदि जैसे अस्थिर व अनिश्चित संभावना वाले माध्यमों से लाभ कमाने उतरता है तो उसे भारी लाभ मिल जाता है, जबकि एक पूर्ण प्रशिक्षित एनालिस्ट की राय भी फेल साबित हो जाती है। वस्तुत: हमें एक बात भली-भांति जाननी चाहिए कि सट्टा, लाटरी, अथवा शेयर मार्केट से लाभ-हानि केवल बाजार के अनुसार नहींं चलता वरन इसका अधिक संबंध व्यक्ति विशेष की किस्मत से है। यदि किसी जातक की कुण्डली में धनेश-एकादशेश, लग्नेश, चतुर्थेश, पंचमेश, भाग्येश यानि नवमेश की स्थिति मजबूत हो, तो वह जीवन भर ऐसे अप्रत्याशित लाभ की प्रत्याशा अवश्य कर सकता है।
ध्यान रहे कि लग्नेश, धनेश, एकादशेश नवमेश, दशमेश अथवा चतुर्थेश व पंचमेश की दशा-अंतरदशा चल रही हो, संबंधित स्वामियों की स्थिति मजबूत हो, ग्रह उच्च के हों, गोचर की सिचुएशन अच्छी हो, साढ़ेसाती या ढैया की स्थिति न हो, क्रूर व पापी ग्रहों का संयोग न उपस्थित हो या फिर चंद्रमा बली हो तो ऐसी कुण्डली वाला जातक सट्टा-लाटरी-शेयर मार्केट आदि में बहुत धन अर्जित करने में सफल रहता है। इसके अलावा सट्टा–लाटरी-शेयर आदि में लाभ कमाने की अच्छी अनुकूल परिस्थिति तब बनती है जबकि जातक की जन्म कुण्डली में अष्टम भाव बेहद मजबूत हो। इस दशा में एक और बात काबिल-ए-गौर है कि ऐसा मजबूत अष्टम भाव वाला जातक विरासती संपत्ति का भी दावेदार बनता है।
हमारी कोशिश ये होगी कि अगले कुछ आलेखों में हम इस विषय को कुछ अधिक गहराई से उठाएं ताकि जो जातक ऐसे अनिश्चित लाभ की संभावना वाले क्षेत्रों से धनार्जन करना चाहते हैं, उन्हें इसका वास्तविक फायदा मिल सके।
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Saturday, 19 December 2015

भृगुकालेंद्र पूजन से लायें बच्चों में अनुशासन एवं आज्ञापालन-


आज की युवा पीढ़ी को प्रदान की जा रही सुविधाओं के सद्पयोग के बजाय उनका दुरूपयोग कर ये बच्चे भटकाव की दिषा में अग्रसर होती जा रही है। बहुत अच्छा प्रदर्षन करने वाला अचानक अपने एजुकेषन में गिरावट ले आता है, घर तक सीमित रहने वाला बच्चा दोस्तों तथा बाहरी दुनिया में रहना चाहता है। माॅ की बातें लेक्चर लगती है तथा लगातार रोकटोक को बरदास्त नहीं करता, विरोध स्वरूप बाहर रहने का प्रयास करता है। पिता के सामने आने से बचना चाहता है। विभिन्न प्रकार के शौक शुरू हो गए हों अथवा मोबाईल या कम्प्यूटर की लत लग जाए तथा इससे कैरियर में तो प्रभाव पड़ता ही है साथ ही मनोबल भी प्रभावित होता है। ऐसी स्थिति दिखाई दे तथा बच्चा आपके लिए परेशानी का सबब बनने लगे तो सर्वप्रथम व्यवहार तथा अपने दैनिक रूटिन पर नजर डालें। इसमें क्या अंतर आया है, उसका निरीक्षण करने के साथ ही अपनी कुंडली किसी विद्धान ज्योतिष से दिखा कर यह पता करें कि क्या कुंडली में राहु या शुक्र प्रभावकारी है। यदि कुंडली में राहु या शुक्र दूसरे, तीसरे, अष्टम या भाग्यस्थान में हो साथ ही इनकी दषा, अंतरदषा या प्रत्यंतरदषा चल रही हो तो गणित या फिजिक्स जैसे विषय की पढ़ाई प्रभावित होती है साथ ही ऐसे लोगों के जीवन में कल्पनाषक्ति प्रधान हो जाती है। पहली उम्र का असर उस के साथ ही राहु शुक्र का प्रभावकारी होना एजुकेषन या कैरियर में बाधक हो सकता है। यदि इस प्रकार की बाधा दिखाइ्र दे तो शांति के लिए भृगु-कालेंद्र पूजन के साथ काउंसिलिंग कराने से कैरियर की बाधाएॅ समाप्त होकर अच्छी सफलता प्राप्त की जा सकती है।
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Nabhas yoga

There are 32 main Nabhasa Yogas, which are classified in four categories.
The word Nabhasa means the sky. As such, the Yogas are formed in the sky with the help of all the three constituents, namely all the seven planets (excluding Rahu and Ketu), all the 12 signs and the 12 houses (including all shodhas vargas - 16 divisional charts), are called the Nabhasa Yogas. In these Yogas, all seven planets participate simultaneously. Each nativity will have at least one yoga out of 32 main Nabhasa Yogas.
The main question which arises is that why are only seven planets are considered and Rahu and Ketu are excluded ? There are fundamental reasons for excluding these two Chhaya Grahas (nodes of the moon). This aspect needs to be examined in some detail as it contains the key to understand the purpose and utility of the Nabhasa Yogas .
The Jeeva or the individual soul or self is in reality Pursha , who operates in this world through the causal, subtle and gross (physical) body. The causal body is the combination of soul and the mind (manah) - the sun and the Moon. This represents the creative principle in the Universe .The causal body is constituted of mere desires (Vasanas). Therefore this body is the seed of one's personality in the unmanifested form. The causal body manifests and functions itself as the subtle (astral) body (the linga sareer), which operates with the help of five senses of perception represented by Mars, Mercury, Jupiter, Venus and Saturn. In other words, the subtle body is composed of feelings, emotions and thoughts generated on account of accumulated Vasanas from past births. Thus, the linga sareera represents the personality of an individual. This personality functions through the Gross body.
Nabhasa Yogas indicate basic traits and personality represented by the subtle body. The subtle body is like a sapling. It can be made to grow any way one likes. Similarly, the indications given by Nabhasa Yogas can be changed, modified or molded into any direction based on the vibration generated by the placement of Rahu and Ketu along with other Yogas in the nativity operating from time to time. The causal and subtle body operates through the Gross body. The gross body is like fully grown tree, which cannot be modified. As much, you can change or modify your feeling, emotions and thoughts manifesting in the Gross body, if you can control at the level of the subtle body, which supports the Gross body. Thus, Nabhasa Yogas contain and provide basic information that ultimately helps the individual to operate and use his own free will for the improvement of his lot.
Parasara narrated 32 Nabhasa Yogas. These are divided in four categories; there (3) are called Ashraya Yoga, two (2) Dala Yogas, twenty (20) Akriti Yoga and 7 (seven) Sankhya Yogas. These 32 Nabhasa Yogas again have 1800 different varieties (sub-divisions).
These numbers-32 and 1800 are of mystic nature as they represent subtle body (and not the gross body). The soul is immortal and never changes, it is the manah- mind that is responsible for the cycle of Birth and death, creation and destruction.
The Moon returns to the same point in the Zodiac in about 18.60 years, (which is the sidereal the period of Rahu and Ketu). If 32 is divided by number 1800, the remainder will always be 14. The number 14 represents 14 bhuvans(mansions) in which soul reappears as jeeva to exhaust his accumulated karma . Therefore, these numbers indicate the universal and immortal cycle of Karma.

Importance of nakshatras

Naksha" is "map" and "tara" is "star" and so Nakshatra is "Star Map." In the eyes of the ancient Vedic (Indian) seers the 27 Nakshatras (constellations) map the sky. 'Nakshatras' is the name given to the constellations or mansions of the Moon, as the Moon resides in each of these constellations for one day.
Predictive technique Based on a person's moon Nakshatra at the time of birth, is most accurate as compared to other forms of astrology.
The Nakshatras are classified in various ways, according to basic attribute, primary motivation (Kama - sensual desires; Artha - material desires; Dharma - living life based on spiritual principles; Moksha - liberation from birth and death).
In Vedic astrology, for exploring the personality traits the birth star (Nakshatra of the Moon) is taken under consideration primarily. Nakshatra positions of planets are examined in the birth chart as well. The use of Nakshatra is most important in Vedic astrology.
Indian seers say that the Nakshatras represent the abodes into which the fruits of our labor (our Karma) is transferred and stored. The Nakshatras dispense the fruits of Karma, the highest of which is the fruit of our worship and meditation, our spiritual labor of life.
Vedic astrology uses a system of planetary periods called Dasha (Major Period) of various planets based on the Moon Nakshatra at the time of birth. Most important is Vimshottari Dasha, a 120-year-long cycle of planetary positions based upon the birth Nakshatra, stars. The planetary periods of Vedic astrology provide an easy and comprehensive system for judging the effects of planets throughout out our lives. The planetary periods are the most accurate system of how the planets distribute their effects through time and different stages of our lives. The major seven planets plus two lunar nodes are assigned periods ranging from 6 to 20 years.
Since the constellation or nakshatra where moon finds its presence is known as the Janma Nakshatra and as moon influences the mental aspects of the native, nakshatra of the moon thus casts its indelible influence on moon. With each nakshatra having a planetary lord, the placement of the same (planetary lord) determines the initial dasa or 'phase' in the horoscope of a native. Nakshatra lords also play an important role in determining the essential quality of a person besides helping to assess the focal points of his energy and ambition.