चहुंमुखी अर्थात सम्पूर्णता के साथ किया गया वरण (चयन) ही आवरण कहलाता है। वरण में कामना रहती है और माया का ही दूसरा नाम कामना है। अत: माया और आवरण पर्यायवाची कहलाते हैं। वरने की प्रक्रिया को वरण कहते हैं। इसमें मांगना, चुनना, छांटना आदि क्रियाएं समाहित होती हैं।
कामना-इच्छा को भी वर कहते हैं, क्योंकि उनका वरण करने के बाद ही तो कामना पूर्ति के उपाय किए जाते हैं। ब्रह्म में कामना है, किन्तु विस्तार पाने की। माया स्वयं कामना है। अत: स्त्री और उसके सभी स्वरूप, चाहे पिछली पीढिय़ों के हों, अपनी पीढ़ी के हों अथवा नई पीढ़ी के (पुत्री, पौत्री आदि) सभी का सम्बन्ध मूल में कामना से होता है। सम्बन्ध कामना का धरातल तय करता है, बुद्धि उसका स्वरूप तय करती है- भावों के अनुरूप। भाव की दिशा ही कामना को सकारात्मक या नकारात्मक रूप देती है।
चूंकि हमारा निर्माण भी आवरणों के कारण होता है अत: माया से ही हमें सीखना पड़ता है कि आवरण क्या हैं, उनका आकलन कैसे करें, उनको हटाएं कैसे? जीवन में स्त्री के सारे रूप इसी क्रम में देखे जाते हैं। हर रूप किसी न किसी मूल आवरण की व्याख्या है। माया के कारण इस जगत को मिथ्या कहा जाता है।
ब्रह्म सत्य है। जीवन के सात धरातल हैं। शरीर में सात धातुएं हैं। सृष्टि में सप्त लोक हैं। सात ही शरीर में चक्र हैं। इन्द्र धनुष के सात ही रंग हैं। संगीत में सात सुर और पृथ्वी/भूलोक में सात-सात महासागर हैं। सृष्टि के सभी तत्व इन सातों लोकों में व्याप्त रहते हैं, किन्तु स्वरूप एक सा नहींं होता। माया अथवा मां भी इन सातों लोकों में, तीनों गुणों (सत-रज-तम) में पंचकोश में भिन्न-भिन्न रूप से रहती हैं। चन्द्रमा से शरीर में बनने वाले 28सह प्रतिमास सात पीढिय़ों के अंश हमारे शरीर में लाते रहते हैं। इनके अनुपात से भी माया का कार्य प्रभावित होता रहता है।
मां पृथ्वी को भी कहते हैं। बीज को आवरित करती है। उसका पोषण करती है। पेड़-पौधों के शरीर का निर्माण करती है। बीज का निर्माण भी तो कोई मां ही करती होगी। बीज के वपन से पेड़ के जीवनपर्यत मां साथ रहती है। मां आवरण है। छुपाकर रखती है। पत्नी भी गृहस्थाश्रम में आवरण है। बाद में मित्र बनकर मां के स्वरूप में बदल जाती है। संन्यासाश्रम में पति को स्त्रैण बना चुकी होती है। दाम्पत्य रति से देवरति में पति को प्रतिष्ठित कर देती है। यहीं से मोक्ष मार्ग की शुरूआत होती है। वैराग्य में प्रवेश भी पत्नी ही करा सकती है। संसार का कोई गुरू यह कार्य नहींं कर सकता। विरक्ति को झेलती भी वही है। एैश्वर्य की साक्षी भी पत्नी-मां होती है। दैहिक पत्नी नहींं हो सकती। वह तो मोह-निद्रा के लिए आमंत्रण मात्र है। उसका लक्ष्य तो कुछ और ही होता है।
जीवन के हर मोड़ पर, बदलती हुई कामनाओं की पूर्ति करे, आवरणों के भेद खोलती जाए। पहले कामना में फंसाना, फिर मुक्त करने को प्रेरित भी करना, सहयोग करना, देखते जाना कि कौन से धरातल के आवरण नहींं हट पा रहे। सारे आवरणों को हटाकर मोक्ष तक पहुंचाना ही उसका लक्ष्य है। इसके लिए उसके पास भी सात जन्म का समय होता है। गहरी समझ रखने वाली पत्नियां समय से पूर्व पति में विरक्ति का भाव पैदा कर देती है। एैसे पति सौभाग्यशाली होते हैं। जो इस विरक्ति को अभाव मानकर पूर्ति की तलाश करते हैं।
सृष्टि की शुरूआत आवरण से- अव्यय पुरूष रूप। मन पर प्राण-वाक् के आवरण। महामाया के आवरण से अक्षर पुरूष। प्रकृति के आवरण से क्षर पुरूष। ये सारे आवरण प्रसव पूर्व के हैं। पंच महाभूतों और तन्मात्राओं से शरीर का निर्माण। प्रसव बाद जगत के भौतिक आवरण चढ़ते हैं। ज्ञान के नए आवरण चढ़ते हैं। परिवार, धर्म, समाज, देश, शिक्षा आदि के आवरण चढ़ते हैं। इनको वह व्यक्ति समझ पाता है, जो संस्कारवान है। सभी आवरण सूक्ष्म होते हैं। मां ही गुरू बनकर पेट में ही इन आवरणों से परिचय कराती है। जीव का रूपान्तरण करती है। यही व्यक्तित्व जीवन का आधार होता है।
बचपन की गतिविधियों में समानता का भाव भी लडक़े-लडक़ी के पालन-पोष्ण में अधिक बढ़ गया है। अत: आकर्षण घटता हुआ मात्र शरीर पर ठहरने लगा है। मां का मूल कार्य इस पौरूष भाव को ही स्त्रैण बनाना है। इसके बिना पुरूष के मन में (ब्रह्म) आकर्षण कैसे पैदा होगा। मन के सारे आवरण उतरने के बाद यह स्थिति भक्ति (अंग) रूप में प्रकट होती है।
बहुत लम्बी यात्रा है यह। पूरी 25 वर्ष की। इन पच्चीस वर्षो की यात्रा में पत्नी रूप मां (शक्ति) क्या करती है, कैसे आवरणों का भेद समझाती है, यह महत्वपूर्ण है। इसके लिए उसको प्रशिक्षण नहींं लेना पड़ता। अधिकांश पाशविक आवरण तो वह पेट में ही हटा देती है। उसके अलावा कोई नहींं जानता कि जीव कहां से चलकर आया है। उसके भविष्य की आवश्यकताएं क्या हैं। सम्पूर्ण छह माह का संसर्ग शिशु (गर्भस्थ) के लिए रूपान्तरण का काल होता है। जीव स्वयं भी अपने बारे में सब कुछ जानता है। अपने भावी लक्ष्य के अनुरूप ही मां-बाप का चयन करता है। ध्वनि स्पन्दनों के जरिए मां का संतान से संवाद बना रहता है।
नाभि ही ध्वनि स्पन्दनों का केन्द्र है। यहां मां का दैहिक ज्ञान काम नहींं करता। उसका अतीन्द्रिय ज्ञान, स्वप्नों में दिखाई पड़ती ईश्वरीय आस्था तथा मां के स्वरूप की नैसर्गिक शक्तियां काम करती हैं। उसकी अपनी भी मां होती है। विद्या, कला, राग, संयोग और काल का ज्ञान माया से मिलता है। मां और संतान के ह्वदयों के ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण इस अवधि में एकाकार हो जाते हैं। इसी से सन्तान के मन में उठने वाली इच्छाओं की दिशा तय हो जाती है। संस्कार का यही तो स्वरूप है। तभी मां संतान के भविष्य को जानती है।
कन्या तो भावी मां है। स्वयं पृथ्वी है। धरती मां है। उसने भी किसी जीव के उद्धार के लिए ही जन्म लिया है। जीव के शरीर और मन के आवरणों के रहस्य खोलेगी। तम को सत्व में परिवर्तित करेगी। इनकी नश्वरता को प्रमाणित करके उसका मोह भंग करेगी। विरक्ति का भाव पैदा करके आवरण हटाने में सहयोगी बनेगी। उसे स्वयं के लिए नहींं जीना है। उसके जीवन का एक ही संकल्प होता है, जिसके लिए वह स्वयं को तैयार करती है। पति के जीवन का अभिन्न अंग बनकर सृष्टि क्रम में प्रेरित करना और आगे स्त्रैण भाव देकर मोक्षगामी होने को प्रेरित करना। इसके लिए वह सारा घर-बाहर छोडक़र संन्यास लेकर पति के पास जा बसती है। शेष जीवन बस उसी के लिए।
ऐसा संकल्पवान कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और बुद्धियोगी क्या पूजनीय नहींं होता! पुरूष तो कभी जीवन लक्ष्यों के प्रति संकल्पवान होता ही नहींं। पत्नी आकर जब उसके ह्वदय कपाट खोलती है, प्रेम का मार्ग प्रशस्त करती है, तब ही उसे जीवन का अर्थ प्राप्त होता है। सृष्टि करने के लिए कन्या को अपने शरीर के पांचों तत्वों को संतुलन में रखने का अभ्यास करना पड़ता है। ऋतुचर्या का प्रकृति के साथ संतुलन सीखना पड़ता है। भाव भूमि का निर्माण करना पड़ता है। प्रसव पूर्व की स्थितियों की जानकारी, संतान की देख-रेख, प्रसव बाद का ज्ञान, लालन-पालन का ज्ञान अर्जित करके तैयार करना होता है।
माया के मोह-पाश की जादूगरी, शक्ति अर्जन, लज्जा के स्वरूप, वात्सल्य और श्रद्धा में स्नान, त्याग करने की पृष्ठभूमि पर स्वयं को तैयार करना तथा स्वयं के जीवन के प्रति मोह-त्याग जैसे बड़े-बड़े अभ्यास करती है। माया का स्वरूप कामना के रूप में ही जीवन में प्रवेश करता है। कामना सही अर्थो में भूख और अभाव का ही दूसरा नाम है। मन में कामना ही बीज रूप में पल्लवित-पुष्पित होती है। कामना के साथ ही वह स्वयं को भी पति ह्वदय में प्रतिष्ठित करती है। उसके स्थान पर पति को अपने ह्वदय में बिठाकर जीवनभर उसका ही प्रतिनिधित्व करती है। पति के लिए सदा सौम्य और दण्ड विधान में रौद्रा हो जाती है।
माया सोम अवस्था का नाम है। अग्नि में सदा सोम आहुत होकर गौण हो जाता है। शेष अग्नि ही रहता है। इसी यज्ञ से सृष्टि विस्तार चलता रहता है। घर में कन्या या पुत्री का होना भी विचारों और भावनाओं को प्रभावित करता है। मातृत्व की अनेक गतिविधियों का बोध भी कराती हैं। अपने से छोटे बच्चों के लिए तो मां स्वरूप होती है। फिर कुछ प्रारब्ध भी होता है। कर्मो के फल किसको छोड़ते हैं। आसुरी भाव जहां अभिव्यक्त हों, वहां परिजनों की हवस का शिकार भी बनना पड़ता है।
मां के तीन स्वरूप हैं- मां-शक्ति-माया। यह पहला माया भाव (तमस) है। शक्ति (राजस) और मां सात्विक भाव है। आज मातृत्व की शिक्षा तो मां भी नहींं देती। मातृत्व के प्रति आकर्षण भी घट रहा है। जहां नारी का व्यवहार मन के बजाए ज्ञान पर आधारित होगा, वहां मातृत्व, मिठास, समर्पण, त्याग और योग नहींं रहेंगे। पति के जीवन का अंग न होकर स्वतंत्र पहचान के साथ जीने की बात होगी। वहां बस टकराव या दुराव होगा। ज्ञान का अभाव एक-दूसरे के सम्मान को कम कराएगा। आज तो स्वच्छन्दता के वातावरण में हम फिर से वन-मानुष होते जा रहे हैं। बाहर भले ही चकाचौंध में जीते दिखाई पड़ते हों। क्योंकि जिस कामना के सहारे माया का जीवन में प्रवेश होता है, उसमें संकल्प नहींं रहा।
सूर्य से तीन तत्व हमें प्राप्त होते हैं- ज्योति (ज्ञान), आयु एवं गौ (विद्युत)। यह ज्योति ही बुद्धि रूप विकसित होती है। हमारी सृष्टि अर्घनारीश्वर के सिद्धान्त पर कार्य करती है। नर-नारी दोनों में स्त्री-पुरूष भाव रहते हैं। नर में पौरूष और नारी में स्त्रैण अधिक रहता है।
दोनों मिलकर समभाव में आ जाते हैं। यही मानव की पूर्णता है। माया का कार्य पुरू ष में भी स्त्रैण भाग को बढ़ाना, दाम्पत्य रति का विकास करना और आत्मा को ईश्वर की ओर मोडऩा है। जैसे-जैसे यह कार्य आगे बढ़ता है, माया के अन्य स्वरूप बाधक भी बनते हैं। माया भी अपनी पकड़ आसानी से नहींं छोडऩा चाहेगी। पत्नी रूप मां इन माया के विकल्पों को समझकर उनसे संघर्ष करने को प्रेरित करती है। सही अर्थो में संसार सागर के विषयों को और कोई इस व्यावहारिक तथा आत्मीय भाव में नहींं समझा सकता। यही कामना बनती है और यही तृप्ति भी देती है। शक्ति रूप में तृप्ति की छाया होती है। व्यक्ति को पराक्रम और एैश्वर्य प्राप्त करने के लिए उकसाती रहती है। मिलता भले ही भाग्य के अनुसार ही है। जैसे-जैसे यह विकास यात्रा बढ़ती है आसुरी भाव- सुरा, सुन्दरी या अविद्या रूप में व्यवधान पैदा करने का प्रयास करते हैं। पत्नी चेतावनी बनकर खड़ी हो जाती है। ये सब तो उसकी तपस्या के लिए चुनौतियां हैं। हारती नहींं है।
पराक्रम और एैश्वर्य को तृष्णा रूप में बदलते भी देर नहींं लगती। स्वयं के लिए परिग्रह का स्वरूप नकारात्मक भी हो सकता है। व्यक्ति दूसरे के अधिकारों का हनन भी कर सकता है। पत्नी सहनशीलता देती है। लज्जा का मार्ग प्रशस्त करती है। सुर-असुर के बीच इसी बात का भेद होता है कि एक को गलती करने में लज्जा आती है, दूसरे को नहींं आती। पुरूष के अहंकार में लज्जा नहींं होती। जिसकी पत्नी में मातृत्व है, वह लज्जा को ग्रहण कर ही लेता है। लज्जा ही वह सोपान है जिस पर चढक़र ऊध्र्व यात्रा की जाती है। यही संस्कारों का केन्द्र है।
स्त्री की विरासत है। संकल्प के बिना लज्जा विकल्पों में खो जाती है। संकल्प और समर्पण ही दो आयुध होते हैं, पत्नी-मां के। लज्जा ही श्रद्धा और शान्ति का आधार बन जाती है। आक्रामकता को रोक देती है। जहां लज्जा, श्रद्धा, शान्ति है, वहां लक्ष्मी है, यश है, श्री है, कान्ति है। पत्नी यहां भी दान-पुण्य का मार्ग प्रशस्त करती है। स्वयं से बाहर निकलकर लोक के लिए कुछ कराती है। समष्टि भाव पैदा करने में सदा सहायक होती है। यहां तक कि पति के नाम की दान की रसीदें मन्दिर-गौशाला आदि में कटाती रहती है। इसी में व्यक्ति को तृप्ति का भाव दिखाई देता है। यह तृप्ति ही शनै:-शनै: व्यक्ति को कामना मुक्त करती है। अभाव की अनुभूति को मिटाती है। कामना मुक्ति ही मोक्ष है।
पुत्री/पौत्री रूप में मां/माया चेतना के जागरण में अपनी भी आहुतियां देती हैं। आत्मीयता के नए युग का पदार्पण होता है। पुत्री को देख कन्यादान का चित्र सदा आंखों के आगे बना रहता है। यह भी वैराग्य के अध्याय खोलता रहता है। परिष्कार का मार्ग बनाए रखता है। पौत्री तो वैसे भी ब्याज रूप मानी गई है। पुत्र पेड़ होता है- पौत्र-पौत्री फल होते हैं। अधिक प्रिय होते हैं। पौत्री करूणा के भाव को प्रेरित करती है। बात-बात में व्यक्ति पौत्री के लिए द्रवित हो जाता है। मां के रूप का यह पड़ाव लगभग सभी के अहंकार को घुटने टिका देता है।
समर्पण और भक्ति का अर्थ सिखा देता है। निर्मलता का निर्झर जीवन में बहने लगता है। तमस बाहर को दौड़ता है। सत्व का साम्राज्य फैलता जाता है। भाव शुद्धि का मन्दिर साक्षात हो उठता है। पुरूष का पौरूष स्त्रैण में रूपान्तरित होता जाता है। पति-पत्नी दोनों ही स्त्रैण, कामना मुक्त और माया से बाहर। मां ने माता रूप में आवरण हटाए (पिछले जन्म के), पत्नी ने व्यावहारिक ज्ञान देकर आवरण हटाने में साथ दिया और पौत्री ने शुद्धता को स्थायित्व भाव दिया। है सभी माया के रूप। वही व्यक्ति के पास आकर रहती है, उसे वश में करती है और बिना उसकी मर्जी के भी समय आने पर उसे मुक्त करा जाती है। पहले शुद्ध माया, फिर शक्ति और अन्त में मां।
हम प्रकृति के सिद्धान्त को साथ रखकर देखें। नर-नारी की युगल सृष्टि से ही यज्ञ सम्पूर्ण होता है। नर-नारी की शरीर भिन्नता के उपरान्त भी दोनों अर्घनारीश्वर के सिद्धान्त पर कार्य करते हैं। दोनों का ही आधा-आधा भाग पुरूष और प्रकृति का, अग्नि और सोम का होता है। अग्नि की पुरूष में तथा सोम की स्त्री में प्रधानता रहती है। अग्नि विस्तार धर्मा है, ऊपर को उठती है, तोड़ती है। सोम संकोच धर्मा है, जोडऩे वाला है। नर-नारी दोनों ही माया के रूप हैं। अत: पिता, पुत्र, पौत्र आदि भी माया का ही विस्तार है। इसी को द्वैत भाव भी कहा जा सकता है।
माया द्वैत भाव को ही कहते हैं। जब नर-नारी का भेद मिट जाए और मूल में एक ही नजर आने लगे, तब समझो द्वैत गया। माया के कार्य को पुरूष न तो समझ सकता है, न ही समेट सकता है। अत: माया ही सृष्टि को चलाती है। वही सृष्टि का गतिमान तत्व (शक्ति) है। अत: मां को ही नियन्ता कहा गया, ब्रह्म को साक्षी माना। पुरूष देह में जो नारी अंश है, उसी के आधार पर तो वह बाहर नारी को देखता है। इसी प्रकार नारी की देह का पुरूष अंश बाह्य पुरूष से सामंजस्य बनाए रखने का प्रयास करता है। बिना अपने अंश को समझे हम कैसे और किस आधार पर दूसरे को समझ सकते हैं। इसी प्रकार दूसरे को देखकर भी हम अपने भीतर का आकलन कर लेते हैं। स्त्री सौम्या होने से अपनी ओर आकृष्ट करती है, घेरती है, आवरित करती है, तब हम अपना भीतर टटोल सकते हैं। कहां-कहां बच पाए, कहां-कहां आवरित हो पाए और क्यों? इसी क्रम को माया स्वयं समझाती जाती है, भिन्न-भिन्न स्वरूप लेकर। भिन्न-भिन्न जन्म लेकर। कर्मो के फल देकर। जब आप माया के सारे आवरण समझ गए, उस दिन आप द्वैत से मुक्त हो गए। मां को पुकारो और उसके अंक में बैठ जाओ!
कोई मां बच्चे को योग्यता के कारण प्यार नहींं करती। वह तो कपूत को भी करती है। न मां बदल सकती है, न ही सन्तान। जो है उसी में प्रेम को बढ़ाना है, भोगना है। मां तो यह भी समझती है कि यह जीव बाहर से मेरे पेट में आया है तथा उम्र भर यह तथ्य उसकी दृष्टि में रहता है। इसीलिए उसकी क्षमा का दायरा बहुत बड़ा है। उसकी सहनशक्ति, धैर्य, प्रतीक्षा सभी विशाल होते हैं। संतान से मार खाकर भी भीतर शान्त ही रहती है।
माया एक धारा का प्रवाह है। बहता ही जाता है। प्रवाह से पूर्व द्रवणता होना अनिवार्य है। यह मिठास से आती है। दया और करूणा से आती है। अत: माया मित्र या शुभचिन्तक बनकर घेरा डालती है। मोह लेती है। द्रवित करती है। व्यक्ति बहने लगता है। ऊपर की ओर बह नहींं सकता। धारा बनकर नीचे की ओर प्रवाहित करती है। मूल केन्द्र या उद्गम से दूर ले जाती है। जैसे ही वह गृहस्थाश्रम के कार्य से मुक्त होकर वानप्रस्थ में प्रवेश करती है, उसकी गति बदल जाती है। धारा से वह राधा हो जाती है। राधा में ऊपर की ओर बहने की शक्ति है। यह जीवन का महत्वपूर्ण चौराहा होता है। पत्नी मां ही हाथ पकडक़र सही मार्ग पर बनाए रख सकती है, क्योंकि उसके जीवन की तपस्या प्रभावित होती है। आने वाले जीवन में अनेक नई चुनौतियों का डर भी रहता है। अब तक हर चुनौती का सामना पति के साथ मिलकर करती रही है। पति यदि नई धारा में बहने की सोच ले तो उसी से संघर्ष करना होगा। वही धारा है, वही राधा भी है। वही मुक्त विचरण करते हुए जीव को आकर्षित करती है।
आज शिक्षा ने मां छीनकर औरत को शरीर तक सीमित कर दिया। समानता के भुलावे में प्रतिक्रियावादी बनती चली जा रही है। इसी कारण समलैंगिक विवाह होने लगे, पशुओं को उपकरण बनाने लगे, यांत्रिक स्त्री-पुरूष बन गए। बाजार में बिकने लगे। कहां ढूंढ़ेंगे उस मां को? बहुत पीछे काल के गर्त में खो गई। मां शरीर का नाम नहींं है। सन्तान पैदा करने वाली का नाम नहींं है। भावना का, विशिष्ट ऊर्जा का नाम है।
रूपान्तरण की क्षमता का नाम मां है, जो पहले बच्चे को टॉफी देकर वश में करती है, फिर उसके व्यक्तित्व का निर्माण करती है, मंजिल दिखाती है और उड़ान भरने को छोड़ देती है। उसके जीवन की तपस्या एवं सुन्दरता उसकी सन्तान में निहित रहती है। आज की शिक्षित मां इसके ठीक विपरीत होती है। उसके लिए स्वयं की सुन्दरता महत्वपूर्ण होती है। यही नहींं, उसकी अपनी समस्याओं एवं कुंठाओं का जाल भी छोटा नहींं होता। उसका अहंकार समर्पण भी नहींं करने देता। वह मां नहींं औरत रह जाती है। पुरूष के समान व्यवहार करती है। उसका स्थायी स्वरूप बन ही नहींं पाता। उसके परिवार का सांस्कृतिक स्वरूप बिखरा होता है। मां के साथ ऐसा कभी नहींं होता। वह तो ईश्वरीय अवतरण जैसा होता है। सबके लिए होता है। बिना भेद-भाव के।
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कामना-इच्छा को भी वर कहते हैं, क्योंकि उनका वरण करने के बाद ही तो कामना पूर्ति के उपाय किए जाते हैं। ब्रह्म में कामना है, किन्तु विस्तार पाने की। माया स्वयं कामना है। अत: स्त्री और उसके सभी स्वरूप, चाहे पिछली पीढिय़ों के हों, अपनी पीढ़ी के हों अथवा नई पीढ़ी के (पुत्री, पौत्री आदि) सभी का सम्बन्ध मूल में कामना से होता है। सम्बन्ध कामना का धरातल तय करता है, बुद्धि उसका स्वरूप तय करती है- भावों के अनुरूप। भाव की दिशा ही कामना को सकारात्मक या नकारात्मक रूप देती है।
चूंकि हमारा निर्माण भी आवरणों के कारण होता है अत: माया से ही हमें सीखना पड़ता है कि आवरण क्या हैं, उनका आकलन कैसे करें, उनको हटाएं कैसे? जीवन में स्त्री के सारे रूप इसी क्रम में देखे जाते हैं। हर रूप किसी न किसी मूल आवरण की व्याख्या है। माया के कारण इस जगत को मिथ्या कहा जाता है।
ब्रह्म सत्य है। जीवन के सात धरातल हैं। शरीर में सात धातुएं हैं। सृष्टि में सप्त लोक हैं। सात ही शरीर में चक्र हैं। इन्द्र धनुष के सात ही रंग हैं। संगीत में सात सुर और पृथ्वी/भूलोक में सात-सात महासागर हैं। सृष्टि के सभी तत्व इन सातों लोकों में व्याप्त रहते हैं, किन्तु स्वरूप एक सा नहींं होता। माया अथवा मां भी इन सातों लोकों में, तीनों गुणों (सत-रज-तम) में पंचकोश में भिन्न-भिन्न रूप से रहती हैं। चन्द्रमा से शरीर में बनने वाले 28सह प्रतिमास सात पीढिय़ों के अंश हमारे शरीर में लाते रहते हैं। इनके अनुपात से भी माया का कार्य प्रभावित होता रहता है।
मां पृथ्वी को भी कहते हैं। बीज को आवरित करती है। उसका पोषण करती है। पेड़-पौधों के शरीर का निर्माण करती है। बीज का निर्माण भी तो कोई मां ही करती होगी। बीज के वपन से पेड़ के जीवनपर्यत मां साथ रहती है। मां आवरण है। छुपाकर रखती है। पत्नी भी गृहस्थाश्रम में आवरण है। बाद में मित्र बनकर मां के स्वरूप में बदल जाती है। संन्यासाश्रम में पति को स्त्रैण बना चुकी होती है। दाम्पत्य रति से देवरति में पति को प्रतिष्ठित कर देती है। यहीं से मोक्ष मार्ग की शुरूआत होती है। वैराग्य में प्रवेश भी पत्नी ही करा सकती है। संसार का कोई गुरू यह कार्य नहींं कर सकता। विरक्ति को झेलती भी वही है। एैश्वर्य की साक्षी भी पत्नी-मां होती है। दैहिक पत्नी नहींं हो सकती। वह तो मोह-निद्रा के लिए आमंत्रण मात्र है। उसका लक्ष्य तो कुछ और ही होता है।
जीवन के हर मोड़ पर, बदलती हुई कामनाओं की पूर्ति करे, आवरणों के भेद खोलती जाए। पहले कामना में फंसाना, फिर मुक्त करने को प्रेरित भी करना, सहयोग करना, देखते जाना कि कौन से धरातल के आवरण नहींं हट पा रहे। सारे आवरणों को हटाकर मोक्ष तक पहुंचाना ही उसका लक्ष्य है। इसके लिए उसके पास भी सात जन्म का समय होता है। गहरी समझ रखने वाली पत्नियां समय से पूर्व पति में विरक्ति का भाव पैदा कर देती है। एैसे पति सौभाग्यशाली होते हैं। जो इस विरक्ति को अभाव मानकर पूर्ति की तलाश करते हैं।
सृष्टि की शुरूआत आवरण से- अव्यय पुरूष रूप। मन पर प्राण-वाक् के आवरण। महामाया के आवरण से अक्षर पुरूष। प्रकृति के आवरण से क्षर पुरूष। ये सारे आवरण प्रसव पूर्व के हैं। पंच महाभूतों और तन्मात्राओं से शरीर का निर्माण। प्रसव बाद जगत के भौतिक आवरण चढ़ते हैं। ज्ञान के नए आवरण चढ़ते हैं। परिवार, धर्म, समाज, देश, शिक्षा आदि के आवरण चढ़ते हैं। इनको वह व्यक्ति समझ पाता है, जो संस्कारवान है। सभी आवरण सूक्ष्म होते हैं। मां ही गुरू बनकर पेट में ही इन आवरणों से परिचय कराती है। जीव का रूपान्तरण करती है। यही व्यक्तित्व जीवन का आधार होता है।
बचपन की गतिविधियों में समानता का भाव भी लडक़े-लडक़ी के पालन-पोष्ण में अधिक बढ़ गया है। अत: आकर्षण घटता हुआ मात्र शरीर पर ठहरने लगा है। मां का मूल कार्य इस पौरूष भाव को ही स्त्रैण बनाना है। इसके बिना पुरूष के मन में (ब्रह्म) आकर्षण कैसे पैदा होगा। मन के सारे आवरण उतरने के बाद यह स्थिति भक्ति (अंग) रूप में प्रकट होती है।
बहुत लम्बी यात्रा है यह। पूरी 25 वर्ष की। इन पच्चीस वर्षो की यात्रा में पत्नी रूप मां (शक्ति) क्या करती है, कैसे आवरणों का भेद समझाती है, यह महत्वपूर्ण है। इसके लिए उसको प्रशिक्षण नहींं लेना पड़ता। अधिकांश पाशविक आवरण तो वह पेट में ही हटा देती है। उसके अलावा कोई नहींं जानता कि जीव कहां से चलकर आया है। उसके भविष्य की आवश्यकताएं क्या हैं। सम्पूर्ण छह माह का संसर्ग शिशु (गर्भस्थ) के लिए रूपान्तरण का काल होता है। जीव स्वयं भी अपने बारे में सब कुछ जानता है। अपने भावी लक्ष्य के अनुरूप ही मां-बाप का चयन करता है। ध्वनि स्पन्दनों के जरिए मां का संतान से संवाद बना रहता है।
नाभि ही ध्वनि स्पन्दनों का केन्द्र है। यहां मां का दैहिक ज्ञान काम नहींं करता। उसका अतीन्द्रिय ज्ञान, स्वप्नों में दिखाई पड़ती ईश्वरीय आस्था तथा मां के स्वरूप की नैसर्गिक शक्तियां काम करती हैं। उसकी अपनी भी मां होती है। विद्या, कला, राग, संयोग और काल का ज्ञान माया से मिलता है। मां और संतान के ह्वदयों के ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण इस अवधि में एकाकार हो जाते हैं। इसी से सन्तान के मन में उठने वाली इच्छाओं की दिशा तय हो जाती है। संस्कार का यही तो स्वरूप है। तभी मां संतान के भविष्य को जानती है।
कन्या तो भावी मां है। स्वयं पृथ्वी है। धरती मां है। उसने भी किसी जीव के उद्धार के लिए ही जन्म लिया है। जीव के शरीर और मन के आवरणों के रहस्य खोलेगी। तम को सत्व में परिवर्तित करेगी। इनकी नश्वरता को प्रमाणित करके उसका मोह भंग करेगी। विरक्ति का भाव पैदा करके आवरण हटाने में सहयोगी बनेगी। उसे स्वयं के लिए नहींं जीना है। उसके जीवन का एक ही संकल्प होता है, जिसके लिए वह स्वयं को तैयार करती है। पति के जीवन का अभिन्न अंग बनकर सृष्टि क्रम में प्रेरित करना और आगे स्त्रैण भाव देकर मोक्षगामी होने को प्रेरित करना। इसके लिए वह सारा घर-बाहर छोडक़र संन्यास लेकर पति के पास जा बसती है। शेष जीवन बस उसी के लिए।
ऐसा संकल्पवान कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और बुद्धियोगी क्या पूजनीय नहींं होता! पुरूष तो कभी जीवन लक्ष्यों के प्रति संकल्पवान होता ही नहींं। पत्नी आकर जब उसके ह्वदय कपाट खोलती है, प्रेम का मार्ग प्रशस्त करती है, तब ही उसे जीवन का अर्थ प्राप्त होता है। सृष्टि करने के लिए कन्या को अपने शरीर के पांचों तत्वों को संतुलन में रखने का अभ्यास करना पड़ता है। ऋतुचर्या का प्रकृति के साथ संतुलन सीखना पड़ता है। भाव भूमि का निर्माण करना पड़ता है। प्रसव पूर्व की स्थितियों की जानकारी, संतान की देख-रेख, प्रसव बाद का ज्ञान, लालन-पालन का ज्ञान अर्जित करके तैयार करना होता है।
माया के मोह-पाश की जादूगरी, शक्ति अर्जन, लज्जा के स्वरूप, वात्सल्य और श्रद्धा में स्नान, त्याग करने की पृष्ठभूमि पर स्वयं को तैयार करना तथा स्वयं के जीवन के प्रति मोह-त्याग जैसे बड़े-बड़े अभ्यास करती है। माया का स्वरूप कामना के रूप में ही जीवन में प्रवेश करता है। कामना सही अर्थो में भूख और अभाव का ही दूसरा नाम है। मन में कामना ही बीज रूप में पल्लवित-पुष्पित होती है। कामना के साथ ही वह स्वयं को भी पति ह्वदय में प्रतिष्ठित करती है। उसके स्थान पर पति को अपने ह्वदय में बिठाकर जीवनभर उसका ही प्रतिनिधित्व करती है। पति के लिए सदा सौम्य और दण्ड विधान में रौद्रा हो जाती है।
माया सोम अवस्था का नाम है। अग्नि में सदा सोम आहुत होकर गौण हो जाता है। शेष अग्नि ही रहता है। इसी यज्ञ से सृष्टि विस्तार चलता रहता है। घर में कन्या या पुत्री का होना भी विचारों और भावनाओं को प्रभावित करता है। मातृत्व की अनेक गतिविधियों का बोध भी कराती हैं। अपने से छोटे बच्चों के लिए तो मां स्वरूप होती है। फिर कुछ प्रारब्ध भी होता है। कर्मो के फल किसको छोड़ते हैं। आसुरी भाव जहां अभिव्यक्त हों, वहां परिजनों की हवस का शिकार भी बनना पड़ता है।
मां के तीन स्वरूप हैं- मां-शक्ति-माया। यह पहला माया भाव (तमस) है। शक्ति (राजस) और मां सात्विक भाव है। आज मातृत्व की शिक्षा तो मां भी नहींं देती। मातृत्व के प्रति आकर्षण भी घट रहा है। जहां नारी का व्यवहार मन के बजाए ज्ञान पर आधारित होगा, वहां मातृत्व, मिठास, समर्पण, त्याग और योग नहींं रहेंगे। पति के जीवन का अंग न होकर स्वतंत्र पहचान के साथ जीने की बात होगी। वहां बस टकराव या दुराव होगा। ज्ञान का अभाव एक-दूसरे के सम्मान को कम कराएगा। आज तो स्वच्छन्दता के वातावरण में हम फिर से वन-मानुष होते जा रहे हैं। बाहर भले ही चकाचौंध में जीते दिखाई पड़ते हों। क्योंकि जिस कामना के सहारे माया का जीवन में प्रवेश होता है, उसमें संकल्प नहींं रहा।
सूर्य से तीन तत्व हमें प्राप्त होते हैं- ज्योति (ज्ञान), आयु एवं गौ (विद्युत)। यह ज्योति ही बुद्धि रूप विकसित होती है। हमारी सृष्टि अर्घनारीश्वर के सिद्धान्त पर कार्य करती है। नर-नारी दोनों में स्त्री-पुरूष भाव रहते हैं। नर में पौरूष और नारी में स्त्रैण अधिक रहता है।
दोनों मिलकर समभाव में आ जाते हैं। यही मानव की पूर्णता है। माया का कार्य पुरू ष में भी स्त्रैण भाग को बढ़ाना, दाम्पत्य रति का विकास करना और आत्मा को ईश्वर की ओर मोडऩा है। जैसे-जैसे यह कार्य आगे बढ़ता है, माया के अन्य स्वरूप बाधक भी बनते हैं। माया भी अपनी पकड़ आसानी से नहींं छोडऩा चाहेगी। पत्नी रूप मां इन माया के विकल्पों को समझकर उनसे संघर्ष करने को प्रेरित करती है। सही अर्थो में संसार सागर के विषयों को और कोई इस व्यावहारिक तथा आत्मीय भाव में नहींं समझा सकता। यही कामना बनती है और यही तृप्ति भी देती है। शक्ति रूप में तृप्ति की छाया होती है। व्यक्ति को पराक्रम और एैश्वर्य प्राप्त करने के लिए उकसाती रहती है। मिलता भले ही भाग्य के अनुसार ही है। जैसे-जैसे यह विकास यात्रा बढ़ती है आसुरी भाव- सुरा, सुन्दरी या अविद्या रूप में व्यवधान पैदा करने का प्रयास करते हैं। पत्नी चेतावनी बनकर खड़ी हो जाती है। ये सब तो उसकी तपस्या के लिए चुनौतियां हैं। हारती नहींं है।
पराक्रम और एैश्वर्य को तृष्णा रूप में बदलते भी देर नहींं लगती। स्वयं के लिए परिग्रह का स्वरूप नकारात्मक भी हो सकता है। व्यक्ति दूसरे के अधिकारों का हनन भी कर सकता है। पत्नी सहनशीलता देती है। लज्जा का मार्ग प्रशस्त करती है। सुर-असुर के बीच इसी बात का भेद होता है कि एक को गलती करने में लज्जा आती है, दूसरे को नहींं आती। पुरूष के अहंकार में लज्जा नहींं होती। जिसकी पत्नी में मातृत्व है, वह लज्जा को ग्रहण कर ही लेता है। लज्जा ही वह सोपान है जिस पर चढक़र ऊध्र्व यात्रा की जाती है। यही संस्कारों का केन्द्र है।
स्त्री की विरासत है। संकल्प के बिना लज्जा विकल्पों में खो जाती है। संकल्प और समर्पण ही दो आयुध होते हैं, पत्नी-मां के। लज्जा ही श्रद्धा और शान्ति का आधार बन जाती है। आक्रामकता को रोक देती है। जहां लज्जा, श्रद्धा, शान्ति है, वहां लक्ष्मी है, यश है, श्री है, कान्ति है। पत्नी यहां भी दान-पुण्य का मार्ग प्रशस्त करती है। स्वयं से बाहर निकलकर लोक के लिए कुछ कराती है। समष्टि भाव पैदा करने में सदा सहायक होती है। यहां तक कि पति के नाम की दान की रसीदें मन्दिर-गौशाला आदि में कटाती रहती है। इसी में व्यक्ति को तृप्ति का भाव दिखाई देता है। यह तृप्ति ही शनै:-शनै: व्यक्ति को कामना मुक्त करती है। अभाव की अनुभूति को मिटाती है। कामना मुक्ति ही मोक्ष है।
पुत्री/पौत्री रूप में मां/माया चेतना के जागरण में अपनी भी आहुतियां देती हैं। आत्मीयता के नए युग का पदार्पण होता है। पुत्री को देख कन्यादान का चित्र सदा आंखों के आगे बना रहता है। यह भी वैराग्य के अध्याय खोलता रहता है। परिष्कार का मार्ग बनाए रखता है। पौत्री तो वैसे भी ब्याज रूप मानी गई है। पुत्र पेड़ होता है- पौत्र-पौत्री फल होते हैं। अधिक प्रिय होते हैं। पौत्री करूणा के भाव को प्रेरित करती है। बात-बात में व्यक्ति पौत्री के लिए द्रवित हो जाता है। मां के रूप का यह पड़ाव लगभग सभी के अहंकार को घुटने टिका देता है।
समर्पण और भक्ति का अर्थ सिखा देता है। निर्मलता का निर्झर जीवन में बहने लगता है। तमस बाहर को दौड़ता है। सत्व का साम्राज्य फैलता जाता है। भाव शुद्धि का मन्दिर साक्षात हो उठता है। पुरूष का पौरूष स्त्रैण में रूपान्तरित होता जाता है। पति-पत्नी दोनों ही स्त्रैण, कामना मुक्त और माया से बाहर। मां ने माता रूप में आवरण हटाए (पिछले जन्म के), पत्नी ने व्यावहारिक ज्ञान देकर आवरण हटाने में साथ दिया और पौत्री ने शुद्धता को स्थायित्व भाव दिया। है सभी माया के रूप। वही व्यक्ति के पास आकर रहती है, उसे वश में करती है और बिना उसकी मर्जी के भी समय आने पर उसे मुक्त करा जाती है। पहले शुद्ध माया, फिर शक्ति और अन्त में मां।
हम प्रकृति के सिद्धान्त को साथ रखकर देखें। नर-नारी की युगल सृष्टि से ही यज्ञ सम्पूर्ण होता है। नर-नारी की शरीर भिन्नता के उपरान्त भी दोनों अर्घनारीश्वर के सिद्धान्त पर कार्य करते हैं। दोनों का ही आधा-आधा भाग पुरूष और प्रकृति का, अग्नि और सोम का होता है। अग्नि की पुरूष में तथा सोम की स्त्री में प्रधानता रहती है। अग्नि विस्तार धर्मा है, ऊपर को उठती है, तोड़ती है। सोम संकोच धर्मा है, जोडऩे वाला है। नर-नारी दोनों ही माया के रूप हैं। अत: पिता, पुत्र, पौत्र आदि भी माया का ही विस्तार है। इसी को द्वैत भाव भी कहा जा सकता है।
माया द्वैत भाव को ही कहते हैं। जब नर-नारी का भेद मिट जाए और मूल में एक ही नजर आने लगे, तब समझो द्वैत गया। माया के कार्य को पुरूष न तो समझ सकता है, न ही समेट सकता है। अत: माया ही सृष्टि को चलाती है। वही सृष्टि का गतिमान तत्व (शक्ति) है। अत: मां को ही नियन्ता कहा गया, ब्रह्म को साक्षी माना। पुरूष देह में जो नारी अंश है, उसी के आधार पर तो वह बाहर नारी को देखता है। इसी प्रकार नारी की देह का पुरूष अंश बाह्य पुरूष से सामंजस्य बनाए रखने का प्रयास करता है। बिना अपने अंश को समझे हम कैसे और किस आधार पर दूसरे को समझ सकते हैं। इसी प्रकार दूसरे को देखकर भी हम अपने भीतर का आकलन कर लेते हैं। स्त्री सौम्या होने से अपनी ओर आकृष्ट करती है, घेरती है, आवरित करती है, तब हम अपना भीतर टटोल सकते हैं। कहां-कहां बच पाए, कहां-कहां आवरित हो पाए और क्यों? इसी क्रम को माया स्वयं समझाती जाती है, भिन्न-भिन्न स्वरूप लेकर। भिन्न-भिन्न जन्म लेकर। कर्मो के फल देकर। जब आप माया के सारे आवरण समझ गए, उस दिन आप द्वैत से मुक्त हो गए। मां को पुकारो और उसके अंक में बैठ जाओ!
कोई मां बच्चे को योग्यता के कारण प्यार नहींं करती। वह तो कपूत को भी करती है। न मां बदल सकती है, न ही सन्तान। जो है उसी में प्रेम को बढ़ाना है, भोगना है। मां तो यह भी समझती है कि यह जीव बाहर से मेरे पेट में आया है तथा उम्र भर यह तथ्य उसकी दृष्टि में रहता है। इसीलिए उसकी क्षमा का दायरा बहुत बड़ा है। उसकी सहनशक्ति, धैर्य, प्रतीक्षा सभी विशाल होते हैं। संतान से मार खाकर भी भीतर शान्त ही रहती है।
माया एक धारा का प्रवाह है। बहता ही जाता है। प्रवाह से पूर्व द्रवणता होना अनिवार्य है। यह मिठास से आती है। दया और करूणा से आती है। अत: माया मित्र या शुभचिन्तक बनकर घेरा डालती है। मोह लेती है। द्रवित करती है। व्यक्ति बहने लगता है। ऊपर की ओर बह नहींं सकता। धारा बनकर नीचे की ओर प्रवाहित करती है। मूल केन्द्र या उद्गम से दूर ले जाती है। जैसे ही वह गृहस्थाश्रम के कार्य से मुक्त होकर वानप्रस्थ में प्रवेश करती है, उसकी गति बदल जाती है। धारा से वह राधा हो जाती है। राधा में ऊपर की ओर बहने की शक्ति है। यह जीवन का महत्वपूर्ण चौराहा होता है। पत्नी मां ही हाथ पकडक़र सही मार्ग पर बनाए रख सकती है, क्योंकि उसके जीवन की तपस्या प्रभावित होती है। आने वाले जीवन में अनेक नई चुनौतियों का डर भी रहता है। अब तक हर चुनौती का सामना पति के साथ मिलकर करती रही है। पति यदि नई धारा में बहने की सोच ले तो उसी से संघर्ष करना होगा। वही धारा है, वही राधा भी है। वही मुक्त विचरण करते हुए जीव को आकर्षित करती है।
आज शिक्षा ने मां छीनकर औरत को शरीर तक सीमित कर दिया। समानता के भुलावे में प्रतिक्रियावादी बनती चली जा रही है। इसी कारण समलैंगिक विवाह होने लगे, पशुओं को उपकरण बनाने लगे, यांत्रिक स्त्री-पुरूष बन गए। बाजार में बिकने लगे। कहां ढूंढ़ेंगे उस मां को? बहुत पीछे काल के गर्त में खो गई। मां शरीर का नाम नहींं है। सन्तान पैदा करने वाली का नाम नहींं है। भावना का, विशिष्ट ऊर्जा का नाम है।
रूपान्तरण की क्षमता का नाम मां है, जो पहले बच्चे को टॉफी देकर वश में करती है, फिर उसके व्यक्तित्व का निर्माण करती है, मंजिल दिखाती है और उड़ान भरने को छोड़ देती है। उसके जीवन की तपस्या एवं सुन्दरता उसकी सन्तान में निहित रहती है। आज की शिक्षित मां इसके ठीक विपरीत होती है। उसके लिए स्वयं की सुन्दरता महत्वपूर्ण होती है। यही नहींं, उसकी अपनी समस्याओं एवं कुंठाओं का जाल भी छोटा नहींं होता। उसका अहंकार समर्पण भी नहींं करने देता। वह मां नहींं औरत रह जाती है। पुरूष के समान व्यवहार करती है। उसका स्थायी स्वरूप बन ही नहींं पाता। उसके परिवार का सांस्कृतिक स्वरूप बिखरा होता है। मां के साथ ऐसा कभी नहींं होता। वह तो ईश्वरीय अवतरण जैसा होता है। सबके लिए होता है। बिना भेद-भाव के।
Pt.P.S.Tripathi
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