पिछले ग्यारह हजार तीन सौ सालों की तुलना में आज पृथ्वी सबसे गर्म है। उत्तरी ध्रुव के आर्कटिक सागर में इस बार 1970 के बाद सबसे कम बर्फ जमी है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव से बाहर दुनिया का सबसे बड़ा बर्फ भंडार, तिब्बत में ही है। इसी नाते तिब्बत को ‘दुनिया की छत’ कहा जाता है। इस नाते आप तिब्बत को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कह सकते हैं। यह तीसरा धु्रव, पिछले पांच दशक में डेढ़ डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की नई चुनौती के सामने विचार की मुद्रा में है। नतीजे में इस तीसरे धु्रव ने अपना अस्सी प्रतिशत बर्फ भंडार खो दिया है। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा चिंतित हैं कि 2050 तक तिब्बत के ग्लेशियर नहीं बचेंगे। नदियां सूखेंगी और बिजली-पानी का संकट बढ़ेगा। तिब्बत का क्या होगा?
वैज्ञानिकों की चिंता है कि ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार जितनी तेज होगी, हवा में उत्सर्जित कार्बन का भंडार उतनी ही तेज रफ्तार से बढ़ता जाएगा। जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के लिहाज से यह सिर्फ तीसरे धु्रव नहीं, पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है। जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की तैयारी बैठकों को लेकर आ रही रिपोर्टें बता रही हैं कि मौसमी आग और जलवायु पर उसके दुष्प्रभावों को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। इसे कम करने के लिए तैयारी बैठकें लगातार चल रही हैं। हम लोग 1992 से अपनी पृथ्वी चिंता में दुबले हुए जा रहे है। विश्व नेता कई बार मिले। सरकारों के प्रतिनिधी वार्ताकारों ने अपने आपको खपाएं रखा। बर्लिन, क्योटो, ब्यूनसआर्यस, माराकेस, नई दिल्ली, मिलान, फिर ब्यूनसआर्यस, मांट्रीयल, नेरौबी, बाली, कोपेनगहेगन, दोहा और लीमा मतलब कहां-कहां नहीं जमावड़ा लगा। सिलसिला सा बना हुआ है। विश्व नेता, उनके प्रतिनिधी मिलते है, दलीले देते है, गुस्सा होते है और एक-दूसरे के ललकारते हुए कहते है कि वह एक्शन ले, समझौता करें, वायदे के साथ पृथ्वी को बचाने का प्रोटोकॉल अपनाएं।
इन तमाम कोशिशों का अंत नतीजा अभी तक सिर्फ दो सप्ताह की बैठक बाद बने 1992 का संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन कॉनवेंशन फ्रेमवर्क और 1997 का कयोटो प्रोटोकॉल है। मतलब कुछ भी नहीं। यों मानने को माना जाता है कि पृथ्वी के गरमाने को रोकने के आंदोलन में कयोटो प्रोटोकॉल मोड़ निर्णायक था। लेकिन तथ्य यह भी है कि कयोटो में सालों की मेहनत के बाद 1997 में जो संधि हुई वह 2005 में जा कर अमल में आई और उसके परिणाम निराशाजनक थे।
क्योटो संधि इसलिए व्यर्थ हुई क्योंकि जिन्हं वायदों पर अमल करना था उन मुख्य देशों ने वैसा नहीं किया। अपनी बात से मुकरे। अमेरिका और चीन बड़े जिम्मेवार देश थे तो भारत भी समस्या को बढ़वाने और उलझवाने में पीछे नहीं था। कुछ प्रगति हुई भी, योरोपीय देशों ने अपनी वाहवाही बनाई, क्योटो के वायदे अनुसार अपना अमल बताया तो उसके पीछे हकीकत सोवियत साम्राज्य के बिखरने बाद कबाड़ हुए कारखानों के बंद होने की थी।
लगातार हर साल पिछले बीस सालों से दुनिया के देशों के प्रतिनिधी बंद कमरों में बंद होते है, सौदेबाजी करते है और उत्सर्जन रोकने, खुदाई घटाने की वायदेबाजी सोचते है। लेकिन असल दुनिया लगातार यही मंत्र जाप कर रही है कि ‘ड्रील बेबी ड्रील’! मतलब निकालों कोयला-तेल और उड़ाओं धुंआ! तभी अमेरिका के शेल फील्ड और गल्फ की खाड़ी पर आर्कटिक के ग्लेशियर कुर्बान हुए जा रहे है।
नतीजा सामने है। इस दशक का हर वर्ष 1998के पहले के हर वर्ष के मुकाबले अधिक गर्म हुआ है। 2015 इतिहास में दर्ज अभी तक के रिकार्ड का सर्वाधिक गर्म वर्ष घोषित हुआ है। कोई आश्चर्य नहीं जो दिल्ली में अभी भी हम ठंड महसूस नहीं कर रहे है और चेन्नई में बारिश का कहर बरपा। खतरा गंभीर है और घड़ी की सुई बढ़ रही है। जलवायु विशेषज्ञों की भविष्यवाणी है कि सिर्फ तीस वर्ष बचे है, सिर्फ तीस। अपने को हम संभाले। कार्बन उत्सर्जन रोके अन्यथा बढ़ी गर्मी ऐसी झुलसाएगी कि तब बच नहीं सकेगें। उस नाते संयुक्त राष्ट्र के क्रिश्चियन फिग्यूरेस का यह कहा सही है कि जलवायु इमरजेंसी है इसलिए भागना बंद करें।
दुनिया के सभी देश बुनियादी तौर पर खुद की चिंता करने वाले है। हम एक ही वक्त स्वार्थी है और झगडालु भी। पेरिस में जितने देशों की भागीदारी है उन सभी में हर देश कार्बन उत्सर्जन को उतना ही रोकने को तैयार होंगा जिससे उनकी आर्थिकी को नुकसान न हो। और हां, हर देश यह भी चाह रहा है कि दूसरा देश, सामने वाला जरूर यह वायदा करें कि वह जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए अपना कार्बन उत्सर्जन बांधेगा। इसी के चलते पिछले तमाम अधिवेशन हल्के वायदों और बिना ठोस एक्शन के खत्म हुए थे। बावजूद इसके पेरिस की मौजूदा सीओपी21 इसलिए आखिरी अवसर है क्योंकि 2011 में वार्ताकारों में सहमति बनी थी कि कुछ भी हो 2015 के आखिर तक सौदा होगा। तभी दुनिया के लगभग सभी देशों के प्रतिनिधियों को यह करार करना ही है कि वे भविष्य के अपने उत्सर्जन को रोकने और जलवायु को गर्म होने से रोकने के लक्ष्य में कहां तक जा सकते है। क्या यह मुमकिन होगा? क्या महाखलनायक माने जाने वाले चीन, भारत और अमेरिका झुकेगे?
जोखिम बढ़ रही है, लगातार बढ़ती जा रही है। वक्त का तकाजा है कि जलवायु कूटनीति सिरे चढ़े। यह वैश्विक समस्या है। अस्तित्व का खतरा है तो जबरदस्त आर्थिक असर का खतरा भी लिए हुए है। यह हर कोई मान रहा है कि ऐसे परिवर्तन जरूरी है जिनसे जलवायु का बदलना रूके और अंतत: ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन पूरी तरह रूक ही जाए। इसके लिए आर्थिकियों का ट्रांसफोरमेशन भी जरूरी है!
सो यह विश्व व्यवस्था का कुल झमेला है। वैश्वीकरण के जिस मुकाम पर आज हमारी दुनिया है। भूमंडलीकरण के बाद की जो नई विश्व व्यवस्था है उसमें एक साथ इतनी तरह के चैलेंज बने है कि एक तरफ दुनिया में जहा एकजुटता बन रही है, साझापन बन रहा है तो वही यह सहमति भी नहीं होती कि कैसे आगे बढ़ा जाए? फिर मसला आतंक के काले झंड़ेे का हो, सशस्त्र संघर्ष का हो, आर्थिकियों के बेदम होने का हो या जलवायु परिवर्तन का मुद्दा हो। ये सब हम इंसानों की बनाई समस्याएं है। पर इंसान को यह इमरजेंसी भी समझ नहीं आ रही है कि पृथ्वी को, इस ग्रह को सूखाने, आग का गोला बनने देने के कैसे दुष्परिणाम होंगे!
इसलिए पेरिस में जमा राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों के लिए गतिरोध तोडऩे और कार्रवाई करने का वक्त है। यदि हवाई हमले और बम फेंकने के फैसले क्षण भर में लिए जा सकते है, युद्व की घोषणा तुरंत हो सकती है तो ऐसा करने वाले नेता उतने ही साहसी, व्यवहारिक निर्णय जलवायु परिवर्तन मसले पर क्यों नहीं कर सकते जिन पर अरबों लोगों याकि पूरी मानव जाति का भविष्य दांव पर है।
सच पूछिए तो अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा खासकर गरीब देशों में जिस तरह की परियोजनाओं को धन मुहैया कराया जा रहा है, यदि कार्बन उत्सर्जन कम करने में उनके योगदान का आकलन किया जाए, तो मालूम हो जाएगा कि उसकी चिंता कितनी जुबानी है और कितनी जमीनी। यों तिब्बत को अपना कहने वाला चीन भी बढ़ती मौसमी आग और बदलते मौसम से चिंतित है, पर क्या वाकई? तिब्बत को परमाणु कचराघर और पनबिजली परियोजनाओं का घर बनाने की खबरों से तो यह नहीं लगता कि चीन को तिब्बत या तिब्बत के बहाने खुद के या दुनिया के पर्यावरण की कोई चिंता है।
भारत ने भी कार्बन उत्सर्जन में तीस से पैंतीस फीसद तक स्वैच्छिक कटौती की घोषणा की है। इसके लिए गांधी जयंती का दिन चुना गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जीवन शैली में बेहतर बदलाव के लिए चेतना पैदा करने से लेकर स्वच्छ ऊर्जा और वन विकास के सुझाव पेश किए हैं। निस्संदेह, इसकी प्रशंसा होनी चाहिए; मगर क्या इन घोषणाओं पर आगे बढऩे के रास्ते सुगम बनाने की वाकई कोई हमारी सोच है?
उपभोग बढ़ेगा और छोटी पूंजी का व्यापार गिरेगा। गौर कीजिए कि इस डर से पहले हम में से कई मॉल संस्कृति से डरे, तो अधिकतर ने इसे गले लगाया; गर्व से कहा कि यह उत्तर बिहार का पहला मॉल है। अब डराने के लिए नया ई-बाजार है। यह ई-बाजार जल्द ही हमारे खुदरा व्यापार को जोर से हिलाएगा, कोरियर सेवा और पैकिंग उद्योग और पैकिंग कचरे को बढ़ाएगा। ई-बाजार अभी बड़े शहरों का बाजार है, जल्द ही छोटे शहर-कस्बे और गांव में भी जाएगा। तनख्वाह के बजाय, पैकेज कमाने वाले हाथों का सारा जोर नए-नए तकनीकी घरेलू सामान और उपभोग पर केंद्रित होने को तैयार है। जो छूट पर मिलेज् खरीद लेने की भारतीय उपभोक्ता की आदत, घर में अतिरिक्त उपभोग और सामान की भीड़ बढ़ाएगी और जाहिर है कि बाद में कचरा। सोचिए! क्या हमारी नई जीवन शैली के कारण पेट्रोल, गैस और बिजली की खपत बढ़ी नहीं है? जब हमारे जीवन के सारे रास्ते बाजार ही तय करेगा, तो उपभोग बढ़ेगा ही। उपभोग बढ़ाने वाले रास्ते पर चल कर क्या हम कार्बन उत्सर्जन घटा सकते हैं?
हमारी सरकारें पवन और सौर ऊर्जा के बजाय, पनबिजली और परमाणु बिजली संयंत्रों की वकालत करने वालों के चक्कर में फंसती जा रही हैं। वे इसे ‘क्लीन एनर्जी-ग्रीन एनर्जी’ के रूप में प्रोत्साहित कर रहे हैं। हमें यह भी सोचने की फुरसत नहीं कि बायो-डीजल उत्पादन का विचार, भारत की आबोहवा, मिट््टी व किसानी के कितना अनुकूल है और कितना प्रतिकूल? हकीकत यह है कि अभी भारत स्वच्छ ऊर्जा की असल परिभाषा पर ठीक से गौर भी नहीं कर पाया है। हमें समझने की जरूरत है कि स्वच्छ ऊर्जा वह होती है, जिसके उत्पादन में कम पानी लगे तथा कार्बन डाइऑक्साइड व दूसरे प्रदूषक कम निकलें। इन दो मानदंडों को सामने रख कर सही आकलन संभव है। पर हमारी अधिकतम निर्भरता अब भी कोयले पर ही है।
ठीक है कि पानी, परमाणु और कोयले की तुलना में सूरज, हवा, पानी और ज्वालामुखियों में मौजूद ऊर्जा को बिजली में तब्दील करने में कुछ कम पानी चाहिए, पर पनबिजली और उसके भारतीय कुप्रबंधन की अपनी अन्य सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियां हैं। ऐसे में सौर और पवन ऊर्जा के प्रोत्साहन के लिए हमने क्या किया। कुछ नहीं, तो उपकरणों की लागत कम करने की दिशा में शोध तथा तकनीकी और अर्थिक मदद तो संभव थी। समाज की जेब तक इनकी पहुंच बनाने का काम तो करना ही चाहिए था। अलग मंत्रालय बना कर भी हम कितना कर पाए? सब जानते हैं कि ज्वालामुखियों से भू-ऊर्जा का विकल्प तेजी से बढ़ते मौसमी तापमान को कम करने में अंतत: मददगार ही होने वाला है। भारत के द्वीप-समूहों में धरती के भीतर ज्वालामुखी के कितने ही स्रोत हैं। जानकारी होने के बावजूद हमने इस दिशा में क्या किया?
हम इसके लिए पैसे का रोना रोते हैं। हमारे यहां कितने फुटपाथों का फर्श बदलने के लिए कुछ समय बाद जान-बूझ कर पत्थर और टाइल्स को तोड़ दिया जाता है। क्या दिल्ली के मोहल्लों में ठीक-ठाक सीमेंट-सडक़ों को तोड़ कर फिर वैसा ही मसाला दोबारा चढ़ा दिया जाना फिजूलखर्ची नहीं है। ऐसे जाने कितने मदों में पैसे की बरबादी है। क्यों नहीं पैसे की इस बरबादी को रोक कर, सही जगह लगाने की व्यवस्था बनती; ताकि लोग उचित विकल्प को अपनाने को प्रोत्साहित हों। जरूरी है कि हम तय करें कि अब किन कॉलोनियों को सार्वजनिक भौतिक विकास मद में सिर्फ रखरखाव की मामूली राशि ही देने की जरूरत है।
उक्त तथ्य तो विचार का एक क्षेत्र विशेष मात्र हैं। जलवायु परिवर्तन के मसले को लेकर दुनिया का कोई भी देश अथवा समुदाय यदि वाकई गंभीर है, तो उसे एक बात अच्छी तरह दिमाग में बैठा लेनी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन, सिर्फ मौसम या पर्यावरण विज्ञान के विचार का विषय नहीं है। मौसम को नकारात्मक बदलाव के लिए मजबूर करने में हमारे उद्योग, अर्थनीति, राजनीति, तकनीक, कुप्रबंधन, लालच, बदलते सामाजिक ताने-बाने, सर्वोदय की जगह व्यक्तियोदय की मानसिकता, और जीवनशैली से लेकर भ्रष्टाचार तक का योगदान है। इसके दुष्प्रभाव भी हमारे उद्योग, पानी, फसल, जेब, जैव विविधता, सेहत, और सामाजिक सामंजस्य को झेलने पड़ेंगे। हम झेल भी रहे हैं, लेकिन सीख नहीं रहे।
यह जलवायु परिवर्तन और उसकी चेतावनी के अनुसार स्वयं को न बदलने का नतीजा है कि आज तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में नकदी फसलों को लेकर मौत पसरी है। नए राज्य के रूप में तेलंगाना ने 1,269 आत्महत्याओं का आंकड़ा पार कर लिया है। सूखे के कारण आर्थिक नुकसान बेइंतहा हैं। पिछले तीन सप्ताह के दौरान आंध्र के अकेले अनंतपुर के हिस्से में बाईस किसानों ने आत्महत्या की। जिन सिंचाई और उन्नत बीज आधारित योजनाओं के कारण, ओडि़शा का नबरंगपुर कभी मक्का के अंतरराष्ट्रीय बीज बिक्री का केंद्र बना, आज वही गिरावट के दौर में है।
भारत का कपास दुनिया में मशहूर है। फिर भी कपास-किसानों की मौत के किस्से आम हैं। कभी भारत का अनाज का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब का हाल किसी से छिपा नहीं है। इसने पहली हरित क्रांति के दूरगामी असर की पोल खोल दी है। इसकी एक के बाद, दूसरी फसल पिट रही है। बासमती, बढि?ा चावल है; फिर भी पंजाब के परमल चावल की तुलना में, बासमती की मांग कम है। इधर पूरे भारत में दालों की पैदावार घट रही है। महंगाई पर रार बढ़ रही है। यह रार और बढेÞगी; क्योंकि मौसम बदल रहा है। उन्नत बीज, कीटों का प्रहार झेलने में नाकाम साबित हो रहे हैं और देसी बीजों को बचाने की कोई जद््दोजहद सामने आ नहीं रही। यह तटस्थता कल को औद्योगिक उत्पादन भी गिराएगी। नतीजा? स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का यह दौर, मानव सभ्यता में छीना-झपटी और वैमनस्य का नया दौर लाने वाला साबित होगा।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर को हमें प्रकृति द्वारा मानव कृत्यों के नियमन के कदम के तौर पर लेना चहिए। हम नमामि गंगा में योगदान दें, न दें; हम एकादश के आत्म नियमन सिद्धांतों को मानें, न मानें; पर यह कभी न भूलें कि प्रकृति अपने सिद्धांतों को मानती भी है और दुनिया के हर जीव से उनका नियमन कराने की क्षमता भी रखती है। जिन जीवों को यह जलवायु परिवर्तन मुफीद होगा, उनकी जीवन क्षमता बढ़ेगी।
कई विषाणुओं द्वारा कई तरह के रसायनों और परिस्थितियों के बरक्स प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेने के कारण, डेंगू जैसी बीमारियां एक नई महामारी बन कर उभरेंगी। आइए, मोहनदास करमचंद गांधी नामक उस महान दूरदर्शी की इस पंक्ति को बार-बार दोहराएं- ‘पृथ्वी हरेक की जरूरत पूरी कर सकती है, लालच एक व्यक्ति का भी नहीं।’
जलवायु परिवर्तन में नियंत्रण के लिए पेरिस मे बारह दिनी जलवायु सम्मेलन शुरू हो गया है। संयुक्त राष्ट्र के 195 सदस्य देश इसमें भागीदारी कर रहें हैं। इस बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने पर वैश्विक सहमति बनने की उम्मीद इसलिए है क्योंकि अमेरिका, चीन और भारत जैसे औद्योगिक देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने पर रजामंदी पहले ही जता दी है। साथ ही माल्टा के प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कट ने पर्यावरण परियोजनाओं के समर्थन के लिए एक अरब डॉलर की राशि राष्ट्रमण्डल द्वारा शुरू की गई हरित वित्त संस्था को देने की घोषणा की है। तैयार हो रही इस पृष्ठभूमि से लगता है पेरिस का जलवायु सम्मेलन दुनिया के लिए फलदायी सिद्ध होने जा रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जलवायु में हो रहे परिवर्तन को नियंत्रित करने की दृष्टि से ‘अमेरिका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में एक तिहाई कमी लाने की घोषणा पहले ही कर दी है। चीन और भारत ने भी लगभग इतनी ही मात्रा में इन गैसों को कम करने का वादा अंतरराष्ट्रिय मंचों से किया है। ऐसा इसलिए जरूरी है, क्योंकि धरती के भविष्य को इस खतरे से बढ़ी दूसरी कोई चुनौती नहीं है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए ये देश कोयला आधारित बिजली का उत्पादन कम करेंगे। अमेरिका में कोयले से कुल खपत की 37 फीसदी बिजली पैदा की जाती है। कोयले से बिजली उत्पादन में अमेरिका विष्व में दूसरे स्थान पर है। पर्यावरण हित से जुड़े इन लक्ष्यों की पूर्ति 2030 तक की जाएगी।
पिछले साल पेरु के शहर लीमा में 196देश वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए राष्ट्रिय संकल्पों के साथ, आम सहमति के मसौदे पर राजी हुए थे। इस सहमति को पेरिस में शुरू हुए अंतरराष्ट्रिय जलवायु सम्मेलन की सफलता में अहम् कड़ी माना जा रहा है। दुनिया के तीन प्रमुख देशों ने ग्रीन हाउस गैसों में उत्सर्जन कटौती की जो घोषणा की है, उससे यह अनुमान लगाना सहज है कि पेरिस सम्मेलन में सार्थक परिणाम निकलने वाले हैं। यदि इन घोषणा पर अमल हो जाता है तो अकेले अमेरिका में 32 प्रतिशत जहरीली गैसों का उत्सर्जन 2030 तक कम हो जाएगा। अमेरिका के 600 कोयला बिजली घरों से ये गैसें दिन रात निकलकर वायुमंडल को दूशित कर रही हैं। अमेरिका की सड?ो पर इस समय 25 करोड़ 30 लाख कारें दौड़ रही हैं। यदि इनमें से 16करोड़ 60 लाख कारें हटा ली जाती हैं तो कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्पादन 87 करोड़ टन कम हो जाएगा।
पेरू में वैश्विक जलवायु परिवर्तन अनुबंध की दिशा में इस पहल को अन्य देशों के लिए भी एक अभिप्रेरणा के रूप में लेना चाहिए। क्योंकि भारत एवं चीन समेत अन्य विकासशील देशों की सलाह मानते हुए मसौदे में एक अतिरिक्त पैरा जोड़ा गया था। इस पैरे में उल्लेख है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े कॉर्बन उत्सर्जन कटौती के प्रावधानों को आर्थिक बोझ उठाने की क्षमता के आधार पर देशों का वर्गीकरण किया जाएगा,जो हानि और क्षतिपूर्ति के सिद्धांत पर आधारित होगा। अनेक छोटे द्विपीय देशों ने भी इस सिद्धांत को लागू करने के अनुरोध पर जोर दिया था। लिहाजा अब धन देने की क्षमता के आधार पर देश कॉर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के उपाय करेंगे। माल्टा के प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कट ने छोटे द्वीपीय 53 देशों वाले राष्ट्रमण्डल का नेतृत्व करते हुए ही 1 अरब डॉलर की राशि देने की घोषणा की है।
पेरू से पहले के मसौदे के परिप्रेक्ष्य में भारत और चीन की चिंता यह थी कि इससे धनी देशों की बनिस्बत उनके जैसी अर्थव्यवस्थाओं पर ज्यादा बोझ आएगा। यह आशंका बाद में ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्जियन’ के एक खुलासे से सही भी साबित हो गई थी। मसौदे में विकासशील देशों को हिदायत दी गई थी कि वे वर्ष 2050 तक प्रति व्यक्ति 1.44 टन कॉर्बन से अधिक उत्सर्जन नहीं करने के लिए सहमत हों, जबकि विकसित देशों के लिए यह सीमा महज 2.67 टन तय की गई थी। इस पर्दाफाष के बाद कॉर्बन उत्सर्जन की सीमा तय करने को लेकर चला आ रहा गतिरोध पेरू में संकल्प पारित होने के साथ टूट गया था। नए प्रारूप में तय किया गया है कि जो देश जितना कॉर्बन उत्सर्जन करेगा, उसी अनुपात में उसे नियंत्रण के उपाय करने होंगे। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में फिलहाल चीन शीर्श पर है। अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे पायदान पर है। अब इस नए प्रारूप को ‘जलवायु कार्रवाई का लीमा आह्वान’ नाम दिया गया है। पर्यावरण सुधार के इतिहास में इसे एक ऐतिहासिक समझौते के रुप में देखा जा रहा है। क्योंकि इस समझौते से 2050 तक कॉर्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत तक की कमी लाने की उम्मीद जगी है।
यह पहला अवसर था, जब उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ चुके चीन, भारत, ब्राजील और उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं अपने कॉर्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए तैयार हुईं थीं। सहमति के अनुसार संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य देश अपने कॉर्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को पेरिस सम्मेलन में पेश करेंगे। यह सहमति इसलिए बन पाई थी, क्योंकि एक तो संयुक्त राष्ट्र के विषेश दूत टॉड स्टर्न ने उन मुद्दों को पहले समझा, जिन मुद्दों पर विकसित देश समझौता न करने के लिए बाधा बन रहे थे। इनमें प्रमुख रुप से एक बाधा तो यह थी कि विकसित राष्ट्र, विकासशील राष्ट्रों को हरित प्रौद्योगिकी की स्थापना संबंधी तकनीक और आर्थिक मदद दें। दूसरे, विकसित देश सभी देशों पर एक ही सशर्त आचार संहिता थोपना चाहते थे, जबकि विकासशील देश इस शर्त के विरोध में थे। दरअसल विकासशील देशों का तर्क था कि विकसित देश अपना औद्योगिक – प्रौद्योगिक प्रभुत्व व आर्थिक समृद्धि बनाए रखने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा का प्रयोग कर रहे हैं। इसके अलावा ये देश व्यक्तिगत उपभोग के लिए भी ऊर्जा का बेतहाशा दुरुपयोग करते हैं। इसलिए खर्च के अनुपात में ऊर्जा कटौती की पहल भी इन्हींं देशों को करनी चाहिए। विकासशील देशों की यह चिंता वाजिब थी, क्योंकि वे यदि किसी प्रावधान के चलते ऊर्जा के प्रयोग पर अकुंष लगा देंगे तो उनकी समृद्ध होती अर्थव्यवस्था की बुनियाद ही दरक जाएगी। भारत और चीन के लिए यह चिंता महत्वपूर्ण थी, क्योंकि ये दोनों, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देश हैं। इसलिए ये विकसित देशों की हितकारी इकतरफा शर्तां के खिलाफ थे।
अब पेरिस में समझौते का स्पष्ट और बाध्यकारी प्रारूप सामने आएगा। लिहाजा अनेक सवालों के जवाब फिलहाल अनुत्तरित बने हुए हैं। पेरु मसौदे में इस सवाल का कोई उत्तर नहीं है कि जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए वित्तीय स्त्रोत कैसे हासिल होंगे और धनराशि संकलन की प्रक्रिया क्या होगी? हालांकि अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने पेरू में जो बयान दिया था, उससे यह अनुमान लगा था कि अमेरिका जलवायु परिवर्तन के आसन्न संकट को देखते हुए नरम रुख अपनाने को तैयार हो सकता है। क्योंकि केरी ने तभी कह दिया था कि ‘गर्म होती धरती को बचाने के लिए जलवायु परिवर्तन पर समझौते के लिए अब ज्यादा विकल्पों की तलाश एक भूल होगी, लिहाजा इसे तत्काल लागू करना जरुरी है।’ अमेरिका को यह दलील देने की जरूरत नहीं थी, यदि वह और दुनिया के अन्य अमीर देश संयुक्त राष्ट्र की 1992 में हुई जलवायु परिवर्तन से संबंधित पहली संधि के प्रस्तावों को मानने के लिए तैयार हो गए होते ? इसके बाद 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल में भी यह सहमति बनी थी कि कॉर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण सभी देशों का कर्तव्य है, साथ ही उन देशों की ज्यादा जवाबदेही बनती है जो ग्रीन हाउस गैसों का अधिकतम उत्सर्जन करते हैं। लेकिन विकसित देशों ने इस प्रस्ताव को तब नजरअंदाज कर दिया था, किंतु अब सही दिशा में आते दिख रहे हैं।
दरअसल जलवायु परिवर्तन के असर पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सन् 2100 तक धरती के तापमान में वृद्धि को नहीं रोका गया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। क्योकि इसका सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ रहा है। भविष्य में अन्न उत्पादन में भारी कमी की आशंका जताई जा रही है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एशिया के किसानों को कृषि को अनुकूल बनाने के लिए प्रति वर्ष करीब पांच अरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। हमारे सामने जो चुनौतियां आज विद्यमान हैं वह प्रकृति जन्य नहीं, वरन मानव की स्व प्रदत्त हैं। वस्तुत: इसके वाबजूद धन्य है यह नेचर जिसने उसी मानव के हाथ में स्वयं को सवांरने का अवसर भी दे दिया है लेकिन दुनिया के मनुष्य हैं कि समस्यायें तो उत्पन्न कर लेते हैं और जब समाधान की बात आती है तो विश्वभर के देश आपस में बातें तो बहुत करते हैं लेकिन व्यवहारिक धरातल पर भारत जैसे कुछ ही देश गंभीरतापूर्वक आगे आते हैं। भारत में मौसम का मिजाज तमाम पूर्वानुमानों को झुठलाते हुए नई राह पर चल रहा है। इससे कहीं बेमौसम बरसात हो रही है तो कहीं भारी बर्फबारी। बदलते मौसम ने देश में कई मौसमी बीमारियों को भी बड़े पैमाने पर न्योता दे दिया है। उसके इस मिजाज ने मौसम विज्ञानियों को भी चिंता में डाल दिया है। इस सदी में यह पहला मौका है जब किसी साल मौसम के मिजाज में इतना ज्यादा बदलाव देखने को मिल रहा है. भारत ही नहीं, ग्लोबल वार्मिंग का असर अब दुनिया के कई देशों में स्पष्ट नजर आने लगा है. भारत में इसके इतने गहरे असर का यह पहला मौका है। उनके मुताबिक, इसी वजह से पिछले एक दशक में भारी बर्फबारी, सूखा, बाढ़, गरमी के मौसम में ठंड और ठंड के मौसम में गरमी जैसी घटनाएं बढ़ी हैं मौसम के इस तेजी से बदलते मिजाज की वजह से देश की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंच रहा है।
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