ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। समाज में रहकर हम सभी समाज की मान्यताओं के अनुकूल आचरण करते हैं। मान्यताएं विभिन्न होते हुए भी उनकी परिणति लगभग एक जैसी है। जिसके लिए प्रत्येक प्राणी संघर्ष करता है। परिवार की मर्यादाओं से बंधनयुक्त मनुष्य समाज द्वारा निर्धारित आचरणों का पालन करने को बाध्य है तथा विभिन्न संस्कारों पर आचरण करता है। जन्म से मृत्यु पर्यंत मनुष्य संस्कारों से बंधा कर्तव्यरत रहता है। जीवन के प्रत्येक संस्कार का एक धार्मिक मूल्य है। संस्कृति भी हमारे कर्म तथा किये हुए कर्म पर आधारित है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य कर्म से बंधा है, जिसके अनुसार जन्म जन्मांतर से भोगमान भोगता है, इसलिए शास्त्रों में सत्कर्म करने पर जोर दिया जाता है। इस विधा में कर्मानुसार जन्म समय में क्षितिज में तदनुकूल ग्रह नक्षत्रादि भी उपस्थित रहते हैं, जो कि जन्म कुंडली के रूप में मिलते हैं। जन्मकुंडली वास्तव में जातक के पूर्व जन्म का वह लेखा जोखा है, जो इस जन्म में उसे भोगना पड़ता है। कुंडली देखकर यह बताया जा सकता है कि अमुक बालक का जन्म किन परिस्थितियों में हुआ। हिंदू धर्म का पुरातत्व नाम ही वर्णाश्रम धर्म है। जिससे हमारे विभिन्न संस्कार बंधे हैं, और आचरण की विधाएं। इन्हीं संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार है, वैवाहिक संस्कार। जिस पर दो अपरिचितों का मिलन, दोनों का भविष्य तथा मिलन के परिणति का वृत्तिफल इच्छित संतान होना भी निर्भर है। यही कारण है कि समाज के लोग विवाह के पूर्व लड़के तथा लड़कियों के परिवार के बारे में जानने समझने के बाद ही निर्णय लेते हैं तथा गणमान्य ज्योतिषियों से कुंडली दिखाते हैं तभी अंतिम निर्णय लेने की परंपरा है। ज्योतिष शास्त्र से कुंडली मिलाने की विधा जन्म काल के नक्षत्रादि से है। इसका वर्गीकरण 36 गुण किये हैं जिनके आधार पर मिलान आवश्यक है। यदि वर कन्या के 20 गुण मिलते हैं, तो इसे मध्यम माना जाता है। यदि 20 गुण से अधिक मिलते हैं, तो अति शुभ तथा 20 गुण से कम मिलने पर अशुभ माना गया है। अतः 20 गुण से जितना अधिक मिले उत्तरोत्तर उतना ही शुभ मानने का निर्देश शास्त्रों में है। अधिक गुणों के मेल पर अधिक जोर देना चाहिए। वर कन्या के नक्षत्रादि के आधार पर गुणों का मिलान किया जाता है। जन्मकाल में कुंडली बनाने में नक्षत्रों का प्रमुख महत्व है। पूछा भी जाता है कि कौन नक्षत्र में जन्मा है बच्चा? कैसा निकलेगा इत्यादि। यह सुनिश्चित एवं प्रमाणित है कि विशेष नक्षत्र में जन्म लिया व्यक्ति कुछ न कुछ नाक्षत्रिक विशेषता लिए पैदा होता है, जो सर्वविदित है। अतः नक्षत्रों की स्थिति के पश्चात् मनुष्य एक विशेष वर्ण, वश्य, गण, नाड़ी आदि को लेकर जन्म लेता है तथा उन गुण दोषों से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। उदाहरणार्थ यदि पूर्वा फाल्गुनी में कोई जन्म लेता है तो वह बालक निम्न गुण धर्म को लेकर जन्म लेता है। 1. वर्ण-क्षत्रिय 2 वश्य-वनचर 3. योनि-मूषक 4. गण-मनुष्य 5. नाड़ी-मध्य इत्यादि। ये सभी विशेषताएं मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म से पाता है तथा वैसी ही नैसर्गिक विशेषता लेकर जन्म लेता है। वास्तव में यह ईश्वरीय विधा है तथा सामाजिक एवं सांसारिक व्यवस्था से कहीं परे और सुनिश्चित है। इस प्रकार ब्राह्मण कुल में जन्में मनुष्य का जन्म नक्षत्र- पूर्वा फाल्गुनी है तो नक्षत्र वशात् वह क्षत्रिय वर्ण का हुआ। अंक निर्णय लेना है कि उस मनुष्य की भौतिक स्थिति को ध्यान में रखकर हमें विशेषतया नाड़ी पर कुंडली मिलाते समय ध्यान रखना चाहिए या नक्षत्र वशात क्षत्रिय वर्ण होने, क्षत्रिय वर्ण पर ध्यान देना चाहिए, जो वास्तव में ईश्वरीय है, तथा भौतिकता से परे है। अस्तु यहां यह तर्कसंगत होगा कि नक्षत्रादि के विपाक से जो कुछ है वही सुनश्चित और अटल है। पूर्व उल्लिखित उदाहरण में नाड़ी पर विशेष जोर न देकर क्षत्रिय वर्ण की व्यवस्था ही ग्रहण करने योग्य है। नक्षत्र वशात् ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी जातक क्षत्रिय गुणों को अपने में संजोये रहेगा। आचरण भी बहुत कुछ उससे मिलता जुलता होगा। नक्षत्रों के आधार पर 36 गुण होते हैं। यदि 36 गुण मिल गये तो वह मिलान अत्यंत श्रेष्ठ माना जायेगा। लेकिन ऐसा काम होता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि कम गुण मिलने पर कुछ न कुछ कमी तो रहेगी ही। यह कमी किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। जैसे यदि भाग्यादि ठीक रहा तो कन्या का बाहुल्य हो गया संतति के क्षेत्र में इत्यादि। यही नहीं वंशानुगत रोगादि भी वर कन्या के सहवास के फलस्वरूप मिलता है, वह भी तो मेलापक के काम अधिक गुणों के मिलने का प्रतिफल है। अक्सर देखा जाता है कि यजमान लोग भी केवल ग्रह मैत्री संतान धन को मिलाने पर जोर देते हैं ऐसे में शास्त्र और विद्वान को दोष देना व्यर्थ है। सुख एवं दुःख ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तो मनुष्य का गुण है कि यदि आज वह सुख भोग रहा है तो उसी को कल दुख भी भोगना पड़ सकता है। इसी प्रकार इस संसार चक्र को संचालित करने में नर एवं नाड़ी एक ही रथ के दो पहिये होते हैं। यह संसार बिना दोनों के योग से चल ही नहीं सकता। दोनों पहिये यदि एक दूसरे के समर्थक व पूरक न हों अर्थात् उचित ताल मेल न हो तो जीवनयापन सुखी नहीं हो सकता। हमारा ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। अब समय आ गया है कि इस विषय को नये सिरे से वैज्ञानिकता के आधार पर विवेचना की जाये तथा वर्तमान काल, स्थिति के संदर्भ में उसको प्रस्तुत किया जाये ताकि सूर्य सिद्धांत व दृश्य गणित का अंतर देखें। यदि इस प्रकार के समयांतर को आधार बनायें तो घटियों का अंतर पड़ते-पड़ते अंश राशि तक पहुंच जायेगा। आज समय आ गया है कि इस पर नये सिरे से विचार करके प्राचीन पद्धति पर बनी सारणी को हटाकर नवीनतम सारणी को प्रस्तुत किया जाये। अपने को समयानुकूल ढ़ालने के लिए नया रूप देना होगा। जबकि पाश्चात्य देश हमारे ही सिद्धांतों को अपनाकर अंतरिक्ष युग में प्रवेश कर चुके हैं तो हमारी कार्य क्षमता पर प्रश्न चिन्ह क्यों। उक्त के अतिरिक्त इसी प्रकार वर्तमान समय के पाश्चात्य समाज में विवाह विषयक निर्णय के लिए रक्त ग्रुप तथा आनुवंशिकी प्रथा प्रचलित है। इस विषय में हमारे मनीषियों ने हजारों वर्षों पूर्व कुंडली मेलापक की व्यवस्था कर दी थी। जो गौरव की बात है।
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