Tuesday, 19 January 2016

कृषि भूमि की कमी और विकास क्या है इसका ज्योतिषीय कारण -

विकास के नाम पर देश की हरियाली पर कुठाराघात किया जा रहा है दुनिया का अमीर से अमीर आदमी भी अन्न खाकर ही जीवित रहता है किंतु इसी अन्न को उगाने वाले किसानों से उपजाउ भूमि अधिग्रहित कर सरकार रोड़, नगर, क्रांकीट की जाल बिछाती जा रही है? आज भी हमारा देश कृषि प्रधान देश है और देश के लिए विकास और अनाज दोनो जरूरी है किसानो को शोषण करके देश का विकास संभव नही है। जमीन से पैदावार तो कर सकते है जमीनी दायरे को बढ़ा नही सकते इस देश का विकास तभी संभव है जब किसानों को शिक्षित किया जाएगा, कृषिभूमि को उरवर बनाने के प्रयास किये जाए क्योंकि किसान से विकास के नाम पर जमीन लेकर मुआवजा तो दे देंगे जो खत्म भी हो जायेगी किंतु पीढि़यों तक चलने वाली आजीविका कहाॅ से लायेंगे। विकास हो, खूब हो, देश तरक्की करे, आगे बढे। लेकिन विकास का यह कैसा मार्ग है जिस पर किसान, आदिवासी या गांववालों को दबा कर ही आगे ही बढ़ा जा सकता है। ऐसा क्यों हो रहा है जाने इसका ज्योतिषीय कारण क्या है। जब गुरू राहु से पापाक्रांत हो रहा है तो बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग आमजन विरोधी क्रियाकलाप कर आम जन के हित से परे कार्य करेंगे। चूॅकि मंगल, सूर्य और शुक्र जैसे ग्रह विपरीत हैं तो ताकतवर लोग कमजोर लोगों के हित से परे कार्य करेंगे। जो कि भविष्य में जन आंदोलन का कारण बनेगा। अतः आमजन की सुविधा और कृषि से जुड़े लोगो के हित को सर्वोपरी रखते हुए कार्य करना ही सत्ता और सरकार के साथ समाज की शांति, समृद्धि और सुख के लिए आवष्यक है।
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कष्ट का कारण हितों से समझौता या अन्याय का साथ-

जब भी कोई व्यक्ति या व्यवस्था न्यूनतम न्याय की अवहेलना कर निरंकुश होता है, तब-तब विनाश निश्चित होता है। जो लोग भी मूल्यों से परे जाकर सामान्य हित के खिलाफ होकर स्व हित का निर्णय लेते हैं तो उसे दण्ड भोगना पड़ता है। आपको चाहने वाले तब तक आपके साथ रहेंगे जब तक आप अपनी मर्यादाओं के अनुशासन पर खरे उतरते रहेंगे, अन्यथा पतन निश्चित होगा...। मतलब बहुत साफ है जो भी लक्ष्मण रेखा के अंदर रहेगा, वही सुरक्षित रहेगा। शनि साथ ही गुरू उंचे मानदंडों का पुनस्र्थापन कर रहे हैं। अतः जिस की भी कुंडली में शनि एवं गुरू की स्थिति विपरीत कारक है, उसके जीवन में परेशानियों एवं कष्ट का समय हो सकता है। अतः यदि आप परेशान या कष्ट जोकि कार्यक्षेत्र से लेकर सामाजिक अथवा परिवार से लेकर स्वास्थ्य तक कुछ भी हो सकता है तो अपनी कुंडली का विश्लेषण कराकर शनि एवं गुरू को अनुकूल करने हेतु ग्रह शांति, मंत्रजाप तथा उक्त ग्रहों से संबंधित दान कर अपने जीवन में अनुकूलता जा सकते हैं। 
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बुध देता है गलत चीजों की लत - ज्योतिषीय कारण व उपाय -

कुछ व्यक्तियों का व्यक्तित्व विशेष ढंग का होता है जिसमें पहले से ही कुछ ऐसे लक्षण विद्यमान रहते हैं, जो उसे शराबी बना देती है और वह तनाव की स्थिति से समायोजित होने के लिए कोई दूसरी सुरक्षात्मक प्रक्रिया का उपयोग नहीं कर पाता। इसे अल्कोहोलिक व्यक्तित्व कहा जाता है। व्यक्ति अपने शराब पीने पर नियंत्रण नहीं रख पाते, इसका कारण मनोवैज्ञानिक है। असामाजिक व्यक्तित्व तथा अवसाद ये दो ऐसे चिकित्सकीय लक्षण है जो अत्यधिक मद्यपान करनेवाले व्यक्तियों में पाये जाते है। ये लक्षण किसी व्यक्ति की कुंडली में दिखाई देती है। यदि किसी जातक की कुंडली में उसका तृतीयेष राहु से पापाक्रांत होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर आ जाए, बुध इन स्थानों का कारक ग्रह हो अथवा अपने स्थान से इन स्थानों पर हो तो ऐसा व्यक्ति तनाव से बचने के लिए अपने आप को नषे में डालता है और लगातार नषे के सेवन से एल्कोहोलिक होता हैं अतः कुंडली का विष्लेषण कराया जाकर तीसरे स्थान के ग्रहों की शांति, मंत्रजाप तथा पूजा तथा रत्न धारण करना चाहिए। अच्छे मार्गदर्षक या साथ में रहना भी तनाव से बाहर निकलने का एक जरिया होता है।
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बच्चों का भटकाव ज्ञात करें उसके दोस्तो की संख्या से -

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में जिस प्रकार ग्रहों में आपस में मित्रता-श्षत्रुता तथा समता होती है, उसी का असर जीवन में दोस्तो या साथियों तथा उसके लाभ तथा हानि से होता है। युवा होते बच्चों में दोस्ती करने की सबसे प्रबल इच्छा बलवती होती है, दोस्तो के साथ ज्यादा समय बिताना, बाहर रहना, नियम-कायदों की अनदेखी करना युवा बच्चों का जुनून बन गया है। अतः यदि आपका भी बच्चा इस प्रकार का आदी हो रहा हो तो देखें कि उसकी शनि या शुक्र की दषा तो नहीं चल रही और यदि ऐसा है तो जिस प्रकार जीवन साथी के चयन में गुण मेलापक को महत्व दिया जाता है, उसी के अनुरूप कैरियर या षिक्षा के दौरान दोस्त या सहपाठियों में गुण-दोषों का मिलान कर जीवन में कैरियर या अध्ययन के प्रयास में सफलता तथा दोस्तों के गुण-दोष से लाभ या हानि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए दोस्त का चयन करते समय अपनी ग्रह स्थितियों के अलावा, अपने ग्रहों की दिषा, दषा तथा स्थिति के अनुरूप व्यक्तियों से नजदीकी या दूरी बनाकर तथा किस व्यक्ति का संबंध किस स्थान है, जानकारी प्राप्त कर उस व्यक्ति से उस स्तर का संबंध बनाकर समस्या से निजात पाया जा सकता है। दोस्तो के चुनाव तथा व्यवहारगत संबंध तथा साथ में अध्ययन या प्रतियोगिता में लाभ-हानि तथा मानसिक शांति हेतु आवष्यक भूमिका का निभाता है। दोस्तो से व्यवहारिक हानि रोकने के लिए भृगु-कालेंद्र पूजा कराना चाहिए। अनुषासन बनाये रखने के लिए हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए।
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व्यवसाय में धन हानि हो तो करायें भृगु-कालेंद्र पूजा -

कई जातक उच्च महत्वाकांक्षा तथा सुख-साधन की पूर्ति हेतु व्यवसाय करना चाहता है। जब तक जातक की कुंडली में ग्रहयोग व्यवसाय हेतु उपयुक्त ना हो, जातक को सफलता प्राप्त होने में बाधा होती है। प्रायः देखने में आता है कि कोई व्यवसाय बहुत लाभ देते हुए अचानक हानिदायक हो जाता है। अतः कुंडली के ग्रह योगों तथा दषाओं को ध्यान में रखते हुए व्यवसाय किया जाए साथ ही समय-समय पर ग्रह दषाओं का आकलन कराया जाकर उचित समाधान लेने से व्यवसायिक लाभ के साथ उन्नतिदायी होती है वहीं व्यक्ति के गहों की स्थिति और उनके अनुरूप ग्रह दषाओं में धन का गलत उपयोग तो कई बार धन का आवागमन रूक जाने से व्यवसायिक परेषानियाॅ दिखाई्र देती है, ये परेषानी बड़े व्यवसायियों से लेकर छोटे स्तर के व्यवसाय में भी हो सकता हैं अतः ज्योतिषीय आकलन से व्यवसायिक  जीवन में अधिक सफलता प्राप्त की जा सकती है। धन एवं भौतिक सुख का कारण ग्रह शुक्र है और उस ग्रह के प्रतिकूल होने या दषाओं में व्यवसाय में हानि दिखाई देती है। वहीं राहु या शुक्र की दषा या अंतरदषा चले और ये ग्रह प्रतिकूल स्थिति में हों तो व्यवसाय में धन संबंधी कष्ट दिखाई देता है। अतः अनुकूल ग्रह स्थिति के साथ अनुकूल दषाओं का पता लगाकर अपने जीवन में सफलता प्राप्त की जा सकती है। व्यवसाय में धन या अवनति हो रही हो तो भृगु-कालेंद्र पूजा कराना, सूक्ष्म जीवों की सेवा करना एवं दुर्गा कवच का पाठ करना चाहिए।
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पार्टनर से दुख क्यूॅ जाने कुंडली से -

प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका साथी उसके लिए लाभकारी तथा सुखकारी हो, किंतु कई बार सभी प्रकार से अच्छा करने के बाद भी साथ वाला व्यक्ति आपके लिए दुख का कारक बन जाता है। ज्योतिष से जाने कि आपके साथी के साथ व्यवहार कैसा होगा। किसी कुंडली के सप्तम भाव, सप्तमेष तथा सप्तमस्त ग्रह तथा नवांश के अध्ययन से मूलभूत जानकारी प्राप्त की जा सकती है। सप्तमभाव या सप्तमेष का किसी से भी प्रकार से मंगल, शनि या केतु से संबंध होने पर रिश्तों में बाधा, सुख में कमी का कारण बनता है वहीं शुक्र से संबंधित हो तो रिश्तों में आकर्षक तथा लगाव होगा तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा भौतिक सुख भी अच्छी होगी, जिसका लाभ साथी को भी मिलेगा। सप्तम स्थान पर गुरू, बुध हेाने पर साथी बुद्धिमान, उच्च पद में हो सकता है किसी भी प्रकार से राहु से संबंध बनने पर व्यसनी, काल्पनिक व्यक्तित्व हो सकता है वहीं चंद्रमा के होने पर भावुक किंतु आलसी होगा। सूर्य या राहु से संबंधित होने पर राजनीति या प्रशासन से संबंधित होने के साथ अहंकार के कारण रिश्तों में तनाव दिखाई दे सकता है ऐसी स्थिति सप्तम या सप्तमेष का किसी भी प्रकार का संबंध 6,8 या 12 वे भाव से बनने पर भी दिखाई देता है। वहीं पर लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश या द्वादशेष की युक्ति किसी भी प्रकार से शनि के साथ बनने पर लगाव के साथ अधिकार का भाव ज्यादा होता है। अतः इन ग्रहों के विपरीत फलकारी होने पर या कू्रर ग्रहों से आक्रांत होेने पर सर्वप्रथम इन ग्रहों से संबंधित निदान कराने के उपरांत ही साथी के साथ रिश्ता निभाना ज्यादा आसान होता है साथ ही कुंडली मिलान में नौ ग्रहों के मिलान कर भी आपसी समझ तथा लगाव को बढ़ाने के ज्योतिष उपाय करना चाहिए।
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संतानहीनता योग- ज्योतिषीय कारण और निवारण -


संतानहीनता योग- ज्योतिषीय कारण और निवारण -
संतानहीनता के लिए महर्षि पाराषर ने अनेक कारणों का उल्लेख किया है, जिसमें प्रमुख कारण जातक का किसी ना किसी प्रकार से शाप से ग्रस्त होना भी बताया है। यदि जन्मांग में पंचमस्थान का स्वामी शत्रुराषि का हो, छठवे, आठवे या बारहवें भाव में हो या राहु से आक्रांत हो या मंगल की पूर्ण दृष्टि हो तो संतान प्राप्ति में बाधा होती है। यदि संतान बाधाकारक ग्रह सूर्य हो तो पितरों का शाप संतान में बाधा देता है। वहीं यदि चंद्रमा प्रतिबंधक ग्रह हो तो माता या किसी स्त्री को दुख पहुॅचाने के कारण संतानबाधक योग बनता है। यदि मंगल से संतान बाधक हो तो भाईबंधुओं के शाप से संतानसुख में कमी होती है। यदि गुरू संतानहीनता में कारक ग्रह बनता हो तो कुलगुरू के शाप के कारण संतानबाधा होती है। यदि शनि के कारण संतान बाधा हो तो पितरों को दुखी करने के कारण संतान में बाधा होती है तथा राहु के कारण संतान प्राप्ति के मार्ग में बाधा हो तो सर्पदोष के कारण संतानसुख बाधित होता है। इसी प्रकार ग्रहों की युक्ति या ग्रह दषाओं के कारण भी संतान में बाधा या हीनता का कारण बनता हो तो उचित ज्योतिषीय निदान द्वारा संतानहीनता के दुख को दूर किया जा सकता है। उक्त ग्रह दोष निवारण उपाय के साथ पयोव्रत करना लाभकारी होता है। पयोव्रत का व्रत फाल्गुनमास की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से त्रयोदषी तक किया जाता है। विधिविधान से किया गया व्रत संतानहीनता का दोष दूर कर संतान सुख प्रदान करता है।

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Monday, 18 January 2016

फलित ज्योतिष अष्टक वर्ग की विशेषता

फलित ज्योतिष में फलादेश निकालने की अनेक विधियां प्रचलित हैं, जिनमें से पराशरोक्त सिद्धांत, महादशाएं, अंतर दशाएं, प्रत्यंतर दशाएं, सूक्ष्म दशायें इत्यादि के साथ, जन्म लग्न, चंद्र लग्न, नवांश लग्न के द्वारा, वर्ष, मास, दिन एवं घंटों तक विभाजित कर, सूक्ष्म फलादेश निकालना संभव हैं। लेकिन इसके बावजूद भी फलादेश सही अवस्था में प्राप्त नहीं होता है। फलादेश में सूक्षमता लाने के लिए ज्योतिष के सभी ग्रंथों में अष्टक वर्ग अपना एक विशेष स्थान रखता है। अष्टक वर्ग का वर्णन ज्योतिष के प्राचीन मौलिक ग्रंथों में सभी जगह मिलता है, वृहद पाराशरी होरा शास्त्र में तो उत्तर खंड में अष्टक वर्ग का ही वर्णन किया गया है। ज्योतिष शास्त्र में अष्टक वर्ग एक अहम् भूमिका है। ज्योतिष में इसके बिना भविष्यवाणी करना असंभव तो नहीं, लेकिन कठिन अवश्य है। कभी-कभी देखते हैं कि किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली में ग्रहों की स्थिति उच्च बल की है, परंतु वह व्यक्ति एक साधारण सामान्य जीवन व्यतीत कर रहा है, दूसरी ओर देखने को मिलता है कि किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली में ग्रहों की स्थिति अति नीच की हैं, परंतु वह व्यक्ति उच्च एवं महान जीवन व्यतीत करता है, आखिर ऐसा क्यों? फलित सिद्धांत के अनुसार कोई भी ग्रह अपनी नीच, शत्रु राशि, या छठे, आठवें तथा बारहवें भाव में अनिष्ट फल देता है, लेकिन देखने के लिए मिलता है कि ऐसे ग्रहों वाला व्यक्ति भी संसार में उच्च पद पर नियुक्त है। ऐसे व्यक्ति की कुंडली को देख कर कोई कल्पना नहीं कर सकता कि वह किसी ऊंचे पद पर होगा। इसके लिए अष्टक वर्ग का सिद्धांत अत्यधिक आवश्यक है। कोई भी ग्रह उच्च का स्वक्षेत्री, या केंद्र आदि बलयुक्त षोडष बलयुक्त योगकारक ही क्यों न हो, यदि उसकी अष्टक वर्ग में स्थिति बलयुक्त न हो, तो वह शुभ फल नहीं देता है और यदि, उसके विपरीत, वह ग्रह छठे, आठवें एवं बारहवें भाव में स्थित हो, या शत्रुक्षेत्री, बलहीन हो, यदि वह अष्टक वर्ग में बलयुक्त हो, तो वह शुभ फल देता है। केवल किसी एक ग्रह के आधार पर वास्तविक सत्य भविष्यवाणी नहीं की जा सकी है। इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि सारे सौर मंडल में अन्य ग्रह उसे कितना प्रभावित करते हैं तथा उस ग्रह से अन्य ग्रहों की स्थिति क्या है एवं उसका प्रभाव क्या है? इसका ज्ञान सिर्फ अष्टक वर्ग से ही हो सकता है। जन्म के समय किसी ग्रह की जो स्थिति केवल उस स्थिति के अनुरुप फल कथन करते समय यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि वर्तमान में ग्रह की स्थिति क्या है, जन्म के समय उस ग्रह की स्थिति उच्च बल की हो, लेकिन वर्तमान में उस ग्रह की स्थिति न्यूनतम है, तो इसका निराकरण अष्टक वर्ग एवं गोचर के द्वारा ही किया जाता है। गोचर के फल में स्थूलता है। क्योंकि एक ही राशि के अनेक मनुष्य होते हैं, इसलिए गोचर में भी सूक्ष्मता लाने के लिए अष्टक वर्ग की उपयोगिता है। गोचर में, चंद्र राशि को प्रधान मान कर, शुभ स्थान की गणना कर, प्रत्येक ग्रह को शुभ एवं अशुभ माना जाता है। परंतु अष्टक वर्ग में, प्रत्येक ग्रह की राशि को प्रधान मान कर, उससे शुभ स्थान की गणना की जाती है। इसमें सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शनि 7 ग्रह एवं लग्न सहित 8 होते हैं। इन आठों के संपूर्ण योग को ‘अष्टक वर्ग’ कहा जाता है। अष्टक वर्ग में 8 प्रकार से शुभ तत्वों की गणना की जाती है। इस कारण अष्टक वर्ग के द्वारा गोचर फल विचार में सूक्ष्मता आ जाती है। इसके बिना फलित अधूरा है, जिस ग्रह की जिस राशि में लग्न सहित आठों ग्रहों की स्थिति अनुकूल होगी, उसको 8 रेखाएं प्राप्त हांेगी, उस राशि से भ्रमण करते समय वह शत-प्रतिशत फल देता है । 4 से अधिक रेखाएं होने पर वह ग्रह शुभ फल ही देगा। अष्टक वर्ग में इस बात पर विचार नहीं किया जाता है कि वह राशि कौन से भाव में है, भले ही वह राशि जन्म लग्न, या चंद्र राशि से आठवी, बारहवीं, या केंद्र त्रिकोण में हो, यदि उसे 4 से अधिक रेखाएं प्राप्त होंगी, तो गोचर का ग्रह उस राशि पर अवश्य ही शुभ फल देगा। मान लीजिए, वृश्चिक राशि से द्वादश स्थान पर तुला का गुरु है। यदि वह 4 से अधिक रेखाओं से युक्त है, तो द्वादश में होता हुआ भी शुभ फल देगा। इसमें भी एक ग्रह अपने निर्धारित समय तक रहता है, जैसे सूर्य। मास, चंद्रमा सवा 2 दिन, गुरु 13 मास इत्यादि। इनमें और भी सूक्ष्मता लाने के लिए यह देखते हैं कि उस ग्रह को कौन सा ग्रह उस राशि में शुभ फल प्रदान कर रहा है। इसके लिए उस राशि को 8 से विभाजित कर देंगे। इनका क्रम शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध, चंद्रमा और लग्न हो। 30 भाग 8 = 3-45 होगा, इसमें पहला भाग 3-45 तक शनि का, दूसरा 7-30 तक गुरु का, तीसरा 11-45 तक मंगल का, चैथा 15 तक सूर्य का, पांचवां 18-45 तक शुक्र का, छठा 22-30 तक बुध का, सातवां 26-15 तक चंद्रमा का और आठवां 30 तक लग्न का होगा। उस राशि में शुभ फल देने वाली रेखाओं को इसी क्रम से देखेंगे। इस प्रकार अष्टक वर्ग की जिस राशि के जिस भाग में शुभ रेखा होगी, उस ग्रह के उस अंश तक शुभता रहेगी। उस वक्त तक वह ग्रह शुभ फल देगा। इस प्रकार अष्टक वर्ग द्वारा गोचर में और भी सूक्ष्म फलित दे सकते हैं। जन्मकुंडली में प्रत्येक ग्रह के प्रत्येक भाव में फल भिन्न-भिन्न हैं। कुछ भावों में ग्रह अपना शुभ फल देते हैं और कुछ घरों में बुरा फल प्रदान करते हैं। लेकिन अष्टक वर्ग में ऐसा नहीं माना जाता है। अष्टक वर्ग में सब ग्रहों का किसी भी भाव में शुभ एवं अशुभ फल एक समान होगा। अनिष्ट स्थान में भी ग्रह शुभ फल देता है और शुभ स्थान पर भी ग्रह अनिष्ट फल दे सकता है। जन्मकुंडली में किसी भी भाव में समुदायक अष्टक वर्ग के अनुसार 32 से ऊपर रेखाएं होंगी, तो उस भाव में स्थित ग्रह शुभ फल देगा; चाहे वह ग्रह अनिष्टकारक ही हो। यदि 32 से कम रेखाएं होंगी, तो उतना ही वह ग्रह अशुभ फल देता जाएगा। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए वृश्चिक राशि लग्न की जन्म कुंडली में सूर्य दशमेश हो कर अष्टम मिथुन राशि पर पड़ा है, तो उसका फल अशुभ होगा। लेकिन यदि समुदायक अष्टक वर्ग में उसे 32 से ऊपर रेखाएं प्राप्त हो रही हों, तो अष्टम भाव स्थित सूर्य के फल में शुभता आ जाएगी, अर्थात् इस प्रकार 32 रेखाओं से अधिक भाव वाले भाव में स्थित अनिष्ट ग्रह भी शुभ फल प्रदान करेंगे। समुदायक अष्टक वर्ग में दसवें भाव से एकादश भाव में अधिक रेखाएं हांे और एकादश भाव से द्वादश भाव में कम रेखाएं हों तथा द्वादश भाव से लग्न में अधिक रेखाएं हों, तो वह सुखी, धनवान एवं भाग्यवान योग बन जाता है। सूर्य और चंद्रमा अष्टक वर्ग में किसी राशि में 1, 2 या कोई भी रेखा न हो, तो उस राशि के गोचर के सूर्य और चंद्रमा में कोई भी शुभ मांगलिक महत्वपूर्ण कार्य करना अच्छा नहीं होता है। इसके लिए जन्मकुंडली के आधार पर सूर्य, चंद्र, गुरु के अष्टक वर्ग में देखें कि उस राशि में उसे कितनी रेखाएं प्राप्त हुई हैं। यदि 4 से अधिक रेखाएं प्राप्त हों, तो उसमें मांगलिक कार्य करना शुभ ही होगा। यदि 4 से कम रेखाएं हों, तो ठीक नहीं, परंतु यदि 4 रेखाओं से अधिक है, तो वह शुभ है; चाहे वह जन्म राशि से बारहवीं राशि ही क्यों न हो। गोचर का सूर्य, चंद्र, गुरु शुभ माना जाएगा। सूर्य अष्टक वर्ग से आत्मा, स्वभाव, शक्ति और पिता का विचार किया जाता है। यदि सूर्य को 4 से कम रेखाएं प्राप्त हांेगी, तो मनुष्य आत्मिक तौर पर निर्बल ही होता है। यदि 4 से अधिक रेखाएं हों, तो आत्मिक बल और राजतुल्य वैभव से युक्त होता है। सबसे कम रेखाएं हांेगी, तो उस राशि के गोचर का सूर्य उसके लिए अनुकूल नहीं होगा। गोचर का शनि जब उस राशि में आए, तो पिता इत्यादि को कष्ट होता है। उस मास में महत्वपूर्ण रेखाएं होंगी। उसमें गोचर का जब सूर्य और बृहस्पति आएगा, तो वह समय उसके लिए पैतृक सुख एवं आत्मिक उन्नति और शुभ कार्यों के लिए विशेष रहेगा। सूर्य अष्टक वर्ग में सूर्य से नौंवे घर की रेखाओं को सूर्य अष्टक वर्ग की पिंड आयु से गुणा कर के 27 का भाग देने के बाद जो शेष आएगा, उस नक्षत्र में, या (दसवें, या उन्नीसवें) नक्षत्र में गोचर का शनि आएगा, तो पिता को कष्ट होगा। इसी प्रकार 12 का भाग देने से जो शेष राशि होगी, उस राशि, या राशि के त्रिकोण (दसवें, या उन्नीसवें) में गोचर का शनि होगा, तो पिता को कष्ट होगा और उसकी शुभता के लिए गोचर का गुरु जब इन नक्षत्रों, राशियों में आएगा, तो उसे निश्चित ही पैतृक सुख मिलेगा। चंद्र अष्टक वर्ग में जिस राशि में शून्य, या कम रेखाएं हांे उस राशि के चंद्रमा का शुभ कार्यों में परित्याग करना चाहिए। जिस राशि में 5 से अधिक रेखाएं हों, उसमें शुभ कार्य करने चाहिएं। इसी तरह चंद्र की अष्टक वर्ग से कम रेखाएं होंगी, तो वह राशियां उसके लिए अशुभ साबित होगीं एवं जिसमें अधिक रेखाएं हांेगी, वह राशियां उसके लिए शुभ हांेगी। चंद्रमा से चतुर्थ भाव की राशि से माता एवं मन और बुद्धि का विचार किया जाता है। चंद्रमा की पिंड आयु से गुणा कर के 27 का भाग देने से शेष नक्षत्र, या उसके त्रिकोण, या 12 से भाग देने पर शेष राशि, या उसके त्रिकोण में गोचर का शनि आने से माता इत्यादि को कष्ट होगा। मंगल अष्टक वर्ग से भाई, पराक्रम का विचार होता है। मंगल से तृतीय स्थान भाई का है। मंगल अष्टक वर्ग में मंगल से तीसरे स्थान में जितनी शुभ रेखाएं हांेगी, उतने भाई-बहनों का सुख होगा। मंगल से तीसरे स्थान की रेखाओं का मंगलाष्टक वर्ग की पिंड आयु से गुणा कर के 27 का भाग देने पर शेष नक्षत्र, या उसके त्रिकोण में 12 का भाग देने से शेष राशि, या उसके त्रिकोण में गोचर का शनि आये, तो भाई को कष्ट होगा। उसके साथ ही जब इन राशियों में गोचर का गुरु आएगा, तो भाई से भाई का लाभ होगा। बुध से चतुर्थ भाव में कुटुंब, मित्र और विद्या आदि का विचार किया जाता है। बुध अष्टक वर्ग में किसी राशि में एक भी रेखा प्राप्त न हो, उस राशि में गोचर का शनि जब भ्रमण करेगा, तो संपत्ति की हानि, पारिवारिक समस्याएं बंधु-बांधवों से विवाद चलेंगे। बुध अष्टक वर्ग में जिस राशि में सबसे अधिक रेखाएं होंगी, उस राशि में गोचर के बुध में विद्या-व्यापार आरंभ करना शुभ होगा। बुध के दूसरे पर यदि पांच से अधिक रेखाएं हांेगी, तो उसके बोलने कि शक्ति होगी। बुध के चतुर्थ स्थान की रेखा से बुध के योग पिंड से गुणा कर के 27 का भाग देने पर शेष नक्षत्र, या उसके त्रिकोण में 12 से भाग देने पर शेष राशि या उसके त्रिकोण में गोचर का शनि आएगा, तो बंधु-बांधव एवं कुटुंब को कष्ट होगा, उपर्युक्त राशियों में जब गोचर का गुरु आएगा तो लाभ देगा। गुरु अष्टक वर्ग में जिस राशि में सर्वाधिक रेखाएं होगीं, उसी लग्न में जातक के गर्भाधान करने से पुत्र संतान की प्राप्ति होगी और उस राशि की दिशा में धन संपत्ति व्यवसाय से लाभ होगा। गुरु अष्टक वर्ग के जिस राशि में कम रेखाएं होंगी, उस मास में कार्य करने से निष्फलता होती है। गुरु अष्टक वर्ग में गुरु के पंचम भाव की रेखाओं से गुरु की पिंड आयु से गुणा कर के 27 का भाग दे कर, उसके नक्षत्र, या त्रिकोण में, 12 का भाग दे कर, उसके शेष राशि, या उसके त्रिकोणों में जब गोचर का शनि आएगा, तो संतान इत्यादि को कष्ट होगा। जब इन राशियों में गोचर का गुरु होगा, तो संतान लाभ होगा। शुक्राष्टक वर्ग में शुक्र से सप्तम स्थान में स्त्री का विचार होता है। जिस राशि में कम रेखाएं होंगी, उस राशि की दिशा में शयन कक्ष बनाने से लाभ होगा। जिसमें अधिक रेखाएं हांेगी, उस राशि की दिशा में स्त्री लाभ होगा। जिस राशि में सर्वाधिक रेखाएं हांेगी, उस राशि में जब-जब गोचर का शनि आएगा, तब-तब स्त्री लाभ होगा एवं स्त्री सुख होगा। शुक्र से सातवें स्थान की रेखाओं से शुक्र की पिंड आयु से गुणा कर के, 27 का भाग देने से शेष नक्षत्र, या उसके त्रिकोण 12 का भाग देने पर शेष राशि, या उसके त्रिकोणों में गोचर का शनि जब आएगा, तो स्त्री को कष्ट होगा। उपर्युक्त राशियों में जब गोचर का गुरु आएगा तो स्त्री लाभ होगा एवं सुख की प्राप्ति होगी। शनि अष्टक वर्ग में जिस राशि में अधिक रेखाएं हों, उस राशि में गोचर का शनि शुभ फलदायक और जिस राशि में कम रेखाएं हांेगी, उस राशि में गोचर का शनि अशुभ फलदायी होता है। लग्न से ले कर शनि तक जितनी रेखाएं हांेगी, उनके योग तुल्य वर्षों में कष्ट होगा। इसी प्रकार शनि से लग्न तक जितनी रेखाएं हांेगी, उनके योग तुल्य वर्षों में ही कष्ट होगा। शनि से अष्टम शनि की रेखा संख्या के अष्टम स्थान को, शनि की पिंड आयु से गुणा कर के, 27 से भाग दे कर, शेष नक्षत्र, या उसके त्रिकोणों में 12 से भाग देने पर शेष राशियों या उनके त्रिकोणों में जब गोचर का शनि आता है, तो कष्टमय होता है। अष्टक वर्ग के द्वारा फल उत्तम और सही अवस्था में ठीक-ठीक होता है। अष्टक वर्ग के फल कथन करने से जैसे-जैसे अनुभव में वृद्धि होगी, वैसे-वैसे वर्ष, मास, दिन एवं घड़ी के शुभ फल अनुभव में आने लगेंगे और प्रतिष्ठा पर फलित ज्योतिष विज्ञान के महत्व की अनोखी छाप पड़ेगी।

अस्त ग्रहों का जीवन में प्रभाव

सूर्य को ग्रहों का राजा कहा जाता है। जो ग्रह सूर्य से एक निष्चित अंषों पर स्थित होने पर अपने राजा के तेज और ओज से ढंक जाता है और क्षितिज पर दृष्टिगोचर नहीं होता तो उसका प्रभाव नगण्य हो जाता है। भारतीय फलित ज्योतिष में ग्रहों की दस अवस्थाएं हैं। दीप्त, स्वस्थ, मुदित, शक्त, षान्त, पीडित, दीन, विकल, खल और भीत। जब ग्रह अस्त हो तो विकल कहलाता है। अस्त होने का दोष सभी ग्रहांे को है। सूर्य से ग्रह के बीच एक निष्चित अंषों की दूरी रह जाने पर उस ग्रह को अस्त होने का दोष माना जाता है। चन्द्रमा जब सूर्य से 12 अंष के अंतर्गत होता है तो अस्त माना जाता है। इसी प्रकार मंगल 7 अंषों पर, बुध 13 अंषों पर, बृहस्पति 11 अंषो पर, शुक्र 9 अंष और शनि 15 अंष में आ जाने पर अस्त होते हैं। ये प्राचीन मान्यताएं हैं। वर्तमान में कुछ विद्वानांे का मत है कि ग्रह को तभी अस्त मानना चाहिये जबकि वह सूर्य से 3 अंष या इससे कम अंषों की दूरी पर हो। जो ग्रह सूर्य से न्यूनतम अंषों से पृथक होगा उसे उसी अनुपात में अस्त होने का दोष लगेगा। चन्द्रमा और बुध अस्त होने की स्थिति:- बुध प्रायः अस्त रहता है क्योंकि वह सूर्य के निकट रहता है। यही कारण है कि इसे अस्त होने का दोष नहीं लगता। बुध और सूर्य की युति को बुधादित्य योग के नाम से जाना जाता है। यह एक शुभ योग है। चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। प्रत्येक माह की पूर्णिमा के उपरांत चंद्रमा और सूर्य के मध्य के अंष कम होने लगते हैं। अमावस्या के समय चन्द्रमा और सूर्य लगभग समान अंषों पर होते हैं। चंद्रमा जब सूर्य से 12 अंषांे से कम दूर होता है तो अस्त होने का दोष माना जाता है परन्तु चन्द्रमा को तभी शुभ फलदायी समझना चाहिये जबकि वह न्यूनतम 70 अंष दूर हो। यदि चंद्रमा और सूर्य के बीच इससे कम अंषांे का अन्तर होता है तो चंद्रमा स्वयं बली न होकर उस राषि या ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है जिस से कि वह प्रभावित हो। यह शुभ स्थिति नहीं है। चंद्रमा जितना सूर्य के निकट होगा उतनी उसकी कलायें कम होंगी। अस्त ग्रह जीवन के दो पहलुओं पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। जन्म लग्न में विभिन्न भावांे से अलग-अलग पहलुओं को देखा जाता है। जब कोई ग्रह अस्त होता है तो उसके नैसर्गिक गुण प्रभावित होते हैं। साथ ही वह जिस भाव का स्वामी होता है उसके फलांे में भी विलंब करता है। जैसे यदि बृहस्पति अस्त है और वह सप्तमेष है तो न केवल स्त्री सुख में बाधा बल्कि जातक में भी विवेकषीलता का अभाव होगा। इस प्रकार जब शुक्र चतुर्थेष होकर अस्त हो और अष्टमस्थ हो तो जातक में यौन शक्ति का अभाव होता है। यौन रोग होते हैं, माता के सुख में न्यूनता आती है। वाहन और भवन सुख में भी कमी आती है। अस्त ग्रह को बली नहीं समझना चाहिये। यदि सूर्य से अस्त ग्रह का अंषात्मक अंतर 3 अंष से अधिक है तो अस्त होने का दोष नष्ट हो जाता है। अस्त ग्रह सदैव दुष्फल देते हैं। कुछ स्थितियां ऐसी भी होती हैं जबकि अस्त ग्रह जिसका वह स्वामी है, के लिये शुभ स्थिति मंे होता है। सभी भावों में गुण दोष होते हैं परन्तु त्रिक भावांे में अषुभ फलांे की अधिकता होती है। हमारे विद्वानों का मानना है कि अस्त ग्रह त्रिक भावांे 6-8-12 में हों तो फलांे की वृद्धि होती है अर्थात ये भाव अपने अषुभ परिणामों को प्रकट नहीं कर पाते। इसका दूसरा पक्ष भी है। जब इन भावों अर्थात 6-8-12 के स्वामी अस्त हों तो समृद्धि आती है और सफलता मिलती है। यह स्थिति विपरीत राजयोग होती है।

दाम्पत्य जीवन टूटना और जुड़ना

दाम्पत्य जीवन की गाड़ी पति-पत्नी रूपी दो पहियों पर चलती है। दोनों में से एक भी यदि उदासीन हो तो दाम्पत्य सुख में कमी आने लगती है। मात्र दैहिक आकर्षण ही रिश्तों को बनाए रखने के लिए काफी नहीं है दोनों के बीच आपसी लगाव एवं विश्वास ही सफल दाम्पत्य जीवन की निशानी है। प्रस्तुत है इसी कशमकश को पेश करती एक और कथा...ज्योतिष शास्त्र में शनि अपूर्णता, हीनता अभाव आदि का द्योतक है। शनि एक पृथकतावादी ग्रह भी है और अपनी दशा अथवा अंतर्दशा एवं साढ़ेसाती में अकारक होकर व्यक्ति को प्रभावित क्षेत्रों से पृथक करता है और एक अलगाव की स्थिति बना देता है। परंतु शुक्र अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। कुंडली में शुक्र की उत्तम स्थिति न केवल व्यक्ति के शारीरिक सौंदर्य और उत्तम संस्कृति में वृद्धि करती है बल्कि दूसरों को अपनी ओर आकृष्ट करने की क्षमता भी प्रदान करती है। कुछ ऐसा ही हुआ वैशाली और उत्सव के साथ। वैशाली एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में एक अच्छे पद पर कार्य करती थी जहां उसकी मुलाकात उत्सव से हुई। उत्सव अत्यंत कार्यकुशल सहयोगशील स्वभाव का लड़का था। दोनों की दोस्ती धीरे-धीरे कब आपसी प्रेम में बदल गई, पता ही नहीं चला। फिर अपने-अपने परिवार की रजामंदी से दोनों विवाह के पवित्र बंधन में बंध गए। विवाह के पश्चात उत्सव ने एक काॅल सेंटर में रात की नौकरी पकड़ ली क्योंकि उसमें उसे अधिक वेतन मिल रहा था। जहां विवाह के पश्चात उन्हें समीप होना चाहिए था और प्रणय बंधन में दृढ़ता आनी चाहिए थी, वहीं वैशाली के जीवन में शनि ने अपनी दस्तक दे दी और विवाह के तुरंत बाद ही उसने दवे पांव नवविवाहित जोड़े के घर में कदम रख दिए। वैशाली सुबह जाकर शाम को लौटती और तभी उत्सव का अपने कार्यालय जाने का समय हो जाता। उस वक्त जब परिणय सूत्रों को आपसी प्रेम, विश्वास और समर्पण की जरूरत थी, वे अलग-अलग अपने कामों में व्यस्त थे। फिर शुरू हुई अपूर्णता, हीनता और आर्थिक अभाव की कहानी- एक दूसरे पर मिथ्यारोपण, अविश्वास की दृष्टि, बेकार की दौड़ धूप की शिकायत वैशाली को, जिसने कभी उत्सव को संपूर्ण पुरुष मान कर प्रेम किया था, अब उत्सव में हजार खामियां नजर आने लगीं और उत्सव को वैशाली में। दोनों में बात-बात में तू तू मैं मैं होने लगी और फिर शनि ने अपना विच्छेदात्मक प्रभाव डाला और वैशाली उत्सव का घर छोड़ कर अपने घर आ गई। अपने घर आकर भी उसे चैन नहीं था। अत्यंत मानसिक तनाव में उसका समय बीतने लगा। परिवार वालों की तरफ से जोर पड़ने लगा कि या तो उत्सव के साथ रहे या तलाक ले ले। पर वैशाली चाह कर भी उत्सव से तलाक न ले सकी। उधर उत्सव भी उसके बिना मानो अधूरा सा हो गया था। उसने पूरी तरह से अपने आपको काम में झोंक दिया और विदेश से मिले अवसर को स्वीकार कर विदेश चला गया। उसकी आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित बदलाव आया, पर उसने समय समय पर वैशाली से बात करना नहीं छोड़ा। उसका फोन मानो वैशाली के व्यथित मन पर प्रेम की फुहार लेकर आता और वह सराबोर हो जाती। इसी तरह लगभग ढाई वर्ष बीत गए और वैशाली को लग रहा था जैसे उसका बनवास भी खत्म हो रहा है। उत्सव विदेश से लौट आया था और वह फिर से वैशाली के साथ अपना जीवन शुरू करना चाहता था। वैशाली के घर से ढाई वर्ष से डेरा डाले शनि महाराज के रुखसत होने का समय आ गया था। उसके सारे अस्त्र शस्त्र ढीले पड़ चुके थे। कामदेव का प्रभाव शुरू हो रहा था और वैशाली धीरे-धीरे उनकी मदहोशी में खोती जा रही थी। आइए, देखें वैशाली और उत्सव की कुंडलियों में प्रकाशहीन शनि एवं सौंदर्ययुक्त शुक्र का प्रभाव। वैशाली की कुंडली में पति कारक गुरु लग्नेश होकर सप्तम में स्थित है। शनि की सप्तमेश बुध पर पूर्ण दृष्टि है। चंद्र भी सप्तम भाव को प्रभावित कर रहा है। शुक्र ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर सप्तम भाव में स्थित है जिसके कारण उसका विवाह अपने परिचित दोस्त से हुआ अर्थात शुक्र भी इच्छानुसार विवाह करने का कारक बना। वैशाली और उत्सव के अलगाव के समय उत्सव की शुक्र की महादशा में बुध की अंतर्दशा तथा शनि की प्रत्यंतर दशा चल रही थी। इसके अतिरिक्त शनि की साढ़ेसाती भी चल रही थी। शनि वैशाली के लग्न के लिए पंचमेश तथा षष्ठेश होकर बारहवें भाव में अपने शत्रु सूर्य की राशि में स्थित है। षष्ठेश होने से शनि पूर्णकारक ग्रह नहीं है तथा बारहवें भाव में शत्रु की राशि में इसकी स्थिति है। उसकी यह स्थिति उसे अशुभ होने के साथ-साथ अधिक क्रूर भी बना रही है। जहां एक ओर शुक्र की महादशा दाम्पत्य सुख प्रदान कर रही थी वहीं शनि ग्रह के अशुभ गोचर के प्रभाववश तथा शनि की ही प्रत्यंतर दशा के दौरान उत्सव के जीवन से वैशाली अलग हो गई। जिस समय वैशाली उत्सव से अलग हुई, उस समय वैशाली की महादशा में बुध की अंतर्दशा, शुक्र की प्रत्यंतरदशा एवं शनि की साढ़ेसाती चल रही थी। बुध सप्तमेश है और छठे भाव में अस्त होकर स्थित है तथा शनि की उस पर पूर्ण दृष्टि पड़ रही है। गोचरीय प्रभाव से भी शनि सप्तम भाव को प्रभावित कर रहा था जिसके फलस्वरूप वैशाली को गृहस्थ जीवन के सुख से वंचित होना पड़ा। जिस समय इनका अलगाव हुआ, उस समय दोनों की साढ़ेसाती चल रही थी तथा शनि उनके वैवाहिक जीवन पर अपना अशुभ गोचरीय प्रभाव डाल रहा था। दूसरी ओर उत्वसव की कुंडली में सप्तमेश गुरु उच्च का होकर लाभ भाव से सप्तम भाव को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है जिसके फलस्वरूप उसका वैशाली के प्रति झुकाव बराबर बना रहा और वह रिश्ते को दोबारा जोड़ने के प्रति निरंतर प्रयत्नशील रहा और चूंकि अब वैशाली की भी शुक्र की अंतर्दशा शुरू हो चुकी है, वह भी अब उत्सव की ओर फिर से आकर्षित हो रही है। उसके मन में फिर से उत्सव के रंग में रंगने की इच्छा जाग्रत हो उठी है।

आध्यात्मिक वस्तुओं का माहात्म्य

सनातन धर्म में मूर्ति पूजा का विधान है। इस संसार को बनाने वाली मूर्ति रूप लेकर किसी न किसी वेश में अपने भक्तों के सामने प्रकट होती है। इसी के उदाहरण हैं षोडश कलायुक्त भगवान श्री कृष्ण एवं मर्यादा पुर्रोशोतमराम। यह आवश्यक नहीं कि वे मनुष्य रूप में ही जन्म लें। उन्होंने नरसिंह रूप में भी अवतार लिया, वामन अवतार, कूर्म अवतार, मत्स्य अवतार, वराह अवतार आदि अनेक रूपों में उन्होंने अपने को प्रकट किया। सही भी है, यदि वे विभिन्न कोटियों के प्राणियों, धरती, आकाश वायु, पर्वत आदि की रचना कर सकते हैं तो विभिन्न रूपों में स्वयं क्यों नहीं प्रकट हो सकते। इसीलिए सनातन धर्म में आकृति और वस्तु को विशेष महत्व दिया गया है। और यही कारण है कि मंदिरों में भगवान की प्रतिमाओं को अनेकानेक रूपों में पूजा जाता है। वेदों में देवी देवताओं की पूजा आराधना की विभिन्न विधियों का उल्लेख मिलता है जिनके द्वारा मनुष्य इस संसार में रहते हुए अपनी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की सामग्रियों द्वारा पूजा अर्चना का विधान है। उपर्युक्त पदार्थ यदि रत्न के बने हों, तो सर्वोत्तम और यदि स्वर्ण के हों तो उत्तम होते हैं। इन दोनों के अभाव में क्रमानुसार रजत ताम्र या किसी अन्य धातु अथवा किसी पत्थर, काष्ठ या कागज से बनी सामग्री का उपयोग कर सकते हैं। इस प्रकार से रत्न की वस्तुएं सर्वाधिक प्रभावशाली मानी गई हैं। अन्यथा स्वर्णनिर्मित रत्नजड़ित वस्तुएं उत्तम मानी गई हैं। इसी प्रकार से देवताओं के आवाहन एवं मंत्र सिद्धि के लिए स्वर्ण निर्मित यंत्रों के उपयोग का उल्लेख मिलता है। इसके अभाव में धातु निर्मित स्वर्णयुक्त यंत्रों को उत्तम माना गया है। उपयोगिता के अनुसार कुछ वस्तुओं का उपयोग निम्न प्रकार से है: विभिन्न मालाएं: विभिन्न मंत्रों के जप तथा कामनाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की मालाएं प्रयोग की जाती हैं जैसे शिव मंत्र के लिए रुद्राक्ष माला, लक्ष्मी मंत्र के लिए कमल गट्टे की माला, सरस्वती मंत्र के लिए सफेद चंदन की माला, मंगल मंत्र के लिए लाल चंदन या मूंगे की माला, गुरु मंत्र के लिए हल्दी माला, दुर्गा मंत्र के लिए स्फटिक माला, महामृत्युंजय मंत्र या स्वास्थ्य वृद्धि के लिए पारद माला, शांति लाभ के लिए तुलसी माला, प्रेमवृद्धि के लिए फिरोजा माला, आकर्षण के लिए वैजयंती माला, नवग्रह शांति के लिए नवरत्न माला आदि। यंत्र: शास्त्रों में अनेक प्रकार के यंत्रों का उल्लेख मिलता है। मंत्रों को सिद्ध करने के लिए यंत्रों की स्थापना आवश्यक है। स्वर्ण पत्र पर निर्मित यंत्र सर्वोत्तम, रजत पत्र पर उत्तम एवं ताम्र पत्र पर मध्यम होता है। भोजपत्र पर भी यंत्र बनाए जाते हैं। इन सभी के अभाव में यंत्रों का निर्माण कागज या दीवार पर भी किया जा सकता है। यंत्र पर अंकित ज्यामितिक रेखाएं व मंत्र ही यंत्र का निर्माण करते हैं। विभिन्न प्रकार के फलों की प्राप्ति के लिए अनेक यंत्रों के एक साथ उपयोग का विधान भी है। श्री यंत्र: दरिद्रता दूर करने एवं सुख समृद्धि की वृद्धि के लिए श्री यंत्र की स्थापना सर्वोत्तम मानी गई है। धन धान्य की पूर्ति के लिए स्फटिक श्री यंत्र या स्वर्णनिर्मित श्री यंत्र, स्वास्थ्य के लिए पारद श्री यंत्र, शक्ति एवं ऊर्जा के लिए सनसितारा निर्मित श्री यंत्र, विजय के लिए मूंगे के श्री यंत्र, ज्ञानवृद्धि के लिए मरगज या पन्ने के श्री यंत्र और ग्रह शांति के लिए अष्टधातु के श्री यंत्र की स्थापना उत्तम फलदायक होती है। नवरत्न: रत्न ग्रहों की रश्मियों को एकत्रित करने में अतिसक्षम होते हैं। इन्हें धारण कर ग्रहों के अनुकूल प्रभाव को संवर्धित किया जाता है। नवरत्न लाॅकेट: यह सभी साधकों के लिए लाभकारी होता है। जिस व्यक्ति को अपनी जन्मतिथि जन्म समय आदि पता न हों, वह इसे धारण कर सकता है। यह सभी नौ ग्रहों का प्रतीक है। यह अशुभ ग्रहों के प्रभाव को दूर करता है। दक्षिणावर्ती शंख: यह भगवान विष्णु का प्रतीक है। इसे पूजा स्थल पर रखने और इससे सूर्य को अघ्र्य देने से धन धान्य और यश सम्मान की प्राप्ति होती है। गोमती चक्र: यह समुद्र में पाया जाता है। यह लक्ष्मी नारायण का प्रतीक है एवं धन प्रदायक है। एकाक्षी नारियल: यह नारियल शिव का प्रतीक है और शिव की आराधना के लिए इसकी पूजा अत्यंत शुभ मानी गई है। शालिग्राम: यह नदी में पाया जाता है एवं इसके अंदर विष्णु के प्रतीक सुदर्शन चक्र के चिह्न पाए जाते हैं। शालिग्राम की पूजा विष्णु भगवान की आराधना मानी जाती है। श्वेतार्क गणपति: यह श्वेत आक की जड़ में मिलता है। यह अत्यंत दुर्लभ है। इसे पूजा स्थल पर रखने से सारे विघ्न दूर हो जाते हैं। पिरामिड: जीवन को सुखमय बनाने के लिए पिरामिड का उपयोग किया जाता है। इससे जातक को आकाशीय ऊर्जा मिलती है। इंद्रजाल: यह समुद्र में पाया जाता है। इसके दर्शन से भूत प्रेत जनित और अन्य ऊपरी बाधाएं दूर हो जाती हैं। काले घोड़े की नाल: यह शनि के प्रभाव को कम करता है। व्यक्ति के अपने ऊपर चल रहे शनि के बुरे प्रभाव को दूर करने के लिए इसे निवास या व्यापार स्थान के मुख्य द्वार पर अंग्रेजी के यू आकार में लगाना चाहिए। सच्ची श्रद्धा से एवं शाास्त्रानुसार उचित सामग्री प्रयोग कर मंत्र द्वारा पूजा अर्चना करने से शुभ फल शीघ्र अवश्य मिलते हैं।

राहु द्वारा निर्मित योग और उनका फल

ज्योतिष में राहु नैसर्गिक पापी ग्रह के रूप में जाना जाता है। राहु को Dragon's Head तथा North Node के नाम से भी जाना जाता है। राहु एक छाया ग्रह है। इनकी अपनी कोई राषि नहीं होती। अतः यह जिस राषि में होते हैं उसी राषि के स्वामी तथा भाव के अनुसार फल देते हैं। राहु केतु के साथ मिलकर कालसर्प नामक योग बनाता है जो कि एक अषुभ योग के रूप में प्रसि़द्ध है। इसी प्रकार यह विभिन्न ग्रहों के साथ एवं विभिन्न स्थानों में रहकर अलग-अलग योग बनाता है जो कि निम्न है-- अष्टलक्ष्मी योग जब राहु जन्म कुण्डली के छठे भाव में होता है और बृहस्पति केन्द्र में होता है तब इस योग का निर्माण होता है। अष्टलक्ष्मी योग से अभिप्राय है व्यक्ति सभी प्रकार के सुख साधन सम्पन्नता को प्राप्त करता है। अष्ट लक्ष्मी आठ प्रकार की लक्ष्मीेे को सूचित करती है-- (1) धन लक्ष्मी योग (2) धान्य लक्ष्मी योग (3) धैर्य लक्ष्मी योग (4) विजय लक्ष्मी योग (5) आदि लक्ष्मी योग (6) विद्या लक्ष्मी योग (7) गज लक्ष्मी योग (8) सन्तान लक्ष्मी योग जिस जातक का इस योग में जन्म होता है वह सभी तरह की सफलता (Eight fold Prosperity) को प्राप्त करता है। लेकिन इस योग के पूर्ण फल की प्राप्ति तभी सम्भव है जबकि राहु और बृहस्पति दोनों जन्म कुण्डली में मजबूत स्थिति में हों। कपट योग चतुर्थ भाव में जब पापी ग्रह हांे या चतुर्थ भाव के स्वामी को पापी ग्रह देखते हों या उसके साथ युति संबंध बनाते हों तब इस योग का निर्माण होता है। चतुर्थ भाव में राहु जब शनि या मंगल के साथ हो तथा चतुर्थेष भी पाप प्रभाव में हो तब कुण्डली में कपट योग का निर्माण होता है। ऐसा व्यक्ति दुष्ट स्वभाव का, धोखा देने वाला तथा स्वार्थी स्वभाव का होता है। इनका चरित्र भी संदेहास्पद होता है । श्रापित योग जब राहु शनि के साथ एक ही राषि में होता है तो इस योग का निर्माण होता है। कुछ ज्योतिषियों के अनुसार शनि पर राहु का दृष्टि प्रभाव भी इस योग का निर्माण करता है। इस योग में जातक की कुंडली पूर्व जन्म के कारण श्रापित ;ब्नतेमक भ्वतवेबवचमद्ध हो जाती है जिसके कारण व्यक्ति को इस जन्म में मानसिक, आर्थिक, शारीरिक परेषानियों तथा साथ ही विवाह में परेषानियां, संतति प्राप्ति में परेषानियाँ हो सकती हैं। चांडाल योग गुरु और राहु की युति से इस योग का निर्माण होता है। यह एक अषुभ योग है। यह योग जिस जातक की कुंडली में निर्मित होता है उसे राहु के पाप प्रभाव को भोगना पडता है। इस योग की स्थिति में जातक को आर्थिक तंगी का सामना करना पडता है, नीच कर्मों के प्रति झुकाव रहता है तथा ईष्वर के प्रति आस्था का अभाव रहता है। कालसर्प योग जब सभी ग्रह राहु और केतु के बीच में स्थित होते हैं तो इस योग का निर्माण होता है। कालसर्प योग वाले सभी जातकों पर इस योग का समान प्रभाव नहीं पड़ता। राहु तथा केतु किस भाव में है तथा कौन सी राषि में है और अन्य ग्रह कहाँ-कहाँ बैठे हैं, और उनका बलाबल कितना है ये सभी बिंदु कालसर्प योग के फल को प्रभावित करते हैं। जिस जातक की कुंडली में राहु दोष या कालसर्प योग होता है उसे साधारणतया सपने में सर्प दिखायी देते हैं, पानी में डूबना, उँचाई से गिरना आदि घटनाएं हो सकती हैं। ग्रहण योग जब जन्म कुण्डली में सूर्य या चन्द्रमा की युति राहु से होती है तो ग्रहण योग बनता है। इस छाया ग्रह की युति सूर्य के साथ होने से सूर्य ग्रहण तथा चन्द्रमा के साथ होने से चन्द्र ग्रहण बनता है जिसका प्रभाव व्यक्ति विषेष के जीवन पर पड़ता है।

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Sunday, 17 January 2016

क्या आपके जीवन के हार मोड़ पर असफलता का सामना कर रहे हैं???????


क्या आप बन पाएंगे सफल इंजीनियर

राहु-केतु छाया ग्रह हैं, परंतु उनके मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर हमारे तत्ववेत्ता ऋषि-मुनियों ने उन्हें नैसर्गिक पापी ग्रह की संज्ञा दी है। केतु को ‘कुजावत’ तथा राहु को ‘शनिवत्’ कहा गया है। परंतु जहां शनि का प्रभाव धीरे-धीरे होता है, राहु का प्रभाव अचानक और तीव्र गति से होता है। राहु-केतु कुंडली में आमने-सामने 1800 की दूरी पर रहते हैं और सदा वक्र गति से गोचर करते हैं। राहु ‘इहलोक’ (सुख-समृद्धि) तथा केतु ‘परलोक’ (आध्यात्म), से संबंध रखता है। यह कुंडली के तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में अच्छा फल देते हैं। सूर्य और चंद्रमा से राहु की परम शत्रुता है। शुभ ग्रहों से युति व दृष्टि संबंध होने पर राहु सभी प्रकार के सांसारिक -शारीरिक, मानसिक और भौतिक -सुख देता है, परंतु अशुभ व पापी ग्रह से संबंध कष्टकारी होता है। फल की प्राप्ति संबंधित ग्रह के बलानुपात में होती है। राहु से संबंधित अशुभ ग्रह की दशा जितने कष्ट देती है, उससे अधिक कष्टकारी राहु की दशा-भुक्ति होती है। राहु द्वारा ग्रसित होने पर सूर्य अपने कारकत्व - पिता, धन, आदर, सम्मान, नौकरी, दाहिनी आंख, हृदय आदि- संबंधी कष्ट देता है। बहुत मेहनत करने पर भी लाभ नहीं मिलता। साथ ही सूर्य जिस भाव का स्वामी होता है उसके फल की हानि होती है। व्यक्ति के व्यवहार में दिखावा, घमंड व बड़बोलापन अंततः हानिकारक सिद्ध होता है। राहु द्वारा ग्रस्त होने पर चंद्रमा जातक की माता को कष्ट देता है। पारिवारिक शांति भंग होती है। जातक स्वयं छाती, पेट, बाईं आंख के रोग, या मानसिक संताप से ग्रसित होता है। उसे डर, असमंजस और चिंता के कारण नींद नहीं आती और वह बुरी आदतों में लिप्त हो जाता है। चंद्रमा के निर्बल और पीड़ित होने पर जातक हताशा में आत्महत्या तक कर लेता है। राहु द्वारा ग्रसित होने पर मंगल जातक को उग्र व क्रोधी बनाता है। वह चिड़चिड़ा और आक्रामक बन जाता है तथा समाज और कानून विरोधी कार्य करता है, लड़ाई-झगड़ा, संपत्ति हानि, चोट, फोड़ा-फुंसी, पित्त व रक्त-विकार, बुखार आदि की संभावना बढ़ जाती है। मंगल के स्वामित्व वाले भावों संबंधी कार्यों में अवरोध व हानि होती है। राहु द्वारा शुक्र के ग्रसित होने पर व्यक्ति अपनी सुख-सुविधाओं को अनैतिक रूप से प्राप्त करता है। उसे चेहरा, गला, आंख, किडनी, प्रजनन प्रणाली ओर यौन रोग की संभावना रहती है। व्यक्ति फिजूल-खर्ची करता है। उसके अन्य स्त्रियों से संबंध होते हैं, जो कष्टकारी सिद्ध होता है। राहु द्वारा बुध के ग्रस्त होने पर व्यक्ति के आचार-विचार में विकृति आती है। पढ़ाई में विघ्न तथा विद्या से लाभ नहीं होता। वह झूठ और बेईमानी का सहारा लेता है। उसे छाती, स्नायु, चर्म और पाचन संबंधी रोग होते हैं। राहु द्वारा बृहस्पति के ग्रस्त होने पर व्यक्ति को पुत्र, विद्या, धन, गुरु, धर्म, आदर, मान तथा सुख-समृद्धि में अवरोध आते हैं। उसे लिवर, मधुमेह, रक्त, हृदय, ट्यूमर, नासिका और चर्बी के रोग होते हैं। बृहस्पति के स्वामित्व वाले भावों संबंधी कार्यों में परेशानियां आती हैं। व्यक्ति की सोच में विकृति आती है। उसके संकुचित और अधार्मिक मार्ग अपनाने से मान-सम्मान में कमी आती है, वह दुखी रहता है। बृहस्पति से संबंध होने पर राहु के दुष्प्रभाव में कमी आती है। इस युति को ‘गुरु’ चंडाल योग’ कहते हैं। राहु द्वारा शनि का ग्रस्त होना सर्वाधिक अनिष्टकारी होता है। व्यक्ति को जीवन में दुख, कष्ट, अवरोध, बीमारी, धन हानि, और तिरस्कार मिलता है। व्यक्ति को सर्दी, जुकाम, पाचन क्रिया, तिल्ली, दांत व हड्डियों के रोग तथा अस्थमा, लकवा और गठिया जैसे दीर्घकालीन रोग होते हैं। इस प्रकार राहु तथा शनि का संबंध कुंडली के फलों में अनेक प्रकार के अवरोध लाता है। राहु के शनि से अगले भाव में स्थित होने पर जातक बहुत नीचे स्तर पर कार्य आरंभ करता है। उसकी प्रगति में अनेक बाधाएं आती हैं। वह असंतुष्ट रहता है। शिक्षा प्राप्ति की आयु में नैसर्गिक अशुभ ग्रहों से संबंधित राहु की दशा-भुक्ति ध्यान केन्द्रित नहीं होने देती और सफलता कठिनाई से मिलती है। राहु पर शुभ प्रभाव होने से टेकनिकल, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर और डाॅक्टरी शिक्षा में सफलता मिलती है। राहु के केंद्र या त्रिकोण भाव में, त्रिकोण व केंद्र के स्वामी के साथ स्थित होने पर उसकी अपनी दशा-अंतर्दशा राजयोगकारी फल प्रदान कर व्यक्ति के जीवन को सुखी व समृद्धशाली बनाती है। इस प्रकार शुभ प्रभाव में राहु अपनी दशा-भुक्ति में शुभ फल तथा अशुभ प्रभाव में कष्ट देता है। अतः कुंडली में राहु के प्रभाव और भाव स्थिति का पूर्ण आकलन कर लेने से भविष्य कथन में परिपक्वता आती है। राहु प्रदत्त कष्ट निवारण के लिए प्रति दिन एक माला राहु मंत्र (ऊँ रां राहुवे नमः) का जप, तथा विशेषकर अमावस्या तिथि को एक, तीन या पांच कोढ़ियों को सरसों के तेल से बनी सब्जी, रोटी व एक गुड़-तिल का लड्डू स्वयं दान कर, साथ में कुछ दक्षिणा भी देना चाहिए।

आत्मघात और ज्योतिष

आत्मघात के बारे में प्रायः नित्य ही समाचार मिल जाता है। फांसी लगाकर, जल कर, विष खाकर, ऊंचे स्थान से गिरकर, रेल से कट कर, नस काटकर आदि। शास्त्रों में आत्मघात करना पाप माना गया है, क्योंकि शरीर परमात्मा का दिया हुआ है, उसका वास स्थान है, अतः इसे नष्ट करना उचित नहीं है। आत्महत्या या आत्मघात का अर्थ है स्वयं इस शरीर को नष्ट करना या समाप्त कर देना। जिस वातावरण में मनुष्य निराशा की चरम सीमा पर होता है, स्वयं को समाप्त कर उस वातावरण से छुटकारा पाना चाहता है। यदि थोड़ी सी भी समझदारी, बुद्धिमानी उस समय आ जाये तो वह स्वयं को उस वातावरण से दूर ले जा सकता है और उन परिस्थितियों से तथा जन-बंधुओं से पूर्णतया अलग हो सकता है। अब यह प्रश्न उठता है कि कोई भी व्यक्ति ऐसा कठिन कदम क्यों उठाता है। नैराश्य के घोर अंधकार में जब कहीं से भी कोई आस की किरण नहीं आती तब व्यक्ति स्वयं को गहन अवसाद से मुक्ति दिलाने के लिए स्वयं को ही समाप्त कर देता है। मानव का जीवन के प्रति उत्साह समाप्त हो गया हो, निराशा में मन डूब गया हो, कहीं से कोई सहानुभूति न मिल रहे हो तब जीवन के प्रति अनासक्ति होने लगती है। ऐसी स्थिति का कारण कुछ भी हो सकता है। शरीर रोग अथवा पीड़ा से ग्रस्त हो, मन को स्वजनों तथा अन्य व्यक्तियों से अत्यधिक मानसिक पीड़ा मिल रही हो, व्यवसाय में इतनी हानि हो गई हो कि भरपाई करना कठिन हो गया हो, समाज में अथवा अपने कार्य स्थान में असम्मान, निरादर, अपराधारोपण, मानहानि आदि हो, प्रेम में असफलता हो, परीक्षा में असफलता मिली हो, मन की इच्छाएं-आकांक्षाएं पूरी न हो पा रही हों आदि। इन सब परिस्थितियों में मन में निराशा भर जाती है और मन में निराशा भर जाने से जीवन व्यर्थ सा लगने लगता है। तब धैर्य साथ छोड़ देता है और मन इतना दुर्बल हो उठता है कि जीवन समाप्त करना ही एकमात्र उपाय लगता है। ऐसे में अच्छे-बुरे की परख नहीं रह जाती और सोचने-विचारने की क्षमता समाप्त हो जाती है। मन का कारक चंद्र है। मन की दुर्बलता को चंद्र की दुर्बलता से आंकंे। जब चंद्र पर पाप प्रभाव हो या चंद्र क्षीण हो या उस पर मारक ग्रहों का प्रभाव हो, षष्ठेश, सप्तमेश और अष्टमेश का चंद्र से संबंध हो तब मन की निराशा गंभीर हो उठती है। लग्न से संबंध हो, द्वितीयेश, तृतीयेश अथवा द्वादशेश के प्रभाव में चंद्र हो तो मानसिक दुर्बलता बढ़ जाती है। बुध तथा गुरु दुष्प्रभाव में हों तो बुद्धि के भ्रष्ट होने की संभावना बढ़ जाती है। सूर्य आत्माकारक ग्रह है। यदि यह मारक स्थान में हो अथवा मारकेश के प्रभाव में हो तो व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है। विशेष रूप से यदि यह स्थिति गोचर में बन रही हो तो आत्महत्या की संभावना बनती है। आत्महत्या के प्रयास में व्यक्ति बचेगा या उसे शारीरिक कष्ट होगा या शरीर और जीवन दोनों ही सलामत रहेंगे, यह सब ग्रहों व उनके प्रभाव पर निर्भर करेगा। यहां कुछ कुंडलियों का विश्लेषण प्रस्तुत है। क्योंकि आत्महत्या का प्रयास एक क्षणिक उन्माद में किया गया तात्कालिक कर्म है, अतः उस समय के गोचर का अध्ययन महत्वपूर्ण है।

बुध ग्रह

बुध के जन्म की कथा काफी अद्भुत तथा उत्तेजक है। यदि हम उस काल की ओर लौटें जबकि यह घटनाएं हुई थीं तो इन घटनाओं ने सृष्टि में काफी उथल-पुथल मचा दी थी। शुरू में बुध को अपनाने के लिए कोई भी तैयार नहीं था तथा इसके पितृत्व को लेकर बहुत विवाद तथा उलझन थी, जिसके परिणाम में बुध को शुरू में एक परित्यक्त बालक का जीवन जीना पड़ा किंतु बाद में उसकी प्रतिभाओं को देखकर उसके पिता ने आगे आकर उसे अपना पुत्र स्वीकार किया। कथा के अनुसार चंद्रमा, बृहस्पति का शिष्य था तथा उनसे संसार के विभिन्न शास्त्रों की विद्या प्राप्त कर रहा था। बृहस्पति एक बड़ी आयु के व्यक्ति थे परंतु उनकी पत्नी नवयौवना व रूपमति थी जिसका नाम तारा था। चंद्रमा भी रूपवान और आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। अतः चंद्रमा व तारा एक-दूसरे की ओर आकर्षित हुए तथा परस्पर प्रेम में डूब गए। कथा के अनुसार चंद्रमा तारा को लेकर लुप्त हो गया तथा दोनो हजारों वर्षों से भी अधिक साथ-साथ रहे, इतने समय के सहवास के बाद तारा के गर्भ धारण करने पर चंद्रमा ने तारा को त्याग दिया। इस बीच बृहस्पति तारा को खोजते रहने पर भी उसका पता नहीं लगा पाए, किंतु चंद्रमा द्वारा त्यागे जाने पर तारा पुनः अपने पति के पास लौट आई। बृहस्पति को तारा के जब कुछ माह से गर्भवती होने का ज्ञान हुआ तो वह बहुत क्रोधित हुए, इस क्रोध के मारे उन्होंने तारा के गर्भ से उस जीव को खींचकर बाहर निकालकर जमीन पर फेंक दिया, भले ही वह गर्भ अभी कुछ माह का ही था किंतु उसमें से सभी को चकित करता हुआ अति सुंदर बालक बुध जन्म लेकर खेलने लगा, वह बालक इतना सुंदर व गुणवान था कि बृहस्पति उसे देख बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होने सहर्ष ही उसका पिता होना स्वीकार कर लिया। ऐसी मान्यता है कि चन्द्रमा का वीर्य इतना शक्तिवान था कि बुध का जन्म तो होना ही था चाहे वह पूर्ण मास पूरा करने पर हुआ होता या नौ मास होने से पूर्व। बृहस्पति सभी से कहने लगे क्योंकि बुध का जन्म उनकी पत्नी तारा से हुआ है अतः वह ही उसके पिता हैं। चंद्रमा जो कि सत्य को जानता था, उसने इस अफवाह को फैलाया कि बूढ़े और अशक्त बृहस्पति ऐसे रूपवान पुत्र के पिता हो ही नहीं सकते और वास्तव में वह ही बुध के पिता हंै। इस अफवाह की चर्चा काफी समय तक होती रही तथा बुध के वास्तविक पिता का प्रश्न संसार में अपकीर्ति का विषय बना रहा। अंततः प्रजापति ब्रह्मा जी ने इस अफवाह को शांत करने का प्रयास प्रारंभ किया तथा बृहस्पति की पत्नी तारा को बुलाया तथा इस अफवाह के सत्य के विषय में पूछा। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि माता ही बालक के पिता के विषय में बता सकती है। तारा ने प्रजापति ब्रह्मा को सब कुछ सच-सच बता दिया कि वास्तव में चंद्रमा ही बुध के पिता हैं। बुध के जन्म का संबंध चूंकि बृहस्पति और चन्द्रमा के साथ है, अतः कल्पनाशीलता तथा बुद्धिमत्ता के दो गुण उसमें नैसर्गिक रूप से ही विद्यमान हैं किंतु उसका स्वभाव दोनों ही से भिन्न है तथा उसके इस स्वतंत्र व्यक्तित्व को किसी भी प्रकार से चुनौती नहीं दी जा सकती। बुध संसार में बुद्धि का स्वामी है। अपनी बुद्धि के सही प्रयोग द्वारा वह कल्पना और ज्ञान की सीमाओं में न बंधकर बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयासों से सत्य को प्राप्त करता है। उसका यही गुण उसे अन्य ग्रहों से अलग पहचान देता है। मानव बुद्धि में तर्क और चिंतन का स्वामी होने के कारण बुध सबका चहेता और प्रिय है। चेतना की उच्च शक्तियों के अनुभव के बिना विद्वान और ज्ञान की ऊंचाइयां पाना संभव नहीं है अतः बुध को स्वतः ही एक उच्चतम् स्थान प्रदान करता है। विज्ञान अथवा दर्शन में अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए हमें तर्क, चिन्तन व विश्लेषण की शक्तियों का उपयोग करना पड़ता है और यही बुध का क्षेत्र है। बुध, मिथुन व कन्या राशि का स्वामी है। ये दोनों ही अस्वाभाविक राशियां हैं। मिथुन वायु तत्व की राशि है और कन्या पृथ्वी तत्व की। ऐसी मान्यता है कि विचार वायु मार्ग से गति करते हैं तथा पृथ्वी पर स्थापित होते हैं। यहां पृथ्वी से हमारा अभिप्राय संसार से है। यदि हम मिथुन के स्वभाव का ध्यान पूर्वक अध्ययन करं तो हम पाते हैं कि विचारों का जन्म तो वायु में होता है और द्विस्वभाव राशि में जन्म के कारण विचारों में नैसर्गिक द्वि स्वभाव बना रहता है। कन्या में कोई भी विचार आरंभ से ही द्विस्वभावी रहता है, पूर्ण अध्ययन तथा बाद में जीवन में कार्यरूप लेने के पश्चात भी वह अपने द्विस्वभाव रूप को बनाए रखता है। अतः इस संसार में कुछ भी स्थायी स्वभाव वाला अथवा अपरिवर्तनीय बुध में नहीं है। शायद इसी कारण इस संसार के एक प्रमुख धर्म मुख्य रूप से बौद्ध धर्म के अनुसार यह संसार निरंतर परिवर्तनों से परिपूर्ण है। विज्ञान भी इस मूल सत्य से दूर नहीं है जहां नित्य नई खोजें निरंतर पुराने विचारों में परिवर्तन लाती रहती हं। तार्किक चिंतन का यह स्वभाव है कि वह प्रत्येक अनुभव और सत्य के परिपेक्ष्य में बदलता रहता है। संसार की प्रत्येक घटना को बहुत ही सुंदर ढंग से सिद्ध किया जा सकता है जो सुनने में बहुत विश्वसनीय और प्रभावी प्रतीत होती है। इसी बात को कुछ अधिक स्पष्टता से समझाने के लिए हम एक कहानी का सहारा लेंगे: बुध दर्शाता है कि कैसे व्यक्ति परिस्थितियों का संकलन करता है तथा उससे अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकता है। इस प्रक्रिया में वह अपने जीवन के समस्त अनुभव तथा ज्ञान को अपनी परिकल्पना द्वारा इस प्रकार पुनः स्थापित और नियोजित करता है कि वह पूर्ण रूपेण तर्कसंगत लगे। शायद इसीलिए बुध को द्विस्वभाव वाला माना जाता है। बुध की यह प्रकृति दो विभिन्न स्तरों पर काम करती दिखाई देती है। पहला उच्च बौद्धिकता का वह स्तर है जहां गहरा विश्वास, तार्किक विश्लेषण तथा नकार एवं शून्यता के ज्ञान द्वारा दिव्य अनुभूतियों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना है। वेदों में उच्चतर ईश्वरीय ज्ञान प्राप्ति का एक मार्ग सभी के नकार द्वारा अंतिम सत्य को पाने का मार्ग भी है जिसे कि नेति-नेति (यह नहीं, यह भी नहीं) के सिद्ध त के नाम से जाना जाता है। वहीं दूसरे स्तर स्वार्थप्रियता, छल, प्रपंच, अतार्किकता, मानसिक असंतुलन या मूर्खता मुखर होती प्रतीत होती है। यदि हम विशेष ध्यान दें तो बुध के व्यवहार में निर्लिप्तता और भाव शून्यता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। यद्यपि विभिन्न मानसिक वृत्तियों से जनित भावनाएं इसकी कथा को भावनात्मक रंग देते हुए दिखाई देती हैं किंतु मूल भाव फिर भी बात को कहने का अंदाज बुरे को बुरा कहने का तथा तथ्यों को सबके सम्मुख सीधे-सीधे रखने का ही रहता है। इससे प्रतीत होता है मानो, संवाद के नियमों के अनुरूप अपने विचारों से लोगों को सोचने को बाध्य करते हुए सभी सत्यों से उन्हें अपगत कराने का प्रयास है। अवचेतन के स्तर पर यह इच्छा प्रतीत होती है कि चेतन में तथ्यों को इस रूप में प्रस्तुत किया जाए कि वह न केवल प्रभावशाली लगे बल्कि आंतरिक भावनाओं को भी एक सार्वभौमिक अभिव्यक्ति प्रदान करे। व्यक्तित्व के अवचेतन भावों को चेतन के स्तर पर लाने का एक प्रयास रहता है। फिर वह अवचेतन का खंडन चाहे हीरों की खान हो अथवा उसमें कोयला भरा हो, अतः बुध का प्रभाव मानवता के लिए नितांत आवश्यक हो जाता है क्योंकि यह अपनी तार्किकता की तीक्ष्णता से अतिवाद को दोनों ओर से काटता है। दूसरों के साथ गहराई से जुड़ने के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति पहले अपने आप से संवाद स्थापित करे तथा अपने अंतः करण को स्पष्टता से जाने। इस आंतरिक और बाध्य जगत में तारतम्यता और सौहार्दपूर्ण संबंध हुए बिना व्यक्ति वास्तविक उन्नति नहीं कर सकता। इस लक्ष्य को पाने के लिए अनुभव, विचारों व विश्लेषण को दूसरों से बांटना होता है। यह वैयक्तिक आदान-प्रदान तब तक चलता रहता है जब तक कि पूर्णता को प्राप्त न कर लें अर्थात समस्त सुझाव, ज्ञान, चिन्तन को एक सूत्र में न पिरो लें। अपने को सृजनात्मक अभिव्यक्ति देने के लिए विश्लेषण की महान योग्यता, ज्ञान की तीव्र जिज्ञासा तथा विश्व की नई खोजों और अवधारण् से संबंध की आवश्यकता होती है। जहां सृजन है वहां विध्वंस भी दूर नहीं रहता। अतः विपरीत बुध शक्ति और सामंजस्य को भंग करने के लिए अपनी विपरीत सोच और तार्किकता के प्रयोग भी उसी उग्रता से करता है। वाणी, वाद-विवाद, तर्क, संघर्ष तथा अपने मत को पूर्ण परिपक्वता से प्रस्तुत करना बुध का काम है तथा उसे सही अथवा गलत किसी भी प्रकार से प्रयोग करने में वह सक्षम है। बुध, मिथुन और कन्या राशि का स्वामी है। बुध कन्या राशि में 0 अंश से 15 अंश तक का उच्च माना जाता है तथा 15 अंश पर उच्चतम होता है तथा राशि के 16 अंश से 20 अंश तक वह अपने मूल त्रिकोण में होता है तथा शेष 21 से 30 अंश तक वह कन्या राशि को अपनी राशि मानता है। मीन राशि में यह नीच का होता है तथा 15 अंश पर नीचतम माना जाता है।

क्रिकेटर बनने के ग्रह योग

एक खिलाड़ी की जन्मकुंडली में चाहे कितने ही अच्छे योग क्यों न हों, यदि उसमें खेल विशेष से संबंधित अच्छे योग नहीं हैं, तो उसका करियर अधिक समय तक नहीं रह पाता है। बात क्रिकेट की करें तो हम देखते हैं कि प्रतिस्पद्र्धा के इस दौर में आये दिन खिलाड़ियों के चेहरे बदलते रहते हैं। इनमें से अधिकांश खिलाड़ी ऐसे होते हैं जो कुछ दिनों तक धूमकेतु अथवा पुच्छल तारे की भांति चमकते हैं और फिर लंबे समय के लिए गायब हो जाते हैं जबकि उन्हीं में से कुछ ऐसे भी खिलाड़ी होते हैं जो ध्रुव तारे की भांति अपना अलग ही स्थान बनाकर नित नये कीर्तिमान स्थापित करते रहते हैं। ऐसे खिलाड़ियों की जन्मकुंडली में निश्चित रूप से क्रिकेट संबंधी अच्छे योग पाये जाते हैं। ज्योतिष में क्रिकेट से संबंधित निम्नलिखित महत्वपूर्ण योग पाये जाते हैं- 1- लग्नेश, द्वितीयेश, तृतीयेश, नवमेश, दशमेश, एकादशेश में कोई चार या अधिक ग्रह शुभ स्थिति में हों। 2- तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश एवं द्वादशेश में दो या दो से अधिक ग्रहों की युति या दृष्टि संबंध हो। 3- दशमेश की तृतीयेश या अष्टमेश के साथ युति या दृष्टि संबंध हो। 4- अष्टमेश की युति या दृष्टि संबंध एकादशेश के साथ हो। 5- लग्न, तृतीय, षष्ठ, अष्टम, दशम या एकादश भाव पर मंगल, शनि या राहु की स्थिति हो। 6- लग्नेश, तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश, दशमेश या एकादशेश पर मंगल, शनि या राहु की दृष्टि हो अथवा युति संबंध हो। 7- तृतीयेश लग्न, तृतीय, नवम, दशम या एकादश में स्थित हो। 8- दशमेश लग्न, तृतीय, चतुर्थ या दशम भाव में स्थित हो। 9- गुरु की स्थिति या दृष्टि लग्न, तृतीय, षष्ठ, दशम या एकादश पर हो। 10- षष्ठेश, अष्टमेश एवं द्वादशेश अपने ही स्थान पर या परस्पर एक-दूसरे के स्थान पर स्थित हों। 11- विदेश यात्रा के चार-पांच अच्छे योग हों। उपर्युक्त ग्रह योगों को कुछ विश्व प्रसिद्ध क्रिकेटरों की कुंडलियों में देखना होगा। 12- लग्नेश शुक्र सप्तम भाव में उच्चराशिस्थ एकादशेश सूर्य के साथ युति करके शुभ स्थिति में है तथा चतुर्थ भाव में उच्च राशिस्थ द्वितीयेश मंगल के साथ तृतीय भाव का स्वामी गुरु भी युति करके शुभ स्थिति में है। इस प्रकार केंद्र में स्थित लग्नेश, द्वितीयेश, तृतीयेश और एकादशेश चारों ग्रह अपनी शुभ स्थिति में है। 13- अष्टमेश शुक्र की एकादशेश सूर्य के साथ युति है, जिन पर राहु की पंचम तथा मंगल की चतुर्थ दृष्टि है। 14- दशमेश चंद्रमा की तृतीय भाव में राहु के साथ युति है। 15- तृतीयेश गुरु की चतुर्थ भाव में मंगल के साथ युति है जिनकी संयुक्त दृष्टि दशम भाव पर है। 16- विदेश यात्रा के चार-पांच अच्छे ग्रह योग हैं।

षोडश वर्ग

षोडश वर्ग का फलित ज्योतिष में विशेष महत्व है। जन्मपत्री का सूक्ष्म अध्ययन करने में यह विशेष सहायक है। इन वर्गों के अध्ययन के बिना जन्म कुंडली का विश्लेषण अधूरा होता है क्योंकि जन्म कुंडली से केवल जातक के शरीर, उसकी संरचना एवं स्वास्थ्य के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है, लेकिन षोडश वर्ग का प्रत्येक वर्ग जातक के जीवन के एक विशिष्ट कारकत्व या घटना के अध्ययन में सहायक होता है। जातक के जीवन के जिस पहलू के बारे में हम जानना चाहते हैं उस पहलू के वर्ग का जब तक हम अध्ययन न करें तो विश्लेषण अधूरा ही रहता है। जैसे यदि जातक की संपत्ति, संपन्नता आदि के विषय में जानना हो, तो जरूरी है कि होरा वर्ग का अध्ययन किया जाए। इसी प्रकार व्यवसाय के बारे में पूर्ण जानकारी के लिए दशमांश की सहायता ली जाए। जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओं को जानने के लिए किसी विशेष वर्ग का अध्ययन किए बिना फलित गणना में चूक हो सकती है। षोडश वर्ग में सोलह वर्ग होते हैं जो जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओं की जानकरी देते हैं। जैसे होरा से संपत्ति व समृद्धि; द्रेष्काण से भाई-बहन, पराक्रम, चतुर्थांश से भाग्य, चल एवं अचल संपत्ति, सप्तांश से संतान, नवांश से वैवाहिक जीवन व जीवन साथी, दशांश से व्यवसाय व जीवन में उपलब्धियां, द्वादशांश से माता-पिता, षोडशांश से सवारी एवं सामान्य खुशियां, विंशांश से पूजा-उपासना और आशीर्वाद, चतुर्विंशांश से विद्या, शिक्षा, दीक्षा, ज्ञान आदि, सप्तविंशांश से बल एवं दुर्बलता, त्रिशांश से दुःख, तकलीफ, दुर्घटना, अनिष्ट; खवेदांश से शुभ या अशुभ फलों, अक्षवेदांश से जातक का चरित्र, षष्ट्यांश से जीवन के सामान्य शुभ-अशुभ फल आदि अनेक पहलुओं का सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है। षोडश वर्ग में सोलह वर्ग ही होते हैं, लेकिन इनके अतिरिक्त और चार वर्ग पंचमांश, षष्ट्यांश, अष्टमांश, और एकादशांश होते हैं। पंचमांश से जातक की आध्यात्मिक प्रवृत्ति, पूर्व जन्मों के पुण्य एवं संचित कर्मों की जानकारी प्राप्त होता है। षष्ट्यांश से जातक के स्वास्थ्य, रोग के प्रति अवरोधक शक्ति, ऋण, झगड़े आदि का विवेचन किया जाता है। एकादशांश जातक के बिना प्रयास के धन लाभ को दर्शाता है। यह वर्ग पैतृक संपत्ति, शेयर, सट्टे आदि के द्वारा स्थायी धन की प्राप्ति की जानकारी देता है। अष्टमांश से जातक की आयु एवं आयुर्दाय के विषय में जानकारी मिलती है। षोडश वर्ग में सभी वर्ग महत्वपूर्ण हैं, लेकिन आज के युग में जातक धन, पराक्रम, भाई-बहनों से विवाद, रोग, संतान वैवाहिक जीवन, साझेदारी, व्यवसाय, माता-पिता और जीवन में आने वाले संकटों के बारे में अधिक प्रश्न करता है। इन प्रश्नों के विश्लेषण के लिए सात वर्ग होरा, द्रेष्काण, सप्तांश, नवांश, दशमांश, द्वादशांश और त्रिशांश ही पर्याप्त हैं। होरादि सात वर्गों का फलित में प्रयोग होरा: जन्म कुंडली की प्रत्येक राशि के दो समान भाग कर सिद्धांतानुसार जो वर्ग बनता है होरा कहलाता है। इससे जातक के धन से संबंधित पहलू का अध्ययन किया जाता है। होरा में दो ही लग्न होते हैं - सूर्य का अर्थात् सिंह और चंद्र का अर्थात् कर्क। ग्रह या तो चंद्र होरा में रहते हैं या सूर्य होरा में। बृहत पाराशर होराशास्त्र के अनुसार गुरु, सूर्य एवं मंगल सूर्य की होरा में और चंद्र, शुक्र एवं शनि चंद्र की होरा में अच्छा फल देते हैं। बुध दोनोें होराओं में फलदायक है। यदि सभी ग्रह अपनी शुभ होरा में हांे तो जातक को धन संबंधी समस्याएं कभी नहीं आएंगी और वह धनी होगा। यदि कुछ ग्रह शुभ और कुछ अशुभ होरा में होंगे तो फल मध्यम और यदि ग्रह अशुभ होरा में होंगे तो जातक निर्धन होता है। द्रेष्काण: जन्म कुंडली की प्रत्येक राशि के तीन समान भाग कर सिद्धांतानुसार जो वर्ग बनता है वह दे्रष्काण कहलाता है। दूसरे शब्दों में यह कुंडली का तीसरा भाग है। दे्रष्काण जातक के भाई-बहन से सुख, परस्पर संबंध, पराक्रम के बारे में जानकारी के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त इससे जातक की मृत्यु का स्वरूप भी मालूम किया जाता है। द्रेष्काण से फलित करते समय लग्न कुंडली के तीसरे भाव के स्वामी, तीसरे भाव के कारक मंगल एवं मंगल से तीसरे स्थित बुध की स्थिति और इसके बल का ध्यान रखना चाहिए। यदि द्रेष्काण कुंडली में संबंधित ग्रह अपने शुभ स्थान पर स्थित है तो जातक को भाई-बहनों से विशेष लाभ होगा और उसके पराक्रम में भी वृद्धि होगी। इसके विपरीत यदि संबंधित ग्रह अपने अशुभ द्रेष्काण में हों तो जातक को अपने भाई-बहनों से किसी प्रकार का सहयोग प्राप्त नहीं होगा। यह भी संभव है कि जातक अपने मां-बाप की एक मात्र संतान हो। सप्तांश वर्ग: जन्मकुंडली का सातवां भाग सप्तांश कहलाता है। इससे जातक के संतान सुख की जानकारी मिलती है। जन्मकुंडली में पंचम भाव संतान का भाव माना जाता है। इसलिए पंचमेश पंचम भाव के कारक ग्रह गुरु, गुरु से पंचम स्थित ग्रह और उसके बल का ध्यान रखना चाहिए। सप्तांश वर्ग में संबंधित ग्रह अपने उच्च या शुभ स्थान पर हो तो शुभ फल प्राप्त होता है अर्थात् संतान का सुख प्राप्त होता है। इसके विपरीत अशुभ और नीचस्थ ग्रह जातक को संतानहीन बनाता है या संतान होने पर भी सुख प्राप्त नहीं होता। सप्तांश लग्न और जन्म लग्न दोनों के स्वामियों में परस्पर नैसर्गिक और तात्कालिक मित्रता आवश्यक है। नवांश वर्ग: जन्म कुंडली का नौवां भाग नवांश कहलाता है। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण वर्ग है। इस वर्ग को जन्मकुंडली का पूरक भी समझा जाता है। आमतौर पर नवांश के बिना फलित नहीं किया जाता। यह ग्रहों के बलाबल और जीवन के उतार-चढ़ाव को दर्शाता है। मुख्य रूप से यह वर्ग विवाह और वैवाहिक जीवन में सुख-दुख को दर्शाता है। लग्न कुंडली में जो ग्रह अशुभ स्थिति में हो वह यदि नवांश में शुभ हो तो शुभ फलदायी माना जाता है। यदि ग्रह लग्न और नवांश दोनों में एक ही राशि में हो तो उसे वर्गोमता हासिल होती है जो शुभ सूचक है। लग्नेश और नवांशेश दोनों का आपसी संबंध लग्न और नवांश कुंडली में शुभ हो तो जातक का जीवन में विशेष खुशियों से भरा होता है। उसका वैवाहिक जीवन सुखमय होता है और वह हर प्रकार के सुखों को भोगता हुआ जीवन व्यतीत करता है। वर-वधू के कुंडली मिलान में भी नवांश महत्वपूर्ण है। यदि लग्न कुंडलियां आपस में न मिलें, लेकिन नवांश मिल जाएं तो भी विवाह उत्तम माना जाता है और गृहस्थ जीवन आनंदमय रहता है। सप्तमेश, सप्तम् के कारक शुक्र (कन्या की कुंडली में गुरु), शुक्र से सप्तम स्थित ग्रह और उनके बलाबल की नवांश कुंडली में शुभ स्थितियां शुभ फलदायी होती हैं। ऐसा देखा गया है कि लग्न कुंडली में जातक को राजयोग होते हुए भी राजयोग का फल प्राप्त नहीं होता यदि नवांश वर्ग में ग्रहों की स्थिति प्रतिकूल होती है। देखने में जातक संपन्न अवश्य नजर आएगा, लेकिन अंदर से खोखला होता है। वह स्त्री से पेरशान होता है और उसका जीवन संघर्षमय रहता है। दशमांश: दशमांश अर्थात् कुंडली के दसवें भाग से जातक के व्यवसाय की जानकारी प्राप्त होती है। वैसे देखा जाए तो जन्मकुंडली में दशम भाव जातक का कर्म क्षेत्र अर्थात् व्यवसाय का है। जातक के व्यवसाय में उतार चढ़ाव, स्थिरता आदि की जानकरी प्राप्त करने में दशमांश वर्ग सहायक होता है। यदि दशमेश, दशम भाव में स्थित ग्रह, दशम भाव का कारक बुध और बुध से दशम स्थित ग्रह दशमांश वर्ग में स्थिर राशि में स्थित हों और शुभ ग्रह से युत हों तो व्यवसाय में जातक को सफलता प्राप्त होती है। दशमांश लग्न का स्वामी और लग्नेश दोनों एक ही तत्व राशि के हों, आपस में नैसर्गिक और तात्कालिक मित्रता रखते हों तो व्यवसाय में स्थिरता देते हैं। इसके विपरीत यदि ग्रह दशमांश में चर राशि स्थित और अशुभ ग्रह से युत हो, लग्नेश और दशमांशेश में आपसी विरोध हो तो जातक का व्यवसाय अस्थिर होता है। दशमांश और लग्न कुंडली दोनों में यदि ग्रह शुभ और उच्च कोटि के हों तो जातक को व्यवसाय में उच्च कोटि की सफलता देते हैं। द्वादशांश: लग्न कुंडली का बारहवां भाग द्वादशांश कहलाता है। द्वादशांश से जातक के माता-पिता के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। लग्नेश और द्वादशांशेश इन दोनों में आपसी मित्रता इस बात का संकेत करती है कि जातक और उसके माता-पिता के आपसी संबंधी अच्छे रहेंगे। इसके विपरीत ग्रह स्थिति से आपसी संबंधों में वैमनस्य बनता है। इसके अतिरिक्त चतुर्थेश और दशमेश यदि द्वादशांश में शुभ स्थित हों तो भी जातक को माता-पिता का पूर्ण सुख प्राप्त होगा, यदि चतुर्थेश और दशमेश दोनों में से एक शुभ और एक अशुभ स्थिति में हो तो जातक के माता-पिता दोनों में से एक का सुख मिलेगा और दूसरे के सुख में अभाव बना रहेगा। इन्हीं भावों के और कारक ग्रहों से चतुर्थ और दशम स्थित ग्रहों और राशियों के स्वामियों की स्थिति भी द्वादशांश में शुभ होनी चाहिए। यदि सभी स्थितियां शुभ हों तो जातक को माता-पिता का पूर्ण सुख और सहयोग प्राप्त होगा अन्यथा नहीं। त्रिंशांश: लग्न कुंडली का तीसवां भाग त्रिंशांश कहलाता है। इससे जातक के जीवन में अनिष्टकारी घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है। दुःख, तकलीफ, दुर्घटना, बीमारी, आॅपरेशन आदि सभी का पता इस त्रिंशांश से किया जाता है। त्रिंशांशेश और लग्नेश की त्रिंशांश में शुभ स्थिति जातक को अनिष्ट से दूर रखती है। जातक की कुंडली में तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश और द्वादशेश इन सभी ग्रहों की त्रिंशांश में शुभ स्थिति शुभ जातक को स्वस्थ एवं निरोग रखती है और दुर्घटना से बचाती है। इसके विपरीत अशुभ स्थिति में जातक को जीवन भर किसी न किसी अनिष्टता से जूझना पड़ता है। इन सात वर्गों की तरह ही अन्य षोड्श वर्ग के वर्गों का विश्लेषण किया जाता है। इन वर्गों का सही विश्लेषण तभी हो सकता है यदि जातक का जन्म समय सही हो, अन्यथा वर्ग गलत होने से फलित भी गलत हो जाएगा। जैसे दो जुड़वां बच्चों के जन्म में तीन-चार मिनट के अंतर में ही जमीन आसमान का आ जाता है, इसी तरह जन्म समय सही न होने से जातक के किसी भी पहलू की सही जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती। कई जातकों की कुंडलियां एक सी नजर आती हैं, लेकिन सभी में अंतर वर्गों का ही होता है। यदि वर्गों के विश्लेषण पर विशेष ध्यान दिया जाए तो जुड़वां बच्चों के जीवन के अंतर को समझा जा सकता है। यही कारण है कि हमारे विद्वान महर्षियों ने फलित ज्योतिष की सूक्ष्मता तक पहुंचने के लिए इन षोड्श वर्गों की खोज की और इसका ज्ञान हमें दिया।

द्वादशांश से अनिष्ट का सटीक निर्धारण

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी ने जब से इस संसार की रचना की है तभी से जीवन में प्रत्येक नश्वर आगमों को चाहे वे सजीव हों अथवा निर्जीव, उन्हें विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। जीवन की इस यात्रा में सबों को अच्छे एवं बुरे समय का स्वाद चखना पड़ता है तथा दोनों परिस्थितियों से होकर गुजरना पड़ता है। यदि हमारा अध्यात्म एवं पराविद्याओं में विश्वास है तो इनके अनुसार जन्म से मृत्युपर्यन्त मनुष्य के जीवन की हर घटना ग्रहों, नक्षत्रों एवं दशाओं आदि द्वारा पूर्णरूपेण निर्देशित होती है। इनके सम्मिलित प्रभाव जीवन में घटित होने वाली हर घटना को प्रभावित करते हैं। आधुनिक भौतिकवादी विश्व में प्रत्येक मनुष्य धनी, सुखी एवं हर प्रकार से संपन्न जीवन जीने की कल्पना करता है तथा उसकी यह आकांक्षा होती है कि उसे वे सभी विलासितापूर्ण सुख-सुविधाएं प्राप्त हों जिनकी उसे आकांक्षा है। किंतु यह हमारे हाथ में नहीं है। हम सिर्फ कर्म कर सकते हैं, फल का निर्धारण हमारी जन्म कुंडली में स्थित ग्रह करते हैं जो हमारे जन्म लेने के साथ हमारी कुंडली में अवतरित होते हैं। जन्म लेने के उपरांत यह अवश्यंभावी हो जाता है कि हमें निरंतर सुख एवं दुख के चक्र से गुजरना है। अब किसके भाग्य में विधाता ने क्या सुख अथवा दुख लिखे हैं इसका विवेचन ज्योतिषी अपने दैवीय ज्ञान, ज्योतिष के गहन एवं गूढ़ सिद्धांतों के ज्ञान के आधार पर करते हैं तथा लोगों को परामर्श देकर उनका मार्गदर्शन करते हैं कि उसके जीवन का अमुक समय सुख का है अथवा आने वाला समय दुख का होगा, अतः भावी परेशानियों अथवा आसन्न संकट के प्रति सावधान हो जायें। यदि बुरे समय का ज्ञान पूर्व में ही हो जाय तथा समुचित मार्गदर्शन मिल जाय तो व्यक्ति आने वाले बुरे समय के प्रति सचेत हो सकता है, मानसिक रूप से तैयार हो सकता है अथवा दैवीय उपायों द्वारा तथा अपने कृत्यों द्वारा ईश्वर प्रदत्त इस पीड़ा को कमतर करने में, इसकी तीव्रता एवं विभीषिका को न्यून करने में अवश्य सफल हो सकता है। यद्यपि कि ज्योतिष में अनिष्ट के निर्धारण एवं उनकी भविष्यवाणी के अनेक ज्ञात एवं अज्ञात सूत्र मौजूद हैं, किंतु एक अति महत्वपूर्ण, व्यवहृत एवं सिद्ध तकनीक द्वादशांश चक्र के द्वारा अनिष्ट के निर्धारण का है जिसमें राहु का गोचर देखकर काफी सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है। यह तकनीक वर्षों के शोध एवं पर्यवेक्षण के परिणामस्वरूप प्रकाश में आयी है तथा शत-प्रतिशत सही फल देने में सक्षम है। नियम 1: चरण 1: लग्न कुंडली का अष्टमेश देखें। चरण 2: लग्न कुंडली के अष्टमेश की द्वादशांश में स्थिति देखें। चरण 3: राहु का गोचर देखें। जब भी द्वादशांश में लग्न कुंडली के अष्टमेश को राहु गोचर द्वारा प्रभावित करेगा, वह समय काफी घातक अथवा समस्या देने वाला होगा। नियम 2: यदि लग्न कुंडली का अष्टमेश शनि हो तो वैसी स्थिति में नियम में थोड़ा सा परिवर्तन है। ऐसी स्थिति में देखें कि द्वादशांश में शनि कहां अवस्थित है। जब कभी भी राहु की स्थिति गोचर में शनि से तृतीय अथवा दशम भाव में होगी, वह समय जातक के लिए बुरा, कष्टदायक अथवा घातक होगा। निम्नांकित उदाहरण इस सिद्धांत की सत्यता के परिचायक एवं इसकी विश्वसनीयता को सिद्ध करने में सहायक होंगे। लेकिन ज्योतिर्विदों को यह ध्यान रखना अति आवश्यक है कि इस सिद्धांत के अनुसार राहु हर साढ़े सात वर्ष के उपरांत संवेदनशील बिंदु पर गोचर करेगा। अतः फलकथन करते वक्त हमेशा इसे दृष्टिगत रखकर सावधानी बरतनी आवश्यक है। हमेशा ही यह मृत्यु देने वाला तथा अतिघातक नहीं होगा। किंतु इतना तो है कि जातक को बुरी परिस्थितियों का सामना अवश्य करना ही पड़ेगा चाहे इसकी मात्रा कम या अधिक हो

व्यवहारिक उपाय

सभी ग्रह मानव पर अपना प्रभाव डालते हैं। हमारे पूर्व जन्मों के कृत्यों के अनुरूप ग्रह हमारी कुंडली के विभिन्न स्थानों में स्थित होकर अपना अच्छा या बुरा फल देते हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने हेतु इन ग्रहों के बुरे प्रभाव को खत्म कर अच्छे प्रभावों की कामना करता है। इसके लिए विभिन्न यंत्र, मंत्र व तंत्रों का प्रयोग भी करता है। परंतु यदि मनुष्य कुछ साधारण उपाय करे तो नवग्रह शांत हो शुभ फलदायक हो जाते हैं। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु व केतु ये नौ ग्रह हैं। नवग्रहों के अतिरिक्त ईश्वर को सर्वोपरि माना गया है। ईश्वर के प्रति समर्पण, भक्ति और आराधना की भावना रखने से नवग्रह प्रभावहीन हो जाते हैं। नवग्रहों का मंत्र जप, उपासना और जहां आवश्यक हो वहां महामृत्युंजय मंत्र का जप करने से भी नवग्रह शांति हो जाती है। कुसंगति, कुचिंतन और कुसाहित्य का त्याग करके सात्विक रहन-सहन, सात्विक भोजन एवं सात्विक विचार अपनाने से भी नवग्रहों की शांति होती है। मनुष्य के दुखों का कारण उसकी लालसा है। अपनी अनावश्यक आवश्यकताएं कम कर देने से नवग्रह प्रभावहीन हो जाते हैं। निष्काम कर्म करते हुए, ईश्वर पर अटूट विश्वास रखना उसका स्मरण, ध्यान एवं भजन करने मात्र से भी नवग्रहों का कुप्रभाव खत्म हो जाता है। वासनाओं से अलग रहकर किये गये उचित कर्मों से नवग्रह प्रसन्न होकर सौभाग्य सूचक हो जाया करते हैं। मन, वाणी और क्रिया से किये गये पापों या दुष्कर्मों के लिए ईश्वर से क्षमा याचना करने से भी नवग्रह शांत हो जाते हैं। ईर्ष्या व शत्रुता को त्यागकर व वैराग्य को अपनाते हुए मन, वचन व कर्म से अहिंसा का पालन करने से भी नवग्रहों की शांति संभव है। आध्यात्मिक साहित्य का निरंतर पठन-पाठन भी नवग्रहों की शांति का अचूक उपाय है। इष्टदेव का ध्यान, सत्संग व भक्ति करते हुए पूर्ण शरणागति को अपनाने से भी नवग्रहों का कुप्रभाव समाप्त हो जाता है। मन व इंद्रियों के निग्रह अर्थात उन्हें वश में कर लेने से भी नवग्रह शांत होते हैं। ईश्वर उपासना नवग्रह शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है। यदि आप सभी कार्य ईश्वर को अपर्ण करके करें, अपनी सभी गतिविधियां उसकी इच्छा समझकर करें। क्या होगा? ईश्वर जाने, जो होगा वह अच्छा होगा भले के लिए होगा और जैसा भी होगा मुझे स्वीकार होगा ऐसा चिंतन करें। मन में यह धारणा बनाएं कि ईश्वर की कृपा से मैं प्रतिदिन हर प्रकार से अच्छा बनता जा रहा हूं। इससे शक्ति मिलेगी और बहुत से कष्ट स्वतः ही दूर हो जाएंगे। यह भी सोचें और इसका हर समय स्मरण व उच्चारण करते रहें- ''मैं कुछ नहीं हूं, मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं। तू ही सब कुछ है। तुम बिन कुछ नहीं है जीवन को तेरा ही सहारा है, तू ही पालनहार है।'' यह अहंकार और मोह को दूर करके ईश्वरार्पण, आत्मनिवेदन व शक्ति प्रदान करेगा। ईश्वरार्पण की भावना से अपने कर्तव्य निभाते रहेगें तो सुख पाने का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होगा और नवग्रह भी आप पर कुप्रभाव डालने से कतरायेंगे। आप अपनी क्षमताओं को पहचान कर पाप, खतरनाक भाव, घृणा, बड़ी बाधा, अधिक बोलना और बुरी भावना, ईर्ष्या व असत्य को त्याग करके किसी की आलोचना न करते हुए, समय के अपव्यय में बचते हुए आज और अभी अपने विश्वसनीय मित्र अर्थात् अपने हाथों से उत्साह सहित कार्य में संलग्न हो जायेंगे और सदैव, सच्चाई ईमानदारी व विनम्रता अपनायेंगे तो नवग्रह प्रभावहीन होकर शांत हो जाते हैं। ऐसे में आप आत्मविश्वासी बन जायेंगे, विवेक व धैर्य आपके सहयोगी होंगे और आप सहज ही अपना लक्ष्य पा सकेगें। परोपकार की भावना, सभी को प्रसन्न देखने की इच्छा आपको ईश्वर के करीब ले जाने में सक्षम है। ऐसे व्यक्ति पर नवग्रह हमेशा कृपालु रहते हैं।

कुंडली में ग्रहण योग

सूर्य/चंद्रमा के राहु/ केतु के साथ होने से ग्रहण योग बनता है - इस योग में अगर सूर्य ग्रहण योग हो तो व्यक्ति में आत्म विश्वास की कमी रहती है और वह किसी के सामने आते ही अपनी पूर्ण योग्यता का परिचय नहीं दे पाता है उल्टा उसके प्रभाव में आ जाता है। कहने का मतलब कि सामने वाला व्यक्ति हमेशा ही हावी रहता है। चन्द्र ग्रहण होने से कितना भी घर में सुविधा हो मगर मन में हमेशा अशांति ही बनी रहती है कोई न कोई छोटी-छोटी बातों का डर भी सताता है। कोई अज्ञात भय मन में बना रहता है। संतुष्टि का हमेशा आभव रहता है। मंगल के राहु के साथ होने से अंगारक योग बनता है - इस योग के कारण जिस काम को दूसरा कोई आसानी से कर लेता है उसी काम को करने में अनेक प्रकार की बाधाएं, अड़चन आदि बनी रहती है यानि कोई काम सुख शांति पूर्वक सम्पन्न नहीं होता है। गुरु की राहु/केतु के साथ युति हो तो चांडाल योग बनता है- इस योग के कारण व्यक्ति का धन से संबंधित कोई काम सफल नहीं होता है। कितना भी धन अच्छे समय में कमा ले लेकिन जैसे ही इन ग्रहों की महादशा- अन्तर्दशा- प्रत्यंतर दशा आएगी तो वो सब कमाया हुआ धन एकदम से खत्म हो जाता है और इस योग के कारण व्यक्ति को कर्ज लेने के बाद चुकाने में दिक्कत होती है और एक दिन उसको ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है कि कहीं से कुछ रुपये उधार लेकर खाना खाना पड़ता है। शुक्र और राहु की युति से लम्पट योग का निर्माण होता है - इस योग के कारण जातक का ध्यान पराई स्त्रियों में लगा रहता है और कई-कई प्रेम सम्बन्ध बनते हैं लेकिन ज्यादातर का अंत बहुत बुरा, लड़ाई- झगडे़ के साथ और अपमान के साथ होता है। कर्कशा स्त्री जीवन में बनी रहती है। शनि राहु की युति हो तो नंदी योग बनता है- इस योग के कारण व्यक्ति सच्चाई के मार्ग पर चलना चाहते हुए भी हमेशा झूठ और फरेब का शिकार होता है और कई बार जेल जाने तक की नौबत आती है। अपराध की दुनिया से सम्बन्ध बनता है और जीवन अनेक संकटों में फंस जाता है। इसके अलावा भी कुछ और अशुभ स्थितियां अगर आपकी कुंडली में है तो वो आप मिलान करें और देखंे की क्या ऐसा है आपकी कुंडली में। सप्तम, जीवनसाथी के स्थान का स्वामी ग्रह अगर छठे, आठवंे या बारहवें भाव मै बैठा हो या फिर सूर्य के साथ बैठकर अस्त है तो विवाह सुख का नाश करने वाला योग बन जाता है और अगर पुरुष की कुंडली में शुक्र अस्त हो या पापी ग्रह से युक्त हो तो भी ऐसा योग बनता है, अगर महिला की कुंडली में गुरु अस्त हो या गुरु के साथ कोई अशुभ या पापी ग्रह बैठा हो तो महिला का वैवाहिक जीवन अनेक समस्या से भरा या निराश या सपने जो देखे हों पति को लेकर वह सभी टूटे हुए लगते हैं। कुंडली में अगर लग्नेश कमजोर अवस्था का या अशुभ स्थति में है तो आपका स्वास्थ्य कभी भी सम्पूर्ण अच्छा नहीं रहेगा। धनेश और लाभेश अगर अशुभ स्थति में हो तो धन के कारण सम्पूर्ण जीवन संघर्ष करना पड़ता है। कर्मेश यदि छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो या फिर अशुभ युति में हो तो अनेक काम बदलने के बाद भी स्थायित्व नहीं रहता है और धन प्राप्ति में बाधा होती है। सूर्य, मंगल, शनि, राहु और केतु ये पांच पापी ग्रह माने गए हैं और चन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र ये चार ग्रह बहुत ही शांत और शुभ माने जाते हैं। अगर इन चार ग्रहों के साथ कोई भी पापी ग्रह बैठा हो या शुभ ग्रहों में से कोई अस्त हो या फिर नीच का हो या फिर कमजोर अवस्था का हो तो जीवन में शुभता की कमी रहती है, योग्यता के अनुसार जीवन यापन नहीं होता है।

राहु-केतु की परम अशुभ फलदाई स्थिति

राहु-केतु कुंडली में एक दूसरे से 1800 की दूरी पर (ठीक विपरीत राशि में) स्थित होते हैं। अन्य पापी ग्रहों की तरह ये 3, 6, 11 भाव में शुभ फल देते हैं, और अन्य भावों में अपनी स्थिति व दृष्टि द्वारा उनके कारकत्व को हानि पहुंचाते हंै। यह सदैव वक्री गति से राशि चक्र में भ्रमण करते हैं। सातवीं दृष्टि के अतिरिक्त (बृहस्पति की तरह) यह अपनी स्थिति से पंचम और नवम् भाव पर पूर्ण दृष्टि डालते हैं। राहु-केतु के शुभाशुभ फल के बारे में ‘लघुपाराशरी’ ग्रंथ में बताया गया है। यद्यद्भावगतौ वापि यद्यद्भावेश संयुतौ। तत्तत्फलानि प्रबलो प्रदिशेतां तमो ग्रहौ।। (संज्ञाध्याय, श्लोक/13) अर्थात् ‘‘राहु और केतु जिस भाव में स्थित हों या जिस भाव के स्वामी के साथ बैठे हों, उन्हीं से संबंधित विशेष फल देते हैं।’ बृहत् पाराशर होरा शास्त्र (अ. 36.17) के अनुसार यदि राहु-केतु केंद्र या त्रिकोण में उस भावेश के साथ हो या उससे दृष्ट हो तो वह राजयोगकारक जैसा फल देते हैं। राहु-केतु की अन्य भावों की अपेक्षा प्रथम (लग्न) और सप्तम भाव में स्थिति परम अशुभ फलदाई होती है। कुछ ज्योतिर्विद राहु की लग्न में और केतु की सातवें भाव में स्थिति को ‘अनन्त’ नामक कालसर्प योग, और राहु की सातवें भाव में व केतु की लग्न में स्थिति को ‘तक्षक’ नामक ‘कालसर्प योग’ की संज्ञा देते हैं। वास्तव में विभिन्न भयानक सर्पों के नाम के कालसर्प योग राहु-केतु की अपनी भाव-स्थिति का ही फल देते हैं।लग्न का राहु जातक को रोगी, अल्पायु, धनी, क्रोधी, कुकर्मी और व्यर्थ बोलने वाला बनाता है। सप्तम का राहु जातक को अल्पबुद्धि, वीर्य-दोष से पीड़ित और सहयोगियों से अलगाव देता है। पत्नी धन का नाश करती है। अन्य पापी ग्रहों से युक्त होने पर पत्नी दुष्ट स्वभाव और कुटिल होती है। लग्न का केतु वात रोग से पीड़ा, दुर्जनों की संगति, धन की कमी, स्त्री व पुत्र की चिंता और व्याकुलता देता है। सप्तम का केतु धन का नाश, अपमान, आंतांे और मूत्र की बीमारी, स्त्री से वियोग तथा व्यग्रता देता है। लग्न पीड़ित होने पर व्यक्ति का सारा जीवन कष्टमय रहता है। राहु-केतु के लग्न व सप्तम तथा विपरीत स्थिति का दुष्प्रभाव निम्न कुंडलियों द्वारा भली प्रकार समझा जा सकता है। दोनों ही स्थिति में राहु व केतु अपने दुष्प्रभाव से लग्न, पंचम, सप्तम, नवम, तृतीय व एकादश भाव के फल की हानि करते हैं जिससे स्वास्थ्य, विद्या, बुद्धि, संतान, दांपत्य सुख, पिता, धर्म; पुरूषार्थ और लाभ की हानि होती है। इन भावों के पीड़ित होने पर व्यक्ति का जीवन निराशापूर्ण व दुखी रहता है। राहु व केतु पापदृष्ट अथवा नीच राशि में स्थित होने पर अधिक और उच्चस्थ अथवा शुभ दृष्ट होने पर कम दुष्प्रभावी होते हैं। इस बहुमुखी हानिकारक प्रभाव के कारण कुछ ज्योतिषियों ने इसे ‘लज्जित दोष’ कहना आरंभ कर दिया है, जो भविष्य में ‘कालसर्प योग’ और ‘पितृदोष’ की तरह प्रसिद्धि पा सकता है। अपना प्रारब्ध भोगता व्यक्ति ज्योतिषियों के मार्गदर्शन में अपनी मेहनत की कमाई विभिन्न उपायों पर खर्च करता है। परंतु ज्योतिष (ईश्वरीय ज्योति) केवल मनुष्य के प्रारब्ध (भाग्य) को दर्शाती है, भाग्य नहीं बदलती। प्रारब्ध तो भोगकर ही कटता है। शास्त्रोक्त मंत्रजप, हवन, व दान द्वारा कष्टों को सहनशील ही बनाया जा सकता है। बृहत् पाराशर होरा शास्त्र (अध्याय 2) के अनुसार जीव के प्रारब्ध (शुभ/अशुभ कर्मफल) को फलीभूत करने के लिए जनार्दन (ईश्वर) ग्रह रूप में कुंडली के शुभ/अशुभ भावों में स्थित होकर उनकी दशा-भुक्ति में अच्छा या बुरा फल देते हैं। ‘जब कोई ग्रह (दशा, भुक्ति या गोचर में) कष्टकारी हो तो उसकी यथाशक्ति पूजा (मंत्र जप व हवन, तथा ग्रह की वस्तु का दान) करना चाहिए, क्योंकि ब्रह्माजी ने ग्रहों को वरदान दिया है कि जो तुम्हारी पूजा करे उसका भला करो।’’ पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से विधिपूर्वक स्वयं किया उपाय कष्टों को आसान बनाता है, जैसे स्वयं भोजन करने पर ही भूख शांत होती है। ग्रह के मंत्रजप, हवन और दान को प्रायश्चित स्वरूप मानकर व्यक्ति के संकल्प और प्रयास में दृढ़ता आती है। राहु-केतु की पूजा का विधान इस प्रकार है। चैत्र, पौष और अधिकमास को छोड़कर किसी अन्य माह के शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार से आरंभ कर 18 शनिवार को करना चाहिए। व्रत के दिन प्रातः स्नान करके सूर्य को अघ्र्य देना चाहिए। उसके बाद काले रंग के वस्त्र धारण कर कंबल के आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से राहु के लिए ‘‘ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः’’ की और केतु के लिए ‘‘ऊँ स्रां स्रीं स्रौं सः केतवे नमः’’ की 11 या 5 माला एक दिन में जप करें। राहु मंत्र के जप के समय एक पात्र में जल और दूर्वा तथा केतु मंत्र जप के समय जल मंे कुश डालकर अपने पास रखना चाहिए। उस दिन का जप पूरा होने पर उसे पीपल की जड़ में चढ़ा दें। दिन मंे एक समय मीठी रोटी या चूरमा अथवा काले तिल से बना बिना नमक का भोजन करना चाहिए। सूर्यास्त के बाद एक सरसों के तेल का दीपक पीपल के वृक्ष की जड़ के समीप जलाना चाहिए। जप-अनुष्ठान की समाप्ति पर जप-संख्या के ‘दशांश’ का हवन करना चाहिए। ‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार हवन में ग्रह संबंधी समिधा का अवश्य प्रयोग करना चाहिये। राहु के लिए ‘दूर्वा’ और केतु के लिए ‘कुशा’ को आम की समिधा के साथ मिलाकर हवन में प्रयोग करें। अनुष्ठान के समय सुबह-शाम लोबान की धूनी घर में घुमाना चाहिए। हवन के बाद यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन कराकर उन्हें ग्रह संबंधी वस्तुओं का दान देना चाहिए। दान की वस्तुएं इस प्रकार हैं:- राहु की वस्तुएं: सतनाजा, कंबल, तिल से भरा लौह पात्र, उड़द, सरसों, नारियल, तेल, नीला वस्त्र व सीसा। केतु की वस्तुएं: कंबल, ऊनी वस्त्र, बकरा, सतनाजा व उड़द। अंत में दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर विदा करना चाहिए। इस प्रकार राहु-केतु की पूजा अनुष्ठान से कष्टों का शमन होकर सम्मान प्राप्त होता है। अनुष्ठान के उपरांत राहु के लिए कोढ़ियों को सरसों के तेल से बनी सूखी सब्जी और रोटी (विशेषकर अमावस्या व शनिवार को) खिलाना चाहिए। केतु के लिए गली के कुत्ते को (विशेषकर बुधवार को) दूध रोटी खिलाना चाहिए। इससे जीवन की कठिनाइयां सरल होती जाती हैं। 

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Friday, 15 January 2016

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शनि को कल्याणकारी बनाने के उपाय

शनि शुभ होने पर निम्न उपाय करें: - नीलम रत्न, चांदी की अंगूठी में बनवा कर, मध्यमा अंगुली में, शनिवार के दिन प्रातः पहनें। - नीले रंग की वस्तुओं का उपयोग करें जैसे नीले वस्त्र, चादर, पर्दे आदि। - शनि से संबंधित वस्तुओं (जैसे लोहा, तेल, चमड़ा आदि) का व्यापार करें और शनि के दिन एवं नक्षत्रों का विशेष तौर पर उपयोग करें। - लोहे के बरतन में 7 काली मिर्च, 7 काले चने के दाने, पत्थर का कोयला, 7 दाने उड़द की साबुत दाल, एक चमड़े का टुकड़ा एवं नीले रंग का वस्त्र/ कपड़ा डाल कर घर के आंगन में दबा दें। - इष्ट देव या शनि देव की लोहे की मूर्ति बनाएं, बनवाएं और शनि को शुभ मुहूर्त में घर/ कार्यस्थान में रखें। - शनिवार के दिन सरसों के तेल का तिलक करें और खाने में इसका उपयोग करें। - 5 शनिवार शनि देव/भैरों के मंदिर में सरसों के तेल का दीपक जलाएं। - शनिवार को घर में भैंस रखें या भैंस को हरा चारा खिलाएं। - शनिवार को उड़द की दाल का उपयोग खाने में करें। - नीले रंग की बोतल में सूर्यतप्त जल का उपयोग 27 दिन करें। - शनिवार को काला-भूरा कुत्ता पालें। - स्टील के बरतनों का उपयोग करें। - शनिवार को सिर और बदन पर सरसों के तेल की मालिश करें। - काले घोड़े के नाल का छल्ला/शनि यंत्र का उपयोग करें (मध्यमा अंगुली में धारण करें)। - शनिवार के दिन लोहे का कड़ा हाथ में पहनें। शनि अशुभ होने पर निम्न उपाय करें: - शनि यंत्र, 23000 मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित कर के धारण करें। - नीले रंग की वस्तुओं का उपयोग पूर्णतया वर्जित है। - भैंस या कुत्ता न पालें। - 5 शनिवार को आक के पौधे पर लोहे का टुकड़ा चढ़ाएं। - 5 शनिवार लोहे की कटोरी में तेल का दान करें। - 5 शनिवार कौआंे को दही-रोटी डालें। - 7 शनिवार सवा किलो उड़द की साबुत दाल दान करें। - उड़द की साबुत दाल के 7 दाने, 7 चने के दाने, 7 काली मिर्च, 7 कीलें, 1 पत्थर के कोयले का टुकड़ा, 1 चमड़े का टुकड़ा बहते पानी में बहाएं। - उपर्युक्त चीज़ों को नीले कपड़े में बांध कर निर्जन जगह दबाएं। - नशे की चीजों का उपयोग न करें। - भैंस को 7 शनिवार सतनाजा चराएं। - चींटियों को 7 शनिवार काले तिल, आटा और शक्कर डालें। - शनिवार को नया कार्य या यात्रा आरंभ न करें। - 5 शनिवार श्मशान घाट में लकड़ी का दान करें। - मंदिर में शनि की वस्तुओं का 5 शनिवार दान करें। - निर्धन को 7 शनिवार भोजन कराएं। - 7 शनिवार मछलियों को आटे की गोलियां डालें। - शनिवार को दान न लें। - पत्थर का कोयला मंदिर/भंडारे के लिए दान करें। - काले कुत्ते को दूध पिलाएं।

कुंडली में अष्टम चन्द्र

अष्टम चंद्र यानि जन्म कुंडली में आठवें भाव में स्थित चंद्र। आठवां भाव यानि छिद्र भाव, मृत्यु स्थान, क्लेश‘विघ्नादि का भाव। अतः आठवें भाव में स्थित चंद्र को लगभग सभी ज्योतिष ग्रंथों में अशुभ माना गया है और वह भी जीवन के लिए अशुभ। जैसे कि फलदीपिका के अध्याय आठ के श्लोक पांच में लिखा है कि अष्टम भाव में चंद्र हो तो बालक अल्पायु व रोगी होता है। एक अन्य ग्रंथ बृहदजातक में भी वर्णित है कि चंद्र छठा या आठवां हो व पापग्रह उसे देखें तो शीघ्र मृत्यु होगी। जातक तत्वम के अध्याय आठ के श्लोक 97 में भी आठवें चंद्र को मृत्यु से जोड़ा गया है। ज्योतिष के ग्रंथ मानसागरी के द्वितीय अध्याय के श्लोक आठ में वर्णित है कि यदि चंद्र अष्टम भाव में पाप ग्रह के साथ हो तो शीघ्र मरण कारक है। इसी कारण से अधिकतर ज्योतिषी अष्टम चंद्र को अशुभ कहते हैं और जातक को उसकी आयु के बारे में भयभीत कर पूजादि करवा कर धन लाभ भी लेते हैं, ज्योतिष के प्रकांड ज्ञानी भी जन्मपत्री में अष्टम चंद्र को देखते ही जन्मपत्री को लपेटना शुरू कर देते हैं, वे अष्टम चंद्र को ऐसा सर्प मानते हैं जिसके विष को जन्म कुंडली में स्थित शुभ ग्रह गुरु, शुक्र या बुध रूपी अमृत भी निष्प्रभावी नहीं कर सकते। वे अष्टम चंद्र को भय का प्रयाय व साक्षात मृत्यु का देवता मानते हैं, मैंने स्वयं अनेक पंडितों को अष्टम चंद्र की भयानकता बताते देखा है। परंतु यह सर्वथा गलत है कि अष्टम चंद्र को देखते ही जन्मपत्री के अन्य शुभ योगों, लग्न व लग्नेश की स्थिति, अष्टम व अष्टमेश की स्थिति आदि को भूल जाएं और अष्टम चंद्र को देखते ही अशुभ बताना शुरू कर दें, क्या इस अष्टम चंद्र की भयानकता हमें इतना सम्मोहित कर देती है कि इसे देखते ही मृत्यु या प्रबल अरिष्ट के रूप में अपना निर्णय सुनाने लगते हैं, बिना यह विचार किए कि सुनने वाले जातक को ऐसे मुर्खतापूर्ण निर्णय से कितना आघात पहुंचता है। यह अपने आप में नकारात्मक ज्योतिष है और हमें इससे बचना चाहिए। केवल मृत्यु या भयानकता ही अष्टम चंद्र का प्रतीक नहीं है वरन् आशा व जीवन का प्रतीक भी अष्टम चंद्र ही है। अतः अष्टम चंद्र का केवल नकारात्मक पक्ष ही नहीं, बल्कि इसके सकारात्मक पक्ष पर भी गहन विचार करने के बाद ही ज्योतिषी को अपना निर्णय सुनाना चाहिए। आइए अष्टम चंद्र के बारे में ज्योतिष के विभिन्न ग्रंथों में लिखित निम्न श्लोकों पर एक नजर डालें जो अष्टम चंद्र के सकारात्मक पक्ष को उजागर करते हैं अर्थात भयभीत करने से बचाते हैं: 1. जातक परिजात में लिखा है कि जिस जातक का कृष्ण पक्ष में दिन का जन्म हो या शुक्ल पक्ष में रात्रि का जन्म हो और उसकी जन्म कुंडली में छठा या आठवां चंद्र हो, शुभ व पाप दोनों प्रकार के ग्रहों से दृष्ट हो तो भी मरण नहीं होता। ऐसा चंद्र बालक की पिता की तरह रक्षा करता है। 2. मानसागरी में कहा गया है कि लग्न से अष्टम भावगत चंद्र यदि गुरु, बुध या शुक्र के द्रेष्काण में हे तो वही चंद्र मृत्यु पाते हुए की भी निष्कपट रक्षा करता है। अब इन श्लोकों पर तो ज्योतिषीगण ध्यान देने की आवश्यकता समझते नहीं या ध्यान देना ही नहीं चाहते जो अष्टम चंद्र का सकारात्मक पक्ष उजागर करते हैं बल्कि नकारात्मक पक्ष को उजागर कर स्वार्थ सिद्ध करते हैं। अतः हमें अष्टम चंद्र से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह जीवन का प्रयाय भी बन जाता है यदि निम्न सिद्धांत इस पर लागू हों तो: 1.जातक का जन्म कृष्ण पक्ष में दिन का हो या शुक्ल पक्ष में रात्रि का हो। 2.जन्म कुंडली में चंद्र शुभ ग्रह गुरु, शुक्र या बुध की राशि में हो या इन्हीं ग्रहों से दृष्ट हो। 3.द्रेष्काण कुंडली में चंद्र पर गुरु, शुक्र या बुध की दृष्टि हो या चंद्र इन्हीं तीन ग्रहों की राशियों में स्थित हो। 4.नवांश कुंडली में चंद्र पर गुरु, शुक्र या बुध की दृष्टि हो या चंद्र इन्हीं तीन ग्रहों की राशियों में स्थित हो।

मकर संक्रांति महत्व

सूर्य के राशि परिवर्तन का समय संक्रांति कहलाता है। सूर्य लगभग एक माह में राशि परिवर्तन कर लेते है। इस प्रकार एक वर्ष में मेष-वृषादि 12 संक्रांति होती है। सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना मकर संक्रांति कहलाता है।मकर संक्रांति को सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाते है। इसी कारण इस संक्रांति का पुराणों एंव शास्त्रों में बहुत महत्व प्रतिपादित किया है। अयन का अर्थ होता है चलना। सूर्य के उत्तर गमन को उत्तरायण कहते है। उत्तरायण के छह महीनों मे सूर्य मकर से मिथुन तथा दक्षिणायन में सूर्य कर्क से धनु राषि में भ्रमण करते है। ‘‘महाभारत’’ एंव ‘‘ भागवत् पुराण’’ के अनुसार सूर्य के उत्तरायण आने पर ही ‘‘भीष्म पितामह’’ ने देह त्याग किया था। भगवान कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि जो प्राणी सूर्य के उत्तरायण होने पर शरीर त्याग करता है, वह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है।शास्त्रो में उत्तरायण की अवधि को देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि कहा गया है। इस प्रकार मकर संका्रन्ति एक प्रकार से देवताओं का प्रातःकाल है।‘‘हेमाद्रि’’/‘‘भविष्य पुराण’’ में घोषणा की गई है कि उत्तरायण के आ जाने पर यानी मकर संक्रांति में एक प्रस्थ घी से सूर्य को स्नान करावे। पीछे उसे ब्राह्मण को दे दे, कुटुम्बी ब्राह्मण के लिये घृतधेनुक दान करे, वह सब पापो से छुटकर सूर्यलोक को जाकर बहुत समय तक रहता है वहाँ से आकर प्रजा को आनंद देने वाला राजा होता है। मकर संक्रांति के दिन स्नान, दान, जप, तप, श्राद्ध तथा अनुष्ठान आदि का सौ गुना फल प्राप्त होता है। उत्तर प्रदेश में इस पर्व को ‘‘खिचडी’’ कहते है। इसका वैज्ञानिक महत्व यह है कि बाजरे आदि की खिचडी से कड़ाके की सर्दी भी बेअसर हो जाती है। महाराष्ट्र में विवाहित स्त्रियाँ पहली संक्रांति पर तेल, कपास, नमक, आदि वस्तुएं सौभाग्यवती स्त्रियों को दान करती है। बंगाल में इस दिन स्नान कर तिल का दान करने का प्रचलन है। दक्षिण भारत में इसे ‘‘पोंगल’’ कहते है। असम में मकर संक्रांति को बिहू का त्योहार मनाया जाता है। राजस्थान में इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियाॅ सुहाग की वस्तुए , गजक ,तिल के लड्डू, घेवर, या मोतीचूर के लड्डू आदि पर रूपया रखकर बायना के रूप में अपनी सास के चरण स्पर्श करके देती है। किसी भी वस्तु का चैदह की सख्ंया में संकल्प कर ब्राह्मणों या अन्य परिचितो को दान करती है। इस दिन नव वर्ष का पंचांग ब्राह्मणों को दान करने की भी परम्परा है। इस दिन तिल ही से स्नान करे, तिल ही का उबटन लगावे, तिल ही का हवन, तिल का जल, तिल का ही भोजन तथा दान ये छः कर्म तिल ही से करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। ‘‘विष्णु धर्म’’ के अनुसार संक्रांति के दिन तिल, श्वेत वस्त्र, स्वर्ण, चाँदी, अन्न, गाय बछडे, पशु, आहार आदि दान करने से एक हजार गुना फल प्राप्त होता है। इस दिन बेटी-जवाँई को घर बुलाकर उनका आदर सत्कार करने से भी विशेष फल प्राप्त होता है।मकर संक्रांति के दिन यदि गंगासागर अथवा पवित्र सरोवर में स्नान किया जाये तो वर्ष भर में किये गये जाने-अनजाने सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। वहां के लोग यह मानते हैं कि जब सूर्य मकर राशि मे प्रवेश करते हैं, उस समय वहाॅ के मन्दिर के आस-पास जो पर्वत हैं उन पर आग की लपटे द्रष्टिगोचर होती है जो अग्नि स्वरूप भगवान सूर्य एवं ईश्वर का साक्षात दर्शन है। केरल में इस दिन अयप्पा भगवान की पूजा-अर्चना की जाती है।शास्त्रों में गऊधाट पर इस दिन स्नान करने से गोदान के बराबर फल बताया गया है। ‘‘बृह्माण्ड पुराण’’ में इस दिन दधि-मंथन का दान करने से पुत्र प्राप्ति होने तथा जन्म-जन्मान्तर के दारिद्रय नष्ट हो जाने की बात लिखी है। तमिलनाडु में मकर सक्रान्ति दीपावली की तरह उंमग व उल्लास से मनाई जाती है। पंजाब व जम्मू-कश्मीर, जो सिख बहुल क्षेत्र है वहाँ मकर संक्रान्ति की पूर्व संघ्या को लोहडी के रूप में गाजे-बाजे उमंग व रास-रंग के साथ मनाया जाता है। नव विवाहित एवं षिषुओ के उपलक्ष्य मे इस त्यौहार को धूम धाम से मनाते हैं, प्रार्थना करते हैं -.. दे मा लोहड़ी - तेरी जीवे जोड़ी दक्षिण बिहार में मकर संक्रांति पर विशाल मेला भी लगता है जो एक पक्ष तक चलता है। यहाँ मंदार पर्वत के नीचे सरोवर में स्नान किया जाता है। मान्यता है कि मधु कैरभ नामक असुरों का भगवान विष्णु ने यहीं पर वघ कर इसी सरोवर में स्नान किया था। यह जल पापनाशक कहलाता है। इस दिन कुरूक्षेत्र के पवित्र सरोवर में भी लाखों व्यक्ति स्नान कर पुण्य कमाते हैं। ‘धर्म सिन्घु’ ग्रन्थ के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सफेद तिल से देवताआंे का तथा काले तिल से पित्तरों का तर्पण करना चाहिये। षिवलिंग पर षुद्ध जल का अभिषेक करने से महाफल की कृपा प्राप्ति होती है। ‘‘शिव रहस्य’’ घोषणा करता है कि ’’मकर सक्रांति एंव माघ मास में जो घृत एंव कम्बल का दान करता है वह अनेक भोगांे को भोगकर अन्त में मोक्ष पाता है। घृत व कंबल देने से कई मनुष्य राजा हो गये। ’ वायु पुराण के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त मे स्नान कर दूर्वा, दघि, मक्खन, गोबर, चंदन, लाल फूल जल सहित, गौ, मृतिका, धान्या को पीपल को स्पर्ष कराकर दोनो हाथों से सूर्य को प्रणाम करना चाहिये।इससे सूर्य देव अति प्रसन्न रहते हैं।‘विष्णु घर्म सूत्र’ के अनुसार पितरो की शान्ति के लिये एवं स्वास्थ्यवर्द्धन एवं कल्याण के लिये तिल के यह प्रयोग स्नान, दान, भोजन, जल,अर्पण, तिल ,आहुति तथा उबटन मर्दन करने से पाप नष्ट होकर पुण्य की प्राप्ति होती है । हरियाणा एवं पंजाब मे इस दिन संघ्या होते ही आग जलाकर अग्नि पूजा करते हैं तथा तिल, गुड़, चावल, भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है । इस सामग्री को तिलचैली कहा जाता है । सभी लोग इन वस्तुओं को आपस मे बांटकर खुषियां मनाते हैं । उत्तर प्रदेष मे यह पर्व बहुत पवित्र माना जाता है। इलाहाबाद मे हर वर्ष विशाल माघ मेले की शुरूआत होती है। बंगाल मे प्रतिवर्ष गंगा सागर का विषाल मेला लगता है। षास्त्रो में इसका बडा महत्व है। कहते भी है कि सारे तीर्थ बार बार गंगा सागर एक बार ।