राहु-केतु कुंडली में एक दूसरे से 1800 की दूरी पर (ठीक विपरीत राशि में) स्थित होते हैं। अन्य पापी ग्रहों की तरह ये 3, 6, 11 भाव में शुभ फल देते हैं, और अन्य भावों में अपनी स्थिति व दृष्टि द्वारा उनके कारकत्व को हानि पहुंचाते हंै। यह सदैव वक्री गति से राशि चक्र में भ्रमण करते हैं। सातवीं दृष्टि के अतिरिक्त (बृहस्पति की तरह) यह अपनी स्थिति से पंचम और नवम् भाव पर पूर्ण दृष्टि डालते हैं। राहु-केतु के शुभाशुभ फल के बारे में ‘लघुपाराशरी’ ग्रंथ में बताया गया है। यद्यद्भावगतौ वापि यद्यद्भावेश संयुतौ। तत्तत्फलानि प्रबलो प्रदिशेतां तमो ग्रहौ।। (संज्ञाध्याय, श्लोक/13) अर्थात् ‘‘राहु और केतु जिस भाव में स्थित हों या जिस भाव के स्वामी के साथ बैठे हों, उन्हीं से संबंधित विशेष फल देते हैं।’ बृहत् पाराशर होरा शास्त्र (अ. 36.17) के अनुसार यदि राहु-केतु केंद्र या त्रिकोण में उस भावेश के साथ हो या उससे दृष्ट हो तो वह राजयोगकारक जैसा फल देते हैं। राहु-केतु की अन्य भावों की अपेक्षा प्रथम (लग्न) और सप्तम भाव में स्थिति परम अशुभ फलदाई होती है। कुछ ज्योतिर्विद राहु की लग्न में और केतु की सातवें भाव में स्थिति को ‘अनन्त’ नामक कालसर्प योग, और राहु की सातवें भाव में व केतु की लग्न में स्थिति को ‘तक्षक’ नामक ‘कालसर्प योग’ की संज्ञा देते हैं। वास्तव में विभिन्न भयानक सर्पों के नाम के कालसर्प योग राहु-केतु की अपनी भाव-स्थिति का ही फल देते हैं।लग्न का राहु जातक को रोगी, अल्पायु, धनी, क्रोधी, कुकर्मी और व्यर्थ बोलने वाला बनाता है। सप्तम का राहु जातक को अल्पबुद्धि, वीर्य-दोष से पीड़ित और सहयोगियों से अलगाव देता है। पत्नी धन का नाश करती है। अन्य पापी ग्रहों से युक्त होने पर पत्नी दुष्ट स्वभाव और कुटिल होती है। लग्न का केतु वात रोग से पीड़ा, दुर्जनों की संगति, धन की कमी, स्त्री व पुत्र की चिंता और व्याकुलता देता है। सप्तम का केतु धन का नाश, अपमान, आंतांे और मूत्र की बीमारी, स्त्री से वियोग तथा व्यग्रता देता है। लग्न पीड़ित होने पर व्यक्ति का सारा जीवन कष्टमय रहता है। राहु-केतु के लग्न व सप्तम तथा विपरीत स्थिति का दुष्प्रभाव निम्न कुंडलियों द्वारा भली प्रकार समझा जा सकता है। दोनों ही स्थिति में राहु व केतु अपने दुष्प्रभाव से लग्न, पंचम, सप्तम, नवम, तृतीय व एकादश भाव के फल की हानि करते हैं जिससे स्वास्थ्य, विद्या, बुद्धि, संतान, दांपत्य सुख, पिता, धर्म; पुरूषार्थ और लाभ की हानि होती है। इन भावों के पीड़ित होने पर व्यक्ति का जीवन निराशापूर्ण व दुखी रहता है। राहु व केतु पापदृष्ट अथवा नीच राशि में स्थित होने पर अधिक और उच्चस्थ अथवा शुभ दृष्ट होने पर कम दुष्प्रभावी होते हैं। इस बहुमुखी हानिकारक प्रभाव के कारण कुछ ज्योतिषियों ने इसे ‘लज्जित दोष’ कहना आरंभ कर दिया है, जो भविष्य में ‘कालसर्प योग’ और ‘पितृदोष’ की तरह प्रसिद्धि पा सकता है। अपना प्रारब्ध भोगता व्यक्ति ज्योतिषियों के मार्गदर्शन में अपनी मेहनत की कमाई विभिन्न उपायों पर खर्च करता है। परंतु ज्योतिष (ईश्वरीय ज्योति) केवल मनुष्य के प्रारब्ध (भाग्य) को दर्शाती है, भाग्य नहीं बदलती। प्रारब्ध तो भोगकर ही कटता है। शास्त्रोक्त मंत्रजप, हवन, व दान द्वारा कष्टों को सहनशील ही बनाया जा सकता है। बृहत् पाराशर होरा शास्त्र (अध्याय 2) के अनुसार जीव के प्रारब्ध (शुभ/अशुभ कर्मफल) को फलीभूत करने के लिए जनार्दन (ईश्वर) ग्रह रूप में कुंडली के शुभ/अशुभ भावों में स्थित होकर उनकी दशा-भुक्ति में अच्छा या बुरा फल देते हैं। ‘जब कोई ग्रह (दशा, भुक्ति या गोचर में) कष्टकारी हो तो उसकी यथाशक्ति पूजा (मंत्र जप व हवन, तथा ग्रह की वस्तु का दान) करना चाहिए, क्योंकि ब्रह्माजी ने ग्रहों को वरदान दिया है कि जो तुम्हारी पूजा करे उसका भला करो।’’ पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से विधिपूर्वक स्वयं किया उपाय कष्टों को आसान बनाता है, जैसे स्वयं भोजन करने पर ही भूख शांत होती है। ग्रह के मंत्रजप, हवन और दान को प्रायश्चित स्वरूप मानकर व्यक्ति के संकल्प और प्रयास में दृढ़ता आती है। राहु-केतु की पूजा का विधान इस प्रकार है। चैत्र, पौष और अधिकमास को छोड़कर किसी अन्य माह के शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार से आरंभ कर 18 शनिवार को करना चाहिए। व्रत के दिन प्रातः स्नान करके सूर्य को अघ्र्य देना चाहिए। उसके बाद काले रंग के वस्त्र धारण कर कंबल के आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से राहु के लिए ‘‘ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः’’ की और केतु के लिए ‘‘ऊँ स्रां स्रीं स्रौं सः केतवे नमः’’ की 11 या 5 माला एक दिन में जप करें। राहु मंत्र के जप के समय एक पात्र में जल और दूर्वा तथा केतु मंत्र जप के समय जल मंे कुश डालकर अपने पास रखना चाहिए। उस दिन का जप पूरा होने पर उसे पीपल की जड़ में चढ़ा दें। दिन मंे एक समय मीठी रोटी या चूरमा अथवा काले तिल से बना बिना नमक का भोजन करना चाहिए। सूर्यास्त के बाद एक सरसों के तेल का दीपक पीपल के वृक्ष की जड़ के समीप जलाना चाहिए। जप-अनुष्ठान की समाप्ति पर जप-संख्या के ‘दशांश’ का हवन करना चाहिए। ‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार हवन में ग्रह संबंधी समिधा का अवश्य प्रयोग करना चाहिये। राहु के लिए ‘दूर्वा’ और केतु के लिए ‘कुशा’ को आम की समिधा के साथ मिलाकर हवन में प्रयोग करें। अनुष्ठान के समय सुबह-शाम लोबान की धूनी घर में घुमाना चाहिए। हवन के बाद यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन कराकर उन्हें ग्रह संबंधी वस्तुओं का दान देना चाहिए। दान की वस्तुएं इस प्रकार हैं:- राहु की वस्तुएं: सतनाजा, कंबल, तिल से भरा लौह पात्र, उड़द, सरसों, नारियल, तेल, नीला वस्त्र व सीसा। केतु की वस्तुएं: कंबल, ऊनी वस्त्र, बकरा, सतनाजा व उड़द। अंत में दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर विदा करना चाहिए। इस प्रकार राहु-केतु की पूजा अनुष्ठान से कष्टों का शमन होकर सम्मान प्राप्त होता है। अनुष्ठान के उपरांत राहु के लिए कोढ़ियों को सरसों के तेल से बनी सूखी सब्जी और रोटी (विशेषकर अमावस्या व शनिवार को) खिलाना चाहिए। केतु के लिए गली के कुत्ते को (विशेषकर बुधवार को) दूध रोटी खिलाना चाहिए। इससे जीवन की कठिनाइयां सरल होती जाती हैं।
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