मनुष्य के जीवन में विवाह एक ऐसा मोड़ है, जहां उसका सारा जीवन एक निर्णय पर आधारित होता है। जिस व्यक्ति के साथ जीवन भर चलना है, वह अपने मन के अनुसार है, या नहीं, यह कुछ क्षणों में कैसे जानें? उसका भाग्य एवं भविष्य भी तो आपके साथ मिलने वाला है। अतः ऐसे निर्णय में ज्योतिष की एक अहम भूमिका है। कुंडली मिलान में मुख्य चार पक्षों पर विचार करते हैं। पहला, क्या एक की कुंडली दूसरे के लिए मारक तो नहीं है? दूसरा, वर-वधू में मानसिक तालमेल ठीक रहेगा, या नहीं? तीसरा, विवाह में संतान का पक्ष भी अहम है। यह वर-वधू की कुंडली में कैसा है एवं चैथा अर्थ एवं कुटुंब आदि पर असर। उपर्युक्त विचार के लिए अष्टकूट मिलान किया जाता है जिसमें आठ प्रकार के कूटों का मिलान कर 36 में से अंक दिये जाते हैं। 50 प्रतिशत से अधिक, अर्थात 18 से अधिक अंकों को स्वीकृति दे दी जाती है। यदि 50 प्रतिशत से अधिक अंक मिलते हैं, तो आखिरी तीन पक्ष-दूसरे, तीसरे एवं चतुर्थ की तो पुष्टि हो जाती है, लेकिन प्रथम पक्ष कि एक दूसरे के लिए मारक तो नहीं है, की पुष्टि नहीं होती। इसके लिए मंगलीक विचार किया जाता है एवं जन्मपत्री के अन्य ग्रहों को देखा जाता है। अष्टकूट में आठ गुण मिलाए जाते हैं - वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट एवं नाड़ी। इनको एक से ले कर आठ तक अंक दिये गये हैं। वर्ण एवं वश्य से मनुष्य की व्यावहारिकता का पता चलता है। तारा से संपन्नता का ज्ञान होता है। योनि दोनों के शारीरिक संबंधों में ताल-मेल दर्शाती है। ग्रह मैत्री एवं भकूट वर-वधू में आपसी मित्रता को दर्शाते हैं। गण से दोनों के मानसिक ताल मेल का पता चलता है। नाड़ी से संतान सुख के बारे में ज्ञान होता है। प्रत्येक गुण का अपना महत्व है। अतः किसी एक गुण को अधिक भार न देते हुए हम 50 प्रतिशत अंक आने पर गुण मिलान ठीक मान लेते हैं। वैसे भी कूटों को अंक उनके महत्व के आधार पर ही दिये गये हैं, जैसे संतान फल, अर्थात नाड़ी को सबसे अधिक 8 अंक दिये गये हैं। उसके बाद वर-वधू में ताल मेल और मित्र भाव को दर्शाने वाले भकूट एवं ग्रह मैत्री को 7 एवं 5 अंक दिये गये हैं। उसके उपरांत मानसिक ताल-मेल को 6, शारीरिक संबंध को 4, धन के कारक तारा को 3, एवं व्यावहारिकता को 2 और 1 अंक दिये गये हैं। अक्सर ऐसा देखने में आया है कि जिन वर-वधू में नाड़ी दोष होता है, उन्हें संतान प्राप्ति में बाधाएं आती हैं। कभी-कभी संतान पूर्ण रूप से विकसित नहीं होती, या संतान ही नहीं होती। इसी प्रकार भकूट दोष होने से वर-वधू दोनों में सामंजस्यता का अभाव रहता है। यदि ग्रह मैत्री ठीक हो, तो भकूट दोष के कारण उत्पन्न सामंजस्यता का अभाव बहुत हद तक कम हो जाता है। अन्य कूटों के अभाव का जीव पर बहुत असर नहीं पड़ता। यदि नाड़ी दोष हो, तो दोनों के पंचम भाव का विचार कर लेना चाहिए कि कहीं उसमें भी दोष तो नहीं है?इसी प्रकार यदि भकूट दोष हो, तो ग्रह मैत्री, अथवा दोनों के लग्नों में मित्रता देख सकते हैं। एक की कुंडली दूसरे के लिए मारक तो नहीं है?इस पक्ष पर विचार करने के लिए मंगलीक विचार की भूमिका अहम है और यही कारण है कि इसकी इतनी महत्ता है। अतः इस पक्ष को विस्तृत रूप से समझते हैं। मंगल यदि प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव में हो, तो कुंडली मंगलीक होती है। यदि वर मंगली है, तो वधू का भी मंगली होना वांछनीय है। इस प्रकार एक कुंडली के दोष को दूसरी कुंडली काट देती है। लेकिन अनेक योगों में कुंडली को मंगली दोष नहीं लगता एवं अन्य अनेक स्थितियों में एक ही कुंडली दूसरे के मंगली दोष को काट देती है। जैसे: यदि लग्न में मंगल मेष अथवा मकर राशि, द्वादश में धनु राशि, चतुर्थ में वृश्चिक राशि, सप्तम में वृष, अथवा मकर राशि तथा अष्टम में कुंभ, अथवा मीन राशि में स्थित हो, तो मंगल दोष नहीं लगता। चतुर्थ, सप्तम, अथवा द्वादश में मेष, या कर्क का मंगल हो, तो दोष नहीं होता। स यदि द्वादश में मंगल बुध तथा शुक्र की राशियों में हो, तो दोष नहीं होता। स यदि बली गुरु और शुक्र स्वराशि, या उच्च हो कर लग्न, या सप्तम भाव में हों, तो मंगल का दोष नहीं होता है। स यदि मंगल वक्री, नीच, अस्त का हो, तो मंगल दोष नहीं होता है। यदि मंगल स्वराशि, अथवा उच्च का हो, तो मंगली दोष भंग हो जाता है। यदि मंगल-गुरु या मंगल-राहु या मंगल-चंद्र एक राशि में हों तो मंगली दोष भंग हो जाता है।
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