सामान्यतः मंगल से निकलकर जीवन व भाग्य रेखा को काटकर मस्तिष्क रेखा को छूने या उसे भी काटकर हृदय रेखा तक जाने वाली रेखाएं, ‘राहु रेखा’ कहलाती है। हाथों में इनकी संख्या एक से लेकर तीन या चार तक होती हैं। मोटी ‘राहु रेखाएं’ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। ये रेखाएं दोषपूर्ण लक्षण हैं क्योंकि जिस आयु में ये मस्तिष्क-रेखा, भाग्यरेखा व जीवन रेखा को काटती हैं, परेशानी रहती है। जीवन रेखा को काटने पर कुटुम्ब, संतान तथा स्वास्थ्य, भाग्य रेखा को काटने पर जीवनसाथी को रोग व व्यापारिक चिंता तथा मस्तिष्क रेखा को काटने पर ये उस आयु में किसी संबंधी की मृत्यु, हानि या बुखार का संकेत करते हैं, हृदय रेखा को छूने पर उस आयु पर किसी प्रेमी की मृत्यु या बिछोह का संकेत है। मंगल से आकर मस्तिष्क रेखा पर रुकने वाली ‘राहु रेखा’ मस्तिष्क रेखा को काटकर जाने की अपेक्षा अधिक हानिकरक होती है और यदि यह मस्तिष्क रेखा व जीवन-रेखा को काटने के बजाय दोनों पर ही रुकती हो तो अत्यंत दोषपूर्ण होती हैं। यदि यह जीवन व मस्तिष्क रेखा के निकास के पास हो तो विश्ेाष दोषपूर्ण फल करती हैं। इस आयु में जीवन में उथल-पुथल, रोग, स्थान परिवर्तन, राज-भय, मृत्यु, दुर्घटना आदि फल होते हैं। ‘राहु-रेखा’ थोड़ी भी दोष-पूर्ण होने पर पतन की ओर ले जाती है। ऐसे व्यक्तियों को जेल भय, चोरी, दुर्घटना, कत्ल या रोग आदि का सामना करना होता है। उत्तम हाथ में निर्दोष व लंबी राहु रेखा व्यक्ति को ‘राष्ट्रीय-सम्मान’ प्राप्ति की पुष्टि व विशेष उन्नति की सूचक होती है। इस प्रकार की निर्दोष रेखाएं मंत्रियों, बड़े व्यापारियों या शोधकर्ताओं (वैज्ञानिकों) के हाथों में पाई जाती हैं। निर्दोष ‘राहु रेखाएं’ होने पर यदि मस्तिष्क रेखा व हृदय रेखा समानांतर हों तो ऐसे व्यक्ति नया अन्वेषण करके ‘राष्ट्रीय सम्मान’ प्राप्त करते हैं। ‘मस्तिष्क रेखा’ शाखा युक्त द्विभाजित हो तो इससे भाग्य रेखाएं निकलने पर ‘सम्मान प्राप्ति’ में केाई शंका नहीं रहती। नौकरी होने पर कोई विशेष प्रमाण-पत्र, सम्मान या पदक मिलता है जो जीवन में महत्व रखता है। इनके संबंध सेना के बड़े आॅफिसर या मंत्रियों आदि से होते हैं। मस्तिष्क रेखा या इसकी शाखा बुध पर जाने की दिशा में यदि ‘राहु-रेखा’ से बुध पर बड़ा द्वीप बनता हो तो व्यक्ति सम्मानित व शक्ति सम्पन्न होता है। ऐसे व्यक्ति मंत्री होते हैं मस्तिष्क रेखा, भाग्य रेखा, हृदय रेखा या जीवन रेखा में दोष होने पर, ‘राहु रेखा’ दोषपूर्ण फलों में वृद्धि करती है। जैसे-जैसे इन रेखाओं में सुधार होता है इसका फल भी उत्तम होता जाता है। उत्तम हाथ में निर्दोष ‘राहु रेखा’ महानता की सूचक है। जीवन-रेखा से निकलकर मस्तिष्क रेखा में मिलने की दशा में ‘राहु-रेखा’ सीधी न होकर कुछ गोलाकार हो तो अधिक दोषपूर्ण होती है (चित्र ब्.ब्1 देखें)। इस राहु रेखा के कारण टांग टूटना, कंधे में चोट, चोरी से हानि, जादू-टोने का भ्रम ‘जीवन रेखा’ दोषपूर्ण होने की स्थिति में खराब स्वास्थ्य, इनको या इनकी पत्नी के दांतों में रोग आदि घटनाएं होती हैं। ‘राहु रेखाएं’ पास-पास दो या तीन होने पर यदि निर्दोष भी हों और हाथ अच्छा हो तो ऐसे व्यक्ति राजनीति में ऊँचे पदों पर पाये जाते हैं। इन्हें राष्ट्र-सम्मान भी प्राप्त होता है। तीन ‘राहु रेखाएं’ होने पर गोद की संपत्ति का लाभ होता है। दो या अधिक रेखाओं से मिलकर ‘मस्तिष्क रेखा’ पर द्वीप बनता हो तो वंश में जवान-मृत्यु का संकेत है, ऐसी दशा में कई मृत्यु भी होती है। यदि ‘मस्तिष्क रेखा’ टेढ़ी हो तो इसमें केाई शंका नहीं रहती। मंगल से दो ‘राहु-रेखाएं’ एक साथ पास-पास निकलकर जब शनि के नीचे ‘मस्तिष्क रेखा’ को छूती हों तो ऐसे व्यक्तियों का मानसिक संतुलन ठीक नहीं रहता । शुक्र व चंद्रमा उन्नत या जीवन रेखा व मस्तिष्क रेखा में शनि के नीचे दोष होने पर वहम या सनक होती है। इन्हें भूत-प्रेत, छाया-पुरुष या किसी ऐसी बाहरी शक्ति का प्रभाव होता है। इनके कानों में बाहर से कोई आवाज सुनाई देती है और ये उसी के अनुरूप आचरण करने को बाध्य होते हैं। कई बार तो इस आवेश में हत्या तक कर देते हैं। अपने आप से बातें करना, ध्यान में कोई दिखाई देना, मस्तिष्क पर दूसरे का नियंत्रण या प्रभाव मालूम होना आदि लक्षण इस दशा में प्रतीत होते हैं। स्मरण रखें यह ‘राहु रेखा’ मस्तिष्क रेखा पर शनि (अंगुली मध्यमा) के नीचे ही रुकती हो, दूसरे स्थान पर नहीं। ‘राहु रेखा’ पर बना हुआ ‘त्रिकोणात्मक-द्वीप’ स्त्री के हाथ में हो और जीवन रेखा में दोष, शुक्र उन्नत व अन्य वासनात्मक लक्षण हों तो ऐसी स्त्रियां बड़ी आयु के व्यक्तियों से लम्बे समय तक यौन सम्पर्क रखती हैं। स्त्रियों को यह लक्षण होने पर रक्त स्राव, गर्भपात आदि दोष भी पाये जाते हैं। मंगल-रेखा होने पर ऐसी स्त्रियां अपने प्रेमियों से धन व संपत्ति का लाभ प्राप्त करती हैं, परंतु इस दशा में अन्य रेखाओं में दोष नहीं होना चाहिए। चंद्रमा क्षेत्र से निकल कर मोटी-भाग्य-रेखा, हृदय रेखा पर रुकने, शुक्र अधिक उन्नत और हृदय रेखा सीधी बृहस्पति पर जाने की दशा में निश्चित ही ऐसी स्त्रियों के अनैतिक संबंध पाये जाते हैं। किन्हीं हाथों में शुक्र क्षेत्र से निकलकर एक रेखा जीवन रेखा को काटती हुई चंद्रमा पर जाती है। यह भी ‘राहु रेखा’ कहलाती है । ऐसे व्यक्ति चरित्रहीन होते हैं। चरित्र संबंधी गिरावट के विषय में इनका कोई स्तर नहीं होता। माँ, बहन, बेटी या अन्य पवित्र संबंधों पर भी इनकी बुरी दृष्टि रहती है। ये शराबी, जुआरी होते हैं। हाथ पतला, काला, मस्तिष्क व हृदय रेखा दोषपूर्ण होने पर तो सभी कलाओं में पारंगत होते हैं: ‘राहु रेखा’ वास्तव में मुख्य न होकर गौण रेखा है। परंतु फल के विषय में बहुत महत्वपूर्ण है, अतः भली भांति देखकर व अन्य लक्षणों से समन्वय करने के पश्चात् इस रेखा का फल कहने से ‘चमत्कारिक फल’ प्राप्त होते हैं...
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Saturday, 19 March 2016
होली का पर्व
होली का पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह दो भागों में विभक्त है। पूर्णिमा को होली का पूजन और होलिका दहन तथा फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को रंग- गुलाल, कीचड़ आदि से होली। संपूर्ण त्योहारों में होली सर्वश्रेष्ठ है। स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने द्वारिकावासियों, ब्रजवासियों, अपनी रानियों, पटरानियों एवं आह्लादिनी शक्ति राधा के साथ होली का उत्सव मनाया है। स्वयं देवता भी इस आनंद में पीछे नहीं रहे। भगवान शंकर ने तो श्मशान की राख से ही होली खेल कर अपने को कृतकृत्य किया। होली की प्रासंगिक कथा: प्रह्लाद् दैत्यराज हिरण्यकशिपु का पुत्र था। वह बाल्यावस्था से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। हिरण्यकशिपु घोर तपस्या कर ब्रह्मा जी से दिव्य वरदान प्राप्त कर उसका दुरुपयोग करने लगा। उसने इंद्रासन पर भी अपना अधिकार कर लिया तथा अपने भाई हिरण्याक्ष के वधकत्र्ता भगवान् विष्णु से विशेष विद्वेष करने लगा। संभवतः इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप उनके पुत्र प्रह्लाद में विष्णु (कृष्ण) के प्रति भक्ति भावना, देवर्षि नारद जी की कृपा से जागृत हो गयी थी। एक बार हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र की शिक्षा के संबंध में जानने का प्रयास किया, तो पुत्र की भक्ति भावना का ज्ञान हुआ। इस पर क्रोधित हो कर उन्होंने प्रह्लाद को गोद से नीचे जमीन पर पटक दिया तथा यातनाओं का पहाड़ प्रह्लाद पर टूट पड़ा। प्रह्लाद के मर्म स्थानों को शूलों से भिदवाया, बडे़-बडे़ मतवाले हाथियों से उसे कुचलवाया, विषधर नागों से डंसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़ की चोटी से नीचे फिकवा दिया, शंबरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अंधेरी कोठरियों में बंद कराया, विष पिलाया, भोजन बंद कर दिया, बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में बारी-बारी से डलवाया, आंधी में छोड़ दिया, पर्वत के नीचे दबवा दिया। स्वयं हिरण्यकशिपु की बहन होलिका प्रह्लाद को गोदी में ले कर आग में बैठ गयी। परंतु भगवत् कृपा से जो दुपट्टा होलिका को ब्रह्माजी से प्राप्त हुआ था, वही दुपट्टा भक्त प्रह्लाद के शरीर पर, वायुदेव की कृपा से, आ पड़ा और होलिका की शक्ति, जो दुपट्टे में निहित थी, चली जाने के कारण वह ध्वंस हो गयी। भक्त प्रह्लाद हरि नाम स्मरण करते हुए सकुशल अग्नि से बाहर निकल आये। पुनः हिरण्यकशिपु का वध भगवान नृसिंह के द्वारा हो गया। इसी पुनीत अवसर पर नवीन धान्य (जौ, गेहंू, चने) खेत में पक कर तैयार हो गये और मानव समाज में उन धान्यों को उपयोग में लेने का प्रयोजन भी उपस्थित हो गया। किंतु धर्म परायण हिंदू भगवान यज्ञेश्वर को अर्पण किये बिना नवीन अन्न को उपयोग में नहीं ले सके। अतः फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को समिधास्वरूप उपले आदि को एकत्रित कर के, उसमें यज्ञ की विधि से अग्नि स्थापन, प्रतिष्ठा, प्रज्ज्वलन एवं पूजन कर के विविध रक्षोघ्न मंत्रों से यव गोधूमादि के चरू स्वरूप बालों की आहुति दी और हुतशेष धान्य को घर ला कर प्रतिष्ठित किया। उसी से प्राणों का पोषण हो कर सभी प्राणी हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ हुए तथा होली के रूप में नवान्नेष्टि यज्ञ को संपन्न किया। तभी से होली पूजन की यह परंपरा मानव समाज में विकसित हो गयी। इसे वसंत ऋतु के आगमन में किया गया महायज्ञ भी मानते हैं। लोक परंपरा के अनुसार नव विवाहिता स्त्री को प्रथम बार ससुराल की जलती होली नहीं देखनी चाहिए। प्रतिपदा का भव्य होली उत्सव धुलैंडी: होली के अगले दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को सभी बालक, वृद्ध, नर-नारी, भांति-भांति की पिचकारियां और अनेक प्रकार के रंग-गुलाल आदि से एक दूसरे से होली का खेल खेलते हैं। विभिन्न प्रकार के रंगों से चेहरे को पोत देते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो नाली की गंदी कीचड़, गड्ढों में भरे हुए पानी से ही एक दूसरे को सराबोर करते हैं। साल भर की ईष्र्या एवं द्वेष भावना मन से मिट जाती है। एक दूसरे को अश्लील गालियां आदि भी देते हैं। बडे़-बूढ़ों का चरण स्पर्श कर के आशीर्वाद लेते हैं। भाई-भाई आपस में गले मिलते हैं। ब्रज मंडल में तो यह उत्सव पूरे फाल्गुन मास ही मनाया जाता है। होली से पूर्व नवमी, दशमी, एकादशी को बरसाना, नंदगांव, वृंदावन में लट्ठमार होली एवं रंग की होली अपने आप में दिव्य है, जिसे देखने भारतवर्ष के कोने-कोने से तथा विदेशों से भी भक्त काफी संख्या में आते हैं। सब जोर-जोर से होली गीत और रसिया गाते हैं; उछलते-कूदते और फांदते हैं। होली गीत गाने, हंसने तथा निर्भीक निःसंकोच बोलने का आयुर्वेदिक महत्व भी है। गाने का गले से संबंध होने के कारण गले की पूरी कसरत हो जाती है। परिणामतः कफ दब जाता है। अबीर-गुलाल के गले में जाने से फेफडे़ तथा गले में रुकी कफ साफ हो जाती है। परंतु बड़ी विडंबना है कि आज के मानव समाज ने होली के इस त्योहार को दूषित कर दिया है। प्राणी शत्रु भावना से होली खेलते हैं। पुरानी दुश्मनी निकालते हैं। युवा वर्ग काम वासना की भावना से ही स्त्री वर्ग पर रंग डालना, गुलाल लगाना आदि क्रियाएं करता है, जो नितांत गलत और जघन्य अपराध है। इनसे बचना चाहिए। होली पूजन विचार: होली का पूजनोत्सव रहस्यपूर्ण है। इसमें होली, ढुंढा, प्रह्लाद तो मुख्य हैं ही, इसके अलावा इस दिन नवान्नेष्टि यज्ञ भी संपन्न होता है। इसी परंपरा से ‘धर्मध्वज’ राजाओं के यहां माघी पूर्णिमा के प्रभात में शूर, सामंत और सभ्य मनुष्य गाजे-बाजे सहित नगर से बाहर वन में जा कर शाखा सहित वृक्ष लाते हैं और उसको, गंध-अक्षतादि से पूजा कर, नगर या गांव से बाहर पश्चिम दिशा में आरोपित कर के स्थित कर देते हैं। जनता में यह होली दंड (होली का डांडा) या प्रह्लाद के नाम से प्रसिद्ध है। यदि इसे ‘नवान्नेष्टि’ का यज्ञ स्तंभ माना जाए, तो निरर्थक नहीं होगा। व्रती को चाहिए कि वह फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि के अनंतर ‘मम बालक बालकादिभिः सह सुखशांति-प्राप्त्यर्थं होलिका व्रतं करिष्ये’ से संकल्प कर के काष्ठ खंड के खङ्ग बनवा कर बालकों को देवें तथा उनको उत्साही सैनिक बनावें। वे निःशंक हो कर खेल-कूद करें और परस्पर हंसें। इसके अतिरिक्त होलिका के दहन स्थान को जल छिड़क कर शुद्ध कर के उसमें सूखा काष्ठ, सूखे उपले और सूखे कांटे आदि का स्थापन करें। पुनः सायं काल के समय प्रसन्न मन से संपूर्ण पुरवासियों एवं गाजे-बाजे के साथ होली के समीप जा कर शुभासन पर पूर्व या उत्तर मुख हो कर बैठें और ‘मम सकुटुंबस्य सपरिवारस्य पुरग्रामस्थजनपदसहितस्य वा सर्वापच्छांतिप्रशमनपूर्वक- सकल शुभफल प्राप्त्यार्थं ढुंढा प्रीति कामनया होलिका पूजन करिष्ये’ यह संकल्प कर के पूर्णिमा प्राप्त होने पर अछूत या सूतिका के घर से बालकों द्वारा अग्नि मंगवा कर, होली को दीप्तिमान करें और चैतन्य होने पर गंध, अक्षत, पुष्पादि से शोडषोपचार पूजन कर के ‘‘असृक्पाभयसंत्रस्तैः कृत्वा त्वं होलि बालिशैः। अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव।।’’ इस मंत्र से तीन प्रदक्षिणा या प्रार्थना कर के अघ्र्य दें तथा लोक प्रसिद्ध होली दंड (प्रह्लाद) या शास्त्रीय ‘यज्ञ स्तंभ’ को, शीतल जल से अभिषिक्त कर के, एकांत में रख दें। उपरांत घर से लाये हुए खेड़ा, खांडा और वरकूलिया आदि को होली में डाल कर जौ, गेहूं की बाल और चने के होलों को होली की ज्वाला से सेकंे और यज्ञ सिद्ध नवान्न तथा होली की अग्नि तथा भस्म ले कर घर आवें। वहां आ कर वास स्थान के प्रांगण में गोबर से चैका लगा कर अन्नादि का स्थापन करंे। उस अवसर पर काष्ठ के खंडों को स्पर्श कर के बालकगण हास्य सहित शब्द उच्चारें। बालकों का रात्रि आने पर संरक्षण किया जावे और गुड़ के बने हुए पकवान (पुआ-पूड़ी) उनको खाने को दें। इस प्रकार करने से ढंुढा के दोष शांत हो जाते हैं और होली के उत्सव से अभूतपूर्व सुख-शांति मिलती है। होली, होलिका दहन निर्णय: प्रदोष व्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदा। तस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे।। इति नारद-वचनात् प्रदोषव्यापिनीत्युक्तम। सदा फाल्गुन मास की पूर्णिमा को प्रदोषव्यापिनी ग्रहण करें। उसमें भद्रा के मुख को त्याग कर निशा मुख में होली का पूजन करें। इसे नारद के वचन से प्रदोषव्यापिनी ग्रहण करें। हेमाद्रि तथा मदनरत्न में भी भविष्य पुराण का वचन है कि हे पार्थ, इस पूर्णिमा में रात्रि के आने पर गोमय से किये हुए चैकोर गृहांगण (घर के चैक) में बालकों की रक्षा करें। इत्यादि से वहां पर उसका विधान कहा है। इससे यह पूर्व विद्धा (अर्थात पूर्व दिन ही प्रदोष काल में प्राप्त होने पर) ग्रहण करें। श्रावणी दुर्गा नवमी, दुर्गाष्टमी, हुताशनी (होली), शिव रात्रि तथा बलि के दिन वे सब पूर्वा विद्धा ही करना चाहिए। यह बृहद्यम और ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है: दोनों दिन प्रदोष काल में प्राप्त हों, तो दूसरा ही ग्रहण करें। सायाह्ने होलिकां कुर्यात् पूर्वाह्ने क्रीडनं गवाम्। निर्णयामृत के अनुसार सायाह्न में होलिका करें और पूर्वाह्न में गौओं की क्रीड़ा करे। ज्योतिर्निबंधेतु- प्रतिपद भूत भद्रासु याऽर्चिता होलिका दिवा। संवत्सरं च तद्राष्ट्रं पुरं दहति साभुतम्।। ज्योतिर्निबंध में कहा है कि प्रतिपदा, चतुर्दशी और भद्रा में जो होलिका को दिन में पूजित करता है, वह एक वर्ष तक उस देश (राष्ट्र)े और नगर को आश्चर्य से दहन करता है। प्रथम दिन प्रदोष के समय भद्रा हो और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा समाप्त होती हो, तो भद्रा के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर के सूर्याेदय होने से पूर्व होली का दहन करना चाहिए। (चंद्रप्रकाश) यदि पहले दिन प्रदोष न हो और हो, तो भी रात्रि भर भद्रा रहे (सूर्योदय होने से पहले न उतरे) और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले ही पूर्णिमा समाप्त होती हो, तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो, तो भी उसके पुच्छ में होलिका दीपन कर देना चाहिए (भविष्योत्तर एवं लल्ल)। यदि पहले दिन रात्रि भर भद्रा रहे और दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा का उत्तरार्ध मौजूद भी हो, तो भी उस समय यदि चंद्र ग्रहण हो, तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो, तब भी सूर्यास्त के पीछे होली जला देनी चाहिए (मुहूर्त चिंतामणि)। यदि दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा हो और भद्रा उससे पहले उतरने वाली हो, किंतु चंद्र ग्रहण हो, तो उसके शुद्ध होने के पीछे स्नान-दानादि कर के होलिका दहन करना चाहिए (स्मृति कौस्तुभ)। यदि फाल्गुन दो हों (मलमास हो) तो शुद्ध मास (दूसरे फाल्गुन) की पूर्णिमा को होलिका दहन करना चाहिए। (धर्मसार) हुताशनी मलमासे न भवति।
हस्त रेखा द्वारा जानें रियल एस्टेट में लाभ एवं हानि
हाथ की रेखाओं के द्वारा हर एक क्षेत्र को समझा तथा जाना जा सकता है। यदि आप रीयल एस्टेट में पैसा इनवेस्ट करना चाहते हैं, तो उससे पहले आपको अपने हाथ की रेखाओं का अध्ययन जरूरी है। यदि आपके हाथ में रेखाएं रीयल एस्टेट के हिसाब से ठीक हैं तो आप उससे फायदा उठा सकते हैं अन्यथा नहीं। यदि हाथ भारी, अंगुलियां चौकोर, ग्रह पर्वत सीधे खासकर शनि और मंगल के उठे हुए हों और जीवन रेखा गोल तथा भाग्य रेखा जीवन रेखा से दूरी पर हो तो रीयल एस्टेट में आपका लगाया हुआ धन कुछ ही वर्षों में भारी लाभ करायेगा। हाथ कोमल व गुलाबी हो, अंगुलियां पीछे की तरफ झुकती हों, मस्तिष्क रेखा सीधे मंगल के क्षेत्र पर जाती हो, हृदय रेखा शनि की अंगुली के नीचे समाप्त हो, भाग्य रेखा का उदग्म जीवन रेखा से हो रहा हो तो आप रीयल एस्टेट के अच्छे निवेशक बन कर लाभ ले सकते हैं। जीवन रेखा व मस्तिष्क रेखा शुरूआत से एक ही जोड़ में से निकल रही हो, अंगुलियों के आधार बराबर हों, हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा में अंतर हो, हृदय रेखा साफ सुथरी हो व मस्तिष्क रेखा को भी कोई अन्य मोटी-मोटी रेखाएं न काट रही हों, हाथ भारी हो तो रीयल एस्टेट में भविष्य स्वर्णिम होता है। यदि हाथ में भाग्य रेखा एक से अधिक हों, सूर्य रेखा भाग्य रेखा के अंदर समा रही हो, मंगल ग्रह के दोनों क्षेत्र उठे हुए हों, जीवन रेखा के साथ एक अन्य जीवन रेखा हो अर्थात् दोहरी जीवन रेखा हो तो भी रीयल एस्टेट के कार्य से अच्छा खासा लाभ होता है। . हाथ में शनि व मंगल ग्रह के पर्वत उठे हुए व साफ सुथरे हों, हाथ भारी हो, जीवन रेखा से कुछ रेखाएं ऊपर की ओर उठकर अर्थात अंगुलियों की तरफ जा रही हो तो मनुष्य को रीयल एस्टेट से लाभ होता ही रहता है। हाथ भारी हो व उसमें एक से अधिक भाग्य रेखा हो व मस्तिष्क रेखा पर त्रिकोण हो तो मनुष्य स्वयं कई संपत्तियों का स्वामी होता है। रीयल एस्टेट का व्यवसाय भी उसके लिए बहुत लाभप्रद होता है। रीयल एस्टेट की ज्योतिष विवेचना द्वारा भी जाना जा सकता है कि आपको रीयल एस्टेट में कितना लाभ है। उसके कुछ योग इस प्रकार है। 1. चतुर्थेश केंद्र या त्रिकोण में हो 2. मंगल त्रिकोण में हो। 3. चतुर्थेश स्वगृही, वर्गोत्तम, स्व नवांश या उच्च का हो तो भूमि व रीयल एस्टेट के काम में लाभ होता है। 4. यदि व्यक्ति का चतुर्थेश बलवान हो और लग्न से उसका संबंध हो तो भवन सुख की प्राप्ति होती है। 5. यदि चतुर्थ भाव पर दो शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो व्यक्ति भवन का स्वामी बनता है व रीयल एस्टेट में मुनाफा कमाता है। 6. शनि, मंगल व राहु की युति हो तो ऐसे व्यक्ति की भू-संपदा व मकान इत्यादि अवैध कमाई से निर्मित होता है। परंतु रीयल एस्टेट में सौदा फायदे का ही होता है। 7. गुरु की महादशा में शनि की अंतर्दशा में व्यक्ति को मकान का सुख तो प्राप्त होता है, परंतु उसे यह सुख पुराने मकान के रूप में प्राप्त होता है। उसे अपने मकान का नवीकरण करना पड़ता है एवं रीयल एस्टेट में बहुत ज्यादा इनवेस्ट ठीक नहीं होता है। ऐसे लोगों को चाहिए रीयल एस्टेट के कारोबार में अपनी आय का एक सीमित हिस्सा ही लगायें। इसके अतिरिक्त ऐसे अन्य कई लक्षण हैं जिससे इस विषय को और अधिक गहराई से जाना जा सकता हैं।
वैवाहिक जीवन में सुखी क्यूँ नहीं
विवाह को हिंदू समाज व धर्म में जन्म-जन्म का पवित्र व अटूट बंधन माना गया है। हमारी संस्कृति में विवाह को केवल दो व्यक्तियों के तन और मन के मिलन से बढ़कर दो परिवारों के आपस में धार्मिक सामाजिक, मानसिक व सांस्कृतिक मिलन का अपूर्व संगम माना गया है। भाग्य और ग्रह हमारे पक्ष में हो जायें तो शादी के समय जिस स्त्री पुरूष का विवाह अनचाहा और बेमेल भी हो तो भी गृहस्थी की राहों पर आते ही दोनों इतने संतुलित होकर समन्वय पूर्वक चलते हैं कि जीवन में विवाह के सुखों की झड़ी सी लग जाती है और जिंदगी खुशहाल एवं समृद्ध हो जाती है। इन सबको प्रभावित करती हैं हमारे हाथों की रेखाएं। 1- यदि हाथ में हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा एक हो (पुरुष के हाथ में) व स्त्री के हाथों में हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा अलग हो तो पति पत्नी के विचारों का कहीं से भी मेल नहीं बैठता है। अगर इस स्थिति के साथ-साथ मंगल ग्रह व शुक्र ग्रह अगर स्त्री के खराब हैं तो स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। 2- यदि हाथ स्त्री का सख्त है और उसके पति का नरम तो स्त्री के स्वभाव के कारण उसे विवाह का सुख चाहते हुए भी नहीं मिल पाता है। 3- यदि विवाह रेखा में कट-फट हो और वह आगे से फटी हुई हो व द्विभाजित हो या नीचे की तरफ मुड़ जाती हो तो भी वैवाहिक जीवन में बाधा आती रहती है। 4- यदि स्त्रियों के हाथ में हृदय रेखा खंडित हो, उस पर यव बनते हों और वहां से मोटी-मोटी रेखाएं मस्तिष्क रेखा पर गिरती हों तो ऐसी स्त्रियां छोटी-छोटी बात को बहुत अधिक महसूस करती हैं। पति की जरा सी भी अनदेखी उनसे बर्दाश्त नहीं होती है जिसकी वजह से छोटी-छोटी बातों पर घर का क्लेश वैवाहिक जीवन के सुख को खत्म कर देता है। 5- यदि भाग्य रेखा में द्वीप हो, और मस्तिष्क रेखा जजीराकार हो, हाथ सख्त हो तो भी वैवाहिक सुख को भंग कर देता है। 6- मंगल ग्रह पर कट-फट हो वहां से मोटी-मोटी रेखाएं मस्तिष्क रेखा को काट रही हो, हृदय रेखा भी टूटी-फूटी हो, विवाह रेखा पर जाल हो, हाथ सख्त हो अंगुलियां टूटी फूटी हों तो भी वैवाहिक सुख को कम या खत्म ही कर देती है। 7- अनुभव मं पाया गया है कि यदि हाथ सख्त हो, अंगुलियां मोटी या टेढ़ी हों- अंगूठा आगे की तरफ हो, तो सारी जिंदगी गिले शिकवे में कट जाती है। 8- शुक्र पर तिल व अत्यधिक उठा हुआ शुक्र भी गृहस्थ सुख में बाधक होता है।
हस्तरेखा से जाने मोटापे की बीमारी के बारे में
आज के मशीनी युग में जन मानस की दिनचर्या भी एक मशीन के समान होकर रह गई है। हर व्यक्ति दन रात काम ही काम में लगा रहता है। समयाभाव के कारण वह प्रकृति प्रदत्त उपहारों जैसे स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, सूर्य की किरणों का सूर्य उदय के समय मिलने वाला प्रकाश और उष्णता, शुद्ध विटामिनों आदि के लाभ से वंचित रह जाते हैं। स्वच्छ वायु के बदले हम एअरकंडिशनर में रहना पसंद करते हैं, रात देर से सोते हैं और सुबह तब उठते हैं जब सूर्य की किरणें तीव्र होकर अपनी उपयोगिता कम कर चुकी होती हैं। शुद्ध जल के बदले हम कोला और नशीले पेय पदार्थों का सेवन करने लगे हैं। शुद्ध और ताजे फलों तथा सब्जियों का स्थान जंक फूड और फास्ट फूड ने ले लिया है। यही कारण है कि आज मोटापे और डायबिटीज की शिकायत आम हो चली है। हम पूर्ण रूप से प्रकृति के विरुद्ध चल रहे हैं और हमारा शारीरिक स्वास्थ्य और सौंदर्य अपने सौद्गठव को छोड़कर बढ़ती हुई चर्बी के कारण प्रतिकूल होता जा रहा है। साथ ही तनावपूर्ण मशीनी जिंदगी के कारण हम डाइबिटीज तथा इस जैसे अन्य रोगों के शिकार हो जाते हैं। इन दुष्परिणामों पर जब हमारा ध्यान जाता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और हम इन्हें ढोने को लाचार हो जाते हैं। इन बीमारियों से मुक्ति और बचाव में अन्य चिकित्साओं की भांति हमारे हाथ की रेखाएं भी सहायक हो सकती हैं, क्योंकि ये रेखाएं हमारी द्राारीरिक संरचना का आइना हैं। हम किंचित ध्यान देकर इन रेखाओं के विश्लेद्गाण से हो चुकी और होने वाली बीमारियों की स्थिति का पता लगाकर उनसे मुक्ति और बचाव का उपाय कर सकते हैं। यहां मोटापे, डायबिटीज तथा कुछ अन्य आम रोगों के लक्षणों को दर्शाने वाली रेखाओं तथा अन्य चिह्नों का विशलेद्गाण प्रस्तुत है, जिसे पढ़कर एक आम पाठक भी लाभ उठा सकता है। यदि मस्तिष्क रेखा चंद्र क्षेत्र पर जाए, हाथ नरम हो, राहु और शनि दबे हुए हों, तो यह लक्षण डाइबिटीज का सूचक है। यदि भाग्य रेखा मोटी से पतली हो और उसे राहु रेखाएं काट रही हों तो यह मोटापे व डाइबिटीज दोनों का
जानिए अपनी रुचि हस्त रेखाओं से
पांच प्रकार के हाथ पाये जाते है। ऐसे व्यक्ति सेना, वाहन उद्योग, इंजीनियरी, खदान, लखाो आदि के कायों में सफल रहते हैं। ऐसे व्यक्ति अच्छे समाज सेवक द्री हाते है।ं ऐसे व्यक्ति पुलिस के कार्य, खेल-कूद या अध्यापक का कार्य दक्षता से कर के उन्नति करते हैं। ऐसे व्यक्ति अद्रिनेता, संगीतकार, संपत्ति की खरीद-फरोखत, अतः सज्जा आदि कामों में उन्नति करते हैं। ऐसे व्यक्ति लेखाकार, प्रकाशक, ग्रथकार, योग के शिक्षक, सलाहकर बन कर उन्नति करते हैंं। ऐसे व्यक्ति विपणन प्रबंधक, आशुलिपिक, सचिव आदि कार्यों में उन्नति करते हैं। यदि गुरु का पर्वत उठा हुआ और सुदृढ हो, तो वह व्यक्ति बहुत महत्वाकांक्षी होता है और सरकारी नौकरी या राजनीति में उच्च पद पर रहता है। ऐसे व्यक्ति धार्मिक कार्यों में द्री बहुत रुचि लेते हैं। जब गरुु आरै शनि के पवर्त साथ-साथ हों तो व्यक्ति सीमटें , रते , और सगंममर्र आदि का कारखाना लगा सकता है, या उससे सबंंिधत कार्य करे तो अच्छी उन्नति की संद्रावना रहती है। गुरु के पर्वत के साथ यदि सूर्य का पर्वत द्री अच्छा हो, तो ऐसे व्यक्तियों को चित्रकारी, साज-सज्जा, स्त्रियों से सबंंिधत कपडे़ या द्रटें दने वाली वस्तुओं के काम में अधिक सफलता मिलती है। गुरु के पर्वत के साथ बुध का पर्वत द्री यदि पुष्ट हो, तो ऐसे व्यक्ति चिकित्सक, वकील, बीमा एजेंट आदि का कार्य करते हैं या पुरुषों के कपड़ों का व्यापार करते हैं। गुरु के पर्वत के साथ यदि मंगल का पर्वत द्री पुष्ट हो, तो व्यक्ति द्रवन निर्माण, वाहन उत्पादन, कृषि संबंधी औजार उत्पादन, या जासूसी कार्य में सफल होते हैं। गुरु के साथ यदि शुक्र का पर्वत द्री अच्छा हो, तो ऐसे व्यक्ति होटल व्यापार, संगीत संबंधी वाद्य यंत्र, घरेलू फर्नीचर, गहनों के व्यापारो में अधिक उन्नति करते हैं। यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गुरु के पर्वत के साथ यह द्री देखना चाहिए कि हाथ की बनावट कैसी है। यदि गुरु के पुष्ट पर्वत शुद्र चिकने हाथ में हैं, तो व्यक्ति अधिकारी के पद पर आसीन होगा। साधारण हाथ वाला प्रबधंक, खजांची, या रेस्टोरंटे का स्वामी होगा तथा कठोर हाथ वाला आशुलिपिक, क्लर्क आदि के पद पर रह सकता हैं। यही सिद्धांत अन्य ग्रहों के पर्वतों के लिए द्री कार्य करेगा। शनि का पवर्त यदि प्रबल तो व्यक्ति वैज्ञानिक, चिकित्सक, या इंजीनियर हो सकता ह।ै उसे बाग-बगीचा लगाने में द्री रुचि रहेगी। शनि पर्वत के साथ सूर्य पर्वत द्री पुष्ट हो, तो व्यक्ति बिजली के सामान, जैसे जनरेटर, फ्रीजर, कपड़े धाने की मशीन आदि का उत्पादन या व्यापार करेगा। शनि पर्वत के साथ बुध पर्वत द्री यदि पुष्ट हो, तो वह उन्नत ढंग से खेती करेगा। बीज या शक्कर का व्यापार करने से उसे सफलता मिलेगी। अकेले बुध के पर्वत के पुष्ट रहने पर व्यक्ति दवाइयों , बैकिंग, या कानूनी पुस्तकों के व्यापार में उन्नति कर सकता है। अकेले मंगल का पर्वत पुष्ट होने पर व्यक्ति सेना, पुलिस, खेल-कूद, द्रवन निर्माण आदि कार्यों में अधिक उन्नति कर सकता है। चंद्र पर्वत के पुष्ट होने पर व्यक्ति संगीत, यात्रा संबंधी कार्यों में रुचि लेगा। शुक्र का पर्वत पुष्ट होने पर संगीत, सजावट, श्रृंगार की दुकान आदि का कार्य कर के उन्नति कर सकता हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि किसी द्री पर्वत के साथ यदि गुरु व सूर्य का पर्वत द्री पुष्ट हो, तो ऐसा व्यक्ति सरकारी सेवा में अधिक उन्नति कर सकता है। जिसकी मस्तिष्क रेखा के अंत में चतुष्कोण हो, रेखा चंद्र क्षेत्र की ओर झुके तो, उसे प्रतिदिन प्राणायाम, ध्यान करने की सलाह देनी चाहिए, जिससे उसका मानसिक तनाव कम हो।
हस्तरेखा और बोलने की कला
अंगूठा लंबा हो, गुरु की अंगुली सूर्य की अंगुली से लंबी हो, हृदय रेखा साफ-सुथरी हो, मस्तिष्क रेखा शुरू व अंत में विभाजित हो, तो ऐसे लोगों की वाणी सम्मोहन का कार्य करती है- इनमें भाषा व बोलने की कला का अच्छा ज्ञान होता है। जिस प्रकार उठना बैठना, चलना फिरना प्रत्येक इंसान जानता है अगर हम इन क्रियाओं में शिष्टाचार का उपयोग करते हैं तो उसमें चार चांद स्वभाविक रूप से लग जाते हैं। ठीक उसी प्रकार बोलना तो हर कोई जानता है लेकिन बोलते समय अगर एक ‘भाषा शैली’ का उपयोग जिसमें मधुरता, धारा प्रवाह, रस, वाक्पटुता आदि हो तो, सुनने वाला अपने आप को कुछ पल के लिए ‘सम्मोहित’ सा महसूस करता है। बोलने की कला कुदरत ने सबको नहीं बख्शी होती है। अगर रेखाओं में जरा भी दोष आ जाता है तो उसका प्रभाव मनुष्य की भाषा शैली में आ जाता है और वे धारा प्रवाह व आत्म विश्वास के साथ अपनी बात कहने में असमर्थ सा महसूस करते हंै। कुछ लोग ऐसे हैं कि अपनी बात को एक या दो जनों तक की उपस्थिति में तो कह देते हैं किंतु जब उन्हें भाषण देने के लिए कहा जाता है तो वे उसमें अपने आपको असमर्थ महसूस करते हैं। ऐसा किन रेखाओं व ग्रहों में दोष होने पर होता है? इसके कई कारण है (1) मस्तिष्क रेखा दोषपूर्ण हो, उसमें जंजीरकार रेखा बनती हो, जीवन रेखा चाहे ठीक, बुध ग्रह उन्नत न हो तो ऐसे लोग अपनी वाणी में धारा प्रवाह व आत्म विश्वास की कमी पाते हैं। 2. दोषपूर्ण मस्तिष्क रेखा को राहु रेखाएं अगर काट दें, भाग्य रेखा जीवन रेखा के पास हो, सूर्य की उंगली तिरछी हो, सूर्य पर कट-फट हो तो भी बोलने की कला एक लय पर नहीं होती है। 3. हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा में दोष, हाथ में धब्बे, उंगलियां टेढ़ी-मेढ़ी हो, ऐसे लोग भाषण या अपनी बात को दूसरे के सामने सही ढंग से नहीं रख पाते हैं। 4. अंगूठा कम खुलता हो, मस्तिष्क रेखा व जीवन रेखा का जोड़ लंबा हो, हाथ सख्त हो, पतला हो, सभी ग्रह दबे हों, ऐसे व्यक्ति की बोलने की कला से कोई भी प्रभावित नहीं होता है। 5. मस्तिष्क रेखा में विभाजन न हो, गुरु की अंगुली छोटी हो, सूर्य की अंगुली टेढ़ी हो, हृदय रेखा में दोष व मस्तिष्क रेखा को जब बारीक-बारीक रेखाएं काटती हों तो भी ऐसे लोग बोलने की कला नहीं जानते केवल बोलना ही जानते हैं। 6. हृदय रेखा से मोटी शाखाएं नीचे की तरफ मस्तिष्क रेखा को काटे, जीवन रेखा में दोष, चंद्र रेखाओं में द्वीप हो तो ऐसे लोग किसी को अपनी वाक् शैली द्वारा प्रभावित नहीं कर पाते हैं। 7. जोड़ लंबा हो (जीवन रेखा व मस्तिष्क रेखा का), सूर्य क्षेत्र व बुध क्षेत्र में कट-फट हो, सूर्य की उंगली टेढ़ी हो, अंगूठा हथेली की तरफ हो, ऐसे लोगों के सूर्य, बुध, शनि भी उत्तम न हो तो ऐसे लोग अपनी साधारण शैली में ही अपनी बात कह पाते हैं, इनकी बोली में कोई आकर्षण नहीं होता है। 8. भाग्य रेखा में द्वीप हो, भाग्य रेखा मस्तिष्क रेखा पर रूके, मस्तिष्क रेखा में कोई शाखा न हो और उसमें दोष हो, हाथ का रंग काला हो, हाथ में मोटी रेखाओं का दोष हो (जाल हो) ऐसे मनुष्य दूसरों से तो प्रभावित हो जाते हैं पर खुद प्रभावित करने की कला नहीं जानते हैं। 9. अंगूठा छोटा, मोटा हो, अंगुलियां मोटी हों तो भी साधारण बोलने की आदत होती है। 10. सूर्य ग्रह दबा हो, शनि की स्थिति व बुध ग्रह की स्थिति भी ठीक न हो तो ऐसे लोग आत्म विश्वास व मानसिक तनाव की वजह से अपनी बात को कलात्मक रूप से प्रगट करने में असमर्थ होते हैं। बोलने की कला में सिद्धहस्त लोगों के हाथों के कुछ लक्षण 1. सूर्य, बुध व शनि ग्रह उत्तम हों, सूर्य रेखा मस्तिष्क रेखा को चीरकर चली जाये, अंगुलियां पतली व सीधी हों, मस्तिष्क रेखा द्विभाजित हो, भाग्य रेखा सीधे शनि क्षेत्र पर जाती हो, मस्तिष्क रेखा व जीवन रेखा में कोई बड़ा दोष न हो तो ऐसे लोगों की वाणी सम्मोहन का कार्य करती है, बरबस अपनी ओर लोगों का ध्यान खींच लेते हैं। 2. मस्तिष्क रेखा दोहरी हो, अंगूठा लंबा व पीछे की तरफ हो, अंगुलियां पतली व छोटी हों, गुरु ग्रह व गुरु की उंगली सूर्य से लंबी हो, जीवन रेखा साफ हो तो ऐसे लोगों की भाषा पर काफी पकड़ होती है। ये भाषण देने में माहिर होते हैं। 3. हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा में कोई दोष न हो, बुध की अंगुली टेढ़ी हो (थोड़ी सी), सूर्य रेखा डबल या साफ सुथरी हो, मस्तिष्क रेखा मंगल तक जाती हो, जीवन रेखा में कोई जोड़ न हो, सूर्य ग्रह व बुध ग्रह उन्नत हो तो भी ऐसे लोगों की बोलने की कला बहुत सम्मोहक होती है। 4. शनि और सूर्य की उंगली का आधार बराबर हो नीचे से, जीवन रेखा के साथ मंगल रेखा हो, हाथ का रंग साफ हो, हाथ भारी हो, अंगुलियां पतली हों, गुरु, सूर्य व बुध ग्रह ठीक हांे- ऐसे लोग अपनी भाषा शैली से सभी को प्रभावित करने वाले व घुमावदार जीवन शैली के लिए होते हैं। 5. अंगूठा लंबा हो, गुरु की अंगुली सूर्य की अंगुली से लंबी हो, हृदय रेखा साफ-सुथरी हो, मस्तिष्क रेखा शुरू व अंत में विभाजित हो, चंद्र उठा हो, अन्य ग्रह भी ठीक हों, हाथ भारी हो तो भी ऐसे लोगों की वाणी सम्मोहन का कार्य करती है- इनमें भाषा व बोलने की कला का अच्छा ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त अन्य कई लक्षण हैं जो हमारी बोलने की कला को प्रभावित करते हैं। कुछ दोषों व ग्रहों का निवारण करके हम बोलने की थोड़ी बहुत कमी को सफलता पूर्वक उपाय करवा कर दूर कर सकते हैं।
हस्तरेखा और विवाह मिलाप
हस्त रेखा के नियम और संयोग विवाह मिलाप करने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। संपूर्ण हाथ का अध्ययन, पर्वत, चिह्न एवं रेखाओं का विष्लेषण वर एवं कन्या के विवाह मिलाप में सहायक होते हैं। इसके माध्यम से उन दोनों के शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक व्यक्तित्व पर विचार करके उनके व्यावहारिक और व्यावसायिक योग्यताएं, उनके स्वास्थ्य एवं आयु गणना पर विचार किया जा सकता है। एक सुखमय एवं सुखद वैवाहिक जीवन के लिये निम्न तथ्यों पर विचार आवष्यक है- 1. वर-कन्या के स्वभाव एवं चरित्र अनुकूलता। 2. व्यावसायिक योग्यता एवं स्थिरता 3. अनुकूल शारीरिक आकर्षण एवं क्षमता 4. वर-कन्या में उत्तम संतान योग 5. तलाक स्थिति के योग न होना 6. उत्तम स्वास्थ्य के योग 7. वर कन्या के उत्तम आयु योग इन तथ्यों का विस्तार में विवेचन वर कन्या के सफल वैवाहिक जीवन का मार्गदर्षन देते हैं। 1. वर-कन्या के स्वभाव एवं चरित्र अनुकूलता प्रत्येक व्यक्ति में सकारात्मक एवं नकारात्मक गुण होते हैं। वर-कन्या में नकारात्मक गुणों की अधिकता होने के कारण वैवाहिक जीवन असफल हो सकता है। अतः आवष्यक है कि दोनों के स्वभाव का विष्लेषण किया जाये और उनके मानसिक अनुकूलता का निर्णय किया जाये। जितने अधिक अच्छे संयोग, उतना ही उत्तम मिलाप। अच्छे संयोग 1. आदर्ष एवं उत्तम विकसित हृदय रेखा। 2. उत्तम विकसित जीवन रेखा। 3. शुक्र वलय का केवल प्रारंभ एवं अंत में बनना। 4. हृदय रेखा का बृहस्पति पर्वत पर समाप्त होना। 5. उत्तम विकसित शुक्र पर्वत एवं बृहस्पति पर्वत। 6. जीवन रेखा एवं मस्तिष्क रेखा के बीच सामान्य दूरी। 7. उत्तम विकसित विवाह रेखा नकारात्मक संयोग 1. छोटी एवं हल्की हृदय रेखा 2. मंगल पर्वत का अत्यधिक विकसित होना तथा मंगल पर्वत पर दोषपूर्ण चिह्न। 3. कम विकसित चंद्र, शुक्र एवं बृहस्पति पर्वत। 4. जंजीरदार हृदय रेखा 5. असामान्य जीवन रेखा 6. दोषपूर्ण विवाह रेखा वर-कन्या के हाथों में सकारात्मक संयोग भावनात्मक, मार्मिक एवं महत्वाकांक्षी स्वभाव को दर्षाते हैं। दोनों स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त मन के होते हैं। दूसरी ओर नकारात्मक संयोग प्रबल एवं अहंकारी स्वभाव को दर्षाते हैं। वे जीवन के प्रति उदासीन एवं निराषावादी दृष्टिकोण रखते हैं। अतः यह आवष्यक है कि वर-कन्या के अनुकूल गुणों को संतुलित करके विवाह मिलान उचित है। 2. वर-कन्या की व्यावसायिक एवं आर्थिक स्थिरता उत्तम स्वभाव एवं मनोवैज्ञानिक विषेषताओं के साथ इस भौतिक संसार में सुखी रहने के लिये व्यावसायिक एवं आर्थिक स्थिरता भी आवष्यक है। कई बार पति-पत्नी में मतभेद आर्थिक अस्थिरता के कारण उत्पन्न हो जाते हैं। अतः विवाह मिलान इस प्रकार किया जाना चाहिये कि वर-कन्या के जीवन में आर्थिक स्थिति अनुकूल रहे तथा कभी जीवन में आर्थिक समस्याओं का सामना भी करना पड़े तो दोनों में फिर से आगे बढ़ने की इच्छा शक्ति हो। अनुकूल गुण 1. उत्तम विकसित भाग्य रेखा एवं सूर्य रेखा। 2. उत्तम बृहस्पति एवं सूर्य पर्वत 3. विस्तृत हथेली 4. बृहस्पति पर्वत पर समाप्त होती एक भाग्य रेखा। 5. हथेली एवं रेखाओं पर शुभ चिह्न 6. उत्तम मस्तिष्क एवं जीवन रेखा अनुकूलता एवं यौन संबंध जान सकते हैं। उत्तम अनुकूलता द्वारा वे अपने रोमांटिक इच्छाओं को बढ़ा सकते हैं, अच्छे संबंध बना सकते हैं और एक सुखी वैवाहिक जीवन का आनंद ले सकते हैं। दूसरी ओर शारीरिक और यौन अयोग्यता या यौन संबंध में निर्दयी स्वभाव वैवाहिक जीवन में दरार डाल देती है। अतः बहुत निपूणता से यह विवाह मिलान करना आवष्यक है। अनुकूल गुण 1. उत्तम विकसित हृदय रेखा 2. उत्तम विकसित षुक्र एवं चंद्र पर्वत 3. उत्तम विकसित अंगूठे का तीसरा पर्व 4. उत्तम उभार लिये मंगल पर्वत 5. गहरी व गुलाबी विवाह रेखा चित्र संख्या 1.2 नकारात्मक संयोग चित्र संख्या 2.1 अनुकुल गुण नकारात्मक गुण 1. टूटी हुई अथवा जंजीरदार भाग्य रेखा। 2. कम विकसित बुध एवं बृहस्पति पर्वत। 3. कमजोर भाग्य एवं सूर्य रेखा 4. भाग्य रेखा पर नकारात्मक चिह्न 5. भाग्य रेखा से निकलती निचली रेखायें 6. कमजोर जीवन रेखा चित्र 2.2 नकारात्मक गुण वर-कन्या के वैवाहिक जीवन में व्यावसायिक एवं आर्थिक स्थिरता के लिये ऊपर दिये गये संयोगों का मिलान आवष्यक है। 3. उत्तम शारीरिक अनुकूलता हथेली के विष्लेषण द्वारा वर-कन्या के विवाह उपरांत उत्तम शारीरिक चित्र 3.1 अनुकूल गुण नकारात्मक गुण 1. हृदय रेखा पर काले चिह्न 2. बुध रेखा या यकृत रेखा का समाप्ति पर द्विषाखित होना नपुंसक योग बनाता है। 3. मस्तिष्क रेखा एवं जीवन रेखा में अत्यधिक दूरी 4. हाथ का निचला क्षेत्र अत्यधिक विकसित 5. मंगल प्रधान व्यक्तित्व और दोश्पूर्ण मंगल पर्वत 6. अत्यधिक विकसित शुक्र पर्वत एवं मंगल पर्वत के कारण अलग करता है। 3. विवाह रेखा को काटती हुई रेखा तलाक देती है। 4. विवाह रेखा का प्रारम्भ एवं अन्त में द्विमुखी होना कुछ समय के लिये अलग करता है। चित्र 3.2 नाकारात्मक गुण 4. वर-कन्या में उत्तम संतान योग विवाह के पवित्र रिश्ते में बंधने के उपरान्त वर-कन्या सन्तान के इच्छुक हो जाते हैं। ऐसे में दोनों के हाथों में सन्तान होने के योग आवश्यक होते हैं। कन्या के हाथ में संतान योग अत्यधिक शुभ होने चाहिए क्योंकि एक स्त्री संतान को नौ महीने तक गर्भ धारण करके एक स्वस्थ्य बालक को जन्म देना होता है। अनुकूल गुण 1. अंगूठे के आधार पर परिवार मुद्रिका 2. विवाह रेखा के ऊपर पाई जाने वाली सीधी रेखाएं 3. उत्तम विकसित बुध की उंगली 4. उत्तम विकसित शुक्र पर्वत 5. उत्तम विकसित अंगूठे का तीसरा पर्वत 6. उत्तम विकसित हृदय रेखा नकारात्मक गुण 1. छोटी हृदय रेखा 2. कम उभरा हुआ शुक्र पर्वत एवं गुरु पर्वत 3. विवाह रेखा के ऊपर क्राॅस 4. जिस स्थान पर मस्तिष्क रेखा बुध रेखा को काटती है वहां तारा होना 5.तलाक स्थिति के योग न हो तलाक विवाह के सम्बन्ध का कानूनी भंग है जब दोनों जीवनसाथी साथ रहकर एक स्वस्थ सम्बन्ध नहीं निभा पाते हैं। अतः विवाह मिलाप करते समय वर-कन्या के हाथ में इस बात की जाँच अवश्य की जाये कि उनके स्वस्थ सम्बन्ध बनेंगे या नहीं क्योंकि तलाक एक दर्दनाक घटना है। तलाक अथवा कुछ समय के लिए अलग होने के योग 1. विवाह रेखा का अंत में द्विशाखित होना कुछ समय के लिये अलग करता है। 2. शुक्र पर्वत पर जाल अथवा काटती हुई रेखाएं शारीरिक कम के कारण अलग करता है। 3. विवाह रेखा को काटती हुई रेखा तलाक देती है। 4. विवाह रेखा का प्रारम्भ एवं अन्त में द्विमुखी होना कुछ समय के लिये अलग करता है। 6. विवाह योग्य वर-कन्या का उत्तम स्वास्थ्य व्यक्ति प्रायः अपने दैनिक जीवन में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का सामना करता है। इन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कुछ कारण हैं दुर्बल गठन, जीवन शक्ति की कमी, नेत्र समस्याएं, दुर्बल पाचन शक्ति इत्यादि। ये समस्याएं व्यक्ति को मानसिक रूप से भी कमजोर बनाती हैं और उसके वैवाहिक जीवन की ऊर्जा और उत्तेजना कम हो जाती है। ऐसे में अनेक वैवाहिक सम्बन्ध खराब हो जाते हैं। अतः वर-कन्या के वैवाहिक जीवन का मिलाप करते वक्त इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि उन दोनों का उत्तम स्वास्थ्य एवं अच्छा शारीरिक गठन है। अनुकूल योग 1. उत्तम विकसित जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा एवं हृदय रेखा 2. बुध रेखा का न होना और होना तो उत्तम विकसित होना। 3. उत्तम विकसित मंगल रेखा 4. जीवन रेखा से ऊपर की ओर निकलती रेखायें 5. जीवन रेखा एवं मस्तिष्क रेखा का प्रारम्भ में उत्तम विकसित होना 6. उत्तम भाग्य रेखा 7. स्वस्थ नाखून नकारात्मक गुण 1. कमजोर जीवन रेखा 2. टूटी हुई बुध रेखा 3. कमजोर मस्तिष्क एवं हृदय रेखा 4. प्रारम्भ से जंजीरदार मस्तिष्क रेखा एवं हृदय रेखा 5. जीवन रेखा से नीचे की ओर जाती रेखाए 6. कमजोर नाखून 7. वर-कन्या की पूर्ण आयु विवाह योग्य वर-कन्या के लिये एक उत्तम एवं पूर्ण आयु वैवाहिक जीवन को लम्बे समय तक निभाने के लिए आवश्यक है। यदि दोनों के भाग्य में पूर्ण आयु का योग न हो तो एक लम्बे समय तक वैवाहिक सुख नहीं प्राप्त कर सकते। अनुकूल गुण 1. पूर्ण गोलाई लिये हुये एक अच्छी एवं लम्बी जीवन रेखा 2. उत्तम विकसित बुध रेखा 3. पूर्ण मणिबन्ध 4. उत्तम मस्तिष्क व हृदय रेखा 5. पूर्ण विकसित बुध की रेखा 6. उत्तम विकसित मंगल रेखा नकारात्मक योग 1. जीवन रेखा का दोनों हाथों में कम आयु में टूटना 2. जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा एवं हृदय रेखा का प्रारम्भ में जुड़ना तथा जीवन रेखा का टूटना 3. बुध की रेखा का कम आयु में जीवन रेखा से मिलना तथा जीवन रेखा का टूटना 4. विवाह रेखा का टूटना विवाह योग्य वर-कन्या का विवाह-मिलान एक सफल सम्बन्ध तथा एक स्वस्थ एवं सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन की ओर संकेत करता है। हाथों पर पाये जाने वाले संयोग एवं संकेत विवाह मिलाप करने में सहायक हैं तथा वर-कन्या को आपस में अनुकूल बनाते हुये विवाह एवं जीवन को सफल यात्रा की ओर ले जाते हैं।
कुछ उपायों से बदली जा सकती है हस्तरेखा
हस्तरेखाओं से यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति को किस दिशा में प्रयास करना चााहिए कि उसकी आय के स्रोत सदैव खुले रहें, वह प्रगतिशील रहे और उसके कार्यों में कोई बाधा न आए। किंतु कई बार व्यक्ति ऐसा पेशा, व्यापार या नौकरी अपना लेता है जिससे वह अत्यंत मेहनत करने के पश्चात भी जीवन स्तर की सुधार नहीं पाता है। यहां हथेलियों में पाए जाने वाले अपूर्ण या दुष्प्रभाव वाले चिह्नों को शुभ चिह्नों में बदलने के उपायों का वर्णन प्रस्तुत है। - प्रशासनिक क्षेत्र में जाने या नौकरी में पदोन्नति के लिए आवश्यक है कि सूर्य पर्वत उभरा हुआ हो तथा उस पर गहरी रेखा हो जो मस्तिष्क रेखा से मिल रही हो। किंतु यदि इसका अभाव हो तो इस क्षेत्र में उन्नति के लिए निम्न उपाय करने चाहिए। - जल में सिंदूर या कुमकुम मिलाकर सूर्य को चढ़ाएं। उगते हुए सूर्य के दर्शन अवश्य करें। और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। यदि विवाह रेखा दोषपूर्ण हो अपूर्ण या इसकी संख्या दो से अधिक हो और इस कारण विवाह में विलंब रहा हो तो केले के वृक्ष की परिक्रमा करें या बंदरों को केला खिलाएं अथवा हाथों की आठों अंगुलियों के नाखून काट कर कर्पूर के माध्यम से उन्हें जला लें और उसमें हल्दी मिला कर दोनों हाथों की मुठ्ठियों में जो से भींच लें। यह प्रयोग गुरुवार को गोधूलि बेला में। सूर्य की साक्षी में करें और मुठ्ठियाँ तब तक भींचे रखें जब तक कि अंधेरा न हो जाए। फिर वह राख फेंक दें। यदि शनि पर्वत या शनि रेखा के कारण कोई कार्य बिगड़ रहा हो तो शनिवार की रात किसी स्थान पर किसी भी तेल की ग्यारह बिंदिया लगाकर उस पर काला आसन बिछाकर पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके बैठें और अंधेरे में शनि मंत्र का जप करें। यदि समस्या न्यायालय से संबंधित हो तो आसन के नीचे लोहे का सिक्का भी रख लें। सिक्के को साथ में न्यायालय भी ले जाएं। यदि हस्तरेखाएं स्पष्ट न हों, पर्वतों के उभार सही नहीं हों तो घर में पिरामिड या स्फटिक श्री यंत्र की स्थापना और पूजन करें, लाभ होगा। नियमित मौन रखने से भी हस्त रेखाओं में शीघ्र अनुकूल बदलाव आते हैं। जीवन रेखा को गहरा और वृहद बनाने तथा दोषपूर्ण स्थिति मिटाने के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप है। प्राणायम और योगासान से हृदय रेखा प्रभावित होती है। यदि हृदय रेखा जालीदार, टूटी हुई और छोटी हो तो सुबह शाम प्राणायाम करें, अत्यंत लाभ होगा।
धन आने में रुकावट....जाने हाथ की रेखाओं से....
धन आगमन में रुकावटों का कारण होता है मनुष्य का हाथ अर्थात हाथों की लकीरें और हाथांे में स्थित निर्धनता के योग। आइये जानें इन रुकावटों का क्या संबंध है हाथों से: - भाग्य रेखा देर से शुरू हो रही हो, भाग्य रेखा मोटी और मस्तिष्क रेखा पर रुक गयी हो तथा हाथ में बहुत ही कम रेखाएं हों तो जीवन में कठिन संघर्ष करना पड़ता है, साथ ही कामकाज गति नहीं पकड़ पाता। - हाथ बहुत भारी न हो, सख्त हो और शनि ग्रह दबा हुआ हो तो अनियमित रोजगार, जीवन में संघर्ष और प्रत्येक काम रुक-रुक कर चलने के संकेत हैं। - शुक्र ग्रह का उठा हुआ होना, शनि ग्रह का दबा हुआ होना, गुरु की उंगली का छोटा होना और भाग्यरेखा का दूषित होना काम-काज में व्यवधान, अनियमित रोजगार और आर्थिक हानि होने के प्रबल संकेत हैं। - दोनों हाथों में जीवन रेखा सीधी हो, भाग्य रेखा दूषित हो और शनि ग्रह अत्यंत खराब हो तो आर्थिक नुकसान और रोजगार अनियमित रहने के संकेत हैं। - हृदय रेखा से कोई रेखा निकल कर या हृदय रेखा की शाखा मस्तिष्क रेखा को काट रही हो, साथ ही गुरु की उंगली छोटी हो तो ऐसे व्यक्तियों के धनागमन के मार्ग में बाधाएं आती हैं। - जीवन रेखा और मस्तिष्क रेखा बहुत आगे तक जाकर जुड़ रही हों, साथ ही शनि, सूर्य तथा बुध ग्रह भी दबे हुए हों तो ऐसे जातकों के रोजगार गति नहीं पकड़ पाते, कोई भी व्यवसाय नियमित नहीं चल पाता। - हाथ सख्त हो और पतला हो, गुरु की उंगली छोटी हो और उंगलियों में छिद्र हों तो ये दोषपूर्ण योग हैं। इनके कारण धन के संघर्ष, अस्थिर व्यवसाय एवं आर्थिक रुकावटें बनी रहती हैं। - चमसाकार हाथ में भाग्य रेखा दोषपूर्ण हो, उंगलियों में छेद हों और शनि ग्रह की स्थिति अत्यंत कमजोर हो तो पूरा जीवन संघर्षमय रहेगा, खासकर नौकरी एवं व्यवसाय में रुकावटें आती रहेंगी। - अत्यंत चैड़ी भाग्य रेखा से छोटी-छोटी शाखाएं निकलकर नीचे की ओर जा रही हों तो यह दिवाला योग का प्रबल संकेत है। - शनि ग्रह और बुध ग्रह अत्यंत कमजोर हों, शनि की उंगली भी ठीक न हो तो धनप्राप्ति के मार्ग में रुकावट आती है। - मंगल रेखा, जीवन रेखा और भाग्य रेखा को यदि कई आड़ी-तिरछी रेखाएं काट रही हों तो सभी कामों में रुकावट आती हैं, खासकर आर्थिक क्षेत्र में बाधाएं आती हैं। - दूषित भाग्य रेखा से अधोगामी रेखाएं निकल रहीं हों और शुक्र से निकलने वाली रेखाएं जीवन रेखा को काट रही हों तो आर्थिक हानि होती है और व्यवसाय में रुकावटें आती हैं।
हिन्दू मान्यताओं का वैज्ञानिक आधार
अनादि काल से ही हिंदू धर्म में अनेक प्रकार की मान्यताओं का समावेश रहा है। विचारों की प्रखरता एवं विद्वानों के निरंतर चिंतन से मान्यताओं व आस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ। क्या इन मान्यताओं व आस्थाओं का कुछ वैज्ञानिक आधार भी है? यह प्रश्न बारंबार बुद्धिजीवी पाठकों के मन को कचोटता है। धर्मग्रंथों को उद्धृत करके‘ ‘बाबावाक्य प्रमाणम्’ कहने का युग अब समाप्त हो गया है। धार्मिक मान्यताओं पर सम्यक् चिंतन करना आज के युग की अत्यंत आवश्यक पुकार हो चुकी है। प्रश्न: माला का प्रयोग क्यों करते हैं? उत्तर: माला एक पवित्र वस्तु है जो‘ शुचि संज्ञक’ वस्तुओं से बनाई जाती है। इसमें 108 मनके होते हैं जिससे साधक को अनुष्ठान संबंधी जप- मंत्र की संख्या का ध्यान रहता है। अंगिरा स्मृति में कहा है- ‘‘असंख्या तु यज्जप्तं, तत्सर्वं निष्फलं भवेत्।’’ अर्थात बिना माला के संख्याहीन जप जो होते हैं, वे सब निष्फल होते हैं। विविध प्रकार की मालाओं से विविध प्रकार के लाभ होते हैं। अंगुष्ठ और अंगुली के संघर्ष से एक विलक्षण विद्युत उत्पन्न होगी, जो धमनी के तार द्वारा सीधी हृदय चक्र को प्रभावित करेगी, डोलता हुआ मन इससे निश्चल हो जायेगा। प्रश्न: माला जप मध्यमांगुली से क्यों? उत्तर: मध्यमा अंगुली की धमनी का हृत्प्रदेश से सीधा संबंध है। हृदयस्थल में ही आत्मा का निवास है। आत्मा का माला से सीधा संबंध जोड़ने के लिये माला का मनका मध्यमा अंगुली की सहायता से फिराया जाता है। प्रश्न: माला में 108 दाने क्यों? उत्तर: माला का क्रम नक्षत्रों के हिसाब से रखा गया है। भारतीय ऋषियों ने कुल 27 नक्षत्रों की खोज की। प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। 27 ग् 4 = 108 । अतः कुल मिलाकर 108 की संख्या तय की गई है। यह संख्या परम पवित्र व सिद्धिदायक मानी गई। तत्पश्चात् हिंदू धर्म के धर्माचार्यों, जगद्गुरुओं के आगे भी ‘श्री 108’ की संख्याएं सम्मान में लगाई जाने लगीं। प्रश्न: माला कंठी गले में क्यांे? उत्तर: मौलाना भी अपने गले में तस्बी लटकाते हैं। ईसाई पादरी भी ईशु मसीह का क्राॅस गले में लटकाते हैं। अतः अपने इष्ट वस्तुओं को गले में धारण करने की धार्मिक परंपरा हिंदुओं में भी है। ओष्ठ व जिह्ना को हिलाकर उपांशु जप करने वाले साधकों की कंठ धमनियों को अधिक प्ररिश्रम करना पड़ता है। यह साधक कहीं गलगण्ड, कंठमाला आदि रोगों से पीड़ित न हो जाय, उस खतरे से बचने के लिये तुलसी, रुद्राक्ष आदि दिव्य औषधियों की माला धारण की जाती है। हिंदू सनातन धर्म में केवल मंत्र संख्या जानने तक ही माला का महत्त्व सीमित है। महर्षियों ने इसके आगे खोज की तथा विभिन्न रत्न औषधि व दिव्यवृक्षों के महत्त्व, उपादेयता को जानकर उनकी मालाएं धारण करने की व्यवस्थाएं इस प्रकार से दी हैं। ‘तन्त्रसार’ के अनुसार 1. कमलाक्ष (कमलगट्टे) की माला शत्रु का नाश करती है, कुश ग्रन्थि से बनी माला पाप दूर करती है। 2. जीयापीता (जीवपुत्र) की माला, संतानगोपाल आदि मंत्रों के साथ जपने से पुत्र लाभ देती है। 3. मूंगे (प्रवाल) की माला धन देती है। 4. रुद्राक्ष की माला महामृत्युंजय मंत्र के साथ जपने से रोगों का नाश करके दीर्घायु देती है। 5. विघ्न-निवृत्ति हेतु, शत्रु-नाश में हरिद्रा की माला। 6. मारण व तामसी कार्यों में सर्प के हड्डी की माला, आकर्षण एवं विद्या हेतु स्फटिक माला। 7. श्री कृष्ण व विष्णु की प्रसन्नता हेतु तुलसी एवं शंख की माला प्रशस्त है। 8. वैसे व्याघ्रनख, चांदी, सोने, तांबे के सिक्के से सन्निवेश डोरा बच्चों को नजर-टोकार एवं बहुत सी संक्रामक बीमारियों से बचाता है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार
तीसरा संस्कार ‘सीमन्तोन्नयन’ है। गर्भिणी स्त्री के मन को सन्तुष्ट और अरोग रखने तथा गर्भ की स्थिति को स्थायी एवं उत्तरोत्तर उत्कृष्ट बनते जाने की शुभाकांक्षा-सहित यह संस्कार किया जाता है। समय-पुंसवन वत् प्रथमगर्भे षष्ठेऽष्टमेवा मासे अर्थात् प्रथम गर्भ स्थिति से 6 ठे या आठवें महीने यह संस्कार किया जाता है। कोई इसे प्रथम गर्भ का ही संस्कार मानते हैं, कोई इसे अन्य गर्भों में कर्तव्य मानते हैं, परन्तु उनके मत में 6 ठे या 8 वें महीने का नियम नहीं है। ‘सीमन्तोन्नयन’ शब्द का अर्थ है ‘स्त्रियों के सिर की मांग’। यह एक साधारण प्रथा है कि सौभाग्यवती स्त्रियां ही मांग भरती है। यह उनकी प्रसन्नता, संतुष्टि आदि का सूचक है। यहां पति अपने हाथ से पत्नी के बाल संवार कर मांग में सिंदूर दान करता है। चरक में लिखा हैः- ‘सा यद्यदिच्छेत्ततदस्य दद्यादन्यत्र गर्भापघातकरेभ्यो भावेभ्यः’। अर्थात् गर्भवती स्त्री, गर्भविनष्ट करने वाली वस्तुओं को छोड़कर जो भी कुछ मांगे वह देना चाहिए। ‘‘सौमनस्यं गर्भधारकारणम्।’’ लब्धदौहृदा तु वीर्यवन्तं चिरायुषं च पुत्रं प्रसूते। गर्भवती स्त्री को प्रसन्न रखना चाहिए। उसकी इच्छा पूरी होने से सन्तान वीर्यवती और दीर्घायु होती है। संकल्प सीमन्तोन्नयन संस्कार के दिन यजमान पत्नीसहित मंगल द्रव्ययुत जल से स्नान कर चीरेदार दो शुद्ध वस्त्र धारण कर शुभासन पर बैठकर आचमन प्राणायाम कर निम्नलिखित संकल्प पढ़ेः- (देष-काल का कीर्तन कर) अस्याः मम भार्यायाः गर्भा- तदा चास्य चेतना प्रव्यक्ता भवति। ततष्च प्रभृति स्पन्दते, अभिलाषं पंचेन्द्रियार्थेषु करोति। मातजं चास्य हृदयं तद्रसहारिणीभिः धमनीभिः मातृहृदयेनाभिसम्बद्धं भवति। तस्मात्तयोस्ताभिः श्रद्धा सम्पद्यते। तथा च दौहृद्यां ‘नारी दोहृदिनी’ त्याचक्षते। अर्थात् गर्भस्थ जीव को चेतना (इच्छा) चैथे महीने में स्पष्ट होने लगती है। उस समय गर्भ का स्पन्दन आरम्भ होता है। पांचों इन्द्रियों के विषय में वह इच्छा करने लगता है। इस गर्भ का हृदय माता के बीज-भाग के हृदय के साथ जुड़ा होता है। इसलिए दोनों में एक समान इच्छा होती है और अब दो हृदयों के कारण स्त्री को दो हृदिनी कहने लगते हैं। सा प्राप्तदौहृदा पुत्रं जनयेत् गुणान्वितम्। अलब्धादौहृदा गर्भं लभेतात्मनि वा भयम्।। अर्थात् दोहृद पूरा न होने पर गर्भ या माता के जीवन को भय रहता है। आठवें महीने में अष्टमेऽस्थिरी भवति ओजः। तत्र जातष्चेन्न जीवेन्निरोजस्त्वात्। नैर्ऋतभागत्वाच्च वयवेभ्यस्तेजोवृद्धयर्थं क्षेत्रगर्भयोः संस्कारार्थं गर्भसमद्भवैनो निबर्हणपुरस्सरं श्रीपरमेष्वरप्रीत्यर्थं सीमन्तोन्नयनाख्यं संस्कारकर्म करिष्ये। तत्र निर्विघ्नार्थं गणपतिपूजनं, स्वस्तिपुष्याहवाचनं मातृकानवग्रहादिपूजनं यथाषक्ति सांकल्पिकं नान्दीश्राद्धं होमं च करिष्ये। सामान्य विधि संकल्प पढ़ने के पश्चात् स्वस्तिवाचनादि सामान्य विधि प्रकरण में उक्त रीति से सम्पन्न करे और अन्त में कुषकण्डिका समेत विस्तृत होम विधि करे। विशेष विधि तत्र विषेषः पात्रासदने। आज्यभागान्तरं तुण्डलतिलमुद्गानां क्रमेण पृथगासादनम्। उपकल्पनीयानि मृदुपीठं, युग्मान्योदुम्बरफलानि एकस्तबक निबद्धानि, त्रयोदर्भपिंजूलाः,त्रयेणी शलली, वीरतरुषंकुः, शरेषीका आष्वत्त्थो वा शंकुः पूर्णं चात्रं, वीणागाथिनौ चेति। आज्यमधिश्रित्य चरुस्थाल्यां मुद्गान् प्रक्षिप्याधिश्रित्य ईषच्छृतेषु मुद्गेषु तिलतण्डुलप्रक्षेपं कृत्वा पर्यग्निकरणं कुर्यात्। आठवें महीने में अभी ओज अस्थिर होता है। इस मास में उत्पन्न सन्तान प्रायः जीती नहीं। ओज का दूसरा नाम वीर्य है। यह ओज आठवें मास में अस्थिर रहता है- कभी माता में कभी सन्तान में जाता-आता रहता है। इसलिए इस महीने को ‘नगण्य’ (गिनती में न लाने योग्य) कहते हैं। इस ओज को बढ़ाने के लिए माता को प्रसन्न रखना आवष्यक है। इन्हीं कारणों से गर्भवती पत्नी को विषेषतः प्रसन्न रखने के लिए और उसमें प्रसन्न रहने की धारणा को पुष्ट करने के लिए इस संस्कार का समय गर्भ का चैथा व आठवां मास नियत है। इन मासों में जब चन्द्रमा पुनर्वसु, पुष्य आदि पुल्लिंग नक्षत्रों से युक्त हो तब इस संस्कार को करें। इस संस्कार की कुषकण्डिका में विषेष बात यह है कि दूसरी सब वस्तुओं के साथ आज्य के पश्चात् चावल, तिल, मूंग को क्रमषः अलग-अलग रखें और कोमलासन सहित पटड़ा (भद्रपीठ), एक गुच्छे में बन्धे गूलर फलों के जोड़े, कुषाओं की तीन पिंजूलि, तीन स्थान पर श्वेत सेही का एक कांटा, अर्जुन या पीपल की एक खूंटी, पीले सूत से भरा तकुआ और दो वीणावादक। घृत को पकने के पश्चात् चरु (सामग्री) पात्र में मूंग डालकर उनको पकायें, कुछ पक जाने पर उनमें तिल-चावल मिलायंे और घृत की भांति इसमें भी जलते हुए तृण को घूमाकर रखें। (पर्यग्निकरण) कुशकण्डिका के पश्चात् होम विधि प्रारम्भ करंे। होम विधि में स्विष्टकृति आहुति के पश्चात् पूर्वसिद्ध स्थालीपाक (खिचड़ी) की आहुति निम्न मन्त्र से देंः- ऊँ प्रजापतये त्वा जुष्टं निर्वपामि ऊँ प्रजापतये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि। फिर महा व्याहृति आदि प्राजापत्य आहुति पर्यन्त आहुतियां शेष स्थालीपाक से दे। पश्चात् बर्हिहोम पर्यन्त होमविधि सम्पूर्ण करें। सीमन्तोन्नयन इसके पश्चात् स्नाता एवं शुद्ध वस्त्रा, गर्भिणी पत्नी को, अग्नि के पष्चिम भाग में, एकान्त में अथवा संस्कार भूमि पर ही एक ओर पटड़े पर कोमल आसन बिछाकर बिठायें और उसके पीछे बैठकर तेरह-तेरह कुओं की तीन पिंजुली, तीन स्थान में श्वेत सेही का एक कांटा, पीला सूत लिपटे लोहे का तकुवा और तीक्ष्ण अग्रभाग समेत बिलस्त भर काठ की एक घूंटी’ और बिल्व इन पांचों से एक साथ पत्नी के सिर का विनयन करें अर्थात् फल स्वच्छ कर, पट्टी निकाल पीछे की ओर सुन्दर जूड़ा बांधे। मांग करते समय निम्न मन्त्रभाग का पाठ करेंः- ऊँ भूर्विनयामि। ऊँ भुवर्विनयामि। ऊँ स्व र्विनयामि। पश्चात् निम्न मन्त्र का पाठ करता हुआ बाल संवारने की पांचों वस्तुओं को जूड़े में ही बांध देंः- ऊँ अयमूर्जावतो वृक्ष ऊर्जीव फलिनी भव पष्चात् वीणावादक निम्नलिखित मन्त्र का गान करेंः- ऊँ सोम एव ते राजेमा मानुषीः प्रजाः। अविमुक्तचक्र आसीरंस्तीरे तुभ्यम्......... पश्चात् अन्य वामदेव्य गान आदि गान करें। अब अभ्यागत ब्राह्मणादि का दक्षिणा भोजनादि से सत्कार कर, आषीर्वाद ग्रहण कर, देवगणों का विसर्जन करें। तदन्तर स्रुवा मूल द्वारा कुण्ड में से भस्म लेकर विधि पूर्वक भस्म धारण और आरती आदि करें।
Friday, 18 March 2016
देवी पाठ विधि
जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम गं्रथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ ह।ै 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल 21 देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं। 'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है। प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु। उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगााणां शतद्वयम्॥ मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के। विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥ एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥ तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥ अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल 700 श्लोक 700 प्रयोगों के समान माने गये हैं। दुर्गा सप्तशती को सिद्ध कैसे करें- सामान्य विधि : नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं। वाकार विधि : यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है। संपुट पाठ विधि : किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है। सार्ध नवचण्डी विधि : इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है। शतचण्डी विधि : मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (108) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है। इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (1008) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।
गणेश साधना से ग्रह शांति
बुद्धि के विशेष प्रतिनिधि होने से गणपति का महत्व काफी बढ़ जाता है। विभिन्न धार्मिक क्षेत्रों में गणपति के विषय में विस्तृत वर्णन किया गया है। तंत्रशास्त्रों में भी इनकी महिमा का वर्णन है। सनातन संस्कृति के अनुयायी बिना गणेश पूजन किये कोई शुभ व मांगलिक कार्य आरंभ नहीं करते। निश्चित ही वह अति विशिष्ट ही होगा जिसने तैंतीस करोड़ देवताओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। गणेश महात्म्य : त्रिपुरासुर के वध के लिए जिसकी स्वयं महेश यानि भगवान शिव करते हैं, महिषासुर के नाश के लिए जिसकी तपस्या स्वयं आदि शक्ति भगवती करती हैं, वह गणाध्यक्ष विनायक कोई भी कार्य संपादन का एक मात्र अधिष्ठाता होगा ही। प्रभु श्री विष्णु, रामावतार में विवाह प्रसंग के समय बड़े मनोभाव से भगवान गणेश की पूजा करते हैं तो माता पार्वती एवं बाबा भोले नाथ ने भी अपने विवाह से पहले श्री गणेश की सर्वप्रथम पूजा-अर्चना की। मानव में सात चक्र होते हैं जिसमें सबसे प्रथम है- मूलाधार चक्र। इस मूलाधार चक्र को भी गणेश चक्र के नाम से खयाति प्राप्त है। मूलाधार चक्र को शक्ति व ज्ञान की गति का अधिष्ठान बताया गया है। ऐसा ही विलक्षण दर्शन गणेश के चरित्र से प्राप्त होता है। इसलिए अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक परंब्रह्म, असाधारण प्रतिभावान यह गणपति ही हैं, विष्णु महाकैटभ के संहार और ब्रह्मा सृष्टि के कार्य सिद्धि लिए गणेश उपासना यूं ही नहीं करते। वस्तुतः प्राचीन उपासना क्रम में पंच देवोपासना का निर्देश मिलता है। इस उपासना भेद में भी श्री गणेश को अपना स्थान प्राप्त हुआ है। प्रातःकाल गणेश जी को श्वेत दूर्वा अर्पित करके घर से बाहर जायें। इससे आपको कार्यों में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी। घर के मुखय द्वार के ऊपर गणेश जी का चित्र या प्रतिमा इस प्रकार लगाएं कि उनका मुंह घर के भीतर की ओर रहे। इससे धन लाभ होगा। गणपति को दूर्वा और मोतीचूर के लड्डू का भोग लगाकर श्री लक्ष्मी के चित्र के सामने शुद्ध घी का दीपक जलाएं कभी धनाभाव नहीं होगा। दुकान या व्ववसाय स्थल के उद्घाटन के समय चांदी की एक कटोरी में धनिया डालकर उसमें चांदी के लक्ष्मी गणेश की मूर्ति रख दें। फिर इस कटोरी को पूर्व दिशा में स्थापित करें। दुकान खोलते ही पांच अगरबत्ती से पूजन करने से व्यवसाय में उन्नति होती है। नित्य श्री गणेश जी की पूजा करके उनके मंत्र 'श्री गं गणपतये नमः' का जप करने से सभी प्रकार की परीक्षा में सफलता प्राप्त होती है। छात्रों को जो विषय कठिन लगता हो उस विषय की पुस्तक में गणेश जी का चित्र तथा दूर्वा रखने से वह विषय सरल लगने लगेगा। बुधवार का व्रत रखकर बुध स्तोत्र का पाठ करने से, गणेश जी को मूंग के लड्डू चढ़ाने से आजीविका की प्राप्ति शीघ्र होती है। रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र में श्वेत आक की जड़ लाकर उससे श्री गणेश जी की प्रतिमा बनायें। फिर उस पर सिंदूर और देशी घी के मिश्रण का लेप करके एक जनेऊ पहनाकर पूजा घर में स्थापित कर दें। तत्पश्चात इसके समक्ष श्री गणेश मंत्र की 11 माला का जप करें। आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी। बुधवार के दिन श्री गणेश का पूजन करके गाय को घास खिलाने से सास के प्रति बहू का कटु व्यवहार दूर होता है। बुधवार के दिन श्री गणेश साधना करने से बुध ग्रह के दोष दूर होते हैं। गणेश चतुर्थी के दिन से श्री गणेश स्तोत्र का पाठ शुरू करके भगवान से प्रार्थना करने पर पिता-पुत्र के संबंधों में मधुरता आती है। एक सुपारी पर मौली लपेटकर उसे गणपति के रूप में स्थापित कर तत्पश्चात उसका पूजन करके घर से बाहर जायें। कार्यों में सफलता प्राप्त होगी। भगवान गणेश को नित्य प्रातःकाल लड्डू का भोग लगाने से धन लाभ का मार्ग प्रशस्त होता है।भगवान गणपति जी को बेसन के लड्डू का भोग लगाकर व्यवसाय स्थल पर जायें और कोई मीठा फल किसी मंदिर में चढ़ाएं। इससे धन-धान्य व सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी।धनतेरस से दीपावली तक लगातार तीन दिन सायंकाल श्री गणेश स्तोत्र का पाठ करके गाय को हरा चारा (सब्जी-साग आदि) खिलायें। बाधायें -रूकावटें दूर होंगी। परीक्षा देने से पूर्व श्री गणेश मंत्र का 108 बार जप करें और गणपति को सफेद दूर्वा चढ़ायें। परीक्षा में निश्चय ही सफलता मिलेगी। घर में गणेश जी के प्रतिमा के सामने नित्य पूजन करने से धन मान और सुख की प्राप्ति होती है। प्रातः काल गणपति जी मंत्र का 21 दिनों में सवा लाख बार जप करने से सभी मनोकामना पूर्ण होंगी। इसीलिए गणपत्यऽथर्वशीर्ष में कहा गया है कि श्री गणेश भगवान आप ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव हो। आप ही अग्नि, वायु, सूर्य, चंद्र हो। समस्त देवता, पंचतत्व, नवग्रह आदि सब कुछ आपका स्वरूप हैं। गणेश पुराण में वर्णित गणेशाष्टक को सिद्धि प्रदायक कहा गया है। निश्चित ही ऋद्धि-सिद्धि की सहजता से उपलब्धि गणेश तत्व से ही संभव है। ऋिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति कामनापूर्ति, संकटनाश, प्रेम प्राप्ति, मधुर दांपत्य जीवन, विघ्ननाश, आरोग्य आदि कोई भी ऐसी कामना नहीं है जो कि गणेशकृपा से पूर्ण न हो।
Thursday, 17 March 2016
भवन निर्माण कार्य एवं मुहूर्त
प्रत्येक प्रकार के औद्योगिक या रिहायशी उपयोग के भवनों के निर्माण का कार्य मिट्टी की खुदाई तथा नींव रखने जैसे अनेक चरणों से गुजरते हुए पूर्णता की स्थिति तक पहुंचता है। सहज पूर्णता के लिए व्यक्ति को शुभ तिथि, पक्ष, लग्न एवं वार आदि की यदि समुचित जानकारी हो तो कार्य सरल हो जाता है। इन सब पहलुओं पक्षों के बारे में विस्तृत और सरल जानकारी प्राप्त करने के लिए यह लेख उपयोगी है। निर्माणाधीन रिहायशी मकान या भवन सभी परिवारजनों के लिए तथा व्यावसायिक या औद्योगिक भवन कंपनी के हिस्सेदारों, निदेद्गाकों तथा ग्राहकों और अंद्गाभागियों सभी के लिए शांति, समृद्धि, उन्नति, स्वास्थ्य, धन और प्रसन्नतादायक हो, इसके लिए खुदाई का शुभ मुहूर्त सुनिश्चित करना और शिलान्यास करना अति महत्वपूर्ण है। भवन-निर्माण प्रारंभ करने हेतु शुभ और अशुभ माह और उनके परिणाम- इसके लिए निम्नलिखित अवधि सर्वोत्तम मानी जाती हैं - महीने की 14 तारीख से आगामी महीने की 13 तारीख तक : वैशाख, श्रावण और फाल्गुन ये महीने अच्छे और शुभ तथा परिवार के लिए हितकारी, लाभदायक और धनप्रद रहते हैं। यह वास्तु राज वल्लभ (श्लोक 1/7) द्वारा भी अभिमत है। सुप्रसिद्ध ज्योतिषी और विद्वान योगेश्वर आचार्य के अनुसार कोई भी निर्माण कार्य आषाढ़ (जून-जुलाई), चैत्र (मार्च-अप्रैल), आश्विन (सितंबर-अक्तूबर), कार्तिक (अक्तूबर-नवंबर), माघ (जनवरी-फरवरी), ज्येष्ठ (मई-जून) या भाद्रपद (अगस्त-सितंबर) में प्रारंभ नहीं करना चाहिए। इस दृष्टि से ये मास अशुभ माने जाते हैं और असंखय समस्याओं और मुसीबतों का कारण बनते हैं। स्थानीय रीति-रिवाजों का अनुसरण करना अधिक अच्छा होता है। पक्ष : मिट्टी की खुदाई, शिलान्यास इत्यादि सभी अच्छी चीजें शुक्लपक्ष में ही प्रारंभ होनी चाहिए, जब चंद्रमा बढ़ता है। कृष्णपक्ष में जब चंद्रमा घटता है तब ये कार्य शुभ नहीं माने जाते। तिथि : द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी और पूर्णिमा शुभ मानी गई हैं। कई विद्वानों के अनुसार पूर्णिमा (पूर्ण चंद्रदिवस) को भी कोई कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए। कोई भी कार्य 1, 4, 8, 9 और 14 तिथियों तथा अमावस्या को प्रारंभ नहीं करना चाहिए, क्योंकि निम्नलिखित कुप्रभाव सुनिश्चित है- प्रतिपदा (1) - निर्धनता। चतुर्थी (4) - धन हानि। अष्टमी (8) - उन्नति में बाधा नवमी (9) - फसल में हानि और दुःख। चतुर्दशी (14) - महिलाओं के लिए हानिकारक व निराशा। कुछ विद्वानों का सुझाव है कि अपरिहार्य परिस्थितियों में कृष्ण पक्ष की द्वितीया (2), तृतीया (3), पंचमी (5) ठीक-ठाक माने जाते हैं। लग्नोदय : वृषभ, मिथुन, वृश्चिक, कुंभ - शुभ। मेष, कर्क, तुला, मकर - मध्यम। सिंह, कन्या, धनु, मीन - इन लग्नों से बचना चाहिए। दिवस : सोमवार - प्रसन्नता और समृद्धि दायक। बुधवार - प्रसन्नतादायक। बृहस्पतिवार - दीर्घ आयु, प्रसन्नता और सुसंतानदायक। शुक्रवार - मन की शांति, उन्नति और समृद्धि देने वाला होता है। रविवार, मंगलवार और शनिवार से बचना चाहिए, क्योंकि इनके परिणाम अच्छे नहीं होते हैं। परंतु राजस्थान में सभी शुभ कार्यों हेतु शनिवार (स्थिर वार) शुभ माना गया है। नक्षत्र : रोहिणी, मृगशिरा उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, रेवती, अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, श्रवण भी कुछ विद्वानों के द्वारा शुभ माने गये हैं। दक्षिण भारत में कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा, पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद से बचने की सलाह दी जाती है। योग : प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, ध्रुव, सिद्ध, शिव, साध्य, शुभ, इंद्र, ब्रह्मा शुभ माने जाते हैं। लेकिन दक्षिण भारत में विशेषकर तमिलभाषी प्रदेश में मात्र तीन योग ही माने जाते हैं। अमृत योग - अति उत्तम सिद्ध योग - शुभ। मृत्यु योग - बहुत बुरा। इससे हर हालत में बचना चाहिए। करण : बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज शुभ माने जाते हैं। अन्य : इन चीजों के अतिरिक्त आय, व्यय के अंश भी देखने चाहिए। अग्नि नक्षत्र (भरणी चतुर्थ चरण से रोहिणी द्वितीय चरण तक) पूर्णतः वर्जित हैं। जिस वर्ष माघ माह में महाकुंभ मेला (उत्तर में, इलाहाबाद में) (12 वर्ष में एक बार) और कुंभ कोणम (तमिलनाडु के तंजोर जिले में) आता है, उससे बचना चाहिए। निर्माण - कार्य प्रारंभ करने के लिए मलमास निषिद्ध है। शुभ होरा भी देखना चाहिए और निर्माण के समय, अच्छे या बुरे, शकुनों पर भी ध्यान देना चाहिए। भूमि-चयन दोष का भी ध्यान रखना चाहिए और इससे बचना चाहिए। इस संदर्भ में कुछ बिंदु ध्यान रखने योग्य हैं- प्रायः किसी भी कार्य में शनिवार निषिद्ध है। परंतु निर्माण आरंभ करने हेतु स्वाति नक्षत्र, सिंह लग्न, शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि, श्रावण मास में शुभ योग के साथ शनिवार सर्वोत्तम, शुभ व सौभाग्यशाली माना जाता है। यह मालिक और उसके परिवारजनों के लिए गाड़ी, धन-लाभ और समृद्धि दायक होगा। जब तक उपर्युक्त भाग्यशाली तालमेल न हो तब तक प्राय सिंह लग्न से बचना चाहिए। मिट्टी की खुदाई प्रारंभ करने, शिलान्यास करने, निर्माण प्रारंभ करने और गृह प्रवेश या भवन का प्रतिष्ठान करने के लिए शुभ मुहूर्त अति आवश्यक है। बिना उचित मुहूर्त के प्रारंभ किया गया भवन निर्माण कार्य आगे नहीं बढ़ता। अनेक प्रकार की बाधाएं अकस्मात् आ जाती हैं और कार्य आधा-अधूरा छोड़ना पड़ता है, जिससे मानसिक संताप, आर्थिक हानि और अन्य कई समस्याएं होती हैं। इसलिए हम यदि अच्छे मुहूर्त यानी वास्तु-पुरुष की जागृत-अवस्था में कार्य प्रारंभ करें तो वास्तु या अन्य किसी दोष का निवारण स्वतः ही हो जाता है। जब किसी महीने में वास्तु-पुरुष चौबीस घंटे सो रहे हों तो कोई भी निर्माण कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए।
Wednesday, 16 March 2016
Monday, 14 March 2016
विवाह विलंब में महत्वपूर्ण ग्रह शनि
सप्तम भावस्थ प्रत्येक ग्रह अपने स्वभावानुसार जातक-जातका के जीवन मंे अलग-अलग फल प्रदान करता है। वैसे तो जन्मकुंडली का प्रत्येक भाव का अपना विशिष्ट महत्व है, किंतु सप्तम भाव जन्मांग का केंद्रवर्ती भाव है, जिसके एक ओर शत्रु भाव और दूसरी ओर मृत्यु भाव स्थित है। जीवन के दो निर्मम सत्यों के मध्य यह रागानुराग वाला भाव सदैव जाग्रत व सक्रिय रहता है। पराशर ऋषि के अनुसार इस भाव से जीवन साथी, विवाह, यौना चरण और संपत्ति का विचार करना चाहिए। सप्तम भावस्थ शनि के फल: आमयेन बल हीनतां गतो हीनवृत्रिजनचित्त संस्थितिः। कामिनीभवनधान्यदुःखितः कामिनीभवनगे शनैश्चरै।। अर्थात सप्तम भाव में शनि हो, तो जातक आपरोग से निर्बल, नीचवृत्ति, निम्न लोगों की संगति, पत्नी व धान्य से दुखी रहता है। विवाह के संदर्भ में शनि की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि आकाश मंडल के नवग्रहों में शनि अत्यंत मंदगति से भ्रमण करने वाला ग्रह है। वैसे सप्तम भाव में शनि बली होता है, किंतु सिद्धांत व अनुभव के अनुसार केंद्रस्थ क्रूर ग्रह अशुभ फल ही प्रदान करते हैं। जातक का जीवन रहस्यमय होता है। हजारों जन्म पत्रियों के अध्ययन, मनन, चिंतन से यह बात सामने आई है कि सप्तम भावस्थ शनि के प्रभाव से कन्या का विवाह आयु के 32 वें वर्ष से 39 वें वर्ष के मध्य ही हो पाया। कहीं-कहीं तो कन्या की आयु 42, 43 भी पार कर जाती है। जन्म-पत्री में विष कन्या योग, पुनर्विवाह योग, वन्ध्यत्व योग, चरित्रहनन योग, अल्पायु योग, वैधव्य योग, तलाक योग, कैंसर योग या दुर्घटना योग आदि का ज्ञान शनि की स्थिति से ही प्राप्त होता है। मेरे विचार में पूर्व जन्म-कृत दोष के आधार पर ही जातक-जातका की जन्मकुंडली में शनि सप्तम भावस्थ होता है। इस तरह शनि हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का ज्ञान करा ही देता है एवं दंडस्वरूप इस जन्म में विवाह-विलंब व विवाह प्रतिबंध योग, संन्यास-योग तक देता है। शनि सप्तम भाव में यदि अन्य ग्रहों के दूषित प्रभाव में अधिक हो, ता जातक अपने से उम्र में बड़ी विवाहिता विधवा या पति से संबंध विच्छेद कर लेने वाली पत्नी से रागानुराग का प्रगाढ़ संबंध रखेगा। ऐसे जातक का दृष्टिकोण पत्नी के प्रति पूज्य व सम्मानजनक न होकर भोगवादी होगा। शनि सप्तम भाव में सूर्य से युति बनाए, तो विवाह बाधा आती है और विवाह होने पर दोनों के बीच अंतर्कलह, विचारों में अंतर होता है। शनि व चंद्र सप्तमस्थ हों, तो यह स्थिति घातक होती है। जातक स्वेच्छाचारी और अन्य स्त्री की ओर आसक्त होता है। पत्नी से उसका मोह टूट जाता है। शनि और राहु सप्तमस्थ हों, तो जातक दुखी होता है और इस स्थिति से द्विभार्या-योग निर्मित होता है। वह स्त्री जाति से अपमानित होता है। शनि, मंगल व केतु जातक को अविवेकी और पशुवत् बनाते हैं। और यदि शुक्र भी सह-संस्थित हो, तो पति पत्नी दोनों का चारित्रिक पतन हो जाता है। जातक पूर्णतया स्वेच्छाचारी हो जाता है। आशय यह कि सप्तम भावस्थ शनि के साथ राहु, केतु, सूर्य, मंगल और शुक्र का संयोग हो, तो जातक का जीवन यंत्रणाओं के चक्रव्यूह में उलझ ही जाता है। सप्तमस्थ शनि के तुला, मकर या कुंभ राशिगत होने से शश योग निर्मित होता है। और जातक उच्च पद प्रतिष्ठित होकर भी चारित्रिक दोष से बच नहीं पाता। सप्तम भावस्थ शनि किसी भी प्रकार से शुभ फल नहीं देता। विवाह विलंब में शनि की विशिष्ट भूमिका: ू शनि व सूर्य की युति यदि लग्न या सप्तम में हो, तो विवाह में बाधा आती है। विलंब होता है और यदि अन्य क्रूर ग्रहों का प्रभाव भी हो, तो विवाह नहीं होता। ू सप्तम में शनि व लग्न में सूर्य हो, तो विवाह में विलंब होता है। ू कन्या की जन्मपत्री में शनि, सूर्य या चंद्र से युत या दृष्ट होकर लग्न या सप्तम में संस्थित हो, तो विवाह नहीं होगा। ू शनि लग्नस्थ हो और चंद्र सप्तम में हो, तो विवाह टूट जाएगा अथवा विवाह में विलंब होगा। ू शनि व चंद्र की युति सप्तम में हो या नवमांश चक्र में या यदि दोनों सप्तमस्थ हों, तो विवाह में बाधा आएगी। ू शनि लग्नस्थ हो और चंद्र सप्तमेश हो और दोनों परस्पर दृष्टि-निक्षेप करें, तो विवाह में विलंब होगा। यह योग कर्क व मकर लग्न की जन्मकुंडली में संभव है। ू शनि लग्नस्थ और सूर्य सप्तमस्थ हो तथा सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। ू शनि की दृष्टि सूर्य या चंद्र पर हो एवं शुक्र भी प्रभावित हो, तो विवाह विलंब से होगा। ू शनि लग्न से द्वादश हो व सूर्य द्वितीयेश हो तो, लग्न निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। ू इसी तरह शनि षष्ठस्थ और सूर्य अष्टमस्थ हो तथा सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। ू लग्न सप्तम भाव या सप्तमेश पापकर्तरि योग के मध्य आते हैं तो विवाह में विलंब बहुत होगा। ू शनि सप्तम में राहु के साथ अथवा लग्न में राहु के साथ हो और पति-पत्नी स्थान पर संयुक्त दृष्टि पड़े, तो विवाह वृद्धावस्था में होगा। अन्य क्रूर ग्रह भी साथ हांे, तो विवाह नहीं होगा। ू शनि व राहु कि युति हो, सप्तमेश व शुक्र निर्बल हों तथा दोनों पर उन दोनों ग्रहों की दृष्टि हो, तो विवाह 50 वर्ष की आयु में होता है। ू सप्तमेश नीच का हो और शुक्र अष्टम में हो, तो उस स्थिति में भी विवाह वृद्धावस्था में होता है। यदि संयोग से इस अवस्था के पहले हो भी जाए तो पत्नी साथ छोड़ देती है। समाधान ू शनिवार का व्रत विधि-विधान पूर्वक रखें। शनि मंदिर में शनिदेव का तेल से अभिषेक करें व शनि से संबंधित वस्तुएं अर्पित करें। ू अक्षय तृतीया के दिन सौभाग्याकांक्षिणी कन्याओं को व्रत रखना चाहिए। रोहिणी नक्षत्र व सोमवार को अक्षय तृतीया पड़े, तो महा शुभ फलदायक मानी जाती है। इस दिन का दान व पुण्य अत्यंत फलप्रद होते हैं। यदि अक्षय तृतीया शनिवार को पड़े, तो जिन कन्याओं की कुंडली में शनि दोष हो, उन्हें इस दिन शनि स्तोत्र और श्री सूक्त का पाठ 11 बार करना चाहिए, विवाह बाधा दूर होगी। यह पर्व बैसाख शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन प्रतीक के रूप में गुड्डे-गुड़ियों का विवाह किया जाता है ताकि कुंआरी कन्याओं का विवाह निर्विघ्न संपन्न हो सके। ू शनिवार को छाया दान करना चाहिए। ू दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ नित्य करें। ू शनिदेव के गुरु शिव हैं। अतः शिव की उपासना से प्रतिकूल शनि अनुकूल होते हैं, प्रसन्न होते हैं। शिव को प्रसन्न करने हेतु 16 सोमवार व्रत विधान से करें व निम्न मंत्र का जप (11 माला) करें: ‘‘नमः शिवाय’’ मंत्र का जप शिवजी के मंदिर में या घर में शिव की तस्वीर के समक्ष करें। ू हनुमान जी की पूजा उपासना से भी शनिदेव प्रसन्न व अनुकूल होते हैं क्योंकि हनुमान जी ने रावण की कैद से शनि को मुक्त किया था। शनिदेव ने हनुमान जी को वरदान दिया था कि जो आपकी उपासना करेगा, उस पर मैं प्रसन्न होऊंगा। ू सूर्य उपासना भी शनि के कोप को शांत करती है क्योंकि सूर्य शनि के पिता हैं। अतः सूर्य को सूर्य मंत्र या सूर्य-गायत्री मंत्र के साथ नित्य प्रातः जल का अघ्र्य दें। ू शनि व सूर्य की युति सप्तम भाव में हो, तो आदित्य-हृदय स्तोत्र का पाठ करें। ू जिनका जन्म शनिवार, अमावस्या, शनीचरी अमावस्या को या शनि के नक्षत्र में हुआ हो, उन्हें शनि के 10 निम्नलिखित नामों का जप 21 बार नित्य प्रातः व सायं करना चाहिए, विवाह बाधाएं दूर होंगी। कोणस्थः पिंगलो बभू्रः कृष्णो रौद्रान्तको यमः। सौरि शनैश्चरो मंदः पिप्पलादेव संस्तुतः।। ू हरितालिका व्रतानुष्ठान: जिनके जन्मांग में शनि व मंगल की युति हो, उन्हें यह व्रतानुष्ठान अवश्य करना चाहिए। इस दिन कन्याएं ‘‘पार्वती मंगल स्तोत्र’’ का पाठ रात्रि जागरण के समय 21 बार करें। साथ ही शनि के निम्नलिखित पौराणिक मंत्र का जप जितना संभव हो, करें विवाह शीघ्र होगा। ‘‘नीलांजन समाभासं, रविपुत्रं यामाग्रजं। छायामार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।’’ ू शनिवार को पीपल के वृक्ष को मीठा जल चढ़ाएं व 7 बार परिक्रमा करें। ू शनिवार को काली गाय व कौओं को मीठी रोटी और बंदरों को लड्डू खिलाएं। ू सुपात्र, दीन-दुखी, अपाहिज भिखारी को काले वस्त्र, उड़द, तेल और दैनिक जीवन में काम आने वाले बरतन दान दें। ू शुक्रवार की रात को काले गुड़ के घोल में चने भिगाएं। शनिवार की प्रातः उन्हें काले कपड़े में बांधकर सात बार सिर से उतार कर बहते जल में बहाएं। ू बिच्छू की बूटी अथवा शमी की जड़ श्रवण नक्षत्र में शनिवार को प्राप्त करें व काले रंग के धागे में दायें हाथ में बांधें। ू शनि मंत्र की सिद्धि हेतु सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण के दिन शनि मंत्र का जप करें। फिर मंत्र को अष्टगंधयुक्त काली स्याही से कागज पर लिख कर किसी ताबीज में बंद कर काले धागे में गले में पहनें। ू व्रतों की साधना कठिन लगे, तो शनि पीड़ित लोगों को शनि चालीसा, ‘‘शनि स्तवराज’’ अथवा राजा दशरथ द्वारा रचित ‘‘शनि पीड़ा हरण स्तोत्र’’ का पाठ नित्य करना चाहिए। ू बहुत पुराने काले गुड़ के घोल म उड़द और आटे को गूंधकर थोड़े से काले तिल मिलाएं और 23 शनिवार तक प्रति शनिवार आटे की 23 गोलियां बनाएं। गोलियां बनाते समय निम्नलिखित मंत्र जपें। अनुष्ठान पूरा हो जाने के बाद इन मीठी गोलियों को बहते जल में प्रवाहित करें। ¬ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’’ ू विवाह में आने वाली बाधा को दूर करने हेतु शनि के दस नामों के साथ जातक को शनि पत्नी के नामों का पाठ करना चाहिए। ‘‘ध्वजिनी धामिनी चैव कंकाली कलह प्रिया। कंटकी कलही चाऽपि महिषी, तुरंगमा अजा।। नामानि शनिमार्यायाः नित्यंजपति यः पुमान तस्य दुःखनि तश्यन्ति सुखमसौभाग्यमेधते। शनि मंत्र: (1) ¬ ऐं ह्रीं श्रीं शनैश्चराय। ;2द्ध ¬ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः ;3द्ध ¬ शं शनैश्चराय नमः जप संख्या 23 हजार ;4द्ध ¬ नमो भगवते शनैश्चराय सूर्य पुत्राय नम ¬। पौराणिक मंत्र (जप संख्या 92 हजार) ¬ शन्नोदेवीरभिष्टयआपो भवंतु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तुनः ¬ शनैश्चराय नमः ;महामंत्राद्ध शनि प्रतिमा के समक्ष शनि पीड़ानुसार उक्त किसी एक मंत्रा का 23 हजार बार जप करें। शनि का दान: लोहा, उड़द दाल, काला वस्त्र, काली गाय, काली भैंस, कृष्ण वर्ण पुष्प, नीलम, तिल कटैला, नीली दक्षिणा आदि। यदि किसी भी प्रकार विवाह नहीं हो पा रहा हो, तो इस अनुभूत उपाय को अपनाएं। कार्तिक मास की देव-उठनी एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) के दिन तुलसी और शालिग्राम का विवाह किया जाता है, यह शास्त्र में वर्णित है। कहीं-कहीं यह विवाह बड़ी धूम-धाम से किया जाता है। इस दिन कन्याएं सौभाग्य कामना हेतु व्रत लें। तुलसी-शालिग्राम के विवाह के पूर्व गौरी गणपति का आह्वान और षोडशोपचार पूजन कर कुंआरी कन्याओं को चाहिए कि तुलसी माता को हल्दी और तेल चढ़ाएं। माता एवं शालिग्राम जी को कंकण बांध, मौर बांध, विवाह गांठ बांधें व तुलसी माता का सोलह शृंगार करें। पंचफल एवं मिष्टान्न से तुलसी माता की विधिवत् गोद भराई करें। पंडित के द्वारा विवाह मंत्रोच्चारण के साथ पूर्ण विवाह की रस्म निभाएं। ल् आकार की हल्दी में सात बार कच्चा धागा लपेट कर, एक सुपारी और सवा रुपया सहित लेकर बायें हाथ की मुट्ठी में कन्या रखे व दायें हाथ में 108 भीगे हरे चने रखे। सोलह शृंगारित तुलसी माता सहित शालिग्राम की परिक्रमा मंत्र सहित 108 बार करे एवं हर परिक्रमा में एक चना तुलसी माता की जड़ में अर्पण करती चले। माता तुम जैसी हरी-भरी हो, हमें भी हरा-भरा कर दो, हमें एक से दो कर दो की मनोकामना के साथ परिक्रमा करें। इसके बाद बायें हाथ में पकड़ी हल्दी, सुपारी और रुपया तुलसी की जड़ में दबा दे। सौभाग्य कामना से हल्दी में लपेटा गया कच्चा सूत कन्या को दाहिने हाथ में बंधाना चाहिए। उस दिन कन्या सिर्फ जल ग्रहण कर। चबाने वाली चीजें न खाएं। शृंगार की वस्तुएं कन्या स्वयं पहने, जो तुलसी को अपर्ण की थीं। विवाह संस्कार में हल्दी-रस्म के समय ल् आकार की जो हल्दी तुलसी की जड़ में दबाई गई थी, उसे सर्वप्रथम गणेश जी को अर्पण करें और सिर्फ कन्या को ही लगाई जाए। इसे ‘‘सौभाग्य कामना हल्दी’’ कहते हैं। अंततः शनि पीड़ित व्यक्ति को शनि उपासना करनी चाहिए किंतु जिनका शनि शुभ है एवं शनि दशा, अंतर्दशा, साढ़ेसाती, ढैया आदि नहीं चल रहे हों उन्हें भी शनिदेव की आराधना उपासना करते रहनी चाहिए। सुंदर, सुनहरे भविष्य हेतु शनि की आराधना उपासना-मंत्र पाठ अवश्य करें।
आयुनिर्णय का निर्धारण
आयु-निर्णय: भारतीय ज्योतिष में ‘आयुनिर्णय’ को आत्मतत्व एवं जीवन के घटनाचक्र के ज्ञान को शरीर माना गया है। जैसे आत्मा के बिना शरीर अनुपयोगी एवं व्यर्थ होता है - ठीक उसी प्रकार आयु के ज्ञान के बिना जीवन के घटनाचक्र का ज्ञान अनुपयोगी एवं व्यर्थ है। वस्तुतः जब तक आयु है, तभी तक जीवन की सत्ता है और तभी तक जीवन के घटनाचक्र में गतिशीलता है। आयु की समाप्ति के साथ ही जीवन एवं उसका घटनाचक्र दोनों ही स्तब्ध हो जाते हैं और अपने पूर्ण-विराम पर पहुंच जाते हैं। जीवन के घटनाक्रम की जानकारी में आयु की इस सापेक्षता को ध्यान में रखकर हमारे आचार्यों ने फलादेश करने से पहले आयु की भलीभांति परीक्षा करने का निर्देश दिया है।1 ‘‘आयुः पूर्वं परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमादिशेत्। अनायुषां तु मत्र्यानां लक्षणैः किं प्रयोजनम्।।’’ प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए जीव को जितना समय मिलता है वह उसकी आयु कहलाती है। यह समय जन्म से लेकर मृत्यु तक की कालावधि होती है और वह प्रारब्ध कर्मों के प्रभाववश कभी छोटी तथा कभी बड़ी होती रहती है। जीवन एवं मृत्यु एक गूढ़ पहेली या ऐसी जटिल गुत्थी हैं, जिसका समाधान आज तक ज्ञान एवं विज्ञान की किसी विद्या द्वारा नहीं हो पाया है। चाहे धीर एवं गंभीर चिंतन करने वाले दार्शनिक हों या प्रयोग एवं प्रविधि के विशेषज्ञ, वैज्ञानिक हों अथवा अरबों-खरबों डालर खर्च कर मेडीकल विज्ञान में शोध एवं विकास करने वाले चिकित्सा शास्त्री हों- सभी जीवन एवं मृत्यु के रहस्य के सामने विस्मित, स्तब्ध एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता के भाव से खड़े दिखलाई पड़ते हैं। इस विषय में एक नोबल पुरस्कार विजेता जैनिटिक इंजीनियर का कहना है कि - ‘‘रोग की चिकित्सा तो किसी न किसी प्रकार से संभव है किंतु मृत्यु की चिकित्सा को छोड़िए उसका पूर्वानुमान करना ही टेढ़ी खीर है।’’ यह टेढ़ी खीर तब है जब भारतीय चिंतनधारा के दो प्रमुख वादों-कर्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद को अस्वीकार कर दिया जाता है। यदि इन दोनों को स्वीकार कर लिया जाए तो जीवन-मृत्यु के रहस्य को जाना एवं पहचाना जा सकता है। यही कारण है कि वैदिक दर्शन के उक्त दोनों वादों और उनके सिद्धांतों के आधार पर ज्योतिष शास्त्र के प्रणेता पराशर एवं जैमिनी जैसे ऋषियों तथा मय यवन, मणित्थ, शक्ति, जीवशर्मा, सत्याचार्य, वराहमिहिर एवं मंत्रेश्वर आदि आचार्यों ने आयुनिर्णय के आधारभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन कर जीवन एवं मृत्यु के रहस्य को अनावृत करने का सार्थक प्रयास किया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के मनीषियों का कहना है कि हमें जन्मकाल का ज्ञान होता है। यदि किसी प्रकार मृत्युकाल का ज्ञान हो जाए तो आयु का ठीक-ठीक प्रकार से ज्ञान/निर्धारण हो सकता है। एतदर्थ हमारे ऋषियों एवं आचार्यों ने योग एवं दशा इन दो प्रविधियों का विकास किया। ज्योतिष शास्त्र में आयु का निर्णय योग एवं दशा-इन दो के आधार पर किया जाता है। विविध योगों के द्वारा निर्णीत आयु को योगायु तथा मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा के आधार पर निर्णीत आयु को दशायु कहते हैं।2 योगायु योगायु का निर्णय मुख्यतया निम्नलिखित छः3 प्रकार के योगों से होता है। 1. सद्योरिष्ट योग, 2. बालारिष्ट योग, 3. अल्पायु योग, 4. मध्यमायु योग, 5. दीर्घायु योग, 6. अमितायु योग इन छः प्रकार के योगों में से अल्पायु, मध्यमायु एवं दीर्घायु-ये तीनों योग आयु का निर्णय करने के लिए मारकेश ग्रहों की दशा की सापेक्षता रखते हैं जबकि सद्योरिष्ट, बालारिष्ट एवं अमितायु योग मारकेश ग्रहों की दशा की अपेक्षा नहीं रखते क्योंकि सद्योरिष्ट एवं बालारिष्ट योगों में मृत्युकाल का निर्णय गोचर के अनुसार किया जाता है। अमितायु योग में आयु का विचार ही नहीं किया जाता क्योंकि इस योग में ‘‘जीवेम शरदः शतम्’’ इस जिजीविषा की पूर्ति हो जाती है। यही कारण है कि अधिकतम आचार्यों ने 12 वर्षों तक आयु का निर्णय करने का निषेध किया है।4 अल्पायु, मध्यमायु एवं दीर्घायु योगों में आयु की न्यूनतम एवं अधिकतम अवधियों में काफी अंतर रहता है। यथा-अल्पायु योग में आयु की अवधि 13 वर्ष से 32 वर्ष तक, मध्यमायु में 33 वर्ष से 65 वर्ष तक और दीर्घायु योग में अवधि 66 वर्ष से 100 वर्ष तक होती है। आयु की अवधि में 20 से 35 वष का अंतर होने के कारण आयु का स्पष्टीकरण तथा मारकेश ग्रह की दशा के आधार पर निर्धारण किया जाता है। आयु का स्पष्टीकरण: अल्पायु आदि योगों से मनुष्य की आयु की स्थूल जानकारी मिलने के कारण महर्षि पराशर एवं उनके बाद में मय, यवन, मणित्थ, शक्ति, जीवशर्मा, सत्याचार्य, वराहमिहिर एवं कल्याण वर्मा आदि आचार्यों ने सूक्ष्मता के लिए आयु का स्पष्टीकरण करने की अनेक विधियों का प्रतिपादन एवं उपयोग किया है जिनमें प्रमुख हैं - 1. अंशायु, 2. निसर्गायु 3. पिंडायु एवं 4. लग्नायु । इन रीतियों में से किस व्यक्ति की आयु का स्पष्टीकरण किस रीति से किया जाए? इस प्रश्न का समाधान करते हुए महर्षि पराशर ने बतलाया है कि - ‘‘जातक की जन्म कुंडली में लग्नेश, चंद्रमा एवं सूर्य इन तीनों में यदि लग्नेश बली हो तो अंशायु द्वारा, यदि चंद्रमा बली हो तो निसर्गायु द्वारा और यदि सूर्य बली हो तो पिंडायु की रीति से आयु का स्पष्टीकरण करना चाहिए।5 यदि इन तीनों में दो का बल समान हो तो दोनों का आयुर्दाय निकालकर आधा कर लेना चाहिए और यदि इन तीनों का बल समान हो तो तीनों रीतियों से आयुर्दाय निकाल कर उसके योग का तृतीयांश कर लेना चाहिए।6 प्राचीन आचार्यों में केवल वृहत्पाराशर होराशास्त्र में योगायु का निर्णय निम्नलिखित सात प्रकार के योगों से किया जाता है।7 1. बालारिष्ट योग, 2. योगारिष्ट, 3. अल्पायु योग, 4. मध्यमायु योग, 5. दीर्घायु योग, 6. दिव्यायु योग, 7. अमितायु योग बालारिष्ट योग में जातक की अधिकतम आयु 8 वर्ष, योगारिष्ट में अधिकतम आयु 20 वर्ष, अल्पायु योग में अधिकतम आयु 30 वर्ष, मध्यमायु योग में अधिकतम आयु 64 वर्ष, दीर्घायु योग में अधिकतम आयु 100 वर्ष, दिव्यायु योग में अधिकतम आयु 1000 वर्ष और अमितायु योग में अधिकतम आयु की कोई सीमा नहीं बतलायी गयी।8 समस्त जातक ग्रंथों के परिप्रेक्ष्य में व्यावहारिक एवं सामयिक दृष्टि से विचार किया जाए तो बालारिष्ट एवं योगारिष्ट के स्थान पर सधोरिष्ट एवं बालारिष्ट को आधार मानना बहुसम्मत पक्ष है क्योंकि होरा शास्त्र के आचार्यों ने प्रायः ऐसा ही वर्गीकरण किया है। इसी प्रकार दिव्यायु एवं अमितायु योग जो अपवाद योग हैं को एक ही वर्ग में रखना व्यावहारिक है क्योंकि जन-जीवन में इनका बहुधा उपयोग नहीं हो पाता। अतः समसामयिक दृष्टि से योगों का उक्त छः वर्गों में वर्गीकरण करना अधिक व्यावहारिक है। इस वर्गीकरण में सद्योरिष्ट योग में जातक की अधिकतम आयु 1 वर्ष, बालारिष्ट योग में अधिकतम आयु 12 वर्ष, अल्पायु योग में अधिकतम आयु 32 वर्ष, मध्यमायु योग में अधिकतम आयु 64 वर्ष, दीर्घायु योग में अधिकतम आयु 100 वर्ष तथा अमितायु योग में अधिकतम आयु की सीमा निर्धारित नहीं है।9 इस योग में आयु की न्यूनतम सीमा 100 वर्ष मानी जा सकती है। सत्याचार्य ऐसे विद्वान हैं जिन्होंने आयुदार्य के स्पष्टीकरण के लिए केवल लग्नायु की रीति को ही प्रामाणिक माना है। एकरूपता ही प्रमाण है आयु-निर्णय के प्रसंग में विविध योगों एवं स्पष्टीकरण की रीति से निर्णीत आयु में एकरूपता होने पर उसे प्रामाणिक माना जाता है। यदि योगों के द्वारा और स्पष्टीकरण के द्वारा निर्णीत आयु के मान में एकरूपता न हो तो मारकेश ग्रहों की दशा के आधार पर आयु का निर्णय करना चाहिए। इस प्रकार योग एवं स्पष्टीकरण से मृत्यु का संभावना काल और मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा से मृत्युकाल का निर्धारण होता है। आयु का निर्णय करते समय यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए कि यहां संवाद अर्थात एकरूपता को ही प्रमाण माना जाता है। तात्पर्य यह है कि विविध रीतियों से प्राप्त आयु के परिणाम में एकरूपता ही उसे प्रामाणिक सिद्ध करती है। मृत्यु का ज्ञान एक रहस्य या गूढ़ पहेली है जिसका हल खोजने के लिए जैमिनी एवं पराशर जैसे ऋषियों ने तथा मय, यवन, मणित्थ, शक्ति, जीवशर्मा, सत्याचार्य, वराहमिहिर, कल्याण वर्मा एवं मंत्रेश्वर जैसे मनीषी आचार्यों ने अनेक उपयोगी एवं सुमान्य रीतियों का आविष्कार एवं विकास किया है। इन रीतियों की विविधता के कारण कभी-कभी परिणाम में विविधता दिखलाई पड़ती है। ऐसी स्थिति में यदि एकरूपता संभव न हो तो बहुसम्मत पक्ष को ही प्रामाणिक मानना चाहिए। आयुनिर्णय की दार्शनिक पृष्ठभूमि योगायु एवं अंशायु आदि के स्पष्टीकरण का आधार जन्मकालीन ग्रह स्थिति होती है जो जन्मांतरों के संचित कर्मों के फल की सूचक होती है। ज्योतिष शास्त्र में संचित प्रारब्ध एवं क्रियमाण कर्मों के फल को जानने के लिए तीन पद्धतियां विकसित की गयी हैं जिन्हें योग, दशा एवं गोचर कहते हैं। इस शास्त्र में संचित कर्मों के फल की जानकारी जन्मकालीन ग्रह स्थिति या ग्रह योगों के द्वारा की जाती है जबकि प्रारब्ध कर्मों का फल ग्रहदशा द्वारा तथा क्रियमाण कर्मों का फल गोचर द्वारा किया जाता है। जन्मांतरों में किये गये विविध कर्मों के संकलित भंडार को संचित कहते हैं। कर्मों की विविधता के कारण संचित के फलों में विविधता होती है और इसी विविधता के कारण समस्त संचित कर्मों के फलों को एक साथ भोगा नहीं जा सकता। क्योंकि कर्मों की विविधता के परिणामस्वरूप मिलने वाले फल भी परस्पर विरोधी होते हैं अतः इनको एक के बाद एक के क्रम से भोगना पड़ता है। वर्तमान जीवन में हमको संचित कर्मों में से जितने कर्मों का फल भोगना है; केवल उतने ही कर्मों के फल को प्रारब्ध कहते हैं। इन प्रारब्ध कर्मों के फल का ज्ञान दशा के द्वारा होता है। इस जीवन में जो कर्म हम कर रहे हैं या जिन कर्मों को भविष्य में किया जाएगा वे सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं और उनके फल का विचार गोचर की रीति से किया जाता है। आयुर्दाय के प्रसंग में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि योगों के द्वारा निर्णीत आयु में तथा अंशायु आदि के द्वारा स्पष्टीकरण के परिणाम में एकरूपता क्यों नहीं होती जबकि आयु निर्णय में एकरूपता को प्रमाण माना जाता है। इसका कारण यह है कि योगायु एवं अंशायु आदि का आधार संचित कर्म हैं क्योंकि इन दोनों का विचार जन्मकालीन ग्रह स्थिति के आधार पर होता है जो संचित कर्म की सूचक होती है। चूंकि संचित कर्म परस्पर विरोधी होते हैं इसलिए योगायु एवं अंशायु आदि के परिणामों में एकरूपता नहीं होती। जैसे काली मिट्टी से काला घड़ा, लाल मिट्टी से लाल घड़ा, पीली मिट्टी से पीला घड़ा या सफेद धागों से सफेद कपड़ा और रंगीन धागों से रंगीन कपड़ा बनता है उसी प्रकार संचित कर्मों की विविधता के कारण योगायु एवं अंशायु आदि के परिणामों में स्वाभाविक रूप से विविधता होती है। मनुष्य की आयु संचित कर्मों की अपेक्षा प्रारब्ध कर्मों पर ज्यादा आधारित होती है। क्योंकि प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने की समयावधि को आयु कहते हैं अतः उसका विचार एवं निर्णय मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा द्वारा किया जाता है। इस प्रकार निर्णीत आयु को दशायु कहते हैं। दशायु के बारे में विचार करने से पूर्व इसकी पूर्वोक्त योगों के साथ सापेक्षता एवं निरपेक्षता के बारे में कुछेक महत्वपूर्ण बातों पर विचार कर लेना आवश्यक है। पहले कहा जा चुका है कि सद्योरिष्ट, बालारिष्ट एवं अमितायु योग मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा की सापेक्षता नहीं रखते। वस्तुतः सद्योरिष्ट एवं बालारिष्ट ये दोनों योग ऐसे हैं जो न केवल जातक के पूर्वार्जित कर्मों के फल की सूचना देते हैं अपितु वे उनके माता-पिता के द्वारा किये गये अनुचित कर्मों की भी सूचना देते हैं। इसलिए इन योगों का विचार जन्मकुंडली के साथ-साथ आधान कुंडली से भी किया जाता है। किसी बालक की जन्म के बाद तुरंत या बचपन में मृत्यु का जितना महत्वपूर्ण कारण उसके पूर्वार्जित कर्मों का फल है उतना ही महत्वपूर्ण कारण उसके माता-पिता का अनुचित आचरण है। मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा माता-पिता के अनुचित आचरण पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डालती इसलिए सद्योरिष्ट एवं बालारिष्ट योगों में ग्रह दशा की सापेक्षता नहीं होती। अमितायु योग में जीवन की न्यूनतम कालावधि एक सौ वर्ष से अधिक होती है जो हमारी सौ साल तक जिएं जैसी जिजीविषा को संतुष्ट कर देती है। इस प्रकार इस योग के प्रभाववश जिजीविषा की पूर्ति एवं संतुष्टि हो जाने के कारण इस योग में भी मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा का विचार नहीं किया जाता। अल्पायु, मध्यायु एवं दीर्घायु योगों में से कतिपय योग ऐसे भी होते हैं जिनमें मृत्यु के सम्भावित वर्ष का उल्लेख रहता है किंतु अधिकांश योगों में केवल इतना बतलाया जाता है कि अमुक योग में मनुष्य की आयु मध्य या दीर्घ होगी। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि अल्पायु, मध्यायु एवं दीर्घायु की जो न्यूनतम एवं अधिकतम अवधियां बतलायी गयी हैं उनमें बीसों वर्षों का अंतर होता है, अतः इन योगों में उत्पन्न व्यक्तियों की आयु या मृत्यु की जानकारी के लिए मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा का विचार अनिवार्य भी है और अपरिहार्य भी। दशायु: होराग्रंथों में प्रतिपादित योगों के द्वारा आयु की स्थूल जानकारी करने के बाद सूक्ष्म रूप से उसका ज्ञान करने के लिए मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा का आश्रय लिया जाता है। मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा द्वारा निर्णीत आयु को दशायु कहते हैं। दशा द्वारा आयु का निर्णय करने से पहले योगों द्वारा अल्पायु, मध्यायु एवं दीर्घायु का विधिवत निश्चय कर लेना चाहिए और फिर मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा के आघार पर मृत्यु का पूर्वानुमान करना चाहिए।
Sunday, 13 March 2016
Friday, 11 March 2016
Thursday, 10 March 2016
महत्वाकांक्षी कल्पना
यह सत्य कथा है एक ऐसी कल्पना की जिसे बचपन से कल्पना लोक में विचरने का बहुत शौक था। अपने खिलौनों से खेलते हुए वह अपने कल्पना लोक में चली जाती और फिर घंटों उसी आनंद में डूबी रहती। उसके माता-पिता ने भी शायद इसीलिए उसका नाम कल्पना रखा होगा। कल्पना को बचपन में ही उसके मामा-मामी ने गोद ले लिया था क्योंकि उनकी कोई अपनी संतान नहीं थी। मामा-मामी के लाड़ प्यार में कल्पना बड़ी हुई। बचपन से ही उसे पेंटिंग का बहुत शौक था और वह कुछ न कुछ अपनी कल्पना से पन्नों पर उकेरती रहती थी और फिर उन्हें अपने कमरे में लगा देती। कल्पना के नये माता-पिता एक रूढ़िवादी परिवार से संबंधित थे और वे यही चाहते थे कि कल्पना भी उनके परिवार की परंपराओं का गंभीरता से पालन करे। वहां आस पास की परंपराओं के अनुसार आमतौर पर लड़कियों को काॅलेज में बहुत ज्यादा नहीं पढ़ाया जाता था पर कल्पना की जिद के आगे उनकी एक न चली और उसे उन्होंने वहीं के पोस्ट ग्रैजुएट काॅलेज में प्रवेश करा दिया। कल्पना सुंदर तो थी, साथ में उसकी कला क्षेत्र में रूचि ने उसे शीघ्र ही काॅलेज में बहुत लोकप्रिय बना दिया। यौवन की दहलीज पर खड़ी कल्पना भी अपनी लोकप्रियता से इतनी खुश थी कि अधिक से अधिक समय काॅलेज में बिताने लगी और उसे अपने युवा साथी का साथ भी अधिक अच्छा लगने लगा। लेकिन कल्पना की प्रेम की राह इतनी आसान नहीं थी। जैसे ही उसके माता-पिता को इस बात का पता चला उन्होंने फौरन उसे काॅलेज से निकाल कर वापिस उसके जन्मकालीन माता-पिता के पास भेज दिया। इससे कल्पना को बहुत बड़ा मानसिक आघात पहुंचा। वह अपने माता-पिता को कभी माफ नहीं कर पाई। जिन्होंने उसे अपना समझ कर पाला पोसा उन्हीं माता-पिता ने अपनी जिंदगी से तिनके की तरह निकाल फेंका। कल्पना को कई दिन तक हाॅस्पिटल में रहना पड़ा तभी वह आघात से उबर पाई। वइ इस आघात से उबर कर बाहर आई ही थी कि कुछ समय बाद एकाएक कल्पना का विवाह विवेक से कर दिया गया। विवेक एक सुशिक्षित परिवार से थे और सी. ए. कर बैंक में आॅफिसर के पद पर कार्यरत थे। विवाह के बाद कल्पना को अपने सास-ससुर से एडजस्ट करने में काफी मुश्किलंे आईं। कल्पना बहुत महत्त्वाकांक्षी थी और उसे खुला जीवन पसंद था। वह ऊंचे आकाश में अपनी कल्पना के संसार में उड़ना चाहती थी पर ससुराल का माहौल बिल्कुल अलग था। वे लोग काफी रूढ़िवादी और पुरानी परंपराओं को मानने वाले थे। सास ससुर की उपस्थिति व उनके हस्तक्षेप से कल्पना को अपना जीवन एक जेल की तरह लगता था और उसे लगता था कि वह इस पिंजरे में कैद एक पक्षी की तरह है जिसके पर काट दिये गये हैं इसलिए वह सबसे कटी-कटी रहती और अपनी सासु मां को खुश नहीं कर पाती थी। विवेक बैंक के काम से अक्सर लेट ही आते और आकर अपनी मां की बुराई सुनना पसंद नहीं करते थे। इसलिए अपनी कुंठा और मानसिक वेदना के चलते कल्पना ने कई बार स्वयं को समाप्त करने की कोशिश भी की पर समय को अभी कई करवटें और लेनी थी। इसी बीच कल्पना के दो बच्चे हो गये और समय का सदुपयोग करने के लिए कल्पना ने बी.एड और पीएच.डी भी कर ली और अपना अधिक से अधिक समय पेंटिंग को देने लगी। इससे उसको बहुत सुकून मिलता और वह यह कोशिश भी करने लगी कि वह पेन्टिंग को अपने व्यवसाय के रूप में अपना ले। लेकिन चाहकर भी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पाई। विवेक अपने काम में इतने मशगूल थे कि धीरे-धीरे एक के बाद एक प्रमोशन की सीढ़ियां चढ़ते रहे और अपने बैंक के उच्चतम पद सी. एमडी. तक पहुंच गये। कल्पना अपने पति की सफलता से बहुत खुश थी परंतु मानसिक रूप से अपने को उनसे जुड़ा नहीं पाती थी। इतना पैसा, मान-सम्मान होने के बाद भी उसके अंदर कुछ टूटता रहता था। विवेक ने सी. एम. डी. के पद पर पहुंच कर अपने दोनों सालों को अपने कुछ कामों में मिला लिया था। इस पद पर पहुंचने के लिए उसकी कबिलियत के अलावा उसे और भी बहुत कुछ करना पड़ा था और इस पद पर बने रहने के लिए भी बहुत से नैतिक अनैतिक कामों को अंजाम देना पड़ता था। कल्पना को इसका कुछ इल्म नहीं था, न ही विवेक उससे इस बारे में कुछ चर्चा करते थे और अचानक वह हुआ जिसकी उसने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। अचानक एक दिन उनके घर सीबी. आई का छापा पड़ा। विवेक घर पर नहीं थे। वह अकेली थी। उन्होंने आकर उसका फोन ले लिया और पूरे घर को उथल-पुथल कर सारा कैश, ज्वेलरी, फाइलें आदि ले गये। सभी लाॅकर सील कर दिये गये, सभी बैंक अकाउंट भी सी. बीआई ने सील कर दिये और उधर विवेक को रिश्वतखोरी के इल्जाम में धर लिया गया। कल्पना की दुनिया ही बदल गई उसके दोनों भाइयों को भी पुलिस पकड़ कर ले गई। कल्पना को पनाह देने वाला कोई भी न रहा। न जन्मकालीन माता-पिता न परवरिश करने वाले माता-पिता। सभी को अपने भविष्य की चिंता सता रही थी। ऐसे में जब कल्पना के पास कोई पैसा नहीं था और वह मानसिक और शारीरिक रूप से भी थक चुकी थी तो उसे सहारा दिया उसकी बचपन की सहेली मृदुला ने। उसने ऐसे विकट समय में उसका पूरा साथ दिया और परिस्थितियों से लड़ने की हिम्मत दी। कल्पना ने विवेक को बचाने के लिए रात दिन एक कर दिया और वास्तव में अपने पत्नी धर्म का पालन करते हुए बड़े से बड़े वकील कर विवेक और अपने भाइयों को बेल पर छुड़वा लिया। आज कल्पना अपने पति के साथ फिर से अपनी बिखरी हुई जिंदगी को संवारने में जुटी है और इसी कोशिश में है कि शीघ्र ही वे इस केस से बरी हो जाएं और कुछ ऐसा कार्य शुरू करें कि सुकून की जिंदगी जी सकें। आइये देखें क्या कहते हैं कल्पना और विवेक की कुंडलियों के सितारे? क्या अभी कोई इम्तहान बाकी है या फिर उनके अच्छे दिन आने वाले हैं?े कल्पना की कुंडली में लग्न भाव में नैसर्गिक पाप ग्रह राहु स्थित है तथा लग्न पाप कर्तरी योग से ग्रसित है। लग्नेश चंद्रमा भी अपनी नीच राशि में स्थित है। तीव्र पापकर्तरी योग होने से इनकी मानसिक शांति, आत्मविश्वास, आत्मबल तथा स्वतंत्रता को बार-बार चोट पहुंची व जीवन बहुत संपत्ति व सुविधा संपन्न होने के बावजूद भी नीरस लगने लगा तथा क्षुब्ध व उदास मन के कारण इनकी सदैव अपने घर में भी जेल जैसे जीवन की ही स्थिति बनी रही। लग्न में पापकर्तरी योग होने के अलावा राहु, केतु व शनि जैसे पाप ग्रहों का प्रभाव भी है। साथ ही लग्नेश भी नीच राशिस्थ है। न केवल आत्मबल, शारीरिक शक्ति व व्यक्तित्व का घर लग्न पीड़ित है अपितु मन का कारक राशि कर्क भी पीड़ित है और मन का कारक चंद्र लग्नेश होकर नीचराशिस्थ होने से दोहरा नुकसान कर रहा है। ऐसी स्थिति के चलते ऐसा लगता है कि उनको मानसिक शांति आसानी से सुलभ न होगी क्योंकि रिजर्व मेंटल एनर्जी का कारक गुरु भी अशुभ भाव में स्थित है। यदि वैवाहिक सुख या सोलमेट का विचार करें तो पति का कारक गुरु अशुभ भाव में स्थित है व सप्तम भाव पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव है। इसके अतिरिक्त भावात् भावम् के सिद्धांतानुसार यदि अध्ययन करें तो पाएंगे की सप्तम से सप्तम अर्थात् लग्न की स्थिति अत्यधिक अशुभ होने के कारण सप्तम भाव में स्वगृही शनि भी वैवाहिक जीवन में सामंजस्य उत्पन्न नहीं कर पाया। इनके पति की कुंडली में भी वैवाहिक जीवन के लिए शुभ योग न होने के कारण इन्हें पति की ओर से भी विशेष स्नेह व आत्मीयता प्राप्त न हो सकी और लगभग ऐसी स्थिति हो गई की ये दोनों चाहकर भी पूर्णरूपेण एक दूसरे के न हो सके। विवेक की कुंडली में नवांश में उच्चराशिस्थ शनि होने के चलते यह कह सकते हैं कि इनका तलाक नहीं होगा व वैवाहिक जीवन में स्थिरता बनी रहेगी। कल्पना की जन्मपत्री में स्वगृही शुक्र माता के घर अर्थात् चतुर्थ भाव में होने से मालव्य योग का निर्माण होने व चतुर्थ भाव पर गुरु की दृष्टि होने से इन्हें इनके मामा ने गोद लेकर बड़े नाजों से पाला। चतुर्थ भाव में शुक्र की श्रेष्ठतम स्थिति से जातक को जीवन में सुख, संपत्ति, समृद्धि, सुविधा, वाहन, गृह सुख इत्यादि किसी भी चीज की कमी नहीं रहती। ऐसे लोग कई बार गोद ले लिए जाते हैं तथा अच्छी शिक्षा व अमीरी की भी प्राप्ति होती है और विवाहोपरांत पति की निरंतर उन्नति भी होती है क्योंकि चतुर्थ भाव सप्तम भाव से दशम होता है। कल्पना की कुंडली में द्वितीयेश द्वितीयस्थ, तृतीयेश तृतीयस्थ व चतुर्थेश चतुर्थस्थ है। ऐसा योग अखंड लक्ष्मी योग समझा जाता है। चतुर्थ भाव से शिक्षा का विचार होता है। इस भाव में शुक्र अपनी मूल त्रिकोण राशि में स्थित होने से कल्पना की पेंटिंग व कला के क्षेत्र में रूचि बनी और बहुत से व्यक्ति इसकी कला से प्रभावित भी हुए परंतु कार्य क्षेत्र का स्वामी एवं पंचम भाव का प्रतिनिधि ग्रह मंगल बारहवें भाव में स्थित होने से तथा शिक्षा का कारक भाग्येश गुरु अष्टमस्थ होने से वह अपने ज्ञान व कला को व्यावसायिक रूप देने में असफल रही और कोशिश करने पर भी अपना करियर नहीं बना पाई। इनकी महत्वाकांक्षा अतृप्त रह गई तथा जीवन में व्यावसायिक दृष्टि से उच्चस्तरीय सफलताओं में बाधाएं आती रहीं और अति महत्वाकांक्षी होते हुए भी इन्हें साधारण जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ा। कल्पना की कुंडली में चार ग्रह स्वगृही हैं तथा इनके पति की कुंडली में भी तीन ग्रह स्वगृही हैं। परंतु इनके पति की कुंडली में एक भी शुभ ग्रह केंद्र में नहीं है तथा राहु, केतु केंद्रस्थ हैं। इसी कारण इन्हें अनैतिक कार्यों से परहेज नहीं है और ग्रहों की ऐसी स्थिति के चलते ही इन्हें कानूनी पचड़े में भी पड़ना पड़ा। विवेक को बुध की दशा में राहु की अंतर्दशा आने के बाद जेल की हवा भी खानी पड़ी। उस समय गोचर के शनि का द्वादश भाव में स्थित मंगल के साथ परस्पर दृष्टि योग भी चल रहा था। चतुर्थ व द्वादश भाव में पाप ग्रहों के प्रभाव से जेल योग होता है। आगे का समय कल्पना के व्यावसायिक जीवन के लिए श्रेष्ठ है। जिस तरह शनि की साढ़ेसाती ने उसके जीवन में इतनी उथल-पुथल कर दी वहीं शनि अब उसके भाग्योदय में सहायक होगा और वह अपनी पहचान कला क्षेत्र के माध्यम से बनाने में अवश्य सफल होगी।
Astakavarga
Planets of a horoscope do not and cannot act in isolation. In fact they influence one another in a variety of ways viz. conjuction , aspects , argala , ashtakavarga etc. A planet can give his result only in as much measure as the other planets would co-operate with it. In other words the native , at all times , experiences the resultant effect of all planets. The extent to which planets influence one another is a matter of qualitative judgement except in case of ashtakavarga which puts the planetary interplay into a well defined system. The books on astrology contain information about the effects of planets in different houses or signs. It is quite common to see astrologers engaged in lengthy discussions on this issue , each one trying to justify his(her) viewpoint on the basis of own study/experience. However, the fact remains that planets of a horoscope do not and cannot act in isolation. In fact they influence one another in a variety of ways viz. conjuction , aspects , argala , ashtakavarga etc. A planet can give his result only in as much measure as the other planets would co-operate with it. In other words the native , at all times , experiences the resultant effect of all planets. The extent to which planets influence one another is a matter of qualitative judgement except in case of ashtakavarga which puts the planetary interplay into a well defined system. The Classics have specified the houses of Bhinnashtakavarga(BAV) of each planet which are influenced by all planets by way of contribution of “bindus” ( benefic influence) and “rekhas “ -malefic influence. For example,in Sun’s BAV, he contributes one bindu (point) each in the first ,second , fourth , seventh. eighth , ninth , tenth and eleventh house from his own position while Moon contributes points in third ,sixth , tenth and eleventh house from her own position and so on. The Ascendant also contributes points in the specified houses of each BAV . By summing up the scores in all BAVs one gets Sarvashtakavarga (SAV) which shows the overall strengths of houses and planets. Such a “democratic approach “ is not seen in any other branch of astrology. In the classical system mentioned above each planet , irrespective of own strength , is treated as capable of exerting uniform influence by contributing one point each in the specified houses. The author feels this simplistic approach is not accurate. A stronger planet is capable of exerting greater influence, commensurate with own strength, and this should reflect in his contribution to the specified houses of ashtakavarga.
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