Wednesday, 13 April 2016

सुख और दु:ख

सुख और दु:ख का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। इनका कोई सुनिश्चित, ठोस, सर्वमान्य आधार भी नहीं है। सुख-दु:ख मनुष्य की अनुभूति के ही परिणाम हैं। उसकी मान्यता कल्पना एवं अनुभूति विशेष के ही रूप में सुख-दुख का स्वरूप बनता है। सुख-दु:ख मनुष्य के मानस पुत्र हैं ऐसा कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। मनुष्य की अपनी विशेष अनुभूतियां, मानसिक स्थिति में ही सुख-दु:ख का जन्म होता है। बाह्य परिस्थितियों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। क्योंकि जिन परिस्थितियों में एक दु:खी रहता है तो दूसरा उनमें खुशियाँ मनाता है, सुख अनुभव करता है। वस्तुत: सुख-दु:ख मनुष्य की अपनी अनुभूति के निर्णय हैं, और इन दोनों में से किसी एक के भी प्रवाह में बह जाने पर मनुष्य की स्थिति असन्तुलित एवं विचित्र-सी हो जाती है। उसके सोचने समझने तथा मूल्याँकन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। किसी भी परिस्थिति में सुख का अनुभव करके अत्यन्त प्रसन्न होना, हर्षातिरेक हो जाना तथा दु:ख के क्षणों में रोना बुद्धि के मोहित हो जाने के लक्षण हैं। इस तरह की अवस्था में सही-सही सोचने और ठीक काम करने की क्षमता नहीं रहती। मनुष्य उल्टा-सीधा सोचता है। उल्टे-सीधे काम करता है।
कई लोग व्यक्ति विशेष को अपना अत्यन्त निकटस्थ मान लेते हैं। फिर अधिकार- भावनायुक्त व्यवहार करते हैं। विविध प्रयोजनों का आदान-प्रदान होने लगता है। एक दूसरे से कुछ न कुछ अपेक्षायें रखने लगते हैं। जब तक गाड़ी भली प्रकार चलती रहती है तो लोग सुख का अनुभव करते हैं। लेकिन जब दूसरों से अपनी अपेक्षायें पूरी न हों या जैसा चाहते हैं वैसा प्रतिदान उनसे नहीं मिले तो मनुष्य दु:खी होने लगता है।
अक्सर अनुकूलताओं में सुखी और प्रतिकूलताओं में दु:खी होना हमारा स्वभाव बन गया है। उन्नति के, लाभ के, फल-प्राप्ति के क्षणों में हमें बेहद खुशी होती है तो कुछ न मिलने पर, लाभ न होने पर दु:ख भी कम नहीं होता। लेकिन इसका आधार तो स्वार्थ, प्रतिफल, लगाव अधिकार आदि की भावना है। इन्हें हटाकर देखा जाय तो सुख-दु:ख का कोई अस्तित्व ही शेष न रहेगा। दोनों ही नि:शेष हो जायेंगे।
सुख-दु:ख का सम्बन्ध मनुष्य की भावात्मक स्थिति से मुख्य है। जैसा मनुष्य का भावना स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दु:ख की अनुभूति होगी। जिनमें उदार दिव्य सद्भावनाओं का समुद्र उमड़ता रहता है, वे हर समय प्रसन्न, सुखी, आनन्दित रहते हैं। स्वयं तथा संसार और इसके पदार्थों को प्रभु का मंगलमय उपवन समझने वाले महात्माओं को पद-पद पर सुख के सिवा कुछ और रहता ही नहीं। काँटों में भी वे फलों की तरह मुस्कुराते हुए सुखी रहते हैं। कठिनाइयों में भी उनका मुँह कभी नहीं कुम्हलाता।
इसके विपरीत संकीर्णमना हीन भावना वाले, रागद्वेष से प्रेरित स्वभाव वाले व्यक्तियों को यह संसार दु:खों का सागर मालूम पड़ेगा। ऐसे व्यक्ति कभी नहीं कहेंगे कि ‘‘हम सुखी हैं।’’ वे दु:ख में ही जीते हैं और दु:ख में ही मरते हैं। दुर्भावनायें ही दु:खों की जनक है। इसी तरह वे हैं जिनका पूरा ध्यान अपनेपन पर ही है। उनका भी दु:खी रहना स्वाभाविक है। केवल अपने को सुखी देखने वाले, अपना हित, अपना लाभ चाहने वाले, अपना ही एकमात्र ध्यान रखने वाले संकीर्णमना व्यक्तियों को सदैव मनचाहे परिणाम तो मिलते नहीं। अत: अधिकतर दु:ख और रोना-धोना ही इस तरह के लोगों के पल्ले पड़ता है।
एक गुरू के शिष्यों के पास कुल मिलाकर पाँच रोटी और दो टुकड़े तरकारी निकली। गुरु ने उसे इकठ्ठा किया और मन्त्रबल से अन्नपूर्णा बना दिया। शिष्यों ने भर पेट खाया और जो भूखे भिखारी उधर से निकले वे भी उसी से तृप्त हो गये। एक शिष्य ने पूछा-गुरु वर, इतनी कम सामग्री में इतने लोगों की तृप्ति का रहस्य क्या है?
गुरू ने कहा- हे शिष्यों। धर्मात्मा वह है जो खुद की नहीं सब की बात सोचता है। अपनी बचत सबके काम आये इस विचार से ही तुम्हारी पाँच रोटी अक्षय अन्नपूर्णा बन गई। जो जोड़ते हैं वे ही भूखे रहेंगे। जिनने देना सीख लिया है उनके लिए तृप्तता के साधन आप ही आ जुटते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य का भावनास्तर सार्वभौमिक हो। अपनी सुख-दु:ख की अनुभूति का आधार जितना व्यापक होगा उतना ही मनुष्य सुख-दु:ख की मोहमयी माया से बचा रहेगा। सबके साथ सुखी रहना सबके साथ दु:खी, अर्थात् सबके सुख में अपना सुख देखना और सबके दु:ख में अपना दु:ख। इससे मनुष्य न तो सुख में पागल बनेगा न दु:ख में रोयेगा।
सर्वे भवन्तु सुखिना, सर्वे सन्तु निरमया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख माप्नुयात॥
‘‘सभी सुखी हों सभी नीरोग हों। सभी कल्याण प्राप्त करें, कोई भी दु:खी न हों।’’ इस तरह की चाह ज्यों-ज्यों बढ़ती जायगी हमारे हृदय में स्थायी सुख शान्ति सन्तोष की भी वृद्धि होगी। इसी तरह सबके दु:खों को अपनी अनुभूति का आधार बनाने वाले व्यक्ति यों के स्वयं के दु:ख, द्वन्द्व स्वत: तिरोहित हो जाते हैं। दु:ख का भार जब मनुष्य अपनी ही पीठ पर लादे फिरता है तो उसका दु:खमय रह कर दु:ख में ही अन्त होना स्वाभाविक है।
अति संवेदनशील व्यक्ति को भी सुख-दु:ख की लहरों में अधिक थपेड़े खाने पड़ते हैं। क्षण-क्षण बदलने वाले, बनने और बिगडऩे वाले पदार्थ, संयोग-वियोग जब संवेदनशील व्यक्ति के मानस को झकझोर डालते हैं तो उसे संसार दु:खमय जान पड़ता है। वस्तुत: इस तरह के व्यक्ति एक अपनी काल्पनिक दुनिया बना लेते हैं। लेकिन जब कल्पना साकार नहीं होती और दूसरे अरुचि के परिणाम मिलते हैं तो संवेदनशील व्यक्ति दु:खी होता है। संसार यथार्थ की कठोर धरती है। यहाँ सभी तरह की परिस्थितियों के झोंके आते रहते हैं। पद-पद पर प्राप्त परिस्थिति का स्वागत कर दृढ़ता के साथ आगे बढऩे वाले ही दु:ख द्वन्द्वों पर काबू पा सकते हैं।
मानव जीवन दुहरी कार्य प्रणाली का संयोग स्थल है। मनुष्य लेता है और त्याग भी करता है निरन्तर श्वास लेता है और प्रश्वास छोड़ता है। भोजन करता है किन्तु दूसरे रूप में उसका त्याग भी करता है। इस तरह धनात्मक और ऋणात्मक दोनों क्रियाओं में ही मनुष्य जीवन की वास्तविकता है। दोनों में से एक का अभाव मृत्यु है। दोनों के सम्मिलित पर्याप्त से ही जीवन पुष्ट बनता है। बिजली का ऋण और धन दोनों धारायें चलती हैं तभी प्रयोजन सिद्ध होता है। अकेली एक धारा कुछ नहीं कर सकती। इसी तरह संसार में सुख भी है और दु:ख भी। न्याय है और अन्याय भी। प्रकाश है और अन्धेरा भी। संसार सुन्दर उपवन है तो कठोर कारागार भी। जन्म के साथ मृत्यु और मृत्यु के साथ जन्म जुड़ा हुआ है। इस तरह विभिन्न धनात्मक और ऋणात्मक पक्ष मिलकर जीवन को पुष्ट करने का काम करते हैं, केवल मात्र सुख की चाह करना और दु:ख द्वन्द्वों से बचने की लालसा रखना एकांगी है। प्रकृति का नियम तो बदलता नहीं इससे उल्टे मनुष्य में भीरुता, मानसिक दुर्बलता को पोषण मिलता है मनुष्य को निराशामय चिन्ता का सामना करना पड़ता।
जो कुछ भी जीवन में प्राप्त हो जैसी भी परिस्थिति आये उसे जीवन का वरदान मानकर सन्तुष्ट और प्रसन्न रहने में कंजूसी न की जाय। वस्तुत: सुख-दु:ख, अनुकूल-प्रतिकूल, धनात्मक-ऋणात्मक परिस्थितियों में जीवन बलिष्ठ और पुष्ट होता है। इनमें से निकल कर ही मनुष्य निरामय, अनावृत और निर्मल बन सकता है। वैसे इनसे बचने का कोई रास्ता भी नहीं है। फिर क्यों नहीं हर परिस्थिति में सहज भाव में स्थिर रहा जाय? जब संसार को चलाने वाले नियम परिवर्तनशील हैं, ऋणात्मक और धनात्मक हैं तो फिर अपनी एक सी दुनिया बसाने की कल्पना या सुखों के अरमानों को पोषण क्यों दिया जाय? इससे तो दु:ख निराशा क्लान्ति ही मिलेगी। दृढ़ चट्टान की तरह जीवन में आने वाली विविध अनुकूल-प्रतिकूल हवाओं में तटस्थ भाव से सब कुछ देखते रहना और हर परिस्थिति में सन्तुष्ट रहना, सुख-दु:ख से मुक्त रहने का सरल उपाय है।
वस्तुत: सुख के सम्बन्ध में ही लोगों के विचार सही और पूर्ण नहीं होते। कई बार जिन्हें मनुष्य सुख मानकर चलता है वे ही घोर दु:ख का कारण बन जाते हैं। बहुत से लोग शारीरिक सुखों को अपना आधार मान लेते हैं। आराम करना, प्रमादी जीवन बिताने में कई लोग सुख का अनुभव करते हैं किन्तु ये विषवत् दु:खकर होते हैं-
यवग्रे चानु बन्धे च सुखं मोहनमात्मन:।
निद्रालस्य प्रमादोत्यं तत्तामसमुदाह्रतम॥
‘‘भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला, निद्रा, आलस्य, प्रमाद आदि से उत्पन्न सुख तामसी-राक्षसी कहा गया है।’’ वस्तुत: निद्रा-आलस्य-प्रमाद में जीवन बिताने से मनुष्य के मन, बुद्धि, विवेक सुप्त हो जाते हैं। इससे मनुष्य की शारीरिक मानसिक क्षमतायें भी नष्ट हो जाती हैं। और फिर जीवन के संघर्षों में से मनुष्य की क्रियाशक्ति को जंग लग जाता है। हाथ पाँव बेकार और शरीर रुग्ण हो जाता है।
कई लोग अच्छा खाना, पीना, विषय भोग में रत रहना ही सुख का आधार मान कर चलते हैं। खाओ-पीओ और मौज, सुखकर लगने वाले परिणाम में विषवत् मालूम पड़ते हैं। गीताकार ने स्पष्ट लिखा है-
विषयेन्द्रिय संयोगा द्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
पणामें विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥
‘‘विषय और इन्द्रियों के संयोग से होने वाले सुख राजसिक सुख कहलाते हैं जिनका परिणाम विष तुल्य ही होता है।’’ वस्तुत: संसार के भोगों में लिप्त रहना, विषयों में आसक्त रहना प्रारम्भ में तो सुखकर लगता है किन्तु परिणाम में मनुष्य पर हलाहल विष की तरह प्रभाव डालता है। मनुष्य तन, मन से हीन अस्वस्थ हो तड़प-तड़प कर प्राण देता है। जिस तरह पतंगा दीपक की लौ का स्पर्श-सुख प्राप्त करने की चेष्टा करके झुलस जाता है अपने पंखों से हाथ धो बैठता है और फिर तड़प-तड़प कर प्राण देता है उसी तरह विविध भोग, विषय वासना की पूर्ति पहले तो सुखकर लगती है किन्तु फिर अनेकों शारीरिक मानसिक कष्टों का कारण बन जाती है। साथ ही मनुष्य में अनेकों राजसिक भाव, अहंकार, दर्प, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा की भावना, दम्भ, विषय चिन्तन, शान शौकत आदि बढ़ जाते हैं जो सम्पूर्ण जीवन को विकारमय बना देते हैं और इनके कारण मनुष्य को अनेकों कष्टों का सामना करना पड़ता है।
साँसारिक पदार्थ, इन्द्रियाँ तथा इच्छाओं से सम्बन्ध रखने वाले सभी सुखों का अन्त दु:ख में ही होता है। क्योंकि ये सभी नाशवान, क्षणभंगुर परिवर्तनशील होते हैं। संसार और मनुष्य की परिस्थितियाँ हर क्षण बदलती हैं। आज कोई धनवान है तो कल वह निर्धन बन सकता है। आज अनुकूल परिस्थिति है तो कल प्रतिकूलताओं का भी सामना करना पड़ सकता है। आज जो पदार्थ हमें सुख देते हैं ये कल दु:खदायी बन जाते हैं। आज जो अपने हैं वे कल पराये बन जाते हैं।
हाँ, यदि सुख का कोई स्थायी आधार हो सकता है तो वह है सत्य, सनातन, सार्वभौम मानवीय चेतना। अपनी चेतना, अन्तरात्मा में मन, बुद्धि चित्त को केन्द्रित करके तटस्थ निस्पृह अनासक्त भाव से संसार को देखते रहना आत्म स्थित हो जग में अपने कार्य व्यापार करते रहना, आत्मा में ही मस्त रहना, आत्मा में ही सुखी रहना। आत्मा को देखना, आत्मा को ही सुनना, आत्मा में ही रमण करना मनुष्य को सुख-दु:ख की सीमाओं से मुक्त कर देता है।
किसी भी प्रकार के सुख की चाह के साथ दु:ख का अभिन्न साथ है। उसे तिरोहित नहीं किया जा सकता। अस्तु सुख-दु:ख की सीमा से ही परे हो जाना इसके रहस्य को जान लेना है। और यह आत्म केन्द्रित होने पर ही सम्भव है। आत्मस्थ व्यक्ति के लिए न कोई सुख होता है न कोई दु:ख। हमें सुख दु:ख की सीमा से ऊपर उठने के प्रयास प्रारम्भ कर देने चाहिए।
दु:ख मित्य्त्र दु:शब्दों दुरिते खश्च खादते,
पावसी खाद कस्त्माद दु:ख मित्यमिधियते।।
अर्थात- दु:ख में जो ‘दु:’ शब्द है वह दुरित अर्थात पाप के अर्थ में है और ‘ख’ खा जाने अथवा खली कर दे,वही वस्तुत: दु:ख है
निचोड़ यह है कि हम जो सुख भोगते हैं उसमें हमारे पुण्य खर्च होते हैं.पुण्यो का खजाना खाली हो रहा है, सुख बढ़ रहे है तो पुण्य घट रहे हैं। सुख में हमें पुण्य कमाने कि सुध नहीं रहती, अपवादों को छोडक़र सुख में हम पाप अधिक कमाते है। पुण्य कम जब पुण्यो की थैली खाली हो जाती है,तब दु:ख आता है.दु:ख भोगने पर हमारे पाप खर्च होते हैं.जब मनुष्य दुखी होता है,तब उसे ईश्वर की याद आती है, तब उसे सुझता है कि पुण्य कमाए।
वह ईश्वर से डरकर अच्छे कार्य करता है। सुख में ईश्वर का भय अधिक नहीं होता क्योंकि पुण्यों का प्रबल प्रताप रहता है और आदमी मदोन्मत्त होता है। इस प्रकार सुख और दु:ख का क्रम चलता रहता है। सुख-दु:ख का भाग्य से कोई लेना देना नहीं है, वस्तुत: सुख-दु:ख हमारे अपने कर्मो का फल हैं। हम जैसे कर्म करते हैं, वैसे फल पाते है। जैसे फल पाते है वैसा भोगते है।
कैसे बचें दुखों से:
आप आत्मनिर्भर बनिये। यदि आप नश्वर पदार्थो में सुख मान बैठे हैं तो सबकुछ होते हुए भी आपको वास्तविक सुख से वंचित होना पड़ेगा। सहायता या कृपा की इच्छा से या व्यक्तिगत लाभ की आशा से दुसरों की और ताकना छोडिय़े। न तो आपको किसी से यातना करनी चाहिए, न शिकायत करनी चाहिए और न ही गिड़गिड़ाना चाहिए और न ही खेद प्रकट करना चाहिए। बल्कि अपने भीतर के सत्य पर संतोष रखते हुए आत्मनिर्भर होना चाहिए।
यदि आप अपने भीतर शांति नहीं पा सकते तो फिर कहां पायेगे? यदि आपको अपने ही विचारों से आनंद नहीं मिलता तो दुसरों की संगती में कैसे आनंद प्राप्त होगा? क्या दुसरों की संगती करने से दु:ख और कष्टों से बचा जा सकता है। जिस व्यक्ति ने अपने भीतर वह आधार नहीं खोजा, जिस पर वह खड़ा रहा सके, वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। बहुत से लोगों की ऐसी धारणा होती है कि भौतिक पदार्थ अथवा लोगो कि भीड़ ही उन्हें सुखी कर सकती है, यह एक गलत धारणा है। बहुत से करोड़पति जिनके पास न साथियों की कमी है और न ही भौतिक वस्तुओ की, वे सभी दुखी दिखाई देते हैं,क्यों? क्योंकि सुख मन की चीज है। व्यक्ति के कर्म उसे संतोष पहुंचाने वाले और दुसरों के हित में हों, इसी से सुख उपजता है।
दुसरों पर निर्भर रहने वाला, कामचोर, दुसरों का बुरा चाहने और करने वाले यदि जीवन भर सुख की तलाश में भटकते रहें तो दावा है कि जन्म-जन्मान्तर तक उसकी यह भटकन ख़त्म नहीं होगी। जन्म लेते रहिये और कुकर्म करके मरते रहिये। आपको कोई नहीं रोकता। अगर यदि सुख के तलबगार हैं तो काम भी आपको वैसे ही करने होंगे। अच्छे कर्म जब आप करेंगे तो मन में संतोष होगा और संतोष ही सुख है।
संतोषं परम सुखम:
संतोष ही परम सुख है। किसी भी स्थिति विशेष में संतोष अत्यंत लाभकारी होता है। यदि आप निर्धन हैं तो इसे दु:ख का बायस मत बनाइए, यह सोचकर संतोष करें कि दुनिया में करोड़ों लोग आपसे भी गयी-गुजरी स्थिति में हैं, निर्धन हैं। आपको दो समय भरपेट खाना मिलता है। मगर लाखों लोगों को एक समय का खाना भी ढंग से नहीं मिलता। आपको चाहिए कि आप अपनी गरीबी दूर करने का उपाय करें। यदि आप बेरोजगार है तब भी चिंता की कोई बात नहीं। आप यह सोचें कि आप स्वस्थ हैं, आपके पास दो मजबूत हाथ और एक स्वस्थ मस्तिष्क है जिनके माध्यम से आप संसार का हर कार्य कर सकते हैं। एक बात हमेशा याद रखें कि व्यक्ति पुरुषार्थ करने में तभी असमर्थ होता है, जब वह हीन भावना अथवा अभिमान से ग्रस्त होता है। मिथ्याभिमान और हीन भावना उसे कर्तव्य से विमुख कर देती है।
ईष्या भी हमारे दु:ख का एक कारण है, आमतौर पर ऐसा होता है कि सफलता प्राप्त व्यक्ति को देखकर हम ईष्या करते है। हम यह नहीं सोचते कि उस सफलता को पाने के लिए उसने कितनी कुर्बानियां की होगी।अगर हम सोच भी लें तो भी हम वैसी कुर्बानियां करने का साहस नहीं करेंगे,केवल और केवल ईष्या करेंगे।ईष्या करने वाला क्या सुखी रह सकता है?
अपने को खोकर ही हम दुनिया में मिल सकते हैं, विस्तीर्ण क्षेत्र जा सकते हैं। विस्तार में ही सुख हैं। सुख की यह आवश्यक शर्त है। दूसरे शब्दों में यदि हम कहें कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो अतिश्योक्ति न होगी। कोई भी जीवन अपने आप में सिमट कर नहीं रह सकता। हमारी प्रत्येक सांस विश्व के उस श्वास-प्रश्वास से मिली हुयी है जो सूरज और चन्द्रमा के लोक से भी ऊपर और समुद्र के अतल-तल से भी नीचे सब जगह, एक चेतन मन द्वारा हो या अवचेतन मन द्वारा, दूर-पास कि दुनिया प्रभावित होती है। इसी प्रकार दुनिया कि चेष्टाएं भले ही भू-मंडल के किसी भी भाग में हों, हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। सच तो यह है कि यदि हम दुनिया की के अंग नहीं तो हम कुछ भी नहीं। हमारे व्यक्तित्व का विकास इस कड़ी के अंग होने के कारण ही होता है। कोई भी व्यक्ति अपने तक सिमित नहीं है। अपने स्वार्थों, अपनी मान्यताओं से बंधा रहने वाला व्यक्ति अपनी प्रगति में स्वयं बाधक बन जाता है। वह अपने अहम की परिधि में स्वयं गिरफ्तार रहता है, गुलाम रहता है। जो स्वयं ही मुक्त नहीं है, वह संसार को कष्टों से मुक्ति क्या देगा? क्या तो संसार का कल्याण करेगा और क्या स्वयं सुख भोगेगा? दु:ख की मुक्ति और सुख की प्राप्ति कैसे हो? इस प्रश्न का उत्तर भगवान बुद्ध के शब्दों में दिया जाये तो: ‘‘शरीर का संयम अच्छा है, वाणी का संयम अच्छा है, मन का संयम अच्छा है। जो व्यक्ति सभी में संयम करता है, वह सब प्रकार के दुखो से मुक्त हो जाता है।’’

कवर्धा रियासत का प्राचीन महल

कवर्धा महल छत्तीसगढ़ राज्य के कवर्धा जिले में स्थित मुख्य आकर्षण का केंद्र है। कवर्धा महल का निर्माण महाराजा धर्मराज सिंह ने 1936-39 ई. में कराया था और यह महल 11 एकड़ में फैला हुआ है। कवर्धा महल के निर्माण में इटैलियन मार्बल और सफ़ेद संगमरमर का उपयोग किया है। कवर्धा महल के दरबार के गुम्बद पर सोने और चांदी से नक्कासी की गई है। कवर्धा महल के प्रवेश द्वार का नाम हाथी दरवाजा है, जो बहुत सुन्दर है। यह कारीगरों की निपुणता, शिल्प कौशल और घाघ कौशल को दर्शाता है। इस महल को कवर्धा के शाही परिवारों के अंतर्गत रखा गया है। रानी दुर्गावती के सेनापति महाबलि सिंह से लेकर महाराज योगेश्चवरराज सिंह (12 वीं पीढ़ी) तक का इतिहास इस महल में देखने को मिलता है। हांलाकि मंहगाई की मार के चलते कवर्धा पैलेस इन दिनों एक होटल में बदल गया है। होटल भी ऐसा-वैसा नहीं कि कोई भी आया और किराया देकर रूक गया। यहां ठहरने के लिए पहले आपको इत्तला देनी होगी। जब आपके बारे में छानबीन हो जाएगी तब आपको न केवल पैलेस में ठहरने का मौका मिलेगा बल्कि हो सकता है कि राजा-महाराजाओं की बची हुई पीढ़ी में से कोई आपके साथ भोजन भी ग्रहण करें। पंखा झेलते हुए सेवकों और राजा-महाराजाओं के वंशजों के बीच भोजन का आनन्द आपको एक नए किस्म के रोमांच में डाल सकता है। कवर्धा कुल 805 वर्गमील क्षेत्र में फैला हुआ है। अकेले 12 एकड़ क्षेत्र में पैलेस स्थित है। राजा-महाराजाओं के चले जाने के बाद उनके महल सरकारी कार्यालयों का हिस्सा बनकर रह गए है। कवर्धा पैलेस का एक बड़े हिस्से में भी सरकारी दफ्तर लगता है लेकिन अब भी एक ऐसा पैलेस बचा हुआ है जो दर्शनीय है। महाबलि सिंह, उजियार सिंह, टोकसिंह, बहादुर सिंह, रूपकुंवर, गौरकुंवर, राजपाल सिंह, पदुमनाथ सिंह, देवकुमारी, धर्मराज, विश्वराज के बाद जब योगेश्वरराज के ऊपर पैलेस की जवाबदारी आयी तो उन्होंने अपने पुरखों से मिली समृद्ध विरासत को एक नई पहचान देने का काम किया। पैलेस में लगभग तीन सौ तरह की तलवारें मौजूद है। इसके अलावा युद्ध में प्रयुक्त आने वाली 35 बंदूके, कई जानवरों के सिर, बेशकीमती कपड़े, टोपियां, छडिय़ां, सोने-चांदी के बर्तन, छुरी और कांटो का अनोखा संग्रह भी है। पैलेस में एक दरबार हाल है जो प्रवेश करते ही आकर्षित करता है। इसके अतिरिक्त आफीस लांउज, स्टेट डायनिंग हाल और लगभग 12 लोगों के ठहरने के लिए बनाया गया कमरा देखने योग्य है। कभी कवर्धा स्टेट का एक बड़ा हिस्सा भोंसले के कब्जे में था। बाद में जब राजा धर्मराज सिंह के पास आया तब उन्होंने इसकी देख-रेख पर ध्यान देना प्रारंभ किया। पैलेस के भीतर जितनी भी लकड़ी प्रयुक्त हुई है वह बर्मा देश की है। सारे मार्बल इटैलियन है जबकि कुछ पत्थर कवर्धा के पास मौजूद सोनबरसा गांव से मंगवाए गए हैं। एक अनुमान है कि पैलेस के रख-रखाव के लिए हर साल 10 लाख रुपए खर्च होते हैं। कवर्धा पैलेस से रष्ट्रीय पार्क कान्हा की दूरी मात्र 95 किलोमीटर है। जो देसी-विदेशी पर्यटक कान्हा जाने के इच्छुक रहते हैं वे एक बार कवर्धा पैलेस में जरूर रूकते हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधायक रहे योगीराजजी बताते हैं कि वर्ष 1991 में महल को पैलेस के रूप में बदल दिया गया था। योगीराजजी के मुताबिक पर्यटकों के आने से जो आय होती है उसका उपयोग बैगाओं के इलाज के लिए किया जाता है। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में एक अति प्राचीन जनजाति बैगा की उपस्थिति भी कायम है। आज भी यह जनजाति झाड़-फूंक पर भरोसा रखती है और इनका रहन सहन भी देखने लायक और रोमांच से भरा होता है। एक बात यह भी है कि यह बात कोई ठीक-ठाक नहीं बता सकता है कि सत्यमेव जयते की शुरूआत कब हुई और भारत सरकार ने इसे अपना स्लोगन कब बनाया लेकिन यह तय है कि कवर्धा स्टेट की राजपत्रित मुहरों में लिखा होता था-सत्यमेव जयते।

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Sunday, 10 April 2016

2016 में "आईएसआईएस" की ग्रह दशा

आईएसआईएस
आईएसआईएस की गुरू की महादशा में चंद्रमा की अंतरदशा चल रही है जिसके कारण इसके अपने सदस्य ही विरोध में आ सकते हैं और संभव है कि ये आपस में ही लड़ कर स्वयं को नाश कर डालें। साथ ही वैश्विक धरा पर शक्तिशाली राष्ट्रों ने इनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और आने वाले समय में इनका समूल नाश हो सकता है। इस तरह से देखा जाये तो दोनों मोर्चे पर इन्हें शिकस्त मिल सकती है।
इस्लामी राज्य जून 2014 में निर्मित एक अमान्य राज्य तथा इराक एवं सीरिया में सक्रिय जिहादी सुन्नी सैन्य समूह है। अरबी भाषा में इस संगठन का नाम है ‘‘अल दौलतुल इस्लामिया फिल इराक वल शाम’’। इसका हिन्दी अर्थ है- ‘‘इराक एवं शाम का इस्लामी राज्य’’। शाम सीरिया का प्राचीन नाम है। इस संगठन के कई पूर्व नाम हैं जैसे आईएसआईएस अर्थात् ‘‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया’’, आईएसआईए, दाइश आदि। आईएसआईएस नाम से इस संगठन का गठन अप्रैल 2013 में हुआ। इब्राहिम अव्वद अल-बद्री उर्फ अबु बक्र अल-बगदादी इसका मुखिया है। शुरू में अल कायदा ने इसका हर तरह से समर्थन किया किन्तु बाद में अल कायदा इस संगठन से अलग हो गया। अब यह अल कायदा से भी अधिक मजबूत और क्रूर संगठन के तौर पर जाना जाता हैं।
यह दुनिया का सबसे अमीर आतंकी संगठन है जिसका बजट 2 अरब डॉलर का है। 29 जून 2014 को इसने अपने मुखिया को विश्व के सभी मुसलमानों का खलीफा घोषित किया है। विश्व के अधिकांश मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों को सीधे अपने राजनीतिक नियंत्रण में लेना इसका घोषित लक्ष्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये इसने सबसे पहले लेवेन्त क्षेत्र को अपने अधिकार में लेने का अभियान चलाया है जिसके अन्तर्गत जॉर्डन, इजरायल, फिलिस्तीन, लेबनान, कुवैत, साइप्रस तथा दक्षिणी तुर्की का कुछ भाग आता हैं। आईएसआईएस के सदस्यो की संख्या करीब 10,000 हैं।

2016 में "सीरियाई गृहयुद्ध" की ग्रह दशा

सीरियाई गृहयुद्ध
शनि की महादशा में शनि के अंतर में सीरियाई युद्ध की शुरूआत हुई। सितंबर २०१७ के बाद जब बुध का अंतर शुरू होगा तब आमजन खुलकर सत्ता के विरोध में आयेंगे और संभव है कि सत्तापलट कर ही डालें। साथ ही यहां की जनता अब आंतकी संगठनों के विरोध में भी खड़े हो जायें।
सीरियाई गृहयुद्ध जो कि सीरियाई विद्रोह या सीरियाई संकट के नाम से भी जाना जाता है, सीरिया में सत्तारूढ़ ‘‘बाथ सरकार’’ के समर्थकों एवं विपक्षियो के बीच चल रहा सशस्त्र संघर्ष है। यह संघर्ष 15 मार्च,2011 को लोक-सम्मत प्रदर्शनों के साथ शुरू हुआ एवं अप्रैल, 2011 तक पूरे देश में फैल गया। यह प्रदर्शन समस्त उत्तर-पूर्व में चल रही अरब क्रांति का हिस्सा थे। विरोधकर्ताओं की मांगें थी की राष्ट्रपति बशर-अल-अस्सद, जो कि 1971 से सीरिया में सत्तारूढ़ थे, पदत्याग करें एवं बाथ पार्टी का शासन, जो कि 1963 से आ रहा है, का अंत हो।
अप्रैल, 2011 में सीरियाई सेना को क्रांति के निर्देष मिले, तथा सैनिकों ने पूरे देश में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। महीनों की सैन्य घेराबंदी के बाद यह विरोध सशस्त्र विद्रोह में बदल गया। आज विपक्षी ताकतें, जो कि मुख्यत: विरोधी सैनिकों एवं नागरिकों से बनीं हैं एक केन्द्रीय नेतृत्व के बिना हैं। पूरे देश के कई छोटे-बड़े नगरों में चल रहा यह विद्रोह असममात्रिक है। 2011 के अन्त में विपक्षी ताकतों में इस्लामी संगठन जबात-उल-नसरा का बढ़ता प्रभाव देखा गया। सन 2013 में हिजबुल्ला ने सीरियाई सेना की ओर से जंग में प्रवेश किया। सीरियाई सरकार को रूस एवं ईरान से सैनिक सहायता प्राप्त है, जबकि विद्रोहियों को कतर एवं सउदी अरब से हथियारों की पूर्ती हो रही है। जुलाई 2013 तक सीरियाई सरकार देश की 30-40 प्रतिशत भूमि व 60 प्रतिशत जनता पर शासन कर रही है, जबकि विप्लवियों के नियंत्रण में देश के उत्तर एवं पूर्व में भूमि है।
अरब संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, एवं अन्य देशों ने प्रदर्शनकारियों पर हिंसा के प्रयोग कि निंदा की। अरब संघ ने इस संकट पर राज्य की प्रतिक्रिया के कारण सीरिया को संघ से निकाल दिया, एवं उसकी जगह सीरियाई राष्ट्रीय गठबंधन, सीरिया के राजनीतिक विपक्षी समूहों के एक गठबंधन, को 6मार्च 2013 को संघ में जगह दी।

साल 2016 में "पुतिन" की कुंडली

पुतिन
जन्म: 7 अक्टूबर 1952 (आयु 63 वर्ष), लेनिनग्रेड, रूसी गणराज्य, सोवियत संघ
राजनीतिक दल: सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी
पुतिन की शनि की महादशा में मंगल की अंतरदशा चल रही है। मंगल तीसरे स्थान में बैठ कर जबरदस्त आक्रामकता के साथ ही वैश्विक कूटनीति के तीखे तेवरों के चलते कामयाब भी रहेंगे। इस समय वे विश्व में सबसे ज्यादा शक्तिशाली नेता बनकर उभरेंगे किंतु इस समय इनके जीवन को भी संकट हो सकता है।
व्लादिमीर व्लादिमीरोविच पुतिन रूसी राजनीतिज्ञ हैं। वे 7 मई 2012 से रूस के राष्ट्रपति हैं। इससे पहले सन् 2000 से 2008तक रूस के राष्ट्रपति तथा 1999 से 2000 एवं 2008से 2012 तक रूस के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वो अपने पिछले प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान रूस की संयुक्त रूस पार्टी के अध्यक्ष भी थे।
पुतिन ने 16साल तक केजीबी में ऑफिसर के रूप में सेवा की, जहाँ वे लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक पदोन्नत हुए। 1991 में सेवानिवृत्त होने के पश्चात उन्होंने अपने पैतृक शहर सेंट पीटर्सबर्ग से राजनीति में कदम रखा। 1996में वह मास्को में राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के प्रशासन में शामिल हो गए, एवं येल्तसिन के अप्रत्याशित रूप से इस्तीफा दे देने के कारण 31 दिसम्बर 1999 को रूस के कार्यवाहक राष्ट्रपति बने। तत्पश्चात, पुतिन ने वर्ष 2000 और फिर 2004 का राष्ट्रपति चुनाव जीता। रूसी संविधान के द्वारा तय किये गए कार्यकाल सीमा की वजह से वह 2008में लगातार तीसरी बार राष्ट्रपति पद के चुनाव में खड़े होने के लिए अयोग्य थे। 2008में दिमित्री मेदवेदेव ने राष्ट्रपति चुनाव जीता और प्रधानमंत्री के रूप में पुतिन नियुक्त किया। सितंबर 2011 में, कानून में बदलाव के परिणामस्वरूप राष्ट्रपति पद के कार्यकाल की अवधी चार साल से बढ़ाकर छह साल हो गयी, एवं पुतिन ने 2012 में राष्ट्रपति पद के लिए एक तीसरे कार्यकाल की तलाश में चुनाव लडऩे करने की घोषणा की, जिसके चलते कई रूसी शहरों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। मार्च 2012 में उन्होंने यह चुनाव जीता और वर्तमान में 6वर्ष के कार्यकाल की पूर्ति कर रहे हैं।
पुतिन के पहले राष्ट्रपति कार्यकाल को आर्थिक वृद्धि के दौर के रूप में देखा जाता है: रूसी अर्थव्यवस्था में लगातार आठ साल तक संवृद्धि हुई, क्रय-शक्ति समता में 72प्रतिशत की वृद्धि एवं संज्ञात्मक सकल घरेलू उत्पाद में 6गुणा वृद्धि देखने को मिली।

साल 2016 में "नरेन्द्र दामोदरदास मोदी" जी की कुंडली

नरेन्द्र दामोदरदास मोदी
जन्म:17 सितम्बर 1950 (आयु 65 वर्ष), वडऩगर, गुजरात, भारत
राजनीतिक दल: भारतीय जनता पार्टी

नरेन्द्र मोदी की इस समय चंद्रमा की महादशा में शनि की अंतरदशा चल रही है। शनि इनका तृतीयेश होकर अपने स्थान से अष्टमस्थ है। तीसरा स्थान निर्णयों के लिये जाना जाता है अत: इस समय लिये गये सारे निर्णयों में इन्हें विवाद का सामना करना पड़ रहा है और चुंकि शनि चतुर्थेश भी अत: आम जन या समाज इनके निर्णयों के कारण खुल कर विरोध में सामने आ सकता है। सितंबर २०१७ के बाद जब बुध की दशा चलेगी तब इन्हें विपरीत परिणामों का सामना करना पड़ेगा।
नरेन्द्र दामोदरदास मोदी भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री हैं। भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उन्हें 26मई 2014 को भारत के प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलायी। वे स्वतन्त्र भारत के 15वें प्रधानमन्त्री हैं तथा इस पद पर आसीन होने वाले स्वतंत्र भारत में जन्मे प्रथम व्यक्ति हैं। माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर भी वे सबसे ज्यादा फॉलोअर वाले भारतीय नेता हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेन्द्र मोदी एक राजनेता और कवि हैं। वे गुजराती भाषा के अलावा हिन्दी में भी देशप्रेम से ओतप्रोत कविताएँ लिखते हैं। अपने माता-पिता की कुल छ: सन्तानों में तीसरे पुत्र नरेन्द्र ने बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने में अपने पिता का भी हाथ बँटाया। बडऩगर के ही एक स्कूल मास्टर के अनुसार नरेन्द्र हालाँकि एक औसत दर्ज़े का छात्र था, लेकिन वाद-विवाद और नाटक प्रतियोगिताओं में उसकी बेहद रुचि थी। इसके अलावा उसकी रुचि राजनीतिक विषयों पर नयी-नयी परियोजनाएँ प्रारम्भ करने की भी थी।
13 वर्ष की आयु में नरेन्द्र की सगाई जसोदा बेन चमनलाल के साथ कर दी गयी और जब उनका विवाह हुआ, वह मात्र 17 वर्ष के थे। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार पति-पत्नी ने कुछ वर्ष साथ रहकर बिताये। परन्तु कुछ समय बाद वे दोनों एक दूसरे के लिये अजनबी हो गये क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने उनसे कुछ ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी।
जहां तक मोदी की आर्थिक नीतियों का सवाल है, उस पर मिश्रित प्रतिक्रिया रही हैं लेकिन अब तो देशी और विदेशी जानकार भी मानने लगे हैं कि भारत की विदेश नीति में मोदी ने जैसे नई ऊर्जा डाल दी है। पिछले एक साल में उन्होंने 18देशों की यात्राएं कीं और उनका हर दौरा सुर्खियों में रहा। यहां तक कि कुछ लोग तो यहां तक ताने देने लगे कि मोदी देश से ज्यादा विदेश में ही रहते हैं जबकि उन्हें ज्यादा ध्यान देश की अंदरूनी समस्याओं पर देना चाहिए। दक्षिण एशियाई पड़ोस से प्रशांत महासागर में बसे जापान तक और बीजिंग से लेकर बर्लिन तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निरंतर यात्राओं के अलावा कई देशों के प्रमुखों को भारत आमंत्रित करने से यह संकेत स्पष्ट है कि बीता वर्ष वैश्विक रंगमंच पर मजबूत मौजूदगी दर्ज कराने की भारत की जिद का साल रहा है। मोदी की विदेश नीति में चीन, अमेरिका, रूस, कनाडा और यूरोप का महत्वपूर्ण स्थान है, वहीं नेपाल, भूटान, मंगोलिया और सेशेल्स जैसे छोटे देश भी प्राथमिकताओं में शामिल हैं. इन प्रयासों ने राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधों को नयी ऊर्जा दी है तथा बेहतर आर्थिक संभावनाओं की राह खोली है।
भारत की विदेश नीति अब तक ऐसी थी जो पश्चिम और पूर्व के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश करती दिखती थी। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि वो अभी भी गुट निरपेक्ष आंदोलन के मोड़ में है लेकिन मोदी ने एक जबर्दस्त बदलाव किया। अब उनकी नई विदेश नीति में भारत और उसकी पहचान सर्वोपरि है। मोदी अच्छे ‘कम्यूनिकेटर’ हैं और ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया का बखूबी इस्तेमाल करते हैं। जापान के प्रधानमंत्री के साथ जापानी भाषा में और चीन के सोशल मीडिया पर चीनी भाषा पर संदेश का मोदी का कदम काफी सफल रहा।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह, मोदी ने भी विदेशों में रह रहे भारतीयों और भारतीय मूल के लोगों को भी अपनी नीति में शामिल किया है। मैं तो कहूंगा कि इसे इतनी ऊंचाई पर ले गए हैं जिसे कोई दूसरा नहीं ले जा सका है। चाहे अमेरिका हो या फिर ऑस्ट्रेलिया, या फिर चीन या कहीं और...मोदी प्रवासियों में भी काफी लोकप्रिय हैं यह साबित हो चुका है। भारतीय संस्कृति को भी कूटनीति में शामिल करने का उनका प्रयोग सफल रहा है। यह उनका ही प्रस्ताव था कि 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया रहा है। कुल मिला कर देखा जाए तो मोदी का पहला साल काफी व्यस्त रहा और इसमें कुछ किया गया लेकिन बहुत कुछ करना बाकी है क्योंकि चुनौतियों की कमी नहीं है और कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।

साल 2016 में "किम जोंग उन" की कुंडली

किम जोंग उन
जन्म: 8जनवरी 1983 (आयु 33), प्योंगयांग, उत्तर कोरिया
किम जोंग उन बुध की महादशा में मंगल की अंतरदशा और उसके बाद राहु की अंतरदशा लगातार व्यवहार में क्रूरता और अक्रामकता लायेगी। अपने सनकीपन और तानाशाही मिजाज के कारण वैश्विक मंच पर बदनाम रहेंगे। साल के अंत तक अमेरिका से खुलकर युद्ध का बिगुल बजा सकते हैं।
किम जोंग उन उत्तरी कोरिया के सर्वोच्च नेता हैं। वे किम जोंग इल के पुत्र हैं। किम जोंग उन दुनिया के ऐसे खतरनाक शासक हैं जिनके डर से अमेरिका भी कांपता है। उत्तर कोरिया का यह शासक अपने पिता की तरह ही रहस्यमयी और खुंखार है। 30 साल के स्विट्जरलैंड में पढ़ाई करने वाले किम जोंग उन के जन्म तिथि के बारे में कोई 1983 का दावा करता है तो कोई 1984 का। सही-सही किसी को पता नहीं।
किम जोंग उन के पिता किम जोंग इल ने जब सत्ता संभाली थी, तब भी दुनिया हैरान रह गई थी। इसका कारण यह था कि तब किम पर्दे के पीछे रहने वाले एक शातिर नेता समझे जाते थे। किम जोंग इल को 2008में पक्षाघात हुआ था। बीमारी की हालत में दो साल पहले किम जोंग इल ने मृत्यु से पहले ही किम जोंग उन को अपनी सत्ता सौंप दी थी। लेकिन किम जोंग उन के सामने अपने पिता के मुकाबले हमेशा ही कुछ अलग तरह की चुनौतियां रही हैं। कहा जाता है कि जिस तरह से किम जोंग इल के बारे में पहले से कोई जानकारी नहीं थी, उसी तरह उनके बेटे और उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग उन के बारे में कोई नहीं जानता। पढ़ाई के लिए जोंग उन विदेश चले गए यानी अपने देश का उन्हें वह अनुभव नहीं, जो उनसे पहले उनके पिता या दादा को था। हालांकि किम जोंग उन अपने दिवंगत पिता के चहेते रहे हैं। किम ने जब सत्ता संभाली तो सबसे पहले अपने चाचा को ताकतवर सैनिक पद पर बिठाया था और उसके बाद अपनी बहन को भी जनरल बना दिया।
जहां तक 30 साल के किम जोंग उन के राजनीतिक करियर का सवाल है, उन्हें अपने देश का ज्यादा तजुर्बा नहीं है। उनके सत्ता संभालने के साथ ही सवाल उठने लगे थे कि 60 से ज्यादा परमाणु हथियारों से संपन्न उत्तर कोरिया क्या इनको सुरक्षित रख पाएगा और क्या सीमा पर अचानक पैदा हो गए तनाव को झेल पाएगा।

साल 2016 में शिंजो अबे की कुंडली

शिंजो अबे
जन्म: 21 सितम्बर 1954 (आयु 61 वर्ष), नगातो, यामागुची, जापान
राजनैतिक दल: लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी
शिंजो अबे की शुक्र की महादशा में राहु का अंतर चल रहा है जो इन्हें लगातार प्रसिद्धी और राजनैतिक कामयाबी देगा। इनकी मिलनसारिता और वैश्विक नेताओं से मित्रता नये करार दिला सकती है।
शिंजो अबे, दिसंबर 2012 से जापान के प्रधानमंत्री पद पर बने हुए हैं। इन्होंने पूर्व में भी (2006से 2007 तक) जापान के प्रधानमंत्री पद को सम्भाला था। अबे लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी और ओयागाकू प्रणोदन संसदीय समूह के अध्यक्ष हैं। जब अबे जापान की राष्ट्रीय संसद (डाइट) की विशेष सत्र में 26सितम्बर 2006में पहली बार प्रधानमंत्री पद के लिए चुने गए, तब वे, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के, जापान के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री बने। साथ ही साथ, वे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जन्मे पहले प्रधानमंत्री थे। एक साल से भी कम अवधि तक सेवा में रहने के बाद उन्होंने 12 सितम्बर 2007 में प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया, तत्पश्चात उन्हें यासुओ फुकुडा ने प्रतिस्थापित किया।

साल 2016 में "शी जिनपिंग" की कुंडली

शी जिनपिंग
जन्म: 15 जून 1953 (आयु 62 वर्ष), बीजिंग, चीन
जिनपिंग की चंद्रमा की महादशा में बुध की अंतरदशा, अप्रैल से केतु की दशा शुरू होगी। चंद्रमा-केतु द्वादशस्थ होने से इनके जीवन में भी पतन का समय आ सकता है। इनकी सुधारवादी नीतियां ही इन्हें हानि पहुंचा सकती है।
शी जिनपिंग, जनवादी गणतंत्र चीन के सर्वोच्च नेता हैं जो चीन के राष्ट्रपति, चीनी साम्यवादी पार्टी के महासचिव, केन्द्रीय सैनिक समिति के अध्यक्ष और केन्द्रीय पार्टी विद्यालय के अध्यक्ष हैं। उन्हें 15 नवम्बर 2012 में चीनी साम्यवादी (कोम्युनिस्ट) पार्टी का महासचिव घोषित किया गया। चीनी नामों की प्रथानुसार इनके पारिवारिक नाम उनका पहला नाम ‘शी’ है और ‘जिनपिंग’ उनका व्यक्तिगत नाम है, इसलिए उन्हें साधारणत: अपने पहले नाम ‘शी’ से बुलाया जाता है। नवम्बर 2012 में शी जिनपिंग को चीनी साम्यवादी पार्टी का महासचिव नियुक्त किया गया। शी जिनपिंग चीनी साम्यवादी पार्टी के एक पुराने नेता शी झोंगशुन के पुत्र हैं। साम्यवादी पार्टी के अपने आरंभिक दौर में उन्होंने फ़ूज्यान प्रान्त में काम किया। उसके बाद उन्हें पड़ोस के झेजियांग प्रान्त का पार्टी नेता नियुक्त किया गया। इसके उपरांत शंघाई में चेन लियांगयू के भ्रष्टाचार के आरोपों पर सेवा से निकाले जाने पर उन्हें उस महत्वपूर्व क्षेत्र का पार्टी प्रमुख बनाया गया। शी भ्रष्टाचार पर अपने कड़े रुख़ और राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था में सुधार लाने के लिए दो टूक बाते करने के लिए जाने जाते हैं। उन्हें चीनी साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व की पांचवी पीढ़ी का प्रधान कहा जाता है।

साल 2016 में "बराक ओबामा" की कुंडली

बराक ओबामा
जन्म: 4 अगस्त 1961 (आयु 54), होनोलूलू, हवाई, संयुक्त राज्य अमेरिका
बराक ओबामा की शनि की महादशा में बुध का अंतर २०१८ तक चलेगा, बुध भाग्येश होकर सप्तम भाव में जरूर हैं किंतु शनिदृष्ट होने के कारण अपनों से हानि पा सकते हैं। अर्थात जो उनके आस-पास हों वही उनके लिये नुकसानदायक होंगे। उनके अलोकप्रिय होने का कारण उनके अपने निर्णय और अपने साथी होंगे।
बराक हुसैन ओबामा अमरीका के 44वें राष्ट्रपति हैं। वे इस देश के प्रथम अश्वेत (अफ्रीकी अमरीकन) राष्ट्रपति हैं। उन्होंने 20 जनवरी, 2009 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली। ओबामा इलिनॉय प्रांत से कनिष्ठ सेनेटर तथा 2008में अमरीका के राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रैटिक पार्टी के उम्मीदवार थे। ओबामा हार्वर्ड लॉ स्कूल से 1991 में स्नातक बनें, जहाँ वे हार्वर्ड लॉ रिव्यू के पहले अफ्रीकी अमरीकी अध्यक्ष भी रहे। 1997 से 2004 इलिनॉय सेनेट में तीन सेवाकाल पूर्ण करने के पूर्व ओबामा ने सामुदायिक आयोजक के रूप में कार्य किया है और नागरिक अधिकार अधिवक्ता के रूप में प्रेक्टिस की है। 1992 से 2004 तक उन्होंने शिकागो विधि विश्वविद्यालय में संवैधानिक कानून का अध्यापन भी किया। सन् 2000 में अमेरिकी हाउस आफ रिप्रेसेंटेटिव में सीट हासिल करने में असफल होने के बाद जनवरी 2003 में उन्होंने अमरीकी सेनेट का रुख किया और मार्च 2004 में प्राथमिक विजय हासिल की। नवंबर 2003 में सेनेट के लिये चुने गये।
109वें काँग्रेस में अल्पसंख्य डेमोक्रैट सदस्य के रूप में उन्होंने पारंपरिक हथियारों पर नियंत्रण तथा संघीय कोष के प्रयोग में अधिक सार्वजनिक उत्तरदायित्व का समर्थन करते विधेयकों के निर्माण में सहयोग दिया। वे पूर्वी युरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका की राजकीय यात्रा पर भी गये। 110वें काँग्रेस में लॉबिंग व चुनावी घोटालों, पर्यावरण के बदलाव, नाभिकीय आतंकवाद और युद्ध से लौटे अमेरीकी सैनिकों की देखरेख से संबंधित विधेयकों के निर्माण में उन्होंने सहयोग दिया। विश्वशांति में उल्लेखनीय योगदान के लिए बराक ओबामा को वर्ष 2009 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है।
होनोलूलू में जन्में ओबामा किन्याई मूल के अश्वेत पिता व अमरीकी मूल की माता के संतान हैं। उनका अधिकांश प्रारंभिक जीवन अमरीका के हवाई प्रांत में बीता। 6से 10 वर्ष तक की अवस्था उन्होंने जकार्ता, इंडोनेशिया में अपनी माता और इंडोनेशियाई सौतेले पिता के संग बिताया। बाल्यकाल में उन्हें बैरी नाम से पुकारा जाता था। बाद में वे होनोलूलू वापस आकर अपनी ननिहाल में ही रहने लगे। 1995 में उनकी माता का कैंसर से देहांत हो गया। ओबामा की पत्नी का नाम मिशेल है। उनका विवाह 1992 में हुआ जिससे उनकी दो पुत्रियाँ हैं, 9 वर्षीय मालिया तथा 6वर्षीय साशा। 2 नवम्बर 2008को ओबामा का आरंभिक लालन पालन करने वाली उनकी दादी मेडलिन दुनहम का 86वर्ष की आयु में निधन हो गया।
ओबामा हार्वड लॉ स्कूल से 1991 में स्नातक बनें, जहाँ वे हार्वड लॉ रिव्यू के पहले अफ्रीकी अमरीकी अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने दो लोकप्रिय पुस्तकें भी लिखी हैं, पहली पुस्तक ड्रीम्स फ्रॉम माई फादर: अ स्टोरी आफ रेस एंड इन्हेरिटेंस का प्रकाशन लॉ स्कूल से स्नातक बनने के कुछ दिन बाद ही हुआ था। इस पुस्तक में उनके होनोलूलू व जकार्ता में बीते बालपन, लॉस एंजलिस व न्यूयॉर्क में व्यतीत कालेज जीवन तथा 80 के दशक में शिकागो शहर में सामुदायिक आयोजक के रूप में उनकी नौकरी के दिनों के संस्मरण हैं। पुस्तक पर आधारित आडियो बुक को 2006में प्रतिष्ठित ग्रैमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनकी दूसरी पुस्तक द ओडेसिटी ऑफ़ होप मध्यावधि चुनाव के महज़ तीन हफ्ते पहले अक्तूबर 2006में प्रकाशित हुई। यह किताब शीघ्र ही सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों की सूची में शामिल हो गई। पुस्तक पर आधारित आडियो बुक को भी 2008में प्रतिष्ठित ग्रैमी पुरस्कार से नवाजा गया है। शिकागो ट्रिब्यून के अनुसार पुस्तक के प्रचार के दौरान लोगों से मिलने के प्रभाव ने ही ओबामा को राष्ट्रपति पद के चुनाव में उतरने का हौसला दिया।

साल 2016 में "अबु बक्र अल-बगदादी" की कुंडली

जन्म: 28जुलाई 1971 (आयु 44), सामर्रा, इराक
बगदादी की वर्तमान में बुध की महादशा में शुक्र की अंतरदशा और जुलाई तक सूर्य की अंतरदशा चलेगी। ज्ञात कुंडली के अनुसार बगदादी के एकादशेश सूर्य और द्वितीयेश और सप्तमेश मंगल साथ में हैं। अत: इस समय उनकी दशा मार्केश के साथ होने से उन्हें जीवनसंकट हो सकता है।
बगदादी का जन्म 1971 में ईराक के सामर्रा नगर में हुआ। अली बदरी सामर्राई, अबू दुआ, डाक्टर इब्राहीम, अल कर्रार और अबू बक्र अलबगदादी आदि कई इसके उपनाम हैं। यह पीएचडी हैं। इसके पिता का नाम अलबू बदरी हैं जो सलफ़ी तकफ़ीरी विचारधारा को मानते हैं। अबू बक्र बगदादी की शुरुवात धर्म के प्रचार साथ ही प्रशिक्षण से हुआ। लेकिन जेहादी विचारधारा की ओर अधिक झुकाव रखने के कारण वह इराक के दियाला और सामर्रा में जेहादी पृष्ठिभूमि के केन्द्रों में से एक केन्द्र के रूप में ऊभरा। उसने बगदाद के इस्लामी विज्ञान विश्वविद्यालय से इस्लामी विज्ञान में मास्टर की डिग्री और पीएचडी अर्जित किया। जेहादी वेबसाइटों का दावा है कि वह प्रतिष्ठित परिवार का पढ़ा-लिखा इमाम है। वह 2003 में इराक में अमेरिकी घुसपैठ के बाद बागी गुटों के साथ अमेरिकी फौज से लड़ा था। वह पकड़ा भी गया और 2005-09 के दौरान उसे दक्षिणी इराक में मेरिका के बनाए जेल कैंप बुका में रखा गया था। और 2010 में इराक के अलकायदा का नेता बन गया। और २०१५ में खुद खलीफ ा बन बैठा आईएस आतंकी संगठन का लीडर है।

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Friday, 8 April 2016

हस्त-रेखा के शुभ अशुभ संकेत

हस्तरेखा ज्योतिष के अनुसार हथेली की रेखाएं बनती-बिगड़ती रहती हैं, कभी-कभी हथेली में रेखाओं से शुभ संकेत बन जाते हैं तो कभी-कभी रेखाएं अशुभ संकेत भी देती हैं। यहां जानिए हथेली के कुछ शुभ-अशुभ संकेत...
हस्तरेखा के शुभ संकेत:
1. यदि किसी व्यक्ति की हथेली में सूर्य रेखा से निकलकर कोई शाखा गुरु पर्वत की ओर जाती है तो व्यक्ति शासकीय अधिकारी बनता है।
2. यदि हथेली में शुक्र पर्वत शुभ हो, विस्तृत हो और इस पर कोई अशुभ लक्षण ना हो तो व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। शुक्र पर्वत अंगूठे नीचे वाले भाग को कहते हैं, इस पर्वत को जीवन रेखा घेरे हुए दिखाई देती है।
3. बुध पर्वत पर एक छोटा सा त्रिभुज हो तो व्यक्ति प्रशासनिक विभाग में उच्च पद प्राप्त कर सकता है।
4. स्वास्थ्य रेखा की लंबाई मस्तिष्क रेखा और भाग्य रेखा तक ही सीमित हो तो यह शुभ संकेत है। ऐसी स्वास्थ्य रेखा वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य उत्तम रहता है। शुक्र पर्वत, जीवन रेखा के आसपास से प्रारंभ होकर बुध पर्वत की ओर जाने वाली रेखा को स्वास्थ्य रेखा कहते हैं। बुध पर्वत सबसे छोटी उंगली के नीचे होता है।
5. यदि नाखून एकदम साफ और स्वच्छ दिखाई देते हैं तो यह शुभ लक्षण है। नाखूनों पर कोई दाग-धब्बा, कालापन न हो तो शुभ रहता है। शुभ नाखून अच्छे स्वास्थ्य की ओर इशारा करते हैं।
6. अंगूठा मजबूत, लंबा, सुंदर हो तथा मस्तिष्क रेखा भी शुभ हो तो व्यक्ति नौकरी से लाभ प्राप्त करता है। शुभ मस्तिष्क रेखा यानी ये रेखा कटी हुई या टूटी हुई न हो, अन्य रेखाएं इसे काटती न हो, लंबी और सुंदर दिखाई देती हो।
हस्तरेखा के अशुभ संकेत:
1. यदि दोनों हथेलियों में हृदय रेखा कमजोर और अस्पष्ट दिखाई देती है तो व्यक्ति आलसी और कामचोर हो सकता है।
2. यदि मणिबंध पर एक ही रेखा हो और वह भी अधूरी हो तो व्यक्ति का जीवन निरस होता है और इनके जीवन कोई उत्साह नहीं होता है।
3. हथेली के दोनों मंगल पर्वत दबे हुए दिखाई दे रहे हों तो व्यक्ति कोई उपलब्धि हासिल नहीं कर पाता है। ये लोग किसी भी काम में उत्सुकता नहीं दिखाते हैं।
4. यदि किसी व्यक्ति की हथेली में भाग्य रेखा के पास धन यानी जोड़ (+) का निशान हो तो जीवन में कष्ट प्राप्त होते है।
5. यदि मस्तिष्क रेखा बहुत ही छोटी है तो व्यक्ति मृत्यु समान कष्ट पाता है।
रेखाओं और पर्वतों के हिन्दी नाम
जीवन रेखा-
हृदय रेखा-
मस्तिष्क रेखा-
सूर्य रेखा-
भाग्य रेखा-
शुक्र पर्वत-
चंद्र पर्वत-
गुरु पर्वत-
मंगल पर्वत-
शनि पर्वत-
सूर्य पर्वत-
बुध पर्वत-
हस्तरेखा से जुड़ी कुछ और बातें:
1. यदि किसी व्यक्ति की हथेली में चक्र जैसा कोई निशान बना हुआ है तो वह काफी महत्वपूर्ण है। हस्तरेखा ज्योतिष के अनुसार हथेली में चक्र का निशान अंगूठे पर हो तो व्यक्ति बहुत भाग्यशाली माना जाता है। इस प्रकार के निशान वाले व्यक्ति धनवान होते हैं। अंगूठे पर चक्र का निशान होने पर व्यक्ति ऐश्वर्यवान, प्रभावशाली, दिमाग से संबंधित कार्य में योग्य होता है। ऐसे लोग बुद्धि का प्रयोग करते हुए काफी धन लाभ प्राप्त करते हैं। ये लोग पिता के सहयोगी होते हैं। घर-परिवार एवं समाज में इन्हें पूर्ण मान-सम्मान प्राप्त होता है।
2. यदि किसी व्यक्ति के दोनों हाथों में भाग्य रेखा मणिबंध से शुरू होकर सीधी शनि पर्वत तक जा रही हो, साथ में सूर्य रेखा भी पतली लम्बी, शुभ हो और मस्तिष्क रेखा, आयु रेखा भी अच्छी है तो उस हाथ में गजलक्ष्मी योग बनता हैं। ये योग अचानक धन लाभ दे सकता है।
3. यदि शनि पर्वत यानी रिंग फिंगर के नीचे वाला क्षेत्र और शुक्र पर्वत अधिक भरा हुआ हो, सुंदर हो और भाग्य रेखा शुक्र पर्वत यानी अंगूठे के पास वाले क्षेत्र से आरंभ होकर शनि क्षेत्र के मध्य तक पहुंचती है तो ऐसे लोगों के जीवन में कभी भी धन संबंधी कमी नहीं होती है। ये लोग काफी पैसा कमाते हैं।
4. यदि किसी व्यक्ति की हथेली में भाग्य रेखा व चन्द्र रेखा मिलकर एक साथ शनि पर्वत पर पहुंचे तो ऐसे लोग भी धनवान रहते हैं। हथेली में अंगूठे के ठीक नीचे शुक्र पर्वत होता है और शुक्र पर्वत की दूसरी ओर हथेली के अंतिम भाग पर चंद्र पर्वत होता है। इस चंद्र पर्वत से कोई रेखा निकलती है तो उसे चंद्र रेखा कहा जाता है।
5. यदि भाग्य रेखा लिटिल फिंगर के नीचे के क्षेत्र से प्रारंभ होकर किसी भी रेखा से कटे बिना शनि पर्वत तक पहुंचती हो तो यह रेखा भी शुभ होती है। इसके प्रभाव से व्यक्ति धन संबंधी कार्यों में विशेष लाभ प्राप्त करता है।

हस्तरेखा और रोग

हाथ की बनावट,हाथ की रेखाएं और उसकी कोमलता,रंग,हाथ पर मौजूद चिन्ह जैसे त्रिकोण,चौकोण, अन्द्कार, क्रोस या रेखा का टूटना इत्यादि देखकर भविष्य में होने वाले रोग का पाता चलता है | हाथ देखकर किसी का रोग की गंभीरता को भली प्रकार समझा जा सकता है और तदनुरूप उसकी चिकित्सा का निर्धारण हो सकता है |
प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक बनावट जिस तरह भिन्न होती है, उसी प्रकार सभी हाथों में रेखाओं की बनावट तथा रेखाओं की मोटाई तथा लंबाई में भी अंतर देखा जात सकता है। यह सभी संयोगवश न होकर प्रत्येक रेखा या चिंह कुछ इंगित करते हैं। इस प्रकार यदि देखा जाए तो हस्तरेखा का अध्ययन कर किसी भी व्यक्ति की मानसिक और आर्थिक स्थिति ही नहीं अपितु उसकी शारीरिक स्थिति का भी पता लगाया जा सकता है। अत: कहा जा सकता है कि हस्तरेखा देखकर यह बताया जा सकता है कि किस व्यक्ति को कौन सी बिमारी होगी या कब होगी। अत: रोग परीक्षा के लिए हाथ की बनावट, हाथ की रेखाएँ और उसकी कोमलता-कठोरता, रंग, हाथ पर मौजूद चिंह जैसे त्रिकोण, चौकोण, अंडकार, क्रॉस या रेखा का टूटना इत्यादि देखकर रोग का पता लगाया जा सकता है। हाथ देखकर किसी का रोग तथा रोग की गंभीरता को भली प्रकार समझा जा सकता है और तदानुरूप उसकी चिकित्सा का निर्धारण हो सकता है। शरीर की अंग रचना में हाथ सबसे अधिक संवेदनशील है। उसके विभिन्न क्षेत्रों की रेखाएँ नीची-ऊंची होती रहती हैं। सभी हथेलियों में रेखाओं की बनावट प्राय: समान बनी रहती है, पर बारीकी से देखा जाये तो उनमें काफी विभिन्नता पाया जाता है। न केवल हथेली की रेखाएँ वरन अंगुलियों के पोर, नाखून, हथेली का आकार, अंगुलियों की मोटाई या लंबाई, हाथ पर मौजूद पर्वत का ऊँचा-नीचा, उभार आदि की स्थिति शारीरिक स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। विभिन्न रोगियों की स्वास्थ्य सम्बन्धी भूत, वर्तमान और भविष्य का परीक्षण किया जा सकता है।
नाखूनों की सफेदी देख रक्ताल्पता का निष्कर्ष निकाला जाता था। जीवनरेखा पतली या नाखून पीले हो तो शारीरिक दुर्बलता का पता चलता है। हथेली पर हृदय रेखा टूट रही हो या फिर उस पर रेखाओं का जाल हो, नाखूनों पर खड़ी रेखाएँ बन गई हों तो ऐसे व्यक्ति को हृदय संबंधी शिकायतें, रक्त शोधन में अथवा रक्त संचार में व्यवधान पैदा होता है। जिस व्यक्ति के हाथ का आकार व्यावहारिक हो और साथ ही कम चिह्नों वाला हो तो ऐसा जातक अपने जीवन में काफी नियमित रहता है। इसी तरह विशिष्ट बनावट के हाथ या कोणीय आकार के हाथ, जिसमें चंद्र और मंगल पर्वत से शुक्र का पर्वत अधिक उन्नत हो तो ऐसे लोग स्वादिष्ट भोजन के शौकीन होते हैं। इस पर यदि हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा अच्छे न हों तो रक्तजनित रोगों की आशंका बढ़ जाती है। मस्तिष्क रेखा पर द्वीप समूह या पूरी मस्तिष्क रेखा पर बारीक-बारीक लाइनें हो तो ऐसे जातक को कैंसर की पूरी आशंका रहती है। हाथ में हृदय रेखा दोषपूर्ण हो तो व्यक्ति को रक्तचाप और हृदय रोग होता है। यदि मस्तिष्क रेखा दोषपूर्ण हो तो जातक को स्नायु से संबंधी अनेक रोग होते हैं।
स्वास्थ्य रेखा यदि मुडक़र चंद्र पर्वत पर चली गयी हो, तो जातक सदैव रोगग्रस्त ही रहेगा। चंद्र पर्वत पर अगर क्रास बना हो तब मानसिक आघात लगने की आशंका बनती है। यदि स्वास्थ्य रेखा में मस्तिष्क रेखा के निकट, परंतु उसके ऊपर कोई द्वीप हो, तो नाक और गले के रोग होते हैं। यदि स्वास्थ्य रेखा का प्रारंभ में हल्का हो और उसके बाद गहराई होता जाए जो उस व्यक्ति को हृदय रोग होगा। इस रेखा का अंतिम सिरा यदि बहुत मोटा होकर गहरा रंग का है, तो उसे सिर दर्द का रोग होगा। हाथ में चंद्र पर्वत के निम्न भाग पर क्रॉस या आड़ी रेखाएँ स्थित हो तब नाभि के नीचे के भाग में रोग होने का खतरा होता है, यदि मध्य भाग में यह दोष हो तब पेट के रोग हो सकते हैं। यदि शुक्र पर्वत पर दोष हो तब यौन रोग होने की संभावना बनती है। हथेली में शनि पर्वत तथा शनि क्षेत्र में कहीं भी रेखाओं का जाल या किसी भी प्रकार का कोई क्रास या चिन्ह हो या श्ािन पर्वत सूर्य की ओर झुक जाये या कोई रेखा दोनों पर्वत को काटता हो, तो व्यक्ति को वात प्रधान रोग हो सकते है। शनि पर्वत का दबा होना या उसपर रेखाओं का जाल वात रोग या हड्डी के रोग होने की सम्भावना बनाती है। बुध पर्वत पर रेखा या पर्वत का दबा होना दाँत संबंधी रोग होने की संभावना होती है। यदि सूर्य पर्वत पर द्वीप बना हो या सूर्य पर्वत के नीचे द्वीप बना हो तब नेत्र संबंधी रोग हो सकते हैं। नाखून पर खड़ी धारियाँ व सफेद धब्बे तनाव की निशानी है। यदि नाखून का रंग पीला हो तब ये आशंका और अधिक बढ़ जाती है। जिस व्यक्ति की हथेली में निम्न मंगल पर्वत पर तिल का निशान होता है उसे हमेशा जोखिम से बचना चाहिए, इन्हें सडक़ दुर्घटना, करंट, आग लगने का भय रहता है। निम्न मंगल पर्वत पर क्रॉस का चिन्ह या उस स्थान से कोई रेखा शनि पर्वत तक जाए तो ऐसे व्यक्ति को रक्त संबंधी रोग देता है। जिस व्यक्ति की हथेली में मंगल पर्वत पर शून्य का निशान बना होता है उन्हेंं घाव के कारण कष्ट का सामना करना पड़ता है। मंगल पर्वत पर चंद्र का निशान मानसिक परेशानी देता है। ऐसा व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ भी हो सकता है।
मंगल पर्वत पर कोई भी चिंह होना असाध्य रोग होने का संकेत माना जाता है। जबकि मंगल पर क्रास होने पर व्यक्ति बुखार से पीडि़त होकर कष्ट पाता है। मंगल पर्वत पर जालीनुमा चिन्ह भी शुभ नहींं माना जाता है। मंगल स्थान पर क्रॉस का चिन्ह होने पर रक्त संबंधी रोग देता है। गुरू पर्वत का बहुत ऊंचा होना या गुरू पर्वत पर किसी भी प्रकार से रेखाओं का जाल होना स्थूलता को प्रदर्शित करता है। जीवन रेखा के प्रारंभ में द्ववीप हो तो वंशानुगत रोग साथ ही सूर्य पर्वत पर त्रिकोण या मस्तिष्क रेखा पर द्ववीप भी वंशानुगत रोग का संकेत होता है। शनि पर्वत पर द्ववीप बचपन में पीलिया या दमा रोग का संकेत होता है। चंद्र पर्वत से चलकर कोई रेखा या जाल शनि पर्वत तक आये तो उसे चर्म रोग होने की आशंका होती है। जीवन रेखा छोटी या क्रास से भरी हो तो अल्पायु होता है। मंगल पर्वत तथा तर्जनी से जीवन रेखा पर छोटी रेखाएँ आ रही हों तो शारीरिक कष्ट लगातार बना रहता है।
उपाय:
हृदय रेखा के दोष से बचाव हेतु कनिष्ठका अंगुली को छोडक़र अन्य तीनों अंगुलियों के सिरों को अंगूठे के सिरे से मिलाएं तो जो मुद्रा बनती है। इसका नित्य अभ्यास करने से हृदय रोग से बचाव किया जा सकता है। यह मुद्रा प्रात:काल करने से अधिक लाभ मिलता है। मस्तिष्क रेखा दोषपूर्ण हो तो परस्पर तर्जनी और अंगूठा को मिलाकर मुद्रा बनायें। इस मुद्रा का नित्य अभ्यास करने से गुरु पर्वत के दोष नष्ट हो जाते हैं। यह मुद्रा प्रतिदिन प्रात:काल एवं सायंकाल में 15 मिनट करनी चाहिए। शनि पर्वत में या शनि रेखा में दोष हो तो तर्जनी को मोडक़र उसे शुक्र पर्वत पर लगायें। सभी अंगुलियां और अंगूठा अलग रखें। यह मुद्रा शानि रेखा एवं शनि पर्वत के दोष को नष्ट करती है तथा अनेक रोग से रक्षा करती है। बुध रेखा अथवा बुध पर्वत में कोई दोष हो तो उसको दूर करने के लिए बायें हाथ की तर्जनी का सिरा दाएं हाथ की तर्जनी और मध्यमा से जोडकर मुद्रा बनाने से बुध का दोष दूर हो जाता है। उदर व शरीर के किसी भाग में गैस एकत्र होने पर भी इस मुद्रा द्वारा लाभ पाया जा सकता है।

एग्जाम के दिनों में तनाव

एक्जाम का तनाव एक सामान्य तनाव है जो सभी छात्रों को होता है किंतु कुछेक को यह तनाव ज्यादा होता है जो कि कभी-कभी खतरनाक और छात्र के भविष्य को गर्त में डालने वाला भी हो जाता है। इस तनाव को ज्योतिषीय नजरिये से देखें तो किसी भी जातक की कुंडली में तृतीयेश, पंचमेश या एकादशेश अनुकूल न हों और एक्जाम के समय में शनि, शुक्र या राहु की दशा चले साथ ही ठीक एक्जाम के दिन चंद्रमा गोचर में हो तो एक्जाम का तनाव अपने चरम पर होता है। इस तनाव से बचने के लिए तृतीयेश अर्थात मनोबल उच्च रखना चाहिए जिसका एक ही उपाय है कि विषय-विशेष की तैयारी पूर्ण होने के साथ तीसरे स्थान के स्वामी ग्रह की शांति करनी चाहिए। इसी प्रकार पंचमेश अर्थात एकाग्रता बनाये रखने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है साथ ही पंचम ग्रह के स्वामी ग्रह के उपाए अपनाने चाहिए। एकादश स्थान अर्थात दैनिक दिनचर्या में नियमित रहने से एकादश स्थान प्रबल होता है इसके अलावा एकादश स्थान के स्वामी ग्रह से संबंधित मंत्र जाप करना चाहिए। अत: एक्जाम के तनाव से बचने के लिए मनोबल मतलब कालपुरुष का स्वामी बुध, एकाग्रता के लिए सूर्य एवं नियमितता के लिए शनि, इन ग्रहों का उपाय लेना हर विद्यार्थी के लिए आवश्यक है।
एक्जाम के दिनों में तनाव का होना स्वाभाविक है. तनाव होना हमेशा बुरा नही होता, यदि तनाव आपको कुछ अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित करे तो वो ठीक है. अगर आप स्कूल के दिनों में एक्जाम के दिनों को हटा दें तो पढऩे का मन बिलकुल नहीं करता. एक्जाम हमें पढऩे के लिए प्रेरित करते हैं, जो आत्मविश्वास देता है, जो किसी भी काम को करने के लिए जरूरी है. एक्जाम हमें दबाव में काम करना सीखाते हैं, हमें मजबूत बनाते हैं, वे हमें टाइम मैनेज करना सिखाते हैं, वे हमें बेहतर प्रदर्शन हेतु कम समय में प्रयास का गुण भी करना सीखते हैं, और ये सभी जीवन में सफल होने के लिए कहीं न कहीं चाहिए होती हैं. एक्जाम के दिनों में तनाव को सही दिशा में रखने से परीक्षा बुरा नहीं है किन्तु इसके लिए पूर्व तैयारी भी नितांत आवश्यक है किन्तु हम माने की:
एक्जाम अच्छे हैं :
भले ही आज आपको ये बुरे लगें, लेकिन यकीन जानिये ये आपको इंतना कुछ सिखा जाते हैं की आपकी बाकी की जिन्दगी को आसान बना देते हैं. एक्जाम को एक कड़वी दवा के रूप में देख सकते हैं, जिसे आप पीना तो नहीं चाहते पर इसे पीये बिना आपकी बीमारी भी नहीं जा सकती. खुद से बार -बार कहिये, मन में दोहराइए एक्जाम अच्छे हैं ज्और इसके लिए साल भर तैयार रहे... किसके लिए आप अपने जीवन में दैनिक दिनचर्या संतुलित रखें और इसे रखने के लिए अपनी किन्दाली के एकादश स्थान के गृह को अनुकूल बनाने का प्रयास करें... ये प्रयास आपको सालभर करना चाहिए.
तैयारी का अलग ही मजा है:
एक्जाम की तैयारी कुछ ख़ास होती है और बोर्ड हों तो बात ही कुछ और है. वो घंटों किताबों में उलझे रहना, अलार्म लगा कर सुबह उठना, TV serials, cricket matches की कुर्बानी देना, दोस्तों के साथ बैठना और पढऩा और पढऩे की ही बात ये ऐसे पल होते हैं जो बिलकुल अलग होते हैं, और इनका अपना ही मजा होता है. इन पल को तनाव के रूप में ना देखें, बल्कि आनंद लें... ये आप तभी कर सकते हैं जब आप पुरे साल जिन्दगी के मजे लेने के साथ पढ़ाई भी करें.
आपको अपना सर्वश्रेष्ठ देना है, बस!
अगर आप पहले के एक्जाम में मध्यम रहे हैं और पूरे साल आपने कुछ विशेष प्रयास नहीं किये हैं तो सिर्फ एक्जाम के वक़्त पढक़र चमत्कार की अपेक्षा न करें. क्या हुआ भूल जाएं, बस ये देखें की अब आपके पास कितना समय बचा है और उसमे अपने बेस्ट देने की कोशिश करें. ये सोचना बेकार है कि आपके साथ के और बच्चे क्या-क्या पढ़ चुके होंगे, कितना रिवीशन कर चुके होंगे, आपको किसी और को देखने की ज़रुरत नहीं है ज्किसी तुलना की ज़रुरत नहीं है ज्और फायदा भी क्या है ऐसा करने से? बस खुद को! इसलिए कुछ ऐसा न करिए कि बाद में अफ़सोस हो ‘‘काश मैंने पढ़ाई की होती!’’ अपना बेहतर दीजिये और ऐसा करते हुए आप अपने प्रयास करते रहिये और अगर सब प्रयास के बाद भी आपको समझने या याद रखने में कठिनाई हो तो अपनी कुंडली में दिखाएँ की कही आपका द्वितयेश या पंचमेश कमजोर तो नहीं..समय रहते इन ग्रहों की शांति करा लेने से आप की जो कमी आपके द्वारा दूर नहीं हो रही वह आपकी ग्रहों की शांति से दूर हो सकती है...
समय का हो उचित प्रबंधन:
समय सिमित है, इसे यूही खराब करना बेवकूफी है. एक्जाम के समय तो समय का प्रबंधन करना समझदारी का काम है ये नहीं की बस कोई भी विषय उठाया और पढऩा शुरू कर दिया. इसे एक रुपरेखा के साथ करिए और ये आपकी अपनी बनाई हुई होगी जो आप अपनी जरुरत के अनुसार अपने लिए तैयार करेंगे तो इससे आपकी कमि दूर होगी और आपका मजबूत पक्ष और मजबूत बनेगा. इत्मीनान से बैठिये, ये सोचिये की आपको कौन से विषय को कितना समय देना है. आप के समय और आपकी अपनी जरूरत को ध्यान में रखते हुए पढऩे का करिए. पिछले साल के पेपर्स करने के लिए जरूर वक़्त निकालिए. समय के सदुपयोग से आप अपने जीवन में सफलता आसानी से पा सकते हैं और इसके लिए आप को अपने मनोबल और आत्मविश्वास को बनाये रखना है और इसके लिए मंत्रो का नियमित कुछ समय जाप करें.
याद रखें आपके पैरेंट्स आपको प्यार करते हैं :
पढऩे के लिए किसे डांट नहीं पड़ती!! पढऩे के लिए डांट पडऩा तो आम सी बात है. हमारे पैरेंट्स इस बात को लेकर बहुत चिंतित होते हैं कि हम इस प्रतियोगिता के युग में ठीक से अपना स्थान बना पाएं. एक अच्छी नौकरी के लिए एक्जाम में मिले अच्छे अंक का जो गहरा नाता है वो उन्हें चिंतित कर देता है कि अगर उनका बच्चा अच्छे अंक नहीं ला पाया तो उसके भविष्य का क्या होगा और यही चिंता उन्हें आपको डांटने ज्और कभी कभी मारने के लिए मजबूर करती है. विशेषकर आम मध्यम वर्गी नौकरीपेशा परिवार, जिसके लिए नौकरी पाना अच्छे अंक माना जाता है पर वो आपको बहुत प्यार करते हैं इतना की आपको इस दुनिया में परेशान होते नहीं देख सकते इसलिए वो आपको पढऩे को कहते हैं, उनका सम्मान करिए ये बात गाँठ बांध लीजिये कि वो भले आपको अच्छे अंक लाने के लिए डांटे -फटकारें, आप उनकी जान हैं, किसी भी सूरत में वो मार्क से कहीं अधिक आपको प्यार करते हैं ! इसलिए भूलकर भी तनाव में आकर कोई गलत कदम न उठायें... साथ ही परिवार को चाहिए की बच्चे की कुंडली का विश्लेष्ण करा कर पता कर लें की कही बच्चा डिप्रेशन में तो नहीं. इसके लिए बच्चे की कुंडली का त्रितयेश अगर विपरीत हो जाए या क्रूर ग्रहों से पापाक्रांत हो तो उन ग्रहों की शांति कराना चाहिए.
World is full of oppurtunities:
अगर आप गणित या विज्ञान में कमजोर हैं तो जरुरी नहीं की डॉक्टर या इंजिनिअर ही बने आज तो कुछ भी कर सकते है जिस दुनिया में हम जी रहे हैं आज आप interior decorator, fashion designer,chef actor,singer sportsman, blogger, choreographer, entrepreneur, networker और ना जाने क्या – क्या बन सकते हैं. क्या बन सकते हैं ये पता करने के लिए आप अपनी कुंडली को किसी विद्वान् ज्योतिष से दिखा कर पता करें की आप की किसमें सफलता के योग हैं उस दिशा में ही प्रयास करें.
जो होता है अच्छा होता है:
कई बार सफलता की शुरुआत असफलता के साथ होती है. इस बात में हमेशा यकीन करिए कि आपके साथ जो हो सकता है वही हो रहा है और अगर कुछ बुरा हुआ है तो वो भी आगे चल कर आपकी जिन्दगी से कुछ ऐसे जुड़ेगा जो उसे अच्छा साबित कर देगा. आगे बढ़ते हुए इन चीजों को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता पर जब बाद में हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तब समझ में आता है कि जो हुआ अच्छा हुआ.इसलिए दिल छोटा मत कीजिये. बस अपने प्रयास में इमानदार रहिये. और इसके लिए निरन्त प्रयास करते रहिये.
यह न देखें कि लोग क्या कहेंगे!!:
आप परीक्षा में कुछ कर पाएं या नहीं लेकिन ज़िन्दगी के इम्तहान में आप निश्चित रूप कुछ कर सकते हैं. इसलिए जीवन अनमोल है अपनी तैयारी करिए और आगे बढ़ते जाइये. लोग क्या कहते हैं उसे भूल जाईये क्योंकि लोगों का तो काम ही है कहना। असफल होकर जीवन से हार मानने की जगह अपनी कुंडली का विवेचन करिए और ईश्वर ने आपको जो करने भेजा है उस दिशा में आगे बढि़ए... प्रत्येक विद्यार्थी को प्रात:काल सूर्योदय के समय सूर्यनमस्कार करना चाहिए. सायंकाल को शनिमंत्र का जाप करना चाहिए एवं मनोबल बनाये रखने के लिए गणेश जी पूजा करनी चाहिए.

राक्षस "गयासुर" के कारण गया बना मोक्ष स्थली

बिहार की राजधानी पटना से करीब 104 किलोमीटर की दूरी पर बसा है गया जिला। धार्मिक दृष्टि से गया न सिर्फ हिन्दूओं के लिए बल्कि बौद्ध धर्म मानने वालों के लिए भी आदरणीय है। बौद्ध धर्म के अनुयायी इसे महात्मा बुद्ध का ज्ञान क्षेत्र मानते हैं जबकि हिन्दू गया को मुक्तिक्षेत्र और मोक्ष प्राप्ति का स्थान मानते हैं। इसलिए हर दिन देश के अलग-अलग भागों से नहीं बल्कि विदेशों में भी बसने वाले हिन्दू आकर गया में आकर अपने परिवार के मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना से श्राद्ध, तर्पण और पिण्डदान करते दिख जाते हैं। लेकिन क्या आप जानते है की गया को मोक्ष स्थली का दर्जा एक राक्षस गयासुर के कारण मिला है? आज हम आपको गयासुर से संबंधित वही पौराणिक वृतांत बता रह है।
पौराणिक वृतांत:
पुराणों के अनुसार गया में एक राक्षस हुआ जिसका नाम था गयासुर। गयासुर को उसकी तपस्या के कारण वरदान मिला था कि जो भी उसे देखेगा या उसका स्पर्श करगे उसे यमलोक नहीं जाना पड़ेगा। ऐसा व्यक्ति सीधे विष्णुलोक जाएगा। इस वरदान के कारण यमलोक सूना होने लगा। इससे परेशान होकर यमराज ने जब ब्रह्मा, विष्णु और शिव से यह कहा कि गयासुर के कारण अब पापी व्यक्ति भी बैकुंठ जाने लगा है इसलिए कोई उपाय कीजिये। यमराज की स्थिति को समझते हुए ब्रह्मा जी ने गयासुर से कहा कि तुम परम पवित्र हो इसलिए देवता चाहते हैं कि हम आपकी पीठ पर यज्ञ करें। गयासुर इसके लिये तैयार हो गया। गयासुर के पीठ पर सभी देवता और गदा धारण कर विष्णु जी स्थापित हो गए। गयासुर के शरीर को स्थिर करने के लिये इसकी पीठ पर एक बड़ा सा शिला भी रखा गया था। यह शिला आज प्रेत शिला कहलाता है।
गयासुर के इस समर्पण से विष्णु भगवान ने वरदान दिया कि अब से यह स्थान जहां तुम्हारे शरीर पर यज्ञ हुआ है वह गया के नाम से जाना जाएगा। यहां पर पिंडदान और श्राद्ध करने वाले को पुण्य और पिंडदान प्राप्त करने वाले को मुक्ति मिल जाएगी। यहां आकर आत्मा को भटकना नहीं पड़ेगा

भगवान शिव के 19 अवतार

महाशिवरात्रि का पावन पर्व हर साल फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है। कहते है इसी दिन भगवान शिव लिंग रूप में प्रकट हुए थे। शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है, लेकिन बहुत ही कम लोग इन अवतारों के बारे में जानते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव के 19 अवतार हुए थे। महाशिवरात्रि के इस पावन अवसर पर हम आपको बता रहे हैं भगवान शिव के 19 अवतारों के बारे में-
1. वीरभद्र अवतार:-
भगवान शिव का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।
2. पिप्पलाद अवतार:-
मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोडक़र चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया।
श्राप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।
3. नंदी अवतार:-
भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।
4. भैरव अवतार:-
शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवे सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।
5. अश्वत्थामा:-
महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार थे। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मेें अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। शिवमहापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।
6. शरभावतार:-
भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (पुराणों में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार- हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव ने शरभावतार लिया और वे इसी रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई। यह देखकर शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब कहीं जाकर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।
7. गृहपति अवतार :-
भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मति गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं, पितामह ब्रह्मïा ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।
8. ऋषि दुर्वासा:-
भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा उत्पन्न हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।
9. हनुमान:-
भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया।
सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।
10. वृषभ अवतार:-
भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए। विष्णु के इन पुत्रों ने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।
11. यतिनाथ अवतार:-
भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया था। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी, जिसके कारण भील दम्पत्ति को अपने प्राण गवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक का मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।
12. कृष्णदर्शन अवतार:-
भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गए। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे। तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।
13. अवधूत अवतार:-
भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उनका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा, वैसे ही उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।
14. भिक्षुवर्य अवतार:-
भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी हैं। भगवान शंकर काभिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का स्ह्वह्म्द्गनिर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उस बालक का पालन-पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।
15. सुरेश्वर अवतार:-
भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जप करने लगा।
शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।
16. किरात अवतार:-
किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा। अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया, उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव कीमाया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाए और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगे। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।
17. सुनटनर्तक अवतार:-
पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर शिवजी नट के रूप में हिमाचल के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।
18. ब्रह्मचारी अवतार:-
दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।
19. यक्ष अवतार:-
यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवता व असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोडऩे के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।