कवर्धा महल छत्तीसगढ़ राज्य के कवर्धा जिले में स्थित मुख्य आकर्षण का केंद्र है। कवर्धा महल का निर्माण महाराजा धर्मराज सिंह ने 1936-39 ई. में कराया था और यह महल 11 एकड़ में फैला हुआ है। कवर्धा महल के निर्माण में इटैलियन मार्बल और सफ़ेद संगमरमर का उपयोग किया है। कवर्धा महल के दरबार के गुम्बद पर सोने और चांदी से नक्कासी की गई है। कवर्धा महल के प्रवेश द्वार का नाम हाथी दरवाजा है, जो बहुत सुन्दर है। यह कारीगरों की निपुणता, शिल्प कौशल और घाघ कौशल को दर्शाता है। इस महल को कवर्धा के शाही परिवारों के अंतर्गत रखा गया है। रानी दुर्गावती के सेनापति महाबलि सिंह से लेकर महाराज योगेश्चवरराज सिंह (12 वीं पीढ़ी) तक का इतिहास इस महल में देखने को मिलता है। हांलाकि मंहगाई की मार के चलते कवर्धा पैलेस इन दिनों एक होटल में बदल गया है। होटल भी ऐसा-वैसा नहीं कि कोई भी आया और किराया देकर रूक गया। यहां ठहरने के लिए पहले आपको इत्तला देनी होगी। जब आपके बारे में छानबीन हो जाएगी तब आपको न केवल पैलेस में ठहरने का मौका मिलेगा बल्कि हो सकता है कि राजा-महाराजाओं की बची हुई पीढ़ी में से कोई आपके साथ भोजन भी ग्रहण करें। पंखा झेलते हुए सेवकों और राजा-महाराजाओं के वंशजों के बीच भोजन का आनन्द आपको एक नए किस्म के रोमांच में डाल सकता है। कवर्धा कुल 805 वर्गमील क्षेत्र में फैला हुआ है। अकेले 12 एकड़ क्षेत्र में पैलेस स्थित है। राजा-महाराजाओं के चले जाने के बाद उनके महल सरकारी कार्यालयों का हिस्सा बनकर रह गए है। कवर्धा पैलेस का एक बड़े हिस्से में भी सरकारी दफ्तर लगता है लेकिन अब भी एक ऐसा पैलेस बचा हुआ है जो दर्शनीय है। महाबलि सिंह, उजियार सिंह, टोकसिंह, बहादुर सिंह, रूपकुंवर, गौरकुंवर, राजपाल सिंह, पदुमनाथ सिंह, देवकुमारी, धर्मराज, विश्वराज के बाद जब योगेश्वरराज के ऊपर पैलेस की जवाबदारी आयी तो उन्होंने अपने पुरखों से मिली समृद्ध विरासत को एक नई पहचान देने का काम किया। पैलेस में लगभग तीन सौ तरह की तलवारें मौजूद है। इसके अलावा युद्ध में प्रयुक्त आने वाली 35 बंदूके, कई जानवरों के सिर, बेशकीमती कपड़े, टोपियां, छडिय़ां, सोने-चांदी के बर्तन, छुरी और कांटो का अनोखा संग्रह भी है। पैलेस में एक दरबार हाल है जो प्रवेश करते ही आकर्षित करता है। इसके अतिरिक्त आफीस लांउज, स्टेट डायनिंग हाल और लगभग 12 लोगों के ठहरने के लिए बनाया गया कमरा देखने योग्य है। कभी कवर्धा स्टेट का एक बड़ा हिस्सा भोंसले के कब्जे में था। बाद में जब राजा धर्मराज सिंह के पास आया तब उन्होंने इसकी देख-रेख पर ध्यान देना प्रारंभ किया। पैलेस के भीतर जितनी भी लकड़ी प्रयुक्त हुई है वह बर्मा देश की है। सारे मार्बल इटैलियन है जबकि कुछ पत्थर कवर्धा के पास मौजूद सोनबरसा गांव से मंगवाए गए हैं। एक अनुमान है कि पैलेस के रख-रखाव के लिए हर साल 10 लाख रुपए खर्च होते हैं। कवर्धा पैलेस से रष्ट्रीय पार्क कान्हा की दूरी मात्र 95 किलोमीटर है। जो देसी-विदेशी पर्यटक कान्हा जाने के इच्छुक रहते हैं वे एक बार कवर्धा पैलेस में जरूर रूकते हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधायक रहे योगीराजजी बताते हैं कि वर्ष 1991 में महल को पैलेस के रूप में बदल दिया गया था। योगीराजजी के मुताबिक पर्यटकों के आने से जो आय होती है उसका उपयोग बैगाओं के इलाज के लिए किया जाता है। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में एक अति प्राचीन जनजाति बैगा की उपस्थिति भी कायम है। आज भी यह जनजाति झाड़-फूंक पर भरोसा रखती है और इनका रहन सहन भी देखने लायक और रोमांच से भरा होता है। एक बात यह भी है कि यह बात कोई ठीक-ठाक नहीं बता सकता है कि सत्यमेव जयते की शुरूआत कब हुई और भारत सरकार ने इसे अपना स्लोगन कब बनाया लेकिन यह तय है कि कवर्धा स्टेट की राजपत्रित मुहरों में लिखा होता था-सत्यमेव जयते।
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