अब जब हर जगह भौतिक सुख साधन तो है किनती आत्म सुख तथा शांति कहीं दिखाई नहीं देती | आज आधुनिकता के दौड़ में लोग लड़का और लड़की की बात तो करते है किन्तु जब शिक्षा या संस्कार की बात आती है तो लड़कों और लड़कियों में भेद स्पष्ट रूप से दिखाई देता है | महिलाओं के बारे में तो व्यापक विचार-विमर्श हुआ, वे पढ़े लिखे , आत्मनिर्भर बने, संस्कारी बने, आधुनिक चीजों को जाने, पर इस पूरी कवायाद में हम लड़कों के बारें में विचार, करना ही भूल गए | कहीं कहीं न कहीं ये बात लोगों के मन में घर कर बैठी है की आखिर लड़कों की चिंता करने की जरुरत ही क्या है ?
आज जब हम समाज पर पुरूष वर्ग विशेषकर लडक़ों की भूमिका तथा उसका समाज के सामान्य जीवनचर्या पर असर का अध्ययन करें तो सबसे पहले देंखेंगे कि हमेशा से ही प्रधान तो पुरुष ही रहा है। क्योंकि मैं एक ज्योतिषी हूँ, सब बातों में ज्योतिष का पुट देखना मेरी आदत में शामिल है। अत: इस मुद्दे पर भी जब हम ज्योतिषीय नजरिया डालें तो हम देखते हैं कि समाज में पुरुषो ंका ही बोलबाला रहा है। कालपुरूष की कुंडली में हम लग्न को पुरूष और उसके सप्तम स्थान को महिला मानें तो हम देखते हैं कि लग्न अर्थात मेष और सप्तम अर्थात तुला राशि में मेष का राशि स्वामी मंगल और तुला का राशि स्वामी शुक्र होता है। सीधा सा मतलब है कि प्राकृतिक रूप से ही पुरूष बलवान, क्रूर तथा साहसी और महिला नाजुक, सौम्य और सहनशील है। इसमें भी हम देखें कि निर्भया कांड 2012 में जब हुआ, हालांकि इससे पहले भी और आज भी इस प्रकार की दुर्घटनाएँ निरंतर जारी है। किंतु ये एक ऐसी निर्मम बात थी, जिसे सोच या याद कर सभी की रूह तक कांप जाती है। किंतु करने वालों के मन में जरा भी क्लेश नहीं और ना ही किसी के मन में जरा भी सहिष्णुता दिखाई दी। आज भी ये घटनाएँ लखनउ से लेकर दिल्ली तक रोहतक से लेकर शेखपुरा तक बदस्तूर जारी है। हम देखें कि 2012 में अष्टम में स्थित राहु से पापाक्रांत शुक्र और बुध तथा मंगल शनि से आक्रांत है, इसका सीधा सा मतलब जिद्द के साथ क्रूरता और बुद्धि का हृास। आज समाज में लगातार बढ़ रही हिंसा, दुव्र्यवहार, शोषण, लूट-पाट, भौतिकता का पागलपन जिसके पाने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। अब जब सडक़ या सुनसान जगह ही नहीं अपना स्वयं का घर या स्वयं अपने लोग ही किसी की सुरक्षा की गारंटी नहीं रह गए हैं उस समाज में क्या होगा भविष्य। आज ना ही बुजुर्ग लोग ना बच्चे और ना ही लडक़ी या महिला सुरक्षित है।
ये समाज ही नहीं अपितु प्रकृति प्रदत्त भी है। ज्योतिषीय रूप में देखें तो पुरूष अर्थात मेष लग्न का मंगल और कन्या अर्थात तुला, मतलब शुक्र, मतलब बल का अंतर प्रकृति प्रदत्त है। इसी प्रकार मेष लग्न से तीसरा स्थान बुध और तुला से तीसरा स्थान धनु मतलब बुध और बृहस्पति मतलब सोच का अंतर बुध जहां तनाव और एडिक्शन देता है। वहीं गुरू संतुलित व्यवहार प्रदान करता है। इसी प्रकार मेष से एकादश अर्थात दैनिक दिनचर्या को देखें तो शनि और तुला से एकादश स्थान सूर्य अर्थात दैनिक जीवन में भी सूर्य की गंभीरता लड़कियों को ज्यादा एकाग्र बनाता है वहीं शनि जिद्द और भटकाव देता है। इस प्रकार कुंडली के द्वादश भाव से सभी प्रकार के व्यवहारिक भावनाओं को दर्शाता है। इस लिए जब भी किसी परिवार में लडक़ो और लड़कियों को शिक्षा तथा संस्कार देने की बात हो तो उनकी प्रकृति के अनुरूप समाज तथा समय-काल-परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए हमेशा ही अनुशासन एवं नियम का पालन कराने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार कुंडली के अनुसार सामाजिक रूप से पनप रहे अन्याय और अव्यवस्था को रोकने हेतु लडक़ों के जीवन में भी अनुशासन, सहिष्णुता का पालन कराने हेतु उपाय आजमाने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि यह प्रकृति का न्याय है और यह कई बार समाज में लडक़ों के अनुसार कई बार लड़कियों एवं कई लड़कियों का व्यवहार लडक़ों के व्यवहार से प्रेरित होता है किंतु यह अपवाद स्वरूप ही होता है। हम एक समूह की बात करें तो सामान्य तौर पर लडक़ो को ज्यादा अनुशासन और संस्कार के साथ संवेदना देने की जरूरत होती है। किंतु इसके विपरीत हम बंधन और संस्कार में सिर्फ लड़कियों को बांधना चाहते हैं।
अब जब हर जगह भौतिक सुख साधन तो है किंतु आत्म सुख तथा शांति कहीं दिखाई नहीं देती। आज आधुनिकता के दौर मेें लोग लडक़ा और लडक़ी की बराबरी की बात तो करते हैं किंतु जब शिक्षा या संस्कार की बात आती है तो लडक़ों और लड़कियों में भेद स्पष्ट दिखाई देता है।
आज के समाज में नारी जब घर से बाहर निकल कर घर और बाहर दोनों मोर्चों पर बखूबी अपना कर्तव्य सफलतापूर्वक निभा रही है किंतु वहीं लडक़ों को, जो कि पहले बाहर की सारी जिम्मेदारी, कमाने से लेकर सामग्री क्रय करने, बच्चों को स्कूल ले जाने से लेकर फीस इत्यादि सारा काम करते थे किंतु अब ये भी सारे कार्य महिलाओं के हिस्से में आ गया है। अत: आज के परिप्रक्ष्य में महिलाओं का कार्य दायित्व दोगुना और पुरूषों का आधा ही हुआ है। परंतु अब भी महिलाओं को दोयम दर्जे का ही माना जाता है और समय-समय पर मानसिक या शारीरिक रूप से कमजोर साबित करने का कोई भी मौका पुरूष मानसिकता गंवाना नहीं चाहता। देखा जाये तो आज महिलायें पुरुषों से बराबर नहीं बल्कि कहीं आगे ही हैं, हालाँकि इसमें समाज की हर महिला को शामिल नहीं किया जा सकता, पर फिर भी पहले की तुलना में अब काफी अंतर है। महिलाओं के बारे में तो व्यापक विचार-विमर्श हुआ, वो पढ़ें लिखें, आत्मनिर्भर बने, संस्कारी बनें, आधुनिक चीजों को जानें, पर इस पूरी कवायद में हम लडक़ों के बारे में, विचार करना ही भूल गये। कहीं ना कहीं ये बात लोगों के मन में घर कर बैठी है कि आखिर लडक़ों की चिंता करने की जरूरत ही क्या हैं?
मुझे लगता है कि आज के जमाने में लडक़ों के बारे में व्यापक विचार होना जरुरी है, अगर लडक़ों की शिक्षा ऐसी ही अधूरी रही (किताबी ज्ञान तक) तो जिस तरह से समाज में अपराध बढ़ रहे हैं, वो बढ़ते ही जायेंगे। एक बेहतर समाज बनाने में लडक़ों की, पुरुषों की भूमिका अहम् होती है, वो जानना ही नहीं चाहते की गलत क्या है? अधिकारों के नाम पर मची क्रांतियों के कारण आज ये हाल है कि कोई भी किसी का अधिकार मारना, अपना अधिकार समझता है। लडक़ों को अक्सर यही कहकर माँ गलतियाँ करने पर नहीं रोकती कि लडक़ा ही तो है। प्रसिद्ध मान्यता है कि कि लडक़ों की प्रवृत्ति बैल की तरह होती हैं, अगर सही समय पर जिम्मेवारियों का हल रख दिया जाये, कर्तव्यों से बांध दिया जाये तो वो खेती में काम आते हैं और वरना वो ही बैल गलियों में घूमते हैं, लोगों को मारते हैं, चोट पहुचाते हैं।
आज भी अपराध के ज्यादातर गंभीर मामलों में पुरुष ही क्यों जिम्मेवार होते हैं और गंभीर अपराध ना सही, घर परिवार के ज्यादातर लड़ाई झगड़ों में अहम् भूमिका निभाने वाले भी ये ही होते हैं। सडक़ चलते कहीं लड़ते दिखेंगे, तो कहीं थूकते हुए, कहीं गन्दी गालियां देकर बात करते हुए, तो कहीं बेशर्मी से लड़कियों को छेड़ते हुए। लड़कियों को छेडऩा तो जैसे अधिकार ही है इनका। आखिर क्यों ऐसे लडक़ों को शिक्षित माना जाये। आजकल तो पढ़े लिखे, अच्छे परिवार के लडक़े भी उन तथाकथित बिगड़ लडक़ों की कतार में शामिल होते हैं, कभी गाड़ी चुराना, कभी शराब पीकर गाड़ी चलाना। कहीं ना कहीं लडक़ों का नैतिक पतन हुआ है और अगर ऐसा ही रहा तो हालत और बुरे होंगे। क्योंकि लड़कियों के अधिकारों के लिए लडऩे वालों ने तो जैसे लडक़ों की नकल करना शुरू कर दिया है। अगर वो शराब पियेंगे या डिस्कोथेक जा सकते हैं, तो हम क्यों नहीं। इस तरह की सोच समाज को कहाँ ले जाएगी?
आज की युवा पीढ़ी जब माता-पिता या दादा-दादी बनेंगे, क्या सिखायेंगे ये अपने से छोटों को। क्या है सिखाने के लिए? बात-बात पे गालियां, रिश्तों को तार-तार करने वाले क्या दे पाएंगे ये किसी को? एक समय था कि कम उमर में शादी कर दी जाती थी, पर उसे हटाया गया, कानून बनाया गया और बाल विवाह को रोका गया। क्या फर्क पड़ा कानून बनाने से, क्यों नही रोक पाते माँ बाप। जब आजकल के माँ बाप नहीं रोक पाते तो आने वाले समय में तो जरूर रोक पाएंगे। आने वाले समय में तो यही लोग बनेगे माँ-बाप, दादा, दादी। अपने इन्ही संस्कारों के साथ। हाथ में बड़ी बड़ी डिग्रियां, बड़ी बड़ी नौकरियां, पर मनुष्यता जैसी कोई बात नहीं। पर बुराई सब करते है कि जमाना बहुत बुरा हैं, पर खुद को सुधारना कोई नहीं चाहता। कोई नहीं सोचना चाहता कि क्या करते हैं उनके बच्चे, हम उनकी निजी जिन्दगी में दखल नहीं दे सकते। ऐसा कहकर पल्ला झाडऩे वाले माँ-बाप को सोचना चाहिए कि जब उनका एक बच्चा पैदा होता है, तो वो उनका ही वंश नही बढ़ाता, समाज का भी हिस्सा होता है वो। और जो माँ बाप ये संस्कार नहीं दे पाते एक दिन उनका बच्चा खुद उनके साथ भी दुव्र्यवहार करता है। और क्यों ना करे? आपने सिखाया ही कहाँ उन्हें सही बर्ताव करना।
आज समय की मांग है कि अब लडक़ों के आचार व्यवहार पर विचार किया जाये, ताकि उनमें पनपने वाली अपराधी प्रवृत्ति कम हो सके। माँ बाप जैसे लडक़ी को अनुशासन या समय से घर आना या नियम में बंधना सिखाते हैं वैसे ही लडक़ो को संस्कार भी दें, ताकि वो लड़कियों के प्रति और अपने से बड़ों के प्रति सम्मान का भाव रखना सीखें। परिवार के प्रति, समाज के प्रति अपनी जिम्मेवारी समझें। और ये समाज सच में सबके लिए रहने लायक बना रहे। लड़कियों को ये डर ना रहे कि रात हो गयी है, अकेले नहीं जाना चहिये, या सामने से आते हुए लडक़ों के समूह को देखकर सडक़ पर अकेली जाती लडक़ी ना डरे। ऐसा नहीं है कि हर लडक़ा ऐसा होता है, पर ये सच है कि एक बड़ी संख्या में लडक़े या पुरुष ऐसे होते हैं, जिस कारण आज भी लड़कियां घर से निकलते समय या घर में अकेले रहने पर भी डरती हैं। अत: जरूरी है कि लडक़ों में नैतिक जिम्मेवारी जगाई जाये, वरना कोई कानून कुछ नहीं कर सकता। इसके लिए घर एवं परिवार के साथ कॉलोनी और समाज के बीच से ही ये संस्कार निकलने चाहिए कि किसी लडक़े के जीवन में किस प्रकार का अनुशासन अपने आसपास के लोगों तथा लड़कियों के प्रति जरूरी है। ये देना ना सिर्फ अभिभावकों अपितु शिक्षक, पड़ोसियों और रिश्तेदारों के लिए भी जरूरी है। चूंकि आज हम राहु के युग में जी रहे हैं अत: सभी के जीवन में अनुशासन बहुत जरूरी है। अनुशासन हीनता के कारण पूरा समाज प्रभावित हो रहा है। अत: जीवन में न सिर्फ महिलाओं या लड़कियों के लिए अपितु इससे कहीं ज्यादा लडक़ों के जीवन में होना चाहिए जिससे सामाजिक परिवेश सुरक्षित और शांत रह सके।
आज जब हम समाज पर पुरूष वर्ग विशेषकर लडक़ों की भूमिका तथा उसका समाज के सामान्य जीवनचर्या पर असर का अध्ययन करें तो सबसे पहले देंखेंगे कि हमेशा से ही प्रधान तो पुरुष ही रहा है। क्योंकि मैं एक ज्योतिषी हूँ, सब बातों में ज्योतिष का पुट देखना मेरी आदत में शामिल है। अत: इस मुद्दे पर भी जब हम ज्योतिषीय नजरिया डालें तो हम देखते हैं कि समाज में पुरुषो ंका ही बोलबाला रहा है। कालपुरूष की कुंडली में हम लग्न को पुरूष और उसके सप्तम स्थान को महिला मानें तो हम देखते हैं कि लग्न अर्थात मेष और सप्तम अर्थात तुला राशि में मेष का राशि स्वामी मंगल और तुला का राशि स्वामी शुक्र होता है। सीधा सा मतलब है कि प्राकृतिक रूप से ही पुरूष बलवान, क्रूर तथा साहसी और महिला नाजुक, सौम्य और सहनशील है। इसमें भी हम देखें कि निर्भया कांड 2012 में जब हुआ, हालांकि इससे पहले भी और आज भी इस प्रकार की दुर्घटनाएँ निरंतर जारी है। किंतु ये एक ऐसी निर्मम बात थी, जिसे सोच या याद कर सभी की रूह तक कांप जाती है। किंतु करने वालों के मन में जरा भी क्लेश नहीं और ना ही किसी के मन में जरा भी सहिष्णुता दिखाई दी। आज भी ये घटनाएँ लखनउ से लेकर दिल्ली तक रोहतक से लेकर शेखपुरा तक बदस्तूर जारी है। हम देखें कि 2012 में अष्टम में स्थित राहु से पापाक्रांत शुक्र और बुध तथा मंगल शनि से आक्रांत है, इसका सीधा सा मतलब जिद्द के साथ क्रूरता और बुद्धि का हृास। आज समाज में लगातार बढ़ रही हिंसा, दुव्र्यवहार, शोषण, लूट-पाट, भौतिकता का पागलपन जिसके पाने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। अब जब सडक़ या सुनसान जगह ही नहीं अपना स्वयं का घर या स्वयं अपने लोग ही किसी की सुरक्षा की गारंटी नहीं रह गए हैं उस समाज में क्या होगा भविष्य। आज ना ही बुजुर्ग लोग ना बच्चे और ना ही लडक़ी या महिला सुरक्षित है।
ये समाज ही नहीं अपितु प्रकृति प्रदत्त भी है। ज्योतिषीय रूप में देखें तो पुरूष अर्थात मेष लग्न का मंगल और कन्या अर्थात तुला, मतलब शुक्र, मतलब बल का अंतर प्रकृति प्रदत्त है। इसी प्रकार मेष लग्न से तीसरा स्थान बुध और तुला से तीसरा स्थान धनु मतलब बुध और बृहस्पति मतलब सोच का अंतर बुध जहां तनाव और एडिक्शन देता है। वहीं गुरू संतुलित व्यवहार प्रदान करता है। इसी प्रकार मेष से एकादश अर्थात दैनिक दिनचर्या को देखें तो शनि और तुला से एकादश स्थान सूर्य अर्थात दैनिक जीवन में भी सूर्य की गंभीरता लड़कियों को ज्यादा एकाग्र बनाता है वहीं शनि जिद्द और भटकाव देता है। इस प्रकार कुंडली के द्वादश भाव से सभी प्रकार के व्यवहारिक भावनाओं को दर्शाता है। इस लिए जब भी किसी परिवार में लडक़ो और लड़कियों को शिक्षा तथा संस्कार देने की बात हो तो उनकी प्रकृति के अनुरूप समाज तथा समय-काल-परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए हमेशा ही अनुशासन एवं नियम का पालन कराने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार कुंडली के अनुसार सामाजिक रूप से पनप रहे अन्याय और अव्यवस्था को रोकने हेतु लडक़ों के जीवन में भी अनुशासन, सहिष्णुता का पालन कराने हेतु उपाय आजमाने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि यह प्रकृति का न्याय है और यह कई बार समाज में लडक़ों के अनुसार कई बार लड़कियों एवं कई लड़कियों का व्यवहार लडक़ों के व्यवहार से प्रेरित होता है किंतु यह अपवाद स्वरूप ही होता है। हम एक समूह की बात करें तो सामान्य तौर पर लडक़ो को ज्यादा अनुशासन और संस्कार के साथ संवेदना देने की जरूरत होती है। किंतु इसके विपरीत हम बंधन और संस्कार में सिर्फ लड़कियों को बांधना चाहते हैं।
अब जब हर जगह भौतिक सुख साधन तो है किंतु आत्म सुख तथा शांति कहीं दिखाई नहीं देती। आज आधुनिकता के दौर मेें लोग लडक़ा और लडक़ी की बराबरी की बात तो करते हैं किंतु जब शिक्षा या संस्कार की बात आती है तो लडक़ों और लड़कियों में भेद स्पष्ट दिखाई देता है।
आज के समाज में नारी जब घर से बाहर निकल कर घर और बाहर दोनों मोर्चों पर बखूबी अपना कर्तव्य सफलतापूर्वक निभा रही है किंतु वहीं लडक़ों को, जो कि पहले बाहर की सारी जिम्मेदारी, कमाने से लेकर सामग्री क्रय करने, बच्चों को स्कूल ले जाने से लेकर फीस इत्यादि सारा काम करते थे किंतु अब ये भी सारे कार्य महिलाओं के हिस्से में आ गया है। अत: आज के परिप्रक्ष्य में महिलाओं का कार्य दायित्व दोगुना और पुरूषों का आधा ही हुआ है। परंतु अब भी महिलाओं को दोयम दर्जे का ही माना जाता है और समय-समय पर मानसिक या शारीरिक रूप से कमजोर साबित करने का कोई भी मौका पुरूष मानसिकता गंवाना नहीं चाहता। देखा जाये तो आज महिलायें पुरुषों से बराबर नहीं बल्कि कहीं आगे ही हैं, हालाँकि इसमें समाज की हर महिला को शामिल नहीं किया जा सकता, पर फिर भी पहले की तुलना में अब काफी अंतर है। महिलाओं के बारे में तो व्यापक विचार-विमर्श हुआ, वो पढ़ें लिखें, आत्मनिर्भर बने, संस्कारी बनें, आधुनिक चीजों को जानें, पर इस पूरी कवायद में हम लडक़ों के बारे में, विचार करना ही भूल गये। कहीं ना कहीं ये बात लोगों के मन में घर कर बैठी है कि आखिर लडक़ों की चिंता करने की जरूरत ही क्या हैं?
मुझे लगता है कि आज के जमाने में लडक़ों के बारे में व्यापक विचार होना जरुरी है, अगर लडक़ों की शिक्षा ऐसी ही अधूरी रही (किताबी ज्ञान तक) तो जिस तरह से समाज में अपराध बढ़ रहे हैं, वो बढ़ते ही जायेंगे। एक बेहतर समाज बनाने में लडक़ों की, पुरुषों की भूमिका अहम् होती है, वो जानना ही नहीं चाहते की गलत क्या है? अधिकारों के नाम पर मची क्रांतियों के कारण आज ये हाल है कि कोई भी किसी का अधिकार मारना, अपना अधिकार समझता है। लडक़ों को अक्सर यही कहकर माँ गलतियाँ करने पर नहीं रोकती कि लडक़ा ही तो है। प्रसिद्ध मान्यता है कि कि लडक़ों की प्रवृत्ति बैल की तरह होती हैं, अगर सही समय पर जिम्मेवारियों का हल रख दिया जाये, कर्तव्यों से बांध दिया जाये तो वो खेती में काम आते हैं और वरना वो ही बैल गलियों में घूमते हैं, लोगों को मारते हैं, चोट पहुचाते हैं।
आज भी अपराध के ज्यादातर गंभीर मामलों में पुरुष ही क्यों जिम्मेवार होते हैं और गंभीर अपराध ना सही, घर परिवार के ज्यादातर लड़ाई झगड़ों में अहम् भूमिका निभाने वाले भी ये ही होते हैं। सडक़ चलते कहीं लड़ते दिखेंगे, तो कहीं थूकते हुए, कहीं गन्दी गालियां देकर बात करते हुए, तो कहीं बेशर्मी से लड़कियों को छेड़ते हुए। लड़कियों को छेडऩा तो जैसे अधिकार ही है इनका। आखिर क्यों ऐसे लडक़ों को शिक्षित माना जाये। आजकल तो पढ़े लिखे, अच्छे परिवार के लडक़े भी उन तथाकथित बिगड़ लडक़ों की कतार में शामिल होते हैं, कभी गाड़ी चुराना, कभी शराब पीकर गाड़ी चलाना। कहीं ना कहीं लडक़ों का नैतिक पतन हुआ है और अगर ऐसा ही रहा तो हालत और बुरे होंगे। क्योंकि लड़कियों के अधिकारों के लिए लडऩे वालों ने तो जैसे लडक़ों की नकल करना शुरू कर दिया है। अगर वो शराब पियेंगे या डिस्कोथेक जा सकते हैं, तो हम क्यों नहीं। इस तरह की सोच समाज को कहाँ ले जाएगी?
आज की युवा पीढ़ी जब माता-पिता या दादा-दादी बनेंगे, क्या सिखायेंगे ये अपने से छोटों को। क्या है सिखाने के लिए? बात-बात पे गालियां, रिश्तों को तार-तार करने वाले क्या दे पाएंगे ये किसी को? एक समय था कि कम उमर में शादी कर दी जाती थी, पर उसे हटाया गया, कानून बनाया गया और बाल विवाह को रोका गया। क्या फर्क पड़ा कानून बनाने से, क्यों नही रोक पाते माँ बाप। जब आजकल के माँ बाप नहीं रोक पाते तो आने वाले समय में तो जरूर रोक पाएंगे। आने वाले समय में तो यही लोग बनेगे माँ-बाप, दादा, दादी। अपने इन्ही संस्कारों के साथ। हाथ में बड़ी बड़ी डिग्रियां, बड़ी बड़ी नौकरियां, पर मनुष्यता जैसी कोई बात नहीं। पर बुराई सब करते है कि जमाना बहुत बुरा हैं, पर खुद को सुधारना कोई नहीं चाहता। कोई नहीं सोचना चाहता कि क्या करते हैं उनके बच्चे, हम उनकी निजी जिन्दगी में दखल नहीं दे सकते। ऐसा कहकर पल्ला झाडऩे वाले माँ-बाप को सोचना चाहिए कि जब उनका एक बच्चा पैदा होता है, तो वो उनका ही वंश नही बढ़ाता, समाज का भी हिस्सा होता है वो। और जो माँ बाप ये संस्कार नहीं दे पाते एक दिन उनका बच्चा खुद उनके साथ भी दुव्र्यवहार करता है। और क्यों ना करे? आपने सिखाया ही कहाँ उन्हें सही बर्ताव करना।
आज समय की मांग है कि अब लडक़ों के आचार व्यवहार पर विचार किया जाये, ताकि उनमें पनपने वाली अपराधी प्रवृत्ति कम हो सके। माँ बाप जैसे लडक़ी को अनुशासन या समय से घर आना या नियम में बंधना सिखाते हैं वैसे ही लडक़ो को संस्कार भी दें, ताकि वो लड़कियों के प्रति और अपने से बड़ों के प्रति सम्मान का भाव रखना सीखें। परिवार के प्रति, समाज के प्रति अपनी जिम्मेवारी समझें। और ये समाज सच में सबके लिए रहने लायक बना रहे। लड़कियों को ये डर ना रहे कि रात हो गयी है, अकेले नहीं जाना चहिये, या सामने से आते हुए लडक़ों के समूह को देखकर सडक़ पर अकेली जाती लडक़ी ना डरे। ऐसा नहीं है कि हर लडक़ा ऐसा होता है, पर ये सच है कि एक बड़ी संख्या में लडक़े या पुरुष ऐसे होते हैं, जिस कारण आज भी लड़कियां घर से निकलते समय या घर में अकेले रहने पर भी डरती हैं। अत: जरूरी है कि लडक़ों में नैतिक जिम्मेवारी जगाई जाये, वरना कोई कानून कुछ नहीं कर सकता। इसके लिए घर एवं परिवार के साथ कॉलोनी और समाज के बीच से ही ये संस्कार निकलने चाहिए कि किसी लडक़े के जीवन में किस प्रकार का अनुशासन अपने आसपास के लोगों तथा लड़कियों के प्रति जरूरी है। ये देना ना सिर्फ अभिभावकों अपितु शिक्षक, पड़ोसियों और रिश्तेदारों के लिए भी जरूरी है। चूंकि आज हम राहु के युग में जी रहे हैं अत: सभी के जीवन में अनुशासन बहुत जरूरी है। अनुशासन हीनता के कारण पूरा समाज प्रभावित हो रहा है। अत: जीवन में न सिर्फ महिलाओं या लड़कियों के लिए अपितु इससे कहीं ज्यादा लडक़ों के जीवन में होना चाहिए जिससे सामाजिक परिवेश सुरक्षित और शांत रह सके।
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