कुत: सर्वमिदं जातं कस्मिश्च लयमेफ्यति। नियंता कश्च सर्वेषां वदस्व पुरूषोत्तम।। यह जगत किससे उत्पन्न हुआ है और किसमें जा कर विलीन हो जाता है? इस संसार का नियंता कौन है? हे पुरुषोत्तम! यह बताने की कृपा करें। महेश्वर: परोऽव्यक्त: चर्तुव्यूह सनातन:। अननंता प्रमेयश्च नियंता सर्वतोमुख:।। सनातन अनंत अप्रमेय सर्वशक्तिमान महेश्वर सबके नियंता हैं। तत्व चिंतको ने उन्हें ही अव्यक्त कारण, नित्य, सत, असत्य रूप, प्रधान तथा प्रकृति कहा है। वह (परमात्मा) गंध, वर्ण तथा रस से हीन, शब्द और स्पर्श से वंचित, अजर, ध्रुव, अविनाशी, नित्य और अपनी आत्मा में अवस्थित रहते हैं। वही संसार के कारण, महाभूत परब्रह्म, सनातन, सभी भूतों के शरीर, आत्मा में अधिष्ठित, अनादि, अनंत, अजन्मा, सूक्ष्म, त्रिगुण, प्रभव, अव्यय, और अविज्ञेय ब्रह्म सर्वप्रथम थे।
आत्मपुरुष के गुण साम्य की अवस्था में रहने पर जब तक विश्व की रचना नहींं हो जाती है, तब तक प्राकृत प्रलय होता है। यह प्राकृत प्रलय ब्रह्मा की रात्रि कही गयी है और सृष्टि करना उनका दिन कहा गया है। वस्तुत: ब्रह्मा का न दिन होता है, न रात। रात्रि के अंत में जागने पर जगत के अंतर्यामी, आदि, अनादि सर्वभूतमय, अव्यक्त ईश्वर प्रकृति और पुरूष में शीघ्र (हलचल) प्रवेश कर के परम योग से स्पंदन उत्पन्न करता है। वही परमेश्वर क्षोभ उत्पन्न करने वाला है। वही क्षुब्ध होने वाला है। वह संकुचन और विकास (लय और सृष्टि) द्वारा प्रधानत्व प्रकृति में अवस्थित होता है। स्पंदित प्रकृति से पुरातन पुरुष से प्रधान पुरुषात्मक बीज उत्पन्न हुआ। उसी से आत्मा, मति, ब्रह्मा, प्रबुद्धि, ख्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, धृति, स्मृति और सवित् की उत्पत्ति हुई। यह सृष्टि मनोमय है। यही प्रथम विकार है। यह तीन प्रकार के हैं- तेजस, भूतादि, तामस। वैकारिक अहंकार से वैकारिक सृष्टि हुई। इंद्रियां तेज का विकार हैं। इनके वैकारिक दस देवता है। ग्यारहवां मन है, जो, अपने गुणों से, उभयात्मक है। भूतादि (तामस अहंकार) से शब्द तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे आकाश उत्पन्न हुआ, जिसका गुण शब्द माना जाता है। आकाश ने भी विकार को प्राप्त कर के स्पर्श तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे आयु उत्पन्न हुआ, जिसका गुण स्पर्श कहा गया है। वायु ने भी विकार अग्नि को उत्पन्न कर के रूप तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे अग्नि से जल उत्पन्न हुआ, जो रस (जिह्वा) का आधार है। जल ने भी, विकार को प्राप्त कर के, गंध तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे गुण संघातमयी पृथ्वी उत्पन्न हुई। उसका गुण गंध है। इस प्रकार पुराणसम्मत उत्पत्ति विषयक तथ्यों से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि यह व्यावहारिक जगत उस प्रथम पुरुष के अधीन एक सत्ता है। सतोगुण, रजोगुण तमोगुण से युक्त यह पृथ्वी ईश्वर की माया के अधीन है। पृथ्वी कभी नष्ट नहींं होती है। प्रलय के पश्चात् इसका प्रकटीकरण होता है। यह जगत वास्तव में क्या है? कहां से इसकी उत्पत्ति हुई और कहां इसका लय है? व्यावहारिक जगत में इसका उत्तर है मुक्ति से ही जगत की उत्पत्ति हुई है। मुक्ति में ही विश्राम है और मुक्ति (निवृत्ति) में ही अंत में लय हो जाता है। यह भावना कि हम मुक्त हुए एक आश्चर्यजनक भावना है, जिसके बिना हम एक क्षण भी नहींं चल सकते हैं। इस विचार के अभाव में हमारे सभी कार्य, यहां तक कि हमारा जीवन भी व्यर्थ है। प्रत्येक क्षण प्रकृति यह संदेश सिद्ध कर रही है कि हम दास हैं। पर उसके साथ ही यह भाव उत्पन्न होता है कि हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण हम माया से आहत हो कर बंधन में प्रतीत होते हैं। उसी क्षण अंतरस में हलचल होती है। हम मुक्त हैं। यह मुक्ति की भावना ही हमें ईश्वर अंश जीव अविनाशी का बोध कराती है और यह बंधन हमें हमारी शेष इच्छाओं और वासनाओं का। इच्छाएं, वासनाएं जगत प्रपंच के अंतर्गत हंै, जबकि भुक्ति जगत से ऊपर है। जहां किसी प्रकार गति नहींं है, किसी प्रकार का परिणाम नहींं है, यही मोक्ष है। जगत का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहींं है।
प्रत्येक पदार्थ पर उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है; अर्थात् परस्पर सापेक्षता समस्त विश्व का नियम है। कार्य-कारण का सिद्धांत ही पुनर्जन्म की मान्यता को सिद्ध करता है। जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं और अनुभव करते हैं, संक्षेप में जगत का सभी कुछ एक बार कारण बनता है और फिर कार्य। एक वस्तु अपने आने वाली वस्तु का कारण बनती है। वह स्वयं अपनी पूर्ववर्ती किसी अन्य वस्तु का कार्य भी है। हम अपनी ही वासनाओं के परिवर्तित रूपों को हर जन्म में जीते हैं। गीता का यही संदेश है। जगत का प्रत्येक प्राणी वैकारिक अहंकार के अधीन ही कर्म करता है और कर्म के परिणामों से सुखी और दु:खी अनुभव करता है। ज्योतिष और वास्तु का ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति का मार्ग दिखा सकता है। कर्म प्रधान संसार होने के कारण ही योनियां निर्धारित हैं। दिशाओं और ब्रह्मांडीय ऊर्जा, चुंबकीय बल का प्रभाव समस्त अंडज, पिंडज, स्वदेज उद्भिज पर पड़ता है। इसमें मानव योनि ही कर्मशील और विवेकयुक्त है। अन्य सभी भोग योनियां रहती हैं। अथर्व वेद से निकले स्थापत्य वेद के नियमानुसार भवन निर्माण की प्रक्रिया पूर्णतया वैज्ञानिक है। ग्रहीय प्रभाव, उत्तरी और दक्षिणी अंक्षाश के प्राकृतिक अंतर को ध्यान में रख कर, वास्तु का पूर्ण लाभ लिया जा सकता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पंच महाभूतों, तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण, इनके प्रभाव को मानव अपने और प्रकृति के मध्य एक सामंजस्य बना कर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। वास्तु शास्त्र को सरलता से समझने के लिए ऋषियों ने इसे वास्तु पुरुष की संज्ञा दी, जो विभिन्न दिशाओं पर राज्य करते हैं, जिनका प्रभाव, सूर्य के उदय और अस्त होने के कारण, जैविक ऊर्जा और प्राणिक उर्जा के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को दर्शाते हैं। प्रत्येक दिशा अपना शुभ और अशुभ प्रभाव रखती है। उत्तर-पूर्व दिशा, ऐश्वर्य और सोम (अमृत) प्रदान करती है और शरीर में वाणी, बुद्धि, विद्या, न्रमता, आध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है। पूर्व दिशा मन-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने, अस्थियों के विकास और वंश वृद्धि में सहायक होने के साथ-साथ दीर्घायु कारक है। जापान में आयु का प्रतिशत विश्व में सबसे अधिक है। उसे उगते हुए सुरज का देश कहा जाता है। अग्नि कोण और दक्षिण, जहां शुक्र और मंगल से युक्त है वहीं, प्रदूषणयुक्त और जीवाणुरहित क्षेत्र होने के कारण, स्वास्थ्य और समृद्धि, जोश एवं उत्साह का संवाहक है। उत्तर-पूर्व दिशाएं जहां सकारात्मक प्रभाव डालती है, दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम दिशाएं नकारात्मक ऊर्जा की संवाहक है। पूर्व से पश्चिम सौर ऊर्जा का प्रभाव क्षेत्र रहता है। सूर्योदय से तीन घंटे सूर्य जीवन के लिए लाभदायक हैं और वृद्धि देता है। अगले तीन घंटे सूर्य के अग्नि और प्रकाश तत्व बढ़ जाते हैं। ऊर्जा का अधिक विकिरण होने के कारण ये हानिकारक ऊर्जा देते हैं। अगले तीन घंटे सूर्य अपने संपूर्ण प्रभाव से यम दिशा में स्थित होता है। यह सूर्य की विध्वंसक अवस्स्था होती हैं। अगले तीन घंटे सूर्य पश्चिम दिशा में फिर सौम्य रूप में होता है। रात्रि भर सूर्य की किरणें चंद्रमा के ऊपर पड़ कर पृथ्वी पर आती हैं और मानव, वनस्पति और सभी जड़-चेतन पर अपना प्रभाव डालती है। ज्योतिष और वास्तु में, संपूर्ण सौर मंडल में सूर्य ही एक नियामक ग्रह है, जिसकी किरणों के सातों अंश ग्रहोत्पादक हैं। सुषुम्न, हरिकेश, विश्वकर्मा, विश्वश्र्रवा संयद्वंसु, अर्वावसु और सप्तम स्वर है । इनमें सुषुम्न नामक किरण चंद्रमा को पुष्ट करती है। हरिकेश नामक किरण नक्षत्रों को पुष्ट करती है। विश्वकर्मा नामक किरण बुध का पोषण करती है। शुक्र का पोषण विश्वश्रवा नामक किरण करती है। संयद्वंसु नामक किरण मंगल का पोषण करती है। अर्वावसु किरण बृहस्पति को पुष्ट करती है। सप्तम स्वर नामक किरण शनि को पुष्ट करती है। इस प्रकार सूर्य के प्रभाव को प्राप्त कर के तारे-नक्षत्र वृद्धि को प्राप्त होते हैं और प्राणी जगत को प्रभावित करते हैं।
आत्मपुरुष के गुण साम्य की अवस्था में रहने पर जब तक विश्व की रचना नहींं हो जाती है, तब तक प्राकृत प्रलय होता है। यह प्राकृत प्रलय ब्रह्मा की रात्रि कही गयी है और सृष्टि करना उनका दिन कहा गया है। वस्तुत: ब्रह्मा का न दिन होता है, न रात। रात्रि के अंत में जागने पर जगत के अंतर्यामी, आदि, अनादि सर्वभूतमय, अव्यक्त ईश्वर प्रकृति और पुरूष में शीघ्र (हलचल) प्रवेश कर के परम योग से स्पंदन उत्पन्न करता है। वही परमेश्वर क्षोभ उत्पन्न करने वाला है। वही क्षुब्ध होने वाला है। वह संकुचन और विकास (लय और सृष्टि) द्वारा प्रधानत्व प्रकृति में अवस्थित होता है। स्पंदित प्रकृति से पुरातन पुरुष से प्रधान पुरुषात्मक बीज उत्पन्न हुआ। उसी से आत्मा, मति, ब्रह्मा, प्रबुद्धि, ख्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, धृति, स्मृति और सवित् की उत्पत्ति हुई। यह सृष्टि मनोमय है। यही प्रथम विकार है। यह तीन प्रकार के हैं- तेजस, भूतादि, तामस। वैकारिक अहंकार से वैकारिक सृष्टि हुई। इंद्रियां तेज का विकार हैं। इनके वैकारिक दस देवता है। ग्यारहवां मन है, जो, अपने गुणों से, उभयात्मक है। भूतादि (तामस अहंकार) से शब्द तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे आकाश उत्पन्न हुआ, जिसका गुण शब्द माना जाता है। आकाश ने भी विकार को प्राप्त कर के स्पर्श तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे आयु उत्पन्न हुआ, जिसका गुण स्पर्श कहा गया है। वायु ने भी विकार अग्नि को उत्पन्न कर के रूप तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे अग्नि से जल उत्पन्न हुआ, जो रस (जिह्वा) का आधार है। जल ने भी, विकार को प्राप्त कर के, गंध तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे गुण संघातमयी पृथ्वी उत्पन्न हुई। उसका गुण गंध है। इस प्रकार पुराणसम्मत उत्पत्ति विषयक तथ्यों से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि यह व्यावहारिक जगत उस प्रथम पुरुष के अधीन एक सत्ता है। सतोगुण, रजोगुण तमोगुण से युक्त यह पृथ्वी ईश्वर की माया के अधीन है। पृथ्वी कभी नष्ट नहींं होती है। प्रलय के पश्चात् इसका प्रकटीकरण होता है। यह जगत वास्तव में क्या है? कहां से इसकी उत्पत्ति हुई और कहां इसका लय है? व्यावहारिक जगत में इसका उत्तर है मुक्ति से ही जगत की उत्पत्ति हुई है। मुक्ति में ही विश्राम है और मुक्ति (निवृत्ति) में ही अंत में लय हो जाता है। यह भावना कि हम मुक्त हुए एक आश्चर्यजनक भावना है, जिसके बिना हम एक क्षण भी नहींं चल सकते हैं। इस विचार के अभाव में हमारे सभी कार्य, यहां तक कि हमारा जीवन भी व्यर्थ है। प्रत्येक क्षण प्रकृति यह संदेश सिद्ध कर रही है कि हम दास हैं। पर उसके साथ ही यह भाव उत्पन्न होता है कि हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण हम माया से आहत हो कर बंधन में प्रतीत होते हैं। उसी क्षण अंतरस में हलचल होती है। हम मुक्त हैं। यह मुक्ति की भावना ही हमें ईश्वर अंश जीव अविनाशी का बोध कराती है और यह बंधन हमें हमारी शेष इच्छाओं और वासनाओं का। इच्छाएं, वासनाएं जगत प्रपंच के अंतर्गत हंै, जबकि भुक्ति जगत से ऊपर है। जहां किसी प्रकार गति नहींं है, किसी प्रकार का परिणाम नहींं है, यही मोक्ष है। जगत का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहींं है।
प्रत्येक पदार्थ पर उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है; अर्थात् परस्पर सापेक्षता समस्त विश्व का नियम है। कार्य-कारण का सिद्धांत ही पुनर्जन्म की मान्यता को सिद्ध करता है। जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं और अनुभव करते हैं, संक्षेप में जगत का सभी कुछ एक बार कारण बनता है और फिर कार्य। एक वस्तु अपने आने वाली वस्तु का कारण बनती है। वह स्वयं अपनी पूर्ववर्ती किसी अन्य वस्तु का कार्य भी है। हम अपनी ही वासनाओं के परिवर्तित रूपों को हर जन्म में जीते हैं। गीता का यही संदेश है। जगत का प्रत्येक प्राणी वैकारिक अहंकार के अधीन ही कर्म करता है और कर्म के परिणामों से सुखी और दु:खी अनुभव करता है। ज्योतिष और वास्तु का ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति का मार्ग दिखा सकता है। कर्म प्रधान संसार होने के कारण ही योनियां निर्धारित हैं। दिशाओं और ब्रह्मांडीय ऊर्जा, चुंबकीय बल का प्रभाव समस्त अंडज, पिंडज, स्वदेज उद्भिज पर पड़ता है। इसमें मानव योनि ही कर्मशील और विवेकयुक्त है। अन्य सभी भोग योनियां रहती हैं। अथर्व वेद से निकले स्थापत्य वेद के नियमानुसार भवन निर्माण की प्रक्रिया पूर्णतया वैज्ञानिक है। ग्रहीय प्रभाव, उत्तरी और दक्षिणी अंक्षाश के प्राकृतिक अंतर को ध्यान में रख कर, वास्तु का पूर्ण लाभ लिया जा सकता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पंच महाभूतों, तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण, इनके प्रभाव को मानव अपने और प्रकृति के मध्य एक सामंजस्य बना कर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। वास्तु शास्त्र को सरलता से समझने के लिए ऋषियों ने इसे वास्तु पुरुष की संज्ञा दी, जो विभिन्न दिशाओं पर राज्य करते हैं, जिनका प्रभाव, सूर्य के उदय और अस्त होने के कारण, जैविक ऊर्जा और प्राणिक उर्जा के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को दर्शाते हैं। प्रत्येक दिशा अपना शुभ और अशुभ प्रभाव रखती है। उत्तर-पूर्व दिशा, ऐश्वर्य और सोम (अमृत) प्रदान करती है और शरीर में वाणी, बुद्धि, विद्या, न्रमता, आध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है। पूर्व दिशा मन-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने, अस्थियों के विकास और वंश वृद्धि में सहायक होने के साथ-साथ दीर्घायु कारक है। जापान में आयु का प्रतिशत विश्व में सबसे अधिक है। उसे उगते हुए सुरज का देश कहा जाता है। अग्नि कोण और दक्षिण, जहां शुक्र और मंगल से युक्त है वहीं, प्रदूषणयुक्त और जीवाणुरहित क्षेत्र होने के कारण, स्वास्थ्य और समृद्धि, जोश एवं उत्साह का संवाहक है। उत्तर-पूर्व दिशाएं जहां सकारात्मक प्रभाव डालती है, दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम दिशाएं नकारात्मक ऊर्जा की संवाहक है। पूर्व से पश्चिम सौर ऊर्जा का प्रभाव क्षेत्र रहता है। सूर्योदय से तीन घंटे सूर्य जीवन के लिए लाभदायक हैं और वृद्धि देता है। अगले तीन घंटे सूर्य के अग्नि और प्रकाश तत्व बढ़ जाते हैं। ऊर्जा का अधिक विकिरण होने के कारण ये हानिकारक ऊर्जा देते हैं। अगले तीन घंटे सूर्य अपने संपूर्ण प्रभाव से यम दिशा में स्थित होता है। यह सूर्य की विध्वंसक अवस्स्था होती हैं। अगले तीन घंटे सूर्य पश्चिम दिशा में फिर सौम्य रूप में होता है। रात्रि भर सूर्य की किरणें चंद्रमा के ऊपर पड़ कर पृथ्वी पर आती हैं और मानव, वनस्पति और सभी जड़-चेतन पर अपना प्रभाव डालती है। ज्योतिष और वास्तु में, संपूर्ण सौर मंडल में सूर्य ही एक नियामक ग्रह है, जिसकी किरणों के सातों अंश ग्रहोत्पादक हैं। सुषुम्न, हरिकेश, विश्वकर्मा, विश्वश्र्रवा संयद्वंसु, अर्वावसु और सप्तम स्वर है । इनमें सुषुम्न नामक किरण चंद्रमा को पुष्ट करती है। हरिकेश नामक किरण नक्षत्रों को पुष्ट करती है। विश्वकर्मा नामक किरण बुध का पोषण करती है। शुक्र का पोषण विश्वश्रवा नामक किरण करती है। संयद्वंसु नामक किरण मंगल का पोषण करती है। अर्वावसु किरण बृहस्पति को पुष्ट करती है। सप्तम स्वर नामक किरण शनि को पुष्ट करती है। इस प्रकार सूर्य के प्रभाव को प्राप्त कर के तारे-नक्षत्र वृद्धि को प्राप्त होते हैं और प्राणी जगत को प्रभावित करते हैं।
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