इस धरती पर जन्म लेने वाले हर प्राणी के लिए उसका जन्म-क्षण बहुत महत्वपूर्ण होता है, ऐसी ज्योतिष ज्ञान की मान्यता है। इस क्षण को आधार मानकर ज्योतिष गणना द्वारा उसके सम्पूर्ण जीवन का लेखा-जोखा जन्मकुंडली से तैयार किया जा सकता है। इस बनाई गई कुंडली से इस जातक के जीवन में होने वाली शुभ-अशुभ घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। जन्म कुंडली के बारह भावों में नौ ग्रह स्थित होकर शुभ तथा अशुभ योगों की रचना करते हैं। भारतीय ज्योतिष की मान्यतानुसार योगों की रचना कुछ आधारों पर की गई है जिनमें से एक है ग्रहों का परस्पर संबंध। इन संबंधों में से एक है ग्रहों की परस्पर युति अर्थात् एक ही भाव में दो या अधिक ग्रहों का एक साथ होना। किसी भी कुंडली का शुभत्व या अशुभत्व उस कुंडली के भिन्न-भिन्न भावों तथा राशियों में स्थित ग्रहों तथा उनसे बनने वाले योगों के मिश्रित फल से जाना जा सकता है। जब योग भंग होते हैं तो उनका फल भी प्रभावहीन हो जाता है। चंद्र का एक नाम अमृत है और शनि का एक कारकत्व विष है। अतः चंद्र-शनि की युति अमृत-विष का योग बनाती है। चंद्रमा मन है और शनि विष अर्थात् अशुभ कर्ता। इन दोनों की युति का जातक के जीवन पर कैसा प्रभाव होगा, यह आकलन महत्वपूर्ण है। पुरातन ज्योतिष साहित्य में सभी प्रबुद्ध दैवज्ञों ने इस अमृत-विष युति के फल को अशुभ ही कहा है। इसके कुछ उदाहरण हैं- जातकभरणम्- दुराचारी, परजात, धनहीन; चमत्कार निंदक, धनहीन; बृहद्जातक व फलदीपिका - दूसरे पतिवाली स्त्री का पुत्र आदि। चंद्र-शनि युति किस भाव में है और किस राशि में, कौन से अन्य ग्रहों का इस युति पर क्या प्रभाव है- इन सब बातों को ध्यान में रखकर जन्म कुंडलियों का विश्लेषण किया गया, परंतु उपर्युक्त फलों और चंद्र-शनि युति में कोई सामंजस्य नहीं मिल पाया। अतः इस अध्ययन की आवश्यकता की अनुभूति हुई। यह सत्य है और सर्वमान्य है कि शनि पापग्रह व अशुभ ग्रह है, परंतु ऐसा भी माना गया है कि शनि अंत में शुभफल देने वाला ही होता है। चंद्र की शुभता-अशुभता उसके पूर्ण और क्षीण होने से मानी गई है। चंद्र मन है और शनि विष, तो इनकी युति को मन की विचित्रता को व्यक्त करना चाहिए। हमारे मत से सनकीपन का संबंध इस युति से होना चाहिए। किस प्रकार की मंथन मन की होगी, यह इस युति के भाव विशेष में स्थिति, उस भाव की राशि, इस युति पर अन्य ग्रहों की दृष्टि, अन्य योगों की उपस्थिति आदि पर निर्भर करेगी।
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