विभिन्न कार्यों के लिए तिथि, वार, नक्षत्र आदि के आधार पर जिन मुहूर्तों का चयन किया जाता है, उनमें अथर्ववेद के अनुसार तिथि, वार, करण, योग, तारा, चंद्रमा तथा लग्न का फल उत्तरोत्तर हजार गुणा तक बढ़ता जाता है। परंतु महर्षि गर्ग, नारद और कश्यप मुनि केवल लग्न की प्रशंसा करते हैं क्योंकि लग्न शुद्धि का विचार न करके किया गया कोई भी काम पूर्णतः निष्फल हो जाता है। इन सबसे ऊपर स्थानीय मध्यान्ह काल में 248 पल का अभिजित नामक मुहूर्त समस्त शुभ कार्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ है। परंतु बुधवार को इस मुहूर्त का भी परित्याग करना चाहिए गर्भ धारण से अन्त्येष्टि तक सभी संस्कारों तथा अन्य मांगलिक कार्यों में मुहूर्त की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अब प्रश्न उठता है कि मुहूर्त क्या है? किसी कार्य के सफल संपादन के लिए ज्योतिषीय गणना पर निर्धारित समयावधि को मुहूर्त कहा जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अच्छे (बलवान) समय या शुभ अवसर के चयन की प्रक्रिया को शुभ मुहूर्त कहते हैं। मुहूर्त शास्त्र के अनुसार तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण आदि के संयोग से शुभ या अशुभ योगों का निर्माण होता है। मुहूर्त ज्योतिष शास्त्र का सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण अंग है। मुहूर्त के करण ही ज्योतिष शास्त्र को वेद का नेत्र कहा गया है। शुभ मुहूर्त हेतु तिथि, वार, नक्षत्र को चयन शुभवार- सोम, बुध, गुरु और शुक्रवार। शुभ मुहूर्त हेतु शुभ वार हैं। शुभ तिथि- दोनों पक्षों की 2, 3, 5, 7, 10, 12वीं तिथि और कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी ये शुभ तिथियां हैं। शुभ नक्षत्र - अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, रेवती - ये शुभ नक्षत्र हैं। तारा बल- जन्म नक्षत्र से इष्टकालीन नक्षत्र (जिस दिन कार्य करना हो उस दिन के चंद्र नक्षत्र) की संख्या को 9 से भाग देने पर यदि शेष संख्या 1,2,4,6,8,0 रहे तो शुभ ताराबल प्राप्त होता है। यदि 3,5,7 शेष रहे तो तारा अशुभ होती है। मुहूर्त में अशुभ तारा का त्याग करना चाहिए। किंतु ताराबल का विचार सिर्फ कृष्ण पक्ष में ही करना चाहिए। चंद्रबल- अपनी जन्म राशि से 1,3,6,7,10,11 वें स्थान का चंद्रमा शुभ होता है। इसके अलावा शुक्ल पक्ष में 2,5,9वीं राशि स्थान का चंद्रमा भी शुभ होता है। यदि चंद्रमा क्रूर ग्रह से युक्त अथवा क्रूर ग्रहों के मध्य में हो तो शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। यदि चंद्रमा से सप्तम स्थान में क्रूर ग्रह सूर्य, शनि या मंगल हो तो विवाह, यात्रा, चूड़ाकर्म तथा गृह प्रवेश नहीं करना चाहिए। शुभ मुहूर्त में लग्न का बल सर्वाधिक होता है- अथर्ववेद के अनुसार मुहूर्त में तिथि का फल एक गुणा, नक्षत्र चार गुणा, वार का फल आठ गुणा, करण का फल सोलह गुणा, योग का फल बत्तीस गुणा, तारा का फल साठ गुणा, चंद्रमा का फल सौ गुणा और लग्न का फल एक हजार गुणा होता है। महर्षि गर्ग, नारद और कश्यप मुनि केवल लग्न की प्रशंसा करते हैं। इसके अनुसार लग्न का विचार छोड़कर जो कुछ काम किया जाये, वह सब निष्फल होता है। जैसे ग्रीष्म ऋतु में क्षुद्र नदियां सूख जाती हैं। वैसे ही तिथि, नक्षत्र, योग अथवा चंद्रमा के बल का कोई महत्व नहीं है। लोग कहते हैं कि चंद्रमा का बल प्रधान है, किंतु शास्त्रों के अनुसार लग्न का बल ही प्रधान है। वर्ष मासो दिनं लग्न मुहूर्तश्चेति पंचकम्। कालस्या गानि मुख्यानि प्रबलान्युत्तरोत्तम्।। वर्ष, मास, दिन, लग्न और मुहूर्त ये उत्तरोत्तर बली है। लग्न शुद्धि शुभ मुहूर्त हेतु उपचय राशि का लग्न, ग्रहण, करना चाहिए। अपनी जन्म राशि से 8वीं या 12वीं राशि का लग्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। लग्न से 8वें, 12वें स्थान में कोई ग्रह न हो। मुहूर्त लग्न के केंद्र-त्रिकोण स्थानों (1,4,7,10,5,9) में शुभ ग्रह हो तथा 3,6,11वें स्थान में पापग्रह हों। जो लग्न जितने अधिक शुभ ग्रहों से युक्त, दृष्ट हो उतना ही अधिक बली और फलप्रद होता है। जिस मुहूर्त लग्न से चंद्रमा 3,6,10 या 11वें स्थान में हो तो उस मुहूर्त में किये गए सभी कार्य सफल होते हैं। उपरोक्त प्रकार से शोधित मुहूर्त लग्न सर्वोत्तम होता है। यदि केंद्र या त्रिकोण में स्थित पापग्रहों पर बुध, गुरु या शुक्र की दृष्टि हो अथवा केंद्र या त्रिकोण में स्थित बुध, गुरु या शुक्र की दृष्टि पाप ग्रहों पर हो तो पाप ग्रह भी दोषकारक नहीं होता बल्कि उसका फल शुभ हो जाता है। यात्रा लग्न के 6,8,9 भावों को छोड़कर अन्य भावों में यदि पाप ग्रह हो तथा 4,3,11 भाव में शुक्र हो जिस पर केंद्रस्थ गुरु की दृष्टि हो तो यह यात्रा लग्न धनदायक होता है। अष्टवर्गेण ये शुद्धास्ते शुद्धा सर्वकर्मसु। सूक्ष्माऽष्ट संशुद्धि स्थूला शुद्धिस्तु गोचरे।। राजमात्र्तण्ड के अनुसार यदि ग्रह को अष्टकवर्ग में रेखा बल प्राप्त हो तो सूक्ष्माष्टक शुद्धि होने पर स्थूल मान से 4,8,12वें गोचरीय ग्रह (सूर्य, चंद्र, गुरु) अशुभ होने पर भी शुभ होते हैं। लग्न समय पर सूर्य, चंद्र, गुरु का रेखाष्टक बल ज्ञात करें। 4 से 8 तक रेखा बल प्राप्त होने पर मांगलिक कार्य प्रारंभ करना शास्त्र सम्मत है। ग्रह की 1 से 3 रेखा आने पर ग्रह नेष्ट फल प्रदान करता है। अभिजित में समस्त कार्यों की सिद्धि होती है सूर्योदय के बाद चैथे लग्न को विजय लग्न या अभिजित लग्न माना जाता है। सूर्य की दशम भाव में स्थिति भी अभिजित लग्न में होती है। इसकी अवधि लगभग 1 घंटा 40 मिनट होती है। अभिजित मुहूर्त में किये गए समस्त कार्य सफल होते हैं। क्योंकि यह मुहूर्त सभी दोषों को दूर करने वाला होता है। लग्न दिन हंति मुहूतः सर्वदूषणम। तस्मात् शुद्धि मुहत्र्तस्य सर्वकार्येषु शस्यते।। स्थानिय समय के अनुसार दोपहर 11.36 से 12.25 बजे तक (मध्याह्न काल में) अभिजित मुहूर्त होता है। सर्वेषां वर्णानामऽभिजित्संज्ञको मुहूर्तस्यात् अष्टमो दिवसस्र्योर्द्ध त्वभिजित्संज्ञकः क्षणः।। मध्याह्न काल में 248 पलों का आठवां मुहूर्त अभिजित संज्ञक होता। अभिजित मुहूर्त समस्त शुभ कार्यों के लिए श्रेष्ठ है। इस मुहूर्त में किए गए समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। अभिजित मुहूर्त साधन इष्ट दिन के दिनमान को आधा करके उसे घंटा मिनट में परिवर्तित करें, तथा इसे स्थानीय सूर्योदय काल में जोड़ें, यह अभिष्ट दिन का मध्याह्न काल होगा। उपरोक्त विधि से प्राप्त मध्याह्न काल से 24 मिनट पूर्व और 24 मिनट पश्चात कुल 48 मिनट अर्थात् 2 घटी का अभिजित नामक मुहूर्त होता है। बुधवार के दिन अभिजित मुहूर्त शुभ नहीं होता है अतः बुधवार को अभिजित मुहूर्त का त्याग करना चाहिए। बुधवार को दोपहर 12 बजे के बाद रोग नामक अशुभ चैघड़िया यदि सूर्योदय 6 बजे से पूर्व का हो तो अभिजित मुहूर्त का अधिकांश समय रोग चैघड़िया में चला जाता है। ऐसे में अभिजित विजय नहीं दिलाता है। राहु काल से डरे नहीं वार वेला या काल वेला की भांति वारानुसार अर्धप्रहर को राहु काल कहते हैं। दिनमान का वह आठवां हिस्सा जिसका स्वामी राहु माना गया है। राहुकाल कहलाता है। राहुकाल ज्ञात करने के लिए स्थानीय दिनमान के समान आठ भाग करके इस अष्टमांश को वार के गुणक से गुणा करें। इस गुणनफल को स्थानीय सूर्योदय में जोड़ देने से राहुकाल का प्रारंभिक समय ज्ञात हो जाता है। इस समय में दिन के अष्टमांश को जोड़ देने से राहुकाल का समाप्ति काल निकल आता है।
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