Thursday, 7 July 2016

गृह कलह निवारण के कुछ ज्योतिष उपाय......

रिश्तों की डोर बहुत नाजुक होती है, फिर चाहे वह पति-पत्नी हों, सास-बहू हों, पिता पुत्र हों या फिर भाई-भाई, इनके बीच कभी न कभी आपस में टकराव हो ही जाता है। यदि बात नोकझोंक तक सीमित रहे तो ठीक लेकिन यदि कलह का रूप लेने लगे तो पारिवारिक वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है। इस आलेख में अनेक प्रकार की समस्याओं के निदान एवं गृह कलह निवारण के अनुभूत उपाय दिए जा रहे हैं...
गृह कलह की कोई न को¬ई वजह जरूर होती है जैसे पति-पत्नी के तनाव का मुख्य कारण उनके घरवालों को लेकर उत्पन्न कलह होती है। कलह के कारण कई बार तो दाम्पत्य जीवन में तनाव इतना बढ़ जाता है कि तलाक तक की नौबत आ जाती है। इससे बचाव का एक सरल सा रास्ता यह है कि जब भी आप अपने लड़के या लड़की के गुणों का मिलान कराएं तो गुणों के साथ-साथ पत्री पर भी ध्यान दें। कई बार कलह बच्चों के जन्म को लेकर भी होता है जिसकी वजह से गृह क्लेश काफी बढ़ जाता है।
दाम्पत्य जीवन में कलह के कुछ मुख्य कारण इस प्रकार हैं।
- लड़के या लड़की की पत्री में सप्तम भाव में शनि का होना या गोचर करना।
- किसी पाप ग्रह की सप्तम या अष्टम भाव पर दृष्टि होना या राहु, केतु अथवा सूर्य का वहां बैठना
- पति-पत्नी की एक सी दशा या शनि की साढ़े साती का चलना भी कलह एवं तलाक का एक कारण होता है।
- शुक्र की गुरु में दशा का चलना या गुरु में शुक्र की दशा का चलना भी एक कारण है। कलह को दूर करने के कुछ उपायों का वर्णन यहां किया जा रहा है।
- अगर कलह का कारण शनि ग्रह से संबंधित है तो शनि ग्रह की शांति कर सकते हैं, शनि यंत्र पर जप कर सकते हैं और शनि की वस्तुओं का दान भी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त सात मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर सकते हैं। यह उपाय शनिवार को सायंकाल के समय करना ठीक होता है ।
- अगर गृह कलह राहु से संबंधित हो तो राहु यंत्र पर राहु के मंत्र का जप करें एवं 8 मुखी रुद्राक्ष धारण करें। यह सभी प्रकार के कलहों व बाधाओं से मुक्त करता है और राहु के दुष्प्रभाव का निवारण करता है। इसके लिए राहु का दान भी कर सकते हैं।
- अगर गृह क्लेश का कारण केतु ग्रह हो तो उसकी वस्तुओं का दान एवं उसके मंत्र का जप करें। केतु यंत्र पर पूजा करें। गणेश मंत्र का जप करें। 9 मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर सकते हैं।
अगर गृहस्थ जीवन में कलह किसी पराई स्त्री की वजह से हो तो ये उपाय करें।
- कई बार देखने में आता है कि न तो ग्रहों की परेशानी है, न ही पत्री में दशा एवं गोचर की स्थिति खराब है। फिर भी गृह कलह है जिसके कारण बात तलाक तक पहुंच जाती है। ऐसे में यह धारणा होती है कि किसी ने कुछ जादू टोना अर्थात तांत्रिक प्रयोग तो नहीं किया। अगर ऐसा लगे तो ये उपाय करें:
- घर में पूजा स्थान में बाधामुक्ति यंत्र स्थापित करें।
- शुक्ल पक्ष में सोमवार को उत्तर दिशा में मुख करके पति और पत्नी गौरीशंकर रुद्राक्ष धारण करें।
- शयन कक्ष में शुक्र यंत्र की स्थापना करें।
विवाह बाधा के उपाय
- बाधा मुक्ति यंत्र की स्थापना एवं रोज सुबह पूजा करें।
- शनि ग्रह के कारण विवाह में बाधा आ रही हो तो लड़के या लड़की को सातमुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।
- शनि ग्रह की वस्तुएं दान करनी चाहिए।
- शनि यंत्र पर शनिवार से शुरू करके रोज शनि के मंत्र का जप करना चाहिए।
सूर्य के कारण विवाह में बाधा आती हो तो:
- सूर्य यंत्र को अपने घर में स्थापित करके सूर्य मंत्र का जप करें। यह रविवार से शुरू करके रोज करें।
- सूर्य की वस्तुओं का दान करें। तांबे के एक लोटे में गेहूं भरकर रविवार की सुबह 6 से 8 बजे के बीच दान करें।
- रविवार को 1 मुखी रुद्राक्ष धारण करें।
राहु ग्रह के कारण विवाह बाधाः
अगर विवाह में बाधा राहु ग्रह के कारण आ रही हो तो ये उपाय करेंः
- आठमुखी रुद्राक्ष धारण करें।
- राहु यंत्र को अपने पूजा स्थान पर स्थापित करें।
- रविवार को जौ लेकर रविवार के दिन दान करें।
- किसी गरीब को पानमसाला दान करें।
- गुरुद्वारे में या किसी भी धर्मस्थल पर जूते चप्पल की सेवा करें।
अशुभ ग्रहों का उपाय कर लेना अनिवार्य होता है। खास कर पुरुषों को तो केतु के उपाय करने ही चाहिए, क्योंकि विवाह के बाद पुरुष के ग्रहों का संपूर्ण प्रभाव स्त्री पर पड़ता है।
लड़की की शादी में रुकावट आने पर
- गुरुवार को विष्णु-लक्ष्मी जी के मंदिर में जा कर विष्णु जी को कलगी (जो सेहरे के ऊपर लगी होती है) चढ़ाएं। साथ में बेसन के पांच लड्डू चढ़ाएं। शादी जल्दी हो जाएगी।
- किसी भी कारण से, योग्य वर नहीं मिल पा रहा हो, तो कन्या किसी भी गुरुवार को प्रातः नहा-धो कर पीले रंग के वस्त्र पहने। फिर बेसन के लड्डू स्वयं बनाए। लड्डुओं का आकार कुछ भी हो, परंतु उनकी गिनती 108 होनी चाहिए। फिर पीले रंग के प्लास्टिक की टोकरी में, पीले रंग का कपड़ा बिछा कर उन 108 लड्डुओं को उसमें रख दे तथा अपनी श्रद्धानुसार कुछ दक्षिणा रख दे। पास के किसी शिव मंदिर में जा कर, विवाह हेतु गुरु ग्रह की शांति और अनुकूलता के लिए संकल्प करके, सारा सामान किसी ब्राह्मण को दे दे। शिव-पार्वती से प्रार्थना कर अपने घर आ जाए।
यदि कन्या का विवाह न हो रहा हो और माता-पिता बहुत परेशान हांे, सारे प्रयास विफल हो रहे हांे तो उसे किसी शुभ मुहूर्त में निम्न मंत्रों में से किसी एक का जप करना चाहिए।
लड़के की शादी के लिए
गुरुवार को पीले रंग की चुन्नी, पीला गोटा लगा कर, विष्णु-लक्ष्मी जी को चढ़ाएं। साथ में बेसन के पांच लड्डू चढ़ाएं तो शादी में आने वाली रुकावट दूर हो जाएगी।
ग्रहों के उपाय निम्नलिखित हैं
-सूर्य के लिए गेहूं और तांबे का बर्तन दान करें।
-चंद्र के लिए चावल, दूध एवं चांदी की वस्तु का दान करें।
-मंगल के लिए साबुत मसूर या मसूर की दाल दान करें।
-बुध के लिए साबुत मूंग का दान करें।
-गुरु के लिए चने की दाल एवं सोने की वस्तु दान करें।
-शुक्र के लिए दही, घी, कपूर और मोती में से किसी एक वस्तु का दान करें।
-शनि के लिए काले साबुत उड़द एवं लोहे की वस्तु का दान करें।
-राहु के लिए सरसों एवं नीलम का दान करें।
-केतु के लिए तिल का दान करें।

क्या आपको पता है...... आपके शरीर पर विभिन्न तिलों का महत्व

तिल मानव शरीर पर उभरे काले रंग के छोटे धब्बेनुमा दाग या निषान होते हैं। तिलों के अध्ययन के द्वारा हम शरीर के विभिन्न भागों में स्थित तिलों के बारे में समझ पाते हैं। कई तिल तो शरीर में जन्मजात होते हैं लेकिन कई तिल ऐसे भी होते हैं जो कि हमारे जीवन काल में उत्पन्न होते हैं और अदृष्य भी हो जाते हैं तथा इनका रंग व आकार भी बदलता रहता है।
यह भाग्य में बदलाव का संकेत देते हैं। सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार यह तिल मानव जीवन के कई रहस्यों से पर्दा उठाते हैं। मानव शरीर पर बने तिल सिर्फ सौन्दर्य की ही वस्तु नहीं होती वरन इसके द्वारा मानव व्यवहार के कई रहस्य जाने जा सकते हैं जैसे माथे पर तिल का होना मनुष्य को भाग्यवान बनाता है जबकि होठों पर तिल कामुकता को दर्षाता है। सामुद्रिक शास्त्र में तिल और मस्सों आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है ।
एक उभरे हुए तिल को मस्से के रूप में जाना जाता है। तिल स्त्री के शरीर पर बाएँ भाग में तथा पुरूष के शरीर पर दायें भाग में शुभ जाने जाते हैं। शहद जैसे भूरे, पन्ना की तरह हरे एवं लाल रंग के तिलों को काले तिलों की अपेक्षा अधिक शुभ माना जाता है। भारतीय और चीनी ज्योतिष में तिलों को जातक के भाग्य के सूचक के रूप में जाना जाता है। जातक के ऊपर ग्रहों का प्रभाव मां के गर्भ में भ्रूण के निर्माण के साथ ही आरम्भ हो जाता है। कुछ ग्रह भ्रूण पर अधिक प्रभाव डालते हैं तथा कुछ ग्रह कम प्रभाव डालते हैं। ग्रहों का ये प्रभाव तिलों के निर्माण के रूप में सामने आता है जोकि शरीर की सतह पर दिखाई देते हैं। ज्योतिष के अनुसार तिलों का महत्व उनके आकार के साथ बढ़ता जाता है ।
तिलों तथा जन्मचिह्नों का स्पष्टीकरण दो तत्वों पर निर्भर करता है- प्रथम उनका भौतिक बनावट तथा द्वितीय जातक के शरीर का वह भाग जहाँ वह स्थित होते हैं। संकेत निधि स्पष्ट रूप से यह इंगित करते हैं कि तिलों का एक निष्चित प्रभाव होता है। शरीर के विभिन्न भागों में स्थित तिल राषि चक्र को सूचित करते हैं जिसके द्वारा जातक का जीवन विषेष रूप से प्रभावित होता है। ज्योतिष में प्रत्येक राषि चक्र शरीर के विषेष भाग पर प्रभुत्व रखता है। जैसे कि मेष राषि - मस्तक, वृष राषि - चेहरा, गर्दन, गला, दायां नेत्र तथा नाक, मिथुन राषि - बाँहें, कंधे, दायां कान, पसली का ऊपरी भाग तथा दाया हाथ, कर्क राषि -छाती, स्तन, पेट, कुहनी, फेफडे़, सिंह राषि - हृदय आदि ।
मस्तक या ललाट के दायीं ओर तिल व्यक्ति को ऐष्वर्यषाली एवं भाग्यषाली बनाता है जबकि बायीं ओर तिल साधारण फल ही देते हैं। लेकिन स्त्रियों में बायीं ओर का चिह्न शुभ फल देता है।
दायीं कनपटी पर तिल षीघ्र विवाह का सूचक होता है। सुन्दर पत्नी, अचानक धन लाभ भी देता है। बायीं कनपटी का तिल अचानक विवाह के योग बनाता है साथ ही धनप्राप्ति भी देता है लेकिन वह धन शीघ्र नष्ट होने वाला होता है।
स्त्रियों के बाएँ गाल पर स्थित तिल पुत्र दायक होता है तथा बुढ़ापे में संतान सुख भी मिलता है। यदि तिल भौहों की नोक या माथे पर होता है तो स्त्री को राजपद की प्राप्ति होती है। नाक के अग्रभाग में स्थित तिल स्त्री को परम सुख की भागी बनाता है।
भौहों के मध्य रिक्त स्थान पर स्थित तिल अति शुभ होते हैं। दाहिनी भौंह पर तिल सुखमय दांपत्य जीवन का संकेत है जबकि बायीं भौंह पर तिल विपरीत फल देता है। पलकों पर तिल शुभ नहीं माने जाते तथा भविष्य में किसी कष्ट के आने का संकेत देते हैं। कनपटी पर तिल जातक को वैरागी या संन्यासी बनाते हैं। नाक के अग्रभाग पर तिल व्यक्ति को विलासी बनाता है। गाल पर तिल पुत्र प्राप्ति का सूचक है। ऊपरी होंठ पर स्थित तिल धनवान और प्रतिष्ठावान बनाता है जबकि नीचे के होंठ पर तिल जातक के कंजूस होने का संकेत देता है ।
नाक की टिप पर तिल जातक के लिए शुभ होता है। नाक के दाहिनी तरफ तिल कम प्रयत्न के साथ अधिक लाभ देता है जबकि बायीं तरफ का तिल अषुभ प्रभाव देता है। ठोड़ी पर तिल का होना भी शुभ होता है। व्यक्ति के पास हमेषा धन प्राप्ति का साधन रहता है तथा वह अभावों में नहीं रहता है। गले में स्थित तिल व्यक्ति के दीर्घायु होने का संकेत देता है तथा व्यक्ति को ऐषोआराम के साधन बड़ी सुगमता से मिलते रहते हैं ।
गले पर तिल वाला जातक आरामतलब होता है। गले के आगे के भाग में तिल वाले जातक के मित्र बहुत होते हैं जबकि गले पर पीछे तिल होना जातक के कर्मठ होने का सूचक है। गले के पीछे स्थित तिल व्यक्ति को सौभाग्यषाली बनाते हैं लेकिन कंधे और गर्दन के जोड़ पर स्थित तिल का फल शुभ नहीं होता है। कानों पर स्थित तिल विद्या व धनदायक होते हैं ।
हाथ की उंगलियों के मध्य स्थित तिल जातक को सौभाग्यषाली बनाते हैं। अंगूठे पर तिल जातक को कार्यकुषल, व्यवहार कुषल तथा न्यायप्रिय बनाता है। तर्जनी पर तिल जातक को विद्यावान, गुणवान, धनवान लेकिन शत्रु से पीड़ित बनाता है। मध्यमा पर तिल शुभ फलदायी होता है। जातक का जीवन सुखी व शांतिपूर्ण होता है। अनामिका पर तिल जातक को विद्वान, यषस्वी, धनी और पराक्रमी बनाता है जबकि कनिष्ठा पर तिल जातक को सम्पत्तिवान तो बनाता है लेकिन जीवन में शांति की कमी रहती है। हथेली के मध्य में तिल धन प्राप्त कराते हैं। बांह में कोहनी के नीचे स्थित तिल शुभ होता है। यह शत्रु नाषक होता है। परंतु कलाई पर स्थित तिल अषुभ होता है। भविष्य में जेल की सजा हो सकती है। हाथ की त्वचा पर स्थित तिल शुभफलदायी होते हैं।
हृदय पर स्थित तिल पुत्र प्राप्ति का सूचक होता है। ऐसी स्त्री सौभाग्यवती होती है। वक्षों के आस-पास स्थित तिल भी ऐसा ही फल देता है। पेट और कमर के जोड़ के पास के तिल अषुभ फलदायी होते हैं जबकि सीने पर स्थित तिल वाले जातक की मनोकामनाएं स्वयं पूर्ण हो जाती हैं। यदि तिल दोनों कंधों पर स्थित हैं तो जातक का जीवन संघर्षपूर्ण होता है। दायें कंधे पर तिल जातक की तेज बुद्धि तथा विकसित ज्ञान को इंगित करता है। कांख पर स्थित तिल धनहानि का सूचक है। कमर पर तिल शुभ फलदायी होता है।
पेट पर स्थित तिल शुभ नहीं माने जाते। यह व्यक्ति के दुर्भाग्य के सूचक हैं। ऐसे जातक भोजन के शौकीन होते हैं। लेकिन नाभि के आसपास स्थित तिल जातक को धन-समृद्धि दिलाते हैं। यदि तिल नाभि से थोड़ा नीचे है तो जातक को कभी भी धन का अभाव नहीं होता है। पीठ पर तिल जातक को महत्वाकांक्षी, भौतिकवादी प्रवृत्ति देता है। जातक रोमांटिक स्वभाव का तथा भ्रमणषील होता है। ऐसे जातक धन खूब कमाते हैं तथा खर्चा भी खूब करते हैं ।
घुटनों पर स्थित तिल शत्रुओं के नाष को सूचित करते हैं। पिंडली पर तिल शुभ नहीं माने जाते हैं। टखनों पर भी तिल शुभ फल नहीं देते हैं। कुल्हों के ऊपर स्थित तिल धन का नाष करते हैं। एड़ी में स्थित तिल भी धन तथा मान-सम्मान कम करते हैं। पैरों पर स्थित तिल वाला जातक यात्राओं का शौकीन होता है। लेकिन पैरों की उंगलियों के तिल जातक को बंधनमय जीवन देते हैं। पैर के अंगूठे का तिल व्यक्ति को समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करवाता है।

बच्चे को सर्वगुण संपन्न करने हेतु कराएं कुंडली विश्लेषण.......

आज बच्चे का सर्वगुण संपन्न होना अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। बच्चे को यदि एक क्षेत्र में महारत हासिल है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों में भी वह दक्षता हासिल करे। संगीत, कला, साहित्य, खेल, रचनात्मक योग्यता, सामान्य ज्ञान ये सारी पाठ्येत्तर गतिविधियों में तो वह कुशाग्र हो साथ ही वह विनम्र और आज्ञाकारी भी बना रहे इसके साथ उसमें अनुशासन तो आवश्यक है ही। यदि आप भी अपने बच्चे में एक साथ ये सारी आदतें देखना चाहते हैं तो बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण करायें और उसे सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु उसकी कुंडली के अनुसार लग्न, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम, दसम एवं एकादश स्थान के कारक ग्रह एवं उन स्थानों पर स्थित ग्रह के अनुसार अपने बच्चे के अच्छे गुण को विकसित करने के साथ प्रतिकूल ग्रहों की शांति अथवा ज्योतिषीय उपाय लेते हुए सभी गुणों में दक्ष बनाने हेतु निरंतर अभ्यास करायें। इससे ना सिर्फ आपका बच्चा पढ़ाई में अथवा जीवन के सभी रंगों से सराबोर होगा।

बच्चे को सर्वगुण संपन्न करने हेतु कराएं कुंडली विश्लेषण.......

आज बच्चे का सर्वगुण संपन्न होना अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। बच्चे को यदि एक क्षेत्र में महारत हासिल है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों में भी वह दक्षता हासिल करे। संगीत, कला, साहित्य, खेल, रचनात्मक योग्यता, सामान्य ज्ञान ये सारी पाठ्येत्तर गतिविधियों में तो वह कुशाग्र हो साथ ही वह विनम्र और आज्ञाकारी भी बना रहे इसके साथ उसमें अनुशासन तो आवश्यक है ही। यदि आप भी अपने बच्चे में एक साथ ये सारी आदतें देखना चाहते हैं तो बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण करायें और उसे सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु उसकी कुंडली के अनुसार लग्न, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम, दसम एवं एकादश स्थान के कारक ग्रह एवं उन स्थानों पर स्थित ग्रह के अनुसार अपने बच्चे के अच्छे गुण को विकसित करने के साथ प्रतिकूल ग्रहों की शांति अथवा ज्योतिषीय उपाय लेते हुए सभी गुणों में दक्ष बनाने हेतु निरंतर अभ्यास करायें। इससे ना सिर्फ आपका बच्चा पढ़ाई में अथवा जीवन के सभी रंगों से सराबोर होगा।

कृतध्न होना भी है असफलता का कारक - कुंडली से जाने कृतज्ञ हैं या नहीं -

भारतीय संस्कृति में व्यक्ति को तीन ऋणों उऋण होना अनिवार्य बताया गया है, ब्रम्ह, देव व पितृ ऋण। इसके लिए प्रत्येक को पंच महायज्ञों को करना अनिवार्य होता है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति में यज्ञ कृतज्ञता का ही प्रतीक है। हमारे यहाॅ तैतीय कोटि देवता कहे गए हैं जिसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाष, वायु इत्यादि को भी देवता माना गया है। देवता अर्थात् जो देता है वहीं देवता है। इसलिए प्रकृति के वे तत्व जो हमें जीवित रखने में सहयोग देते हैं हम उसे देवता मानकर उसके प्रति कृतज्ञ होते हैं। साथ ही उपकारी के प्रति आभार का भाव रखना ही कृतज्ञ होना है। किंतु अंहकार के कारण किसी के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं आता और हम जो मिला उसके लिए थैंक्सफुल होने की अपेक्षा जो प्राप्त नहीं है उसके लिए दूसरो अथवा ईष्वर को दोष देते रहते हैं। अथवा जो मिला उसमें अपना ही कर्म मानकर किसी के प्रति कृतज्ञ ना होना भी अहंकार का प्रतीक है। अतः यदि इसे कुंडली से देखा जाए तो लग्न, तीसरा अथवा भाग्य भाव का कारक ग्रह यदि प्रतिकूल हो तो ऐसे लोग किसी के भी प्रति कृतज्ञ नहीं होते। वहीं अगर लग्न, तीसरे स्थान में सूर्य अथवा शनि जैसे ग्रह होकर विपरीत कारक हों तो ऐसे लोग अहंकार के कारण कृतध्न होते हैं। अतः यदि आपके जीवन में थैंक्स की कमी हो अथवा आपके लिए धन्यवाद शब्द महत्वपूर्ण ना हो तो कई यह आपके जीवन में सफलता में कमी का कारण भी हो सकता है क्येांकि लग्न, तीसरे अथवा भाग्यभाव यदि विपरीत हो तो सफलता प्राप्ति में कमी या देरी होती है। अतः सफलता प्राप्ति हेतु अपने जीवन में कृतज्ञता का समावेष कर जीवन में सुख-समृद्धि तथा शांति प्राप्त की जा सकती है।

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Monday, 4 July 2016

उद्योग क्षेत्र की समस्याओं का निराकरण करें ज्योतिष सलाह से........

आज का उद्योग विविध समस्याओं से ग्रसित है जिनमें परिस्थितिजनक सामाजिक तथा कर्मचारी चयन की। व्यक्तिगत गुणों के आधार पर हर व्यक्ति दूसरे से भिन्न होता है और इस सिद्धान्त के आधार पर कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति हर कार्य को समुचित रूप से कर सकने में सक्षम नहीं होता। जहाँ उत्पादन, प्रशिक्षण, प्रेरण, नियोक्ता-कर्मचारी संबंध जैसी समस्याएँ उद्योग क्षेत्र अथवा प्रबंधकों की कार्य प्रणाली की होती है, वहीं कर्मचारियों द्वारा उत्पन की गयी समस्याएँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं होतीं। कर्मचारियों की कार्य अथवा उद्योग संस्थान के प्रति मनोवृति, मनोबल, कार्य संतुष्टि, हडताल तथा तालाबंदी, औद्योगिक उथलपुथल, अनुपस्थिति तथा श्रमिक परिवर्तन आदि कुछ ऐसी ही महत्त्वपूर्ण समस्याएँ है जिनका सामना आज हर छोटे-बड़े उद्योग को करना पड़ रहा है। योग्य व्यक्तियों को चुन लेना मात्र ही अपने आपमें सब कुछ नहीं होता। उनका उचित स्थान पर नियोजन भी उतना ही आवश्यक है। हर कोटि की समस्याओं का समाधान प्रबंधक शीघ्रताशीघ्र कर लेना चाहता है क्योंकि इसी से उद्योग की भलाई तथा समृद्धि है। इन सभी प्रकार की समस्याओं को सामान्यतः समझना कठिन होता है किंतु अगर ज्योतिषीय नजरिये से देखा जाए तो सभी समस्या चाहे वह उत्पादन, कार्यप्रकृति की हो अथवा कर्मचारियों से संबंधित, सभी का ज्योतिषीय कारक जरूर होता है। अतः किसी भी उद्योग को निरंतर उन्नतिशील बनाये रखने एवं कर्मचारियों की उपयोगिता तथा कार्यप्रणाली के अनुसार चयन करने से अधिकतम लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए उद्योग के प्रणेता की कुंडली एवं उद्योग स्थापित करने की तिथि का ज्योतिषीय विश्लेषण कराया जाकर कमजोर ग्रहों को मजबूत करने एवं कार्यरत लोगों की कुंडली का विश्लेषण कराया जाकर उनकी उपादेयता निर्धारित करनी चाहिए।

जुलाई 2016 के शुभ मुहूर्त


जीवन धन को कैसे करें सुरक्षित- जाने कुंडली से

संसार में जितने भी धन हैं उन सबसे श्रेष्ठ जीवन- धन है। जीवन- धन के लिए ही अन्य सारे धन की उपयोगिता एवं आवश्यकता है। जीवन-धन ना रहा तो अन्य धन किसके लिए और किस काम के। जीवन-धन के सामने अन्य सारे धन तुच्छ हैं। कहा जाता है हीरा सरीखा जीवन, संसार का संपूर्ण ऐश्वर्य इसके मामने तुच्छ है। रुपये, पैसे, जमीन-जायदाद आदि जो धन माने गये हैं मनुष्य उनकी कीमत तो समझता है, परंतु जिस जीवन- धन के लिए इन धनों की आवश्यकता है उसकी कीमत नहीं समझता। बाहरी धन का एक-एक पैसा मनुष्य बहुत सोच-समझकर खर्च करता है, किन्तु जीवन-धन को बिना सोचे खर्च करता रहता है। इसे व्यर्थ ही नहीं अनर्थकारी कर्मों में लगाता रहता है। अन्य धनों की तो मनुष्य बहुत सुरक्षा करता है, परंतु जीवन- धन की सुरक्षा के लिए वह चिंतित नहीं होता। जीवन-धन को बेहतर तरीके से प्रयोग करने एवं सुरक्षित रखने के लिए व्यक्ति को अपनी कुंडली का विश्लेषण कराना चाहिए। इसमें विशेष कर लग्न, तृतीयेश, पंचमेंष, सप्तेश, भाग्येश एवं एकादशेष के ग्रह एवं इन स्थानों के ग्रह स्वामी की स्थिति यदि अनुकूल होती है तो व्यक्ति का स्वास्थ्य, मन, एकाग्रता, साथ, भाग्य एवं दैनिक जीवन के सुख-दुख अनुकूल होता है और यदि प्रतिकूल हो तो जीवन में इनसे संबंधित कष्ट आता है। जीवन में सभी सुख तथा साधन हेतु इन स्थानों में से जो स्थान अथवा ग्रह प्रतिकूल हों तो उसे अनुकूल करने हेतु ग्रह शांति कराने के लिए संबंधित ग्रह का मंत्रजाप, दान एवं हवन-पूजन कराना चाहिए।

जाने पारिवारिक कलह का कारण: जाने ज्योतिष्य कारण और उपाय

परिवार रूपी रथ के पहिए हैं पति और पत्नी। यदि इनके मध्य वैचारिक एवं शारीरिक संबंध अच्छे नहीं होंगे तो परिवार में कलह होना निश्चित है। पारिवारिक कलह गृहस्थ-सुख को नष्ट कर देती है। इसके पीछे पति-पत्नी के पारस्परिक संबंधों का अच्छा न होना अथवा परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य वैचारिक असमानता मूल कारण होती है। भरपूर पारिवारिक सुख तभी मिल पाता है जब पति-पत्नी एक दूसरे को भली-भांति समझें, उनमें वैचारिक समानता हो, शारीरिक रूप से भी एक दूसरे को जानें और एक दूसरे को भरपूर सहयोग दें। कैसे जानें कि पति-पत्नी के मध्य संबंध कैसे होंगे? जब आप यह जान जाएंगे कि पति-पत्नी के मध्य पारस्परिक संबंध कैसे होंगे, तो यह भी निश्चित कर सकेंगे कि पारिवारिक कलह होगी या नहीं। यदि आपके पास वर-वधू अथवा पति-पत्नी की कुंडलियां हों तो आप पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार पांच प्रकार से कर सकते हैं- - लग्नेश व सप्तमेश की स्थिति से - लग्नेश, जन्म राशीश व सप्तमेश की स्थिति से - नवमांश कुंडली के विश्लेषण से - अष्टक वर्ग द्वारा - मेलापक द्वारा लग्नेश व सप्तमेश की स्थिति से पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार करने के लिए कुंडली में अधोलिखित पांच ज्योतिषीय योगों का विश्लेषण करें। - लग्नेश सप्तम भाव में एवं सप्तमेश लग्न भाव में स्थित हो तो पति-पत्नी के बीच उत्तम प्रीति रहती है। - लग्नेश एवं सप्तमेश के मध्य परस्पर दृष्टि संबंध हो तो पति-पत्नी के संबंध मधुर रहते हैं। - लग्नेश एवं सप्तमेश परस्पर युत संबंध अच्छे रहेंगे। यदि लग्नेश और सप्तमेश के स्वामियों के मध्य परस्पर पंचधा मैत्री विचार करने पर अधिमित्र या मित्र संबंध हों, तो सोने में सुहागे वाली स्थिति हो जाएगी और परस्पर सहयोग बढ़ जाएगा। इसके विपरीत यदि अधोलिखित चार स्थितियां कुंडली में हों, तो परिवार में परेशानियां, कलह, बाधाएं, संकट आदि आते हैं। फलस्वरूप अपमान, अपयश, मानसिक एवं शारीरिक कष्ट के साथ-साथ आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है और संतान का भविष्य भी अंधकारमय हो जाता है। - लग्नेश एवं सप्तमेश परस्पर छठे-आठवें या दूसरे-बारहवें में स्थित हों, तो गृहस्थ जीवन में परेशानियां आती हैं। - लग्नेश व सप्तमेश में से एक नीच राशि में या त्रिक भाव में स्थित हो तो गृहस्थ जीवन में अनेक कष्ट आते हैं। - यदि पति का लग्नेश अशुभ स्थिति में हो तो स्वयं की ओर से तथा यदि सप्तमेश अशुभ स्थिति में हो तो पत्नी की ओर से अनेक संकट उत्पन्न होते हैं। - गृहस्थ सुख के लिए सप्तमेश का द्वितीय भाव में स्थित होना उतना ही हानिकारक है जितना द्वितीयेश का सप्तम भाव में स्थित होना। लग्नेश, जन्म राशीश व सप्तमेश की स्थिति से पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार लग्नेश या जन्म राशीश स्वयं जातक का एवं सप्तमेश जीवनसाथी का परिचायक है। यदि इन दोनों ग्रहों में मित्रता हो तो दाम्पत्य जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। नवमांश कुंडली द्वारा पारिवारिक कलह का विचार नवमांश कुंडली से स्त्री सुख एवं पति-पत्नी के पारस्परिक संबंधों व जीवनसाथी के गुणादि का विचार किया जाता है। नवमांश कुंडली द्वारा फल विचारते समय नवमांश लग्न एवं नवमांशेश का भी ध्यान रखना चाहिए। लग्नेश एवं नवमांश स्वामी में परस्पर मैत्री हो तो पति-पत्नी के संबंध मधुर, यदि शत्रुता हो तो कटु और सम हो तो सामान्य रहते हैं। नवमांशेश अपने नवमांश में हो या स्वराशिस्थ अथवा उच्चस्थ हो, शुभ ग्रहों से दृष्ट या युत हो तो जातक श्रेष्ठ गुणों से युक्त व उत्तम स्वभाव वाला होता है तथा सुन्दर स्त्री का सुख बिना परिश्रम के ही प्राप्त कर लेता है। नवमांश कंुडली में जो ग्रह स्ववर्ग में, वर्गोत्तमी या उच्च का होकर केन्द्र या त्रिकोण में शुभ राशि में स्थित हो, उस ग्रह से संबंधित समस्त सुख मिलते हैं और स्त्री व परिवार का पूर्ण सुख प्राप्त होता है। इसके विपरीत हो तो व्यक्ति को उस ग्रह से संबंधित ऋणात्मक फल मिलता है और पारिवारिक सुख भी नहीं मिलता । यदि नवमांश स्वामी जन्मकुंडली में स्वगृही हो या 3, 5, 7, 9 या 10 वें भाव में स्थित हो तो जातक को सुंदर, गुणी और भाग्यशाली स्त्री का सुख मिलता है। पुरुष या स्त्री की नवमांश कुंडली में सप्तम भाव में शुभ ग्रह अर्थात बली चंद्र, गुरु या शुक्र हो तो जातक और जातका भाग्यशाली, सुखी एवं स्त्री या पुरुष का सुख पाने वाले होते हैं। नवमांशेश पाप ग्रह हो, पापग्रह या क्रूर ग्रह से युत या दृष्ट हो तो जातक की स्त्री कलह करने वाली होती है और उससे निभाव मुश्किल होता है। जन्मकुंडली का लग्नेश अर्थात लग्न का स्वामी नीच या शत्रु नवमांश में स्थित हो तो स्त्री के कारण कलह, क्लेश, कष्ट आदि का सामना करना पड़ता है और विवाह आदि शुभ कार्यों में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। नवमांश कुंडली का सप्तम भाव पापग्रहों से युत या दृष्ट हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि का अभाव हो तो जातक या जातका के जीवनसाथी की अकाल मृत्यु की संभावना रहती है अथवा विवाह सुख में कमी रहती है। यदि नवमांश स्वामी पाप ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो जितने ग्रहों से दृष्ट या युत हो उतनी स्त्रियों से कष्ट मिलता है या संबंध बिगड़ते हैं। इसी प्रकार स्त्री की कुंडली में पुरुषों का विचार करना चाहिए। किसी पुरुष या स्त्री की नवमांश कुंडली में शुक्र-मंगल परस्पर राशि परिवर्तन करें तो उसके विवाहेतर प्रेम संबंध होने की प्रबल संभावना रहती है। यदि नवमांश स्वामी जन्म कुंडली में छठे भाव में स्थित हो तो स्त्री को कष्ट या स्त्री संबंधी परेशानियां मिलती हैं, आठवें भाव में स्थित हो तो पारिवारिक कलह, क्लेश एवं वियोग तक हों तो पति-पत्नी में आजीवन उत्तम सामंजस्य बना रहता है। - लग्नेश सप्तम भाव में स्थित हो तो जातक पत्नी का भक्त होता है और उसके अनुसार चलता है। - सप्तमेश लग्न में हो तो पत्नी पति की आज्ञाकारिणी होती है। यदि इन योगों में से दो या दो से अधिक योग कुंडली में हों तो समझ लें कि पति-पत्नी के मध्य का दुख भोगना पड़ता है। बारहवें भाव में स्थित हो तो धन की हानि होती है और आय से अधिक व्यय होता है। नवमांश लग्नेश राहु या केतु के साथ हो तो जातक की स्त्री पति के विरुद्ध आचरण करने वाली, कलहकारी एवं कठोर वाणी का प्रयोग करने वाली होती है। नवमांश स्वामी बारहवें भाव में हो तो जातक अपनी स्त्री से संतुष्ट नहीं रहता है। यदि नवमांश स्वामी पापग्रह हो और पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो उसकी स्त्री कटु वचन बोलने वाली एवं कलहकारी होती है। मेलापक द्वारा पारिवारिक कलह का विचार मेलापक अर्थात कुंडली मिलान करते समय दैवज्ञ सावधानी नहीं रखते हैं। कुंडलियों में परस्पर गुण मिलान करके मेलापक की इति कर देते हैं। मेलापक करते समय परस्पर कुंडलियों का भी मिलान करते हुए इन तथ्यों पर विचार करना चाहिए कि पति या पत्नी संन्यास तो नहीं ले लेगी, उनकी कुंडलियों में तलाक या अलगाव का योग तो नहीं, अल्पायु योग तो नहीं, वैधव्य योग तो नहीं? यह भी देखना चाहिए कि दोनों परस्पर एक दूसरे को सहयोग करेंगे या नहीं। इस पर भी ध्यान दें कि वाद-विवाद, झगड़े, आत्महत्या, हत्या, सन्तानहीनता, चरित्र से भ्रष्ट होना आदि से संबंधित योग तो नहीं है। विवाह पूर्व ही वर-कन्या की कुंडलियों का विश्लेषण कर लिया जाए तो पारिवारिक कलह से बचा जा सकता है। सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव व द्वितीयेश एवं लग्नेश व नवमांश लग्नेश परस्पर सुसंबंध न बनाएं, पापग्रहों से दृष्ट या युत हों एवं निर्बल हों तो पारिवारिक सुख नहीं मिलता, अपितु कलह ही रहती है। पारिवारिक कलह से मुक्त होने की सरल रीति उचित ढंग से मेलापक करना है।

योग्य संतान हेतु करें सूर्य की शांति.....



वास्तव में योग्य संतान, ऐसी विभूति है जिसपर ईश्वर का आभार व्यक्त करना चाहिए। योग्य संतान, अच्छे प्रशिक्षण के बिना संभव नहीं है। बच्चे वास्तव में ईश्वर की अनुकंपा हैं। वे वास्तव में एक ऐसे सांचे की भांति है जिसे आप जिस रूप में चाहें परिवर्तित कर सकते हैं। बच्चे अच्छे संस्कावार बनें, बुराइयों से दूर रहें तथा कर्मक्षेत्र में सफल होते हैं इसके लिए मां-बाप या प्रशिक्षण करने वालों का दायित्व बनता है कि वे उनका उचित प्रशिक्षण करके उन्हें बुराई से दूर रखें। पति-पत्नी के रिश्ते में समर्पण, प्रेम और कर्तव्य का भाव ना हो तो गृहस्थी सफल नहीं हो सकती। प्रेम और सद्कर्मों से ही संतानों के संस्कार और भविष्य दोनों जुड़े हैं। गांधारी अगर यह सोचकर आंखों पर पट्टी नहीं बांधती कि संतानों का क्या होगा, उनके लालन-पालन की व्यवस्था कौन देखेगा तो शायद महाभारत का युद्ध होने से रुक जाता। अतः संस्कारवान तथा आज्ञाकारी संतान के लिए व्यक्ति को अपनी कुंडली का विश्लेषण कराकर देखना चाहिए कि किसी जातक का पंचम भाव व पंचमेश किस स्थिति में है। यदि पंचम स्थान का स्वामी सौम्य ग्रह है और उस पर किसी भी कू्रर ग्रह की दृष्टि नहीं है तो संतान से संबंधित सुख प्राप्त होता है वहीं क्रूर ग्रह हो अथवा पंचमेश छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए तो संतान से संबंधित कष्ट बना रहता है। यदि कोई जातक लगातार संतान से संबंधित चिंतित है तो पंचम तथा पंचमेश की शांति करानी चाहिए उसके साथ पंचम भाव का कारक सूर्य से संबंधित मंत्रजाप, दान करने से भी संतान से संबंधित सुख प्राप्त होता है।

भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना का पर्व.......

भाई दूज का त्योहार भाई बहन के स्नेह को सुदृढ़ करता है। यह त्योहार दीवाली के दो दिन बाद मनाया जाता है।
हिन्दू धर्म में भाई-बहन के स्नेह-प्रतीक दो त्योहार मनाये जाते हैं - एक रक्षाबंधन जो श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें भाई बहन की रक्षा करने की प्रतिज्ञा करता है। दूसरा त्योहार, भाई दूज का होता है। इसमें बहनें भाई की लम्बी आयु की प्रार्थना करती हैं। भाई दूज का त्योहार कार्तिक मास शुक्लपक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। इस दिन बहनें भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना करके तिलक लगाती हैं। भविष्योत्तर पुराण में भाईदूज की जो कथा मिलती है उसके अनुसार यमराज अपने कामकाज में इतने व्यस्त हो गए कि उन्हें अपनी बहन यमुना की याद भी नहीं रही। एक दिन यमुना ने यमराज को संदेशा भिजवाया। बहन का संदेशा मिलते ही यमराज बहन से मिलने निकल पड़े। यह दिन है कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि। इस तिथि को यमद्वितीया और भाईदूज के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व मुख्यतः भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक है।

संपूर्ण रोगनाशक मंत्र

शरीरं व्याधि मंदिरम् इस प्राचीन शास्त्र वाक्य के अनुसार हमारा शरीर रोगों का घर है। संपूर्ण जीवन काल में मनुष्य किसी न किसी व्याधि से ग्रसित रहता है। चाहे शारीरिक रोग हों या मानसिक, हमारे शरीर पर अपना प्रभाव डालते हैं। विज्ञान ने निस्संदेह बड़ी उन्नति की है और उसकी उपलब्धियां और आविष्कार मानव सभ्यता के विकास में बहुत सहायक सिद्ध हुए हैं। किंतु दूसरी तरफ इन उपलब्धियों का मानव जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ा है और परिणामतः आज प्रायः हर व्यक्ति किसी मानसिक या शारीरिक रोग से ग्रस्त है। आज नई-नई और असाध्य बीमारियां जन्म ले रही हैं जो मानव जीवन के लिए चुनौती बन गई हैं। ऐसे में जहां आधुनिक चिकित्सा प्रणाली अक्षम होती है, वहंा हमारे प्राचीन ऋषियों के द्वारा विकसित यंत्र, मंत्र और ज्योतिष चिकित्सा प्रणालियां काम करती हैं। हमारे वेद शास्त्रों में सभी रोगों से मुक्ति के लिए महामृत्युंजय यंत्र और मंत्र की साधना का विशेष महत्व है। इस यंत्र के नित्य दर्शन-पूजन से कोई भी व्यक्ति जीवन में आरोग्य प्राप्त कर सकता है। संपूर्ण रोगनाशक महामृत्युंजय यंत्र के नित्य पूजन-दर्शन से व्यक्ति मन और शरीर से स्वस्थ रहता है। यंत्र के मध्य स्थापित महामृत्युंजय यंत्र के चारों ओर अन्य यंत्र स्थापित कर इसकी शक्ति में वृद्धि की गई है। इसकी साधना से रोग से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य उत्तम रहता है। इसमें स्थापित अन्य यंत्रों की अपनी-अपनी महिमा है। दुर्गा यंत्र मां दुर्गा का प्रतीक है। इसके दर्शन-पूजन से पारिवारिक सुख तथा शांति प्राप्त होती है। गीता यंत्र के दर्शन मात्र से भगवान कृष्ण मनुष्य की काम, क्रोध और लोभ से रक्षा करते ह और उसमें सतोगुण का संचार होता है। महाकाली यंत्र साधक की अकाल मृत्यु से रक्षा करता है। मत्स्य यंत्र के नित्य दर्शन से शत्रुओं के षडयंत्र से रक्षा होती है। कालसर्प यंत्र से जीवन में राहु, केतु जनित शारीरिक पीड़ा से मुक्ति मिलती है। हनुमान यंत्र की साधना से शारीरिक शक्ति प्रबल होती है, जिससे व्यक्ति को रोग होने की संभावना नहीं रहती है। वाहनदुर्घटनानाशक यंत्र व्यक्ति की दुर्घटना से रक्षा करता है। शनि यंत्र की साधना से असाध्य बीमारियों से रक्षा होती है। सूर्य यंत्र के दर्शन मात्र से व्यक्ति नीरोग और उसका जीवन सुखमय रहता है। नवग्रह यंत्र के दर्शन-पूजन से जीवन में ग्रह दोष से होने वाली व्याधियों से मुक्ति मिलती है। गायत्री यंत्र की साधना से मन हमेशा शांत रहता है और मानसिक शक्ति दृढ़ बनी रहती है। गणपति यंत्र के पूजन से व्यक्ति का स्वास्थ्य उत्तम रहता है और किसी रोग की संभावना नहीं रहती है। पूजन विधि: सोमवार अथवा गुरुवार को प्रातःकाल के समय स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करें। यंत्र को गंगाजल से धोकर और लकड़ी की चैकी पर लाल या सफेद स्वच्छ कपड़ा बिछाकर उस पर यंत्र स्थापित करके उसका चंदन, अक्षत, धूप, दीप से पूजन करें। तत्पश्चात यंत्र को घर के पूजा स्थान में अथवा पूर्व-उत्तर दिशा में स्थापित करें। शीघ्र फलप्राप्ति के लिए अपनी सुविधा के अनुसार निम्न मंत्रों में से किसी एक का नित्य एक माला जप करें। मंत्र: ॐ नमः शिवाय ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्, उर्वारुकमिवबंधनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।

क्या आपका रियल स्टेट में कैरियर हो सकता है- जाने ज्योतिषीय गणना से

रियल-एस्टेट जहाँ व्यक्ति को शानदार करियर प्रदान करता है वहीं उस स्थान की सूरत बदल देता है। हालांकि यह क्षेत्र चुनौतियों से भरा हुआ है पर साथ ही उच्च पारितोषिक भी देता है। इस क्षेत्र में ढेर सारा धन कमाने के साथ-साथ कुछ करने का संतोष भी प्राप्त होता है.
रियल-एस्टेट क्षेत्र में करियर बनाने के लिए उन सभी गुणों और कौशल की आवश्यकता होती है जो की एक बिजनेस स्थापित करने के लिए जरूरी होते हैं। इसके लिए आपको लगातार लोगों से अपनी जान-पहचान तो चाहिए ही होता है साथ ही रीयल एस्टेट को ज्योतिष विवेचना द्वारा जाना जा सकता है कि आपको रीयल एस्टेट में कितना लाभ है। यदि चतुर्थेश केंद्र या त्रिकोण में हो, मंगल त्रिकोण में हो, चतुर्थेश स्वगृही, वर्गोत्तम, स्व नवांश या उच्च का हो तो भूमि व रीयल एस्टेट के काम में लाभ होता है। यदि व्यक्ति का चतुर्थेश बलवान हो और लग्न से उसका संबंध हो तो भवन सुख की प्राप्ति होती है। यदि चतुर्थ भाव पर दो शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो व्यक्ति भवन का स्वामी बनता है व रीयल एस्टेट में मुनाफा कमाता है। अत यदि रियल-एस्टेट में कार्य कर रहें हैं और लगातार सफलता आपसे दूर है तो उपर्युक्त ग्रहों को अनुकूल कराया जाकर उन्नति प्राप्त की जा सकती है।

ग्रहों की अशुभ प्रभाव देते हैं ह्रदय विकार.......

हृदय प्राणियों का वह महत्वपूर्ण अंग है जिसके माध्यम से जीवनी शक्ति का संचार पूरे शरीर में होता है। शिराएं अनुपयुक्त रक्त लेकर हृदय में आती हैं और हृदय उस रक्त को शुद्ध कर उसे संवेग के साथ धमनियों के द्वारा शरीर के प्रत्येक अंग में भेजता है और इस प्रकार शरीर के अंग प्रत्यंग को जीवन ऊर्जा प्राप्त होती है। जब हृदय की धड़कन रुक जाती है तो जीवनी शक्ति (प्राण) शरीर में नहीं रहती और प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता है। सौर मंडल में सभी ग्रह सूर्य के चारांे ओर परिक्रमा करते हैं और सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। चूंकि सूर्य ऊर्जा (प्राण) का स्रोत है इसलिए वह हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। चंद्र मन एवं मन से उत्पन्न विचार, भाव, संवेदना, लगाव का परिचायक है तो शुक्र प्रेम, आसक्ति व भोग का। काल पुरुष की नैसर्गिक कुंडली में चतुर्थ भाव कर्क राशि का है जिसका स्वामी चंद्र है। पंचम भाव सिंह राशि का है जिसका स्वामी सूर्य है। चंद्र मन का कारक होने के कारण मन में उत्पन्न विचार एवं भावनाओं का सृजनकर्ता है जिनका संचयन किसी के प्रति प्रेम, चाहत, आसक्ति, लगाव या फिर घृणा उत्पन्न करता है और इसीलिए चतुर्थ भाव से द्वितीय (धन) अर्थात पंचम भाव प्रेम, स्नेह, अनुराग का है। इसी बात को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि षष्ठम भाव शत्रुता और मनमुटाव का है और इसका व्यय स्थान (इससे द्वादश भाव) अर्थात पंचम भाव शत्रुता के व्यय (नाश) का अर्थात मेल मिलाप, प्रेम व लगाव का भाव है। जब प्रेम आसक्ति में निराशा मिलती है या वांछित परिणाम परिलक्षित नहीं होते, तो मानसिक आघात लगता है जो हृदय संचालन को असंतुलित करता है। इससे हृदय में विकार उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति रोगग्रस्त होता है। इसलिए पंचम से द्वादश अर्थात चतुर्थ भाव हृदय संबंधी विकारों का भाव हुआ। सूर्य और चंद्र का सम्मिलित प्रभाव हृदय की धड़कन गति एवं रक्त संचार को नियंत्रित करता है। सूर्य, चंद्र और उनकी राशियां क्रमशः सिंह व कर्क, चतुर्थ भाव व चतुर्थेश तथा पंचम भाव व पंचमेश पर क्रूर पापी ग्रहों (मंगल, शनि, राहु, केतु) का प्रभाव आदि हृदय को पीड़ा देते हैं। षष्ठेश व अष्टमेश तथा द्वादशेश का इन पर अशुभ प्रभाव भी रोगकारक व आयुनाशक ही होता है। राहु-केतु का स्वभाव आहृदय प्राणियों का वह महत्वपूर्ण अंग है जिसके माध्यम से जीवनी शक्ति का संचार पूरे शरीर में होता है। शिराएं अनुपयुक्त रक्त लेकर हृदय में आती हैं और हृदय उस रक्त को शुद्ध कर उसे संवेग के साथ धमनियों के द्वारा शरीर के प्रत्येक अंग में भेजता है और इस प्रकार शरीर के अंग प्रत्यंग को जीवन ऊर्जा प्राप्त होती है। जब हृदय की धड़कन रुक जाती है तो जीवनी शक्ति (प्राण) शरीर में नहीं रहती और प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता है। सौर मंडल में सभी ग्रह सूर्य के चारांे ओर परिक्रमा करते हैं और सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। चूंकि सूर्य ऊर्जा (प्राण) का स्रोत है इसलिए वह हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। चंद्र मन एवं मन से उत्पन्न विचार, भाव, संवेदना, लगाव का परिचायक है तो शुक्र प्रेम, आसक्ति व भोग का। काल पुरुष की नैसर्गिक कुंडली में चतुर्थ भाव कर्क राशि का है जिसका स्वामी चंद्र है। पंचम भाव सिंह राशि का है जिसका स्वामी सूर्य है। चंद्र मन का कारक होने के कारण मन में उत्पन्न विचार एवं भावनाओं का सृजनकर्ता है जिनका संचयन किसी के प्रति प्रेम, चाहत, आसक्ति, लगाव या फिर घृणा उत्पन्न करता है और इसीलिए चतुर्थ भाव से द्वितीय (धन) अर्थात पंचम भाव प्रेम, स्नेह, अनुराग का है। इसी बात को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि षष्ठम भाव शत्रुता और मनमुटाव का है और इसका व्यय स्थान (इससे द्वादश भाव) अर्थात पंचम भाव शत्रुता के व्यय (नाश) का अर्थात मेल मिलाप, प्रेम व लगाव का भाव है। जब प्रेम आसक्ति में निराशा मिलती है या वांछित परिणाम परिलक्षित नहीं होते, तो मानसिक आघात लगता है जो हृदय संचालन को असंतुलित करता है। इससे हृदय में विकार उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति रोगग्रस्त होता है। इसलिए पंचम से द्वादश अर्थात चतुर्थ भाव हृदय संबंधी विकारों का भाव हुआ। सूर्य और चंद्र का सम्मिलित प्रभाव हृदय की धड़कन गति एवं रक्त संचार को नियंत्रित करता है। सूर्य, चंद्र और उनकी राशियां क्रमशः सिंह व कर्क, चतुर्थ भाव व चतुर्थेश तथा पंचम भाव व पंचमेश पर क्रूर पापी ग्रहों (मंगल, शनि, राहु, केतु) का प्रभाव आदि हृदय को पीड़ा देते हैं। षष्ठेश व अष्टमेश तथा द्वादशेश का इन पर अशुभ प्रभाव भी रोगकारक व आयुनाशक ही होता है। राहु-केतु का स्वभाव आकस्मिक एवं अप्रत्याशित रूप से परिणाम देने का है इसलिए राहु-केतु की युति या प्रभाव का अचानक एवं अप्रत्याशित हृदयाघात, दिल का दौरा आदि की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। सामान्यतः सूर्य व चंद्र पर अशुभ प्रभाव के साथ-साथ चतुर्थ भाव पर अशुभ प्रभाव हृदय से संबंधित विकार एवं रोगों की स्थिति उत्पन्न करता है जबकि पंचम भाव पर अशुभ प्रभाव प्रेम, आसक्ति, चाहत से संबंधित स्थिति बताता है। इसलिए हृदय विकार, प्रेम, भावनाओं एवं उनके परिणामों के संबंध में फलादेश करने के पूर्व वर्णित भावों, राशियों एवं ग्रहों की स्थिति और उन पर शुभ-अशुभ प्रभावों का सही आकलन एवं विश्लेषण कर लेना चाहिए। निम्नलिखित ग्रह स्थितियां हृदय विकार एवं मानसिक संताप उत्पन्न कर सकती हैं: चतुर्थ भाव में मंगल, शनि तथा गुरु का क्रूर ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना। चतुर्थ भाव में गुरु, सूर्य तथा शनि की युति का अशुभ प्रभाव में होना। चतुर्थ भाव में षष्ठेश का क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट होना। चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना और लग्नेश का पाप दृष्ट होकर बलहीन होना या शत्रु राशि या नीच राशि में होना। मंगल का चतुर्थ भाव में होना और शनि का पापी ग्रहों से दृष्ट होना। शनि का चतुर्थ भाव में होना और षष्ठेश सूर्य का क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट होना। चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना तथा चतुर्थेश का पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना या पापी ग्रहों के मध्य (पाप कर्तरी योग में) होना। चतुर्थेश का द्वादश भाव में द्वादशेश (व्ययेश) के साथ होना। पंचम भाव, पंचमेश, सिंह राशि तीनों का पापी ग्रहों से युक्त, दृष्ट या घिरा होना। पंचमेश तथा द्वादशेश का एक साथ छठे, आठवें, 11वें या 12 वें भाव में होना। पंचमेश तथा षष्ठेश दोनों का षष्ठम भाव में होना तथा पंचम या सप्तम भाव में पापी ग्रह का होना।अष्टमेश का चतुर्थ या पंचम भाव में स्थित होकर पाप प्रभाव में होना। चंद्र और मंगल का अस्त होकर पाप युक्त होना। सूर्य, चंद्र व मंगल का शत्रुक्षेत्री एवं पाप प्रभाव में होना। शनि व गुरु का अस्त, नीच या शत्रुक्षेत्री होना तथा सूर्य व चंद्र पर पाप प्रभाव होना।की सप्तम व केतु की नवम दृष्टि है। पंचम भाव पर षष्ठेश व एकादशेश मंगल तथा अष्टमेश शनि की दृष्टि है। लग्नेश और चतुर्थेश बुध द्वादश भाव में अस्त है। पंचम भाव एवं पंचमेश पर प्रबल पाप प्रभाव ने जातका को उसकी एक मात्र संतान से वंचित किया। इस संतान से उसका बहुत गहरा लगाव था। जातका इस वियोग को सहन नहीं कर सकी और मन कारक चंद्र पर अशुभ प्रभाव के कारण उसे गहरे मानसिक आघात एवं संताप से गुजरना पड़ा जिससे वह कुछ दिन तक कोमा जैसी स्थिति में भी रही। शुभ ग्रह स्वराशिस्थ गुरु की चतुर्थ भाव पर दृष्टि ने उसे जीवन दान दिया किंतु केतु की दृष्टि व चतुर्थेश बुध पर अशुभ प्रभाव ने उसे हृदय विकार भी दिया यद्यपि वह घातक नहीं रहा। कुंडली 4 एक ऐसे युवक की है जिसका विजातीय लड़की से प्रेम संबंध स्थापित तो हुआ किंतु परिवारजनों द्वारा उसे स्वीकार नहीं करने के फलस्वरूप उसने सल्फास खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त की। यहां सप्तमेश मंगल पंचम स्थान में शुक्र, चंद्र, बुध व केतु के साथ है जिन पर शनि की सप्तम दृष्टि है। शुक्र (प्रेम कारक) एवं सप्तमेश मंगल पर विजातीय ग्रहों के प्रभाव ने प्रेम संबंध तो स्थापित कराया, किंतु शुक्र के अष्टमेश बुध के द्वादशेश होकर पंचम में चंद्र के साथ होने व उन पर विच्छेदक ग्रहों का प्रभाव होने से प्रेम की परिणति विवाह के रूप में नहीं हो पाई। मन के कारक चंद्र पर मंगल, शनि, राहु व केतु के अशुभ प्रभाव ने उसे आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। मंगल ने उसे सल्फास विष खाने को विवश किया। इस दिशा में हृदय कारक सूर्य का षष्ठम भाव में चले जाना, अष्टम भाव पर मारकेश की दृष्टि, मारकेश मंगल का शुक्र के साथ संयोग आदि ने भी प्रतिकूल परिस्थितियों का सृजन किया और राहु-केतु ने इस कार्य को अप्रत्याशित रूप से तुरंत क्रियान्वित किया।

ज्योतिष के मिथक ‘‘नाड़ी दोष’ की पुनः व्याख्या क्यों नहीं ???

ज्योतिषषास्त्र के बहुत से मिथक हैं, जिनमें से एक प्रमुख है जिसपर खुली बहस होनी चाहिए वह है ‘‘नाड़ी दोष’’। खासकर जब ज्योतिष को विज्ञान मानते हों तो फिर तर्क की कसौटी पर मान्यताओ को कसना चाहिए। जहाँ पर 18 गुन विवाह का न्यूनतम पैमाना हो वहाॅ 28 और 32 गुणों में तलाक होना एक विडम्बना ही है..... नाड़ी की व्याख्या करने वाले बड़े गर्व से इसे संतान की वजह और कभी वैचारिक ऐक्यता की वजह बना कर बहुत से अच्छे सम्बन्धों को मना कर देते है। यह भी एक बड़ा सवाल है कि सिर्फ ब्राम्हणो में ही नाड़ी दोष क्यों ? बाकि जातियो पर ये असर कारक क्यों नहीं होता? क्या विवाह के मेलापक में जातिगत आधार इसे विज्ञान की जगह मान्यता की श्रेणी में नहीं खड़े नहीं कर रहे है ? इस पर भी समाधान कराने से ये दोष दूर भी हो सकते है ! बहुत सारे प्रश्न लोग मुझसे करते है मैं वही प्रश्न ज्यो का त्यों समाज के सामने रख रहा हूॅ। विवाह मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार में बंधने से पूर्व वर एवं कन्या के जन्म नामानुसार गुण मिलान करके की परिपाटी है। गुण मिलान नही होने पर सर्वगुण सम्पन्न कन्या भी अच्छी जीवनसाथी सिद्व नही होगी और नंबर के आधार पर नकार दिया जाता है। गुण मिलाने हेतु मुख्य रुप से अष्टकूटों का मिलान किया जाता है। ये अष्टकुट है वर्ण, वश्य, तारा, योनी, ग्रहमैत्री, गण, राशि, नाड़ी। विवाह के लिए भावी वर-वधू की जन्मकुंडली मिलान करते नक्षत्र मेलापक के अष्टकूटों (जिन्हे गुण मिलान भी कहा जाता है) में नाडी को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। वैदिक ज्योतिष के मेलापक प्रकरण में गणदोष, भकूटदोष एवं नाडी दोष - इन तीनों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। यह इस बात से भी स्पष्ट है कि ये तीनों कुल 36 गुणों में से (6़7़8=21) कुल 21 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष पाँचों कूट (वर्ण, वश्य, तारा, योनि एवं ग्रह मैत्री) कुल मिलाकर (1़2़3़4़5=15) 15 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अकेले नाडी के 8 गुण होते हैं, जो वर्ण, वश्य आदि 8 कूटों की तुलना में सर्वाधिक हैं। इसलिए मेलापक में नाड़ी दोष एक महादोष माना गया है। समाज में होते लगातार तलाक इस वर्षो से स्थापित धारणा, पर पुनः विचार करने को मजबूर कर रहे है। आप कहेंगे की समाज में बदलते परिवेश मान्यताए और कानून इसके लिए दोषी है, पर इससे बात नहीं बनती। बल्कि हमें भी अपने ज्योतिषीय नियमो में बदलाव लाने के लिए प्रेरित करती हैं। जैसे ज्यादातर सामाजिक कानूनो की इन दिनों समीक्षा हो रही है हमे भी एक बार फिर से चिंतन करना होगा, नियमो की पुनः व्याख्या करनी होगी, और गुण मेलापक को अर्थात् ज्योतिष को विज्ञान साबित करने के लिए यह करना आवष्यक भी है।

पॅचभूतो का संतुलन ही है स्वास्थ्य का राज......

पॅचभूतो का संतुलन ही है स्वास्थ्य का राज -
वात, पित्त, कफ का संतुलित और साम्यावस्था में रहना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। प्रकृति के पाँच तत्वों से मिल कर ही बने हैं, कफ, पित्त और वात। कफ में धरती और जल है, पित्त में अग्नि और जल है, वात में वायु है, इन तत्वों की अनुपस्थिति आकाश है। प्रकृति में जिस प्रकार ये संतुलन में रहते हैं, हमारे शरीर में भी इन्हें संतुलित होना चाहिए। वात, पित्त, और कफ तीनों मिलकर शरीर की चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन करते है। कफ उपचय का, वात अपचय का और पित्त चयापचयी का संचालन करता है। आन्तरिक जगत में यानी हमारे शरीर के अन्दर वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त पित्त, यानी अग्नि यदि कफ द्वारा नियन्त्रित न हो पाये तो शरीर की धातुएं भस्म होने लगती है और यहीं शारीरिक व्याधियाॅ आती हैं। जिंदगी मे वात्त, पित्त और कफ संतुलित रखना ही सबसे अच्छी कला और कौशल्य है।
विशेष रूप से कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में तथा वात नाभि के नीचे वाले भाग में रहता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को वात (वायु) का असर होता है। बाल्य अवस्था में कफ का असर, युवा अवस्था में पित्त का असर व आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। आधि, व्याधि एवं उपाधि। आधि से अर्थ है - मानसिक कष्ट, व्याधि से अर्थ है शारीरिक कष्ट एवं उपाधि से मतलब है - प्रकृति जन्य व समाज द्वारा पैदा किया गया दुःख। ‘मन एवं मनुष्याणं कारणं बन्ध मोक्षयोः‘ मन ही बन्धन तथा मुक्ति का साधन है।
पश्यमौषध सेवा च क्रियते येन रोगिणा। आरोग्यसिद्धिदप्टास्य नान्यानुष्ठित कर्नणा॥
पथ्य और औषधि को सेवन करने वाला रोगी ही आरोग्य प्राप्त करते देखा गया है न कि किसी और के द्वारा किये हुए (औषधादि सेवन) कर्मों से वह निरोग होता है। इसी प्रकार आत्म कल्याण के लिए स्वयं ही प्रयास करना होता है। ठीक इसी प्रकार ज्योतिष में अग्नि कारक नक्षत्र से पित्त, जल कारक नक्षत्र से कफ एवं वायु कारक नक्षत्र से वात रोग होते हैं। इसी प्रकार किसी का तृतीय, पंचम या दसम भाव या भावेश विपरीत कारक हो तो उसे पित्त, लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान का स्वामी या इन स्थानों का प्रतिकूल होना कफ एवं चतुर्थ, अष्टम या दसम का विपरीत होना अथवा इन स्थानों पर शनि जैसे ग्रहों का होना वात प्रकृति का कारण बनता है। इसी प्रकार यदि लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान में राहु, शनि होतो वात या लग्न में राहु मंगल हो जाए तो वातपित्तज का कारण बनता है।
उपाय कहा भी गया है कि
वमनं कफनाशाय वातनाशाय मर्दनम्।
शयनं पित्तनाशाय ज्वरनाशाय लघ्डनम्।।
अर्थात् कफनाश करने के लिए वमन (उलटी), वातरोग में मर्दन (मालिश), पित्त नाश के शयन तथा ज्वर में लंघन (उपवास) करना चाहिए। इसी प्रकार यदि कुंडली में ग्रहों का अनुकूल प्रभाव प्राप्त करना हो तो सबसे पहले मन को ठीक करना चाहिए। जिसके लिए मंत्रों का जाप तथा ग्रह शांति, इसके अलावा चिकित्सकीय अनुदान प्राप्त करने से जीवन में संतुलन प्राप्त कर स्वस्थ्य रहा जा सकता है।

वाणी का करें सदुपयोग जाने ज्योतिषीय कारण.....

अनुपम वरदान है आपकी वाणी, इस शक्ति का करें सदुपयोग जाने ज्योतिषीय कारण -
प्राणीजगत में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो अपने अंतस के विचारो एवं भावों को शब्दों के माध्यम से प्रकट कर सकता है। मानव के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में यह क्षमता नहीं होती। मानव की उन्नति में शब्दों का बहुत महत्व है परंतु जो शक्ति जितना उपयोगी एवं कल्याणकारी होती है, दुरूपयोग करने पर वह उतना ही दुखप्रद एवं हानिकारक हो जाती है। शब्दों का गलत प्रयोग करने, समय-कुसमय का ध्यान ना रखने एवं परिस्थिति के अनुरूप कम या ज्यादा बोलने का हुनर ना हो तो व्यवहार खराब हो सकता है, मानसिक शांति भंग हो सकती है या दुख मिल सकता है। इस संबंध में कबीर की सीख है -‘बोल तो अमोल है, जो कोई बोले जान। हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आन।। अतः शब्द से अपने व्यवहार, रिष्तों एवं संस्कार को प्रदर्षित करने के लिए अपने ग्रहों को परखकर अपने व्यक्तित्व को निखारा जा सकता है, इसके लिए किसी भी जातक की कुंडली का दूसरा स्थान उसकी वाणी का स्थान होता है, जिसका कालपुरूष की कुंडली में ग्रहस्वामी शुक्र है, जो मीठे बोल के लिए लिया गया है। किंतु प्रत्येक जातक की कुंडली में उसके दूसरे स्थान का स्वामी अलग हो सकता है अतः यदि आपकी कुंडली में दूसरा स्थान दूषित हो अथवा पाप ग्रहों से आक्रांत हो तो आपके बोल दुष्मन पैदा कर सकते हैं वहीं यदि अनुकूल हो तो बोल ही प्रसिद्ध बनाते हैं। अतः दूसरे स्थान के ग्रह को अनुकूल करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए शुक्र की शांति हेतु सुहाग की सामग्री का दान, दुर्गा कवच का पाठ तथा कुंवारी कन्याओं को भोज कराना चाहिए।

कुंडली अनुसार अपना दृष्टिकोण बदले और रहे सुखी.......

अधिक संपन्न एबं समृद्ध लोगों की सुख-सुविधाओं पर दृष्टि केन्दित करने एबं उनसे अपनी तुलना करने वाले लोग कभी सुखी-संतुष्ट नहीं हो सकते, उन्हें सदैव अभाव का अनुभव खटकता रहेगा। दूसरों की संपन्नता, पद-प्रतिष्ठा एवं भौतिक उपलब्धियों से अपनी स्थिति की बराबर तुलना करते रहने से अपने में हीन भावना आती है और अपनी समझ, शक्ति एवं योग्यता पर अविश्वास होने लगता है। हमें अपने को दूसरों से अधिक समझदार एवं योग्य तो नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि इससे अहंकार बढने लगता है, परंतु हम उस दिशा में आगे बढने के लिए प्रयास करते है। परंतु हमें यह भी समझना चाहिए कि किसी दिशा में हम चाहे कितना हो संपन्न क्यों न हो जाये, हमें अपने से अधिक संपन्न और समृद्ध लोग दिखाई पडेगे हम दुखी रहेंगे और हमें अभाव का अनुभव होता रहेगा। इसलिए हमेँ अपनी दृष्टि बदलनी होगी और अपनी समझ, प्राप्ति और योग्यतानुसार श्रम करते हुए संतोष करना होगा । यदि हमेँ अपनी समझ, शक्ति और योग्यता का संपूर्ण उपयोग करने हेतु अपनी कुंडली के अनुसार समझ बढ़ाने के लिए अपने तीसरे एवं पंचम स्थान के ग्रहों को अनुकूल करने का प्रयास करना चाहिए। इसी प्रकार अपनी शक्ति और योग्यता के लिए लग्न, तीसरे, पंचम, दसम एवं एकादष स्थान के ग्रहों को अनुकूल करने हेतु मंत्रजाप, दान तथा रत्नधारण करना चाहिए। जीवन में अपने प्रारब्ध के अनुरूप प्राप्ति हेतु अपने पित्रों का आर्षीवाद तथा अनुकूलता प्राप्ति हेतु पितृषांति कराना चाहिए। सूक्ष्म जीवों की सेवा करनी चाहिए इसके साथ अपने अनुकूल ग्रहों का रत्न धारण करने से जीवन में साकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर सुख प्राप्त कर सकते हैं।

Sunday, 3 July 2016

आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्णय का विकास कैसे......जाने ज्योतिष्य तथ्यों से

यह सच है कि मनुष्य को एक दूसरे के सहयोग की अपेक्षा होती है किंतु मनुष्य का सबसे बड़ा संबल उसका आत्मविष्वास ही होता है। निष्चित ही बच्चे को माता-पिता गुरू का संरक्षण एवं सहयोग आवष्यक है किंतु चलने के अभ्यास हेतु। चलना तथा गिरना तो बच्चे के विकास का अभिन्न अंग है। केवल माता-पिता, गुरू के सहयोग से आत्मविष्वास जागृत करें तथा स्वयं अपना दीपक बने और अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी तथा आत्मविष्वास पैदा कर अपना, अपनो तथा समाज के हित में कार्य करें अर्थात् अप्प दीपो भव अथवा अपना दीपक स्वयं बनें। क्यो किसी जातक के इसकी क्षमता है अथवा कम क्षमता को विकसित कैसें करें कि आत्मविष्वास तथा आत्मनिर्णय का विस्तार हो सके इसके लिए किसी भी जातक की कुंडली में लग्न, दूसरे, तीसरे तथा एकादष स्थान के ग्रहों तथा इन स्थानों पर मौजूद ग्रहों का आकलन करने से ज्ञात होता है अगर किसी जातक की कुंडली में लग्न या तीसरा स्थान स्वयं विपरीत हो जाए अथवा इस स्थान पर क्रूर ग्रह हो तो ऐसे जातक के जीवन में आत्मविष्वास तथा आत्मसंयम की कमी के कारण जीवन में सफलता दूर रहती है इसी प्रकार एकादष स्थान का स्वामी क्रूर ग्रहों से पापक्रांत हो अथवा छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए तो ऐसे लोग अनियमित दिनचर्या के कारण अपनी योग्यता का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते अर्थात् स्वयं अपने जीवन में प्रकाष का समय तथा आवष्यकतानुसार उपयोग नहीं कर पाते जिसके कारण परेषान रहते हैं। इन सभी स्थितियों से बचने के लिए जीवन में आत्मसंयम तथा अनुषासन के साथ ग्रह शांति करनी चाहिए। बाल्य अवस्था में मंगल के मंत्रजाप तथा बड़ो का आदर तथा युवा अवस्था में शनि के मंत्रों का जाप, दान तथा अनुषाासन रखना चाहिए

जाने अहंकार का ज्योतिष्य कारण और उपाय............

आदर प्राप्ति हेतु करें अहं का त्याग-जाने अहंकार का ज्योतिषीय कारण -
प्रातः हर मनुष्य में अपने को बड़ा मानने की प्रवृत्ति सहज ही होती है और यह प्रवृत्ति बुरी भी नहीं है। किंतु अकसर अहं स्वयं को सही और दूसरो को गलत साबित करता है। आत्मसम्मान और स्वाभिमान के बीच बारीक रेखा होती है जिसमें अहंकार का कब समावेष होता है पता भी नहीं चलता। कोई कितना भी योग्य हो यदि वह अपनी योग्यता का स्वयं मूल्यांकन करता है तो आदर का पात्र नहीं बन पाता अतः बड़ा बनकर आदर का पात्र बनने हेतु अहंकार का त्याग जरूरी है। अहंकार का अतिरेक किसी जातक की कुंडली से देखा जा सकता है। यदि किसी जातक के लग्न, तीसरे, एकादष स्थान का स्वामी होकर सूर्य, शनि जैसे ग्रह छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाएं तो ऐसे जातक अहंकार के कारण रिष्तों में दूरी बना लेते हैं वहीं अगर इन स्थानों का स्वामी होकर गुरू जैसे ग्रह हों तो बड़प्पन कायम होता है। अतः यदि लोगों का आपके प्रति सच्चा आदर ना दिखाई दे और आदर का पात्र होते हुए भी आदर प्राप्त न कर पा रहें हो तो कुंडली का आकलन कराकर पता लगा लें कि कहीं जीवन में अहंकार का भाव प्रगाढ़ तो नहीं हो रहा। अथवा सूर्य की उपासना, अध्र्य देकर तथा सूक्ष्म जीवों के साथ असमर्थ की मदद कर अपने जीवन से अहंकार को कम कर जीवन में आदर तथा सम्मान प्राप्त किया जा सकता है।

क्या शनि पर जिव है???ज्योतिष्य तथ्य...

सौर मंडल में गुरु के बाद शनि ग्रह स्थित है जो भूमि से एक तारे के समान दिखाई देता है, परंतु उसका रंग काला सा है। इसके पूर्व-पश्चिम व्यास की अपेक्षा दक्षिणोŸार व्यास लगभग 7.5 हजार मील कम है। अतः यह पूर्णतः गोल न होकर चपटा है। इसके समान चपटा अन्य कोई ग्रह नहीं है। इसके पिंड का व्यास 75 हजार मील से भी ज्यादा है जो पृथ्वी के व्यास से 9 गुना अधिक है। इसका पृष्ठ भाग पृथ्वी की अपेक्षा 81 गुना और आकार 700 गुना अधिक है, परंतु इसके आकार के हिसाब से वहां द्रव्य नहीं है। शनि का प्राकृतिक वातावरण: शनि का घनत्व अन्य सभी ग्रहों से कम है, वह पृथ्वी के घनत्व का सातवां हिस्सा है। शनि पर द्रव्य पदार्थ पृथ्वी के पानी से भी पतला है। वहां उष्णता अधिक है इस कारण वहां भाप उठती है। उसका वातावरण वायु रूप अवस्था में होने के कारण प्रवाही है। शनि का वातावरण प्राणियों के अनुकूल नहीं है, इसलिए वहां जीवन नहीं है। शनि के पृष्ठभाग पर नाना प्रकार के रंग चमकते हैं, ध्रुव की ओर नीला, अन्य भाग मंे पीला और मध्य भाग में सफेद रेत का पट्टा तथा बीच-बीच में बिन्दु दिखाई देते हैं। शनि ग्रह पृथ्वी से बिल्कुल भिन्न है। धूल के कणों और गैस से बने अभ्र इसके वातावरण में व्याप्त है। इस अपारदर्शी अभ्र के कारण ही उसका अपना थोड़ा सा प्रकाश है, वह बाहर नहीं आ पाता है, इसलिए वह निस्तेज दिखाई देता है। सूर्य पुत्र शनि: शनि अपने पिता सूर्य से 88 करोड़ मील की दूरी पर स्थित है। इस अत्यधिक दूरी के कारण ही सूर्य का बहुत कम प्रकाश शनि तक पहंुच पाता है। इसलिए वहां अंधेरा रहता है। पृथ्वी के चंद्र को जितना सूर्य का प्रकाश मिलता है, शनि को उसका 90 वां हिस्सा ही मिल पाता है। शनि के 7 चंद्र प्रकाशवान होने के बावजूद पृथ्वी के चंद्रमा से जो प्रकाश हमें मिलता है, उसकी तुलना में 16 वां भाग ही शनि को उसके चंद्रों से मिल पाता है। इन कारणों से वहां ज्यादातर अंधेरा ही छाया रहता है। शनि की उष्णता उसके घटक द्रव्यों को ऊर्जा देने के लिए काफी है, ऐसी स्थिति में वह निस्तेज होकर भी तेजस्वी है। शनि कैलेंडर: पृथ्वी के एक सौर मास के बराबर शनि का 1 दिन होता है, पृथ्वी के ढाई (2.6) वर्ष के बराबर शनि का 1 सौर मास होता है, इतने समय तक शनि एक राशि में भ्रमण करता है। इस दौरान वह कई बार वक्री और मार्गी हो जाता है, इस कारण उसका प्रभाव पिछली और अगली राशियों में भी बराबर बना रहता है। पृथ्वी के साढे़ 29 वर्षों के बराबर शनि का 1 सौर वर्ष होता है। इतन वर्षों में शनि सूर्य की सिर्फ एक परिक्रमा पूरी कर पाता है। इसकी मंद गति के कारण ही शास्त्रों में इसे ‘मंदसौरी’ कहा गया है। और शायद इसी कारण इसे शनैश्चरः भी कहते हैं। शनि के वलय: शनि के पृष्ठभाग के चारों ओर 16000 कि.मी. का स्थान खाली है। शनि के भव्य पिंड के चारों ओर कुछ छल्ले हैं, जिन्हें वलय कहा जाता है। इन्हें शनि का रक्षा कवच कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इन वलयों के कारण ही शनि की आकृति शिवलिंग की भांति दिखाई देती है। ये वलय शनि के विषुववृŸा के चारों ओर फैले हुए हैं। शनि की कक्षा अपने विषुववृŸा से 27 अंश का कोण बनाती है। शनि के विषुववृŸा पर सूर्य साढ़े 29 वर्ष में दो बार आता है। जब शनि उत्तरी गोलार्द्ध में होता है तब वलय का दक्षिणी भाग और जब दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है तो तब वलय का उत्तरी पृष्ठ भाग दिखाई देता है। कृष्ण पक्ष की अंधेरी रात में ही इसे देख पाना संभव है। आंतरिक वलय का व्यास 2,33,000 कि.मी. तथा बाहरी का 2,81,000 कि.मी. है, इसके बाहर की कला के मध्य बिन्दु से 133000 कि.मी. दूरी पर है। कैसिनी द्वारा भेजी गई तस्वीरों का अध्ययन करके जेट प्रोपल्शन लैब के प्रमुख डोनाल्ड शेमानस्की ने कहा है कि शनि के वलयों का क्षरण हो रहा है और अगले 10 अरब वर्षों में वलयों का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। ग्रहों की ज्योतिषीय गणना के आधार पर हम कह सकते हैं कि दो अरब चैंतीस करोड़ वर्ष बाद शनि के वलयों के साथ-साथ शनि और संपूर्ण ब्रह्मांड का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड शून्य में विलीन हो जाएगा। धर्मशास्त्रों में इसे जगत का परमात्मा में लय (सृष्टि विनाश) कहा गया है। प्राचीन भारतीय खगोलविदों के अनुसार शनि का वलय चक्र बढ़ते-बढ़ते शनि के पृष्ठभाग के चारों ओर फैलता जा रहा है अर्थात शनि के पिंड और आंतरिक वलय के बीच 16000 कि.मी. की दूरी का जो खाली स्थान है, उस शून्य की ओर ये वलय बढ़ रहे हैं। सप्तचन्द्र, शनि की चमकती आंखेंः शनि के 8 उपग्रह अर्थात चंद्र हैं, जो उसके चारों ओर घूमते हैं। इनमें से 7 चंद्रों की कक्षा वलयांतर्गत ही है। इन 7 प्रकाशवान चंद्रों के कारण ही शनि को सप्त नेत्रों वाला कहा गया है। शनि के अंदर का चंद्र शनि से मात्र 1,92,000 कि.मी. की दूरी पर है जबकि पृथ्वी का चन्द्र पृथ्वी से इसकी अपेक्षा दोगुनी दूरी पर स्थित है। वलय पर स्थित 7 चंद्रों में से एक बुध से भी बड़ा है, हो सकता है कि वह मंगल के बराबर हो। वैज्ञानिकों ने इसका नाम ‘टाइटन’ रखा है। ये चंद्र परस्पर निकट होने से अलग-अलग दृश्यमान नहीं होते। वैसे प्रत्येक चंद्र स्वतंत्र रूप से शनि के चारों ओर घूमता है। शनि के चारों ओर वलयों में चमकते हुए चंद्र ऐसे लगते हैं, मानो शनि ने चमकते हुए सफेद मोतियों का हार पहन लिया हो। यह चंद्रहार ही उसे सभी ग्रहों में अनूठा बनाता है। शनि के चंद्र पृथ्वी से अधिक दूरी पर होने के कारण बारीक तारे के समान नजर आते हैं। इन चंद्रों की कक्षा के मध्य 28 अंश का कोण है, इस कारण ग्रहण आदि कदाचित ही होते हैं। शनि ग्रह का वातावरण प्राणियों के रहने योग्य नहीं है किंतु अनुमान है कि शनि के चंद्रों पर किन्हीं सूक्ष्म जीवों का वास है और शनि उनका पोषण करने में समर्थ है। शनि के चन्द्रों का प्राकृतिक वातावरण सूखा व ठंडा है। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की पहले मान्यता थी कि शनि के 42 चंद्र है किंतु अभी तक केवल 31 चंद्रों की ही खोज हो पाई है। शनि के चंद्रों और वलयों की संख्या को लेकर विवाद हो सकता है। किंतु यह तो तय है कि शनि एक रहस्यमय ग्रह है एक अनसुलझी पहेली की तरह जिसकी गुत्थी सुलझाने में वैज्ञानिक दिन रात लगे हुए हैं। वे इसमें कहां तक सफल होंगे, यह तो समय ही बताएगा।

विवाह विलंभ में शनि महत्वपूर्ण ग्रह



सप्तम भावस्थ प्रत्येक ग्रह अपने स्वभावानुसार जातक-जातका के जीवन में अलग-अलग फल प्रदान करता है। वैसे तो जन्मकुंडली का प्रत्येक भाव का अपना विशिष्ट महत्व है, किंतु सप्तम भाव जन्मांग का केंद्रवर्ती भाव है, जिसके एक ओर शत्रु भाव और दूसरी ओर मृत्यु भाव स्थित है। जीवन के दो निर्मम सत्यों के मध्य यह रागानुराग वाला भाव सदैव जाग्रत व सक्रिय रहता है। पराशर ऋषि के अनुसार इस भाव से जीवन साथी, विवाह, यौना चरण और संपत्ति का विचार करना चाहिए। सप्तम भावस्थ शनि के फल: आमयेन बल हीनतां गतो हीनवृत्रिजनचित्त संस्थितिः। कामिनीभवनधान्यदुःखितः कामिनीभवनगे शनैश्चरै।। अर्थात सप्तम भाव में शनि हो, तो जातक आपरोग से निर्बल, नीचवृत्ति, निम्न लोगों की संगति, पत्नी व धान्य से दुखी रहता है। विवाह के संदर्भ में शनि की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि आकाश मंडल के नवग्रहों में शनि अत्यंत मंदगति से भ्रमण करने वाला ग्रह है। वैसे सप्तम भाव में शनि बली होता है, किंतु सिद्धांत व अनुभव के अनुसार केंद्रस्थ क्रूर ग्रह अशुभ फल ही प्रदान करते हैं। जातक का जीवन रहस्यमय होता है। शनि हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का ज्ञान करा ही देता है एवं दंडस्वरूप इस जन्म में विवाह-विलंब व विवाह प्रतिबंध योग, संन्यास-योग तक देता है। शनि सप्तम भाव में यदि अन्य ग्रहों के दूषित प्रभाव में अधिक हो, ता जातक अपने से उम्र में बड़ी विवाहिता विधवा या पति से संबंध विच्छेद कर लेने वाली पत्नी से रागानुराग का प्रगाढ़ संबंध रखेगा। ऐसे जातक का दृष्टिकोण पत्नी के प्रति पूज्य व सम्मानजनक न होकर भोगवादी होगा। शनि सप्तम भाव में सूर्य से युति बनाए, तो विवाह बाधा आती है और विवाह होने पर दोनों के बीच अंतर्कलह, विचारों में अंतर होता है। शनि व चंद्र सप्तमस्थ हों, तो यह स्थिति घातक होती है। जातक स्वेच्छाचारी और अन्य स्त्री की ओर आसक्त होता है। पत्नी से उसका मोह टूट जाता है। शनि और राहु सप्तमस्थ हों, तो जातक दुखी होता है और इस स्थिति से द्विभार्या-योग निर्मित होता है। वह स्त्री जाति से अपमानित होता है। शनि, मंगल व केतु जातक को अविवेकी और पशुवत् बनाते हैं। और यदि शुक्र भी सह-संस्थित हो, तो पति पत्नी दोनों का चारित्रिक पतन हो जाता है। जातक पूर्णतया स्वेच्छाचारी हो जाता है। आशय यह कि सप्तम भावस्थ शनि के साथ राहु, केतु, सूर्य, मंगल और शुक्र का संयोग हो, तो जातक का जीवन यंत्रणाओं के चक्रव्यूह में उलझ ही जाता है। सप्तमस्थ शनि के तुला, मकर या कुंभ राशिगत होने से शश योग निर्मित होता है। और जातक उच्च पद प्रतिष्ठित होकर भी चारित्रिक दोष से बच नहीं पाता। सप्तम भावस्थ शनि किसी भी प्रकार से शुभ फल नहीं देता। विवाह विलंब में शनि की विशिष्ट भूमिका: शनि व सूर्य की युति यदि लग्न या सप्तम में हो, तो विवाह में बाधा आती है। विलंब होता है और यदि अन्य क्रूर ग्रहों का प्रभाव भी हो, तो विवाह नहीं होता।सप्तम में शनि व लग्न में सूर्य हो, तो विवाह में विलंब होता है। कन्या की जन्मपत्री में शनि, सूर्य या चंद्र से युत या दृष्ट होकर लग्न या सप्तम में संस्थित हो, तो विवाह नहीं होगा। शनि लग्नस्थ हो और चंद्र सप्तम में हो, तो विवाह टूट जाएगा अथवा विवाह में विलंब होगा। शनि व चंद्र की युति सप्तम में हो या नवमांश चक्र में या यदि दोनों सप्तमस्थ हों, तो विवाह में बाधा आएगी। शनि लग्नस्थ हो और चंद्र सप्तमेश हो और दोनों परस्पर दृष्टि-निक्षेप करें, तो विवाह में विलंब होगा। यह योग कर्क व मकर लग्न की जन्मकुंडली में संभव है। शनि लग्नस्थ और सूर्य सप्तमस्थ हो तथा सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। शनि की दृष्टि सूर्य या चंद्र पर हो एवं शुक्र भी प्रभावित हो, तो विवाह विलंब से होगा। शनि लग्न से द्वादश हो व सूर्य द्वितीयेश हो तो, लग्न निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। इसी तरह शनि षष्ठस्थ और सूर्य अष्टमस्थ हो तथा सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। लग्न सप्तम भाव या सप्तमेश पापकर्तरि योग के मध्य आते हैं तो विवाह में विलंब बहुत होगा। शनि सप्तम में राहु के साथ अथवा लग्न में राहु के साथ हो और पति-पत्नी स्थान पर संयुक्त दृष्टि पड़े, तो विवाह वृद्धावस्था में होगा। अन्य क्रूर ग्रह भी साथ हांे, तो विवाह नहीं होगा। शनि व राहु कि युति हो, सप्तमेश व शुक्र निर्बल हों तथा दोनों पर उन दोनों ग्रहों की दृष्टि हो, तो विवाह 50 वर्ष की आयु में होता है। सप्तमेश नीच का हो और शुक्र अष्टम में हो, तो उस स्थिति में भी विवाह वृद्धावस्था में होता है। यदि संयोग से इस अवस्था के पहले हो भी जाए तो पत्नी साथ छोड़ देती है। समाधान शनिवार का व्रत विधि-विधान पूर्वक रखें। शनि मंदिर में शनिदेव का तेल से अभिषेक करें व शनि से संबंधित वस्तुएं अर्पित करें। अक्षय तृतीया के दिन सौभाग्याकांक्षिणी कन्याओं को व्रत रखना चाहिए। रोहिणी नक्षत्र व सोमवार को अक्षय तृतीया पड़े, तो महा शुभ फलदायक मानी जाती है। इस दिन का दान व पुण्य अत्यंत फलप्रद होते हैं। यदि अक्षय तृतीया शनिवार को पड़े, तो जिन कन्याओं की कुंडली में शनि दोष हो, उन्हें इस दिन शनि स्तोत्र और श्री सूक्त का पाठ 11 बार करना चाहिए, विवाह बाधा दूर होगी। यह पर्व बैसाख शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन प्रतीक के रूप में गुड्डे-गुड़ियों का विवाह किया जाता है ताकि कुंआरी कन्याओं का विवाह निर्विघ्न संपन्न हो सके। शनिवार को छाया दान करना चाहिए। ू दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ नित्य करें। ू शनिदेव के गुरु शिव हैं। अतः शिव की उपासना से प्रतिकूल शनि अनुकूल होते हैं, प्रसन्न होते हैं। शिव को प्रसन्न करने हेतु 16 सोमवार व्रत विधान से करें व निम्न मंत्र का जप (11 माला) करें: ‘‘नमः शिवाय’’ मंत्र का जप शिवजी के मंदिर में या घर में शिव की तस्वीर के समक्ष करें। ू हनुमान जी की पूजा उपासना से भी शनिदेव प्रसन्न व अनुकूल होते हैं क्योंकि हनुमान जी ने रावण की कैद से शनि को मुक्त किया था। शनिदेव ने हनुमान जी को वरदान दिया था कि जो आपकी उपासना करेगा, उस पर मैं प्रसन्न होऊंगा। सूर्य उपासना भी शनि के कोप को शांत करती है क्योंकि सूर्य शनि के पिता हैं। अतः सूर्य को सूर्य मंत्र या सूर्य-गायत्री मंत्र के साथ नित्य प्रातः जल का अघ्र्य दें।शनि व सूर्य की युति सप्तम भाव में हो, तो आदित्य-हृदय स्तोत्र का पाठ करें। जिनका जन्म शनिवार, अमावस्या, शनीचरी अमावस्या को या शनि के नक्षत्र में हुआ हो, उन्हें शनि के 10 निम्नलिखित नामों का जप 21 बार नित्य प्रातः व सायं करना चाहिए, विवाह बाधाएं दूर होंगी। कोणस्थः पिंगलो बभू्रः कृष्णो रौद्रान्तको यमः। सौरि शनैश्चरो मंदः पिप्पलादेव संस्तुतः।। हरितालिका व्रतानुष्ठान: जिनके जन्मांग में शनि व मंगल की युति हो, उन्हें यह व्रतानुष्ठान अवश्य करना चाहिए। इस दिन कन्याएं ‘‘पार्वती मंगल स्तोत्र’’ का पाठ रात्रि जागरण के समय 21 बार करें। साथ ही शनि के निम्नलिखित पौराणिक मंत्र का जप जितना संभव हो, करें विवाह शीघ्र होगा। ‘‘नीलांजन समाभासं, रविपुत्रं यामाग्रजं। छायामार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।’’ ू शनिवार को पीपल के वृक्ष को मीठा जल चढ़ाएं व 7 बार परिक्रमा करें। शनिवार को काली गाय व कौओं को मीठी रोटी और बंदरों को लड्डू खिलाएं। सुपात्र, दीन-दुखी, अपाहिज भिखारी को काले वस्त्र, उड़द, तेल और दैनिक जीवन में काम आने वाले बरतन दान दें। शुक्रवार की रात को काले गुड़ के घोल में चने भिगाएं। शनिवार की प्रातः उन्हें काले कपड़े में बांधकर सात बार सिर से उतार कर बहते जल में बहाएं। ू बिच्छू की बूटी अथवा शमी की जड़ श्रवण नक्षत्र में शनिवार को प्राप्त करें व काले रंग के धागे में दायें हाथ में बांधें। शनि मंत्र की सिद्धि हेतु सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण के दिन शनि मंत्र का जप करें। फिर मंत्र को अष्टगंधयुक्त काली स्याही से कागज पर लिख कर किसी ताबीज में बंद कर काले धागे में गले में पहनें। व्रतों की साधना कठिन लगे, तो शनि पीड़ित लोगों को शनि चालीसा, ‘‘शनि स्तवराज’’ अथवा राजा दशरथ द्वारा रचित ‘‘शनि पीड़ा हरण स्तोत्र’’ का पाठ नित्य करना चाहिए।बहुत पुराने काले गुड़ के घोल म उड़द और आटे को गूंधकर थोड़े से काले तिल मिलाएं और 23 शनिवार तक प्रति शनिवार आटे की 23 गोलियां बनाएं। गोलियां बनाते समय निम्नलिखित मंत्र जपें। अनुष्ठान पूरा हो जाने के बाद इन मीठी गोलियों को बहते जल में प्रवाहित करें। ¬ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’’ विवाह में आने वाली बाधा को दूर करने हेतु शनि के दस नामों के साथ जातक को शनि पत्नी के नामों का पाठ करना चाहिए। ‘‘ध्वजिनी धामिनी चैव कंकाली कलह प्रिया। कंटकी कलही चाऽपि महिषी, तुरंगमा अजा।। नामानि शनिमार्यायाः नित्यंजपति यः पुमान तस्य दुःखनि तश्यन्ति सुखमसौभाग्यमेधते। शनि मंत्र: (1) ¬ ऐं ह्रीं श्रीं शनैश्चराय। ;2द्ध ¬ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः ;3द्ध ¬ शं शनैश्चराय नमः जप संख्या 23 हजार ;4द्ध ¬ नमो भगवते शनैश्चराय सूर्य पुत्राय नम ¬। पौराणिक मंत्र (जप संख्या 92 हजार) ¬ शन्नोदेवीरभिष्टयआपो भवंतु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तुनः ¬ शनैश्चराय नमः ;महामंत्राद्ध शनि प्रतिमा के समक्ष शनि पीड़ानुसार उक्त किसी एक मंत्रा का 23 हजार बार जप करें। शनि का दान: लोहा, उड़द दाल, काला वस्त्र, काली गाय, काली भैंस, कृष्ण वर्ण पुष्प, नीलम, तिल कटैला, नीली दक्षिणा आदि। यदि किसी भी प्रकार विवाह नहीं हो पा रहा हो, तो इस अनुभूत उपाय को अपनाएं। कार्तिक मास की देव-उठनी एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) के दिन तुलसी और शालिग्राम का विवाह किया जाता है, यह शास्त्र में वर्णित है। कहीं-कहीं यह विवाह बड़ी धूम-धाम से किया जाता है। इस दिन कन्याएं सौभाग्य कामना हेतु व्रत लें। तुलसी-शालिग्राम के विवाह के पूर्व गौरी गणपति का आह्वान और षोडशोपचार पूजन कर कुंआरी कन्याओं को चाहिए कि तुलसी माता को हल्दी और तेल चढ़ाएं। माता एवं शालिग्राम जी को कंकण बांध, मौर बांध, विवाह गांठ बांधें व तुलसी माता का सोलह शृंगार करें। पंचफल एवं मिष्टान्न से तुलसी माता की विधिवत् गोद भराई करें। पंडित के द्वारा विवाह मंत्रोच्चारण के साथ पूर्ण विवाह की रस्म निभाएं। ल् आकार की हल्दी में सात बार कच्चा धागा लपेट कर, एक सुपारी और सवा रुपया सहित लेकर बायें हाथ की मुट्ठी में कन्या रखे व दायें हाथ में 108 भीगे हरे चने रखे। सोलह शृंगारित तुलसी माता सहित शालिग्राम की परिक्रमा मंत्र सहित 108 बार करे एवं हर परिक्रमा में एक चना तुलसी माता की जड़ में अर्पण करती चले। माता तुम जैसी हरी-भरी हो, हमें भी हरा-भरा कर दो, हमें एक से दो कर दो की मनोकामना के साथ परिक्रमा करें। इसके बाद बायें हाथ में पकड़ी हल्दी, सुपारी और रुपया तुलसी की जड़ में दबा दे। सौभाग्य कामना से हल्दी में लपेटा गया कच्चा सूत कन्या को दाहिने हाथ में बंधाना चाहिए। उस दिन कन्या सिर्फ जल ग्रहण कर। चबाने वाली चीजें न खाएं। शृंगार की वस्तुएं कन्या स्वयं पहने, जो तुलसी को अपर्ण की थीं। विवाह संस्कार में हल्दी-रस्म के समय ल् आकार की जो हल्दी तुलसी की जड़ में दबाई गई थी, उसे सर्वप्रथम गणेश जी को अर्पण करें और सिर्फ कन्या को ही लगाई जाए। इसे ‘‘सौभाग्य कामना हल्दी’’ कहते हैं। अंततः शनि पीड़ित व्यक्ति को शनि उपासना करनी चाहिए किंतु जिनका शनि शुभ है एवं शनि दशा, अंतर्दशा, साढ़ेसाती, ढैया आदि नहीं चल रहे हों उन्हें भी शनिदेव की आराधना उपासना करते रहनी चाहिए। सुंदर, सुनहरे भविष्य हेतु शनि की आराधना उपासना-मंत्र पाठ अवश्य करें।

भाग्य रेखा और शनि ग्रह



भाग्य रेखा जातक के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे जीवनचर्या, धन-दौलत, संतान, स्वास्थ्य सभी के बारे में बतलाती है। हथेली में शनि पर्वत पर जाने वाली रेखा को भाग्य रेखा कहा जाता है। इसे हस्तरेखा शास्त्र की भाषा में शनि रेखा भी कहते हैं। इसके अलावा सूर्यरेखा मनुष्य की जीवनचर्या में विशेष उच्च पद, मान-प्रतिष्ठा धन प्राप्ति की स्थिति आदि बतलाती है। यदि हथेली में शनि रेखा (भाग्य रेखा) और सूर्य रेखा दोनों विद्यमान हों तो व्यक्ति को अत्यंत उच्च अधिकार वाला पद, ख्याति और विशाल संपत्ति प्राप्त होती है। जिस प्रकार मनुष्य की कुंडली में भाग्येश (नवमेश) और दशमेश दोनों बलवान हों तो राजयोग बनता है, ठीक उसी प्रकार हथेली में शनि और सूर्य रेखाएं दोनों बलवान (स्पष्ट, लंबी) हों तो हथेली में राजयोग बनता है। मनुष्य की कुंडली और हथेली के सम्मिलित विश्लेषण से हम यह पाते हैं कि जातक की भाग्य रेखा (शनि रेखा) का संबंध जातक की कुंडली के भाग्येश (नवमेश) से तथा सूर्य रेखा का संबंध दशम भाव के स्वामी ग्रह से होता है। इस प्रकार भाग्य रेखा के बली या निर्बल होने को केवल शनि ग्रह के बली या निर्बल होने के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। क्योंकि जातक की कुंडली में भाग्य का स्वामी शनि को छोड़कर कोई भी ग्रह (सूर्य से शनि तक) हो सकता है। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि शनि रेखा के निर्बल होने पर ज्योतिषी नीलम धारण करने की सलाह दे देते हैं, जबकि आवश्यकता नवमेश का रत्न को धारण करने की होती है इस प्रकार जातक की समस्या और बढ़ जाती है। यही स्थिति सूर्य रेखा के साथ भी उत्पन्न होती है। प्राकृतिक रूप से जातक की हथेली में चार ऊध्र्व उंगलियां और पर्वत क्रमशः गुरु पर्वत, शनि पर्वत, सूर्य पर्वत और बुध पर्वत होते हैं। इसी प्रकार जातक की कुंडली में चार त्रिकोण-प्रथम धर्म त्रिकोण, द्वितीय अर्थ त्रिकोण, तृतीय काम त्रिकोण और चतुर्थ मोक्ष त्रिकोण होते हैं। हथेली की चारांे ऊध्र्व रेखाओं का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इनका संबंध जातक की जन्म कुंडली के इन्हीं चारों त्रिकोणों के स्वामी ग्रहों के फलों का सम्मिश्रण होता है। हाथ की रेखाएं वास्तव में प्रकृति की कूट भाषा या कूट संकेत हैं, जिन्हें समझना ही दैवज्ञ का कार्य है। हम देखते हैं कि हाथ की भाग्य रेखा जिसे शनि रेखा भी कहते है, का संबंध कुंडली के प्रथम धर्म त्रिकोण अर्थात लग्न, पंचम और नवम ग्रहों क स्वामियों से है। नवम भाव को धर्म भाव भी कहते हैं। इस प्रकार भाग्य रेखा स्वास्थ्य, शिक्षा, संतान, भाग्य आदि सभी के विषय में बतलाती है। अतः भाग्य रेखा यदि निर्बल हो तो धर्म त्रिकोण के स्वामी ग्रहों के रत्न धारण करने चाहिए। हाथ की सूर्य रेखा कुंडली के दूसरे त्रिकोण (अर्थ त्रिकोण) अर्थात दूसरे, छठे और दसवें भावों के स्वामियों से संबंधित है। इस प्रकार जातक की सूर्य रेखा संचित धन, विद्या, शत्रु से रक्षा, पद, प्रतिष्ठा आदि के बारे में बतलाती है। इस प्रकार सूर्य रेखा केवल सूर्य से संबंधित नहीं होती बल्कि उसका संबंध कुंडली के अर्थ त्रिकोण के स्वामी किसी भी अन्य ग्रह से हो सकता है। हाथ की बुध रेखा का संबंध जातक की कुंडली के तीसरे काम त्रिकोण अर्थात तृतीय, सप्तम और एकादश भावों से होता है। कुंडली के सप्तम भाव से स्त्री सुख के अलावा साझा व्यापार एवं एकादश भाव से धन लाभ का विचार किया जाता है। इस प्रकार हाथ की बुध रेखा जातक की व्यावसायिक क्षमता को बतलाती है। जबकि जातक की विवाह रेखाओं, जिन्हें काम रेखा भी कहते हैं, की शुभ और अशुभ स्थितियों का विचार हाथ के बुध पर्वत पर इन रेखाओं की स्थिति के अनुरूप किया जाता है। अंत में, हथेली में यदि गुरु रेखा भी हो तो उसका संबंध चतुर्थ मोक्ष त्रिकोण अर्थात चैथे, आठवें और बारहवें भाव के स्वामी ग्रहों के अनुरूप होता है।

पितृदोष और संतान बाधा

संसार में सबसे अधिक गौरवशाली उपाधि मां की ही है। और भारतवर्ष में तो प्रत्येक स्त्री मां बनना अपना परम सौभाग्य समझती है। किंतु कई बार भाग्य साथ नहीं देता। कई मां-बाप ग्रहों की प्रतिकूलता के कारण संतान सुख से वंचित रह जाते हैं। ग्रहों की प्रतिकूलता में एक महत्वपूर्ण योग है ‘पितृ दोष योग’। लग्न कुंडली में किन ग्रहों की स्थिति से पितृ दोष बनता है यह सामान्यतः सभी जानते हैं। किंतु अलग-अलग ग्रहों की स्थिति से निर्मित पितृदोष के उपाय भी पृथक -पृथक प्रणाली से किए जाने चाहिए। संतान प्राप्ति में बाधक पितृदोष कारक ग्रह का प्रभाव लग्न, पंचम, सप्तम एवं नवम भाव पर पड़ता है। पंचम भाव के साथ-साथ सप्तम भाव का विचार शुक्राणु एवं रज के लिए तथा भावत भावम सिद्धांत के अनुसार पंचम से पंचम नवम का अध्ययन आवश्यक है। धर्म एवं भाग्य से ही संतान प्राप्ति होती है अतः नवम भाव का अध्ययन अत्यंत आवश्यक हो जाता है। पितृदोष कारक ग्रहों की निम्न स्थितियों में पितृदोष होता है। - राहु का नवम भाव से संबंध, दृष्टि एवं राशि या नवमेश से संबंध। - बुध का नवम भाव से संबंध। - सूर्य एवं शनि का दृष्टि-युति संबंध अथवा राशि से संबंध। - चंद्र और बुध का राशि दृष्टि या युति संबंध - मेष, वृश्चिक, लग्न और लग्नस्थ मंगल। - गुरु एवं राहु का दृष्टि युति संबंध या राशि संबंध। इनके अतिरिक्त भी कुछ और योग हैं जो पितृदोष के कारक होते हैं। पितृदोष योग के सिद्धांतों पर गौर करें तो ज्ञात होता है कि ऐसे ग्रहों की परिस्थतियों से पितृदोष बनता है जो ग्रह पिता-पुत्र हैं जैसे सूर्य एवं शनि चंद्र एवं बुध, लग्न एवं मंगल (उल्लेखनीय है कि लग्न को पृथ्वी माना जाता है और मंगल को पृथ्वी पुत्र) तथा पापी ग्रह राहु एवं केतु। सूर्य जब मकर या कुंभ राशि में हो, शनि से दृष्ट हो या शनि के साथ हो तो सूर्य जनित पितृदोष होता है। बुध का नवम भाव से संबंध हो तो बुध जनित राहु का संबंध हो तो। राहु जनित पितृ दोष का अध्ययन करके उसके संतान प्राप्ति में बाधा कारक प्रभावों को जानना चाहिए।

ज्योतिष शास्त्र में नामकरण संस्कार का महत्व..........

सोलह संस्कारों में नामकरण संस्कार का अपना एक विशेष महत्व है, किसी भी पदार्थ, स्थान या व्यक्ति के गुण अथवा अवगुण आदि के निर्णय में उसका नाम महत्वपूर्ण स्थान रखता है। धार्मिक तथा सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथों के चरित्र नायकों, खलनायकों तथा अन्यान्य पात्रों के नाम देखकर अचंभा होता है कि कैसे इनके चरित्रानुरूप नाम पूर्व में ही रख दिए गए थे। दुर्योधन के नाम से अकस्मात एक ऐसे योद्धा की छवि उतरकर सामने आ जाती है जो अन्यायपूर्ण युद्ध में विश्वास रखता हो। भीम नाम से भीमकाय तथा महाबली योद्धा का रूप सामने आ जाता है, अर्जुन नाम से ऐसे व्यक्ति का बोध होता है जो कठिन से कठिन परिस्थिति में भी स्थिर चित्त रहे। दुस्शासन नाम सुनते ही मन ग्लानि तथा धिक्कार से भर उठता है। जहां राम, कृष्ण, शिव, सीता, ईसा, गुरु नानक आदि मर्यादा के आदर्शपालक होने के कारण स्वतः प्रत्येक प्राणी के मन में रमण करने लगते हैं वहीं रावण, कंस, भस्मासुर, मंथरा, कैकेयी आदि नाम सुनते ही मन विषाक्त हो उठता है। तात्पर्य यह है कि आर्य जाति में पूर्व में नामकरण से पहले गुण-अवगुण तथा चरित्र का खूब अच्छी तरह से विचार कर लिया जाता था। यथा नाम चारित्रिक गुण भी व्यक्ति में वैसे ही भर जाते थे। यदि किसी अल्प बुद्धि बालक को धूर्त कहीं का, पागल, भैंसे, गुड़गोबर सिंह, काहिल, सूअर, पाजी आदि नाम उपनामों से निरंतर संबोधित किया जाता है, तो कुछ समय बाद वह यथा नाम वैसे ही व्यवहार करने लगता है। अर्थात वैसा ही बन जाता है। कायरता, वीरता, प्रेम रस, भक्ति रस आदि का प्रतीक किसी प्राचीन चरित्र का नाम यदि नियमित रूप से किसी के लिए प्रयोग किया जाता है तो उस चरित्र की छवि नाम के साथ हृदय में उतरने लगती है। व्यक्ति के भविष्य निर्माण में नाम एक प्रमुख भूमिका निभाता है। नाम की सार्थकता के साथ-साथ उसमें ध्वनि सौकर्य का भी ध्यान रखना चाहिए। कोई नाम भले ही सुंदर से सुंदर अर्थ वाला हो, यदि उसके उच्चारण में क्लिष्टता के कारण कठिनाई आती हो तो वह नाम लोकप्रिय नहीं हो पाता। सैकड़ों फिल्मी चरित्रों के बदले हुए नाम इस बात की स्वतः पुष्टि कर देंगे यथा दिलीप कुमार, प्रदीप कुमार, किशोर कुमार, निम्मी, मधुबाला, मीना कुमारी, लता, माधुरी, नौशाद आदि। शास्त्रकारों ने इसीलिए नाम चयन के लिए कुछ वैज्ञानिक तथा विवेचनात्मक नियम सुनिश्चित किए हैं। इन सबका वर्णन सर्वथा ध्वनि विज्ञान तथा मनोविज्ञान के आधार पर किया गया है। सुझाव दिया गया है कि दो, तीन अथवा चार अक्षर वाले एसे नाम रखे जाएं जिनके अंत में घोष- ग घ, ज झ, ड ढ, द ध न, ब भ म, य र ल व ह में से कोई अक्षर होना चाहिए। मध्य में अंतस्थ य र ल व में से कोई तथा अंत में दीर्घ स्वर संयुक्त, कृदंत नाम रखें तद्धित नहीं। स्त्रियों के नाम विषम अक्षर के अकारांत होने चाहिए जिससे पुरुषों की तुलना में उनसे अधिक कोमलता ध्वनित हो। कृदन्त का अर्थ है धातुओं से विकार लगाकर बने हुए शब्द जैसे राम, चंद्र, प्रकाश, आनंद आदि शब्द रम, चदि, कासृ, नदि आदि धातुओं से विकृत होकर बने हैं। इसलिए नाम ऐसे हों जिनके अंत में उपर्युक्त शब्द आएं। तद्धित का अर्थ है संज्ञावाचक शब्दों से विकृत होकर बने शब्द यथा पांडव, वासुदेव, भगवान दयालु, कृपालु आदि। ये पांडु, वसु, भग, दया, कृपा आदि शब्दों से तद्धित प्रत्यय लगाकर बने शब्द हैं। तद्धित नाम क्लिष्ट होने के कारण ही त्याज्य माने गए हैं।

Saturday, 2 July 2016

Sitare Hamare Saptahik Rashifal 4 10 July2016

अज्ञात पितृदोष शांति


अनिष्ट की आंशका दूर करने हेतु करें रवि योग में रवि की पूजा -

ज्योतिष के अनुसार अगर कोई भी कार्य शुभ योग-संयोग देखकर किया जाए तो सफलता निश्चित रूप से मिलती है। शुभ कार्य संपन्न करने या मंगल कार्य को बिना किसी बाधा के करने के लिए के लिए सिद्धि योग एवं शुभ मुहुर्त देख कर ही किए जाने चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस तरह हिमालय का हिम सूर्य के उगने पर गल जाता है और सैकडों हाथियों के समूहों को अकेला सिंह भगा देता है, उसी तरह से रवि योग भी सभी अशुभ योगों को भगा देता है, अर्थात इस योग में सभी शुभ कार्य निर्विघ्न रूप से पूर्ण होते हैं। रवि-योग को सूर्य का अभीष्ट प्राप्त होने के कारण प्रभावशाली योग माना जाता है। सूर्य की पवित्र ऊर्जा से भरपूर होने से इस योग में किया गया कार्य अनिष्ट की आंशका को नष्ट करके शुभ फल प्रदान करता है। यह संयोग खरीदी एवं कोई भी शुभ कार्य की शुरुआत के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त माने जाते हैं। आज किए जाने वाले शुभ कार्य विशेष फलदायी होंगे क्योंकि आज सर्वार्थसिद्ध योग भी है। अतः रवियोग के संयोग में बाजार से खरीदी स्थायित्व प्रदान करने वाली होगी अतः स्थाथी संपत्ति क्रय हेतु सूर्य की पूजा के साथ किए गए कार्य आज शुभ फलदायी है।

Thursday, 30 June 2016

Relation between Knowledge, Education, and Astrology......

All education should primarily lead to upliftment of human beings. Education stems from two basic roots namely (a) Attainment of knowledge and (b) Proper utilization of that knowledge. The former again depends on (i) The ability of the individual- which in turn rests upon the mental faculty he/she possesses at birth and (ii) The interest one develops during the course of his journey in life. The latter could again be either transient or progressive and lasting. Somewhere hidden in ones interest being constructive and long lasting is an inert force known as Talent. It would immediately be apparent that this force is so strong and benign that when it is exhibited and harmonized in a practical mode, optimal contentment and satisfaction is reached. This is known as ‘Manushya Nama Anandam’ and forms the first of the eleven Anandams that lead to Bramhanandam. Knowledge by itself may be good or bad. This very function of relativity in its applicability to living and non- living beings makes it so vast that one rightly feels its complete attainment is a stupendous task. This inherent quality in acquiring knowledge makes the fulfillment of (b) i.e. the proper utilization of knowledge a difficult task indeed. Surely, the human brain is roaming in an ocean of knowledge without knowing where the destination is. This process eats up a high percentage of the human resources that one possesses, and leaves him/her null and void at the end of the day. Should then we not acquire any knowledge? This unfortunately is out of people's scope, as the human mind even in its most deformed state at birth, as per medical terms, thirsts for the attainment of that complete knowledge which is so difficult to attain. The MIND is known as MANN in Sanskrit, which means Ego. The reverse of Mann is Namm which term is a yoga used in Hindu rituals to automatically remove that stressful ego and enable us to tread a more constructive journey in life. This realization of inability to attainment of total knowledge has dawned on the Human race, though belatedly and given rise to what is today so explosively termed as Expertise. This term is just like the Wolf that termed the Grapes as Sour, as it was not able to attain them—in this case the attainment of total knowledge. When viewed from Man made functionaries, Expertise may seem to a certain extent appropriate; but not so if applied to Human Beings, which works holistically and must be so analysed. No wonder Expertise in a particular medical field has left the Medical doctors roaming wild and leaving the poor patient stranded not knowing where he has to go to find the real cause of his distress within his system. Acquirement of knowledge falls into two categories, namely Sruthi and Smrithi. While Sruthi literally means, “what is heard”, Smrithi denotes “what is remembered”. The laws and byelaws for social upliftment are Smrithis. The principals enumerated by Parasara, Manu, Bhaskara and Jaimini are some Smrithis which form the basis to formulate fruitful and constructive modes to better living. It may be mentioned that every thing that is heard need not necessarily be remembered. In fact only those items that have a deep internal effect upon the individual is carried to the Human memory plane. All students hear from the same teacher; but some remember more than the others! Obviously, the inert field of talent one possesses has a large part to play in this vital function. On the other hand the sound vibrations that one hears, affect the system directly and cause divertive motions within the human body. These may be negative, transient or positive. Their reaction on the human breathing system is extensive and is many times a cause for improper and unstable functioning of an individual. The harmonization of Sruthi and Smrithi leads to inner satisfaction and contentment and optimal utilization of human energy. The daily cycle of life is an apt exposition of the working of the human system, which had been so well propagated by our erstwhile SAGES. These are ‘Dwaitha’ by Madhwacharya, ‘Vishishta Adwaitha’ by Ramunaja and ‘Adwaitha’ by Shankara. When the Sun rises Dwaitha or duality comes into play. Each individual feels that the other is different to what he is and therefore the world is immersed into an ocean of competitiveness, selfishness and hatred. As the evening sets, the tired body seeks refuge but the Mind has yet not relented. The body is traveling through semi sleep or dream state. This may be termed as ‘Krishna Vishista Adwaitha’. In this period, the Mind wanders into the happenings of the day, tries to analyze it, relative to past conducts and in the process draws conclusions which may elate or depress one's feelings. In both cases it leads to large-scale loss of ones energy resources. The Mind thereby also tires and seeks revitalization in deep sleep. The human being is running through a state known as ‘Adwaitha’- the feeling of oneness within oneself and with the world. In this state the human body revives its lost energy, conserves and optimizes utilization of its energy resources. Clearly good sleep is an indication of vitality in health. From this state, one again reaches a semi wake or dream position. In this state the body with its high available energy resources feels confident to take up any task whatsoever. This can be termed as ‘Shukla Vishishta Adwaitha’. The dreams during this state are said to come true and verily so, as the body has emerged from the most optimal stage of available energy resources. Ones it wakes up it again falls into the Dwaitha or Duality state and the cycle continues. This cycle clearly indicates the need for proper remodulation of energy resources for integration of the Jivathma and Parmathma or in other words attaining lasting Bliss. The above elaborate exposition of acquirement of knowledge, its proper utilization keeping in view the ultimate constructive target of attainment of steadfast happiness - known as Education and the process of remodulation of available Human resources indicated by ones horoscope, to attain the same, is to enable stringent astrologers, the path they should adopt to guide the public in this most important sphere to harmonious living.