Thursday, 20 October 2016

Vastu asects for marriage

Vaastu Shastra or Vaastu grid is an important model or element basis which a house is set or planned. This also applies to other forms of temporary arrangements too. The site for any arrangement is always planned after a proper scanning and examination. Today most people would agree to incorporate Vaastu Shastra before beginning any project. It is a way of pleasing and inviting God to offer his blessings and making the entire area positive. Most builders always practice Vaastu Shastra and follow it to the core. You will come to know the best location and direction after asking an expert to consult on the same. Hence in case you are planning to construct a house or a temporary arrangement, you must get in touch with an architect with sound knowledge of Vaastu Shastra.
Marriage Halls are an integral part of every marriage ceremony. Most people prefer to build large halls rather than settling for auditoriums and pre-arranged buildings. The fun is to celebrate it with friends and family. Marriage is always an occasion that requires larger than life atmosphere. But marriages also need proper planning and designing. In order to enjoy compliments and a lavish affair, you must ask an expert who recommends or consults on Vaastu Shastra for marriage halls. Vaastu advice for marriage hall would also include understanding the kind of marriage and customs involved. Sometimes marriage halls do not earn revenue due to shortfall of business. In case you own a marriage hall and do not earn profit, you need to think again.
This hall must be planned for a successful future. The halls should predominantly have direction mentions in every hook and corner. The main stage should be positioned towards the Western zone. This way the couple could be facing east while sitting on the pandal. The ideal location for an entrance would be Northern or eastern zones. The plot or area of the marriage hall should be in a very normal shape and no experimentation of any kind would be appreciated. Vaatsu advice for marriage halls also covers positioning electrical equipments in the perfect place. These equipments must be directed towards the South-eastern direction. All kinds of cooking arrangement must be placed towards the South-eastern direction. Any kind of parking can always be done towards the North-western or South-eastern direction. The food and snack counter can be positioned at North-western or Northern zone. The seating arrangement for guests must be made at the Northern or South-western zones. The main mandap should be also arranged in the North-eastern direction. The most integral part is including additional toilets to maintain hygiene. There must be ample supply of water. These toilets must be planned towards the western or North-western direction. The staircase if any should be planned towards the western, Southern or South-western zones.

कुंडली में प्रथम भाव में शनि

यदि जन्मकुंडली के प्रथम भाव (लग्न) में शनि उपस्थित हो या उसका प्रभाव हो तो जातक की आकृति अथवा प्रकृति चिन्तय होती है। वैद्यनाथ के अनुसार ऐसा जातक कईं प्रकार की व्याधि से ग्रस्त होता है। उसका कोई अंग अवश्य ही दोषयुक्त होता है । यदि ज्ञानि स्वगृही या उच्च का हो, तो जातक क्या व आव से चुन होता है । उसका आयुबंल प्रबल होता है । लेकिन आचार्य वशिष्ट के मतानुसार ऐसा जातक कफ-ग्रकृति प्रधान होता है, चर्म रोग से पीडित रहता है और अधोभाग में कोई विकृति होती है। वात रोग के कारण उसे कर्णपीड़। रहती है 1 शारीरिक संरचना घृक्याता लिए होती है। पानि के प्रभावमृके कारण ऐसा जातक अत्यधिक कामातुर और बुद्धि रहित होता है। जहां वैद्यनाथ ने ऐसे जातक का ठगयुर्बल प्रबल बताया है, वहीं आचार्य वशिष्ठ ने उसकी आयु अल्प मानी है । यदि लग्न में ज्ञानि की उपस्थिति के साथ-साथ तुला, धनु या मीन राशि हो तो जातक समृद्ध, वैभबयुबत्त, धनी, दीर्घायु तथा राजा की तरह पुती होता है । कोई अन्य राशि हो तो जातक रुष्ण, क्लेशित और साधन विहीन होता है । " भृगुसूत्र है के अनुसार यदि लग्न में पानि उपस्थित हो तो जातक द्धगत्रु-संहारकत्ततें, समृद्ध, सुखा , इस्थुलदेयी, तीक्ष्य दृष्टिवान एवं वात-पित्तप्रधान होता है । यदि शनि उच्च का हो तो जातक गाम प्रघान अथवा नगर प्रमुख होता है । मकरस्थ या कुंभस्थ शनि जातक को प्रचुर पैतृक संपत्ति प्रदान करता है । है बृहत्यवनजातक सूत्र है के अनुसार यदि लग्नस्थ पुनि मूलत्रिकोषास्थ हो तो जातक राष्ट्र प्रमुख अथवा पति प्रमुख की प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । इसके अतिरिक् राशियों में संस्थित शनि वाधि, विषमता और विपन्नता उत्पन्न करता है । 'जातक परिजात है के अनुदार यदि शनि दुर्बल हो तो जातक संधि-व्याधि से ग्रस्त, दारिद्रय एवं पिशाच प्रेरित होता है । वह दुष्कर्मों का फल भोगता है । उसकी संपत्ति चीर ले
जाते है । वह षचास रोग, शरीर पीडा, पार्श्व पीडा, गुप्त विकार, हदयताप, संधि रोग, कंपन एवं वात विकार आदि से पीडित रहता है । ज्योंतिर्विद जयदेव ने कुछ राशियों में शनि कौ श्रेष्ठ सिद्ध किया है । उनके
मतानुसार धनु, मीन, मकर, कुंभ एबं तुला राशिगत शनि पांडित्य, ऐश्वर्य तथा सुदर्शन शरीर प्रदान करता है, जबकि अन्य राशियों में जातक को दारिद्रय, हृदय रोग, अशुद्ध शरीर, कामावेग, रुष्णत्व और आलस्य प्राप्त होता है । पाश्चात्य विद्वानों ने भी अनेक दृष्टियों से शनि के प्रभावों से अवगत कराया है । इन विद्वानों के अनुसार सामान्यत: प्रथम भावस्थ शनि जीवनभर जातक को दुख देता है । जातक तटस्थ, संकल्पवान, आग्रही, लज्जालु, एकांतस्वैवी, अपनी बात पर दृढ़ रहने वाला और स्वहित साधन में तल्लीन रहता है। यदि ज्ञानि शुभ संयोगयुक्ल हो तो भाग्य शीघ्र अपना प्रभाव दिखाता है । जातक का प्रारंभिक काल संघर्षरत रहता है, किंतु अनवरत प्रयास से उच्च उपलब्धियों प्राप्त होती हैं । यदि शनि अशुभ संयोगयुवत हो तो जातक विवादित, पराश्रयी, तुच्छ कार्यों में संलग्न, दुखी, भयभीत, अविस्वासी, ईंष्यर्रेलु, ध्याकुल तथा जनभीरु होता है । ऐसा जातक बहुत समय पश्चात भी प्रतिशोध की अग्नि अपने अता में प्रज्वलित रखता है । अनेकानेक कारणों से लोकप्रियता का अभाव रहता है । जीवन में कष्ट, आपति, विघ्न, दैन्य तथा नैराश्य का गहरा प्रभाव होता है । शारीरिक रुग्याता बनीरहती है । शीतजनित रोग तथा ऊंचे स्थान से गिरने का भय रहता है । वृश्चिक, सिंह, कर्क और चुग राशि में क्रमश: अपच, यद्धाकोष्ठता, रक्तसंचार विकार तथा मूत्राषाय को जायाधि होती है। शनि द्वारा अग्निरक्तिनंडत होने पर जातक की प्रकृति में सरलता , विश्वसनीयता, आत्मीयता, विवाद हैं रोष, प्रपंच और साहस का समावेश होता है । शनि द्वारा पृथ्वीराशिगत होने पर आलस्य, संकीर्णता हैं प्रतिशोध, दुष्टता, संशय, धूर्तता, कद-विवाद में निपुणता, स्वार्थपरता, पश्चिम, लोलुपता, कृपदृगता, उद्विग्नता, अनावश्यक सतर्कता और क्रोध का समावेश होता है । शनि द्वारा अग्निराशिग्त होने पर जातक मै व्यावहारिकता, और सरलता आ जाती है

शनिदेव की कथा

शिवजी के अमर अवतार भैरवजी, आदिशक्ति के प्रचंड स्वरूप भगवती महाकाली और मृत्यु के नियंत्रक यमराज के ममान ही देवाधिदेव शनिदेव के बारे में भी अनेक सांत घटरपगएं हमरि समाज में व्याप्त हैं । ग्रह के रूप में सर्वाधिक क्रूर और राहु-केतु के समान केवल अशुभ फलदायक ग्रह मानने की गलत धारणा के जहा अधिकांश व्यक्ति शिकार हैं, वहीं शनिदेव को क्रूर देव मानने की भावना भी जनसामान्य में इस प्रकार हावी हो चुकी है कि इनका नाम लेना तक लोग उक्ति नहीं समझते । वैसे इसका प्रमुख कारण हमारा अज्ञान ही है । वास्तव में सभी महानत्ताएं शनिदेव में निहित हैं । आप भगवान भास्कर अथरेंत्सूर्यद्वेव के पुल हैं और इस रूप में यमराज के सगे बड़े भाई हैं । भगवान शिव आपके गुरु और रक्षक हैं तथा भगवान शिव के आदेश पर ही दुष्ठों को दंड देने का कार्य आप नियमित रूप से करते हैं । फिर इसमें शनिदेव का क्या दोष ? इस बरि में स्वयं शनिदेव ने अपनी पत्नी से कहा-यह सत्य है कि मैं भगवान शिव के आदेश से दुष्ठों को दंड देता दूं। परंतु जो व्यक्ति पापी नहीं है, उसे में कभी त्रास नहीं करूंगा । जो व्यक्ति मेरी, मेरे गुरु शिवजी तथा मेरे मित्र हनुमानजी की नियमित आराधना-उपासना बनेगा; उसको इस लोक में मैं सभी सुख तो कूंज्वा ही, अंत में भगवान शिव के चरणों में उसे वास भी प्रात हो जाएगा ।

शनिदेव का अवतरण

सूर्यपुत्र, रबिनंदन, छायातनय, छायापूत, यमाग्रज और सूर्यसुवन भी शनिदेव के प्रमुख नामों में से कुछ हैं । कारण स्पष्ट है । भगवान सूर्यदेव आपके पिता हैं और छाया आपकी माताजी । आपके जन्य और बचपन के बारे में प्राचीन शास्वी में वर्णित कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
भगवान सूर्यदेव को पांच पत्निया हैं-प्रभा, संज्ञा, रात्रि, बड़वा और छाया । इसमें से संज्ञा द्वारा वैवस्वत मनु यम और यमुना नाम को तीन संताने उत्पन्न हुई । संज्ञा अपने पति सूर्य का तेज सहन नहीं कर या रही थी, अता अपने को अंत्तहिंत करने का विचार करने लगी । उसने अपने ही रूप को " छाया' नामक स्वी कंद्र उत्पन्न किया और उसे अपने स्थान पर रखकर स्वयं बड़वा अर्थात् घोडी का रूप धारण करके सुमैरुपबंत पर चली गई । जाते समय उसने छाया से कहा-गुप्त रहस्य को सूर्य से प्रकट मत करना । छाया ने कहा-मब तक सूर्य मेरा केश पकड़कर नहीं पूछेंगे, तब तक मैं नहीं कहूंगी । बहुत कल तक इस रहस्य का भेद नहीं खुला और सूर्य छाया को ही है संज्ञा' समझते रहे । छत्या से रावणि मनु शनैश्चर (शनि), ताल नदी और विष्टि नाम की चार संताने उत्पन्न हुई ।

यद्यपि सूर्यदेव और संज्ञा की तीनों संताने छाया को ही संज्ञा समझते थे, परंतु वह वास्तव में छाया थी । कुछ समय जीतने" छाया अपनी संतानों से अधिक प्रेम करने लगी और संज्ञा की संतानों का तिरस्कार करने लगी । इस विषमता को वैवस्वत मनु सहन नहीं कर सके । उन्होंने अपने पिता सूर्यदेव से शिकायत की- मा यया हममें और षानैघचर आदि में भेद का व्यवहार करती है । सूर्य ने अपनी
पत्नी छाया से इसका कारण पूछा । जब छाया की और से संतोषजनक उत्तर न मिल सका, तो सूर्य ने क्रोध में आकर उसके बाल पकड़ लिए और डांटते हुए ठीक-ठीक बात बताने के लिए उसको बाध्य किया । तब छाया ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार संज्ञा का रहस्य प्रकट कर दिया और कहा- आपकी वास्तविक पत्नी संज्ञा अपने स्थान पर मुझे रखकर स्वयं बड़बा का रूप धारण करके कहीं चली गई है । यह सुनकर सूर्यदेव वहुत क्रोधित हुए । उन्होंने न केवल छाया को धमकाया बल्कि छाया और उसके पुत्र शनि का निरंतर तिरस्कार करना भी प्रारंभ कर दिया ।

पिता और भाइयों से शनि का विरोध

सूर्यदेव को पांच पक्षियों में छाया और बड़बा तो संज्ञा के ही दो पृथक रूप हैं, जबकि राधि तथा प्रभा उनको दो अन्य पलिया हैं । इन दो पत्नियों से भी सूर्यदेव को कई संताने हुई । इनमें शनि और यम का रंग काले की सीमा तक गहरा नीला था । शनि बचपन से ही दुबला-पाला और धोड़ा कुरूप भी था । यहीं कारण है कि एक बार सूर्यदेव ने शनि को अपना पुत्र मानने से भी इन्कार कर दिया था । शनि की
माता छाया का भेद खुल जाने के बाद सूर्यदेव बानि से लगभग घृणा ही करने लगे थे । घृणा का उत्तर सदैव घृणा ही होता है, इसीलिए शनिदेव के हदय में भी अपने पिता सूर्यदेव के प्रति न तो कोई आदर था और न ही अन्य भाई-बहनों के प्रति प्रेम की कोई भावना थी । निरंतर इस दुर्भावना का प्रभाव यह पका कि-सदैव असंतुष्ट बने रहना शनिदेव का स्वभाव हो गया । वे अपनी जरा भी अवहेलना करने वाले को दंड देने से नहीं जूझते थे । परंतु इस प्रकार के व्यक्तियों का सहज स्वभाव होता है कि वे अपने से
पार करने वालों से फूंग्र पार करते हैं । ठीक इसी प्रकार शनिदेव की धोडी-सौ भी उ-आराधना करने वाले व्यक्तियों पर शनिदेव अपनी कृपादृष्टि निरंतर बनाए रखते हैं । शनिदेव की कृपा से ष्टानि-आराधकों को सभी सुख तो मिलते ही रहते हैं, ३ अन्य ग्रह भी अपना दुष्प्रभाव उन पर नहीं डाल पाते । यही नहीं, यमराज शनिदेव के बड़े भाई हैं, अता अकाल मृत्यु और असाध्य रोगों के भय से भी शनि- आराधक
मुक्त रहता है । पृथ्वी अहित सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । इस बारे में शास्वी में वर्णित कथा इस प्रकार है-अपने पुत्रों के वयस्क हो जाने पर सूर्यदेव ने उन्हें एकच्चिएक ग्रह का स्वामित्व दे दिया । शनिदेव को उन्होंने शनि ग्रह का अधिपति नियुक्त किया । शनि ग्रह यद्यपि बृहस्पति के बाद सबसे विशाल और सुंदर या है, परंतु शनिदेव सभी ग्रहों पर अपना अधिकार चाहते थे । यही कारण है कि शनिदेव अन्य यहीं पर आक्रमण करके उन पर भी आधिपत्य जमाने की योजना बनाने लगे । सूर्यदेव ने शनिदेव को समझाने की बहुत चेष्टा की, परंतु शनिदेव नहीं माने । तब सूर्यदेव ने भगवान शिव से इस बात को शिकायत की और तब भगवान शिव को स्वयं यह कार्य करना पड़ा ।
शिवजी से युध्द एवं शिष्यत्व धारण
भगवान भास्कर द्वारा बारंबार समझाने पर भी शनिदेव नहीं याने । वे अन्य ग्रहों पर आक्रमण करने की योजना को मूर्तरूप देने के लिए अपने अनुचर तैयार करते रहे। सूर्यदेव जानते थे कि अन्य ग्रहों की अपेक्षा शनिदेव बहुत अधिक शक्तिशाली हैं और वे अपने सभी भाइयों के राज्य छीन लेगे । अत: अपने अन्य पुत्रों की रक्षा हेतु सूर्यदेव ने आशुतोष भगवान शिव से शनिदेव को रोकने की पालना की । भगवान शिव ने अपने प्रमुख गण नंदी और रोनापति बीरभद्र को अनेक गणों सहित षानिदेव को समझाने और न मानने यर दंड देने के लिए भेजा । शनिदेव ने उनसे युद्ध किया और सभी गणों के साथ वीरभद्र तथा नंदी तक को बन्दी बना लिया । यह देखकर शिवजी को अत्यधिक क्रोध आया । फिर स्वयं भगवान भोलेशक्रर ने युद्धभूमि में आकर अपने दिव्य विल से शनिदेव पर वार कर दिया । साक्षात् भगवान शिव के त्रिशूल के वार से शनिदेव अचेत हो गए और मृतक की भांति ग्याभूमि में गिर पड़े । पुत्र कितना ही उहंड और हठी हो, पिता फिर भी पिता होता है । सूर्यदेव शिवजी से प्रार्थना करने लगे कि शनि को उसकी उहंडता का दंड मिल चुका है, अत: उसे जीवित कर दे । भगवान शिव ने शनिदेव की सूच्छी हटाने के बाद अनेक उपदेश दिए। शनिदेव ने भगवान भोलेशकर को अपना गुरु और मार्गदर्शक मान लिया तथा भांति- बाति से शिवजी की स्तुति की । शिवजी ने शनिदेव को आदेश देया कि वे अपनी ज्ञाक्ति का व्यर्थ प्रदर्शन और अनुचित उपयोग न कों । संत- पुरुषों को कभी तंग न , परंतु जो दुष्ट पापी हैं, उन्हें उचित दंड अवश्य दें ।

Monday, 17 October 2016

मेष लग्न एवं धन योग

मेष लग्न में यदि मंगल लग्नगत हो तथा बृहस्पति एवं सूर्य से युक्त अथवा दृष्ट्र हो, तो धनवान होने में संदेह नहीं करना चाहिए । इसके साथ यदि द्धितीयेश शुक्र तथा एकादशेश शनि के मध्य विनिमय-परिवर्तन रोग निर्मित हो रहा हो, तो अत्यधिक धनी-मानी होने की सृष्टि होती और सूर्य का संयोग हो रहा हो, तो जातक कै अथोंदूगम की कोई सीमा नहीं होती । यदि शनि और शुक्र लाभ अथवा द्वितीय भाव में संयुक्त न होकर, लग्न में लग्नेश मंगल, पंचमेश सूर्य एवं नवमेश वृहस्पति से युक्त हों अथवा शनि, मंगल, शुक्र लग्नगत होकर बृहस्पति और सूर्य द्धारा दुष्ट हों, तो भी जातक अपार धनवान होता हे । इस स्थिति से भी अधिक धनवान, धनार्जन, धनसंचय, धन संवर्द्धन, धनोदूगम एवं धनोत्पत्ति तब होती है जब लग्न पर मंगल, वृहस्पति और सूर्य का पूर्ण एवं प्रबट्ठा प्रभाव हो, शनि और शुक्र पंचम अथवा नवम भावस्थ हों अथवा केंद्र स्थानों में एक दूसरे से किसी न किसी रूप में सम्बद्ध डों । उल्लेखनीय है किं नवांश की महत्वपूर्ण भूमिका की उपेक्षा नहीँ की जानी चाहिए । यदि मेष लग्न हो तथा मंगल स्वनवांशस्थ हो अथवा सिंह या धनु राशि का नवांश प्राप्त कर रहा हो, तो मंगल की, धन प्रदान करने की क्षमता में अवश्य अभिवृद्धि होती है । इसी प्रकार यदि नवमेश बृहस्पति की दृष्टि लग्नस्थ वृहस्पति पर पड़ रहीहो और वह स्वनबांश, उच्व नवांश या फिर मेष, सिहे या धनु नवांश मेँ स्थित हो, तो धनयोग की प्रबलता स्वत: सिद्ध होती है । लग्नस्थ मंगल पर सूर्य की दृष्टि हो अथवा सूर्य से मंगल संयुक्त हो, तो धनयोग क्री श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति होतीं है परन्तु सूर्य, यदि लग्नस्थ होकर मेष, सिंह व धनु नबांशरथ हो, तो प्रबल धनयोग की संसिद्धि, समस्त संदेहों को पराजित करती है उल्लेखनीय है कि सभी ग्रह स्थितियाँ एक जन्मांग में एक साथ निर्मित नहीँ हो सकती हैं अत: जिस जन्मग्रेग मेँ इन ग्रहयोगों की प्रबलता एवं अधिकता हो, वह व्यक्ति उतना ही समृद्ध, सम्पन्न, सम्पत्तिवान तवा धनवान होगा लग्न, त्रिकोण, लाभ भाव, धन भाव तथा थनकारक बृहस्पति का अध्ययन तो स्वाभाविक है परन्तु कतिपय भाव स्थितियों पर प्राय: पाठकों का ध्यान कैन्दित नहीं हो पाता हे और ये भाव भी अधोंपार्जन की दृष्टि ये पर्याप्त महत्वपूर्ण हैं । धन भाव एवं लाभ भाव से त्रिकोण भावस्थ ग्रहों की अवहेलनाहै । यदि शनि और उ, लाभ या धन भाव में संयुक्त रूप से स्थित हों तथा लग्न में मंगल, बृहस्पतिग्रहों की अवहेलना करना मिथ्या परिणाम का प्रतिपादन करता है षष्ठ तथा दशम भाव, धन भाव के त्रिकोण स्थान होते हैं । इसी प्रकार लाभ भाव के त्रिकोण स्थान, तृतीय तथा सप्तम मय होते हैं इसीलिए तृतीय, षष्ठ, दशम तथा एकादश भावस्थ ग्रहों द्वारा वसुमति योग की संरचना होती है जो धनवान होने की संपुष्टि करती है मेष लग्न से तृतीय भाव मिथुन तथा षष्ठ भाव कन्या होता है । यदि मिथुन या कन्या राशि में बुध स्थित हो, शुक्र अथवा शनि से संयुक्त हो, तो धनयोग का निर्माण होता है । इसी प्रकार मेष लग्न के जातक के जन्मग्रेग में मिथुन अथवा कन्या राशि में बुध के साय सूर्य अथवा अति भी शुभ फल प्रदान करते हैं इसी विधान का अनुकरण करते हुए यदि सप्तम अथवा यम भाव में शुक अथवा शनि संस्थित हो या उनके मध्य विनिमय दुष्टिसम्बन्ध स्थापित हो रहा हो, तो जातक धनवान होता है । यदि शनि और शुक्र के मध्य विनिमय नवांश परिवर्त्तन हो रहा हो, तो धनयोग की प्रबलता को आधार प्राप्त होता है मेष लग्न में पंचमस्थ सूर्य पर एकादशरथ शनि अथवा अति दुष्टिनिक्षेप बरि, तो अत्यन्त शुभ फल प्राप्त होता है । यदि एकादश भाव में बृहस्पति तथा शनि संयुक्त रूप से संस्थित हों तथापंचम भाव में सूर्य, सिंह राशिंगत ही, तो जातक के ज़न्मा३ग में धनयोग की सृष्टि होती है । इसी प्रकार से मेष लग्न में उत्पन्न होने वाले जातक के ज़न्मग्रेग के नवम भाव में बृहस्पति की स्थिति उत्वम भाग्य प्रदान करती है । वृहस्पति पर यदि सूर्य अथवा शुक्र हो, तो भी धन सम्बन्धी शुभ फलों में वृद्धि होती है । बृहस्पति, सूर्य और मंगल की नवम भाव मेँ युति की अत्यधिक प्रशंसा की जानी चाहिए । क्योंकि तीनों त्रिक्रोणों के अधिपति के नवम भाव में स्थित होने से उत्तम भाग्य तथा धनयोग की संरचना होती हे पाठकगण भ्रमित न हों, इसलिए इस बिषय का अधिक विस्तार न करते हुए इतना कहना ही उपयुक्त होगा कि नक्षत्रों के बलाबल तथा शुभाशुभ पर विचार करना भी अपेक्षित है । नवम भाव में धनु राशिगत वृहस्पति, यदि धनु, कर्क, सिंह अथवा मेष नवांश में स्थित हो, तो निश्चित रूप से वृहस्पति के शुभत्व में वृद्धि होगी तथा जातक अत्यधिक भाग्यवान व्यक्ति वो रूप में प्रतिष्ठित और प्रशंसित होगा । इसी प्रकार से नवम भावस्थ बृहस्पति यदि उत्तराषाढ़ नक्षत्र कं प्रथम पद में स्थित हो, तो उसके शुभत्व का विस्तार होगा । यदि बृहस्पति दसवर्ग बल मेँ अधिक से अधिक स्ववर्ग अथवा उच्व राशि कै वर्गो को प्राप्त करेगा, तो उत्तमोत्तम फल प्रदान करने मेँ सफल होगा । यदि दसवर्ग बल की गणना न की गई हो, तो षडवर्ग बल के आधार पर बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शनि और कैतु के बलाबल पर विचार करने के उपरान्त ही जातक कै धन सम्बन्धी विषयों कं भविष्य कथन की अभिव्यक्ति करनी चाहिऐ

future for you astrological news sitare hamare world famous astroguru pt...

future for you astrological news sitare hamare world famous astroguru pt...

Friday, 14 October 2016

प्रसिद्ध आर्किटेक्ट बनने के ज्योतिष्य योग

आज के शहरीकरण में हर व्यक्ति अपना एक स्वतंत्र रुप का घर चाहता है । घर बनवाने हेतु विभिन्न तरह के डिजाइन के अलग दिखने वाला घर आकेंटेक्ट के माध्यम से तैयार करवाता है। जिसके कारण ही शिक्षित व अनुभवी आर्किटेक्ट की मांग दिनों-दिन बढती जा रही है । समाज में धन और प्रतिष्ठा से जुड़कर इनकी अलग पहिचान हो रही है । इसी कारण आज का नवयुवक भी आकेंटेक्ट की पढाई कर इस व्यवसाय को अपनाना चाहता हैं । इस व्यवसाय से संबंधित शिक्षा व कार्य करने के लिए कुछ कारक ग्रह और ग्रहयोरा हमारे शोध में पहिचाने गये है । भूमि कारक शनि व मंगल एवं कलात्मक कारक शुक्र का कुंडली में वली होना आकेंटेक्ट शिक्षा के लिए कारक हैं। मंगल की राशि की लग्न या शनि की राशि की लग्न हो या शनि व मंराल में से किसी का भी लग्न पर प्रभाव हो और साथ ही शनि, संयत, शुक्र जैसे ग्रहों का पंचम, लग्न, दशम,धन,लाभ आदि में से किन्हें से संबंध हो रहा हो, तो भी जातक को आकेंटेक्ट की शिक्षा दिलाकर आकेंटेक्ट बनाता है ।यदि लग्नेश वाल का शुक्र के साथ युति या दुष्ट संबंध होब का संबंध केन्द्र या त्रिकोंण में भूमि कारक शनि से हो एवं बुध भी अच्छी स्थिति में हो और कर्मेश का संबंध भी यदि मंराल या शनि या शुक्र में से किसी भी रुप से बन रहा हो, तो जातक आकेंटेक्ट की पढाई कर आकेंटेक्ट का काम करता है । यदि लग्नेश के रुप में शनि पर गुरु की दृष्टि हो रही हो, भारयेष्टा के रुप में कारक शुक्र का संबंध यश मंगल के साथ होकर भाग्य या तान भाव में गुरू से दषदै ही रहा हो एवं बुध के साथ केन्द्र में वुधादित्व योग होकर शनि और " राहु जैसे यहीं से प्रभावित हो, तब भी जातक आकेंटेक्ट कार्य कर सकता है । यदि मंगल की राशि का लग्न होकर गुरू से दृष्ट हो, गुरु का शुक्र और शनि 1 जैसे ग्रहों पर दृष्टि प्रभाव हो व लग्नेश मंगल का भी शुक्र पर दृष्टि संबंध हो रहा हो और शुक्र की राशि में बुधाद्रित्य योग होकर रादूसे युति या दृष्टि द्वारा प्रभावित हो रहा हो, तो भी जातक आकेंटेक्ट के कार्य में दक्ष होता है । यदि मंगल लग्नेश होकर लग्न में राहू जैसे ग्रह से प्रभावित हो, शनि व शुक्र का मंगल की राशि मेष में युति या दृष्टि संबध हो रहा हो एंवं बुथादित्य योग केन्द्र या त्रिकोंण में हो, तो जातक भी आकेंटेक्ट प्रोफेज्ञान का कार्य करता है। यदि शनि लाभ या धन भाव में हो या धन भाव में बैठकर कर्मेश शुक्र व ताभभाव को प्रभावित को एवं भश्चयेश के रुप में मंगल पचंमेश गुरु व लग्नेश सूर्य के साथ होकर केन्द्र या त्रिकोंण में राहु से युति या दृष्ट द्वारा प्रभावित हो तो भी जातक भूति, भवन संबंधित कार्य का आर्केटेक्ट बनता है ।

उच्च प्रशासनिक अधिकारी बनने के ग्रह योग

जब तक किसी जातक की जन्म कुंडली में ग्रह योग उच्व प्रशासनिक कार्य करने हेतु न बनते हों, तब तक जातक अथक प्रयास करने के बावजूद भी उच्च प्रशासनिक अधिकारी बनकर राज्य पद प्राप्त नहीं कर पाता । यदि पत्रिका में ग्रहयोग उच्च राजकीय प्रशासनिक पद पर कार्य करते की ओर इंगित कर रहे हों, तो जातक को थेमृड़े प्रयास से ही राजकीय पद दिलाने वाले ग्रहों की महादशा व अंर्तरदरुग़ में अवश्य ही सफलता मिलती है । यदि इस बात का ज्ञान पूर्व से हो जावे, कि जातक को बसे राजकीय प्रशासनिक या आई.ए.एस. जैसे पद मिलने की संभावना है, तो जातक अपना सम्पूर्ण ध्यान उस ओर लगाकर सफलता प्राप्त कर सकता है । सतत् शोध द्वारा पाये गये कुछ ग्रहयोग, जो उच्च पदों पर अधीन आई.ए.एस. व अन्य राजकीय प्रशासनिक अधिकारियों की जन्म पत्रिकाओं में बहुधा पाया गया है, को यहीं दिया जा रहा हैं। इसके अतिरिक्त कुछ वरिष्ठ पदासीन जाई-एमस व अन्य उच्व प्रशासनिक अधिकरियों के कुंडलियों का विश्लेषण पाठकों के ज्ञानवर्धन हेतु दिया गया है, जिन्हें देखकर पाठकगण स्वंय विश्लेषण करते हुए अनुभव प्राप्त कर सकते हैं-
आई.ए.एस. जैसे प्रतिष्ठित सेवा में चयन हेतु कुंडली में तूर्य,गुरु,मंगल,रब्वहु एवं चंद्रमा जैसे यहीं का बलिष्ठ होना अनिवार्य पाया गया है । है .यदि भाव 11 का स्वामी भाव 9 में हो व भाव 10 के स्वामी से युति या दृष्ट-करता हो तो जातक आई.ए.एस. बन सकता है। 3 यदि पत्रिका में लग्नेश लग्न को देखे, साथ ही भानंयेश केन्द्र 1,4,7, 10 भाव या त्रिकोंण 5,9 भाव में हो, तो भी इस सर्विस का योग बनता है । ३ 4.भाव 2 का स्वामी यदि भाव 11 लाभ स्थान में होकर भाव 10 के स्वामी से दुष्ट हो अथवा भाव 10 के स्वामी के साथ हो, तो भी इस सर्विस में सफल होन ५ की संभावना होती है। 'रुआब 9 में उच्च का गुरु या शुक्र हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, सूर्य अच्छी स्थिति का हो, तो जातक इन्हें ग्रहों की दशा या अंर्तदशा में उच्च पदाधिकारी आईएएस आफीसर बनता है ।.भाव 10 का स्वामी यदि केन्द्र या त्रिकोंण में शुभ दृष्ट पर हो, तो भी जातक को उच्च राजकीय पद दिलाता है |यदि लग्नेश और दशमेश स्वग्रही या उच्च के होकर केन्द्र या त्रिकोण में हों और गुरु उच्च का या स्वग्रही हो, तो भी जातक की आईएएस अधिकारी बनने की प्रबल संभावना होती है । यदि तीन "या चार ग्रह उच्च या मूल त्रिकोंण में बलि हों, तो भी जातक को उच्च राजकीय पद मिलने की संभावना रहती है । .यदि केन्द्र में, विशेषकर लग्न में सूर्य और बुध हों और गुरु की शुभ दृष्टि इन पर हो, तो जातक प्रशासनिक सेवा में उच्च पद प्राप्त करता है। .यदि मेष लग्न हो क्या चंद्रमा, मंगल,गुरु तीनों अच्छे अंशों में हों, तो भी जातक को राजकीय सेवा में उच्च पद दिलाते हैं । यदि इन्हें पर कहीं सूर्य की दृष्टि हो या इससे युति हो रही हो, तो भी जातक उच्च राजकीय सेवा में जाकर काफी नाम कमाता है । प्रत्रिका में सूर्य यहि गुरू, राहू के साथ बलवान होकर केन्द्र या त्रिकोंण में की हों, तो भी उच्च प्रशासनिक पद दिलाते है । यदि पत्रिका में राहू उच्च या मूल त्रिफोंण का भाव 10 में हो और सूर्य व गुरु भी-केन्द्र या त्रिकोंण में युति होकर देते हों, तो भी उच्च प्रशासनिक राजकीय पद मिलने के योग बनाते हैं । यदि मेष लग्न हो और लग्न में मंगल व गुरू का किस भी रुप में संबंघं हो रहा हो, तब भी जातक उच्च राजनीतिक प्रद प्राप्त करता है । मेष लग्न में ही यदि भाव 11 में चंद्र और गुरु हों तथा उनपर शुभ यहा की दृष्टि हो,तो जातक उच्च शासनाघिकारी बन यश प्राप्त करता है । मेष लग्न से स्थित चंद्रमा पर यदि गुरु पूर्ण दृष्टि डालता हो, तो जातक राजकीय उच्च पद प्राप्त करता है | मेष लग्न की कुंडली में बुध भाव 4 में है गुरु भाव 7 में एवं शुक्र भाव 10 में हो, तो जातक उच्च राजकीय पद प्राप्त करता है । मेष लग्न में पाल अथवा सूर्य लग्न में हो और समस्त शुभ ग्रह यदि केन्द्र में हो, तो जातक शासन में जाते उच्च पद को प्राप्त करता है । मेष लया की कुडैली में लग्नेश मंगल लग्न में हो अथवा लग्न पर दृष्टि डालता हो, और भाग्येश गुरु केन्द्र या त्रिकोंण में हो, तो भी जातक राजकीय उच्चपद प्राप्त करता है । वृष लग्न की कुंडली में यदि शुक्र, गुरु, बुथ यदि केन्द्र में हों एवं मंगल भाव 10 में हो, तो जातक उच्च राजकीय पद प्राप्त करता है । वृष लया हो एवं मंगल-शुक्र युति कर भाव 5 या 9 में हों और योगकारक शनि लग्न से हो, तो जातक को राजकीय उच्च पद प्राप्त होता है। वृष लग्न हो एवं शुक्र भाव 6 में है मंगल भाव 12 में क्या गुरु भाव 3 या 4 में हो तो भी जातक को उब ज्ञासकीय पद प्राप्त होता है। वृष लग्न में गुरु हो, मिथुन में चंद्रमा, मकर में मंगल, सिह में शनि, कन्या में बुथ-सूर्य की युति एवं तुला में शुक्र हो, तो उच्च शासकीय पद देता है। मिथुन लग्न हो एवं भाव 10 में पंचमेश शुक्र, लग्नेश बुध हैं दशमेश गुरु एवं मंगल की की हो रही हो, तो जातक को राज्य में उच्च पद देता है । मिथुन लग्न के भाव 5 में शुक्र, भाव 11 में मेष का पाल, उच्च का गुरु भाव है में हो, तो जातक को अवश्य ही उच्च पद देता है । मियुन लग्न में ही यदि वुघ,गुरु,शुक्र,चंद्र की युति हो तथा उस पर किसी पाप ग्रह की छाया न पड़ती हो, तो जातक अवश्य ही शासन में उच्च पद प्राप्त कर प्रतिष्ठित होता है ।

मेष लग्न एवं धन योग

मेष लग्न में यदि मंगल लगनस्त हो तथा बृहस्पति एवं सूर्य से युक्त अथवा दृष्ट्र हो, तो धनवान होने में संदेह नहीं करना चाहिए । इसके साथ यदि द्धितीयेश शुक्र तथा एकादशेश शनि के मध्य विनिमय-परिवर्तन रोग निर्मित हो रहा हो, तो अत्यधिक धनी-मानी होने की सृष्टि होती और सूर्य का संयोग हो रहा हो, तो जातक कै अथोंदूगम की कोई सीमा नहीं होती । यदि शनि और शुक्र लाभ अथवा द्वितीय भाव में संयुक्त न होकर, लग्न में लग्नेश मंगल, पंचमेश सूर्य एवं नवमेश वृहस्पति से युक्त हों अथवा शनि, मंगल, शुक्र लग्नस्त होकर बृहस्पति और सूर्य द्धारा दुष्ट हों, तो भी जातक अपार धनवान होता हे । इस स्थिति से भी अधिक धनवान, धनार्जन, धनसंचय,धन संवर्द्धन, धनोदूगम एवं धनोत्पत्ति तब होती है जब लग्न पर मंगल, वृहस्पति और सूर्य का पूर्ण एवं प्रबट्ठा प्रभाव हो, शनि और शुक्र पंचम अथवा नवम भावस्थ हों अथवा कैन्द्र स्थानों में एकदूसरे से किसी न किसी रूप में संबंधों उल्लेखनीय है किं नवांश की महत्वपूर्ण भूमिका की उपेक्षा नहीँ की जानी चाहिए । यदि मेष लग्न हो तया मंगल स्वनवांशस्थ डो अथवा सिंह या
धनु राशि का नवांश प्राप्त कर रहा हो, तो मंगल की, धन प्रदान करने की क्षमता में अवश्य अभिवृद्धि होती है । इसी प्रकार यदि नवमेश बृहस्पति की दृष्टि लग्नस्थ वृहस्पति पर पड़ रही हो और वह स्वनबांश, उच्व नवांश या फिर मेष, सिहे या धनु नवांश मेँ स्थित हो, तो धनयोग की प्रबलता स्वत: सिद्ध होती है । लग्नस्थ मंगल पर सूर्य की दृष्टि हो अथवा सूर्य से मंगल संयुक्त हो, तो धनयोग क्री श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति होतीं है परन्तु सूर्य, यदि लग्नस्थ होकर मेष, सिंह व धनु नबांशरथ हो, तो प्रबल धनयोग की संसिद्धि, समस्त संदेहों को पराजित करती है उल्लेखनीय है कि सभी ग्रह स्थितियाँ एक जन्मग्रेग में एक साथ निर्मित नहीँ हो सकती हैं अत: जिस जन्मग्रेग मेँ इन ग्रहयोगों की प्रबलता एवं अधिकता हो, वह व्यक्ति उतना ही समृद्ध, सम्पन्न, सम्पत्तिवान तवा धनवान होगा लग्न, त्रिकोण, लाभ भाव, धन भाव तथा थनकारक बृहस्पति का अध्ययन तो स्वाभाविक है परन्तु कतिपय भाव स्थितियों पर प्राय: पाठकों का ध्यान कैन्दित नहीं हो पाता हे और ये भाव भी अधोंपार्जन की दृष्टि ये पर्याप्त महत्वपूर्ण हैं । धन भाव एवं लाभ भाव से त्रिकोण भावस्थ ग्रहों की अवहेलनाहै । यदि शनि और उ, लाभ या धन भाव में संयुक्त रूप से स्थित हों तथा लग्न में मंगल, वृहस्पतिग्रहों की अवहेलना करना मिथ्या परिणाम का प्रतिपादन करता है षष्ठ तथा दशम भाव, धन भाव के त्रिकोण स्थान होते हैं । इसी प्रकार लाभ भाव के त्रिकोण स्थान, तृतीय तथा सप्तम मय होते हैं इसीलिए तृतीय, षष्ठ, दशम तथा एकादश भावस्थ ग्रहों
द्वारा वसुमति योग की संरचना होती है जो धनवान होने की संपुष्टि करती है मेष लग्न से तृतीय भाव मिथुन तथा षष्ठ भाव कन्या होता है । यदि मिथुन या कन्या राशि में बुध स्थित हो, शुक्र अथवा शनि से संयुक्त हो, तो धनयोग का निर्माण होता है । इसी प्रकार मेष लग्न के जातक के जन्मग्रेग में मिथुन अथवा कन्या राशि में बुध के साय सूर्य अथवा अति भी शुभ फल प्रदान करते हैं इसी विधान का अनुकरण करते हुए यदि सप्तम अथवा यम भाव में शुक अथवा शनि संस्थित हो या उनके मध्य विनिमय दुष्टिसम्बन्ध स्थापित हो रहा हो, तो जातक धनवान होता है । यदि शनि और शुक्र के मध्य विनिमय नवांश परिवर्त्तन हो रहा हो, तो धनयोग की प्रबलता को आधार प्राप्त होता है मेष लग्न में पंचमस्थ सूर्य पर एकादशरथ शनि अथवा अति दुष्टिनिक्षेप बरि, तो अत्यन्त शुभ फल प्राप्त होता है । यदि एकादश भाव में बृहस्पति तथा शनि संयुक्त रूप से संस्थित हों तथापंचम भाव में सूर्य, सिंह राशिंगत ही, तो जातक के ज़न्मा३ग में धनयोग की सृष्टि होती है । इसी प्रकार से मेष लग्न में उत्पन्न होने वाले जातक के ज़न्मग्रेग के नवम भाव में बृहस्पति की स्थिति उत्वम भाग्य प्रदान करती है । वृहस्पति पर यदि सूर्य अथवा शुक्र हो, तो भी धन सम्बन्धी शुभ फलों में वृद्धि होती है । बृहस्पति, सूर्य और मंगल की नवम भाव मेँ युति की अत्यधिक प्रशंसा की जानी चाहिए । क्योंकि तीनों त्रिक्रोणों के अधिपति के नवम भाव में स्थित होने से उत्तम भाग्य तथा धनयोग की संरचना होती हे पाठकगण भ्रमित न हों, इसलिए इस बिषय का अधिक विस्तार न करते हुए इतना कहना ही उपयुक्त होगा कि नक्षत्रों के बलाबल तथा शुभाशुभ पर विचार करना भी अपेक्षित है । नवम भाव में धनु राशिगत वृहस्पति, यदि धनु, कर्क, सिंह अथवा मेष नवांश में स्थित हो, तो निश्चित रूप से बृहस्पति के शुभत्व में वृद्धि होगी तथा जातक अत्यधिक भाग्यवान व्यक्ति वो रूप में प्रतिष्ठित और प्रशंसित होगा । इसी प्रकार से नवम भावस्थ बृहस्पति यदि उत्तराषाढ़ नक्षत्र कं प्रथम पद में स्थित हो, तो उसके शुभत्व का विस्तार होगा । यदि बृहस्पति दसवर्ग बल मेँ अधिक से अधिक स्ववर्ग अथवा उच्व राशि कै वर्गो को प्राप्त करेगा, तो उत्तमोत्तम फल प्रदान करने मेँ सफल होगा । यदि दसवर्ग बल की गणना न की गई हो, तो षडवर्ग बल के आधार पर बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शनि और केतु के बलाबल पर विचार करने के उपरान्त ही जातक कै धन सम्बन्धी विषयों के भविष्य कथन की अभिव्यक्ति करनी चाहिऐ |

Thursday, 13 October 2016

सम्मोहन की ज्योतिष्य अवधारणा

मानव-मस्तिष्क की रचना बहुत जटिल है। शरीर की समस्त चेतनाओं का केंद्र मस्तिष्क है। यह अपनी गतिविधियों को तंत्रिका-तन्त्र के माध्यम से स्वचालित करता है। मनुष्य के ऐच्छिक एबं अनैच्छिक कार्यों का नियन्त्रण तंत्रिका-तंत्र ही करता है। इस तन्त्र के अभाव में शरीर के सभी अंग कार्य करना बंद कर देते है। शरीर में विभिन्न संवेदनाओं की उत्पत्ति, मांसपेशियों का स्वचालन, सोचना,विचारना, जटिल मानसिक क्रियाएं, इच्छाओं का स्त्रोत और उनकी पूर्ति की अनुभूति इसी तन्त्र के द्वारा होती है।
मस्तिष्क के ‘मेरुशीर्ष’ या ‘सुंषुम्ना शीर्ष’ से निकलने वाली 31 जोड़ी नसें शरीर के समस्त हिस्सों तक फैली रहती हैं। जिस प्रकार बिजली या टेलीफोन के तार पावर हाउस से निकलकर घर-घर फैले रहते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क से निकलकर 31 जोड़ी प्रधान नाडिय़ा शरीर में सर्वत्र फैली रहती हैं। इनका पावरहाउस या ऊर्जा-स्त्रोत मस्तिष्क होता है। तंत्रिका-तंत्र में तीन प्रकार की नाडिय़ाँ होती हैं। उनके कार्य और प्रकृति को देखते हुए तंत्रिका-तंत्र को तीन भागों में बाटाजा सकता है-
1. परिधीय तंत्रिका-तंत्र:
इस तंत्र मे दो प्रकार की नाडिय़ां होती हैं-
(अ) ज्ञानवाही
(ब) गतिवाही
ज्ञानवाही नाडिय़ां बाहर की क्रियाओं से संवेदना ग्रहण करके मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं और उन गृहित संवेदनाओं का विश्लेषण करके मस्तिष्क गतिवाहीनाडिय़ों द्वारा स्थिति से निपटने या प्रतिक्रिया के ढंग के बारे में सम्बन्धित अंग तक सन्देश भेजता है।
उदाहरण के लिए जब किसी व्यक्ति के पैर में कांटा चुभ जाता है, तो ज्ञानवाही नाडिय़ां मस्तिष्क तक इस घटना का सन्देश ले जाती हैं। फिर मस्तिष्क गतिवाही नाडिय़ां के माध्यम से पैर को उस जगह से तुरन्त हटाने का निर्देश देता है। लेकिन यहीं पर यह जान लेना आवश्यक है कि जब उत्तेजनाएं गतिवाही नाडिय़ों से मस्तिष्क की ओर न जाकर सीधी शारीरिक प्रतिक्रियाओं में परिणीत हो जाती हैं, तो क्रियाओं का स्वचालन सीधे मेरुदण्ड से होता है। ऐसी क्रियाओं को सहज क्रियाएं कहते हैं।
2. केन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र:
केन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र दो भागों में विभक्त रहता है-
(अ) मेरुदण्ड
(ब) मस्तिष्क
मेरुदण्ड सुषुम्ना शीर्ष का नीचे का हिस्सा है, जो रीढ़ की हड्डियों में सुरक्षित होता हुआ नीचे तक जाता है। इसमें से 31 जोड़ी ज्ञानवाही तथा गतिवाही नाडिय़ां दायीं तथा बांयी ओर निकलती हैं। ज्ञानवाही तथा गतिवाही नाडिय़ां मेरुदण्ड के आगे-पीछे के दोनों भागों से निकलती हैं। नीचे के भागों से स्नायु-तन्तु निकलते हैं, जिनका कार्य गति प्रदान करना होता है। चालक स्नायु ऊपर के भाग से निकलते है। ज्ञानवाही स्नायु का कार्य अनुभव-वेग को मेरुदण्ड तक ले जाना और गतिवाही स्नायुओं का कार्य उस अनुभव-वेग को मसिंपेशियों तक ले जाकर उनसे सहज कार्य कराना होता है।
मस्तिष्क के चार भाग है:
1. बड़ा मस्तिष्क
2. मध्यम मस्तिष्क
3. सेतु
4. मेरुदण्ड शीर्ष (लघु मस्तिष्क)।
बड़ा मस्तिष्क, मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग है, जो दो गोलार्धों (दायें-बायें) से मिलकर बना होता है। बड़ा मस्तिष्क सिंताओं द्वारा अनेक भागों में विभक्त रहता है। बड़ा मस्तिष्क शरीर की समस्त क्रियाओं को सांचालित करता है। यदि किसी आघात या दुर्घटना के कारण मस्तिष्क व मेरुदण्ड का सम्बन्ध टूट जाता है, तो शरीर की समस्त क्रियाएं तुरन्त बन्द हो जाती हैं। इस बड़े मस्तिष्क का प्रधान कार्य ज्ञानवाही तन्तुओं से ज्ञान प्राप्त करना तथा गतिवाही तन्तुओं से ज्ञान को क्रियारूप देना है । बृहत् मस्तिष्क में अंग-विशेष के ज्ञान और संचालन के लिए अलग-अलग क्षेत्र निर्धारित हैं। मस्तिष्क के इन विशिष्ट क्षेत्रों के द्वारा उस अंग विशेष की समस्त चेष्टाएं व गतिविधियां संचालित होती हैं। बृहत् मस्तिष्क में ही विभिन्न संवेगों का जन्म होता है तथा समस्त क्रियाएं व चेष्टाएं नियंत्रित होती है।
मध्य मस्तिष्क बृहत् मस्तिष्क के ठीक नीचे स्थित रहता है। यह शारीरिक गतिविधियों को समता प्रदान करता है तथा मसिपेशियों के कार्यं को नियंत्रित करता है। यदि यह कार्यं करना बन्द कर दे, तो शारीरिक गति असन्तुलित हो जाती है।
सेतु लधु मस्तिष्क के दोनों भागों के बीच श्वेत स्नायु सूत्रों की पट्टी के रूप में विद्यमान रहता है। यह सुषुम्ना शीर्ष का सम्बन्थ बड़े मस्तिष्क से जोड़ता है। बड़े मस्तिष्क को जाने वाले सभी स्नायु यहीं से होकर जाते हैं। इसका प्रमुख कार्य भिन्न-भिन्न भागों से सम्बन्ध स्थापित करना है।
मेरुशीर्ष या सुषुम्ना शीर्ष स्नायु सुत्रों द्वारा बना हुआ वह गड्ढा हैं, जो बृहत्मस्तिष्क के नीचे स्थित रहता है। इसके पीछे लधु मस्तिष्क होता है। सभी स्नायुसूत्र, जो सुषुम्ना से होकर बृहत् या लघु मस्तिष्क को जाते हैं, मेरुदण्ड शीर्ष से होकर ही जाते हैं। इसके मध्य में रक्त-परिभ्रमण, श्वसन एवं निगलने आदि क्रियाओं के केन्द्र विद्यमान हैं। इस प्रकार यह मस्तिष्क का महत्वपूर्ण भाग है, जिसमें आघात से मनुष्य की तुरन्त मृत्यु को जाती है। यदि इस पर हलका आघात भी लग जाये, तो मनुष्य तुरन्त चेतनाशून्य (बेहोश) हो जाता है।
3. स्वतन्त्र तंत्रिका:
तंत्र-मेरूदण्ड से सीधा तथा बायीं ओर गर्दन तक फैला हुआ है। इसका आकार डोरियों के समान होता है। यह थूक, मूत्राशय आदि क्रियाओं को नियंत्रित करता है। हदय की धडक़न, नाडिय़ों की गति व फेफड़ों की श्वास-प्रश्वाश प्रक्रियाएं भी स्वतन्त्र तंत्रिका-तन्त्र द्वारा ही नियंत्रित होती हैं। इस तन्त्र में दो प्रकार की नाडिय़ां काम करती हैं- अनुकम्पी या सहायनी और परानकम्पी या अतिसहायनी। दोनों प्रकार की नाडिय़ां एक-दूसरे के विपरीत कार्य करती हैं। जब पहली सक्रिय होती है, तो दूसरी निक्रिय होने लगती है। इन नाडिय़ों में रस उत्पन्न होने से उत्तेजना उत्पन्न होती है तथा शरीर में शक्ति का संचार होने लगता है। जिन कार्यों को हम सामान्य अवस्था में करने में असमर्थ रहते हैं, उन्हें उत्तेजना की अवस्था में सहज ही कर लेते हैं।
इस प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क और तंत्रिका-तंत्र की क्रियाविधि अत्यन्त सुनियोजित व सुव्यवस्थित है।
जब किसी व्यक्ति को सम्मोहित किया जाता है, तो सम्मोहनकर्ता उसे किसी चमकीली वस्तु, काले बिन्दु या शक्ति-चक्र में एकटक देखने के लिए कहता है। वह व्यक्ति जब लक्ष्य को बिना पलक झपकाये कुछ देर तक देखता रहता है, तो निम्नलिखित क्रियाएँ घटित होती हैं-
1. ज्ञानवाही व गतिवाही नाडिय़ों में दबाव उत्पन्न होने लगता है।
2. मस्तिष्क के दृश्य क्षेत्र में दबाव उत्पन्न होने से मस्तिष्क थकान अनुभव करने लगता है।
3. मस्तिष्क का शेष भाग विचार शून्य रहता है।
4. हदय की गति मन्द पड़ जाती है।
5 सांस धीमी गति से चलने लगती है।
6. उस व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर मनोवैज्ञानिक दबाव पडऩे लगता है। इसीलिए उपर्युक्त परिस्थितियों में जब सम्मोहनकर्ता अपने माध्यम को पलके बन्द करने व सो जाने का निर्देश देता है, तो वह निर्देशों को सहजता से स्वीकार कर लेता है।
यह परिस्थिति अकस्मात् दो मिनट के अन्दर घटित होती है। इसलिए चेतन मन धीरे-धीरे सम्मोहन की कृत्रिम नींद की अवस्था में चला जाता है, किन्तु शारीरिक क्रियाएं फिर भी सामान्य व सक्रिय बनी रहती हैं। ऐसी परिस्थिति में अवचेतन मन, चेतन मन का स्थान ले लेता है। चेतन मन के निष्क्रिय हो जाने पर अवचेतन मन सक्रिय हो उठता है। अवचेतन मन की सक्रियता की इस अवस्था को ही सम्मोहन कहा जाता है।
इस सन्दर्भ में यहा यह बता देना आवश्यक है कि चेतन मन शरीर के किसी अंग या भाग से आने वाली ज्ञानवाही संवेदनाओं का विश्लेषण करता है और तत्पश्चात् गतिवाही नाडिय़ों द्वारा कार्यनीति का निर्देश देता है, जिससे अंगों में किसी कार्य की प्रतिक्रिया का प्रभाव तुरन्त दिखाई देता है, किन्तु अवचेतन मन ज्ञानवाही तन्तुओं से प्राप्त संवेदनाओं अथवा संकेतों का विश्लेषण स्वयं नहींं कर सकता, इसलिए इस कार्य को स्वयं सम्मोहनकर्ता सम्पादित करता है। अवचेतन मन की विशेषता यह है कि वह सम्मोहन कर्ता के प्रति पूर्णत: समर्पित और दृढ़ आस्थावान होता है। सम्मोहनकर्ता उसे जैसी आज्ञा देता है, वैसा ही सब कुछ उसे सत्य और साकार दिखाई देता है।
अवचेतन मन के सक्रिय हो जाने से परिधीय तंत्रिका-तन्त्र और केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र को ज्ञानवाही नाडिय़ों द्वारा प्राप्त होने वाले संवेदना-संकेतों का विश्लेषण कार्य मस्तिष्क के भीतर नहींं होता; क्योंकि यह कार्य चेतन मन का है तथा इस अवस्था में चेतन मन निष्क्रिय रहता है और अवचेतन जागृत रहता है। इसलिए तथ्यों के विश्लेषण व तर्क-वितर्क की प्रक्रिया पूर्णत: बन्द पड़ी रहती हैं। यही कारण है कि सम्मोहनकर्ता जैसी भावना देता है, अवचेतन को वैसा ही सत्य दिखाई देता है।
अवचेतन मन की सक्रियता के करण गतिवाही नाडिय़ां सम्मोहनकर्ता से प्राप्त निर्देशों का पालन करने के लिए विवश होती हैं। इसीलिए जब सम्मोहनकर्ता सम्मोहित व्यक्ति को कहता है कि, तुम्हारा हाथ संवेदना शून्य हो गया है, तो गतिवाही नाडिय़ां उसे संवेदना शून्य बना देती हैं। साथ ही ज्ञानवाही नाडिय़ों से प्राप्त संकेतों के विश्लेषण करने और ग्रहण करने में अवचेतन मन अक्षम हो जाता है, जिससे उस व्यक्ति के हाथों में सचमुच संवेदना शून्यता की स्थिति आ जाती है। यह सब अवचेतन के तर्क-वितर्कहित होने के कारण होता है।
यदि कोई व्यक्ति दर्दनिवारक दवाइयां खा लेता है, तो उसे अपने शरीर में होनेवाली पीड़ा का आभास नहींं होता। वास्तव में पीड़ाहर दवाइयां अंगों की पीड़ा को समाप्त नहींं करती, अपितु मस्तिष्क तक संवेदना पहुंचाने वाली ज्ञानवाही नाडिय़ों को निष्क्रिय बना देती है, जिससे मस्तिष्क तक पीड़ा को संवेदनाएं नहींं पहुंच पाती और रोगी को पीड़ा से छुटकारा मिल पाता है। ठीक यही प्रक्रिया सम्मोहन की अवस्था में भी होती है। सम्मोहन की अवस्था में पीड़ाहर दवाइयों का काम सम्मोहनकर्ता द्वारा दी गयी भावनाएं करती हैं।
दु:ख, सुख, पीड़ा, बेचैनी, सर्दी-गर्मी, पेशीय क्रियाएं, स्वाद, दृष्टि, गन्ध आदि का कारण हमारा मस्तिष्क है, इसलिए सम्मोहन की अवस्था में इन सभी अनुभूतियों की प्रतीति अथवा भ्रम की स्थिति उत्पन्न की जा सकती है।
परिधीय तंत्रिका-तंत्र पर सम्मोहन का प्रभाव:
परिधीय तंत्रिका-तंत्र का कार्य स्थानीय संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाना तथा मस्तिष्क के निर्देशों के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करना है। यदि किसी व्यक्ति के पैर में सुई चुभाई जाये, तो परिधीय तंत्रिका-तंत्र की ज्ञानवाही नाडिय़ां मस्तिष्क तक यह सन्देश पहुंचाती हैं कि उस स्थान पर सुंईं चुभायी गयी है। प्राप्त संकेतों का तुरन्त अध्ययन व विश्लेषण करके, मस्तिष्क गतिवाही नाडिय़ों के माध्यम से यह निर्देश पेशियों को देगा कि उस जगह से पैर को तुरन्त हटाया जाये और पैर तुरन्त यहीं से हट जायेगा। इस सम्मूर्ण क्रिया का सम्पादन पलक झपकते हो जायेगा।
सम्पोहन के प्रभाव से चेतन मन निष्क्रिय हो जाता है। इसलिए परिधीय तंत्रिका-तन्त्र की क्रियाएं भी प्रभावित हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में अवचेतन मस्तिष्क में जो भावनाएं विद्यमान रहती हैं, यहीं परिधीय तंत्रिकाओं को चिंतित करती हैं, अर्थात् यदि सम्मोहित व्यक्ति को यह कहा जाये कि सुई चुभने से उसे दर्द नहींं होगा, तो उसे दर्द नहींं होता। लेकिन यदि उसे यह भावना दी जाये कि उसके पैर में सुई चुभ गयी है, तो उसे सुई चुभने का दर्द महसूस होगा, क्योंकि अवचेतन में सुई चुभने की अनुभूति साकार हो जायेगी तथा गतिवाही नाडिय़ां उस दिशा में सक्रिय हो उठेगी। यहीं कारण है कि सम्मोहन की अवस्था में दर्द की अनुभूति नहींं होती।
केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र पर सम्मोहन का प्रभाव:
केन्द्रीय पेशियों का संचालन, पलक झपकना, स्वाद, गन्ध एवं रंगों की अनुभूति, शरीर एवं अंगों का संचालन, मनोवेग से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं का संचालन, शरीर में विद्यमान संवेदना की अनुभूति आदि करता है। केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र के निष्क्रिय हो जाने से सम्पूर्ण शरीर चेतनाशून्य हो जाता है।
सम्मोहन की अवस्था में केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र की सम्पूर्ण क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं अवचेतन मन के नियन्त्रण में आ जाती हैं । इसलिए संवेदनाओं की अनुभूति, मांसपेशियों की गति-संचालन, स्वाद, गन्ध, रंगों की अनुभूति व मनोवेग का प्रभाव आदि सभी कुछ अवचेतन को दी गयी भावनाओं व उसकी अनुभूतियों पर निर्भर करता है। यहीं कारण है कि इन सभी अनुभूतियों व मनोवेगों के विषय में सम्मोहित व्यक्ति को भ्रमित किया जा सकता है और सम्मोहित व्यक्ति भ्रम को ही सत्य स्वीकार करके अपनी चेष्टाएं करेगा, क्योंकि उसके अवचेतन मन में तर्क-वितर्क या विश्लेषण की क्षमता ही नहींं रह जाती। जब सम्मोहित व्यक्ति को कहा जाता है कि उसके हाथ-पैर की पेशियां अकड़ गयी हैं तो उसका अवचेतन मन इस भावना को स्वीकार कर लेता है और गतिवाही नाडिया अपने संकेतों द्वारा मसिंपेशियों में अकडऩ उत्पन्न कर देती हैं। इसी प्रकार स्वाद, गन्ध, तापमान व रंग आदि का भ्रम उत्पन्न होने से शरीर-क्रिया प्रभावित होती है ।
स्वचालित तंत्रिका-तन्त्र परसम्मोहन का प्रभाव:
स्वचालित तंत्रिका-तन्त्र शरीर में विद्यमान अनैच्छिक पेशियों, जैसे मूत्राशय, हदय एवं फेफड़ों की पेशियां व अन्त: स्त्रावी ग्रन्थियां, आँतों की गति आदि से सम्बद्ध होती हैं। सम्मोहन की अवस्था में शरीर के तापमान, नाड़ी को गति, हृदय की धडक़न एवं सांस लेने की गति-आवृति को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए अवचेतन मन को ऐसी अनुभूति करनी पड़ती हैं कि उसके फेफड़ों या ह्रदय की धडक़न धीरे-धीरे बढ़ रही हैं, जब यह कहा जायेगा कि धडक़न बढ़ रही हैं, तो आवचेतन मन धडक़न बढऩे की अनुभूति करेगा, जिससे उस अंग विशेष की नाडिय़ा में रस उत्पन्न होगा। नाडिय़ों मे उत्पन्न रस उत्तेजना की वृद्धि या शमन करके स्थानीय क्रियाओं मे असाधारण स्थिति पैदा कर देता हैं, जिसके फलस्वरूप शरीर-क्रिया प्रभावीत होती हैं। इस प्रकार स्वचालित तंत्रिका-तंत्र पर सम्मोहन का सीधा और कारगर प्रभाव पड़ता है।

कुंडली में लक्ष्मी योग

ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि में धन वैभव और सुख के लिए कुण्डली में मौजूद धनदायक योग या लक्ष्मी योग काफी महत्वपूर्ण होते हैं. जन्म कुण्डली एवं चंद्र कुंडली में विशेष धन योग तब बनते हैं जब जन्म व चंद्र कुंडली में यदि द्वितीय भाव का स्वामी एकादश भाव में और एकादशेश दूसरे भाव में स्थित हो अथवा द्वितीयेश एवं एकादशेश एक साथ व नवमेश द्वारा दृष्ट हो तो व्यक्ति धनवान होता है. ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि में धन वैभव और सुख के लिए कुण्डली में मौजूद धनदायक योग या लक्ष्मी योग काफी महत्वपूर्ण होते हैं. जन्म कुण्डली एवं चंद्र कुंडली में विशेष धन योग तब बनते हैं जब जन्म व चंद्र कुंडली में यदि द्वितीय भाव का स्वामी एकादश भाव में और एकादशेश दूसरे भाव में स्थित हो अथवा द्वितीयेश एवं एकादशेश एक साथ व नवमेश द्वारा दृष्ट हो तो व्यक्ति धनवान होता है.
शुक्र की द्वितीय भाव में स्थिति को धन लाभ के लिए बहुत महत्व दिया गया है, यदि शुक्र द्वितीय भाव में हो और गुरु सातवें भाव, चतुर्थेश चौथे भाव में स्थित हो तो व्यक्ति राजा के समान जीवन जीने वाला होता है. ऐसे योग में साधारण परिवार में जन्म लेकर भी जातक अत्यधिक संपति का मालिक बनता है. सामान्य व्यक्ति भी इन योगों के रहते उच्च स्थिति प्राप्त कर सकता है.
मेष लग्न के लिए धन योग:
लग्नेश मंगल कर्मेश शनि और भाग्येश गुरु पंचम भाव में हो तो धन योग बनता है. इसी प्रकार यदि सूर्य पंचम भाव में हो और गुरु चंद्र एकादश भाव में हों तो भी धन योग बनता है और जातक अच्छी धन संपत्ति पाता है.
वृष लग्न के लिए धन योग:
मिथुन में शुक्र, मीन में बुध तथा गुरु केन्द्र में हो तो अचानक धन लाभ मिलता है. इसी प्रकार यदि शनि और बुध दोनों दूसरे भाव में मिथुन राशि में हों तो खूब सारी धन संपदा प्राप्त होती है.
मिथुन लग्न के लिए धन योग:
नवम भाव में बुध और शनि की युति अच्छा धन योग बनाती है. यदि चंद्रमा उच्च का हो तो पैतृक संपत्ति से धन लाभ प्राप्त होता है.
कर्क लग्न के लिए धन योग:
यदि कुण्डली में शुक्र दूसरे और बारहवें भाव में हो तो जातक धनवान बनता है. अगर गुरू शत्रु भाव में स्थित हो और केतु के साथ युति में हो तो जातक भरपूर धन और एश्वर्य प्राप्त करता है.
सिंह लग्न के लिए धन योग:
शुक्र चंद्रमा के साथ नवांश कुण्डली में बली अवस्था में हो तो व्यक्ति व्यापार एवं व्यवसाय द्वारा खूब धन कमाता है. यदि शुक्र बली होकर मंगल के साथ चौथे भाव में स्थित हो तो जातक को धन लाभ का सुख प्राप्त होता है.
कन्या लग्न के लिए धन योग:
शुक्र और केतु दूसरे भाव में हों तो अचानक धन लाभ के योग बनते हैं. यदि कुण्डली में चंद्रमा कर्म भाव में हो तथा बुध लग्न में हो व शुक्र दूसरे भाव स्थित हो तो जातक अच्छी संपत्ति संपन्न बनता है.
तुला लग्न के लिए धन योग:
कुण्डली में दूसरे भाव में शुक्र और केतु हों तो जातक को खूब धन संपत्ति प्राप्त होती है. अगर मंगल, शुक्र, शनि और राहु बारहवें भाव में होंतो व्यक्ति को अतुल्य धन मिलता है.
वृश्चिक लग्न के लिए धन योग:
कुण्डली में बुध और गुरू पांचवें भाव में स्थित हो तथा चंद्रमा एकादश भाव में हो तो व्यक्ति करोड़पति बनता है. यदि चंद्रमा, गुरू और केतु दसवें स्थान में होंतो जातक धनवान व भाग्यवान बनता है.
धनु लग्न के लिए धन योग:
कुण्डली में चंद्रमा आठवें भाव में स्थित हो और सूर्य, शुक्र तथा शनि कर्क राशि में स्थित हों तो जातक को बहुत सारी संपत्ति प्राप्त होती है. यदि गुरू बुध लग्न मेषों तथा सूर्य व शुक्र दुसरे भाव में तथा मंगल और राहु छठे भाव मे हों तो अच्छा धन लाभ प्राप्त होता है.
मकर लग्न के लिए धन योग:
जातक की कुण्डली में चंद्रमा और मंगल एक साथ केन्द्र के भावों में हो या त्रिकोण भाव में स्थित हों तो जातक धनी बनता है. धनेश तुला राशि में और मंगल उच्च का स्थित हो व्यक्ति करोड़पति बनता है.
कुंभ लग्न के लिए धन योग:
कर्म भाव अर्थात दसवें भाव में चंद्र और शनि की युति व्यक्ति को धनवान बनाती है. यदि शनि लग्न में हो और मंगल छठे भाव में हो तो जातक एश्वर्य से युक्त होता है.
मीन लग्न के लिए धन योग:
कुण्डली के दूसरे भाव में चंद्रमा और पांचवें भाव में मंगल हो तो अच्छे धन लाभ का योग होता है. यदि गुरु छठे भाव में शुक्र आठवें भाव में शनि बारहवें भाव और चंद्रमा एकादशेश हो तो जातक कुबेर के समान धन पाता है.
कुछ अन्य धन योग:
यह तो बात हुई लग्न द्वारा धन लाभ के योगों की अब हम कुछ अन्य धन योगों के विषय में चर्चा करेंगे जो इस प्रकार बनते हैं.
* मेष या कर्क राशि में स्थित बुध व्यक्ति को धनवान बनाता है, जब गुरु नवे और ग्यारहवें और सूर्य पांचवे भाव में बैठा हो तब व्यक्ति धनवान होता है.
* जब चंद्रमा और गुरु या चंद्रमा और शुक्र पांचवे भाव में बैठ जाए तो व्यक्ति को अमीर बनाता है.
* सूर्य का छठे और ग्यारहवें भाव में होना व्यक्ति को अपार धन दिलाता है.
* यदि सातवें भाव में मंगल या शनि बैठे हों और ग्यारहवें भाव में शनि या मंगल या राहू बैठा हो तो व्यक्ति धनवान बनता है.
* मंगल चौथे भाव, सूर्य पांचवे भाव में और गुरु ग्यारहवे या पांचवे भाव में होने पर व्यक्ति को पैतृक संपत्ति से लाभ मिलता है.

पेट के रोग और ज्योतिष्य उपाय

पेट के रोग को ज्योतिष में देखा जाये तो चतुर्थ, पंचम एवं दशम भाव से देखा जाता है। इन स्थानों के स्वामीग्रह यदि छठे, आठवे या बारहवें अथवा अपने घर से छठे, आठवे, बारहवे स्थान में हो जाये, अथवा क्रूर ग्रहों से आक्रांत हो तो पेट के रोग देते हैं। साथ ही अगर लग्र, तीसरे, पंचम, सप्तम, दशम स्थानों में शनि अथवा राहु हों, तब भी पेट के रोगी हो सकते हैं। अत: यदि चिकत्सकीय ईलाज से लाभ न प्राप्त हो रहा हो तो उक्त ग्रहों की शांति करानी एवं मंत्र जाप करना एवं उक्त ग्रहों की सामग्री दान करना चाहिए।
पेट के रोग कई सारे और रोगों का कारण बन सकते हैं। क्या होते हैं पेट के रोगों के कारण और क्या है इनका इलाज? कुछ सरल उपाय जिन्हें अपना कर हम स्वस्थ हो सकते हैं। पेट के कुछ आम रोग हैं एसिडिटी, जी मिचलाना और अल्सर। जानते हैं इनके कारणों, लक्षण, ईलाज और बचने के उपायों के बारे में। साथ ही यह भी जानते हैं कि कैसे योग अपना कर और अपनी भावनाओं में बदलाव लाकर हम इन रोगों से बच सकते हैं।
एसिडिटी:
हमारे पेट में बनने वाला एसिड या अम्ल उस भोजन को पचाने का काम करता है, जो हम खाते हैं, लेकिन कई बार पचाने के लिए पेट में पर्याप्त भोजन ही नहीं होता या फिर एसिड ही आवश्यक मात्रा से ज्यादा बन जाता है। ऐसे में एसिडिटी या अम्लता की समस्या हो जाती है। इसे आमतौर पर दिल की चुभन या हार्टबर्न भी कहा जाता है। वसायुक्त और मसालेदार भोजन का सेवन आमतौर पर एसिडिटी की प्रमुख वजह है। इस तरह का भोजन पचाने में मुश्किल होता है और एसिड पैदा करने वाली कोशिकाओं को आवश्यकता से अधिक एसिड बनाने के लिए उत्तेजित करता है।
एसिडिटी के आम कारण:
* लगातार बाहर का भोजन करना।
* भोजन करना भूल जाना।
* अनियमित तरीके से भोजन करना।
* मसालेदार खाने का ज्यादा सेवन करना।
* विशेषज्ञों का मानना है कि तनाव भी एसिडिटी का एक कारण है।
* काम का अत्यधिक दबाव या पारिवारिक तनाव लंबे समय तक बना रहे तो शारीरिक तंत्र प्रतिकूल तरीके से काम करने लगता है और पेट में एसिड की मात्रा आवश्यकता से अधिक बनने लगती है।
एसिडिटी से बचने के लिए क्या करें:
पानी: सुबह उठने के फौरन बाद पानी पिएं। रात भर में पेट में बने आवश्यकता से अधिक एसिड और दूसरी गैर जरूरी और हानिकारक चीजों को इस पानी के जरिए शरीर से बाहर निकाला जा सकता है।
फल: केला, तरबूज, पपीता और खीरा को रोजाना के भोजन में शामिल करें। तरबूज का रस भी एसिडिटी के इलाज में बड़ा कारगर है।
नारियल पानी: अगर किसी को एसिडिटी की शिकायत है, तो नारियल पानी पीने से काफी आराम मिलता है। अदरक: खाने में अदरक का प्रयोग करने से पाचन क्रिया बेहतर होती है और इससे जलन को रोका जा सकता है।
दूध: भोजन के अम्लीय प्रभाव को दूध पूरी तरह निष्प्रभावी कर देता है और शरीर को आराम देता है। एसिडिटी के इलाज के तौर पर दूध लेने से पहले डॉक्टर से सलाह ले लेनी चाहिए, क्योंकि कुछ लोगों में दूध एसिडिटी को बढ़ा भी सकता है।
सब्जियां: बींस, सेम, कद्दू, बंदगोभी और गाजर का सेवन करने से एसिडिटी रोकने में मदद मिलती है। लौंग: एक लौंग अगर कुछ देर के लिए मुंह में रख ली जाए तो इससे एसिडिटी में राहत मिलती है। लौंग का रस मुंह की लार के साथ मिलकर जब पेट में पहुंचता है, तो इससे काफी आराम मिलता है।
कार्बोहाइडे्रट: कार्बोहाइडे्रट से भरपूर भोजन जैसे चावल एसिडिटी रोकने में मददगार है, क्योंकि ऐसे भोजन की वजह से पेट में एसिड की कम मात्रा बनती है।
समय से भोजन: रात का भोजन सोने से दो से तीन घंटे पहले अवश्य कर लेना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि भोजन पूरी तरह से पच गया है। इससे आपका स्वास्थ्य बेहतर होगा।
व्यायाम: नियमित व्यायाम और ध्यान की क्रियाएं पेट, पाचन तंत्र और तंत्रिका तंत्र का संतुलन बनाए रखती हैं।
एसिडिटी दूर रखने के लिए किन चीजों से बचें:
* तला भुना, वसायुक्त भोजन, अत्यधिक चॉकलेट और जंक पदार्थों से परहेज करें।
* शरीर का वजन नियंत्रण में रखने से एसिडिटी की समस्या कम होती है।
* ज्यादा धूम्रपान और किसी भी तरह की मदिरा का सेवन एसिडिटी बढ़ाता है, इसलिए इनसे परहेज करें।
* सोडा आधारित शीतल पेय व कैफीन आदि का सेवन न करें। इसकी बजाय हर्बल टी का प्रयोग करना बेहतर है। घर का बना खाना ही खाएं। जितना हो सके, बाहर के खाने से बचें।
* दो बार के खाने में ज्यादा अंतराल रखने से भी एसिडिटी हो सकती है।
* कम मात्रा में थोड़े-थोड़े समय अंतराल पर खाना खाते रहें।
* अचार, मसालेदार चटनी और सिरके का प्रयोग भी न करें।
ईलाज:
शरीर के अंदर उत्सर्जित हुई एसिड की ज्यादा मात्रा को निष्प्रभावी करके एंटासिड एसिडिटी के लक्षणों में तुरंत राहत प्रदान करते हैं। कुछ अन्य दवाएं हिस्टैमिन अभिग्राहकों को रोक देती हैं, जिससे पेट कम एसिड बनाता है।
जी मिचलाना और उल्टी:
जी मिचलाना और उल्टी आना अपने आप में कोई रोग नहीं हैं, बल्कि ये शरीर में मौजूद किसी रोग के लक्षण हैं। जी मिचलाने में ऐसा अहसास होता है कि पेट अपने आपको खाली कर देना चाहता है, जबकि उल्टी करना पेट को खाली होने के लिए बाध्य करने का काम है। शरीर में मौजूद उस बीमारी का पता लगाना और इलाज करना आवश्यक है, जिसकी वजह से उल्टी आना या जी मिचलाना जैसे लक्षण उभर रहे हैं। मरीज को आराम पहुंचाने के साथ-साथ पानी की कमी (खासकर बुजुर्गों और बच्चों में) को रोकने के लिए भी उल्टी और जी मिचलाने के लक्षणों को नियंत्रित करना बेहद महत्वपूर्ण है।
जी मिचलाना और उल्टी के कारण:
* लंबी यात्रा में पैदल चलना।
* गर्भावस्था की प्रारंभिक अवस्था।
* गर्भावस्था के 50 से 90 प्रतिशत मामलों में जी मिचलाना आम बात है।
* 25 से 55 प्रतिशत मामलों में उल्टी आने के लक्षण भी हो सकते हैं।
* दवाओं की वजह से होने वाली उल्टी।
* तेज दर्द।
* भावनात्मक तनाव या डर।
* पेट खराब होना।
* संक्रामक रोग जैसे पेट का फ्लू।
* आवश्यकता से ज्यादा खा लेना।
* खास तरह की गंध को बर्दाश्त न कर पाना।
* दिल का दौरा पडऩा।
* दिमाग में लगी चोट।
* ब्रेन ट्यूमर।
* अल्सर।
* कुछ तरह का कैंसर।
* पेट में संक्रमण की वजह से होने वाला तीव्र जठर शोथ।
* अल्कोहल और धूम्रपान जैसी पेट को तकलीफ देने वाली चीजें।
* कुछ ऐसे मामले जिनमें मस्तिष्क से आने वाले संकेतों की वजह से उल्टी आती है।
* कुछ दवाएं और इलाज।
* मल त्याग में अवरोध।
आमतौर पर उल्टी आने का कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन यह किसी गंभीर बीमारी का लक्षण अवश्य हो सकती है। इसके अलावा, इसकी वजह से होने वाली पानी की कमी चिंता का विषय है। पानी की कमी होने का खतरा बच्चों में सबसे ज्यादा होता है।
उल्टी में डॉक्टर की सलाह:
उल्टी के साथ अगर नीचे दिए लक्षणों में से कोई भी होता है तो आपको तुरंत डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।
* उल्टी के साथ खून आ रहा है। यह खून देखने में तेज लाल या कॉफी के रंग का हो सकता है।
* तेज सिरदर्द या गर्दन की जकडऩ।
* आलस, व्याकुलता या सतर्कता में कमी।
* पेट में तेज दर्द।
* 101 डिग्री फॉरेनहाइट से ज्यादा बुखार।
* डायरिया या दस्त।
* सांस या नब्ज का तेज चलना।
पेप्टिक अल्सर:
पेट या छोटी आंत की परत में होने वाले घाव को पेप्टिक अल्सर कहते हैं जिसके कारण हैं:
* पेट में हेलिकोबेक्टर पायलोरी नामक बैक्टिरिया की वजह से होने वाला संक्रमण।
* डिस्प्रिन, ऐस्प्रिन, ब्रूफेन जैसी दर्दनाशक दवाएं।
* तमाम तरह के अन्य और अज्ञात कारण।
* तनाव और मसालेदार खाने से अल्सर नहीं होता, लेकिन अगर अल्सर पहले से है तो इनसे वह और ज्यादा बिगड़ सकता है।
* धुम्रपान।
* मल के साथ खून आना या मल देर से होना।
* सीने में दर्द।
* थकान।
* उल्टी, हो सकता है कि उल्टी के साथ खून भी आए।
* वजन में कमी।
अल्सर के लक्षण:
पेप्टिक अल्सर का सबसे प्रमुख लक्षण पेट में होने वाला दर्द है जो हल्का, तेज या अत्यधिक तेज हो सकता है। अपच और खाने के बाद पेट में होने वाला दर्द।
* भरा पेट होने जैसा अहसास।
* भरपूर मात्रा में तरल पदार्थ न ले पाना।
* जल्दी जल्दी भूख लगना और पेट खाली होने जैसा अहसास।
* खाना खाने के एक से तीन घंटे बाद ही ऐसा लगने लगता है।
* हल्का जी मिचलाना।
अल्सर के ईलाज:
अल्सर के इलाज में एंटिबायोटिक दवाओं के साथ में पेट के एसिड को दबाने वाली दवाएं दी जाती हैं, जिनसे एच पायलोरी को नष्ट किया जा सके। जटिलताएं अल्सर की जटिलताओं में शामिल हैं खून आना, छिद्रण और पेट में अवरोध। अगर नीचे दिए गए लक्षण हैं तो फौरन डॉक्टरी मदद लें।
* पेट में अचानक तेज दर्द।
* पेट का कठोर हो जाना, जो छूने पर मुलायम लगता है।
* बेहोशी आना, ज्यादा पसीना आना या व्याकुलता।
* खून की उल्टी होना या मल के साथ खून आना।
* अगर खून काला या कत्थई है तो चिंता की बात ज्यादा है।
* राहत खानपान और जीवनशैली में बदलाव करके इसमें राहत मिलती है।
अल्सर से बचाव के कुछ तरीके:
रेशेदार भोजन करें, खासकर फल और सब्जियां। इससे अल्सर होने का खतरा कम होता है। अगर पहले से अल्सर है तो उसके अच्छा होने में इन चीजों से मदद मिलेगी।
* फ्लेवॉनॉइड युक्त चीजें जैसे सेब, अजवायन, करौंदा और उसका रस, प्याज, लहसुन और चाय एच पायलोरी की बढ़ोतरी को रोकते हैं।
* कुछ लोगों में मसालेदार खाना खाने से अल्सर के लक्षण और बिगड़ सकते हैं।
* धूम्रपान और अल्कोहल का सेवन बंद कर दें।
* कैफीन रहित समेत सभी तरह की कॉफी कम पिएं। सोडायुक्त पेय भी कम लें। ये सभी चीजें पेट में एसिड की मात्रा को बढ़ा सकती हैं।
* योग या ध्यान क्रियाओं के जरिए खुद को विश्राम देने की कोशिश करें और तनाव कम करें। ये क्रियाएं दर्द कम करने और दर्दनाशक दवाओं की आवश्यकता को कम करने में मददगार हैं। ध्यान रखें दिल का दौरा भी अल्सर के दर्द या अपच जैसे लक्षण दे सकता है। जबड़ों के बीच के क्षेत्र में और नाभि के क्षेत्र में किसी भी तरह की दिक्कत या दर्द हो या सांस लेने में परेशानी हो तो अपने डॉक्टर से सलाह करें। बिना डॉक्टर की सलाह के अपने आप ही मेडिकल स्टोर से एंटासिड न खरीदें।
योग मदद कर सकता है:
एक कहावत है, इंसान साइकोसोम या मनोकाय होता है। कई रोग मनोदैहिक होते हैं। अगर दिमाग में कोई तनाव है, तो पेट में एसिडिटी होगी। दिमाग में तनाव है तो दमा हो सकता है। उसी तनाव की वजह से अलग अलग लोगों को अलग अलग तरह के रोग होते हैं। तनाव की वजह से कौन सा रोग होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस इंसान के अंदर कौन सी चीज जन्म से ही कमजोर है। शरीर और मस्तिष्क दो अलग अलग चीजें नहीं हैं। मस्तिष्क शरीर का सूक्ष्म पहलू है। आमतौर पर जब योग की बात आती है, तो हमारा ज्यादातर काम प्राणमय कोश के स्तर पर ही होता है, क्योंकि अगर हम प्राणमय कोश या ऊर्जा शरीर को पूरी तरह से सक्रिय और संतुलित कर देंगे तो अन्नमय कोश और मनोमय कोश अपने आप ही सही तरीके से संतुलित और स्वस्थ हो जाएंगे।

ज्योतिष द्वारा जाने अपनी मृत्यु का सटीक समय

किसी भी मानवीय जीवन की छह घटनाओं के बारे में कहा जाता है कि इनके बारे में केवल ईश्वर ही जानता है, कोई साधारण मनुष्य इसकी पूर्ण गणना नहीं कर सकता। इन छह घटनाओं में से पहली दो घटनाएं न केवल किसी भी आत्मा के पृथ्वी पर प्रवास का समय निर्धारित करती है, बल्कि ज्योतिषी के समक्ष हमेंशा प्रथम चुनौती के रूप में खड़ी रहती है।
    एक ज्योतिषी के लिए किसी जातक के जन्म समय का निर्धारण ज्योतिषीय कोण से भी बहुत मुश्किल रीति है। सामान्य तौर पर बच्चे के जन्म का समय वही माना जाता है, जो अस्पताल के कार्ड में लिखा होता है। संस्थागत प्रसव से पूर्व तो इतनी शुद्धता भी नहीं थी, केवल अनुमान से ही सुबह, दोपहर, शाम या रात का समय बताया जाता था, गोधूली बेला होने या सूर्य उदय के बाद का समय होने जैसी संभावनाओं के साथ कुण्डली बनाने का प्रयास किया जाता था। हाल के वर्षों में आम लोगों में ज्योतिष के प्रति रुचि बढऩे के साथ अस्पतालों पर भी बच्चे के जन्म समय को शुद्ध रखने का दबाव आने लगा है।
    कृष्णामूर्ति पद्धति के अनुसार गणना की जाए तो जुड़वां पैदा हुए बच्चों के जन्म समय में चार मिनट या इससे अधिक का अंतर होने पर उनके लिए सटीक फलादेश किए जा सकते हैं। परम्परागत षोडषवर्ग पद्धति में भी एक लग्न यानी दो घंटे के साठवें हिस्से तक की गणना का प्रावधान रहा है। अब समस्या यह आती है कि बच्चे का जन्म समय कौनसा माना जाए? अगर सामान्य डिलीवरी हो तो बच्चे के जन्म की चार सामान्य अवस्थाएं हो सकती हैं। पहली कि बच्चा गर्भ से बाहर आए, दूसरी बच्चा सांस लेना शुरू करे, तीसरी बच्चा रोए और चौथी जब नवजात के गर्भनाल को माता से अलग किया जाए। इन चार अवस्थाओं में भी सामान्य तौर पर पांच से दस मिनट का अंतर आ जाता है। अगर कुछ जटिलताएं हों तो इस समय की अवधि कहीं अधिक बढ़ जाती है।
     दूसरी ओर सिजेरियन डिलीवरी होने की सूरत में भी माता के गर्भ से बाहर आने और गर्भनाल के काटे जाने, पहली सांस लेने और रोने के समय में अंतर तो रहेगा ही, यहां बस संतान के बाहर आने की विधि में ही फर्क आएगा। जहां ज्योतिष में चार मिनट की अवधि से पैदा हुए जुड़वां बच्चों के सटीक भविष्य कथन का आग्रह रहता है, वहां जन्म समय का यह अंतर कुण्डली को पूरी तरह बदल भी सकता है। कई बार संधि लग्नों की स्थिति में कुण्डलियां गलत भी बन जाती है। ऐसे में जन्म समय को लेकर हमेंशा ही शंका बनी रहती है। मेरे पास आई हर कुण्डली का मैं अपने स्तर पर बर्थ टाइम रेक्टीफिकेशन करने का प्रयास करता हूं। अगर छोटा मोटा अंतर हो तो तुरंत पकड़ में आ जाता है। वरना केवल लग्न के आधार पर फौरी विश्लेषण ही जातक को मिल पाता है। फलादेश में समय की सर्वांग शुद्धि का आग्रह नहीं किया जा सकता।
ज्योतिषी कोण से मृत्यु:
इसी प्रकार मृत्यु को लेकर भी ज्योतिषीय दृष्टिकोण में कई जटिलताएं सामने आती हैं। सामान्य तौर पर किसी जातक की मृत्यु का समय देखने के लिए मारक ग्रहों और बाधकस्थानाधिपति की स्थिति की गणना की जाती है। लग्न कुण्डली में आठवां भाव आयु स्थान कहा गया है और आठवें से आठवां यानी तीसरा स्थान आयु की अवधि के लिए माना गया है। किसी भी भाव से बारहवां स्थान उस भाव का क्षरण करता है। ऐसे में आठवें का बारहवां यानी सातवां तथा तीसरे का बारहवां यानी दूसरा भाव जातक कुण्डली में मारक बताए गए हैं। इन भावों में स्थित राशियों के अधिपति की दशा, अंतरदशा, सूक्ष्म आदि जातक के जीवन के लिए कठिन साबित होते हैं।
    इसी प्रकार बाधक स्थानाधिपति की गणना की जाती है। चर लग्नों यानी मेष, कर्क, तुला और मकर राशि के लिए ग्यारहवें भाव का अधिपति बाधकस्थानाधिपति होता है। द्विस्वभाव लग्नों यानी मिथुन, कन्या, धनु और मीन के लिए सातवां घर बाधक होता है। स्थिर लग्नों यानी वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ के लिए नौंवा स्थान बाधक होता है। मारक भाव के अधिपति और बाधक स्थान के अधिपति की दशा में जातक को शारीरिक नुकसान होता है। अब मृत्यु का समय ज्ञात करने के लिए इन दोनों स्थानों की तीव्रता को देखना होता है। सामान्य परिस्थितियों में इन स्थानों पर गौर करने पर जातक के शरीर पर आए नुकसान की गणना की जा सकती है।
    लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। अगर इंसान के साथ दो ही परिस्थितियां हों कि या तो वह जिंदा है, या मर गया है तो संभवत: इस प्रकार की गणनाएं सटीक निर्णय दे दें कि जातक की मृत्यु कब होगी। व्यवहारिक तौर पर शारीरिक अक्षमताओं से लेकर जातक के स्थानच्युत होने तक की कई अवस्थाएं होती हैं। मसलन मारक और बाधक की दशा के दौरान जातक को ऐसी चोट लगे कि वह स्थाई तौर पर अक्षम हो जाए और अपने बिस्तर से हिलना भी बंद कर दे। कोई जातक लंबी अवधि के लिए कोमा में जा सकता है, कोई जातक किसी निश्चित अवधि के लिए गायब हो सकता है, यह अवधि कुछ दिनों से लेकर कुछ सालों तक हो सकती है।
    कोई जातक अज्ञातवास में रहने लग सकता है, जिसमें उसका परिवार और समाज तक से संबंध कट जाता है। कुछ जातक बुरी तरह बीमार होते हैं, इतना अधिक कि शरीर के अधिकांश अंग काम करना बंद कर देते हैं, लेकिन चिकित्सकों द्वारा लगाए गए जीवनरक्षक उपकरणों की मदद से जातक पूर्णत अक्षम होने के बावजूद जिंदा रहता है।
    इन सभी मामलों में ज्योतिषीय कोण से जातक अनुपस्थित अथवा अक्षम हो चुका होता है, लेकिन तकनीकी रूप से जातक या तो जिंदा है या अज्ञातवास में है। ऐसे में हम देखते हैं कि एक ज्योतिषी जातक को होने वाले नुकसान के बारे में तो स्पष्ट बता सकता है, लेकिन स्पष्ट तौर पर मृत्यु के बारे में नहीं कहा जा सकता। जीवन रक्षक उपकरणों और अक्षम हो चुके जातक को भी एक निश्चित अवधि तक जीवित बनाए रखने की संभावनों के चलते मृत्यु की परिभाषा में भी बदलाव आ रहा है।
    सामान्य परिस्थितियों में मृत्यु के इतर कुछ स्थितियां पराभौतिक भी होती हैं। किसी जातक को अपने संचित कर्मों से मिले प्रारब्ध के भाग को वर्तमान जीवन में जीना होता है, लेकिन वह उसे जी नहीं पाता। उस सूरत में अकाल मृत्यु के बाद ऐसी आत्माएं कुछ अर्से तक अटकी रहती हैं। किसी जातक के जन्म-मृत्यु की शृंखला में तीन प्रकार के कर्म प्रमुख रूप से बताए गए हैं। पहले हैं संचित कर्म। आपने किसी भी जन्म में कुछ भी किया हो, वह हमेंशा संचित होता रहता है। इन्हीं कर्म बंधनों को पूरा करने के लिए हम जन्म लेते हैं। अब संचित कर्म का कौनसा हिस्सा हमेंं वर्तमान जीवन में पूरा करना है, उसका आवंटन ईश्वर करते हैं और हमेंं आवंटित कर्म अर्थात प्रारब्ध के साथ धरती पर भेज देते हैं।
    तीसरा कर्म हम इस जीवन में अपने सक्रिय प्रयासों से करते हैं, इन्हें क्रियमाण कर्म कहा जाता है। कुण्डली में लग्न हमारे संचित कर्मों का लेखा जोखा है, पंचम भाव हमारे प्रारब्ध के बारे में जानकारी देता है और दशम भाव हमारे क्रियमाण कर्म के बारे में बताता है। ज्योतिष के भावात भावम् सिद्धांत के अनुसार बारहवां भाव अगर क्षय का है तो क्रियमाण कर्म के खर्च होने का भाव नौंवा भाव है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में भाग्य भाव कहा जाता है। अगर जातक अपने प्रारब्ध का हिस्सा पूरा नहीं कर पाता है और क्रियमाण कर्मों के चलते अपना शरीर शीघ्र छोड़ देता है तो उसे मानव जीवन के इतर योनियों में उस समय को पूरा करते हुए अपने हिस्से का प्रारब्ध जीना होता है। जब तक हमारे सामनेचिकित्सकीय कोण से जीवित शरीर दिखाई देता है, हम यह मानकर चलते हैं कि जातक जीवित है, लेकिन ज्योतिषीय कोण यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता है। ऐसे में ज्योतिषीय योग यह तो बताते हैं कि जातक के साथ चोट कब होगी अथवा मृत्यु तुल्य कष्ट कब होगा, लेकिन स्पष्ट तौर पर मृत्यु की तारीख तय करना गणित की दृष्टि से दुष्कर कार्य है।

गणेशोत्सव 2016

गणेशोत्सव (गणेश+उत्सव) हिन्दुओं का एक उत्सव है। वैसे तो यह कमोबेश पूरे भारत में मनाया जाता है, किन्तु महाराष्ट्र का गणेशोत्सव विशेष रूप से प्रसिद्ध है। महाराष्ट्र में भी पुणे का गणेशोत्सव जगत्प्रसिद्ध है। यह उत्सव, हिन्दू पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास की चतुर्थी से चतुर्दशी (चार तारीख से चौदह तारीख तक) तक दस दिनों तक चलता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी भी कहते हैं।
    गणेश की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण भारत में समान रूप में व्याप्त है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है। दक्षिण भारत में इनकी विशेष लोकप्रियता ‘कला शिरोमणि’ के रूप में है। मैसूर तथा तंजौर के मंदिरों में गणेश की नृत्य-मुद्रा में अनेक मनमोहक प्रतिमाएं हैं।
    गणेश हिन्दुओं के आदि आराध्य देव है। हिन्दू धर्म में गणेश को एक विशष्टि स्थान प्राप्त है। कोई भी धार्मिक उत्सव हो, यज्ञ, पूजन इत्यादि सत्कर्म हो या फिर विवाहोत्सव हो, निर्विध्न कार्य सम्पन्न हो इसलिए शुभ के रूप में गणेश की पूजा सबसे पहले की जाती है। महाराष्ट्र में सात वाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथमा चलायी थी। छत्रपति शिवाजी महाराज भी गणेश की उपासना करते थे।
    पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गणपति की स्थापना शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी। परंतु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को जो स्वरूप दिया उससे गणेश राष्टीय एकता के प्रतीक बन गये। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
    लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधरोपण किया था वह अब विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। 1893 में जब बाल गंगाधर जी ने सार्वजानिक गणेश पूजन का आयोजन किया तो उनका मकसद सभी जातियों-धर्मों को एक साझा मंच देने का था जहां सब बैठ कर मिल कर कोई विचार कर सकें। तब पहली बार पेशवाओं के पूज्य देव गणेश को बाहर लाया गया था, वो तब भारत में अस्पृश्यता चरम सीमा पर थी, जब शुद्र जाति के लोगों को देव पूजन का ये अपने में पहला मौका था, सब ने देव दर्शन किये और गणेश प्रतिमा को चरण छूकर आशीर्वाद लिया, उत्सव के बाद जब प्रतिमा को वापस मंदिर में स्थापित किया जाने लगा (जैसा की पेशवा करते थे मंदिर की मूर्ति को आँगन में रख के सार्वजानिक पूजा और फिर वापस वही स्थापना) तो पंडितो ने इसका विरोध किया के ये मूर्ति अब अछूतों ने छू ली है, ये अपवित्र है, इसको वापस मंदिर में नहीं रखा जा सकता। तब बवाल न बढ़े तो निर्णय लिया गया इसको सागर में विसर्जित कर दिया जाए, से दोनों पक्षों की बात रह जायगी। तब से मूर्ति विसर्जन शुरू हो गया या अब काफी फैल गया है। इस में केवल महाराष्ट्र में ही 50 हजार से ज्यादा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसढ़, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेशोत्सव मंडल है।
स्वतंत्रता संग्राम और गणेशोत्सव:
वीर सावरकर और कवि गोविंद ने नासिक में ‘मित्रमेला’ संस्था बनाई थी। इस संस्था का काम था देशभक्तिपूर्ण पोवाडे (मराठी लोकगीतों का एक प्रकार) आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना। इस संस्था के पोवाडों ने पश्चिमी महाराष्ट्र में धूम मचा दी थी। कवि गोविंद को सुनने के लिए लोगों उमड़ पड़ते थे। राम-रावण कथा के आधार पर वे लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल होते थे। उनके बारे में वीर सावरकर ने लिखा है कि कवि गोविंद अपनी कविता की अमर छाप जनमानस पर छोड़ जाते थे। गणेशोत्सव का उपयोग आजादी की लड़ाई के लिए किए जाने की बात पूरे महाराष्ट्र में फैल गयी। बाद में नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था। अंग्रेज भी इससे घबरा गये थे। इस बारे में रोलेट समिति रपट में भी चिंता जतायी गयी थी। रपट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सडक़ों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं व स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। जिसमें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। साथ ही अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जाता है। गणेशोत्सवों में भाषण देने वाले में प्रमुख राष्ट्रीय नेता थे - वीर सावकर, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्ट चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू।

पुराणानुसार:
शिवपुराण में भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्ति गणेश की अवतरण-तिथि बताया गया है जबकि गणेशपुराण के मत से यह गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुआ था। गण + पति = गणपति। संस्कृतकोशानुसार ‘गण’ अर्थात पवित्रक। ‘पति’ अर्थात स्वामी, ‘गणपति’ अर्थात पवित्रकों के स्वामी।
    शिवपुराण के अन्तर्गत रुद्रसंहिता के चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपाल बना दिया। शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिवगणों ने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सर काट दिया। इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत देवताओं ने देवर्षि नारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया। शिवजी के निर्देश पर विष्णुजी उत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड़ पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुखबालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्य होने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक से कहा- गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा। गणेश्वर! तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अध्र्य देकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाएं। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करें। वर्षपर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।

अन्य कथा:
एक बार महादेवजी पार्वती सहित नर्मदा के तट पर गए। वहाँ एक सुंदर स्थान पर पार्वती जी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। तब शिवजी ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा? पार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- बेटा! हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, किन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है। अत: खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से कौन जीता, कौन हारा?
    खेल आरंभ हुआ। दैवयोग से तीनों बार पार्वती जी ही जीतीं। जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया तो उसने महादेवजी को विजयी बताया। परिणामत: पार्वती जी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दु:ख भोगने का शाप दे दिया।
    बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- माँ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है। मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा करें तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ। तब ममतारूपी माँ को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे। इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं।
    एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर माँगो। बालक बोला- भगवन! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ।
गणेशजी ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गए। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा।
तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह 21 दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई।
    वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। शिवजी ने ‘‘गणेश व्रत’’ का इतिहास उनसे कह दिया।
    तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले। उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया।
    कार्तिकेय ने यही व्रत विश्वामित्रजी को बताया। विश्वामित्रजी ने व्रत करके गणेशजी से जन्म से मुक्त होकर ‘‘ब्रह्म-ऋषि’’ होने का वर माँगा। गणेशजी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की। ऐसे हैं श्री गणेशजी, जो सबकी कामनाएँ पूर्ण करते हैं।

चंद्र दर्शन दोष से बचाव:
प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात् व्रती को आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने को) निषिद्ध किया गया है।
    जो व्यक्ति इस रात्रि को चन्द्रमा को देखते हैं उन्हें झूठा-कलंक प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। यह अनुभूत भी है। इस गणेश चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन करने वाले व्यक्तियों को उक्त परिणाम अनुभूत हुए, इसमें संशय नहीं है। यदि जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए- ‘‘सिह: प्रसेनम् अवधीत्, सिंहो जाम्बवता हत:। सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तक:॥’’

वास्तुदोष और रोग

वास्तुशास्त्र अर्थात गृहनिर्माण की वह कला जो भवन मेंं निवास कर्ताओं की विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों एवं उपद्रवों से रक्षा करती है. देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित इस भारतीय वास्तु शास्त्र का एकमात्र उदेश्य यही है कि गृहस्वामी को भवन शुभफल दे, उसे पुत्र-पौत्रादि, सुख-समृद्धि प्रदान कर लक्ष्मी एवं वैभव को बढाने वाला हो.
इस विलक्षण भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने से घर मेंं स्वास्थय, खुशहाली एवं समृद्धि को पूर्णत: सुनिश्चित किया जा सकता है. एक इन्जीनियर आपके लिए सुन्दर तथा मजबूत भवन का निर्माण तो कर सकता है, परन्तु उसमेंं निवास करने वालों के सुख और समृद्धि की गारंटी नहींं दे सकता. लेकिन भारतीय वास्तुशास्त्र आपको इसकी पूरी गारंटी देता है.
यहाँ हम अपने पाठकों को जानकारी दे रहे हैं कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन न करने से पारिवारिक सदस्यों को किस तरह से नाना प्रकार के रोगों का सामना करना पड सकता है.
पूर्व दिशा मेंं दोष:
* यदि भवन मेंं पूर्व दिशा का स्थान ऊँचा हो, तो व्यक्ति का सारा जीवन आर्थिक अभावों, परेशानियों मेंं ही व्यतीत होता रहेगा और उसकी सन्तान अस्वस्थ, कमजोर स्मरणशक्ति वाली, पढाई-लिखाई मेंं जी चुराने तथा पेट और यकृत के रोगों से पीडित रहेगी.
* यदि पूर्व दिशा मेंं रिक्त स्थान न हो और बरामदे की ढलान पश्चिम दिशा की ओर हो, तो परिवार के मुखिया को आँखों की बीमारी, स्नायु अथवा ह्रदय रोग की स्मस्या का सामना करना पड़ता है.
* घर के पूर्वी भाग मेंं कूडा-कर्कट, गन्दगी एवं पत्थर, मिट्टी इत्यादि के ढेर हों, तो गृहस्वामिनी मेंं गर्भहानि का सामना करना पड़ता है.
* भवन के पश्चिम मेंं नीचा या रिक्त स्थान हो, तो गृहस्वामी यकृत, गले, गाल ब्लैडर इत्यादि किसी बीमारी से परिवार को मंझधार मेंं ही छोडक़र अल्पावस्था मेंं ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है.
* यदि पूर्व की दिवार पश्चिम दिशा की दिवार से अधिक ऊँची हो, तो संतान हानि का सामना करना पड़ता है.
* अगर पूर्व दिशा मेंं शौचालय का निर्माण किया जाए, तो घर की बहू-बेटियाँ अवश्य अस्वस्थ रहेंगीं.
बचाव के उपाय:
* पूर्व दिशा मेंं पानी, पानी की टंकी, नल, हैंडापम्प इत्यादि लगवाना शुभ रहेगा.
* पूर्व दिशा का प्रतिनिधि ग्रह सूर्य है, जो कि कालपुरूष के मुख का प्रतीक है. इसके लिए पूर्वी दिवार पर ‘‘सूर्य यन्त्र’’ स्थापित करें और छत पर इस दिशा मेंं लाल रंग का ध्वज(झंडा) लगायें.
* पूर्वी भाग को नीचा और साफ-सुथरा खाली रखने से घर के लोग स्वस्थ रहेंगें. धन और वंश की वृद्धि होगी तथा समाज मेंं मान-प्रतिष्ठा बढेगी.
पश्चिम दिशा मेंं दोष:
पश्चिम दिशा का प्रतिनिधि ग्रह शनि है. यह स्थान कालपुरूष का पेट, गुप्ताँग एवं प्रजनन अंग है.
* यदि पश्चिम भाग के चबूतरे नीचे हों, तो परिवार मेंं फेफड़े, मुख, छाती और चमडी इत्यादि के रोगों का सामना करना पड़ता है.
* यदि भवन का पश्चिमी भाग नीचा होगा, तो पुरूष संतान की रोग बीमारी पर व्यर्थ धन का व्यय होता रहेगा.
* यदि घर के पश्चिम भाग का जल या वर्षा का जल पश्चिम से बहकर, बाहर जाए तो परिवार के पुरूष सदस्यों को लम्बी बीमारियों का शिकार होना पड़ेगा.
* यदि भवन का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा की ओर हो, तो अकारण व्यर्थ मेंं धन का अपव्यय होता रहेगा.
* यदि पश्चिम दिशा की दिवार मेंं दरारें आ जायें, तो गृहस्वामी के गुप्ताँग मेंं अवश्य कोई बीमारी होगी.
* यदि पश्चिम दिशा मेंं रसोईघर अथवा अन्य किसी प्रकार से अग्नि का स्थान हो, तो पारिवारिक सदस्यों को गर्मी, पित्त और फोड़े-फुन्सी, मस्से इत्यादि की शिकायत रहेगी.
बचाव के उपाय:
* ऐसी स्थिति मेंं पश्चिमी दिवार पर ‘‘वरूण यन्त्र’’ स्थापित करें.
* परिवार का मुखिया न्यूनतम 11 शनिवार लगातार उपवास रखें और गरीबों मेंं काले चने वितरित करें.
* पश्चिम की दिवार को थोडा ऊँचा रखें और इस दिशा मेंं ढाल न रखें.
* पश्चिम दिशा मेंं अशोक का एक वृक्ष लगायें.
उत्तर दिशा मेंं दोष:
उत्तर दिशा का प्रतिनिधि ग्रह बुध है और भारतीय वास्तुशास्त्र मेंं इस दिशा को कालपुरूष का ह्रदय स्थल माना जाता है. जन्मकुंडली का चतुर्थ सुख भाव इसका कारक स्थान है.
* यदि उत्तर दिशा ऊँची हो और उसमेंं चबूतरे बने हों, तो घर मेंं गुर्दे का रोग, कान का रोग, रक्त संबंधी बीमारियाँ, थकावट, आलस, घुटने इत्यादि की बीमारियाँ बनी रहेंगीं.
* यदि उत्तर दिशा अधिक उन्नत हो, तो परिवार की स्त्रियों को रूग्णता का शिकार होना पडता है.
बचाव के उपाय:
यदि उत्तर दिशा की ओर बरामदे की ढाल रखी जाये, तो पारिवारिक सदस्यों विशेषतय: स्त्रियों का स्वास्थय उत्तम रहेगा. रोग-बीमारी पर अनावश्यक व्यय से बचे रहेंगें और उस परिवार मेंं किसी को भी अकाल मृत्यु का सामना नहींं करना पडे१गा.
* इस दिशा मेंं दोष होने पर घर के पूजास्थल मेंं ‘‘बुध यन्त्र’’ स्थापित करें.
* परिवार का मुखिया 21 बुधवार लगातार उपवास रखें.
* भवन के प्रवेशद्वार पर संगीतमय घंटियाँ लगायें.
* उत्तर दिशा की दिवार पर हल्का हरा रंग करवायें.
दक्षिण दिशा मेंं दोष:
दक्षिण दिशा का प्रतिनिधि ग्रह मंगल है, जो कि कालपुरूष के बायें सीने, फेफड़े और गुर्दे का प्रतिनिधित्व करता है. जन्मकुंडली का दशम भाव इस दिशा का कारक स्थान होता है.
* यदि घर की दक्षिण दिशा मेंं कुआँ, दरार, कचरा, कूडादान, कोई पुराना सामान इत्यादि हो, तो गृहस्वामी को ह्रदय रोग, जोड़ों का दर्द, खून की कमी, पीलिया, आँखों की बीमारी, कोलेस्ट्राल बढ जाना अथवा हाजमें की खराबीजन्य विभिन्न प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है.
* दक्षिण दिशा मेंं उत्तरी दिशा से कम ऊँचा चबूतरा बनाया गया हो, तो परिवार की स्त्रियों को घबराहट, बेचैनी, ब्लडप्रैशर, मूर्छाजन्य रोगों से पीडा का कष्ट भोगना पड़ता है.
* यदि दक्षिणी भाग नीचा हो, और उत्तर से अधिक रिक्त स्थान हो, तो परिवार के वृद्धजन सदैव अस्वस्थ रहेंगें. उन्हें उच्च रक्तचाप, पाचनक्रिया की गडबड़ी, खून की कमी, अचानक मृत्यु अथवा दुर्घटना का शिकार होना पड़ेगा. दक्षिण पिशाच का निवास है, इसलिए इस तरफ थोड़ी जगह खाली छोडक़र ही भवन का निर्माण करवाना चाहिए.
* यदि किसी का घर दक्षिणमुखी हो ओर प्रवेश द्वार नैऋत्याभिमुख बनवा लिया जाए, तो ऐसा भवन दीर्घ व्याधियाँ एवं किसी पारिवारिक सदस्य को अकाल मृत्यु देने वाला होता है.
बचाव के उपाय:
* यदि दक्षिणी भाग ऊँचा हो, तो घर-परिवार के सभी सदस्य पूर्णत: स्वस्थ एवं संपन्नता प्राप्त करेंगें. इस दिशा मेंं किसी प्रकार का वास्तुजन्य दोष होने की स्थिति मेंं छत पर लाल रक्तिम रंग का एक ध्वज अवश्य लगायें.
* घर के पूजनस्थल मेंं ‘‘श्री हनुमंतयन्त्र’’ स्थापित करें.
* दक्षिणमुखी द्वार पर एक ताम्र धातु का ‘‘मंगलयन्त्र’’ लगायें.
* प्रवेशद्वार के अन्दर-बाहर दोनों तरफ दक्षिणावर्ती सूँड वाले गणपति जी की लघु प्रतिमा लगायें.

ज्योतिष और आज की रोजगार स्थिति

व्यक्ति को जीवन मेंं रोजगार, व्यवसाय, पद प्राप्ति, नौकरी आदि के कौन से अवसर प्राप्त होंगे अथवा जातक की आर्थिक स्थिति कैसी रहेगी, इसके संबंध मेंं अपने पाठकों को यहाँ विस्तार पूर्वक जानकारी प्रदान की जा रही है. यहां कुछ मूल सिद्धांतो, ग्रहों के सांमंजस्य से बनते रोजगार एवं व्यवसायों, पद प्राप्ति व नौकरी प्राप्ति से संबंधित समस्याओं पर प्रकाश डाला जा रहा है.
1. व्यक्ति को सरकारी सेवा / नौकरी / रोजगार / व्यापार अथवा कोई पद प्राप्त होगा, जन्मकुंडली के प्रथम, द्वितीय, दशम एवं एकादश भावों मेंं ग्रहों की स्थिति एवं इन भावों के स्वामी ग्रहों की स्थिति एवं इन सब पर पड़ते अन्य ग्रहों के प्रभाव पर निर्भर करती है. यदि दसवें भाव का स्वामी ग्रह किसी प्रकार भी पहले, दूसरे, छठें एवं ग्यारहवें भावों से संबंध रखता है तो व्यक्ति को हर हालत मेंं अच्छे रोजगार की प्राप्ति होती है तथा वो पूर्णतया लाभदायक सिद्ध होता है.
2. जन्मकुंडली मेंं अधिकांश ग्रह जिन राशियों मेंं हो उस राशि के तत्व गुण, स्वभाव एवं जिस-जिस रोजगार को वह राशि सूचित करती है, व्यक्ति का स्वाभाविक झुकाव उन्हीं कार्यों की तरफ होता है.
3. दो या दो से अधिक क्रूर ग्रहों के साथ केतु जब मेष, वृश्चिक, मकर या कुंभ मेंं से किसी राशि मेंं हो तो व्यक्ति को निराशा, असफ लता, हार तथा बार-बार नौकरी छूटने का काष्ट सहन करना पड़ता है.
4. दसवें भाव का स्वामी ग्रह शुभ स्थिति मेंं नौवें या बारहवें भाव मेंं वृहस्पति के साथ स्थित हो तो व्यक्ति विदेश मेंं सफ लता प्राप्त करता है.
5. जब जन्मकुंडली मेंं शनि से आगे राहु (जैसे जन्मकुंडली मेंं शनि पांचवें भाव मेंं और राहु सातवें भाव मेंं हो) होता है और इन दोनों के मध्य अन्य कोई ग्रह ना हो तो व्यक्ति को पहले 35 वर्ष तक की आयु मेंं रोजगार संबम्धी कष्टों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है. किसी भी काम मेंं उसके पूरी तरह से पैर नहीं जम पाते.
6. जन्मकुंडली में बुध ग्रह कहीं भी अकेला एवं अशुभ प्रभाव से दूर हो तो व्यापार मेंं जातक अत्यधिक उन्नति प्राप्त करता है.
7. यदि अधिकांश ग्रह जनमकुंडली मेंं तीसरे, दसवें, ग्यारहवें एवं बारहवें अथवा 7, 8, 9, 10, 11 एवं 12 वें भाव मेंं बैठे हों और उन्हीं मेंं सूर्य ग्रह भी सम्मिलित हो तो जातक के लिये नौकरी करना अथवा जनहित विभागों मेंं कार्य करना ही लाभ प्रद रहता है. ऐसे व्यक्ति व्यापार मेंं कभी प्रगति नहीं कर सकते.
सूर्य:
बहुत आशाएं और उमंगे रखने वाला, जीवन मेंं उच्च अधिकारी बनना चाहे, उच्च पद प्राप्ति, सरकारी सेवा सेवा नौकरी मेंं रहना कठिन, डाक्टर, लीडर या प्रबंधकीय कार्यों मेंं सलंग्न.
चंद्रमा:
व्यापार, प्रोविजन स्टोर, कृषि, जलीय पदार्थ, पैतृक व्यवसाय मेंं सलंग्न, रोजगार मेंं परिवर्तन हेतुबार बार विचार उठते रहें.
मंगल:
जोखिम के कार्य, पुलिस सेना, मैक्नीकल, सर्जन, धातु का कार्य, केमिस्ट, फ ायर ब्रिगेड, होटल, ढाबा, अग्नि से संबंधित कार्य, डाईवर, मेंकेनिक एवं इंजीनीयर आदि.
बुध:
व्यापारी, ज्योतिषी, प्रिंटिंग कार्य, सेकेरेट्री, लेखक, अकाऊंटेंट, क्लर्क, आडीटर, एजेंट, पुस्तक विक्रेता, दलाल, अनुवादक, अध्यापक, सहायक, नर्सिंग, मुंशी, स्पीडपोस्ट, कोरियर इत्यादि का कार्य.
गुरू:
शिक्षक, प्रकाशक, जज, न्यायाधीश, वकील, धार्मिक नेता, कथावाचक, पुरोहित, बैंक अधिकारी, मेंनेजर, कपडा स्टोर, प्रोविजन स्टोर, सलाहकारिता आदि के कार्य.
शुक्र:
स्वास्थ्य विभाग, अस्पताल, मेंटरनिटी होम, सोसायटी, रेस्टोरेंट, रेडीमेंड वस्त्र, मनियारी की दुकान, फ ोटोग्राफ ी, गिफ्ट आयटम, आभूषण एवं स्त्री से संबंधित विभाग/कार्यक्षेत्र.
शनि:
लेबर, लेबर विभाग, प्रबंधक या फऱि अधिनस्थ सेवा मेंं उच्चपद, अधिकारी, उद्योगपति, डाक्टर, रंग रसायन, पेट्रोकेमिकल इत्यादि. सब्र संतोष, सुझबूझ रखें तो व्यवसाय ठीक चले, जल्दबाजी करें तो मुश्किले खड़ी हों और हानि हो, दुर्घटनाएं, निराशा एवं घाटे का मुंह देखना पड़े.
राहु:
डाक्टर, कसाई, सफाई कर्मचारी, जेल विभाग, विद्युत विभाग, लेखक उच्चाधिकारी एवं उच्च पद प्राप्ति. यदि सूझबूझ रखें और दिमाग से काम लें तो उन्नति करे नहीं तो अपना काम खुद ही बिगाड़े.
केतु:
गुप्त विद्या, तांत्रिक, ज्योतिषि, होम्योपैथी /आयुर्वेद / नेचरोपैथी का डाक्टर, ट्रेवल एजेंट, फ र्नीचर का काम, पशुओं का व्यापारी. जितना घूमने फिरने वाला हो उतना ही लाभ प्राप्त करे.

भगवान श्रीकृष्ण और ज्योतिष

जब अधर्म का बोलबाला हो जाता है धर्म का नाश होने लगता है, सज्जन पीड़ा से तड़प उठते है दुर्जन अतिचारी हो जाते है तो प्रकृति अपना सन्तुलन बनाने के लिये महापुरुष को पैदा करती है। वह राम के रूप में हों कृष्ण के रूप मेंं हो या अन्य किसी अवतार के रूप मेंं हों, आते हैं। चार युग कही युग पर्यन्त नहीं है, चारों युग इसी शरीर में इसी जीवन में इसी संसार में है। पिता खुद और आगे आने वाली पीढ़ी धर्म रूपी सतयुग है, कुटुम्ब ननिहाल और पिता का राज्य द्वापर है, पत्नी परिवार छोटे-बड़े भाई बहिन आदि सभी त्रेता के युग के रूप में है, माता और पिता का खानदान अधर्म मृत्यु तथा मोक्ष को प्राप्त करने का युग ही कलयुग है। कुंडली को देखने के बाद पता लगता है कि लगन पंचम और नवम भाव सतयुग की मीमांशा करते है, दूसरा छठा और दसवा भाव द्वापर युग की मीमांसा करते हैं, तीसरा, सातवा और ग्यारहवा भाव त्रेता युग की मीमांसा करते है, चौथा, आठवा और बारहवा भाव कलयुग की मीमांसा करते है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुया था इसलिये जो भी कार्य व्यवहार समय आदि रहा वह सभी दूसरे भाव छठे भाव और दसवे भाव से सम्बन्धित रहा। शनिदेव का केतु के साथ इन्ही भावों में होना श्रीकृष्ण भक्ति की तरफ जाने का इशारा करता है। देवकी माता के रूप में और महाराज उग्रसेन पिता के रूप मेंं, दूसरे भाव का शनि केतु माता के बड़े भाई के रूप में और दूसरे भाव का शनि केतु दत्तक पुत्र की तरह से दूसरी जाति के अन्दर जाकर पालना होना। अष्टम राहु, बारहवा राहु, चौथा राहु तभी अपना काम राक्षस की तरह से करेगा जब शनि केतु दूसरे छठे या दसवे भाव में अपना बल दे रहे होंगे। माता यशोदा की गोद चौथे भाव के लिये शनि केतु की मीमांसा करती है, शनि केतु का दूसरा प्रभाव यमुना जी के रूप में भी मिलता है, शनि जो यम है और केतु जो यम की सहयोगी सूर्य पुत्री के रूप में जानी जाती है। शनि काम करने वाले लोगो से और केतु को हल के रूप में भी देखा जाता है शनि का रंग काला है और केतु का रूप बांसुरी से लेते हंै तो भी भगवान श्रीकृष्ण की छवि उजागर होती है। यही नहीं शनि मंत्र के उच्चारण के लिये जब शनि बीज मंत्र का रूप देखा जाता है तो ‘शँ’ बीज भगवान श्रीकृष्ण की एक पैर मोड कर बांसुरी को बजाने के रूप में दिखाई देता है। अगर इस बीज अक्षर को सजा दिया जाये भगवान श्रीकृष्ण का रूप ही प्रदर्शित होगा।
आदिकाल से मूर्ति की पूजा नहीं की जाती थी यह तो ऋग्वेद से भी देखा जा सकता है, बीज मंत्रो का बोलबाला था। अग्नि, वायु, जल, भूमि और इनके संयुक्त तत्वों को माना जाता था लेकिन इन्हीं बीजो को सजाने के बाद जो रूप बना, वह मूर्ति के रूप में स्थापित किया जाने लगा और पत्थर धातु अथवा किसी भी अचल तत्व पर मूर्ति के रूप में इन्ही बीजों को सजाया जाने लगा भावना से भगवान की उत्पत्ति हुयी और मूर्ति भी बीज अक्षर के रूप में अपना असर दिखाने लगी।
मथुरा नगर को भगवान श्रीकृष्ण की जन्म स्थली माना जाता है। मथुरा के राजा उग्रसेन को जो श्रीकृष्ण के नाना थे उनके पुत्र कंस ने कैद में डालकर अपने को बरजोरी राजा बना लिया था और अपने को लगातार बल से पूर्ण करने के लिये जो भी अनैतिक काम होते थे सभी को करने लगा था। प्रजा के ऊपर इतने कर लगा दिये थे कि प्रजा में त्राहि त्राहि मची हुयी थी। जब कंस अपने बहनोई वासुदेव को और बहिन देवकी को लेकर रथ से जा रहा था तो आकाशवाणी हुयी कि जिस बहिन को तू इतने प्रेम से लेकर जा रहा है उसी के गर्भ से आठवी संतान उसकी मौत के रूप में पैदा होगी। कंस ने रथ को वापस किया और वसुदेव और देवकी को कारागार में डाल दिया, तथा उनकी सात सन्तानों को मार दिया था, आठवी संतान के रूप मेंं श्रीकृष्ण का जन्म हुआ जिस समय जन्म हुआ उस समय जो भी कारागार के दरवाजे प्रहरी आदि कंस ने देवकी और वसुदेव की सुरक्षा के लिये स्थापित किये थे सभी साधन निष्क्रिय हो गये और वसुदेव अपने हाल के जन्में पुत्र को लेकर उनके मित्र नंद के घर छोड़ आये और उनकी पुत्री को वापस लाकर देवकी की गोद में सुला दिया, कंस को जब पता लगा तो उसने उस कन्या को मारने के लिये जैसे ही पत्थर पर पटकना चाहा वह कन्या कंस के हाथ से छूट कर आसमान में चली गयी और आर्या नाम की शक्ति के रूप मेंं अद्रश्य बादलों की बिजली की तरह से अपना रूप लेकर बोली कि जो तेरी मौत का कारण है वह तो पैदा हो चुका है और बड़े आराम से पाला भी जा रहा है, कंस ने इतना सुनकर आसपास के गांवो में अपने दूत भेज दिये, जब पता लगा कि श्रीकृष्ण नन्द के घर में यशोदा मैया की गोद में पल रहे हंै तो कंस ने अपनी आसुरी शक्तियों को यशोदा के घर पूतना के रूप मेंं, बकासुर के रूप मेंं और कितनी ही आसुरी शक्तियों को भेजा लेकिन श्रीकृष्ण भगवान का बाल भी बांका नहीं हुया। अपनी लीलाओं को दिखाते हुये उन्होने मथुरा की ब्रज भूमि को तपस्थली भूमि को बना दिया और अपनी शक्ति से अपने मामा कंस को मारकर अपने नाना को राजगद्दी पर बैठाकर अपने स्थान द्वारका की तरफ प्रस्थान कर गये।
मथुरा में शनि-केतु माता का घर था और कारागार का रूप भी राहु के रूप में था, चौथे, बारहवे और आठवे भाव का सीधा मिश्रण होने के कारण दूसरे भाव का असर भी शामिल था। वहीं शनि केतु नन्दगांव मेंं यशोदा के द्वारा पाले जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण का रूप था, चौथा भाव माता के साथ दूध और दूध के साधनों से भी जोड़ कर देखा जाता है। मथुरा नगर के उत्तर पूर्व में यमुना नदी बहती है इस नदी का रूप भी श्यामल है, साथ ही यही शनि केतु राहु का रूप रखने के बाद यमुना में कालिया नाग के रूप में प्रकट हुआ जो भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा वश में करने के बाद उसे क्षीर सागर में भेज दिया। पूतना जो राक्षसी रूप में थी वही अपने वक्ष पृष्ठ पर जहर लगाकर भगवान श्रीकृष्ण को दूध पिलाने आयी थी उसका दूध पीने के साथ साथ भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना के प्राणों को भी पी लिया था। दूध और जहर दोनों राहु और चन्द्रमा की निशानी है। राहु चन्द्रमा के साथ मिलकर जहरीले दूध के लिये अपने रूप को प्रस्तुत करता है। उसी स्थान पर बकासुर जो बुध राहु के रूप में अपना रूप लेकर भगवान श्रीकृष्ण की मौत लेकर आया था उसे भी भगवान श्रीकृष्ण ने शनि केतु की सहायता से मार गिराया था। राहु शुक्र का मिला हुआ रूप ही रासलीला के रूप में जाना जाता है राहु जब सूर्य को आने कब्जे में करता है कीर्ति का फैलना होता है।
मथुरा नगर की सिंह राशि है यह राशि राज्य सें सम्बन्ध रखती है। नन्दगांव की वृश्चिक राशि का है इसलिये जान जोखिम और खतरे वाले काम करने के लिये तथा मौत जैसे कारण पैदा करने के लिये माना जाता है। वृंदावन वृष और तुला के मिश्रण का रूप है इसलिये धन सम्पत्ति और प्रेम सम्बन्ध शुक्र से मिलते है। बरसाना भी श्री राधा के लिये तथा सत्यभामा कुम्भ राशि के लिये जो मित्र के रूप में ही अपने कारणो को आजीवन प्रस्तुत करती रही। रुकमिणी जो तुला राशि की होकर और राधा भी तुला राशि की होकर अपने को मित्र तथा प्रेम के रूप में प्रस्तुत करने के बाद श्रीकृष्ण की शक्ति के रूप में साथ रही। अक्षर कृ मेंं मिथुन और तुला है और अक्षर कं मेंं मिथुन और वृश्चिक का रूप शामिल है,मिथुन तुला की धर्म और भाग्य के साथ साथ पूज्य बनाने के लिये मानी जाती है जबकि मिथुन और वृश्चिक षडाष्टक योग का निर्माण करने के लिये तथा शत्रुता मौत वाले कारण पैदा करने के लिये जासूसी अवैध्य रूप से धन प्राप्त करने के लिये केवल भौतिक सुखो को भोगने के लिये अहम में आकर अपने को ही भगवान समझने के लिये मानना भी एक प्रकार से माना जा सकता है। यही बात यमुना जी के लिये भी जानी जा सकती है वृश्चिक सिंह और वृश्चिक राशि का मिश्रण भी यमुना जी के लिये अपनी गति को प्रदान करता है चौथे भाव मेंं शनि केतु का रूप पानी के स्थान पर एक काली लकीर या जो पूर दिशा में जाकर राहु यानी समुद्र से मिले। आदि बातों से भी माना जा सकता है।
हरिवंश पुराण में भगवान श्रीकृष्ण सहित गुरु का कारण प्रस्तुत किया गया है और सम्पूर्ण ज्योतिष की जानकारी जीव के रूप में उपस्थित करने के लिये बतायी गयी है। इसी प्रकार से महाभारत पुराण के तेरह पर्व एक लगन और बाकी के बारह भाव प्रस्तुत किये गये है जो ज्योतिष से सटीक रूप से मिलते है। पांच पांडव और छठे नारायाण यानी श्रीकृष्ण भगवान पांच तत्व और एक आत्मा के रूप में आधयत्मिक रूप में तथा पांच तत्व और एक आत्मा के रूप में द्रोपदी के रूप में जो पांच तत्व का भार ग्रहण करती है के प्रति भी आस्था रखना ज्योतिष के रूप में माना जाता है। सौ कौरव दूसरे शुक्र और बारहवे सूर्य की कल्पना को प्रस्तुत करते है। वही शनि केतु कौरवो के लिये कीड़े मकौड़े के रूप में प्रस्तुत करता है तो कुन्ती के विवाह से पहले के पुत्र कर्ण को छठे भाव के शनि केतु के रूप में प्रस्तुत करता है,जो पांचों तत्वों के मिश्रण का संयुक्त रूप था और बारहवे सूर्य की निशानी था,कहा जाता है कि कुंती ने सन्तान प्राप्ति के मंत्र को क्वारे में सूर्य की साधना करने से अंजवाया था भगवान सूर्य उपस्थित हुये और कुंती को पुत्र प्राप्ति के लिये वर दे गये तथा कानो के कुंडल और कवच कुंती को दे गये। विवाह नहीं होने के कारण और क्वारे मेंं सन्तान को प्राप्त करने के कारण कर्ण को यमुना में मय कुंडल और कवच के बहा दिया गया जो किसी मल्लाह ने प्राप्त करने के बाद उन्हे पाला और सूत पुत्र के नाम से कर्ण को जाना जाने लगा। यही चौथे भाव का शनि केतु यानी केतु पतवार और शनि पानी का वाहन यानी नाव के रूप में भी समझा जा सकता है।
इस प्रकार से समझा जा सकता है कि ज्योतिष और भगवान श्रीकृष्ण की कथा में केवल उनकी कथा को प्रस्तुत करने के बाद जो भी कारण पांच तत्व और एक आत्मा के साथ पैदा होते है उन्हे वृहद रूप में वर्णित किया गया है। यह कथाये इसलिये बनायी गयी थी कि पुराने जमाने में लिखकर सुरक्षित रखने का कोई साधन नहीं था और कथा के रूप में गाथा हमेशा चलती रहती थी कोई इस गाथा को भूल नहीं जाये इसलिये ही भागवत पुराण की रचना की गयी थी और नवग्रह तथा जीवन के सभी ग्रहों की शांति के लिये लोग समय समय पर भागवत कथा का आयोजन करवाते थे।

शतभिषा नक्षत्र का जन्म और स्वाभाव

कहा जाता है कि ग्रह से बड़ा नक्षत्र होता है और नक्षत्र से भी बड़ा नक्षत्र का पाया होता है। हर नक्षत्र अपने अपने स्वभाव के जातक को इस संसार में भेजते हंै और नक्षत्र के पदानुसार ही जातक को कार्य और संसार संभालने की जिम्मेंदारी दी जाती है। आइये समझते है नक्षत्र के समय में जन्म और जातक का स्वभाव-
शतभिषा नक्षत्र का जन्म और स्वभाव:
शतभिषा नक्षत्र का मालिक शनि होता है और इस नक्षत्र का प्रभाव उत्तर दिशा की तरफ अधिक होता है, इस नक्षत्र का तत्व आकाश होता है। शरीर में दाहिनी जांघ पर इसका अधिकार होता है, पूरे दिन रात में इसका भोग काल तीन कला होता है। इस नक्षत्र के चार पायों मेंं गो सा सी और सू अक्षर से माने जाते है। चन्द्रमा के इस नक्षत्र में होने पर और जिस पाये में उसका स्थान होता है उसी पाये के अनुसार जातक का नामकरण किया जाता है। शतभिषा नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक का स्वभाव सत्कार करने वाला होता है, वह किसी भी आदर देने वाले काम के पीछे अपना स्वार्थ जरूर देखता है। बिना किसी लाभ के अगर कोई शतभिषा नक्षत्र मेंं पैदा होने वाले जातक से मिलने की कोशिश करता है तो अधिकतर मामले में वह बगली काट कर निकलने वाला होता है। अक्सर देखा जाता है कि जातक बिना कारण ही दूसरे लोगों का ध्यान रखने की कोशिश करने लगता है, इस काम को लोग समाज सेवा या आदर के भाव से देखते है लेकिन लोगो की सोच तब बदल जाती है जब जातक अपने स्वार्थ को पूरा करने के बाद निकल जाता है और जिसका ध्यान रखा जाता था उसके साथ कुछ न कुछ घटना उसके कारण से हो जाती है। इस नक्षत्र का व्यक्ति चलायमान दिमाग का होता है वह कार्य भी ऐसे करता है जहां पर बहुत भीड़ हो और भीड़ के अन्दर अपनी औकात को दिखाकर काम करने से उसे अधिक से अधिक धन की प्राप्ति हो। अक्सर पहले पद में पैदा होने वाले जातक जिनका नाम गो से शुरु होता है वे आजीवन चलते ही दिखाई देते है। उनका भाग्य पैदा होने के स्थान से पश्चिम दिशा में होता है अक्सर तीन सन्तान का योग बनता है। जीवन साथी की प्राप्ति पूर्व दिशा से होती है लेकिन जातक जितना मेंहनत करने वाला होता है जितना भाग दौड़ करने वाला होता है। जातक का जीवन साथी उतना ही चालाक और तर्क करने वाला होता है, इस पाये में जन्म लेने वाले जातक के एक से अधिक सम्बन्ध भी बने देखे जाते है लेकिन सभी सम्बन्ध कार्य स्थान तक ही सीमित होते है। जातक खूबशूरती की तरफ अधिक भागने वाला होता है। जातक की कन्या सन्तान काफी पढ़ी लिखी होती है लेकिन पुत्र संतान अधिक चालाक और मौके का फायदा उठाने वाले होते हैं। इस पाये में जन्म लेने वाले जातक के पास अचल सम्पत्ति होती है। भाई बन्धुओं से जायदाद के पीछे मनमुटाव भी होता है। दूसरे पाये में जन्म लेने वाले जातक अक्सर बहुत ही उत्तेजित होते हैं, समाय और परिवार में नाम कमाने वाले होते हैं, वे अपने भाई बहिनों को तभी तक देखते हंै जब तक कि उनके लिये कोई साधन आजीवन की कार्य शैली के लिये नहीं मिल जाता है। इस पाये में जन्म लेने वाले जातक के जीवन साथी अगर पुरुष है तो वह अक्सर कमजोर होते हंै और किसी न किसी प्रकार के वाहन सम्बन्धित व्यवसाय में जुडे होते है या उन्हे गाड़ी आदि चलाने का अनुभव अच्छा होता है। हिम्मत मेंपक्के होते हैं, किसी भी जोखिम में जाने से नहींं डरते हैं। शतभिषा नक्षत्र के तीसरे पाये में जन्म लेने वाले व्यक्ति गहरी दोस्ती करते हैं और किसी भी समस्या की जड़ तक पहुंचना उनका काम होता है, इनके मन के अन्दर इतने रहस्य होते है कि इनके जीवन साथी भी नहीं जानते है बुद्धिमान भी होते हैं और किसी भी काम में कुशल भी होते हैं लेकिन मन हमेशा अस्थिर होता है जनता के लोगों से और नेता आदि से यह अपने आप ही मानसिक दुश्मनी पाल लेते हैं। जैसे ही बारी आती है किसी न किसी कारण से डुबाने से नहीं चूकते हैं। जनता के गुप्त धन पर इनका अधिक ध्यान रहता है। जीवन में कभी अस्थिरता नहीं आती है हमेशा अडिग होकर ही काम करने में अपना विश्वास रखते हैं, पिता के स्थान पर माता को अधिक मानते है। अक्सर शतभिषा नक्षत्र में पैदा होने वाले लोगो को अधिक मिठाई खाने की आदत होती है और इसी कारण से डायबटीज और मूत्राशय वाले रोग इन्हे अधिक लगते है, पथरी और इसी प्रकार के रोग भी होते देखे जाते हैं। जब यह कठोरता पर आ जात हैं तो बहुत ही निर्दयी स्वभाव के हो जाते है। किसी भी प्रकार का मशीनी लाभ इन्हें अधिक होता है दूसरे के जीवन साथी से सम्पर्क अधिक कायम रखने के कारण भी इनका शरीर कमजोर होता रहता है।

भारत का अद्भुत मंदिर

भारत देश एक ऐसा देश है जो आश्चर्यो से भरा हुआ है। इस देश के हर राज्य के हर शहर के कोने-कोने में कोई न कोई अदुभुत जगह मौजूद है। ऐसी ही एक जगह है उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद में स्थित भगवान जगन्नाथ का मंदिर जो की अपनी एक अनोखी विशेषता के कारण प्रसिद्ध है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यह मंदिर बारिश होने की सूचना 7 दिन पहले ही दे देता है। आप शायद यकीन न करे पर यह हकीकत है।
भारत में कई चीजें ऐसी है जो आश्चर्य और चमत्कार से भरी हुई है। ऐसे ही अनोखी विशेषता उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर की है। इस मंदिर के भवन की छत चिलचिलाती धूप में टपकने लगती है और बारिश की शुरुआत होते ही छत से पानी टपकना बंद हो जाता है। इस मंदिर की विशेषता ये भी है कि यह मंदिर बारिश होने की सूचना सात दिन पहले ही दे देता है। इस मंदिर को ‘बारिश के मंदिर’ नाम से जाना जाता है। इतना ही नहीं यदि पानी की बूंदे बड़ी हैं तो अच्छे मानसून और यदि छोटी हैं तो सूखा होने की बात कही जाती है। अब तो लोग मंदिर की छत टपकने के संदेश को समझकर जमीनों को जोतने के लिए निकल पड़ते हैं। हैरानी में डालने वाली बात यह भी है कि जैसे ही बारिश शुरु होती है, छत अंदर से पूरी तरह सूख जाती है।
कई वैज्ञानिक व रिसर्च टीम इस जगह पर आए ताकि इस प्रक्रिया को अच्छे से समझ सकें पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका। भगवान जगन्नाथ मंदिर के मुख्य पुजारी केपी शुक्ला ने कहा कि मंदिर का डिजाइन अपने आप में अभूतपूर्व है। इस पूरे राज्य के किसी और मंदिर को इस तरह नहीं डिजाइन किया गया है। सम्राट अशोक के शासनकाल में देश के अन्य हिस्सों में बनाए गए स्तूपों की तरह ही यह मंदिर भी है। अब इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ की पूजा करने हमारी सातवीं पीढ़ी आ रही है। हर साल लोग जुलाई में भगवान जगन्नाथ का रथ खींचने और पूजा करने के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। जन्माष्टमी के दौरान मेला भी आयोजित किया जाता है। स्थानीय किसान यहां अच्छे मानसून के लिए प्रार्थना करते हैं और पानी की बूंदों को देखने के लिए छत पर पत्थर जमा करते हैं ताकि इनके बीच जमा हुए पानी की बूंदों को देख सकें।

नारद जन्म कथा

देवर्षि नारद पहले गन्धर्व थे। एक बार ब्रह्मा जी की सभा में सभी देवता और गन्धर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिए आए। नारद जी भी अपनी स्त्रियों के साथ उस सभा में गए। भगवान के संकीर्तन के बीच में ही विनोद भाव से हास-परिहास करने लगे। यह देखकर ब्रह्मा जी ने इन्हें शाप दे दिया और वो मानव रूप लेकर पृथ्वी में आये।
जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगीं। एक दिन गांव में कुछ महात्मा आए और चातुर्मास्य बिताने के लिए वहीं ठहर गए। नारद जी बचपन से ही अत्यंत सुशील थे। वह खेलकूद छोड़ कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे। संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो यह तन्मय होकर सुना करते थे। संत लोग इन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिए दे देते थे।
साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करने वाला होता है। उसके प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र हो गया और इनके समस्त पाप धुल गए। जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर इन्हें भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया।
एक दिन सांप के काटने से उनकी माता जी भी इस संसार से चल बसीं। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गए। उस समय इनकी अवस्था मात्र पांच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिए चल पड़े। एक दिन जब नारद जी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, अचानक इनके हृदय में भगवान प्रकट हो गए और थोड़ी देर तक अपने दिव्य स्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गए।
भगवान का दोबारा दर्शन करने के लिए नारद जी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गई। वह बार-बार अपने मन को समेट कर भगवान के ध्यान का प्रयास करने लगे, किंतु सफल नहीं हुए। उसी समय आकाशावाणी हुई, ‘‘अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।’’
समय आने पर नारद जी का पांच भौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। यह भगवान की भक्ति और महात्म्य के विस्तार के लिए अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद् गुणों का गान करते हुए निरंतर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्ति सूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुंदर व्याख्या है। अब भी यह अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही उन्हें भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिए ही है। यह ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भंडार, आनंद के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं।
अविरल भक्ति के प्रतीक और ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाने वाले देवर्षि नारद का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुंचाना है। वह विष्णु के महानतम भक्तों में माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। भगवान विष्णु की कृपा से यह सभी युगों और तीनों लोगों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं।