।।।।।।।।योनी तंत्र।।।।।।
लिंग पुराण में सृष्टि के नैसर्गिक सामंजस्य का तात्विक ज्ञान भगवान् शिव ने दिया है. सभी ग्रन्थ मनुष्य मात्र के लिए ध्यान योग के अभ्यास से ही आत्मज्ञान पाने का सहज मार्ग दिखलाते हैं .लिंग पुराण में कहा गया है की क्रिया की साधना के द्वारा गृहस्थ भी साधू है, धारण करने योग्य कर्म ही धर्म है और धारण न करने योग्य कर्म ही अधर्म है . मैं लिंग में ही ध्यान करने योग्य हूँ .मुझ से उत्पन्न यह भगवती जगत की योनी है,प्रकृति है . लिंग वेदी महादेवी हैं और लिंग स्वयं भगवान् शिव हैं. पुर अर्थात देह में शयन करने के कारण ब्रह्म को पुरुष कहा जाता है. मैं पुरुष रूप हूँ और अम्बिका प्रकृति है, सब नरोंके शरीर में दिव्य रूप से शिव विराजमान हैं ,इसमें संदेह नहीं करना चाहिए. सब मनुष्यों का शरीर शिव का दिव्य शरीर है .शुभ भावना से युक्त योगियों का शरीर तो शिव का साक्षात् शरीर है. जब समरस में स्थित योगी ध्यान यज्ञ में रत होता है तो शिव उसके समीप ही होते हैं”.
योनी तंत्र के अनुसार (जो माता पारवती और भगवान् शिव का संवाद है ) ब्रह्मा ,विष्णु और महेश तीनों शक्तियों का निवास प्रत्येक नारी की योनी में है क्योंकि हर स्त्री देवी भगवती का ही अंश है .दश महाविद्या अर्थात देवी के दस पूजनीय रूप भी योनी में निहित है. अतः पुरुष को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिए मन्त्र उच्चारण के साथ देवी के दस रूपों की अर्चना योनी पूजा द्वारा करनी चाहिए . योनी तंत्र में भगवान् शिव ने स्पष्ट कहा है की श्रीकृष्ण .श्रीराम और स्वयं शिव भी योनी पूजा से ही शक्तिमान हुए हैं . भगवान् राम ,शिव जैसे योगेश्वर भी योनी पूजा कर योनी तत्त्व को सादर मस्तक पर धारण करते थे ऐसा योनी तंत्र में कहा गया है क्योंकि बिना योनी की दिव्य उपासना के पुरुष की आध्यात्मिक उन्नति संभव नहीं है . सभी स्त्रियाँ परमेश्वरी भगवती का अंश होने के कारण इस सम्मान की अधिकारिणी हैं”. अतः अपना भविष्य उज्जवल चाहने वाले पुरुषों को कभी भी स्त्रियों का तिरस्कार या अपमान नहीं करना चाहिए .
लिंग पुराण में सृष्टि के नैसर्गिक सामंजस्य का तात्विक ज्ञान भगवान् शिव ने दिया है. सभी ग्रन्थ मनुष्य मात्र के लिए ध्यान योग के अभ्यास से ही आत्मज्ञान पाने का सहज मार्ग दिखलाते हैं .लिंग पुराण में कहा गया है की क्रिया की साधना के द्वारा गृहस्थ भी साधू है, धारण करने योग्य कर्म ही धर्म है और धारण न करने योग्य कर्म ही अधर्म है . मैं लिंग में ही ध्यान करने योग्य हूँ .मुझ से उत्पन्न यह भगवती जगत की योनी है,प्रकृति है . लिंग वेदी महादेवी हैं और लिंग स्वयं भगवान् शिव हैं. पुर अर्थात देह में शयन करने के कारण ब्रह्म को पुरुष कहा जाता है. मैं पुरुष रूप हूँ और अम्बिका प्रकृति है, सब नरोंके शरीर में दिव्य रूप से शिव विराजमान हैं ,इसमें संदेह नहीं करना चाहिए. सब मनुष्यों का शरीर शिव का दिव्य शरीर है .शुभ भावना से युक्त योगियों का शरीर तो शिव का साक्षात् शरीर है. जब समरस में स्थित योगी ध्यान यज्ञ में रत होता है तो शिव उसके समीप ही होते हैं”.
योनी तंत्र के अनुसार (जो माता पारवती और भगवान् शिव का संवाद है ) ब्रह्मा ,विष्णु और महेश तीनों शक्तियों का निवास प्रत्येक नारी की योनी में है क्योंकि हर स्त्री देवी भगवती का ही अंश है .दश महाविद्या अर्थात देवी के दस पूजनीय रूप भी योनी में निहित है. अतः पुरुष को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिए मन्त्र उच्चारण के साथ देवी के दस रूपों की अर्चना योनी पूजा द्वारा करनी चाहिए . योनी तंत्र में भगवान् शिव ने स्पष्ट कहा है की श्रीकृष्ण .श्रीराम और स्वयं शिव भी योनी पूजा से ही शक्तिमान हुए हैं . भगवान् राम ,शिव जैसे योगेश्वर भी योनी पूजा कर योनी तत्त्व को सादर मस्तक पर धारण करते थे ऐसा योनी तंत्र में कहा गया है क्योंकि बिना योनी की दिव्य उपासना के पुरुष की आध्यात्मिक उन्नति संभव नहीं है . सभी स्त्रियाँ परमेश्वरी भगवती का अंश होने के कारण इस सम्मान की अधिकारिणी हैं”. अतः अपना भविष्य उज्जवल चाहने वाले पुरुषों को कभी भी स्त्रियों का तिरस्कार या अपमान नहीं करना चाहिए .
यह वैज्ञानिक सत्य है की पुरुष शरीर में निर्मित होने वाले शुक्राणु किसी अज्ञात शक्ति से चालित होकर अंडाणु से संयोग करने के लिए गुरुत्वाकर्षण के नियम का उल्लंघन करके आगे बढ़ते हैं. योग और अध्यात्म विज्ञान के अनुसार शुक्राणु जीव आत्मा होते हैं जो शरीर पाने के लिए अंडाणु से संयोग करने केलिए भागते हैं. इस सत्य से यह सिद्ध होता है की अरबों खरबों शुक्राणुओं में से किसी दुर्लभ को ही मनुष्य शरीर प्राप्त होता है . इस भयानक संग्राम में विजयी होना निश्चय ही जीव आत्मा की सब से बड़ी उपलब्धि है जो हमारी समरण शक्ति में नहीं टिकती.
योग शास्त्र के अनुसार मानव शरीर प्रकृति के चौबीस तत्वों से बना है जो हैं - पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जीभ व त्वचा ),पांच कर्मेन्द्रियाँ ( हाथ ,पैर ,जननेद्रिय ,मलमूत्र द्वार और मूंह ),पञ्च कोष(अन्नमय ,प्राण मय,मनोमय ,विज्ञानमय और आनंदमय ),पञ्च प्राण ( पान ,अपान,सामान ,उदान,व्यादान ),मन ,बुद्धि ,चित्त और अहंकार . आत्मा इनका आधार और दृष्टा है और ईश्वर का ही प्रतिबिम्ब है जो दिव्य प्रकाश स्वरूप है जिसका दर्शन ध्यान और समाधि में किसी को भी हो सकता है. जब तक कोई भी व्यक्ति स्वयं आत्मज्ञान पाने के लिए आत्म ध्यान नहीं करता तब तक कोई ग्रन्थ और गुरु उसका कल्याण नहीं कर सकते यह भगवान् शिव ने स्पष्ट रूप से ज्ञान संकलिनी तंत्र में कहा है ,-"यह तीर्थ है वह तीर्थ है ,,ऐसा मान कर पृथ्वी के तीर्थों में केवल तामसी व्यक्ति ही भ्रमण करते हैं. आत्म तीर्थ को जाने बिना मोक्ष कहाँ संभव है?" भीष्म पितामह ने भी महाभारत के युद्ध में शर शैय्या पर युद्धिष्ठिर को यही उपदेश दिया की सब से श्रेष्ठ तीर्थ मनुष्य का अंतःकरण और सब से पवित्र जल आत्मज्ञान ही है . इस ज्ञान को धारण कर जब पति पत्नी आध्यात्मिक तादात्म्य स्थापित कर दैहिक सम्बन्ध द्वारा किसी अन्य जीव आत्मा का आव्हान संतान के रूप में करते हैं तो वह सृष्टि के कल्याण के लिए महान यग्य संपन्न करते हैं . इसी ज्ञान को चरितार्थ करने के लिए भगवान् शिव और माता पार्वती के पुत्र गणेश ने जब विश्व की परिक्रमा करने का आदेश अपने पिताश्री से पाया तो चुप चाप अपने मूषक पर बैठ कर माता -पिता की परिक्रमा कर ली क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार माता पृथ्वी से अधिक गौरवशालिनी और पिता आकाश के सामान व्यापक कहा जाता है .
योग शास्त्र के अनुसार मानव शरीर प्रकृति के चौबीस तत्वों से बना है जो हैं - पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जीभ व त्वचा ),पांच कर्मेन्द्रियाँ ( हाथ ,पैर ,जननेद्रिय ,मलमूत्र द्वार और मूंह ),पञ्च कोष(अन्नमय ,प्राण मय,मनोमय ,विज्ञानमय और आनंदमय ),पञ्च प्राण ( पान ,अपान,सामान ,उदान,व्यादान ),मन ,बुद्धि ,चित्त और अहंकार . आत्मा इनका आधार और दृष्टा है और ईश्वर का ही प्रतिबिम्ब है जो दिव्य प्रकाश स्वरूप है जिसका दर्शन ध्यान और समाधि में किसी को भी हो सकता है. जब तक कोई भी व्यक्ति स्वयं आत्मज्ञान पाने के लिए आत्म ध्यान नहीं करता तब तक कोई ग्रन्थ और गुरु उसका कल्याण नहीं कर सकते यह भगवान् शिव ने स्पष्ट रूप से ज्ञान संकलिनी तंत्र में कहा है ,-"यह तीर्थ है वह तीर्थ है ,,ऐसा मान कर पृथ्वी के तीर्थों में केवल तामसी व्यक्ति ही भ्रमण करते हैं. आत्म तीर्थ को जाने बिना मोक्ष कहाँ संभव है?" भीष्म पितामह ने भी महाभारत के युद्ध में शर शैय्या पर युद्धिष्ठिर को यही उपदेश दिया की सब से श्रेष्ठ तीर्थ मनुष्य का अंतःकरण और सब से पवित्र जल आत्मज्ञान ही है . इस ज्ञान को धारण कर जब पति पत्नी आध्यात्मिक तादात्म्य स्थापित कर दैहिक सम्बन्ध द्वारा किसी अन्य जीव आत्मा का आव्हान संतान के रूप में करते हैं तो वह सृष्टि के कल्याण के लिए महान यग्य संपन्न करते हैं . इसी ज्ञान को चरितार्थ करने के लिए भगवान् शिव और माता पार्वती के पुत्र गणेश ने जब विश्व की परिक्रमा करने का आदेश अपने पिताश्री से पाया तो चुप चाप अपने मूषक पर बैठ कर माता -पिता की परिक्रमा कर ली क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार माता पृथ्वी से अधिक गौरवशालिनी और पिता आकाश के सामान व्यापक कहा जाता है .
स्कन्द पुराण में भगवान् शिव ने ऋषि नारद को नाद ब्रह्म का ज्ञान दिया है और मनुष्य देह में स्थित चक्रों और आत्मज्योति रूपी परमात्मा के साक्षात्कार का मार्ग बताया है .स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीर प्रत्येक मनुष्य के अस्तित्व में हैं .सूक्ष्म शारीर में मन और बुद्धि हैं .
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
No comments:
Post a Comment