Monday, 20 April 2015

फिल्मी दुनिया की अजीबो-गरीब अंधविश्वास

अंधविश्वास एक प्रकार की मानसिक बीमारी मानी जा सकती है। जिस भी व्यक्ति में किसी भी प्रकार की मानसिक कमजोरी होती है वह व्यक्ति उस कमजोरी या मनोबल की कमी के कारण किसी भी प्रकार के अंधविश्वास की गिरफ्त में होता है। इस प्रकार ज्योतिषीय नजरिये से कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति का अगर तीसरा भाव कमजोर या विपरीत स्थान में हो तो ऐसा व्यक्ति बहुत आसानी से अंधविश्वास की चपेट में आ सकता है। यह तो व्यक्तिगत तौर पर हुई किंतु कई बार यही बात एक वर्ग विशेष या समुदाय विशेष पर भी लागू होती है इसका कारक भी इसी प्रकार के ज्योतिषीय कारण पर निर्भर करता है। जैसे किसी विशेष समुदाय या क्षेत्र विशेष से जुड़े लोग एक प्रकार के अंधविश्वास से पीडि़त देखें जाते हैं इसका कारण वही है कि जब किसी भी जातक की कुंडली में लगभग एक समान ग्रह स्थिति बनेगी तभी वह क्षेत्र विशेष या समुदाय विशेष से संबंधित होगा। अत: उनके पसंद-नापसंद या सोच समझ लगभग समान होगा। इस प्रकार से किसी भी व्यक्ति विशेष या समुदाय या क्षेत्र विशेष से जुड़े लोगों में व्यक्तिगत तौर पर या सामुहिक तौर पर एक समान विश्वास या अंधविश्वास हो सकता है। वैसे कई वर्षों से चली आ रही परंपराओं के कारण विश्वास-अंधविश्वास बनता है या कि उसमें कोई विज्ञान छुपा होता है? ये विश्वास शास्त्रसम्मत हंै या कि परंपरा और मान्यताओं के रूप में लोगों द्वारा स्थापित किए गए हैं? सवाल कई हैं जिसके जवाब ढूंढऩे का प्रयास कम ही लोग करते हैं और जो नहींं करते हैं वे किसी भी विश्वास को अंधभक्त बनकर माने चले जाते हैं और कोई भी यह हिम्मत नहींं करता है कि ये मान्यताएं या परंपराएं तोड़ दी जाएं या इनके खिलाफ कोई कदम उठाए जाएं और ऐसा ना सिर्फ अनपढ़ लोग करते हैं बल्कि खुद को आधुनिक बोलने वाले लोग भी ऐसा करते हैं। कुछ ऐसा ही फिल्मी दुनिया में भी चलन में हैं जिनमें से एक है- जनवरी के प्रथम सप्ताह में कोई फिल्म रिलीज ना करना।
31 दिसंबर की रात के बाद जो अगली सुबह होती है वो बड़ी अजीब सी होती है। थोड़ी अलसायी-सी, थोड़ी शांत और कुछ मुरझायी-सी। पूरी दुनिया के साथ फिल्मी सितारें भी झूमते हैं लेकिन ये व्यापारिक झूमना होता है जिसके एवज में मोटी कमाई होती है। नए साल में हर बात नयी होती है सिर्फ एक बात को छोड़कर। वो है, थियेटर में लगी फिल्म, हर साल में भी नये साल का नया शुक्रवार पुराना ही रहता है। ये बॉलीवुड का बहुत पुराना विश्वास है या यूं कहिये की अंधविश्वास है।
वैसे आंकड़ों को देखा जाए तो लगता है कि जनवरी के पहले हफ्ते रिलीज हुई फिल्म की नियति लगभग फ्लॉप होना ही रही है। पिछले पंद्रह सालों के आंकड़ो पर नजर डालें तो साल 2007 में कुडिय़ों का है जमाना और आई.सी.यू, दोनों फिल्में साल की शुरूआती त्रासदी रही। 2006में आई जवानी-दीवानी और 15 पार्क एवेन्यू। ये फिल्में भी पिट गई। 2005 में तीन मध्यम बजट की फिल्म रिलीज हुई जिसमें वादा, रोग और यही है जिंदगी शामिल थी। रोग में विदेशी चमड़ी का प्रदर्शन हुआ फिरभी, थियेटर खाली रहे। इसके अलावा वासु भगनानी की वादा और 'यही है जिंदगीÓ कब आई और गई पता नहींं चला। 2004 में रिलीज हुई इश्क है तुमसे, जिसने इन अंधविश्वासों को तोड़ा और फिल्म अच्छी चली। इसके अलावा 2003 में तलाश, 2002 में पिता, 2001 में गलियों का बादशाह और 2000 में आई, फिल्म जगत में अपने परफेक्शन के लिए पहचाने जाने वाले आमिर की 'मेला जिसमें उन्होंने अपने भाई फैजल को भी पर्दे पर उतारने की कोशिश की और अनिल कपूर, रजनीकांत की बुलंदी दोनों ही फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धड़ाम से गिरी। आमिर का परफेक्शन और अनिल रजनीकांत का इंप्रेशन भी कुछ कमाल नहींं कर सकी। इसके पहले 1999 में सिकंदर सड़क का, 1997 में आस्था, 1996में हिम्मत, जुर्माना, स्मगलर और 1994 में रिलिज हुई आंसू बने अंगारे सभी फ्लोप ही रहे। इस फेहरिस्त पर अगर नजर डाली जाए तो एक खास बात सामने आती है कि, पंद्रह साल में कोई ऐसी फिल्म रिलीज नहींं हुई जो हिट हो सकती थी। यानि जिन फिल्मों को फ्लॉप होना था वो ही फ्लॉप हुई। या यूं भी कहा जा सकता है कि इन पंद्रह सालों में किसी ने अच्छी फिल्म रिलीज करने की हिम्मत ही नहींं जुटाई। धीरे-धीरे ये विश्वास अमिट हो गया है कि जनवरी का पहला हफ्ता यानि फ्लॉप। बॉलीवुड का यह विश्वास कठोर होते-होते अंधविश्वास में तब्दील हो गया है।


Pt.P.S Tripathi
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